Tuesday, January 15, 2019

॥ 13 ॥ नारी सशक्तिकरण : बालविवाह का विरोध

सन 1850 में ‘सर्वशुभंकरी’ नाम की मासिक पत्रिका में ‘बाल्यविवाहेर दोष’ (बालविवाह की बुराईयाँ) शीर्षक एक निबंध प्रकाशित हुआ था। उक्त पत्रिका में किसी भी आलेख के साथ लेखक का नाम नहीं था। पर बाद में विद्यासागर के समसामयिक, मित्र राजनारायण बसु लिखित ‘आत्मचरित’ तथा विद्यासागर के सुपुत्र शम्भुचन्द्र विद्यारत्न लिखित ‘विद्यासागरेर जीवन चरित’ ग्रंथ में जिक्र हुआ कि वह निबंध ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का ही लिखा हुआ है।
“आठवीं साल की उम्र में कन्या का दान करने से गौरीदान का पूण्योदय होता है, नौवीं साल की उम्र वाली को दान करने से पृथ्वी-दान का फल मिलता है, दसवीं साल वाली को पात्र के हाथों में देने से परलोक में पवित्र स्थान की प्राप्ति होती है आदि जो लाभ स्मृतिशास्त्र द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं, उसी की मृगतृष्णा में मुग्ध होकर बिना परिणाम की विवेचना किये हमारे देश के सभी लोग बाल्यकाल में विवाह की प्रथा का प्रचलन किये हैं।”
इन्ही पंक्तियों से वह निबन्ध की शुरूआत करते हैं। जैसा कि पहले कहा गया है इस मसले पर उन्हे आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला। लेकिन प्रेम और दाम्पत्य के बारे में या मानव-जीवन में उसके महत्व के बारे में वह क्या सोचते थे इसकी एक झलक उनके इस निबन्ध में देखने को मिलता है।
“मन की एकता ही प्रणय का मूल है। वह एकता उम्र, स्थिति, रूप, गुण, चरित्र, बाह्य भाव एवं आन्तरिक भाव आदि बहुत सारे कारणों पर निर्भर करती है। हमारे देश के बालदम्पति एक दूसरे का आशय नहीं जान पाये, एक दूसरे के अभिप्राय को समझने का उन्हे मौका नहीं मिला, स्थिति के बारे में जानकारी नहीं ले पाये, भेँट-मुलाकात के द्वारा एक दूसरे के चरित्र के बारे में जानना तो दूर, एक बार ठीक से नजरें भी नहीं मिली उनकी, केवल एक उदासीन बातुनी घटक के व्यर्थ उत्तेजक बातों पर भरोसा करते हुये पिता-माता ने जैसी अभिरुचि बनाई, वही बेटी और बेटे के लिये विधि के लिखे जैसी, सुखदुख की अलंघ्य सीमा बन गई। इसी लिये हमारे देश में दाम्पत्य के बन्धन में निश्छल प्रणय प्राय: नहीं दीखता है, प्रणयी बस भात-भोजन देने वाला और प्रणयिनी घर की नौकरानी बन कर संसार-यात्रा का निर्वाह करते हैं।”
“… प्राचीन समाज में लगभग सभी जातियों में विवाह अधिक उम्र में होते थे। हालाँकि उस समय होने वाले विवाहक्रिया के शास्त्र में आठ प्रकार का उल्लेख मिलता है, फिरभी अधिक उम्र में होने वाले गान्धर्व, आसुर, राक्षस, पैशाच – ये चार प्रकार के विवाह अधिक प्रचलित थे। इनके अलावे स्वयम्वर प्रथा का भी प्रचलन था और ये सभी प्रकार के विवाह, वर एवं कन्या के अधिक उम्र के न होने पर संभव ही नहीं है।”
“… लोकाचार व शास्त्र के प्रयोग के बन्धन में आबद्ध होकर दुर्भाग्य से हमलोग पीढ़ी दर पीढ़ी बालविवाह के कारण अन्तहीन क्लेश एवं निरन्तर दुर्दशा भोग रहे हैं। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने के कारण विवाह का जो मीठा फल है – मधुर प्रणय – उसका स्वाद दम्पतियों को कभी भी नहीं प्राप्त होता है। बल्कि, अगर परस्पर प्रणय के साथ घरसंसार करना चाहे भी तो हर कदम विड़म्बनायेँ झेलनी पड़ती हैं। और, परस्पर के बीच अप्रीतिकर सम्बन्ध से जो सन्तान की उत्पत्ति होती है उसका भी उन्ही की तरह कुन्ठित होने की अधिक सम्भावना होती है। नवविवाहित बालक-बालिकायें परस्पर के मनोरंजन हेतु रसभरी बातें, उसी में उस्तादी, वाक-चातुर्य, कामकला कौशल इत्यादि के अभ्यास व अभिव्यक्ति में हर वक्त लगे रहते हैं। उस दिशा में आवश्यक उपायों की परिपाटी के बारे में सोचने में तत्पर रहते हैं। फलस्वरूप, उनके विद्याभ्यास में वाधा उत्पन्न होता है। जगत का जो सार है, विद्या, उसी धन से वंचित होकर वे सिर्फ मनुष्य की आकृति रह जाते हैं। दर-असल, वास्तविक मनुष्य में उनकी गिनती भी नहीं होती।”
“…सभी सुख का जो मूल है, दैहिक स्वास्थ्य, बालविवाह में उसका भी क्षय होता है। अन्यान्य जातियों की अपेक्षा हमारे देश के लोगों के शारीरिक व मानसिक सामर्थ्य में जो नितान्त कमी है, उसका कारण अगर ढूंढ़ा जाय तो बालविवाह ही नि:सन्देह प्रधान कारण माना जायेगा।”
“… हाय! कब हमें इस दुरवस्था से उद्धार करेंगे जगदीश्वर। और वह शुभदिन भी कितने समय के बाद आयेगा। खैर, आजकल इस विषय को लेकर जो आन्दोलन हो रहे हैं, उस से मंगल होगा। शायद कभी न कभी इस देश के लोग उस आगामी शुभ दिन के शुभ आगमन पर सुख की स्थिति में जी पायेंगे।”
आगे इस निबंध में विद्यासागर ‘सभ्य, सुशिक्षित’ व्यक्तियों से अनुरोध करते हैं कि वे नारीशिक्षा के लिये जितना उद्यम दिखायें, उतना ही उद्यम बालविवाह को खत्म करने में भी दिखायें, नहीं तो लक्ष्य की प्राप्ति कभी नहीं होगी। साथ ही, ‘जन्मकाल से बीस वर्षों की उम्र तक’ मृत्यु की अधिक संभावना प्रस्तावित करते हुये [निबंध में जिक्र नहीं है पर स्पष्ट है कि मृत्यु की यह उम्रसीमा पुरुष के लिये एवं दैहिक विकास सम्बन्धित होगी] विद्यासागर कहते हैं कि अगर बीस वर्ष की उम्र पार करने के बाद विवाह हो तो विधवाओं की संख्या भी अधिक नहीं होगी।
सन 1891 में जब फूलमणि यौन-हत्याकांड के बाद पहली बार भारत में स्वीकृति की उम्र (एज ऑफ कॉन्सेन्ट) पर कानून बनाने का सवाल आया तो विद्यासागर जीवित थे। सरकार ने राय मांगी। विद्यासागर ने दिनंक 16 फरवरी 1891 को जो लिखित जबाब दिया वह इस प्रकार था:-
“…मेरा प्रस्ताव होगा कि किसी पुरुष के लिये, उसकी पत्नी के प्रथम मासिक होने के पूर्व विवाह क्रिया को सम्पूर्ण करना [सहवास करना] दण्डनीय अपराध हो। चुँकि बहुसंख्यक लड़कियाँ 13, 14, या 15 साल की उम्र के पहले वह लक्षण प्राप्त नहीं करती, इसलिये मेरा प्रस्तावित कदम विधेयक से अधिक व्यापक, अधिक वास्तविक एवं अधिक बड़ी सुरक्षा प्रदान करेगा। साथ ही साथ, उस कदम का विरोध, धार्मिक क्रिया में हस्तक्षेप का आरोप लगा कर भी नहीं किया जा सकेगा।”
आगे विद्यासागर बालिका-पत्नियों की स्थिति के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुये यह भी जोर डालते हैं कि धार्मिक शास्त्रों में नियमों के उल्लंघन की सजा चुँकि आध्यात्मिक किस्म की है, इसलिये सरकारी दण्डात्मक कानून बनना ही चाहिये।    
भारत में बालविवाह निरोधक कानून पहलीबार 1929 में बना जिसमें लड़की की उम्रसीमा 15 की गई। उसके 
पहले सिर्फ भारतीय दण्ड संहिता 1860 के अनुसार बलात्कार की उम्रसीमा (रजामन्दी या पत्नी होने के बावजूद) 10 वर्ष थी जिसे 1891 में उपरोक्त फूलमनी-मृत्युकांड के उपरान्त 12 वर्ष किया गया था। 



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