Tuesday, January 15, 2019

॥ 15 ॥ जनसेवा


जितना तेजोमय था उनका व्यक्तित्व, जितना उत्तुंग था उनका स्वाभिमान, जितना कठोर था उनका आत्मानुशासन, उत्ना ही नरम था उनका हृदय - दया, करूणा एवं मनुष्यता के सागर थे वह। कलकत्ता आ जाने के बाद जब भी वह अपने गाँव वीरसिंहो लौटते थे तो पूरा गाँव घूम घूम कर एक एक परिवार का हाल समाचार लेते थे कि सब कुशल तो है, कोई भूखा तो नहीं, कोई बीमार तो नहीं। उनका अपना जीवन भी तो बहुत गरीबी में बीता था। शम्भुचन्द्र विद्यारत्न, विद्यासागर की जीवनी में वीरसिंहो गाँव में विद्यासागर के घर की गरीबी की चर्चा करने के बाद लिखते हैं:
“संस्कृत कॉलेज के छात्र ईश्वरचन्द्र को भी दारुण कठोर दरिद्रता को झेलना पड़ा था। बड़ाबाजार के दयेहाटा स्थित जगतदुर्लभ सिंह के मकान के निचले तल्ले का एक अंधेरा सीलन भरा कमरा। चारों तरफ खुला नाला रहने के कारण तेलचट्टे से घर भरा हुआ।”
ईश्वरचन्द्र के पिता रात के एक बजे काम से लौटते थे। अगर उस समय वह बत्ती जलते हुये और ईश्वर को सोते हुये पाते थे तो गुस्से से बहुत पिटाई करते थे। बाकी, सड़क की गैस-बत्ती की रौशनी में विद्यासागर की पढ़ाई की कहानी तो दुनिया जानती है।  
इसलिये गरीबी, बदहाली, बीमारी आदि से ग्रसित इंसानों के प्रति उनकी करुणा बाँध तोड़कर बह निकलती थी। चरित्र का यह गुण भी एक दिन अपने भव्य सामाजिक रूप में निखर उठा।
‘ईश्वरचन्द्र विद्यसागर’ ग्रंथ में जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र लिखते हैं:
“सन 1866 में बारिश की कमी के कारण खाद्यान्न का बहुत अभाव हो गया। अगला वर्ष शुरु होते होते, देश में भयावह अकाल फैल गया। मई, जून और जुलाई के महीने में अकाल गंभीर रूप धारण कर लिया। पूरा ओड़िशा एवं बंगाल का दक्षिणी भाग इसके चपेट में आ गया। इन इलाकों में जनता को जो तकलीफें झेलनी पड़ी अवर्णनीय है। आज उनकी बदहाली के बारे में सोचते हुये भी रोंगटें खड़े हो जाते हैं। वे नहीं जानते थे कि भूख कैसे मिटेगी। बिना सोचे कि आहारयोग्य है या नहीं, वे हर तरह के पत्ते, जंगली झाड़ों की जड़ें और लत्तरें खा रहे थे। एक मुट्ठी चावल की खोज में वे घर छोड़ कर सुदूर स्थानों की ओर भाग रहे थे। माँ अपने शिशु को त्याग रही थी, पिता अपने सन्तान को, बेटे अपने माँ-बाप को, पति पत्नी को और पत्नी पति को, भाई बहन को और बहन भाई को,… और सब भाग रहे थे शहर की ओर कि जलते पेट में डालने को कुछ मिलेगा। उनमें से कई कहीं पहुँच भी नहीं पाये। वे कंकालों में तब्दील हो चुके थे और थकान से, खाद्य के निरन्तर अभाव से और नतीजतन हो रहे अस्वस्थता से वे रास्तों के किनारे मरते हुये गिर रहे थे। देश की, उस समय की स्थिति विस्तृत रूप से वर्णन करने का अवसर इस पुस्तक में नहीं है। हम सिर्फ उस हिस्से का बयान करेंगे जिसके साथ हमारे कल्याणमय, वीर विद्यासागर जुड़े हुये थे।
“उस समय वह कलकत्ते में थे। उनके अपने ही गाँव में एवं आसपास में जो तीव्र अभाव भयानक रूप से फैल रहा था उसके बारे में उन्हे कोई सूचना नहीं थी। सबसे पहले हिन्दु पैट्रियट अखबार में उन्होने इस बारे में कुछ पत्र पढ़े और कुछ ही दिनों बाद उन्हे अपने घर से चिट्ठी मिली जिसमें यह खबर थी कि खाद्य के अभाव में लोग बड़ी संख्या में मर रहे हैं। सूचना प्राप्त होते ही, कोमलहृदय विद्यासागर को गहरा धक्का लगा एवं उनके आँसू बह निकले। उन्होने तत्काल सरकार को इस घातक आपदा के बारे में लिखा और अविलम्ब राहत के लिये अनुरोध किया। उनकी सुनकर सरकार ने तत्काल स्थिति का जायजा लिया। देश के विभिन्न हिस्सों में उन्होने भोजन-शिविर लगाये। लेकिन फौरी जरूरत के लिहाज से वे काफी कम थे। हिन्दु पैट्रियट के पत्रकार ने कहा कि बाबु हेम चन्द्र कर, गड़बेता के डिप्टी मजिस्ट्रेट तमाम कष्ट उठाते हुये खुद अपने प्रशासनाधीन सभी गाँवों का दौरा कर रहे थे एवं गरीब ग्रामवासियों के लिये राहत का इन्तजाम कर रहे थे लेकिन बाबु इशान चन्द्र मित्र, हुगली जिला के जहानाबाद सबडिविजन के डिप्टी मजिस्ट्रेट अपने काम को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। यहाँ जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि वीरसिंहो एवं आसपास के गाँव उस समय हुगली जिला में पड़ते थे जो बाद में, जॉर्ज कैम्पबेल के समय मिदनापुर जिले के अन्तर्गत लाये गये।
“विद्यासागर तब जल्दी से अपने गाँव पहुँचे और खुश हुये देख कर कि उनकी माँ ने भूखे लोगों को खाना खिलाना शुरु कर दिया है। उनकी मं अपने हाथों से खाना बनाती थी एवं औसतन सौ लोगों को हर दिन भोजन कराती थी। जैसा बेटा, वैसी उसकी माँ। लेकिन विद्यासागर इससे सन्तुष्ट नहीं हुये। उन्होने अपने खर्च से वीरसिंहो एवं आसपास के गाँवों में भोजन-शिविर खोले। भूखे लोग बढ़ते ही जा रहे थे। एक सौ से बढ़कर अन्तत: एक हजार हो गये। जैसे जैसे संख्या बढ़ती गई, विद्यासागर अपना खर्च बढ़ाते जा रहे थे। तब उन्होने अपने तीसरे भाई, शम्भुचन्द्र को लिखा। शम्भुचन्द्र भोजन-शिविरों के प्रबन्धन के प्रभारी थे, विद्यासागर चाहते थे कि चाहे कितनी भी बड़ी रकम क्यों न हो, खर्च में कंजूसी न की जाय।“
आगे जीवनीकार लिखते हैं कि किस तरह, भूखे लोगों के अनुरोध पर विद्यासागर ने भोजन-शिविरों मे खिचड़ी की जगह भात और मछली की भी व्यवस्था की थी और किस तरह पहले ही दिन एक भयानक हादसा हुआ। एक भूखा आदमी बहुत दिनों के बाद अपने सामने गरम सूखा भात देख कर रह नहीं पाया। एक बड़ा सा निवाला अपने मुँह में ठूँस लिया और अन्तत: वह गले में फँस गया। वह आदमी वहीं दम घुँट कर मर गया और विद्यासागर उसका शव अपने गोद में लेकर फफक कर रोने लगे।
सिर्फ भोजन-शिविर ही नहीं, विद्यासागर हर तरह से राहत और सेवा में जुट गये। इसी सेवा के वर्णन में और आगे बढ़ने से पहले रोगियों के इलाज के मामले में उनकी स्वशिक्षा का जिक्र करना यहाँ प्रासंगिक होगा।
चिकित्सा – हम यहाँ मूख्यत: ‘चिकित्सक विद्यासागर’ शीर्षक एक लेख का सहारा लेंगे जिसे तड़ित कुमार बंदोपाध्याय ने लिखा था एवं वर्ष 1970 में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सौवीं मृत्युवार्षिकी के अवसर पर बंगीय साक्षरता प्रसार समिति द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’ में संकलित किया गया था। साथ ही, जरुरत पड़ी तो कुछ और स्रोतों का भी इस्तेमाल करेंगे।
पुराने अंधविश्वासों, टोटके-ताबीजों की बीमार आबोहवा को भेद कर आधुनिक वैज्ञानिक सोच की ओर कदम बढ़ाने वाले हर विवेकपूर्ण इंसान की तरह विद्यासागर को भी पहले होम्योपैथी या आयुर्वेद से चीढ़ थी। आज भी लोगों को होती है क्योंकि सर्वस्वीकृत, सर्वमान्य कोई प्रायोगिक व्यवस्था नहीं है देश में जहाँ विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की एकरूप जाँच हो एवं जाँच का नतीजा सब की जानकारी में दी जाय। एक तरफ ऐलोपैथी एवं विदेशी दवा कम्पनियों का बोलबाला, मुनाफे के उद्येश्य से किया गया प्रचार तो दूसरी तरफ अवैज्ञानिक रहस्यपूर्ण जादुई रोग-निरामय के दावे। हर वो दवा या जड़ी अचानक ‘वैज्ञानिक-तरीके-से-जाँचा-हुआ’ बन जाता है जिस में किसी कम्पनी को मुनाफा दिखता है। कोई नहीं जानता है कि वह ‘वैज्ञानिक-तरीका’ क्या है।
विद्यासागर के समय स्थिति और बुरी थी। आज की तरह इतनी संख्या में कम्पनियाँ नहीं थी लेकिन दूसरी ओर ‘आधुनिक’ ऐलोपैथिक पद्धति की पढ़ाई कर अंग्रेजों की बराबरी का डाक्टर बनना, सर्जन बनना एक राष्ट्रीय भावना से पूर्ण उपलब्धि थी। दर असल, सही तरीके से शरीरविज्ञान की पढ़ाई तो ऐलोपैथिक चिकित्सापद्धति की शिक्षा के साथ ही लोगों ने होते हुये देखा। आयुर्वेद वगैरह में तो वंशपरम्परा से लोग ‘चिकित्सक’ बन जाते थे। और, ऐलोपैथिक पद्धति से चिकित्सा के जो चमत्कारिक नतीजे थे, वो तो थे ही। खास कर महामारी मैलेरिया के इलाज के लिये दवा (कुइनाइन), सबसे अधिक लोगों को चपेट में लाने वाली पेट-सम्बन्धित बीमारियों (कॉलेरा सहित) के निश्चित दवायें एवं पथ्य, जटिल गर्भावस्था के लिये सिजैरियन, फॉर्सेप्स डेलिवरी एवं कई अन्य शल्य चिकित्सायें।…
विद्यासागर के जीवनीकार बिहारीलाल सरकार कहते हैं, “पहले विद्यासागर इस इलाज [होम्योपैथिक] को बिल्कुल नापसन्द करते थे। वर्ष 1866 में, विख्यात होम्योपैथिक चिकित्सक बेरिनि [या शायद बर्निनी होंगे] कलकत्ता आये एवं रोगियों का इलाज करना शुरू किया। कलकत्ते के बऊबाजार इलाके के निवासी डा॰ राजेन्द्रनाथ दत्ता से उनकी अच्छी मित्रता हो गई। राजेन्द्रबाबु ने पहले से थोड़ी बहुत होम्योपैथी सीख रखी थी। बेरिनि की सहायता से वह इस विद्या में दक्षता हासिल किये। वह भी चिकित्सक के रूप में विख्यात हुये। राजेन्द्रबाबु ने विद्यासागर का सरदर्द होम्योपैथिक इलाज द्वारा ठीक कर दिया। राजेन्द्रबाबु द्वारा दिये गये होम्योपैथिक दवा से राजकृष्णबाबु कब्ज के अत्यधिक दर्द से छुटकारा पा गये। राजकृष्णबाबु को शौच के समय एनेमा लेनी पड़ती थी। एनेमा के इस्तेमाल पर सख्त मल अत्यधिक पीड़ा के साथ निकलता था और मलद्वार से निकलते खून से दोनों जांघ भीग जाता था। विद्यासागर महाशय अवाक हो गये कि इस तरह की बीमारी बस कुछ होम्योपैथिक दवा के बूंदों से ठीक हो गया। उसके बाद से वह विशेष तौर पर होम्योपैथिक इलाज की ओर ध्यान देने लगे।”
‘चिकित्सक विद्यासागर’ के लेखक तड़ित कुमार बंदोपाध्याय लिखते हैं, “हम महेन्द्रलाल सरकार के साथ विद्यासागर की मित्रता स्मरण कर सकते हैं। महेन्द्रलाल सरकार तत्कालीन कलकत्ता के जानेमाने चिकित्सक थे एवं विज्ञान आन्दोलन के महत्वपूर्ण मार्गनिर्माताओं में से एक थे। विद्यासागर ने ही डा॰ सरकार होम्योपैथिक इलाज की ओर प्रेरित किया था। अपने चिकित्सक जीवन के पहले चरण में डा॰ सरकार अपने रोगियों का इलाज ऐलोपैथिक तरीके से करते थे और होम्योपैथिक इलाज को पूरी तरह से घृणा करते थे। अक्सर वह होम्योपैथिक इलाज की निंदा करते थे। एक दिन विद्यासागर महाशय एवं महेन्द्रबाबु उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश द्वारकानाथ मित्र को देखने गये जो अस्वस्थ चल रहे थे। वहाँ दोनो होम्योपैथिक इलाज को लेकर तीखे बहस में उलझ गये। अन्तत:, महेन्द्रबाबु विद्यासागर के तर्कों से हार माने और बोले, ‘अब मैं होम्योपैथी की निन्दा नहीं करूंगा। लेकिन जाँच करुंगा कि इसके क्या क्या गुण हैं।‘ अपने जाँचों के उपरान्त वह होम्योपैथिक इलाज में ख्यातिप्राप्त हुये। उनके इलाज की ख्याति से डा॰ बेरिनि की रोगियों की संख्या घट गई, जबकि वह गोरा आदमी थे। लोग डा॰ सरकार को बुलाने लगे बेरिनि को नहीं। इस त्तरह, महेन्द्रलाल की होम्योपैथिक प्रैक्टिस ने डा॰ बेरिनि को यह देश छोड़ने को मजबूर कर दिया। सन 1869 में डा॰ राजेन्द्रनाथ डा॰ बेरिनि को विदा करने पहुँचे तो उन्होने कहा, ‘इतने सारे गोरे लोग इस  देश में आये और पाकेट में पैसा भर भर कर ले गये, और आप खाली पाकेट के साथ वापस जा रहे हैं।‘
जबाब में डा॰ बेरिनि ने कहा, “मैं अपने साथ पाँच हजार रुपये ले कर जा रहा हूँ।’
राजेन्द्रबाबु ने आश्चर्य से पूछा, ‘कैसे?’
डा॰ बेरिनि, ‘महेन्द्र होम्योपैथी के पक्ष में आ गया। इसकी कीमत है पाँच हजार रुपये।’”
तो इस तरह विद्यासागर होम्योपैथी के प्रचार में लग गये। आगे चल कर उनकी छोटी बेटी, जो अत्यंत कष्ट में थी, होम्योपैथिक इलाज से आराम पाई। विद्यासागर इतने प्रभावित हुये कि अपने छोटे भाई को उन्होने होम्योपैथिक डाक्टर बनाया। होम्योपैथिक दवाओं के अद्भुत गुण से, सस्ती कीमतों से तथा लेने में आसानी के कारण काफी प्रभावित हुये। लेकिन, वह तो विद्यासागर थे। खुद उन्होने होम्योपैथी का अध्ययन करना शुरू किया। कलकत्ता के सुकिया स्ट्रीट में रहने वाले डाक्टर चन्द्रमोहन घोष से उन्होने पाठ लेना शुरू किया। असंख्य किताब खरीदे होम्योपैथी पर और चूँकि मानव शरीर के अध्ययन के बिना चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई अधूरी रहती है इसलिये उन्होने मानवकंकाल खरीद कर घर में रखे। मानव के शारीरिक ढाँचे का अध्ययन करने लगे। उनके पुस्तकालय में होम्योपैथी के पुस्तकों का संग्रह देखने लायक है। ज़ार, राड्के, हेरिंग, हनिमैन्…। ये किताबें उस वक्त विदेश से मंगानी पड़ती थी। सीधा न्युयार्क या जर्मनी से वह किताबें मंगाते थे।
सेवा - पश्चिम बंगाल के प्रख्यात मुख्यमंत्री डा॰ विधान चन्द्र राय के नाम से एक कथन काफी प्रचलित है, ‘ऐलोपैथी हो या होम्योपैथी, असली चीज है सिमपैथी’ यानि हमदर्दी। आज कल तो यह आम जान कारी है कि अगर रोगी को हमदर्दी से भरा हुआ वातावरण मिलेगा तब उसका मनोबल ऊँचा होगा, उसकी जीने की इच्छा प्रबल होगी और तब दवायें भी बेहतर असर करेंगी। और विद्यासागर तो ‘दया और करुणा के भी सागर थे। ‘मनुष्यता के सागर’ थे। विद्यासागर जहाँ भी जाते थे, साथ में होती थी होम्योपैथी की किताबें, इलाज की डायरी (जो अभी रवीन्द्रभारती विश्वविद्यालय के आर्काइव में संरक्षित है) एवं होम्योपैथिक दवाओं का बक्सा। असंख्य लोगों का वह इलाज किया करते थे और अच्छा इलाज करते थे। अन्य चिकित्सकों की तरह तो थे नहीं, कहीं भी चले जाते थे किसी के बुलाने पर्। रात रात भर रोगी के सिरहाने बैठ कर, माथे पर पानी का पट्टी देना, या पैर में तेल की मालिश कर देना… सब खुद करते थे और इस काम में न तो वह जाति का भेद करते थे और न धर्म का। हँफनी की खाँसी और पेचिस के दर्द की दवा वह खुद तैयार करते थे। सारी दवायें वह मुफ्त देते थे।
उनकी जनसेवा की ताकत एवं नजरिया खास कर उस वक्त देखने को मिला जब अकाल के समय दक्षिणी बंगाल में उन्होने दर्जनों भोजन व राहत शिविर चलवाये एवं अकाल के बाद मलेरिया के प्रकोप के दौरान बर्धमान जिला में मुफ्त चिकित्सालय व औषधालय चलवाये। जीवनीकार बिहारीलाल सरकार एक बार के वाकया का जिक्र करते हैं, “इस समय प्यारीचांदबाबु के भतीजा गंगानारायण मित्र महाशय विद्यासागर महाशय की काफी मदद करते थे। ‘डिस्पेन्सरी’ का पूरा जिम्मा उन्ही के उपर था। कुइनाइन बहुत कीमती दवा थी, जबकि मरीजों की तादाद हर दिन बढ़ रही थी। इसलिये गंगानारायणबाबु ने सुझाव दिया कि कुइनाइन के बदले ‘सिंकोना’ का इस्तेमाल किया जाय्। विद्यासागर महाशय ने कहा, ‘बीमारी गरीबों को हुई है तो सही दवा का इस्तेमाल नहीं होगा? ऐसा भी कभी होता है? गरीब, दुखी हो या धनी हो, प्राण तो एक ही है; बल्कि बीमारी भी एक ही है।’ गंगानारायणबाबु विद्यासागर की महानता से अभिभूत हो गये। उस समय जो रोगी दवा लेने के लिये ‘डिस्पेन्सरी’ नहीं आ पाता था, विद्यासागर महाशय खुद उनके घरों पर जा कर खुद दवा एवं पथ्य दे आते थे।”    
बाद के वर्षों में, जब वह कर्माटाँड़ में रहने लगे, संस्कृत कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य महामहोपाध्याय नीलमणि न्यायालंकार महाशय एक बार उनके अतिथि बने। वहाँ रहते न्यायालंकार बीमार पड़े तो विद्यासागर ने अपने हाथों से उनका मलमूत्र साफ किया। वर्धमान में, जब विद्यासागर मलेरिया के मरीजों को दवा एवं पथ्य दिया करते थे एक मेहत औरत बीमार पड़ी। उसे देखने को कोई नहीं था तो विद्यासागर ने ही उसकी सेवा की। कर्माटाँड़ में एक संथाल पीड़ा में था। विद्यासागर खुद उसके सिरहाने बैठ कर उसे दवा पिलाते रहे, पथ्य खिलाते रहे, खुद पकड़ कर मलमुत्र त्याग के लिये ले जाना, पूरे बदन को सहलाना… सब कुछ करते रहे। बौद्धशास्त्रों के विद्वान आचार्य हरप्रसाद शास्त्री एक बार कर्माटाँड़ गये थे लखनऊ जाने के समय। उन्होने संस्मरण में लिखा है कि भरी दोपहर में वह विद्यासागर को खेत के मेंड पर दूर के गाँव से आते हुये देखते थे – एक हाथ में दवा का बक्सा तथा दूसरे हाथ में तेल का कटोरा होता था। कर्माटाँड़ से ही एक बार राजनारायण बसु को उन्होने पत्र लिखा, “मैंने तय किया था कि कल या परसों आपको देखने जाउंगा, लेकिन यहाँ मैं दो मरीजों का देखभाल कर रहा हूँ। वे ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे उन्हे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये। इसलिये मैं देवघर जाना दो या तीन दिनों के लिये स्थगित कर रहा हूँ।”
अकाल और महामारी से ग्रस्त बंगाल को ऐसा आदमी कहाँ से मिलता जो अपने खर्च से दवा, पथ्य, भोजन की व्यवस्था करे, सेवा करे, आर्थिक मदद दे, अपने इलाज पर भरोसा न हो तो कलकत्ता से अन्य चिकित्सकों को मित्रता के बुलावे पर खींच कर ले जाय दूरदराज के गाँवों में; उनसे इलाज कराये – इसके साक्ष्य उन चिकित्सकों के संस्मरणों में मौजूद हैं। बर्धमान डिविजन के कमिशनर ने उन्हे एक पत्र लिखा:
सेवा में,
पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,
वीरसिंहो
महाशय,
बंगाल सरकार के सचिव ने मुझे इसी महीने के केएम तारीख के आदेश के द्वारा निर्देशित किया है कि मैं, हाल के दिनों में हुगली जिले में पड़े अकाल में गरीबों को राहत पहुँचाने के लिये आपने जो उदार सेवायें दी उसके लिये सरकार की गर्मजोश स्वीकृति आपको प्रदान करूँ।
भवदीय,
आपके विश्वस्त सेवक,
(ह॰) सी॰ टी॰ मॉन्ट्रिसर
कमीशनर, बर्धमान डिविजन



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