विद्यासागर सामान्य अर्थों में विचारों के प्रचारक नहीं थे। जूझे गये सामाजिक
संघर्षों के लिये आवश्यक युक्तियों और तर्कों के अलावा उन्होने वैचारिक बातें नहीं
के बराबर की। चाहे किसी विद्वान आदमी के साथ हों या अनपढ़ के साथ, वह या तो काम की बात
करते थे या नहीं तो निर्मल हास्य की बातें।
रामकृष्ण परमहंस के दैनिक जीवनचर्या (जिसे भक्तलोग लीला कहते हैं) के कुछ प्रसंगों
पर आधारित सुविख्यात पुस्तक ‘रामकृष्ण कथामृत’ के रामकृष्ण परमहंस का विद्यासागर के
साथ मुलाकात का प्रसंग है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के यह कहने पर कि ‘आज सागर के पास आया
हूँ। अब तक तो नहर, झील और नदियों के पास गया था। अब सागर को देख रहा हूँ।’ विद्यासागर
ने कहा, “अब आये हैं तो थोड़ा नमकीन पानी ले जाइए।”
कभी कभी उस हास्य में तीव्र श्लेष हुआ करता था। कहा जाता है कि जब विधवाविवाह
के सवाल पर आन्दोलन का नेतृत्व देने के कारण वह कर्ज में डूब रहे थे (यहाँ तक कि सरकारी
नौकरी त्याग देने के बरसों बाद उन्हे दोबारा सरकारी नौकरी के लिये व्यक्तिगत अनुरोध
करना पड़ा था, जो संयोगवश हो नहीं पाया), एवं उन पर जानलेवा हमले भी हो रहे थे, तब,
अधिक उम्र की एक व्यक्ति के साथ एक कन्या के विवाह में निमंत्रित के तौर पर पहुँच कर
उन्होने कन्या को आशीर्वाद देते हुये कहा, “…… आयुष्मति होवो, विधवा होवो, ताकि मैं
दोबारा तुम्हारा विवाह दे सकूँ!”
पुलिस के एक अधिकारी ने व्यक्तिगत समस्या से घिर कर उनसे रुपये कर्ज में लिये
थे। घर में रुपये न होने के बावजूद उन्होने रुपये जुगाड़ कर दिये। बाद में, जब वह अधिकारी
रुपये लौटाने के लिये पहुँचे तो विद्यासागर नकली क्षुब्ध भाव चेहरे पर लाकर बोले, “तुम
मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय कर सके? तुम तो पुलिस के आदमी हो!” वह अधिकारी को भौंचक देख
कर विद्यासागर ने कहा, “आज तक तो कोई मेरा दिया हुआ कर्ज वापस करने आया नहीं! मैं तो
समझता था कि यही न्याय है!”
अगर किसीने कहा कि विद्यासागर, अमुक आपकी निन्दा में यह यह बोल रहा था, तो विद्यासागर
कहते थे, “जरा याद करने दो कि मैंने उसका कब क्या उपकार किया था।”
साहित्य में भी, तार्किक विचारों या सैद्धान्तिक प्रसंगों से बाहर उनकी भाषा
हास्यमय होती थी। खास कर यह भाव उन पुस्तकों में दिखता है जो, विधवाविवाह या बहुविवाह
के खिलाफ आवाज उठाने के कारण, उन पर पंडितों द्वारा हो रहे साहित्यिक आक्रमण के खिलाफ
लिखे थे।
रवीन्द्रोत्तर काल के प्रसिद्ध लेखक प्रमथनाथ बिशी लिखते हैं, “ईश्वरचन्द्र सिर्फ
विद्यासागर या करूणासागर नहीं, रससागर भी थे। बंगाल के सर्वश्रेष्ठ wit थे वे एवं
polemics की रचना के वह राजा थे यह बात तो शायद आज कोई अस्वीकार नहीं करेगा।”
खैर, हम विषय पर आयें। एक पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘वैज्ञानिक’ या ‘तर्कपूर्ण’
सोच आधुनिक काल की उत्पत्ति है। लेकिन जीवन के विकास के चरणों के अनुरूप, सोच व काम
में ‘वैज्ञानिकता’ एवं ‘तर्कपूर्णता’ मानवसभ्यता के साथ साथ आगे बढ़ी है। प्रौद्योगिकी
का ज्ञान भी उसी तरह आगे बढ़ा है। किसी भी नया काम के बारे में सोचते हुये व्यक्तिमानव
को सामान्यत: दो पहलुओं पर पुरानी सोच को अस्वीकार करना पड़ा होगा, (1) बाधक रूढ़ियों
व रिवाजें और (2) यथास्थिति की शाश्वतता एवं नियति या भाग्य। साथ ही, एक पहलू पर नये
सोचों को भी अस्वीकार करना पड़ा होगा - (3) उपरोक्त दोनों के विरोध में उच्छृंखलता या
उच्छृंखल वैचारिक प्रहार।
विज्ञान में जो तीव्र विकास हुये आधुनिक काल में, उसके कारण यह पृथ्वी, उस पर
जीवन एवं वस्तुजगत काफी दूर तक नजर आने लगा और हम वैज्ञानिक सोच की बात करने लगे। लेकिन
उसके मूल तत्व आज भी उपरोक्त ही हैं। बस नई भाषा में हम कहते हैं, तमाम अंधविश्वासों,
कूप्रथाओं रूढ़िवाद का विरोध, जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने में सामूहिक सहकार्य एवं
अतिवाद या उग्रवाद का विरोध आदि आदि।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण सोच तो सबसे पहले इसी में
दिखाई पड़ता है कि मातृभाषा में आधुनिक ज्ञान-आधारित शिक्षा एवं नारीशिक्षा को उन्होने
अपने जीवन का प्रथम ध्येय बनाया। शिक्षण में सुधार हेतु लगातार संघर्ष करते रहे – पाठ्यक्रम
में सुधार, पाठ्यपुस्तकों में सुधार, गाँव गाँव में आधुनिक विद्यालय का प्रसार, उन
विद्यालयों के लिये प्रशिक्षित शिक्षक की व्यवस्था, शिक्षकों के बेहतर वेतन एवं छात्रों
को पाठसामग्री हेतु अधिक राशि के अनुदान की स्वीकृति …। लेकिन साथ ही, जब श्रीमती कार्पेन्टर
के एवं ब्राह्मो समाज के कहने पर शिक्षिकाओं के लिये नॉर्मल स्कुल की व्यवस्था, बिना
सामाजिक ताकतों की सहमति प्राप्त किये होने लगी, उन्होने तत्काल विरोध किया और कहा
कि यह व्यवस्था असफल होगी। हुआ भी यही, तीन साल के अन्दर वह स्कूल बन्द हो गया। सिर्फ
यही नहीं, जब संस्कृत कालेज में विद्यासागर नया रास्ता निकालने के लिये शास्त्रों का
अध्ययन कर रहे थे और शास्त्रज्ञों तथा सामाजिक नेताओं से लोहा ले रहे थे, दीवार के
उस पार हिन्दु कालेज के छात्र एवं डिरोजिओ के क्लासों की प्रेरणा से लैस भूतपूर्व छात्र
पुराने हिन्दु समाज की ऐसी की तैसी कर रहे थे। उन से विद्यासागर की अच्छी मित्रता थी।
बंगला के महाकवि माइकल मधुसूदन दत्त को जिस तरह से उन्होने मदद किया एवं जीवन बचाया
वह आज एक दंतकथा है। लेकिन उस उच्छृंखलता के नक्शेकदम पर विद्यासागर चले ही नहीं।
बांग्लादेश के विख्यात विद्वान अहमद शरीफ कहते हैं, “दर असल हिन्दु कॉलेज में
शिक्षाप्राप्त यंग बेंगॉल [युवा बंगाल] ने ही अशिक्षा, बालविवाह, बहुविवाह, एवं विधवाविवाह
के मुद्दों पर मौखिक तथा लिखित चर्चा के माध्यम से आन्दोलन का प्रारंभ किया। लेकिन
उनके लिये ये बातें सुरुचि व संस्कृति से सम्बन्धित समस्याओं की तरह राष्ट्रीय शर्म
जैसी थीं। यंग बेंगॉल के ये शौकीन द्रोही हिन्दू व हिन्दू चालचलन के सभी बातों की निन्दा करते थे और
उपरोक्त मुद्दे भी उन्ही के अन्तर्गत थे। ये लोग चालीस की उम्र पार कर जाने के बाद
खुद कट्टर हिन्दू बन गये या निष्ठावान ब्राह्म बन गये और उसी में तुष्ट रहे। बल्कि
शायद पहली जवानी के उद्धत आचरणों के लिये लज्जित एवं अनुताप ग्रस्त भी हुये थे। फलस्वरूप,
जो विद्यासागर के लिये उनके खुद के अस्तित्व जैसा ही सत्य था, डिरोजिओ की दीक्षा से
गुजरे यंग बेंगॉल के लिये वह उम्र के तकाजे से जन्मा शौकीन सांस्कृतिक तेवर था। वे
विद्वान थे, बुद्धिमान थे; उनमें से कई विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता
एवं लेखक भी थे, लेकिन विद्रोही नहीं रहे। मानवतावादी विद्यासागर मानव के कल्याण में,
‘जरूरत पड़ने पर प्राण त्यागने भी पीछे हटने वाले नहीं’ थे। इसी लिये विद्यासागर श्रेष्ठ,
महान एवं अनन्य थे।”
सन 1853 में बैलेन्टाइन साहब के एक पत्र के जबाब में उन्होने लिखा, “जनता में
शिक्षा का प्रसार – यह हमारी मुख्य आवश्यकता है। हमें कुछ बंगला विद्यालय स्थापित करने
होंगे। इन सब विद्यालयों के लिये आवश्यक एवं शिक्षाप्रद विषयों पर कुछ पाठ्यपुस्तकों
की रचना करनी होगी, शिक्षकों का दायित्वपूर्ण कर्तव्य का भार ले सके ऐसे कार्यकर्ताओं
का एक दल का सृजन करना होगा – तभी हमारा उद्येश्य सफल होगा। मातृभाषा का पूरी जानकारी,
तथ्यों का यथेष्ट ज्ञान, देश में व्याप्त अंधविश्वासों के कब्जे से मुक्ति – शिक्षकों
में ये गुण रहने चाहिये। इस तरह के आवश्यक आदमियों का निर्माण ही मेरा उद्येश्य एवं
संकल्प है।”
उसी तरह, उनकी वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच विधवाविवाह जैसे समाजसुधार के कामों
को आगे बढ़ाने के तरीके में भी दिखाई पड़ती है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि खुद जातिगत
भेदभाव की भावना से ग्रसित न होकर भी उन्होने यह कह कर शुरुआत नहीं की कि जब 74% को
विधवाविवाह से कोई समस्या नहीं तो 26% को क्यों? जातिप्रथा के अन्तर्गत पूरे समाज पर
ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को वह जानते थे। इसीलिये सबसे पहले उस सांस्कृतिक
वर्चस्व का प्रमुख हथियार, शास्त्रों का ही उन्होने अध्ययन किया एवं उसी का इस्तेमाल
भी किया गिद्ध बने बैठे ढोंगी शास्त्रज्ञों के खिलाफ। फिर उन्होने समर्थन में खास कर
वैसे लोगों को जुटाया जो नामचीन और पैसे वाले होने के कारण सरकार को प्रभावित करने
की क्षमता रखते थे। फिर उन्होने सरकार को आवेदन किया। आवेदन की भाषा भी पूरी तरह कार्यनीतिक
है, भावनात्मक नहीं। उसके आगे उन्होने एक तरफ वो मुहिम चलाया जिसे आज की भाषा में हम
हस्ताक्षर अभियान कहते हैं। दूसरी तरफ अपनी कलम से वह लगातार उन कुतर्कों और व्यक्तिगत
लांछनाओं का जबाब देते रहे जो उन्हे रोकने के लिये बरसाये जा रहे थे। आज भी एक व्यक्ति
नागरिक, खास कर बुद्धिजीवी के लिये किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर लड़ने, आवाज को
आगे बढ़ाने का यह तरीका उतना ही प्रासंगिक और शिक्षणीय है, जितना कल था। आज तो कई संगठन
हैं, मंच हैं, उन्नीसवीं सदी के मध्य में तो कुछ भी नहीं था।
पिछले अध्याय में तड़ित कुमार बंदोपाध्याय द्वारा लिखित ‘चिकित्सक विद्यासागर’
शीर्षक लेख लेखक के जिस पुस्तक से लिया गया था, उसी पुस्तक, ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’
के एक और लेख की हम मदद लेंगे। लेख का शीर्षक है ‘विज्ञानमनस्कतार अनुशीलने विद्यासागर’
[वैज्ञानिक सोच के अभ्यास में विद्यासागर]। इस लेख में लेखक ने प्रख्यात वैज्ञानिक-चिंतक
जुलियन हक्सले के विचारों को उद्धृत करते हैं:
“The conflict between science and human nature can
only be reconciled in an attitude and a temper of mind which may fittingly be
called scientific humanism.”
आगे लेखक वैज्ञानिक मानवतावाद के गिनाये गये कई विशेषताओं में से दस विशेषताओं
को चुनते हैं, एवं उन दस विशेषताओं की कसौटी पर विद्यासागर के कर्मजीवन एवं चरित्र
की व्याख्या भी करते हैं।
संस्कारों से मुक्त चेतना
– जब आज भी जातिगत, धार्मिक एवं लैंगिक भेदभाव इतना
अधिक व्याप्त है कि संस्कारमुक्त चेतना की पहली शर्त होती है उनसे मुक्त होना, तो उस
समय क्या स्थिति रही होगी यह सोचा जा सकता है। जबकि, विद्यासागर का पूरा जीवन ही संस्कारमुक्त
चेतना का उदाहरण है। धर्म एवं जाति पर आधारित भेदभाव को वह कभी भी नहीं माने। मुसलमान
का घर हो या चमार का घर हो, उन्हे देखभाल, सेवा, दवा-भोजन आदि की जरूरत हो तो विद्यासागर
बेझिझक उनके यहाँ पहुँच जाते थे और अपने हाथों से उनकी सेवा करते थे। उन परिवारों के
बच्चे विद्यासागर के गोद में खेलते रहते थे।
व्यक्तिगत बातचीत में विद्यासागर कहते थे कि कोई अगर उन्हे ब्राह्मण पंडित समझता
है तो उन्हे अत्यंत अपमान का बोध होता है।
नारीशिक्षा एवं नारीजीवनस्थिति में सुधार के कामों को वह बिल्कुल आधुनिक सन्दर्भों
में, स्त्री-पुरुष बराबरी तक पहुँचने के चरणों के रूप में देखते थे। पूरी उन्नीसवीं सदी के भारत में नारीमुक्ति के पुरोधा
व्यक्तित्वों में बंगाल के दो नाम सबसे अधिक जाने जाते हैं, राममोहन राय एवं ईश्वरचन्द्र
विद्यासागर।
वह संस्कृत शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान थे। उनके ज्ञान का लोहा उनके शिक्षक
मानते थे। संस्कृत कॉलेज के लिये नये पाठ्यक्रम के निर्माण के समय उन्होने अंग्रेजी
भाषा, आधुनिक विज्ञान एवं मातृभाषा के साथ साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान के पठन को भी अहमियत
दिया था। लेकिन, उस ज्ञान को लेकर कोई अंधश्रद्धा नहीं थी उनमें। सन 1853 में, उनके
पाठ्यक्रम सम्बन्धी प्रस्तावों में कुछ रद्दोबदल कर अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि बैलेन्टाइन
साहब ने उन्हे वापस भेज दिया। उन रद्दोबदल को मानने से इन्कार करते हुये विद्यासागर
ने काउन्सिल ऑफ एडुकेशन को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होने कहा, “यह अब विवाद का मुद्दा
नहीं है कि वेदान्त एवं सांख्य, दर्शन की भ्रामक प्रणालियाँ हैं।”
बाद में, रवीन्द्रोत्तर युग के प्रख्यात बंगला साहित्यकार प्रमथनाथ बिशी ने कहा,
“मुझे तो लगता है कि खुलेआम वेदान्त को भ्रांत दर्शन घोषित करना ही दु:साहसी विद्यासागर
का सबसे दु:साहसिक कार्य है। इसकी तूलना में विधवाविवाह का समर्थन या बहुविवाह का विरोध
आदि तो बच्चों का खेल है! उस एक वक्तव्य के द्वारा उन्होने भारत के, युगों से संचित
संस्कार एवं अहंकार की जड़ पर चोट किया है।”
राष्ट्रीयता का बोध – राष्ट्रीयता का बोध विद्यासागर में कितना था वह तो उसी
वाकया से पता चल जाता है जिसका जिक्र इस पुस्तक के प्रारंभ में किया गया है, कि अंग्रेज
साहब के जूता समेत पैर टेबुल पर रख कर विद्यासागर से बात करने के जबाब में विद्यासागर
का भी टेबुल पर चप्पल समेत पैर रख कर अंग्रेज साहब से बात करना। चाहे हैलिडे साहब का
व्यक्तिगत निमंत्रण हो या एशियाटिक सोसायटी का संस्थागत निमंत्रण – वह अपना धोती, चादर
और चप्पल नहीं छोड़े। जब एशियाटिक सोसायटी ने उनके लिये नियमों में छूट दिया तब भी नहीं।
उन्होने साफ कहा कि सिर्फ मेरे लिये नहीं सबके लिये नियम बदलना पड़ेगा आपको। नियम नहीं
बदला तो फिर कभी गये ही नहीं एशियाटिक सोसायटी के ग्रंथागार में।
हालाँकि हैलिडे के व्यक्तिगत निमंत्रण पर एवं उनके अनुरोध पर, जैसा कि विद्यासागर
के जीवनीकार इन्द्र मित्र कहते हैं, विद्यासागर दो-एक बार पैंट, चोगा, पगड़ी वगैरह पहन
कर गये थे। लेकिन उन्हे यह सब पहन कर स्वांग जैसा लगता था, लगता था कि वह चोरी किये
हुये हैं। लोगों की नजरें बचा कर जाते थे। एक दिन हैलिडे को उन्होने कहा कि यही आपसे
से मेरी आखरी भेँट है। हैलिडे के पूछने पर विद्यासागर बोले कि इन कपड़ों को पहनना उनके
लिये असंभव है। तब हैलिडे बोले कि ठीक है, जो कपड़े आपको पसन्द हों उन्ही कपड़ों में
आइयेगा।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा, “जिन चप्पलों में, मोटे कपड़ों की धोती और चादर में
ब्राह्मणपंडित को हर जगह सम्मान मिलता है, विद्यासागर राजा के दरवाजे पर भी उन्हे त्यागने
की जरूरत नहीं महसूस किये। … हमारे इस अपमानित देश में ईश्वरचन्द्र जैसे अखंड पौरुष
के आदर्श का कैसे जन्म हुआ, हम बता नहीं पाते हैं।”
इस बोध में एक और बात भी है। राष्ट्रीयता का बोध तो पारम्परिक हिन्दु या मुसलमान
पोशाक में भी उजागर हो सकता था – जैसा राजा या जमीन्दार लोग पहनते थे। लेकिन विद्यासागर
के लिये राष्ट्रीयता का बोध देश की गरीबी और बदहाली के प्रति जागरुकता की अभिव्यक्ति
थी। इसीलिये उन्होने उस पोशाक को बनाये रखा – अपनी जनता से जुड़े रहने के लिये। यही
सोच 75-80 साल के बाद महात्मा गांधी में हमने देखा।
उनके शिक्षादर्शन में राष्ट्रीयता की चेतना को उजागर करते हुये बी॰ आर॰ पुरकाइत
ने अपने पुस्तक ‘इन्डियन रेनेशाँ ऐन्ड एडुकेशन’ में जो लिखा है, उसकी चर्चा पूर्व के
एक अध्याय में हो चुकी है।
उन्ही के बनाये पाठ्यक्रमों के अनुसार पढ़ाई कर, उन्ही के
लिखे प्राईमर व कई पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन कर, उन्ही के द्वारा स्थापित विद्यालयों
का छात्र व छात्रायें बन कर बंगाल की अगली पीढ़ी स्वदेशी आन्दोलन सहित भारत के राष्ट्रीय
आन्दोलन की नींव रची।
यह सही है कि भारत में अंग्रेजी राज के बारे में अलग से
उन्होने अपने विचार नहीं रखे। लेकिन वह क्या सोचते थे इसकी ओर समाजवैज्ञानिक अशोक सेन
ने अपने ग्रंथ ‘विद्यासागर ऐंड हिज इल्युसिव माइलस्टोन’ में पाठकों का ध्यान आकर्षित
किया है। और इसकी चर्चा तड़ितबाबु अपने पुस्तक ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’ में करते
हैं:
“पलाशी के युद्ध का वर्णन करते हुये ‘बंगाल का इतिहास’
[विद्यासागर रचित] में विद्यासागर लिखते हैं, ‘अगर मीरजाफर विश्वासघाती नहीं होते और
ऐसे वक्त में इस किस्म का धोखा नहीं देते तो क्लाइव [लॉर्ड क्लाइव] के विजयी होने की
कोई सम्भावना नहीं होती।’ फिर नन्दकुमार [महाराजा नन्दकुमार] की फाँसी की घटना की चर्चा
करते हुये लिखते हैं, ’सही है कि नन्दकुमार दुराचारी थे, लेकिन नि:सन्देह, इम्पी एवं
हेस्टिंग्स इससे अधिक दुराचारी थे।’”
एक वाकया तो हिन्दी के पाठक भली भाँति जानते हैं। दीनबंधु
मित्र रचित ‘नीलदर्पण’ नाटक का मंचन चल रहा था। विद्यासागर पहुँचे नाटक देखने। नाटक
में किसानों पर अंग्रेज साहब का अत्याचार देख कर वह इतने विचलित हुये कि अपने पैर का
चप्पल खोलकर मंच पर खड़े अंग्रेज की भूमिका में अभिनय करने वाले अभिनेता को फेंक कर
मारे। (यह अलग प्रसंग है कि बंगाली नाट्यमंच का वह प्रख्यात अभिनेता उस चप्पल को माथे
पर उठा लिया और कहा कि यह उनके अभिनयजीवन का श्रेष्ठतम पुरस्कार है।)
सन 1872 में हितकारी उद्येश्य से ‘हिन्दु फैमिली ऐनुइटी
फन्ड’ की स्थापना की गई थी। विद्यासागर इस योजना की स्थापना काल से ही घनिष्ठ तौर पर
इसे विकसित करने के काम में शरीक थे। लेकिन बाद में इस फन्ड को चलानेवालों ने फन्ड
के प्रबन्धन में जो अनियमिततायें कीं एवं फन्ड के नियमों का जो उल्लंघन किया उसके कारण
विद्यासागर ने सन 1876 में फन्ड से अपना सारा सम्बन्ध तोड़ लिया। इस्तीफे का कारण पूछे
जाने पर जो पत्र उन्होने भेजा उस पत्र के अंत में लिखा:
“जो व्यक्ति जिस देश में जन्म लेता है, उस देश का हित साधने
के लिये अपने साध्य के अनुसार प्रयास और यतन करना उसका परम धर्म एवं जीवन का प्रधानतम
कर्म होता है …”
प्रतिवादी सोच – प्रतिवादी सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है सरकारी नौकरी से
इस्तीफा। संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य के पद से, परीक्षा के परिषद से एवं विद्यालयों
के इन्स्पेक्टरी से इस्तीफा। वह भी सिर्फ इस कारण से कि अंग्रेज सरकार 1857 के विद्रोह
के दमन के बाद शिक्षा पर खर्च कम कर दिया था एवं विद्यासागर ने जो प्रस्ताव दिये थे
उसे मानने से इन्कार कर दिया था। उनके साथ जिस अंग्रेज अधिकारी के अच्छे सम्बन्ध थे
वह जानते थे कि विद्यासागर अपने फैसले से डिगेंगे नहीं, तो उन्होने थोड़े दिन और रुक
जाने को कहा ताकि पेंशन की योग्यता की अवधि पूरी हो जाय। पर विद्यासागर ने वह भी नहीं
माना, और पेंशन त्याग दिया।
यह तेवर उनका आजीवन रहा। इसके पहले हमने जिक्र किया कि किस तरह उन्होने एशियाटिक
सोसायटी के तथाकथित ‘ड्रेस कोड’ का प्रतिवाद किया था। संस्कृत कॉलेज में उनकी पहली
नियुक्ति के बाद जो उन्होने पहली बार शिक्षण-पद्धति व पाठ्यक्रम में सुधार के प्रस्ताव
दिये थे उसे कॉलेज के तत्कालीन सचिव रसमय दत्ता ने अस्वीकार कर दिया था। कहा जाता है
कि विद्यासागर का पदत्याग पत्र प्राप्त करने के बाद रसमय दत्ता ने सामने वाले से पूछा
था, “इस्तीफा देगा तो वह खायेगा क्या?” दूसरों से यह सवाल सुन कर विद्यासागर ने जबाब
दिया था, “रसमय दत्त को बोलना कि विद्यासागर बाजार में आलु-परवल बेच कर रोजगार करेगा,
पर अपनी राय बेच कर नौकरी नहीं करेगा।”
यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके प्रतिवाद कभी भी व्यक्तिगत हित के लिये नहीं
बल्कि देशहित में हुआ करते थे।
आधुनिकता – क्या विद्यासागर आधुनिक थे? क्या धोती, चादर, चप्पल
पहना संस्कृत के विद्वान यह ब्राह्मण आधुनिक कहलायेगा? आधुनिकता पर लगातार बात करते
रहने के कारण अक्सर हम इसे देश-काल निरपेक्ष एक व्ययक्तिक एवं सामाजिक विशेषता के रूप
में देखना शुरु कर देते हैं। जबकि यह देश और काल दोनों के सापेक्ष है। जब हम आधुनिकता
की बात करें तो भारत के एवं बंगाल के उन्नीसवीं सदी के विकासक्रमों के सन्दर्भों में
करें।
उन्नीसवीं सदी के चौथे, पाँचवें दशक के कलकत्ता में किसी निम्नमध्यवर्गीय पढ़े
लिखे ब्राह्मण युवा के लिये आधुनिक होने का अर्थ था कई सारी चुनौतियों को चिन्हित करना
एवं स्वीकारना। एक तरफ उसे अंग्रेजों के आगमन के ‘मुक्तिदायी प्रभावों’ को आत्मसात
करना था एवं उसकी बौद्धिक ताकत से परम्परा के ‘बाधक प्रभावों’ को चिन्हित कर एवं तोड़
कर बाहर निकलना था। दूसरी ओर इसी प्रक्रिया के अगले पल में उसे अंग्रेज शासन के ‘बाधक
प्रभावों’ का सामना करने के लिये परम्परा की ताकत का इस्तेमाल करना था। विद्यासागर
के समकालीन बौद्धिक समाज के सभी व्यक्ति कमोबेश इस प्रक्रिया से गुजरे। पूरा योरोपीय
बनना चाहने वाले माइकल मधुसूदन दत्त भी बंगाल और बंगला भाषा की ओर लौट आये। विद्यासागर
उन सभी में एक सर्वाधिक अनुकरणीय आदर्श के रूप में उभरे क्योंकि सबसे बेहतर ढंग से
उन्होने इस प्रक्रिया से गुजरने का रास्ता बताया। अंग्रेजों के आगमन के कितने प्रभावों
को ‘मुक्तिदायी’ समझें एवं उसकी ताकत को कैसे आत्मसात करें। परम्परा के ‘बाधक प्रभाव’
किन्हे मानें एवं उनको तोड़ कर कैसे बाहर निकलें। फिर अंग्रेज शासन के बाधक प्रभावों
का सामना करने के लिये परम्परा की ताकत का कैसे इस्तेमाल करें। माइकल मधुसूदन दत्त
ने खुद विद्यासागर के वारे में कहा था, “द फर्स्ट मैन एमॉंग अस” [हमारे बीच पहला आदमी]।
अभी यह चेतना अंग्रेज शासन को गुलामी मानने को तैयार नहीं हो पाई थी। क्योंकि,
अन्तत: यह शहरी मध्यवर्ग की चेतना थी। हाँ इसी मध्यवर्गीय चेतना में विद्यासागर की
धारा जनता के कल्याण के बारे में सबसे आगे बढ़कर सोचने वाली एवं काम करने वाली थी।
कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा, “विद्यासागर की आधुनिकता की सिर्फ यही पहचान
नहीं है कि उन्होने कुरीतियों के किले पर हमला किया। … वह खुद संस्कृतशास्त्र के विशेषज्ञ
थे फिर भी वही मुख्यत: वर्तमान योरोपीय विद्या की ओर छात्रों को आगे बढ़ाने का बीड़ा
उठाये थे, और अपने उत्साह एवं प्रयास से पाश्चात्यविद्या का आहरण किये थे … विद्यासागर
महाशय की आधुनिकता के इस गौरव को स्वीकारना होगा। वह नवीन थे एवं हमेशा नवीन रहने वाले
के नाम से हुआ उनका अभिषेक उन्हे ताकतवर बनाया था। उनकी यह नवीनता ही मेरे लिये सर्वाधिक
पूजनीय है।”
तर्कवाद – तर्कवाद या तार्किक विचार पद्धति आधुनिकता का सबसे महत्वपूर्ण
अंग है। कोई जरूरी नहीं कि हर आदमी हर विषय को हमेशा तर्क के द्वारा सिद्ध कर पाये
या न्यायसंगत, युक्तिसंगत ठहरा सके। न सब कोई एक ही उँचाई का ज्ञानी है और न ही बराबर
के हुनर वाले तर्कविद्या के शिल्पी। बड़ा से बड़ा वकील भी क्रॉस एक्जामिनेशन में चूक
सकता है क्योंकि वह एक अन्तर्भेदी कला है। लेकिन, अगर कोई, किसी भी बात को बिना पूछे,
बिना तहकीकात किये, बिना तर्क किये मानने से इन्कार करे, अगर हर तरफ उसकी पहली दृष्टि
सन्देह की हो और ज्ञान के अभाव में सन्देह के दंश को झेलते हुये भी अपने कर्म में आगे
बढ़ना श्रेयष्कर समझे तर्कहीन आस्था के वजाय – तभी वह आधुनिक मनोवृत्ति वाला आदमी कहलायेगा।
विद्यासागर इस निर्मम कसौटी पर भी खरे उतरने वाले व्यक्ति थे। उनके द्वारा रचित
पाठ्यपुस्तक ‘बोधोदय’ कई अंग्रेजी पुस्तकों से सामग्रियाँ लेकर रचा गया साधारण ज्ञान
का संकलन है। जीवजगत, मनुष्यशरीर, समाज, ब्रह्माण्ड आदि विषयों पर संक्षिप्त परिचयमाला
है। कहा जाता है कि इसके पहले संस्करण में ‘ईश्वर’ का कोई परिचय नहीं था। फिर किसी
ने यह सवाल उठाया। कोई रचनाकार ख्यात साधक संत विजयकृष्ण गोस्वामी का नाम लेते हैं
तो दूसरे, किसी अंग्रेज का नाम लेते हैं। जिसने भी उठाया हो, सवाल यही था कि जब पूरे
जगत का परिचय है तो विद्यासागर ने ईश्वर का परिचय क्यों नहीं दिया। यह भी कहा गया कि
इस पुस्तक को पाठ्यपुस्तक नहीं बनाया जाना चाहिये। इसे पढ़ने से छात्र बिगड़ जायेंगे।
तब विद्यासागर ने अगले संस्करण में ‘पदार्थ’ के बाद एवं ‘चेतन पदार्थ’ के पहले ‘ईश्वर’
का परिचय दिया – सृष्टिकर्त्ता, निराकार चैतन्यस्वरूप, अदृश्य, सर्वत्र विराजमान, परम
दयालु, जीवजगत के रक्षाकर्ता… ।
इस बात को लेकर पिछले 100 वर्षों में काफी बहस हुये हैं कि विद्यासागर आस्तिक
थे या नास्तिक थे या संशयवादी थे या अज्ञेयतावादी थे। उनकी जीवनी के सभी रचनाकार एवं
उनके कर्मों के विभिन्न अध्ययनकर्ता विभिन्न प्रसंगों, विभिन्न व्यक्तियों के साथ की
गई उनकी बातचीत की चर्चा करते हैं यह बताने कि ईश्वर के प्रति उनका क्या रुख था। उन्हे
पढ़ कर वे गौतम बुद्ध या बौद्धदर्शन के करीब दिखते हैं। जिस तरह बुद्ध के दर्शन में
जगत की व्याख्या के कार्यकारण सम्बन्धों में कहीं भी ईश्वर या किसी अन्य नाम के सर्वव्यापी
सर्वशक्तिमान स्रष्टा की जरूरत नहीं पड़ती है, उसी तरह ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सांसारिक
दिनचर्या व कर्मजीवन के नियोजन में कहीं भी किसी सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान नियंता की
जरूरत नहीं पड़ती है कि ‘उसका आशीर्वाद प्राप्त न हो तो काम रुक जाये’ – अगर स्रष्टा
हैं तो हैं, फिलहाल ‘मेरी जिन्दगी के जद्दोजहद में उनके होने या न होने से कोई फर्क
नहीं पड़ता है’।
इस ईश्वर-प्रसंग से अलग, अगर उनके पूरे जीवन की कर्मपद्धति पर गौर किया जाय तो
सिर्फ तार्किक प्रवृत्ति और युक्तिसंगति पर जोर ही हर जगह नजर आयेगा। चाहे वह शिक्षा-व्यवस्था
पर किया गया काम हो या विधवाविवाह रोकवाने के लिये किया गया काम हो, उनकी योजनाबद्ध
काम का तरीका हर कदम पर दिखेगा।
सांगठनिक प्रवृत्ति – हक्सले द्वारा गिनाये गये वैज्ञानिक मानवता के लक्षणों
में इसे भी गिना गया है। यह एक वैज्ञानिक मनोवृत्ति है। भावना में बहने वाले व्यक्ति
को लगता है कि उस से अकेले ही सब कुछ हो जायेगा। यह भी लगता है कि अकेले उसका चलना
शुरू होगा तो लोग खुद व खुद जुड़ते चले जायेंगे; इसके लिये लोगों से पूछने की क्या जरूरत?
लेकिन वैज्ञानिक सोच रखने वाला व्यक्ति लोगों को संगठित करता है क्योंकि वह जानता है
कि सही और गलत सिर्फ सैद्धांतिक नहीं सामाजिक कसौटी पर भी तय करना पड़ता है, यानि सामान्य
जन के लिये स्वीकार्य बनाना पड़ता है। तभी सत्य और न्याय आगे बढ़ता है और मिथ्या, भ्रम,
अन्याय पीछे छूटता जाता है।
विद्यासागर में सांगठनिक प्रवृत्ति तो शुरू से ही थी। पूर्व के अध्यायों में
भी आप देखेंगे कि उन्होने जब भी किसी सामाजिक कार्य का बीड़ा उठाया, पहले अध्ययन व लेखन
के द्वारा उस विषय के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट करने एवं दूसरों से साझा करने
के बाद उन्होने तुरंत या तो लोकबल को संगठित किया है या/एवें अपने सक्षम सहयोगियों
को ढूंढ़ निकाल कर काम का जिम्मा सौंपा है। विद्यालयों के विशेष परिदर्शक बनने के बाद
अविलम्ब उन्होने सहयोगी परिदर्शकों को नियुक्त किया। विधवाविवाह के सवाल पर सरकार को
पत्र भेजने के लिये लगभग एक हजार हस्ताक्षर उन्होने जुटाया। उसके बाद भी औरों को सामूहिक
आवेदन पर हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिये प्रेरित करते रहे। उनकी सांगठनिक प्रतिभा
का श्रेष्ठतम निदर्शन था मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन। कितनी अद्भुत सी बात है कि प्रचलित
परम्पराओं के विपरीत छात्रों को किसी भी तरीके की दैहिक यातना देने पर सख्त रोक लगाने
तथा शिक्षकों को सबसे अधिक तनख्वाह देने के बावजूद मेट्रोपॉलिटन इन्स्टिट्युशन, कलकत्ता
विश्वविद्यालय से सम्बद्धता पाने के बाद पहले ही वर्ष में छात्रों के स्नातक परीक्षा
में उत्तीर्ण होने की कसौटी पर पूर्णत: सफल हुआ। जबकि यह भारतीयों द्वारा स्थापित और
भारतियों द्वारा चलाया जा रहा पहला कालेज था। अंग्रेज मान ही चुके थे कि इसका डूबना
तय है। और एक साल बीतते ही उन्हे बूलना पड़ा, “पंडित हैज डन वंडर्स!”
इसका राज था विद्यासागर की सांगठनिक प्रवृत्ति जिसकी अभिव्यक्ति होती थी छात्रों
और शिक्षकों के साथ मित्रता और स्नेह के रिश्ते में।
मेट्रोपॉलिटन इन्स्टिट्युशन का कोई अध्यापक या कोई कर्मचारी खुद को विद्यासागर
का नौकर कहने पर विद्यासागर तुरंत विरोध करते हुये बोलते थे, “तुम लोग मेरे सहायक हो।
मैं अकले सारा काम करने में अक्षम हूँ इसी लिये तुमलोगों को सहायक बनाया हूँ। खुद को
नौकर क्यों कहते हो? तुम्हारे अध्यापन से जो रुपये आते हैं वे तो तुम्हारे ही हैं।
मैं सिर्फ बाँट देता हूँ।”
अनुशासन में भी उसी तरह कड़ाई करते थे। एक अध्यापक कक्षा में सोते हुये पाये गये
तो निकाल दिये गये थे। कुछेक छात्र बगल वाले कन्या आवास में ताकझाँक करते पाये गये
तो खुद तसल्ली कर कालेज से उनका नाम कटवाये।
दूसरी ओर जब उन्होने देखा कि किसी कक्षा में शिक्षक एक छात्र को जबाब देनें में
अक्षम पाकर बगलवाले दूसरे छात्र से वही सवाल पूछ रहे हैं तो विद्यासागर ने तुरंत टोका।
अध्यापक को किनारे ले जा कर कहा कि ऐसा करने से पहले वाला छात्र अपमानित महसूस करेगा।
वल्कि उसी से, जरूरत पड़े तो थोड़ा इशारा, आभास वगैरह दे कर उसी के मुंह से जबाब निकलवाइये।
आत्मसम्मान का बोध – इस लक्षण के वारे में कुछ भी अलग से कहा जाय तो वह पहले
कही गई बातों की पुनरावृत्ति होगी। ‘राष्ट्रीयता का बोध’ एवं ‘प्रतिवादी सोच’ के शीर्षक
के अधीन वो सभी बातें हैं जो, विद्यासागर में ‘आत्मसम्मान का बोध’ कितना था उसका बयान
करते हैं।
त्याग का आदर्श – इस लक्षण
के एवं इसके आगे ‘दूसरों के हित के लिये तत्पर’ शीर्षक लक्षण पर भी अधिक कहने की जरूरत
नहीं। क्योंकि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की प्रचलित सभी जीवनियों में इन दोनों गुणों
एवं आम तौर पर मानवकल्याण की भावना से वह कितना ओतप्रोत थे उसी की विशद चर्चा है। छात्रावस्था
से ही वह दूसरों के दुखदर्द में कूद पड़ते थे। कहीं भी लोग अस्वस्थ हों, कराल बीमारी
से ग्रसित हों, महामारी के प्रकोप में हों, सूचना मिलते ही विद्यासागर कूद पड़ते थे।
अकाल और मैलेरिया के प्रकोप के दौरान उनकी सेवाओं की चर्चा तो पहले ही की जा चुकी है।
जब वह छात्र थे उस समय कलकत्ता शहर में जहाँ तहाँ कॉलेरा का प्रकोप होता था। कभी विद्यासागर
के परिचित तो कभी बिल्कुल अपरिचित परिवार के कॉलेरा से पीड़ित होने की खबर आती थी। उन
परिवारों में पहुँच कर रात दिन जग कर वह रोगियों की सेवा करते थे। उनके इस सेवाभाव
के बारे में लोग जान चुके थे। इसलिये परिचित चिकित्सक लोग उनके बुलाने पर रोगियों को
देखने चले आते थे लेकिन फीस नहीं लेते थे। दवाओं का खर्च विद्यासागर खुद उठाते थे।
रोगियों की सेवा करते हुये उन्हे बिल्कुल परवाह नहीं रहती थी कि खुद भी उसी रोग से
ग्रसित हो सकते हैं औ उन्ही के जैसा मर भी सकते हैं।
दूसरों
के हित के लिये तत्पर – इस शीर्षक में उपरोक्त बातों को बिना दोहराये हुये
हम सिर्फ इतना जोड़ेंगे कि रोग और अकाल में सेवा से अलग, अनगिनत लोगों को
विद्यासागर आर्थिक सहायता देकर बदहाली से उबारा करते थे। इतना अधिक करते थे कि कुछ
तो कहानियाँ भी बाद में गढ़ ली गई हैं। छात्रों की पढ़ाई का खर्च उठाना, गरीब बेसहारा
किसी औरत के जीवन निर्वाह का खर्च उठाना यह सब आजीवन उनके माहवारी खर्च का हिस्सा
बना रहा। चाहे वह सरकारी नौकरी की तनख्वाह एवं स्वरचित पुस्तकों की बिक्री के कारण
अच्छी स्थिति में हो या नौकरी चले जाने के उपरांत विधवा-विवाहों का खर्च उठाते उठाते
कर्जदार हो गये हों। उनका इच्छापत्र भी आज एक इतिहास है। उनकी आय व सम्पत्ति का बँटवारा
वह जिस प्रकार से किये, कितने लोगों के बारे में वह सोचे … वह पढ़ने लायक है।
मूल्यों का बोध – इस शीर्षक
पर भी अलग से बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि उपरोक्त सारे लक्षण मूल्यों के
बोध से ही सम्बन्धित हैं। बाकी रहा इमानदारी, सत्यनिष्ठा, छल-कपट-दुराचार-भ्रष्टाचार
से घृणा, जी-हुजूरी से घृणा, माता-पिता के प्रति श्रद्धा, पत्नी और परिवार से प्रेम,
वात्सल्य, जनता से जुड़ाव … अनगिनत प्रसंग हैं इनके और सभी इनके बारे में जानते हैं।
फिर भी, एक प्रसंग की चर्चा यहाँ आवश्यक है। वह है बंगला के प्रख्यात कवि माइकल मधुसुदन
दत्त के साथ ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का रिश्ता, क्योंकि माइकल की जो मदद उन्होने की, वह दयालुता का मामला नहीं, बिकराल समस्याओं से
घिरे एक शराबी कवि के प्रति कृपादृष्टि नहीं, बल्कि माइकल के जीवनमूल्य - जो कई पहलुओं
में उनके अपने जीवनमूल्यों से अलग था - के संरक्षण का मामला था। वह भी, मित्रता के
खातिर नहीं, बल्कि बंगला साहित्य के क्रांतिकारी भविष्य के मद्देनजर। यानि, यह जनतांत्रिक
बहुलतावाद का मूल्य था, जो हमें विद्यासागर में नजर आया।
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