Saturday, August 7, 2021

हे बन्धु, हे प्रिय

 बल दो मुझे बल दोप्राण में दो शक्ति

पूरा हृदय कर न्योछावर,  करने को तुम्हे प्रणति॥

सरल सुपथ में करने को भ्रमण,  क्षमा करने को सारे अपकार,

सभी अहं का करने को दमन  खर्व करने को कूमति॥

हृदय में तुम्हे समझने को  जीवन में तुम्हे पूजने को,

तुम्हारे भीतर ढूंढ़ने को  चित्त का ठौर, अविनाशी।

माथे पर ढोने को तुम्हारा काम,  सहने को संसार का ताप,

जगत के कोलाहल में रहने को,  करने को नीरव भक्ति॥

तुम्हारे विश्वछवि में  पाने को तुम्हारा प्रेमरूप,

ग्रह, तारे, शशि और रवि में  देखने को तुम्हारी आरती।

वचन-मन के अतीत  डूबने को तुम्हारी ज्योति में,

सुख, दुख, लाभ और क्षति में  सुनने को तुम्हारी भारती॥

[गीतवितान – संख्या 110]


 

तुमसे मांगता हूँ यह वरदान कि मृत्यु से जगाये मुझे

            गीत के सुर।

ज्यों आँख खुले     नवीन जीवन मेरा भर दे

माँ के स्तनों की सुधा जैसे    गीत के सुर॥

      वहाँ जितने हों तरु, तृण

मिट्टी की बाँसुरी से उठे गीत की तरह।

आलोक ले आये वहाँ

आकाश की आनन्दवाणी,

जो घूमे हृदय में जैसे         गीत के सुर।

[गीतवितान – संख्या 17] 

 

 

सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बन्धु, हे प्रिय,

जब तब मेरे प्राण में देना स्पर्श भी अपना।

पथ की सारी क्लांति मेरी, दिन भर की तृषा,

कैसे मिटाऊँ— यदि खोज पाऊँ दिशा,

तुम्ही से पूर्ण है वह अन्धेरा, यह बात भी कहना॥

सिर्फ लेना नहीं, चाहता है देना, मेरा हृदय!

ढोये फिरता है उसका जो कुछ है संचय।

अपना वह हाथ बढ़ाओ, दो मेरे हाथ में

पकड़ुंगा उसे, भरूंगा उसे, रखूंगा साथ अपने,

करूंगा रमणीय मेरा अकेली राह पर चलना॥

[गीतवितान – संख्या 37]

 

अग्नि की स्पर्शमणि का छुवन प्राण को दो।

दहन के दान से इस जीवन को पूण्य करो॥

मेरे इस शरीर को उठा लो,

तुम्हारे उस देवालय का दीप बनाओ

जले गीतों में रातोंदिन रोशनी की लौ॥

स्पर्श तुम्हारा अंधेरे के बदन पर

तारे खिलाये नये नये, रात भर।

आँखों की नज़र से हटेगी कालिख,

जहाँ पड़ेगी वहाँ देखेगी रोशनी

दर्द मेरा लहक उठेगा ऊपर की ओर॥

 [गीतवितान – संख्या 212]


 

 विपदा में मेरी रक्षा करो   यह नहीं मेरी प्रार्थना

विपदा से लगे मुझको भय।

दुख की ताप से व्यथित चित्त को भले दो सान्त्वना

पा सकूँ बस दुख पर मैं विजय॥

सहारा जो मिले मुझे   अपना बल टूटे नहीं

संसार में क्षति हो मेरी, मिले मात्र वंचना यदि,

मन में मानूँ अपना क्षय॥

मेरा त्राण तुम करो यह नहीं मेरी प्रार्थना

रहे शक्ति मेरी तरते समय।

मेरा बोझ कम कर तुम भले दो सान्त्वना,

ढो सकूँ वह बोझ, दो अभय।

सुख के दिनों में नम्र-मस्तक   पहचान लूंगा तुम्हारा चेहरा

दुख की रात में पूरी पृथ्वी से किसी दिन जो मिले वंचना

तुम पर मैं ना करूँ संशय॥

[गीतवितान – संख्या 227]

 

 

 सूरज जिस तरह धरा के हाथ में प्रात:

पहनाता आलोक की राखी,

मेरे दाहिने हाथ में बाँधो वह राखी तुम्हारे हाथ की॥   

मेरे कामों में तुम्हारा आशीष   सफल होगा विश्व में,

जलेगी मेरी सारी वेदना में दीप्त शिखा तुम्हारी।

जिस हाथ से कर्म करता हूँ, बाँधता उसे कर्म का बंधन।

जटिल फाँद बन फाँसती फल की आशा की जंजीर।

कसकर बाँधो राखी तुम्हारी कट जायेंगे बन्धन सारे,

वीणा की तरह बजेगा तब कर्म का मधुर संगीत॥

[गीतवितान – संख्या 343]


  

सबों के बीच तुम्हे स्वीकार करूंगा, हे नाथ।

सबों के बीच तुम्हे हृदय में वरूंगा॥

सिर्फ अपने मन में नहीं     अपने घर के कोने में नहीं,

सिर्फ अपनी रचनाओं के बीच नहीं

तुम्हारी महिमा जहाँ उज्ज्वल रहे

उन सबों के बीच तुम्हे स्वीकार करूंगा।

आकाश में, धरती पर तुम्हे हृदय में वरूंगा, हे नाथ॥

सब कुछ त्याग कर तुम्हे स्वीकार करूंगा।

सब कुछ अपनाकर तुम्हे वरण करूंगा॥

केवल तुम्हारे स्तव में नहीं,   सिर्फ संगीत की ध्वनि में नहीं,

सिर्फ निर्जन ध्यान की आसन पर नहीं

तुम्हारा संसार जहाँ जाग्रत रहे,

कर्म में तुम्हे वहाँ स्वीकार करुंगा।

प्रिय में अप्रिय में तुम्हे हृदय में वरूंगा, हे नाथ।

नहीं जानता हूँ इसलिये स्वीकार करूंगा।

जानता हूँ, नाथ, इसलिये हृदय में वरूंगा।

सिर्फ जीवन के सुख में नहीं   सिर्फ प्रफुल्लित मुख से नहीं,

सिर्फ अच्छे दिन के आसान मौके पर नहीं

दुखशोक जहाँ अन्धेरा किये रहता है,

नत होकर तुम्हे वहाँ स्वीकार करूंगा।

अश्रुजल में तुम्हे हृदय में वरूंगा, हे नाथ॥

 [गीतवितान – संख्या 367]

 

 

 हिंसा में उन्मत्त है पृथ्वी, नित्य जारी है निर्दय संघर्ष;

घोर कुटिल हैं रास्ते उसके, लोभ-जटिल हैं सम्बन्ध॥

हे नूतन, तेरे जन्म के लिये कातर हैं सभी प्राणी

करो त्राण, महाप्राण, लाओ अमृतवाणी,

विकसित करो प्रेमकमल मधु का स्राव अनन्त।

हे शान्त, हे मुक्त, हे अनन्तपूण्य,

हे करूणाघन, करो धरातल कलंकशून्य।

आओ दानवीर, दो त्यागकठोर दीक्षा।

महाभिक्षु, सभी के अहंकार की मांगो भिक्षा।

      शोक भूले तीनों लोक, खन्डित करो मोह,

      उज्ज्वल हो ज्ञानसूर्य-उदयसमारोह

      अन्धे को मिले आँख, सारे भुवन को प्राणस्पन्द।

हे शान्त, हे मुक्त, हे अनन्तपूण्य,

हे करूणाघन, करो धरातल कलंकशून्य।

क्रन्दनमय है निखिलहृदय, ताप के दहन से है दीप्त

विषयविष के विकार से जीर्ण, खिन्न, अपरितृप्त।

रक्तकलुषग्लानि के तिलक से

सजाये देशों ने अपने ललाट,  

      लाओ तुम्हारा मंगलशंख, तुम्हारा दाहिना हाथ

      तुम्हारा शुभसंगीतराग, तुम्हारा सुन्दर छन्द।

हे शान्त, हे मुक्त, हे अनन्तपूण्य,

हे करूणाघन, करो धरातल कलंकशून्य।

[गीतवितान – संख्या 406]


 

 नहला दो मुझे, रोशनी के झरने की इस धार में।

खुद को छुपाकर रखता हुआ, धूल का यह आवरण धुल जाये॥

जो लिपटा है नींद के जाल में मेरे भीतर

आज इस सुबह को धीमे धीमे उसके ललाट पर

स्पर्श कराओ अरुण आलोक के सोने की यह छड़ी।

विश्वहृदय से दौड़ कर आती

            आलोकोन्मत्त प्रभात की हवा,

उस हवा में झुका दो हृदय मेरा।

आज निखिल की आनन्दधारा में नहला दो मुझे,

मन के कोने की सारी दीनता मलिनता धुल जाये।

मेरे प्राण-वीणा में सोया पड़ा है अमृतगान

उसमें वाणी है छन्द और ना ही तान।

स्पर्श कराओ उसे आनन्द की यह जागरणी।

विश्वहृदय से दौड़ कर आती

            प्राणोन्मत्त गानों की हवा,

उस हवा में झुका दो हृदय मेरा।

[गीतवितान – संख्या 92]

     

 

   जीवन जब सूख जाये, करुणा की धारा बन आओ।

   सारे माधुर्य जो छुप जायं    गीतसुधारस बन आओ।

कर्म जब ले प्रबल-आकार             गरज कर ढकें दिशायें चार

    हृदय के छोर पर, हे जीवननाथ, शान्त कदमों से आओ॥

किये जब खुद को कृपण       कोने में पड़ा रहे दीनहीन मन

    द्वार खोलकर, हे उदार नाथ, राजसमारोह में आओ।

धूल से अंधा बना            जब अबोध को भरमाये वासना

     हे पवित्र, हे अनिद्र, रुद्र आलोक में आओ॥

[गीतवितान – संख्या 95]

 

 

      बरसो धरा पर, बन शान्ति का जल।

   लिये सूखे हृदय           किये चेहरा ऊपर

             खड़े हैं नरनारीदल।          

   रहे अन्धकार                     रहे मोहपाप,

              रहे शोकपरिताप।

   हृदय विमल हो,           प्राण सबल हो,

            हटाओ विघ्नसकल।

क्यों यह हिंसाद्वेष,                     क्यों यह छद्मवेश,

            क्यों यह मान-अभिमान।

बाँटो बाँटो प्रेम                             पाषाणहृदय में,

            तुम्हारा जय हो अटल।

[गीतवितान – 126]

 

 

        

[

 

बज्र में बजती है तुम्हारी बाँसुरी, सरल नहीं वह गान!

      उसी के सुर से जगूंगा मैं, दो मुझे वह कान॥

सरल नहीं अब भरमायेगा       मन मतवारा उस प्राण से होगा

      मृत्यु के बीच ढका है जो अन्तहीन प्राण॥

सप्तसिन्धु, दसदिगन्त को नचाये            तुम्हारा जो झंकार

 उस तुफान को सह सके आनन्द से मेरे चित्तवीणा के तार।

आराम से छिन्न कर            उस गहन में लो, हे नाथ, मुझे

      अशान्ति के भीतर जहाँ शान्ति है महान।

 [गीतवितान – संख्या 222]

 

 जो कुछ मिला मुझे पहले ही दिन  वही अन्त में मिले

विश्व को छु लूँ बच्चे की तरह हँसकर दोनो हाथों से।

   जाने की वेला में सहज को

      जाऊँ अपना प्रणाम कर

         आकर खड़ा हो जाऊँ वहाँ, सारे पन्थ जहाँ मिले॥

जिसे कहीं ढूंढ़ना नहीं पड़ता उसे देख सके आँखेँ,

   हमेशा जो पास रहता है उसका स्पर्श मिलता रहे।

     नित्य जिसके गोद में रहता हूँ

        उसे ही बोल कर जा सकूँ

            इस जीवन में धन्य हुआ मैं प्यार कर तुमसे।

 [गीतवितान – संख्या 584]

  कौन सा खेल खेलूँगा कब, सोचता हूँ बैठकर बात वही

तुम्हारे अपने खेल का साथी बनाओ, तब तो कोई चिन्ता नहीं॥

    ओस से भीगी सुबह में आज तुम्हारी छुट्टी का खेल है क्या

  तैराता हूँ  मन को, बिन बारिश बादलों के मेले के साथ॥

तुम्हारा निर्दय खेल खेलोगे जिस दिन, उस दिन बजेगी भीषण भेरी

उमड़ आयेंगे बादल, अन्धेरा होगा, हवा आसमान को घेरकर रोयेगी।

उस दिन तुम्हारे बुलावे पर घर का बन्धन ना रहे

  चाहता हूँ अकातर इस प्राण को झुलाना प्रलय के झूले में॥

 [गीतवितान – संख्या 589]

 

 

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