Tuesday, January 15, 2019

॥ 17 ॥ उद्यमिता के क्षेत्र में


संस्कृत के प्रखरतम विद्वान, शिक्षक, पाठ्यक्रमों के निर्माता, पाठ्यपुस्तकों के रचयिता, बांग्ला गद्य को साहित्य के लायक बनाने वाला, वर्णमाला का सुधार करने वाला, अंग्रेज सरकार की मदद से एवं कुछ मदद के बिना सौ से उपर बालक विद्यालयों एवं चालीस के उपर बालिका विद्यालयों के संस्थापक, एक महाविद्यालय के संस्थापक, आजीवन जनसेवा व जनकल्याण को निवेदित प्राण तथा सर्वांगीण नारीमुक्ति के लिये संघर्षकारी व्यक्तित्व थे विद्यासागर। इसके आगे फिर उद्यमिता की ओर कदम बढ़ाने वाली बात अचरज पैदा करती है। और, जरूरत भी क्या बनती है इस पुस्तक में जिक्र करने की? क्या आज के सन्दर्भ में इस क्षेत्र में उनके काम को रेखांकित करने की कोई आवश्यकता है?
बेशक। हम मानते हैं कि आवश्यकता है। आज उद्यमिता का अर्थ तक बदल गया है। लेकिन युवाओं में उद्यमिता के उत्साह का बढ़ना जरुरी है।
संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी
सन 1847 के अप्रैल महीने में विद्यासागर ने संस्कृत कॉलेज की अपनी पहली दफा की नौकरी से इस्तीफा दिया। कारण था प्रशासन से मतविरोध। उसी समय, शायद नौकरी छोड़ने की संभावना को देखते हुये, अपने अग्रज मित्र (उम्र में तीन साल बड़े) मदन मोहन तर्कालंकार के साथ मिल कर आधा-आधा के मिल्कीयत पर उन्होने एक छापाखाना खोला, नाम था संस्कृत प्रेस। इसके लिये उन्होने 600 रुपये का कर्ज लिया जो बाद में चुकता किया गया। आगे, उस छापाखाना में छपे पुस्तकों के भंडारण के लिये एक ग्रंथ-भंडार या डिपोजिटरी भी खोला गया। यह डिपोजिटरी धीरे धीरे पुस्तकों का दुकान बन गया जिसमें संस्कृत प्रेस में छपे लेखकों के अलावा अन्य लेखकों के पुस्तक भी रखे जाते थे। पूरा छापाखाना एवं भंडार एक ही नाम से परिचित हुआ, ‘संस्कृत प्रेस ऐन्ड डिपोजिटरी’ या ‘संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी’। पाठक विकिपिडिया में ढूंढ़ेंगे इस छापाखाना का लगभग पूरा वृत्तांत मिल जायेगा। लेकिन विकिपिडिया के उस पृष्ठ पर छापाखाने का तत्कालीन पता नहीं मिलेगा। शायद किसी जीवनीग्रंथ में यह पता दिया हो, लेकिन हमें वह पता फेसबुक पर गौतम बसुमल्लिक द्वारा 9 जून 2011 को किये गये पोस्ट से मिला। बाद में दिखा कि बंगला ‘एइ समय’ अखबार ने इस सम्बन्धित एक खबर के लिये तथ्यों का स्रोत गौतम बसुमल्लिक को ही दर्शाया है। गौतम बसुमल्लिक अपने पोस्ट में, कलकत्ता निवास के दौरान विद्यासागर के आवासों की चर्चा करते हुये लिखते हैं, “मित्र मदनमोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर जिस घर में संस्कृत प्रेस एवं संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी के नाम से छापाखाना एवं प्रकाशन संस्था खोले थे, उस संस्था का कार्यालय 63, अमहर्स्ट स्ट्रीट वाले मकान में भी विद्यासागर कुछ दिनों तक जीवन व्यतीत किये हैं। वह मकान अब ध्वस्त हो चुका है।”
इस छापाखाने में छपे पहले पुस्तक का नाम है ‘अन्नदामंगल’। बंगाल के तत्कालीन प्रख्यात कवि भारतचन्द्र (या भारतचन्द्र राय गुणाकर: 1712 - 1760) द्वारा रचित इस काव्य को बंगला साहित्य के इतिहास में ऊँचा स्थान प्राप्त है। भारतचन्द्र मध्ययुग के अंतिम कवि एवं आधुनिक काल के अग्रदूत माने जाते हैं।
इस पुस्तक का एक दुर्लभ पाण्डुलिपि कृष्णनगर के जमींदारों के पास सुरक्षित था। विद्यासागर ने उनसे इस पाण्डुलिपि को संग्रह किया। इस बारे में एक कहानी विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र यूँ बताते हैं:
“संस्कृत प्रेस के लिये कर्ज लेना पड़ा है। छ: सौ रुपयों का कर्ज।
“बात बात में एकदिन विद्यासागर ने मार्शल साहब को कहा – हमलोगों ने एक छापाखाना खोला है। अगर कुछ छपवाने की जरूरत पड़े तो कहियेगा।
“मार्शल साहब ने कहा - फोर्ट विलियम कॉलेज के छात्रों को भारतचन्द्र का ‘अन्नदामंगल’ पढ़ाना पड़ता है। जो किताब पढ़ाया जाता है उसका कागज और छपाई दोनों खराब है। बहुत सारी गलतियाँ भी हैं। तुम अगर कृष्णनगर के राजमहल से असली ‘अन्नदामंगल’ की पाण्डुलिपि ला कर उसकी अशुद्धियाँ दूर कर जल्द से जल्द किताब छाप सको तो फोर्ट विलियम कॉलेज के लिये मैं सौ किताबें लूंगा, कीमत में छ:सौ रुपये दूंगा।
“वही किया विद्यासागर ने।”
उसी छ: सौ रुपये से कर्जा चुकाने के बाद संस्कृत प्रेस से दूसरा पुस्तक छपा विद्यासागर का अपना ही लिखा हुआ ‘बेताल पचविंशति’। मूल पारम्परिक संस्कृत लोक-आख्यान के तत्कालीन हिन्दी संस्करण पर आधारित। फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रबंधन द्वारा इस पुस्तक की सौ प्रतियाँ खरीदी गई। तीन सौ रुपये की कीमत पर। बाकी प्रतियाँ दोस्तों को उपहार में बाँटी गई।
यहाँ बता दें कि ‘बेताल पचविंशति’ विद्यासागर द्वारा रचित दूसरा पुस्तक लेकिन छपा हुआ पहला है। इसके पहले रचित ‘बासुदेव चरित’ उनके जीवनकाल में छपा नहीं। शायद ‘बेताल पंचविंशति’ भी नहीं छपता। फोर्ट विलियम कॉलेज में पहली बार नौकरी करते समय ही कॉलेज के प्रबन्धन ने उन्हे बंगला में छात्रों के लिये उपयोगी, सरल व बढ़िया गद्य-पुस्तक लिखने का अनुरोध किया था। उसी के बाद उन्होने पहले ‘बासुदेव चरित’ लिखा। लेकिन, शायद धार्मिक आख्यान होने के कारण कॉलेज के प्रबंधन ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में, जब विद्यासागर का अपना छापाखाना हुआ, तब इस पुस्तक की पाण्डुलिपि कहीं गुम हो चुकी थी। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र ने इस पाण्डुलिपि को ढूंढ़ कर निकाला।
फिर से, पाठ्यपुस्तक लिखने की, मार्शल साहब के अनुरोध पर विद्यासागर ने ‘बेताल पंचविंशति’ का लेखन शुरु किया। ‘बेताल पंचविंशति’ की रचना करते समय आधार-स्वरूप उनके सामने दो पुस्तकें थीं। पहला, शिवदास भट्ट रचित संस्कृत ‘बेताल पंचविंशका’ एवं दूसरा, फोर्ट विलियम कॉलेज के ही हिन्दी शिक्षक लल्लु लाल रचित ‘बेताल पचीसी’। संस्कृत के पंडित होते हुये भी विद्यासागर ने आधार-स्वरूप संस्कृत पुस्तक को न चुन कर हिन्दी पुस्तक को चुना। इसके कई कारण रहे होंगे। पहला तो यही कि उन्होने इसी कॉलेज में योगदान के बाद, शायद लल्लू लाल से ही हिन्दी सीखा था; तो यह गुरुप्रणाम था। दूसरा, हिन्दी उन्होने कितना और कैसा सीखा इसका आत्मपरीक्षण भी था। तीसरा, हिन्दी पुस्तक हाल की रचना होने के कारण जमाने के अनुरूप कई शोधन उसमें हो चुके थे। कॉलेज के प्रबंधन को यह पुस्तक भी स्वीकार्य नहीं हुआ। तब विद्यासागर ने पुस्तक की पाण्डुलिपि को श्रीरामपुर के योरोपीय मिशनरियों के पास भेजा जिनका बंगला भाषा के लिये किया गया काम आज इतिहास है। वहाँ थे मार्शमैन साहब, जोशुआ मार्शमैन, बहुभाषाविद, जिन्होने विलियम कैरी के साथ मिल कर रामायण का अंग्रेजी अनुवाद किया था, बाइबल का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया था एवं श्रीरामपुर कॉलेज की स्थापना किया था। अंग्रेजी के बजाय स्थानीय भाषा में शिक्षा के वह प्रबल पक्षधर थे। उन्होने विद्यासागर द्वारा रचित ‘बेताल पंचविंशति’ को उस समय तक प्रकाशित बंगला गद्य-पुस्तकों में सर्वश्रेष्ठ कहा। तब जा कर फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रबंधन ने उसे पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार किया।
विद्यासागर ने बंगला गद्य को इतना सरल व कलात्मक रूप दिया था कि चुटकुला चल पड़ा - एक विद्वान व्यक्ति किसी की गद्य रचना पढ़ कर बोले “अरे, यह तो तुमने विद्यासागरी गद्य लिख दिया है, सब कुछ समझ में आ रहा है!”      
खैर, आगे हम विकिपिडिया से लेते हैं, “सन 1849 में मदन मोहन तर्कालंकार ने ‘शिशुशिक्षा’ के नाम से बच्चों के लिये एक चित्रित पुस्तक माला लिखना शुरु किया [जिसकी छपाई संस्कृत प्रेस में होने लगी – अनु॰] इस पुस्तकमाला का तीसरा पुस्तक था विद्यासागर रचित ‘बोधोदय’ (1850)। ‘बोधोदय’ के साथ, संस्कृत प्रेस को अपने प्रयोगों के प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करते हुये, बंगला प्राथमिक शिक्षा के आधुनिकीकरण व सुधार हेतु विद्यासागर की परियोजना शुरू हुई।”
हालाँकि इधर, सन 1981 में प्रकाशित एक संकलन ‘बांग्ला मुद्रण ओ प्रकाशन’ (चित्तरंजन बंदोपाध्याय सम्पादित) में निखिल सरकार रचित एक निबंध है ‘आदिजुगेर पाठ्यपुस्तक’। उक्त निबंध के अनुसार शिशुशिक्षा पुस्तक माला का तीसरा पुस्तक भी मदन मोहन तर्कालंकार का लिखा हुआ था जो 1950 में प्रकाशित हुआ। ‘बोधोदय’ उस पुस्तकमाला का चौथा पुस्तक था और एक पाँचवाँ पुस्तक भी प्रकाशित हुआ था सन 1851 में, जिसके लेखक थे राजकृष्ण बंदोपाध्याय।
सन 1850 में मदन मोहन तर्कालंकार संस्कृत कॉलेज के साहित्य-अध्यापक की नौकरी छोड़ कर ‘जज-पंडित’ का पद ग्रहण कर मुर्शिदाबाद चले गये। विद्यासागर के जीवनीकार यह बताते हैं कि संस्कृत प्रेस कुछ दिनों तक साथ साथ चलाने के बाद मदन मोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर का मतांतर हुआ। किस बात को लेकर, पता नहीं चलता है। कब हुआ यह भी नहीं पता चलता है। जीवनीकार बिहारीलाल सरकार कहते हैं, “विद्यासागर महाशय एवं मदन मोहन तर्कालंकार महाशय दोनों इस छापाखाना के बराबर के हिस्सेदार थे। कुछ ही दिनों के अन्दर मदन मोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर महाशय का मतांतर हुआ। विद्यासागर महाशय किसी कारण से तर्कालंकार महाशय पर नाराज होकर उनके साथ सारा सम्बन्ध त्यागना चाहे। स्वर्गीय श्यामाचरण विश्वास एवं स्वर्गीय राजकृष्ण बंदोपाध्याय महाशय ने सुलह कर विवाद समाप्त किया। प्रेस विद्यासागर महाशय की सम्पत्ति बनी।”
बंगला पाठ्यपुस्तक के प्रकाशन में उसके पहले तक अंग्रेजों और खास कर मिशनरियों का ही बोलबाला था, जिसमें प्रमुखतम था स्कूल बुक सोसायटी। अधिकांश पाठ्यपुस्तकें इसी प्रकाशन संस्था से छपते थे। कुछेक देशी छापाखाने तो थे ही पर उन छापाखानों से पाठ्यपुस्तकें कम निकलती थी। साथ ही उन पाठ्यपुस्तकों में और संस्कृत प्रेस में छपने वाले पाठ्यपुस्तकों में गुणात्मक अन्तर था। उपरोक्त निबन्धकार निखिल सरकार लिखते हैं, “खास कर उन्नीसवीं सदी के पाँचवें दशक में स्कूल बुक सोसायटी से अधिक ख्याति थी संस्कृत प्रेस की। एक वर्णन में देख रहे थे कि सन 1857 यानि महाविद्रोह के वर्ष में संस्कृत प्रेस 84,200 प्रति [विभिन्न पुस्तकों का कुल – अनु॰] प्रकाशित किया है जबकि सरकारी अनुदान मिलने के बावजूद स्कूल बुक सोसायटी उस वर्ष महज 32,000 प्रतियाँ छाप पाई है।”  
प्रेस के मालिक थे दो पाठ्यपुस्तक रचयिता, विद्यासागर एवं मदन मोहन तर्कालंकार। लेकिन बंगला पाठ्यपुस्तकों की रचना में क्रांति लाने का श्रेय इन दोनों के साथ एक तीसरे व्यक्ति को भी बराबर मिलना चाहिये। वह हैं अक्षय कुमार दत्त। विद्यासागर के हम-उम्र तथा महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पत्रिका ‘तत्ववोधिनी’ के सम्पादन के दिनों से मित्र यह लेखक बच्चों के लिये बंगला में विज्ञान के पुस्तकों के पहले गंभीर रचयिता थे। निखिल सरकार ने पाठ्यपुस्तक के लेखन में इन तीनों को ‘ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर’ का नाम दिया है। एवं संस्कृत प्रेस उनके द्वारा रचित पाठ्यपुस्तकों को भी छापता रहा। सन 1856 में संस्कृत प्रेस ने ही छापा उनका ‘पदार्थविद्या (जड़ेर गुण ओ गतिर नियम), यानि भौतिकविज्ञान (पदार्थ के गुण एवं गति के नियम)। अंग्रेजी में उसका नाम रखा गया था ‘एलिमेन्ट्स ऑफ नैचुरल फिलॉसॉफी (मैटर ऐन्ड मोशन)। पुस्तक की भूमिका में लेखक ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एव अमृतलाल मित्र के प्रति आभार व्यक्त किया है।
अक्षय कुमार दत्त द्वारा रचित ‘प्रकृतिर सम्बन्ध विचार’, ‘धर्मनीति, प्रथम भाग’ (प्रिन्सिपल्स ऑफ मोराल्स), ‘भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय’ आदि पुस्तकें भी लगातार संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी से प्रकाशित होती रही।
सन 1855 में विद्यासागर का ‘वर्णपरिचय’ पहला भाग प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक बंगला वर्णमाला के साथ साथ बंगला भाषाशिक्षण की पूरी पद्धति को ही बदल दिया। मदनमोहन तर्कालंकार रचित ‘शिशुशिक्षा’ पुस्तकमाला के साथ ‘वर्णपरिचय’ ने मिल कर बंगला पाठ्यपुस्तक मुद्रण में संस्कृत प्रेस की भूमिका को भी बदल दिया। पूर्व-उद्धृत निबन्धकार निखिल सरकार बताते हैं:
“विद्यासागर रचित ‘वर्णपरिचय’ के पहले भाग का प्रकाशन हुआ 1855 ईसवी में। दूसरा भाग भी उसी साल। 1890 ईसवी तक ‘शिशुशिक्षा’ के पहले भाग के 149 संस्करण प्रकाशित हुये। … 1889 तक दूसरे भाग के 84 संस्करण हुये। … 1890 तक ‘शिशुशिक्षा’ तीसरे भाग के 101 संस्करण प्रकाशित हुये। … दूसरी ओर, पहला प्रकाशन के बाद 1890 ईसवी तक ‘वर्णपरिचय’ प्रथम भाग के 152 संस्करण हुये। (1855 से 1857 ईसवी के बीच प्रकाशित हुये 9 संस्करणों में प्रतियों की कुल संख्या थी 53 हजार)। … 1890 तक ‘वर्णपरिचय’ के दूसरे भाग के 140 संस्करण हुये। ‘बोधोदय’ … पहली बार प्रकाशित हुआ 1851 में। 1890 तक इसके 106 संस्करण प्रकाशित हुये। … विद्यासागर रचित एक और पुस्तक ‘कथामाला’ पहली बार प्रकाशित हुआ 1856 ईसवी में। 1890 तक इसके 51 संस्करण हुये।”
इसी से पता चलता है कि उद्यमिता का यह जोखिम भरा कदम उठा कर विद्यासागर किस तरह सफलता के मार्ग पर अग्रसर हुये।
सुबल चन्द्र मित्र रचित विद्यासागर के जीवनी में लिखते हैं कि जब उन्होने सरकारी नौकरी छोड़ दी, तब उन्हे इस व्यवसाय की ओर ध्यान देने का अवसर मिला। प्रेस बड़ा हो रहा था, कई लोग उसमें काम करने लगे थे – उनकी रोजीरोटी थी यह छापाखाना और किताब की दुकान। लेकिन विद्यासागर छापाखाना के “मुख्य अधिकारी के आचरण एवं कामकाज से बहुत असंतुष्ट हुये। बही खातों का रखरखाव सही ढंग से नहीं हो रहा था एवं सब कुछ अव्यवस्थित था। अत: उन्होने अपने मित्र राजकृष्ण से डिपोजिटरी के व्यवसाय का निरीक्षक बनने को कहा। राजकृष्ण उस समय फोर्ट विलियम कॉलेज में 80 रुपयों के मासिक वेतन पर हेड असिस्टैन्ट के पद पर कार्यरत था। वह छ: महीने की छुट्टी लेकर डिपोजिटरी के प्रबन्धन के निरीक्षण में जुट गया। इन छ: महीनों में राजकृष्ण मेहनत और लगन के साथ बही खातों का परीक्षण किया एवं उसे साफसुथरा किया। काफी कोशिशों के बाद वह छापाखाना एवं दुकान को पूरी तरह व्यवस्थित करने में सफल हुये। व्यवसाय जल्द ही तरक्की के रास्ते पर आई और बही खाते ही उसकी अग्रगति को बता रहे थे। विद्यासागर के पिता राजकृष्ण के प्रबन्धन से इतना खुश हुये कि उन्होने राजकृष्ण को फोर्ट विलियम कॉलेज से इस्तीफा दे कर स्थाई तौर पर डिपोजिटरी का सुपरिन्टेन्डेन्ट बन जाने को कहा। विद्यासागर ने भी उन्हे ऐसा ही करने को उत्साहित किया। फलस्वरूप, राजकृष्ण स्थाई तौर पर डेढ़ सौ रुपये की तनख्वाह पर संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी के मैनेजर नियुक्त हो गये। डिपोजिटरी बहुत तेजी से विकासमान एवं लाभदायी व्यवसाय बन गया।”
व्यवसाय इतना बढ़ा कि जब सरकारी नौकरी में उनकी तनख्वाह संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य का वेतन और विद्यालयों के विशेष इंसपेक्टर का वेतन मिलाकर कुछेक सौ रुपये होता था, पुस्तक मुद्रण व बिक्री के व्यवसाय से आय हजारों में होने लगा। हालाँकि, इस लाभदायी व्यवसाय का ‘लाभ’ विद्यासागर को नहीं मिला। इतने दानी थे कि आगे चलकर अपने दानों के कारण और अपने खर्च से विधवाओं के किये गये विवाह-आयोजनों के कर्ज के कारण संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी को बेच देना पड़ा।
सन 1828 के नवम्बर महीने में आठ साल की उम्र में बालक ईश्वर कलकत्ता आये थे संस्कृत कॉलेज में भर्ती होने के लिये। उसके बाद से सन 1891 के 29 जुलाई को हुये उनकी मृत्यु तक के 63 वर्षों में 49 वर्षों तक वह विभिन्न किराये के मकानों में या किसी का अतिथि बन कर बिताये। आखिर के 18 वर्षों में, यानि सन 1872 के बाद वह कर्माटाँड़ के नन्दन कानन में या उसके कुछ वर्षों बाद खरीदे गये बादुड़ बागान के मकान में रहे।
विद्यासागर काम के हर क्षेत्र में नये कदम उठाने वाले व्यक्ति थे। जिस तरह उन्होने वर्णमाला का सुधार किया उसी तरह बंगला छापाखाने का भी सुधार किया। निखिल सरकार लिखते हैं, “कहा जाता है कि पाठ्यपुस्तक के हरफ एवं युक्ताक्षरों के लिपिचित्रों में समानता लाने के लिये वह श्रीरामपुर स्थित अधर टाइप फाउन्ड्री तक पहुँच गये थे।”
सोमप्रकाश एवं हिन्दू पैट्रियट
उद्यमिता और उद्यमिता के जरिये समाज को आगे बढाने के काम का एक और मिसाल है ‘सोमप्रकाश’ पत्रिका की शुरुआत एवं ‘हिन्दू पैट्रियट’ पत्रिका का अधिग्रहण।
सन 1858 के नवम्बर महीने में विद्यासागर विद्यालयों के विशेष निरीक्षक के पद से इस्तीफा दिये। दो महीने तक अंग्रेज सरकार, खास कर लेफ्टेनैन्ट गवर्नर हैलिडे उन्हे मनाने की कोशिश करते रहे पर विद्यासागर नहीं माने, क्योंकि डाय्रेक्टर ऑफ पब्लिक इन्स्ट्रकशन गॉर्डन यंग उद्धत ढंग से पेश आ रहे थे, और साथ ही विद्यासागर द्वारा खोले गये बालिका विद्यालयों का खर्च सरकार देने को राजी नहीं हो रही थी। उधर उनके प्रयासों से सरकार ने विधवाविवाह कानून बनाया था, वह खुद विधवाओं के विवाह खुद खड़ा होकर दे रहे थे, लेकिन वह बंगला अखबार एवं पत्रपत्रिकाओं की दुनिया में एक अभाव महसूस कर रहे थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रकाशित ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका या अन्य पत्रिकायें तब पहले वाली स्थिति में नहीं थी। अंग्रेजी में हरीशचन्द्र मुखर्जी द्वारा सम्पादित ‘हिन्दू पैट्रियट’ तो शानदार तरीके से अंग्रेजी पत्रकारिता की दुनिया में सामाजिक सुधार एवं प्रारंभिक राष्ट्रवादी विचारों के प्रसार में अपनी जगह बना रहा था। बंगला में खालीपन था। बालविवाह, कुलीन प्रथा यानि बहुविवाह आदि सवालों को लेकर जनमत तैयार करने के लिये एक अखबार या सामयिकपत्र की आवश्यकता थी।
दूसरी ओर, दिमाग के किसी कोने में एक दूसरा सवाल भी कुरेद रहा था। कुछ दिनों पहले शारदा प्रसाद गांगुली नाम के एक व्यक्ति विद्यासागर से मिलने आये थे। वह कभी संस्कृत कॉलेज के ही अच्छे छात्र थे, संस्कृत एवं हिन्दी के ज्ञान के कारण छात्रवृत्ति भी मिलती रही थी। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी श्रवणशक्ति लुप्त हो चुकी थी। विद्यासागर से उन्होने अनुरोध किया था कि उनकी रोजीरोटी की कुछ व्यवस्था कर दी जाय।  
ईश्वरचन्द्र, संस्कृत कॉलेज के एक सहकर्मी, अध्यापक द्वारकानाथ विद्याभूषण के साथ बातचीत करने लगे कि एक साप्ताहिक समाचारपत्र प्रकाशित किया जाय। द्वारकानाथ भी राजी हो गये। विद्यासागर के पास अभी पुस्तकों की बिक्री आदि से इतना पैसा आ रहा था कि साप्ताहिक पत्र निकल सकता था। सन 1858 के 15 नवम्बर को ‘सोमप्रकाश’ का प्रकाशन शुरू हुआ। जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र कहते हैं कि शारदा प्रसाद गांगुली ‘सोमप्रकाश’ के प्रकाशक बनाये गये ताकि उन्हे इसका लाभ मिल सके। हालाँकि, आगे के सुचना-स्रोतों से यह प्रतीत होता है किसी कारणवश शारदा प्रसाद गांगुली इससे जुड़े नहीं रह सके और समाचारपत्र का पूरा भार द्वारकानाथ विद्याभूषण पर पड़ गया। द्वारकानाथ विद्याभूषण ब्राह्मोसमाज के यशस्वी नेता व समाज-सुधारक शिवनाथ शास्त्री के मामा थे। अपने ‘आत्मचरित’ में, बचपन के कुछ दिन मामा के घर में बिताने का संस्मरण सुनाते हुये शिवनाथ शास्त्री लिखते हैं, “यहाँ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हमेशा ही आते थे, और मेरे मामा के साथ कुछ सलाह-मशविरा करते थे। बाद में सुनने को मिला, ‘सोमप्रकाश’ नाम से एक अखबार प्रकाशित होगा उसी की बातचीत चल रही है। सन 1858 में ‘सोमप्रकाश’ अखबार प्रकाशित हुआ।”
‘आत्मचरित’ सन 1918 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। कई वर्षों बाद साधारण ब्राह्मोसमाज द्वारा प्रकाशित एक संस्करण में सम्पादक ने मूल ग्रंथ के साथ कुछ संयोजन जोड़ा है। ‘सोमप्रकाश, द्वारकानाथ विद्याभूषण एवं शिवनाथ शास्त्री’ शीर्षक दूसरे संयोजन में ‘द हिन्दू पैट्रियट’ अखबार के 9 जनवरी 1865 संख्या में प्रकाशित किसी लेख से ‘सोमप्रकाश’ के पहले वर्ष की पहले संख्या के बारे में लिखी गई बातें उद्धृत की गई है, “The Shome Prokash was first projected by Pundit Eswar Chunder Vidyasaghar, and we believe the first number was written by him।” आगे उसी संयोजन में स्वतंत्रता संग्रामी बिपिन चन्द्र पाल रचित ‘मेमॉयर्स ऑफ माइ लाइफ ऐन्ड टाइम्स’ के पृ॰ 306-307 से उद्धृत किया गया है, “Somprakash was, however, a professedly political newspaper and it had always been absolutely outspoken in its criticism of public policies and measures.”
शिवनाथ शास्त्री अपने दूसरे ग्रंथ ‘रामतनु लाहिड़ी ओ तत्कालीन बंगसमाज’ में उस समय के बंगाल अखबारों की स्थिति की चर्चा करते हैं। ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका मुख्यत: धर्मतत्व की चर्चा करती थी जबकि आपसी गाली-गलौज, भोंडे मजाक आदि की ही प्रधानता थी दूसरे अखबारों या पत्रिकाओं में। “ऐसे माहौल में सोमप्रकाश का आविर्भाव हुआ। उस दिन की बात हमें अच्छी तरह याद है। इस अखबार को किसने निकाला, इस अखबार को किसने निकाला का शोर मच गया। जितनी ललित भाषा, उतनी ही विषय की गंभीरता। समाचारपत्र के लिये यह एक नया रास्ता था, बंगसाहित्य में एक नये युग का प्रारंभ हुआ। … अखबार साप्ताहिक था, वार्षिक शुल्क था दस रुपया, वह भी अग्रिम में देय। फिर भी देखते देखते सारी प्रतियाँ उठ गईं। … सोमप्रकाश के बाद और कई बंगाल साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित हुई है। भाषा की चमक और रचना की निपुणता और अधिक हुई है, राजनीति की चर्चा कई गुणा बढ़ी है, लेकिन तत्कालीन सोमप्रकाश की जगह कोई नहीं ले पाया है।”
नि:सन्देह इस साप्ताहिक पत्र की ऐतिहासिक भूमिका का सारा श्रेय इसके सम्पादक द्वारकानाथ विद्याभूषण को जाता है लेकिन इसकी पूरी प्राथमिक परिकल्पना ईश्वरचन्द्र विद्यासगर की थी। सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि लेखकीय सहयोग भी उन्होने किया।
14 जून 1861 तारीख को हिन्दू पैट्रियट अखबार के योग्य सम्पादक व मालिक एवं भारतीय पत्रकारिता जगत के प्रारम्भिक यशस्वियों में से एक हरीशचन्द्र मुखर्जी का निधन हो गया। अखबार पर आये संकट को देख कर बाबु कालीप्रसन्न सिंहो, जो अमीर बाबू होते हुये भी बंगाल के नवजागरण के प्रमुख नामों में से एक हुये, ने ‘हिन्दू पैट्रियट’ को छापाखाना सहित पाँच हजार रुपये में खरीद लिया। उपरोक्त कालीप्रसन्न सिंहो की कालजयी कृति है व्यंगात्मक सामाजिक शब्दचित्रों का संकलन ‘हुतोमपेंचार नक्शा’ एवं व्यासकृत ‘महाभारत’ का पूर्णांग बंगला अनुवाद, जिसके कारण उनका नाम बंगाल के साहित्यिक महकमों में आज भी लोकप्रिय है।  
कालीप्रसन्न सिंहो कुछ दिनों तक इसके घाटे सहे। उसके बाद उन्होने विद्यासागर से बात किया। विद्यासागर इसे चलाने का जिम्मा लिये और एक सक्षम आदमी कृष्टोदास पाल को इसका सम्पादक बनाया। कृष्टोदास पाल भी इसके योग्य सम्पादक निकले और आगे इसे चलाते रहे। विद्यासागर के जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र ने सी॰ई॰बकलैन्ड रचित ग्रंथ ‘बेंगॉल अन्डर लेफ्टेनैन्ट गवर्नर्स’ से उद्धृत किया है, “जब हरीश चन्द्र मुखर्जी, हिन्दू पैट्रियट के संस्थापक, का दिनांक 14 जून 1861 को निधन हो गया, इसके नये मालिक बाबु कालीप्रसन्न सिंहो, कुछ दिनों तक घाटे सहते हुये इसका प्रबन्धन चलाने के उपरांत इसे पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को सौंप दिये। विद्यासागर ने 1861 में कृष्टोदास पाल को इसका सम्पादकीय दायित्व निभाने का आमंत्रण दिया और बाद में, जुलाई 1862 में इस अखबार का मालिकाना एक ट्रस्टी संस्था को सौंप दिया। उक्त ट्रस्टियों ने अखबार का प्रबन्धनभार भी कृष्टोदास पाल को दिया जो अपने मृत्यु तक इसके सम्पादक रहे तथा अखबार को प्रभावशाली बनाने के साथ साथ आर्थिक लाभ की ओर ले गये।”
सुबल चन्द्र मित्र आगे लिखते हैं, “कृष्टोदास का उस समय तक लेखक के रूप में कोई ख्याति नहीं थी। किसी को यह एहसास नहीं था कि आगे चल कर ये इतने बड़े लेखक बनेंगे। इसलिये, विद्यासागर द्वारा ऐसे आदमी को सम्पादकीय दायित्व दिया जाना सबको आश्चर्यचकित किया था। लेकिन जल्द ही उन्होने अपनी गलती महसूस की और एक योग्य व्यक्ति के चयन के लिये बुद्धिमान विद्यासागर की भूरी भूरी प्रशंसा की।” (हालाँकि, आगे चल कर विद्यासागर ने कुछ कारणों से हिन्दू पैट्रियट से खुद को पूर्णत: अलग कर लिया था)।





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