Friday, May 6, 2022

धर्ममोह

धर्म के लिबास में आ कर जिसे जकड़ता है मोह
अंधा वह बस मारता है और खुद मरता है।
             नास्तिक को भी मिलता है विधाता का वरदान, 
             धार्मिकता का आड़म्बर वह करता नहीं। 
श्रद्धा के साथ जलाता है बुद्धि का आलोक,
शास्त्र मानता नहीं, मानता है आदमी की भलाई।

विधर्म कह कर मारता है दूसरों के धर्म को,
अपने धर्म का अपमान करता फिरता है,
             पिता के नाम पर चोट करता है उनके संतानों को,
             बस आचार ग्रहण करता है, सूझ-बूझ से वास्ता नहीं,
उपासनास्थल पर फहराता है खून-सना ध्वजा –
देवता के नाम पर यह तो शैतान का है भजन।

अनेक युगों की लज्जा व निरादर,
बर्बरता की विकृति व विड़म्बनाएं
            जिन्होने दिलाई धर्म में आश्रय की जगह
            कचरे में रच रहे हैं वे अपना कारागार। -
सुन रहा हूँ वह प्रलय की तुरही की आवाज,
महाकाल झाड़ु लेकर आ रहा है। 

जो मुक्ति दिलाएगा उसे खुँटा बना कर गाड़ दिया,
जो मेल कराएगा उसे बनाया विभेद का खड़ग,
                जो लाएगा प्यार अमृत के उद्गम से
                उसी के नाम पर पृथ्वी को दहाया विष की धारा में,
खुद नाव में छेद कर अब पार होने में डूबते हैं – 
फिर भी ये क्या क्षोभ दिखाते, किन पर करते दोषारोपण। 

हे धर्मराज, धर्म की विकृति का नाश कर 
धर्म के मूढ़जनों को आकर बचाओ।
              खून में दह गया है जो पूजा की बेदी
              तोड़ो तोड़ो, आज तोड़ कर उसे खत्म करो।
धर्म के कारागार की दीवार पर वज्र से प्रहार करो,
इस अभागा देश में ज्ञान का आलोक लाओ।  

7. 5. 2022



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