जमीन की बन्दोबस्ती के
जो कानून इस्ट इन्डिया कम्पनी ने बनाये थे उसके तहत कम्पनी को बड़ा आय तो होता ही था,
कर की अदायगी न होने के कारण जो नीलामियाँ होती थी उसमें भी कम्पनी के अधिकारियों को
ही जमीन, सम्पत्ति हासिल होती थी। उधर, बहुत सारे नाबालिग जमीन्दार-पुत्रों के हाथों
में जमीन्दारी आ रही थी या आने की संभावना बन रही थी। उनकी नासमझ ऐय्याशियों में जमीन्दारी
के बिक जाने में कम्पनी को खास फायदा नहीं था। इसीलिये, जैसा कि ब्रजेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय
जिक्र करते हैं कि सन 1854 के 11 नवम्बर को कानून बना जिसके तहत ‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’
की देखरेख में नाबालिग जमीन्दार-पुत्रों की शिक्षा की व्यवस्था’ होनी थी। सन 1856 के
मार्च महीने में वार्ड्स इन्स्टिट्युशन स्थापित किया गया। बनने के कुछ दिनों बाद कुछ
गण्यमान्य व्यक्ति इसके परिदर्शक या ‘विजिटर’ नियुक्त किये गये। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
भी एक ‘विजिटर’ थे। उन्होने कई बार वार्ड्स इन्स्टिट्युशन का परिदर्शन किया एवं अन्य
‘विजिटरों’ से मतभेद के कारण एक साथ प्रतिवेदन न देकर अपना स्वतंत्र प्रतिवेदन दिया।
सरकार ने और विशद में जाकर प्रतिवेदन देने को कहा तो फिर से अपने सुझावों को दुहराया।
सुझाव मुख्यत: चार बातों को लेकर था। एक, कि वार्ड्स का घर न होकर संस्था को बोर्डिंग-स्कूल
जैसा बनना चाहिये; दूसरा कि जमीन्दार-पुत्रों के लिये पाठ्यक्रम की सही व्यवस्था उनकी
आवश्यकता के अनुरूप बनाई जाय; तीसरा कि पढ़ाई के लिये आवश्यक संख्या में योग्य शिक्षक
नियुक्त किये जायें; और चौथा कि किसी भी स्थिति में बच्चों को मारा-पीटा नहीं जाय।
जो भी हो, न तो सरकार
का यह प्रयोग बहुत सफल रहा और न ही विद्यासागर उस संस्था के परिदर्शक बहुत दिनों तक
बने रहे। जीवनीकार ब्रजेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय बताते हैं कि शायद 1865 के 28 मार्च को
विद्यासागर आखरी बार वार्ड्स इन्सटिट्युशन परिदर्शन के लिये गये थे।
सरकार ने उच्चशिक्षा से
सम्बन्धित कमिटी में भी विद्यासागर को रहने के लिये अनुरोध किया था। लेकिन विद्यासागर
ने साफ कहा कि चुँकि वह ग्रंथकार हैं, पाठ्यपुस्तकों के लेखक हैं इसलिये उनका कमिटी
में रहना पाठ्यविषयों एवं पुस्तकों के चयन को प्रभावित करने के लिये प्रतीत होगा। अत:
वे कमिटी में नहीं रहेंगे।
‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’
पुस्तक के रचयिता तड़ित कुमार बंदोपाध्याय अपने पुस्तक में एक जगह विश्वरंजन पुरकाइत
द्वारा रचित ‘इन्डियन रेनेशाँ ऐन्ड एडुकेशन’ से उद्धृत करते है:
“He was patriot and a true nationalist. He was an ardent advocate of
non-official, secular and popular institution for higher education with a
purely Indian teaching staff. …
“Vidyasagar was fully conversant and acquainted with the then psychological
writings and researches in educational issues. He was dead against corporal
punishment of students and making adverse and uncharitable remarks in the class
which would wound the sentiments and personality development of the students.
He introduced summer vacation and Sundays as holidays.
“Many of the present-day educational issues can be traced back to the
days of Vidyasagar.”
इस अनुभाग को खत्म करते
करते यह बताते चलें कि, सन 1864 में विद्यासागर जर्मनी स्थित प्राच्यविद्या केन्द्र
Deutscher Akademischer Austanschdienst के सदस्य चुने गये थे। उसी वर्ष वह Royal
Asiatic Society के भी सदस्य चुने गये। सन 1880 में अंग्रेज सरकार ने उन्हे सी॰आई॰ई॰
(कॉम्पैनियन ऑफ इन्डियन एम्पायर) की उपाधि से भूषित किया था (लोगों के पूछने पर कि
यह सी॰आई॰ई॰ होता क्या है, वह कहते थे ‘छाई’ यानी राख)। सन 1883 में विद्यासागर पंजाब
विश्वविद्यालय के ‘फेलो’ मनोनीत हुये थे।
No comments:
Post a Comment