Tuesday, January 15, 2019

॥ 3 ॥ शिक्षा : बालिका विद्यालयों की स्थापना


बालिकाओं के लिये भी सीमित संख्या में मिशनरी स्कूल थे और बड़े लोगों के निजी उद्योग से स्थापित हिन्दु लड़कियों के लिये बालिका विद्यालय थे। सन 1824 में छपा था ‘स्त्रीशिक्षा विधायक’ नाम के एक पर्चे का तीसरा संस्करण। यह पर्चा हिन्दु स्त्रियों को पढ़ाई के लिये प्रेरित करने हेतु बनाया गया था। उसी में जिक्र है कि 1820 में पहला विद्यालय ‘जुवेनाइल विद्यालय’ बनने के बाद लड़कियों के लिये भी विद्यालय खोले गये। सन 1823-24 में पचास बालिका विद्यालय थे जिनमें कुल मिला कर 800 लड़कियाँ पढ़ती थीं। लेकिन बालिकाओं का पाठ्यक्रम बस बोलने लिखने लायक मातृभाषा, धर्मग्रंथ, सिलाई, कढ़ाई सिखाने वाला था था। विद्यासागर का मॉडल बेंगॉली स्कूल वाला नया पाठ्यक्रम नारीशिक्षा में क्रांतिकारी गति ले आया।
जीवनीकार ब्रजेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का प्रिय एक संस्कृत श्लोक का हिस्सा उद्धृत करते हैं, “कन्यापेवं पालनीया शिक्षणियातियत्नत:”; कि यही विद्यासागर को प्रेरित करता रहा। वह बताते हैं कि सन 1849 में सर जे॰ ई॰ डी॰ बेथुन [जीवनी रचना के समय उच्चारण शायद ‘बीटन’ रहा होगा – लेखक] ने कलकत्ते में एक बालिका विद्यालय स्थापित किया। शुरू से ही उन्हे विद्यासागर का सहयोग मिला। बेथुन साहब अंग्रेज सरकार के शिक्षा परिषद के भी अध्यक्ष थे। उन्होने विद्यासागर से आग्रह किया कि वह बेथुन गर्ल्स स्कूल [पहले ‘हिन्दु गर्ल्स स्कूल’] के मानद सचिव बन जायें। विद्यासागर ने सचिव के रूप में काम शुरू किया। शहर के परिवारों को आकर्षित करने के लिये उन्होने लड़कियों को स्कूल ले आने वाली गाड़ी के दोनों ओर उपरोक्त श्लोक “कन्यापेवं पालनीया शिक्षणियातियत्नत:” खुदवा दिया। बेथुन साहब के जिन्दा रहते एवं उनके मरने के बाद जब सरकार ने स्कुल का परिचालन सिसिल बीडन के हाथों में सौंपा तब भी स्कुल को बेहतर बनाने में, छात्राओं की संख्या बढ़ाने में, परिचित परिवारों को प्रोत्साहित करने में कि वे अपनी बच्चियों को स्कूल भेजें, व्यक्तिगत यतन के साथ विद्यासागर जुटे रहे।
उधर इंग्लैन्ड के सरकारी महकमे में एक पक्ष भारत में नारीशिक्षा को आगे बढ़ाने की वकालत कर रहा था। बंगाल के लेफ्टेनैंट गवर्नर हैलिडे चूंकि खुद इस पक्ष में थे इसलिये उन्होने विद्यासागर से सहायता मांगी। बस, और क्या चाहिये था! नारीशिक्षा के प्रबल समर्थक तो वह थे ही। बालिका विद्यालय खोलने कि दिशा में वह तेजी से आगे बढ़ गये।
ब्रजेन्द्रबाबु लिखते हैं, “नवम्बर 1857 से मई 1858 – इन कुछ महीनों में विद्यासागर ने 35 बालिका विद्यालय खोला, उनमें हुगली जिला के विभिन्न गाँवों में 20, वर्धमान जिले में 11, मेदिनीपुर जिले में 3 और नदिया जिले में 1 विद्यालय शामिल थे। विद्यालयों के लिये महीने में 845 रुपये खर्च होते थे, छात्राओं की संख्या थी लगभग 1300।”
शायद रुचिकर हो, उन विद्यालयों की तालिका भी ब्रजेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय की उपरोक्त जीवनी के सौजन्य से नीचे प्रस्तुत है।
गाँव/जिला   स्थापना की तारीख   गाँव/जिला    स्थापना की तारीख
हुगली जिला
पोटवा     24 नवम्बर 1857  दासपुर    26 नवम्बर 1857
बैंची      01 दिसम्बर 1857 दिगशुइ   07 दिसम्बर 1857
तालान्डु    07 दिसम्बर 1857 हातिना   15 दिसम्बर 1857
हयेरा     15 दिसम्बर 1857 नवपाड़ा   30 जनवरी  1858
उदयराजपुर 02 मार्च   1858  रामजीवनपुर 16 मार्च    1858
आकाबपुर  28 मार्च    1858 शियाखाला  01 अप्रैल   1858
माहेश    01 अप्रैल1858  बीरसिंहो   01 अप्रैल   1858 
गोयालसारा 04 अप्रैल   1858 दन्डीपुर   05 अप्रैल   1858
देपुर      01 मई     1858 राउजापुर   01 मई1858 
मलयपुर   12 मई     1858 विष्णुदासपुर15 मई     1858
                  वर्धमान जिला
रानापाड़ा   01 दिसम्बर 1857 जामुइ     25 जनवरी  1858
श्रीकृष्णपुर  26 जनवरी  1858 राजारामपुर 26 जनवरी  1858
ज्योत-श्रीरामपुर27 जनवरी1858 दाँइहाट    01 मार्च    1858
काशीपुर     01 मार्च    1858 सानुइ    15 अप्रैल   1858
रसुलपुर     26 अप्रैल   1858 बन्तीर    27 अप्रैल   1858
बेलगाछी   01 मई     1858
                  मेदिनीपुर जिला
भांगाबांध   01 जनवरी  1858 बदनगंज   10 मई    1858
शान्तिपुर   15 मई     1858
                  नदिया जिला
नदिया    01 मई     1858  
गौरतलब है कि ब्रजेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय के पुस्तक में सरकारी दस्तावेज के हवाले जो सूची उपलब्ध कराई गई है उसमें हर विद्यालय के स्थान एवं स्थापना की तारीख के साथ उस विद्यालय पर आ रहे मासिक खर्च का भी जिक्र है। यह इसलिये कि यही खर्च बाद में विद्यासागर का अंग्रेज सरकार से क्षुब्ध होते हुये नौकरी से इस्तीफा देने का मुख्य कारण बना।
दर असल विद्यासागर, अंग्रेज सरकार का नारीशिक्षा के प्रति झुकाव एवं लेफ्टेनैंट गवर्नर हैलिडे का उनके काम के प्रति पूर्ण समर्थन के भरोसे बालिका विद्यालय स्थापित करते चले गये एवं समय समय पर प्रतिवेदन सरकार को भेजते चले गये। यह सरकार की भी लापरवाही थी कि उसने इसके खर्च पर दिल्ली सरकार से स्पष्ट निर्देश नहीं प्राप्त किये। जब यह सवाल आया तब तक कुल खर्च, सभी विद्यालयों का मिलाकर तीन हजार रुपयों से अधिक हो गया। ऊधर दिल्ली की सरकार 1857 के गदर के दमन के बाद तंगी में भी आ गई थी और नारीशिक्षा ही क्यों, शिक्षा के ही सवाल पर उदासीन हो गई थी। बंगाल सरकार की अनुशंसा के बावजूद दिल्ली ने बालिका विद्यालयों का खर्च देने से इन्कार कर दिया। विद्यासागर ने क्षुब्ध होकर बंगाल सरकार को पत्र लिखा। अन्तत: बंगाल सरकार के विशेष अनुरोध पर दिल्ली की सरकार ने तीन हजार रुपये तो दे दिये पर आगे का खर्च उठाने से मना कर दिया। सरकारी दस्तावेज में छपी सूची में खर्च का जिक्र आया ही इसलिये था कि सूची, सरकारी महकमे में खर्च के जिक्र के साथ बनी थी।
खैर, क्षुब्ध होकर विद्यासागर ने एक एक कर सहकारी स्कूल इन्स्पेक्टरी छोड़ दी, संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य का पद छोड़ दिया (नवम्बर 1858), बाद में उसके परीक्षकों के बोर्ड से भी पदत्याग कर दिया, यानी पूरी तरह से सरकारी नौकरी छोड़ दी।
पदत्याग करते समय साहबों ने समझाया कि अभी पदत्याग करने पर पेंशन नहीं मिलेगी, थोड़ा रुक जाइये पर विद्यासागर ने साफ जबाब दिया कि जरूरत पड़ेगी तो भूखे रहेंगे पर नीतियों पर मतविरोध हो गया तो एक क्षण अब इस पद पर नहीं रहेंगे। इन्स्पेक्टरी भी इसी तरह छोड़ा क्योंकि सरकार ने यथोचित कोष मुहैया कराना बन्द कर दिया था। फिर भी, सरकार ने जब भी शिक्षा के क्षेत्र में उनको सुझाव देने के अनुरोध किये उन्होने सुझाव दिया। ज्ञातव्य हो कि बाद में ‘वूड्स डेसपैच’ के नाम से प्रख्यात जिन अनुशंसाओं के तहत अंग्रेज सरकार ने पूरे भारत में सरकारी विद्यालय खोलने, कन्या विद्यालय खोलने, निजी प्रयासों से खोले जाने वाले विद्यालयों को आर्थिक मदद देने आदि की नीति अपनाई, उक्त ‘वुड्स डेसपैच’ का आधार था ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा दिये गये सुझाव।
अब विद्यासागर ने अपने ढंग से काम करना शुरू किया। सबसे पहले उन्होने बालिका विद्यालयों का खर्च उठाने के लिये एक ‘नारीशिक्षा प्रतिष्ठान भंडार’ स्थापित किया। इस भंडार में कई बड़े जमींदार (राजा), सम्भ्रांत लोग एवं उँचे पद पर बैठे सरकारी कर्मचारी नियमित चन्दा देते थे। यहाँ तक कि तत्कालीन लेफ्टेनैंट गवर्नर सेसिल बीडन भी महीने में 55 रुपये देते थे।
कुछ दिनों बाद सर बार्टल फ्रियर को लिखे गये एक पत्र में विद्यासागर ने लिखा, “सुनकर आप प्रसन्न होंगे कि मुफस्सिल के जिन बालिका विद्यालयों के लिये आपने चन्दा दिया था, वे बढ़िया से चल रहे हैं। आस पास के जिलों के लोग नारीशिक्षा के महत्व को समझने लगे हैं। बीच बीच में नये विद्यालय भी खोले जा रहे हैं।” [विद्यासागर प्रसंग, ब्रजेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय, पृ: 57-58]
नारीशिक्षा पर विद्यासागर ने जितनी तेजी से व्यापक पैमाने पर काम किया यह तो उनके चरित्र का गुण था। साथ ही, उनके काम का महत्व इसमें था कि जबकि पहले के बालिका विद्यालयों, पाठशालाओं आदि में सामान्य अक्षरबोध, धर्मग्रंथों का पाठ वगैरह सिखाया जाता था, विद्यासागर द्वारा खोले गये बालिका विद्यालय उनके नये पाठ्यक्रम पर आधारित थे जिसमें गणित, विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्त्र, साधारण ज्ञान आदि शामिल था। इसी का फल था कि उनके दिशानिर्देशानुसार बने बेथुन कन्या विद्यालय से उत्तीर्ण होकर भागलपुर की बेटी कादम्बिनी बसु (गांगुली) आगे चल कर न सिर्फ भारत बल्कि एशिया की पहली महिला चिकित्सक बनी।  



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