Thursday, May 5, 2022

मैं और प्राण, खेलेंगे दोनों आज मृत्यु का खेल

[कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 150वीं जयन्ती पर साप्ताहिक ‘लोक जनवाद’ में प्रकाशित आलेख, कुछ संशोधनों के साथ।]

‘ठाकुर’ या ‘टैगोर’? ठाकुर बोलो भई। ‘टैगोर’ तो अंग्रेजों ने बना दिया क्योंकि उन्हे ‘ठ’ बोलना नहीं आता था। आये भी तो कैसे? ‘ठ’ बोलने के लिये जीभ को तालु में सटा कर चट्खारे लेने की आदत रहनी चाहिये, तब तो फेफड़े के धक्के से ‘ठ’ निकलेगा! और चटखारे लेने की आदत तब पड़ेगी जब आम के पेड़ हों और टिकोले फलें चैत में। इंग्लैन्ड में आम होता है क्या?

तो ‘ठाकुर’ बोलो। अब इसके चलते भाँति-भाँति के ठाकुर लोग उत्साहित हों कि कविगुरु उनकी जाति के थे तो हमारी बला से।

जमीन्दार तो बेशक थे वे, अपने जन्म से। लेकिन आज से 118 साल पहले, देश के पंडितों की बीमार दार्शनिकता पर प्रहार करते हुये ‘मायावाद’ नाम की कविता में उन्होने लिखा, “निकम्मे रात दिन घर के कोने में बैठकर / विश्ववसुन्धरा को / अनन्त आकाश में ग्रहों और तारों से भरी सृष्टि को तुमने / मिथ्या समझा है। / युगयुगान्तरों से पशु पक्षी प्राणी / निरन्तर निडर जहाँ ले रहे हैं साँस / विधाता की दुनिया को माँ की गोद मानते हुये / तुम बुड्ढे उसका कुछ भी विश्वास नहीं करते। / लाखों करोड़ों जीवों को लेकर इस विश्व का मेला / सब बच्चों का खेल लगता है तुम्हे।”

उसी वर्ष ‘वसुन्धरा’ नाम की एक लम्बी कविता में, पूरी पृथ्वी में, जिन्दगी के हर एक कोने में पहुँच कर जीने की उत्कट व्याकुलता को भाषा देते हुये उन्होने लिखा, “नये देशों का नाम जितना पाठ करता हूँ / विचित्र वर्णन सुनता हूँ, मन आगे बढ़ कर / स्पर्श करना चाहता है सबकुछ – सागर की तट पर / छोटी-छोटी नीली पहाड़ी मार्ग पर / एक गाँव, तट पर सूख रहा है जाल / पानी में तैर रहा है नाव, फहर रहा है पाल / मछियारा पकड़ रहा है मछली …” फिर आगे लिखा, “… इच्छा होती है दिल में / देश देशान्तरों में सभी लोगों के साथ / स्वजाति बन कर रहूँ; पिऊँ ऊँट का दूध / रेगिस्तान में रहूँ अरब का बच्चा, बेखौफ, आजाद; / तिब्बत के पहाड़ों पर / निर्लिप्त पत्थरों के शहर में, बौद्ध मठ में / विचरण करूँ। बनूँ अंगूर का रस पीने वाला फारसी / गुलाब के बगीचे में रहने वाला / बनूँ निडर तातार, घुड़सवार; / शिष्टाचारी ताजगी भरा जापान / प्रवीण प्राचीन चीन रात दिन कर्म में लीनो / सबके घर में जन्म लूँ ऐसी इच्छा होती है।”

ऊपर दिये गये दोनों उद्धरण उनका काव्यग्रंथ ‘सोने की नाव’ से लिये गये हैं। उसी काव्यग्रंथ में ‘झुलन’ कविता भी है जिससे इस आलेख का शीर्षक लिया गया है। कविता में प्राण और प्रेयसी एक हो जाते हैं। लोक जनवाद के इसी अंक में अन्यत्र छपा एक निबंध है फैज पर। फैज के पचास साल पहले रवीन्द्रनाथ सूफी-भक्ति की सोच को यूँ आगे बढ़ाते हैं कि ‘गमें-जाना’ और ‘गमें-दौरां’ एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। बचा-बचा कर, ढक-ओढ़ कर जीते हुये जब जिन्दगी अंगुलियों के पोरों से बालू जैसे झरने लगती है, जब “मिठास में और मिठास घोल पिलाते रहने के बावजूद भी प्राण-प्रेयसी खोती चली जाती है” तब कवि एकबारगी कौंधते हैं बिजली की तरह`-

“इसलिये सोचा है आज कि खेलना होगा नयाखेल / रात के वक्त / मौत के झूले में, रस्सी पकड़ कर / बैठेंगे दोनों बहुत करीब / तूफान आ कर अट्टहास हसते हुये / ठेलेगा हमें – मैं और प्राण, खेलेंगे दोनों / झूलन का खेल / रात के वक्त।”

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की सांस्कृतिक चेतना में आधुनिक मानवतावाद को प्रधान स्वर बनाया। एक ऐसा आधुनिक मानवतावाद जिसमें विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सहकारिता, श्रम की पूंजी के साथ संघर्ष, युक्तिवाद जैसे तत्कालीन सभी आधुनिक चिंतनविंदुओं को आत्मसात करने की उदारता हो, उन पर खरे उतरने के लिये खुद को बदलने की भी सक्रियता हो, साथ ही साथ स्वदेश-भावना भी बलशाली हो – पूरी दुनिया से प्रेम करो, सभी अच्छी युक्तिग्राह्य बातों को नि:शंक ग्रहण करो अपने देश की उन्नति के लिये, अपनी जनता की खुशहाली के लिये।

सन 1916 में चीनी समुद्र में सफर के दौरान रवीन्द्रनाथ ने अपने प्रियजन को एक पत्र लिखा। उस पत्र में चीन के बारे में भविष्यवाणी थी जो बाद के दिनों में अक्षरश: सच्ची प्रमाणित हुई। लेकिन साथ ही साथ, उस भविष्यवाणी के शब्द दर्शाते हैं कि रवीन्द्रनाथ के मानवतावाद में समाजवादी क्रांति जैसी नई सोच के लिये भी कितनी जगह थी। माल वाहक नाव पर चीनी मजदूरों को काम करते हुये देखकर रवीन्द्रनाथ ने लिखा, “कर्म की यही मूर्ति है। एक दिन इसी की जीत होगी। यदि न हो, यदि वाणिज्य-दानव ही मनुष्य, घर-गृहस्थी, आनन्द-स्वतंत्रता आदि को लीलता चला जाए और एक वृहत गुलाम-सम्प्रदाय की सृष्टि कर डाले तथा उसी की मदद से कुछ थोड़े से लोगों का आराम और स्वार्थ-साधन करता रहे, तब यह पृथ्वी रसातल में चली जायेगी। चीन की यह इतनी बड़ी शक्ति – कर्म करने की शक्ति – जिस दिन हमारे इस युग के सर्वश्रेष्ठ वाहन को पा सकेगी, अर्थात जिस दिन विज्ञान को हाथ कर लेगी, उस दिन संसार की कौन सी शक्ति है जो उसे बाधा दे सके?” (साभार: मंदाकिनी, रवीन्द्र विशेषांक, बछवाड़ा, बेगुसराय)

इस संदर्भ को आगे बढ़ाते हुये एक और उद्धरण प्रस्तूत कर रहा हूँ। सन 1939 ई॰ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने रूस की यात्रा की। रूस-यात्रा काल में लिखे गये उनके अत्यंत मूल्यवान पत्र। जिनमें उनका स्वदेश-चिन्तन समाहित है, ‘रूस की चिट्ठी” नाम की पुस्तक में संकलित है।

“ … फिलहाल रूस आया हूँ – न आने पर इस जन्म के तीर्थों का दर्शन अधूरा रहता। यहाँ ये लोग जो कुछ कर रहे हैं उसकी अच्छाई-बुराई विचारने से पहले, सर्वप्रथम बस यही लगता है कि कितना असम्भव सा साहस है। ‘सनातन’ नाम का पदार्थ इंसान की अस्थिमज्जा को, मन-प्राण को हजार रूपों में जकड़ रखा है – कितनी दिशाओं में कितने महल हैं उसके, कितने सारे दरवाजे और उन पर कितने पहरे हैं, कितने युगों से कितना टैक्स वसूल करते हुये उसकी तिजोरी हो उठी है पर्वत की तरह ऊँची। इन लोगों ने उस ‘सनातन’ को सीधा जटा पकड़ कर खींच फेंका है – न डर है, न चिन्ता, न संशय। सनातन की गद्दी फेंक कर, नये के लिये एकदम सा नया आसन बना दिया है। पश्चिम के महादेश विज्ञान के जादू से दु:साध्य को साध लिया है, देखकर तारीफ करता हूँ मन ही मन। पर यहाँ जो प्रकांड घटनायें घटित हो रही हैं, वह देखकर मैं सबसे ज्यादा विस्मित हुआ हूँ। सिर्फ अगर बड़े से तोड़फोड़ की बात होती तो इतना आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि नेस्तनाबूद करने की यथेष्ट शक्ति है इनमें। लेकिन देख पा रहा हूँ कि बहुत दूर तक फैले एक इलाके में एक नई दुनिया बसाने के लिये ये जुट गये हैं। विलम्ब सहा नहीं जा रहा है, क्योंकि पूरी दुनिया में प्रतिकूलता है, सब इनके विरोधी हैं – जितनी जल्दी हो सके इन्हें सीधा खड़ा होना होगा – हाथों हाथ सबूत देना होगा कि जो ये चाह रहे हैं वह भूल नहीं, धोखा नहीं है। हजारों वर्ष के विरुद्ध दस-पन्द्रह बरस ने जीतने का प्रण किया है। दूसरे देशों की तूलना में इनकी आर्थिक ताकत मामूली है, प्रतिज्ञा की ताकत जबर्दस्त है।

यह जो क्रांति घटित हुई यह एक अर्से से रूस में ही होने के इंतजार में थी। कितने दिनों से चल रहा है आयोजन। ख्यातिप्राप्त, ख्यातिहीन कितने ही लोगों ने कितने बरसों से प्राण त्यागा है, असहनीय दुख स्वीकार किया है। पृथ्वी पर क्रांति के कारण बहुत दूर तक व्याप्त रहते हैं, लेकिन घनीभूत हो उठते हैं एक-एक स्थान पर। पूरे शरीर का रक्त दूषित होने से भी एक-एक कमजोर जगह पर फोड़ा बन कर लाल हो उठता है। जिनके हाथों में धन है, जिनके हाथों में सत्ता है, उनके हाथों से निर्धन और अक्षम लोगों को असहनीय यंत्रणा सहनी पड़ी है, इसी रूस में। दोनों के बीच की गैर-बराबरी की पराकाष्ठा का, अनन्त प्रलय के माध्यम से इसी रूस में प्रतिकार करने की कोशिश हो रही है।”

जो बात कहना चाहता हूँ,

कहा नहीं गया,

वह बस यही है कि –

देखा हूँ हजार बार

दरवाजे पर अपने

आँखों के सामने ही शाश्वत दिवालोक का विश्व।

अपरिचित का यह चिरपरिचय

इतनी सहजता से नित्य भर दिया है हृदय का गहन,

कि वह बात कह सकूँ, इतनी सरल वाणी

जानता नहीं हूँ मैं।

अपने जीवनकाल में खुद एक विश्वविद्यालय बन गए रवीन्द्रनाथ। नहीं, विश्वभारती की बात नहीं। वह तो एक विश्वविद्यालय है जिसे कवि ने अपने हाथों से बनाया। खुद उनकी सृजनशीलता एक विश्वविद्यालय बन गई। 60 वर्षों से अधिक की उर्वरतम काव्ययात्रा में स्वातंत्रोन्मुख भारत के सांस्कृतिक मानस का निर्माण, सौ से अधिक कहानियों में समाज के अंतर्विरोधों का गहन विश्लेषण, डेढ़ हजार गीतों में असीम के स्पन्दन से सराबोर जीवन-मुहूर्तों की रचना एवं गुलामी, दमन व अन्याय के खिलाफ उठते स्वर को भी भाषा देना, उन गीतों को धुनों में ढालते हुये शास्त्रीय प्रकरणों के सरल व तर्कसंगत इस्तेमाल पर निरन्तर प्रयोग करना, हजार से अधिक चित्रकारी के द्वारा रंग, रेखा एवं कविता के अन्तर्सम्बधों को नया आयाम देना; दर्जनभर उपन्यास एवं नाटकों के माध्यम से मानवीय यथार्थ की आलोचना में मुक्तिनायकों की तलाश करना, क्लासिकीय धाराओं से संश्लिष्ट पर स्वतंत्र एवं सहज एक नृत्य-पद्धति को विकसित करना … इन सबों के बाद है उनके शिक्षा, स्वावलम्बन, ग्राम-सुधार सम्बन्धित काम जो देश भर मे स्वातंत्रोत्तर आधुनिक भारत के निर्माताओं को प्रेरित करते रहे।

कहा जाता है कि पैरिस पर जिस दिन नाजियों ने हमला किया था, उस दिन भी फ्रांसीसी रेडिओ पर रवीन्द्रनाथ के ‘डाकघर’ नाटक का ब्रॉडकास्ट जारी था। 18 जुलाई 1942 को पोलैंड की राजधानी वारसॉ की एक बस्ती (घेटो) में जानुस कोर्जाक नाम के एक नाट्यप्रेमी ने स्थानीय बच्चों को लेकर पोलिश भाषा में ‘डाकघर’ नाटक का मंचन आयोजित किया। इतिहास में यह त्रासदी दर्ज है कि तीन हफ्तों के बाद कोर्जाक एवं सारे बच्चे ट्रेब्लिंका मृत्यु-शिविर में ले जाये गये। जब मॉस्को घिर रहा था हिटलर की फौजों से, किसी एक प्रेक्षागृह में ‘रक्तकरवी’ (लाल कनेर) नाटक का अभिनय जारी था। भारत एवं बांग्लादेश दोनों देशों का राष्ट्रगान रवीन्द्र-रचित है, जबकि श्रीलंका के राष्ट्रगान के रचयिता शांतिनिकेतन के छात्र थे एवं रवीन्द्रनाथ के गीतों से प्रेरित होकर ही उन्होने उस गीत की रचना की। गीत सुनने से रवीन्द्र-प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

जब उन पर लांछन लगाया गया कि ‘जन गण मन’ गीत उन्होने ब्रिटिश सम्राट पांचवें जॉर्ज के अभिनन्दन में लिखा है तो उन्होने एक अन्तरंग पत्र में लिखा, “शाश्वत मानव के इतिहास पथ पर युगों से धावित पथिकों की रथयात्रा के चिरसारथी के रूप में मैं चौथे या पांचवें जॉर्ज की स्तुति कर सकता हूँ, इस किस्म की असीमित मूढ़ता का सन्देह जो मेरे वारे में कर सकते हैं, उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्म-अपमान है।”*

पूरे ब्रिटिश राज में, उनकी संख्या कम नहीं है जिन्हे इस देश में ‘नाइट’ की उपाधि दी गई। लेकिन सिवाय रवीन्द्रनाथ ठाकुर के, कोई दूसरा नहीं रहा जिसने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किये गये किसी अन्यायपूर्ण काम के प्रतिवाद में ‘नाइट’ की उपाधि वापस कर दिया हो। जालियाँवालाबाग नरसंहार के विरोध में रवीन्द्रनाथ ने सिर्फ ‘नाइट की उपाधि का ही त्याग नहीं किया, भारत से इंग्लैंड तक लगातार गूंजता रहा उनका प्रतिवाद का स्वर। **

हिन्दी के आचार्य, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी को रवीन्द्रनाथ के साहचर्य में बरसों रहने का अवसर प्राप्त हुआ था। वह लिखते हैं, “ऐसे लोग तो संसार में बहुत मिलेंगे, जिनके पास जाने से मनुष्य अपने भीतर के दोषों को देखता है, अपने अन्तस्थल के असुर को प्रत्यक्ष कर निराश हो जाता है; पर ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जो उसके भीतर देवता को प्रत्यक्ष करा दे। रवीन्द्रनाथ ऐसे ही महापुरुष थे।”

जनकवि नागार्जुन लिखते हैं :-

“हुए थे पैदा तुम
सुशिक्षित अभिजात धनाढ्य द्विजकुल में
नहीं खाई होगी अभाव की मार कभी
… फिर न हुए क्यों तुम
अकर्मण्य, आलसी, विलासी, भू-भार मात्र?
वाह्य आड़म्बर उतना भयानक !!
गला न क्यों घोंट सका
तुम्हारे महामानव का?
कहाँ से मिली तुम्हे इतनी अनुभूतियाँ
पीड़ित मनुष्यता के निम्नतम स्तर की?” (‘रवि ठाकुर’ कविता से)

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मानवतावाद की जनवादी क्रांतिपक्षीय संभावनाओं को ओझल कर शासकवर्ग उन्हे अपनी सफेदपोशी का अलंकार न बना डाले इसकी निगरानी करना एवं जनता के रवीन्द्रनाथ को जनता के बीच बनाये रखना हमारा अहम सांस्कृतिक कार्यभार है। कौन कहेगा इस तरह :-


“जो भी दुख है धरती का, जो भी पाप,
जो भी अमंगल है,
जो भी अश्रुजल,
जो भी हलाहल है, हिंसा का
सारे लहर बन उठ रहे हैं
तट लांघ कर
ऊंचे आसमान का व्यंग करते हुये।
फिर भी नाव खे कर
सब कुछ ठेल कर
होना होगा पार,
कानों में लिये निखिल का हाहाकार,
माथे पर लिये उन्मत्त दुर्दिन,
दिल में लिये आशा अंतहीन।”

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*इस विषय पर पूर्णेन्दु मुखोपाध्याय लिखित तथा प्रतर्क साहित्य संसद द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका “प्रसंग: भारत का राष्ट्रगान जनगणमन एवं रवीन्द्रनाथ” का पीडीएफ प्रति इन्टर्नेट पर उपलब्ध है। कॉमेंट में दिये गये लिंक से डाउनलोड कर पढ़ा जा सकता है।

**इस विषय पर एक आलेख मेरे ही ब्लॉग पर उपलब्ध है। अधिक जानकारी के लिये पाठक कॉमेंट में दिये गये लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं।



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