पूरी दुनिया में दबी कुचली जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को रूस की अक्तूबर क्रान्ति ने जागृत कर दिया था । क्रान्ति के बाद दुनिया के बहुत सारे भागों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ बनने लगीं । वर्ष 1918 से 1931 के बीच की अवधि में एशिया महादेश के अन्दर तुर्की, इन्दोनेशिया, चीन, भारत, जापान, बर्मा, फिलिपाइन्स सहित लगभग एक दर्जन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अस्तित्व में आ गईं ।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ठीक कब हुई इस
सवाल पर लोगों के अलग अलग विचार हैं । सीपीआई 26 दिसम्बर 1925 की तारीख को स्थापना
दिवस मानता है । लेकिन सीपीआई(एम) मानता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की
स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को मौजूदा उज्बेकिस्तान स्थित ताशखन्द में हुई । उस समय
के अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी मानवेन्द्र नाथ राय ने खुद
ताशखन्द में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने में पहल की । बैठक में सात
सदस्य भाग लिये जिनमें से मोहम्मद शफीक़ को सचिव चुना गया ।
इसी अवधि में हिजरत आन्दोलन शुरू हो चुका था और कई
मोहाजिर भारत छोड़ तुर्की की ओर रवाना हो गये थे । जब तुर्की में वे प्रवेश नहीं कर
पाये तो उन में से बहुत सारे ताशखन्द चले गये । ‘पूर्व के मेहनतकशों के
विश्वविद्यालय’ (युनिवर्सिटी ऑफ द टॉयलर्स ऑफ द ईस्ट) में अध्ययन समाप्त करने के
उपरान्त भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य मोहाजिरों ने भारत वापस आना तय किया ।
पार्टी के लिये भूमिगत तौर पर काम करने के लिये दस लोग ताशखन्द से भारत के लिये
चले । आगे ये मोहाजिर एवं कुछ और लोग, गिरफ्तार कर लिये गये । नतीजे के तौर पर
कम्युनिस्टों पर मुकदमे चले – पेशावर षड़यंत्र का पहला एवं दूसरा मुकदमा ।
सन 1922-24 में अंग्रेजी हुकूमत की ओर से दायर किये गये
इन मुकदमों ने देश की जनता के सामने जाहिर कर दिया कि मज़दूरवर्ग एवं उसकी
क्रातिकारी पार्टी भारत के राजनीतिक परिदृश्य में उभर चुके हैं । इस पार्टी के
उभरने का प्रभाव था कि देश में अनेकों पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हुये एवं वितरित
हुये । लाहौर, बम्बई एवं कलकत्ता से प्रकाशित इन पत्रिकाओं में, भले ही अस्पष्टता
के साथ लेकिन, वैज्ञानिक समाजवाद के विचार प्रचारित किये गये । इन विचारों से
प्रभावित होकर विभिन्न राज्यों में कम्युनिस्टों के कई गुट बनें । आगे चलकर कानपुर
षड़यंत्र के नाम से मुकदमा दायर हुआ। इसमें मुज़फ्फर अहमद, श्रीपाद अमृत डांगे, शौकत
उसमानी एवं अन्य कई अभियुक्त बनाये गये ।
यह कहने की जरूरत नहीं कि पार्टी की स्थापना यद्दपि विदेश
में हुई, पार्टी बनाने वाले भारतीय थे एवं बनाने का उद्देश्य था भारत में
कम्युनिस्ट आन्दोलन के लक्ष की प्राप्ति । आन्दोलन के उन प्रारम्भिक दिनों में,
साम्यवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाना प्राथमिक लक्ष्य था । इसी पार्टी के
प्रयासों से, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सन 1921 में आयोजित अहमदाबाद कांग्रेस,
सन 1922 में आयोजित गया कांग्रेस तथा आगे के कांग्रेसों में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र
बाँटे गये । विशेष रूप से जिक्र करना चाहिये कि अहमदाबाद कांग्रेस में
कम्युनिस्टों की ओर से मौलाना हसरत मोहानी ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव
पेश किया जिसे महात्मा गांधी के विरोध के कारण हटा दिया गया । इन प्रस्तावों एवं घोषणापत्रों
में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य रखा गया था एवं इस सवाल पर कांग्रेस को
स्पष्ट समझ पर खड़े होने का सुझाव दिया गया था ।
दिसम्बर 1925 में, सिंगरवेलु चेट्टियार की अध्यक्षता
में, कानपुर में कम्युनिस्ट गुटों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
की स्थापना का एवं मुम्बई में इसका हेडक्वार्टर बनाने का प्रस्ताव लिया गया ।
चुँकि ब्रिटिश हुकूमत के दमन का सामना करते हुये कम्युनिस्टों के लिये काम करना
असम्भव होता जा रहा था इसलिये मज़दूरों एवं किसानों की पार्टी (वर्कर्स ऐन्ड
पीज़ैन्ट्स पार्टी) के नाम से एक खुला मंच बनाया गया । सन 1920 में ही ऑल इन्डिया
ट्रेड युनियन कांग्रेस अस्तित्व में आ गया था ।
कम्युनिस्टों को इस संगठन में अधिकतर बड़ी भूमिका निभानी
थी । इसी अवधि में देश के कुछ भागों में किसानों के भी संगठन बने । सन 1925 में,
ऑल इन्डिया वर्कर्स ऐन्ड पीज़ैन्ट्स पार्टी का गठन कलकत्ता में हुआ । बाद में, वर्ष
1935 के दौरान, ऑल इन्डिया स्टुडेन्ट्स फेडरेशन भी अस्तित्व में आया एवं कुछ ही
वर्षों के अन्दर यह संगठन कम्युनिस्टों के प्रभाव में आ गया ।
हालाँकि, केन्द्रीकृत उपकरणो के साथ एक कम्युनिस्ट
पार्टी अन्तत:, ‘मेरठ षड़यंत्र’ के नाम से परिचित मुकदमें में सजा काट रहे बन्दियों
की मुक्ति के बाद ही, सन 1933 में अस्तित्व में आ सकी । मेरठ षड़यंत्र मुकदमा दायर
किया गया था कम्युनिस्ट आन्दोलन के दमन के लिये, लेकिन यह कम्युनिस्टों को उनके अपने
विचारों को प्रचारित करने का अवसर प्रदान किया । फलस्वरूप, सन 1933 में बनी पार्टी
अपने घोषणापत्र के साथ आई एवं सन 1934 में कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल के साथ सम्बद्ध
हो गई ।
ब्रिटिश शासकों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर कम्युनिस्ट
आन्दोलन को दबाने के प्रयास किये थे । समाजवाद से सम्बन्धित किसी भी प्रकार की
सामग्रियों के प्रकाशन एवं वितरण पर कठोर पाबन्दियों के बावजूद विचारों के प्रसार
को रोका नहीं जा सका । लेकिन, चुँकि ऐसे साहित्य कम थे, विचारों का धुंधलापन बना
रहा एवं फलस्वरूप भ्रम की स्थिति बनी रही । इसके बावजूद, समर्पण व प्रतिबद्धता के
साथ कम्युनिस्ट लोग देश के ट्रेड युनियन आन्दोलन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका
निभा रहे थे ।
भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास में दो और बातों
ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । एक तो यह कि आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे
क्रान्तिकारियों ने उस रास्ते को छोड़ा और कम्युनिस्टों के साथ आ गये । यह समझते
हुये कि आतंकवादी रास्ता समाधान नहीं है, कम्युनिस्ट विचारों से वे प्रभावित हुये
एवं पार्टी से जुड़ गये । इनमें अनुशीलन, युगान्तर, भगत सिंह की हिन्दुस्तान
सोश्यलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी एवं कुछ और गुटें शामिल हैं । नतीजे के तौर पर
कम्युनिस्ट पार्टी भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे अच्छी परम्पराओं को अपनी
विरासत में ले पाई ।
केन्द्रीकृत नेतृत्व एवं उपकरण स्थापित करने के कुछ ही
वर्षों के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में एवं
वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
कमज़ोर होने के बावजूद, भारतीय आन्दोलन को मदद करने में ग्रेट ब्रिटेन की
कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती । सन 1926 के बाद से वे लगातार
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सम्पर्क बनाये हुये रहे । उनमें से कुछ सीधे तौर
पर यहाँ के आन्दोलन से जुड़े रहे । इन्ही में से एक थे रजनी पाम दत्त । वे ग्रेट
ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के म्हत्वपूर्ण नेता थे । उनकी लिखी हुई किताब ‘आज
का भारत’ (इन्डिया टुडे) अंग्रेजी हुकूमत में भारत एवं अंग्रेजों द्वारा किये जा
रहे शोषण को समझने के लिये जरूरी एक कालजयी कृति है । ब्रिटेन की पार्टी ब्रिटेन
में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की भी मदद करती रही । इनमें से कई छात्र भारत लौटने के
बाद कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़ गये । ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के कई
सदस्य हमारी मदद के लिये भारत आये । कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल के द्वारा कुछ भेजे भी
गये । कुछ छद्म नामों के साथ आये और ट्रेड युनियन व अन्य संगठनों में काम करते रहे
। उनमें से कईयों को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार भी किया। आने वालों में थे
बेन ब्रैडली, फिलिप स्प्रैट, जॉर्ज एलिसन आदि। कुछ लोगों को मेरठ षड़यंत्र मुकदमा में
भी फँसाया गया। उक्त मुकदमे के उन्नीस आरोपियों में मुजफ्फर अहमद, गंगाधर अधिकारी,
पी॰ सी॰ जोशी, एस॰ ए॰ डांगे प्रमुख के साथ बी॰ एफ॰ ब्रैडली भी थे। ये सभी धाराएँ थीं
जो मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी को आगे ले गई।
आरंभ के इस काल के बाद कम्युनिस्ट आन्दोलन को अनेकों
इम्तहान व
कठिनाइयों से गुजरना पड़ा । 30 के दशक का अधिकांश समय एवं 40 के दशक की शुरूआत में
भूमिगत रहकर काम करना पड़ा । अन्तत: सन 1942 में, फासीवाद-विरोधी युद्ध के दौरान
पार्टी को कानूनी दर्जा दिया गया । भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का पहला कांग्रेस सन
1943 में मुम्बई में सम्पन्न हुआ ।
देश स्वतंत्र होने के बाद भी पार्टी को नये (भारतीय
पूंजीपति) शासकों के कठोर दमन का सामना करना पड़ा । लेकिन सारे कुप्रयासों के
बावजूद वे आन्दोलन के विकास को रोक नहीं पाये ।
तमाम गैर-कम्युनिस्ट प्रभाव, विकृति एवं भटकावों का
सामना करते हुये आन्दोलन को कुछ गम्भीर गलतियों से भी गुजरना पड़ा । आज़ादी के पहले,
साम्राज्यवाद के युग में पूंजीपतियों की भूमिका पर लेनिन के विश्लेषण की उपेक्षा
की गई एवं मज़दूरवर्ग की पार्टी की स्वतंत्र भूमिका को पीछे कर दिया गया । फलस्वरूप
कई बार पार्टी की समझ दक्षिणपंथी भटकाव की ओर चली गई । दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त
होने के बाद, संशोधनवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा पार्टी पर । उसके बाद फिर
जन-उत्थानों का ऐसा एक काल आया जिसमें कम्युनिस्ट सक्रिय तौर पर हिस्सा ले रहे थे
। आज़ाद हिन्द फौज के बन्दियों की मुक्ति के लिये जन-प्रदर्शन हो रहे थे । नौसेना
विद्रोह एवं मज़दूरों द्वारा किया जा रहा उसका समर्थन कांग्रेस पार्टी को आतंकित कर
दिया । संघर्ष सभी दिशाओं में व्याप्त हो रहा था । सन 1946 के 29 जुलाई को आम
हड़ताल सम्पन्न किया गया । बन्दियों की मुक्ति, वियतनाम का समर्थन व साम्राज्यवाद
के विरोध में बंगाल के छात्र सड़कों पर उतर आये । बंगाल में किसानों का तेभागा
आन्दोलन शुरू हो गया । मालाबार में किसान बगावत कर तहे थे । तेलेंगाना के किसानों
का सशस्त्र संग्राम शुरू हो गया 1940 के दशक का अन्त होते होते...।
पूंजीपति डर रहे थे कि जनसंघर्षों का ज्वार उभरने से
क्रान्ति के नेतृत्व की पहल मज़दूरवर्ग के हाथों में चली जायेगी । कुछ देशों में,
जहाँ राष्ट्रीय आज़ादी के संघर्षों के दौरान वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियाँ नेतृत्व
अपने हाथों में नहीं ले पाई, वहाँ की क्रान्ति को समाजवादी मार्ग की ओर अग्रसर
करने में वे असफल रहीँ । एकबार पूंजीपति वर्ग के हाथों में सत्ता आ जाने पर,
क्रान्ति को समाजवादी मार्ग की ओर अग्रसर करने का कार्यभार अधिक कठिन हो जाता है ।
दूसरे पार्टी कांग्रेस के बाद, कम्युनिस्ट आन्दोलन वामपथी भटकाव का शिकार हुआ । इस भटकाव से पार्टी को बाहर निकालने की प्रक्रिया में फिर दक्षिणपंथ के खतरे बढ़े । इस बार इस दक्षिणपंथ, जो पार्टी नेतृत्व पर आधिपत्य रखने वाले हिस्से की लाइन थी, के खिलाफ दस वर्षों तक अन्दरूनी संघर्ष चला । वैचारिक संघर्ष से भाग कर दक्षिणपंथी गुट, अपने ही उन साथियों पर हमले शुरु किए एवं साजिश रचने लगे जो उनके रास्ते के खिलाफ थे। अन्तत:, आंध्र प्रदेश के तेनाली में एक लाख पार्टी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले 146 प्रतिनिधियों ने अपने को दक्षिणपंथी संशोधनवाद से साफ साफ अलग करते हुये संकल्प लिया कि पार्टी का सातवाँ कांग्रेस वर्ष 1964 के अक्तूबर-नवम्बर महीने में कलकत्ते में होगा । कलकत्ता में सन 1964 के 31 अक्तूबर से 7 नवम्बर तक यह कांग्रेस सम्पन्न हुआ । भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के इस सातवें कांग्रेस में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का गठन हुआ । अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तरों पर कम्युनिस्ट आन्दोलन के अन्दर मौजूद संशोधनवाद एवं संकीर्णतावाद के खिलाफ संघर्ष में सीपीआई(एम) का जन्म हुआ ताकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक व क्रान्तिकारी विचारधारा की रक्षा की जा सके एवं भारत की ठोस परिस्थितियों में इस विचारधारा का प्रयोग सम्भव हो सके ।
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