भाइयो और बहनो,
नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में देश में किसानों की आत्महत्याओं की दर 26% बढ़ी
है। अब तो बिहार में भी, जहाँ किसानों की आत्महत्या की बात सुनने में नहीं आती थी,
कई आत्महत्यायें हो चुकी हैं। सम्बन्धित विभाग के उनके मंत्री जो बिहार के ही
निवासी हैं, संसद में वक्तव्य दिया कि किसान प्रेम-प्रसंगों के कारण आत्महत्या कर
रहे हैं!
किसानी, कर्जदारी आदि की समस्याओं से जूझ रहे किसानों के लिये इससे अधिक भद्दी
गाली और क्या हो सकती है। पूरे देश में किसान महंगे कर्ज के शिकार हो रहे हैं। एक
जमाना वो था जब सरकारी बैंको के जरिये गाँवों में महाजनी कर्ज की जकड़ काफी कम करने
में मदद मिली थी। आज महाजनी कर्ज, महंगा कर्ज का बोझ फिर बढ़ रहा है। केन्द्र सरकार
की नीतियाँ ही ऐसी बन रही है कि बिना महंगा कर्ज लिये किसानी न हो सके, और फिर उस
कर्ज को चुकाने में जमीन चली जाये। उसके ऊपर से है यह काला अध्यादेश, भूमि
अधिग्रहण अध्यादेश जिसे कानून बनाया जा रहा था, जो वामपंथियों द्वारा पूरे देश में
छेड़े गये आन्दोलनों के कारण अन्तत: वापस लिया गया, कि किसी पूंजीपति, किसी कम्पनी,
किसी ठेकेदार को देने के लिये सरकार बिना किसानों की सहमति के उनकी जमीन छीन
लेगी।
दूसरी ओर, राज्य में 10 वर्षों से सत्तासीन नीतीश सरकार ने क्या किया किसानी
की समस्याओं से निबटने के लिये? एक तंत्र-जाल फैलाया गया – कृषि कैबिनेट, कृषि
रोडमैप, कृषि-कैबिनेट, बीज-ग्राम, जैविक खेती…! चलिये मान लेते हैं कृषिकार्य की
वैज्ञानिक पद्धति के विकास में इस तंत्र की उपयोगिता। लेकिन क्या इनके माध्यम से
इस राज्य में किसानी की प्रधान समस्या के करीब पहुँचा जा सकता है?
क्या साफ तौर पर दिखता नहीं है कि ज्यों ही डी· बंदोपाध्याय
आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने के लिये राज्य में भूमिहीनों, बटाईदारों, गरीब
सीमान्त किसानों का आन्दोलन आगे बढ़ने लगा, तमाम सामन्ती तत्व एकजुट होकर भूमि का
बँटवारा एवं भूमिसुधार के खिलाफ धमकीभरी बयानबाज़ी करने लगे? सरकार ने अन्तत: उन्ही
सामन्ती तत्वों के आगे झुक कर बंदोपाध्याय आयोग की अनुशंसाओं को ठंडे बस्ते में
डाल दिया और कृषिक्षेत्र की समस्याओं पर लीपापोती के लिये वैज्ञानिक पद्धतियों को
क्रीम-पाउडर की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया।
अगर इस देश के मेहनतकश अवाम पर, मज़दूरों, किसानों, छात्र-युवाओं, महिलाओं,
दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों को किसी एक शब्द से समझने की
बात हो तो वह शब्द है ‘विकास’। भारत जैसे देश के लिये विकास का पर्याय होना चाहिये
था शिक्षा और स्वास्थ्य की नि:शुल्क या सस्ती बुनियादी सुविधाओं कीउपलब्धता, सबके
लिये भोजन और आवास की व्यवस्था एवं सम्मानपूर्वक जीवनधारण योग्य रोजगार के अवसरों
का विकास। जबकि बड़े शहरों की चमक-दमक, तेज चौड़ी सड़कें और मॉल आदि के पीछे,
नव-उदारवादी अर्थनीति के पूरे दौर में,
(1) शिक्षा और स्वास्थ्य बाज़ारीकरण के कारण आम आदमी की पहुँच से बाहर हो चुका
है;
(2) करोड़ों देशवासियों को प्रति दिन भोजन पहले से भी कम मिल रहा है;
(3) दलितों, आदिवासियों सहित बड़े पैमाने पर ग्रामीण जनता अपने घर व जमीन से
विस्थापित हो रही है
और
(4) रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं – जो अवसर हैं भी उसमें मज़दूरी, वेतन या
आमदनी इतनी कम हो चुकी है कि वे इज्जत के साथ तो क्या सामान्य जीने के लायक भी न रही!
चाहे केन्द्र की मोदी सरकार हो या राज्य की नीतीश सरकार, दोनो इसी नक्शेकदम पर
चल रहे हैं।
शिक्षा का बाज़ारीकरण किस कदर हो रहा है यह जानने के लिये किसी आँकड़े की जरूरत
नहीं। पूरे देश में भी और इस राज्य के सभी गाँवों में कुकुरमुत्तों की तरह तथाकथित
‘इंग्लिस मीडियम’ निजी स्कूल चालु हो गये हैं। इस देश में अब दोरंगी शिक्षानीति चल
रही है ।
बेशक राज्य सरकार आँकड़ों के माध्यम से बतायेगी कि इस दौर में कितने
विद्यालय-भवन तैयार हुये हैं, भर्ती की दर में कितनी वृद्धि में हुई, ड्रॉप-आउट दर
में कितनी कमी आई पर जमीनी हकीकत और आँकड़ों के बीच एक बड़ी खाई है जो सिर्फ और
सिर्फ भ्रष्टाचार से पटी हुई है इस बात को मुख्यमंत्री भी जानते हैं।
जहाँ तक स्वास्थ्य का सवाल है नीतीशजी से सिर्फ यह पूछिये कि उन्ही के आँकड़ों
के अनुसार पिछले सात वर्षों में नये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एक भी क्यों नहीं
खुले? जिला और रेफरल अस्पतालों की वास्तविक स्थिति आज क्या है? और आप की सरकार खुद
कहती है कि आपको वहाँ सेवायें पहुँचानी जरूरी है जहाँ ‘निजी चिकित्सा सेवायें नहीं
पहुँच रही हैं’!
एक तरफ
केन्द्र में सत्तासीन भाजपानीत गठबंधन की सरकार कलकारखानों, मज़दूरी व अन्य
सुविधाओं से सम्बन्धित तमाम श्रमकानूनों को बदल कर ऐसी स्थिति पैदा कर रही है कि
देश के करोड़ों मज़दूर न्यूनतम सुविधाओं से वंचित और नितान्त असुरक्षित जीवन जीने को
मजबूर हो जायें। दूसरी ओर अगर हम अपने प्रांत की ओर नजर दौड़ायें तो खुद बिहार
सरकार के आँकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में, जो भी कलकारखानें, मिलें,
उद्योग आदि यहाँ हैं उनमें ठेकाकरण बढ़ी है। राज्य में ठेका, अनुबंध और मानदेय पर
नियुक्त शिक्षक, चिकित्सक या तमाम योजनाकर्मियों से पूछ कर जानिये कि कितना
सम्मानपूर्वक जीवनधारण के योग्य है उनका रोजगार।
बिहार जैसे कृषिप्रधान, अविकसित और
सामन्ती वर्चस्व वाले राज्य की जनता के लिये बहुत जरूरी हैं रोजगार, जीवन-रक्षा
तथा गरीबी उन्मूलन सम्बन्धी योजनाओं का वास्तविक क्रियान्वयन। आज चाहे वह मनरेगा
हो, खाद्य सुरक्षा योजना हो या इन्दिरा आवास, अन्त्योदय आदि योजनायें हों, अगर एक
तरफ केन्द्रीय सरकार तमाम केन्द्रीय योजनाओं के लिये बजट-आबंटन में निरन्तर कटौती
करती जा रही है दूसरी तरफ राज्य स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार उन सीमित आबंटनों को भी
चट कर जा रहा है। राज्य सरकार के ही आँकड़े बताते हैं कि मनरेगा में कुल जॉबकार्ड-धारकों
में से मात्र 15·6% को 2013-14 में रोजगार मिला वह भी सभी को 100 दिन नही। रोजगार
मिला, ऐसे परिवारों की संख्या 2010-11 मे थी 46 लाख, 2013-14 में हो गई 20 लाख!
क्या ये आँकड़े भी सही हैं?
खाद्य-सुरक्षा कानून के प्रावधानों में जबर्दस्त हमला हो रहा है केन्द्र सरकार
के द्वारा। जहाँ एक तरफ सीपीआई(एम) एवं तमाम वामपंथी पार्टियाँ निरन्तर इस मांग को
जोरदार ढंग से उठा रही है कि सार्वजनिक जनवितरण प्रणाली को लागू किया जाना आज
निहायत जरूरी है, पूंजीवादी सभी पार्टियाँ अनाजों के भी सट्टाबाज़ार को बढ़ावा देने
के पक्ष में है।
इन्दिरा आवास, अन्त्योदय आदि सभी योजनायें कुछ दिनों के लिये नये नामों के साथ
राजनीतिक प्रचार के लिये इस्तेमाल किये जायेंगे पर अन्तत: पूंजीपतियों के दरबारी
ये हिन्दूत्ववादियों की केन्द्रीय सरकार इन योजनाओं को बन्द करेगी। नीतीशजी की
त्रासदी है कि उनके दिमाग में विकास का जो नव-उदारवादी खाका है वह नरेन्द्र मोदी
से बहुत अलग नही है।
भाइयो और बहनो
, आज बहुत जरूरी है कि हम नव-उदारवादी विकास के इस विनाशकारी मार्ग के विरुद्ध
वैकल्पिक विकास के मार्ग के लिये आन्दोलित हों जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार
की समूचित गारंटी हर एक देशवासी के लिये हो सके। केन्द्र की भाजपानीत सरकार एक तरफ
देशीविदेशी पूंजीपतियों, कॉर्पोरेटों की मर्जी के मुताबिक नीतियाँ बनाती जा रही है
तो दूसरी तरफ शिक्षा-संस्कृति पर सम्प्रदायवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का
प्रभुत्व कायम कर रही है – इसके अनुकूल सामाजिक माहौल बनाने के लिये जगह जगह पर
साम्प्रदायिक तनाव और दंगे भड़का रहे हैं उनके नेता व कार्यकर्ता। भ्रष्टाचार का यह
आलम है कि भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन देने का वादा करने वाली मोदी सरकार अब सुषमा
स्वराज, वसुन्धरा राजे, शिवराज सिंह चौहान जैसे दागदार मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों
से इस्तीफा नहीं दिलवा पा रही है – ‘व्यापम’ जैसा खूनी घोटाला तो आज तक भारत ने
देखा नहीं था। बिहार में आकर नरेन्द्र मोदी ने 50,000 करोड़ रुपयों की केन्द्रीय
मदद की जो घोषणा की वह पूरी तरह ढकोसला और आँकड़ों का खेल है।
आज राज्य में चुनाव होने जा रहा है और जनता के सामने दो विकल्प पेश किया जा
रहा है, एक नीतीश कुमार के नाम पर और एक नरेन्द्र मोदी के नाम पर। क्या बिहार की
जनता इन्ही दो विकल्पों में से एक को चुन कर जीने के लिये अभिशप्त रहेगी?
भाइयो और बहनों,
इन्ही हालातों में बिहार की वामपंथी पार्टियों, सीपीआई(एम), सीपीआई,
सीपीआई(एमएल), एसयुसी(सी), आरएसपी तथा फॉरवर्ड ब्लॉक ने एकजुट होकर इस विधानसभा
चुनाव में आपके सामने एक नया विकल्प पेश किया है । सत्ता में आने पर इस विकल्प का,
वामपंथी सरकार का फौरी कार्यभार होगा: -
·
भूमि सुधार,
·
कृषि का पूरा विकास
·
बेलगाम भूमि अधिग्रहण
पर रोक
·
कृषि आधारित उद्योग,
सबके लिये रोजगार, सबके लिये जीने का साधन व सामाजिक सुरक्षा
·
सबके लिये आवास
·
सबके लिये भोजन का
अधिकार
·
सबके लिये शिक्षा का
अधिकार
·
सबके लिये स्वास्थ्य
का अधिकार
·
सफाई एवं
प्रदूषण-मुक्त परिवेश
·
महाजनी सूदखोरी से
मुक्ति
·
सबके लिये सस्ती बिजली
·
सभी आवासीय टोलों को
जोड़ने वाले रास्ते और जन-परिवहन की सुविधा
·
प्रगतिशील सामाजिक
चेतना एवं सांस्कृतिक जीवन के विकास के लिये आवश्यक वातावरण
·
समान अवसर एवं सम्मान
·
सबके लिये न्याय
·
विकास में न्यायसंगत
भागीदारी
·
सत्ता के ढाँचे में
न्यायसंगत भागीदारी
·
चुनाव प्रक्रिया में
सुधार
·
भ्रष्टाचार-मुक्त
प्रशासन
·
सहकारिता संस्थाओं का
विस्तार एवं जनतंत्रीकरण
·
उद्यमिता का विकास
अत: आप जनता से हमारी अपील है कि बिहार की सत्ता
में वामपंथी विकल्प के लिये अपने क्षेत्र में भारत की
कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के उम्मीदवार
को
हँसिया, हथौड़ा, तारा
चुनाव चिन्ह पर बटन
दबाकर जितायें ।
No comments:
Post a Comment