मार्क्सवाद को मार्क्सवाद-एंगेल्सवाद क्यों नहीं कहते हैं? या और भी स्पष्ट किया जाय - अगर इस विश्वदर्शन को, लेनिन के योगदान को याद रखते हुए बाद के दिनों में हम मार्क्सवाद-लेनिनवाद कह सकते हैं, तब शुरु से ही इस विश्वदर्शन को हम मार्क्सवाद-एंगेल्सवाद क्यों नहीं कहते रहे?
एंगेल्स ने मना
किया था। क्यों मना किया था? भलमानसहत? उदारता? मित्र मार्क्स के प्रति प्रगाढ़ प्रेम?
पर यह तो कोई बात नहीं हुई! वह तो खुद भी उतने ही बड़े भौतिकतावादी वैज्ञानिक थे जितने
मार्क्स! भलमानसहत, उदारता या मित्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम आदि को तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण
का बाधक नहीं होना चाहिये, वह भी मार्क्सवादियों के लिये! और मार्क्स को छोड़ दें तो
एंगेल्स पहले मार्क्सवादी थे!
उदार हृदय वाले
तो वह जरूर थे। विनम्र भी थे। हमेशा वह खुद को मार्क्स के ‘संगतकार’ (सेकेन्ड फिडल)
कहते थे, जबकि वैसे वह थे नहीं। मार्क्स के जीवनकाल में भी (जिसमें मैंचेस्टर के कपड़ा-मिल
में किरानीगिरि का अट्ठारह साल शामिल है) वैज्ञानिक समाजवादी नजरिया के विकास में एंगेल्स
की भूमिका मार्क्स के बराबर थी। मार्क्स की मृत्यु के बाद बारह साल तो एंगेल्स अकेले
ही वैज्ञानिक समाजवादी सिद्धांत एवं व्यवहार को आगे बढ़ाते रहे।
क्रांतिकारी सक्रियता में (अपने लेखन के अलावे)
एंगेल्स की भूमिका तो आश्चर्यचकित करती है! एक नजर में देखा जाय तो:
·
कोलोन में, बगल में बन्दूक रख कर न्यु राइनिशे
ज़ाइटुंग का सम्पादकीय दफ्तर सम्हालना;
·
क्रांतिकारी सैन्य विद्रोह के दौरान एल्बरफेल्ड
एवं बैडेन पैलेटिनेट के युद्ध में नेतृत्व प्रदान;
·
सन 1850 में लन्दन में जर्मनी से भाग कर आये
राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिये धर्मशाला (अंग्रेजी अर्थों में रात्रिनिवास) चलाना,
भोजन के लिये ‘लंगर’ चलाना (यानि चन्दा उठा कर भोजन की व्यवस्था करना, उनके रोजगार
की व्यवस्था करना;
·
मैंचेस्टर में बैठ कर मार्क्स के नाम से न्युयार्क
डेली ट्रिब्यून के लिये लगातार संवाद-प्रतिवेदन लिखते जाना ताकि मार्क्स की कुछ आय
हो सके;
·
उसी के साथ कपड़ा-मिल में किरानीगिरि करते हुये
बीच बीच में अपने नाम से भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं निबंध आदि लिखते जाना ताकि वह आय
थोड़ा और बढ़े;
·
पैरिस कम्यून के पराजय के बाद भागे हुये कम्युनार्डों
के लिये सहायता संग्रह अभियान चलाना;
·
पहला अन्तरराष्ट्रीय के सचिव की हैसियत से
इटली, स्पेन और कई देशों में संगठन निर्माण के काम में जुटे रहना (उनकी भाषाज्ञान को
देखते हुये उन्हे तीन देशों का जिम्मा दिया गया था, बाकि में वह खुद आगे बढ़ कर जुझारू
साथी ढूंढ़ लिया करते थे);
…… कहा जाय तो एंगेल्स का कोई जोड़ नहीं था।
और सैद्धांतिक लेखन!
·
मार्क्स के साथ संयुक्त रूप से लिखी गई किताबों
में – पवित्र परिवार, जर्मन विचारधारा, कम्युनिस्ट घोषणापत्र आदि – एंगेल्स एवं मार्क्स
की भूमिका बराबर है।
·
समाज परिवर्तन के लक्ष्य को सामने रखते हुये
एक ही क्रांतिकारी वर्ग के पास दोनों पहुँचे थे – मार्क्स दर्शन की ओर से और एंगेल्स
तत्कालीन इतिहास की ओर से।
·
अर्थनीति समझने की दिशा में मार्क्स को प्रेरित
किये थे एंगेल्स ही, अपने निबंध के माध्यम से; मार्क्स खुद ही कहते हैं कि मुख्य आर्थिक
पारिभाषिक शब्दों का सुत्र उन्हे एंगेल्स के उस निबंध से ही मिला।
·
प्रकृति विज्ञान एवं मानव विज्ञान में द्वंद्वात्मकता
के प्रयोग के मामले में तो बीसवीं सदी के प्रारम्भ से एंगेल्स ही सन्दर्भ-विन्दु हैं।
वैज्ञानिक समाजवाद को सरलता में समझने के लिये उनकी पुस्तिकाएं आज भी प्रचार-पुस्तिकाओं
की तरह लोकप्रिय है।
·
ज्ञान के विभिन्न क्षेत्र में द्वंद्वात्मकता
का प्रयोग करते हुए आवश्यकता पड़ने पर लोग एंगेल्स रचित “ड्युहरिंग मतखंडन” को आज भी
पढ़ते हैं।
·
और सर्वहारा क्रांति में किसान की भूमिका समझाने
के लिये खुद लेनिन, पैरिस जाते हुए, एंगेल्स का उद्धरण एक कागज के टुकड़े पर लिख कर
पॉकेट में डाल लिए थे … । “जर्मनी में किसानयुद्ध” लिखने के समय से ही बार बार एंगेल्स
ही समाजवादी क्रांति में किसान, सीमांत किसान एवं खेतमजदूरों की भूमिका चिन्हित करते
आये हैं। वर्ग-विभेदीकरण के आर्थिक परिप्रेक्ष्य में समझा गये हैं कि सर्वहारा के मित्र
के तौर पर कौन किस जगह पर रहेगा।
·
राष्ट्रीयता का प्रश्न बनाम विजयी राष्ट्रीयता
की साम्राज्यवादी तेवर के बीच के द्वन्द्व को समझने के लिये मार्क्स दौड़ कर पहुँच जाते
थे एंगेल्स के पास क्योंकि यूरोप में किसी भी समय चल रहे युद्धों के मोर्चों के नक्शे
एंगेल्स की हथेलियों में रहते थे।
·
मार्क्स की पूंजी का पहला खण्ड पूरा ही नहीं
होता अगर एंगेल्स उनका घर चलाने का आर्थिक बोझ नहीं उठाते।
·
दूसरा खण्ड प्रकाशित नहीं होता और तीसरा खण्ड
‘सिंधु-लिपि’ बन कर रह जाता अगर एंगेल्स अपना सारा काम छोड़ कर उन दोनों खण्डों को तैयार
करने में जीवन का अन्तिम बारह साल नहीं बिता देते।
अत:, इस लिहाज से उन्नीसवीं सदी का वैज्ञानिक
समाजवाद नि:सन्देह मार्क्सवाद-एंगेल्सवाद ही है।
लेकिन दो सिद्धांत; माहत्वपूर्ण दो सिद्धांत,
पूरी तरह से मार्क्स का आविष्कार था। उन्ही दो आविष्कारों को याद रखते हुये ही एंगेल्स
भविष्य की पीढ़ियों को कह गये हैं कि विचारधारा के तौर पर उसे मार्क्सवाद ही कहा जाय।
कोई नई बात नहीं है यह। एंगेल्स खुद ही उन
दो सिद्धांतों के आविष्कार में मार्क्स की भूमिका बता गये हैं। पहली बार उन्होने कहा
मार्क्स की समाधि के पास खड़े हो कर। सबों ने पढ़ा है वह भाषण। हिन्दी सहित दुनिया की
कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है उस भाषण का। सन 1883 के 17 मार्च को लन्दन स्थित हाइगेट
कब्रिस्तान में अपने मित्र की कब्र के पास खड़े हो कर एंगेल्स ने कहा (अंग्रेजी में
ही कहा, हालाँकि दोनो मित्र जर्मन थे और मार्क्स की शवयात्रा जितने लोग आये थे उनमें
अंग्रेज कम ही थे) “डारविन ने जिस प्रकार जैविक विकास के नियमों का आविष्कार किया है,
मार्क्स ने मानव इतिहास के विकास के नियम का आविष्कार किया है, …”
इसी नियम के बारे में एंगेल्स ने इसके बाद
कहा, “विचारधाराओं की बहुत गहराई में इतने दिनों तक छिपाई गई … सादी सच्चाई कि राजनीति,
विज्ञान, कला, धर्म आदि की चर्चा करने से पहले मनुष्य को चाहिये भोजन, पेय, आश्रय,
वस्त्र, अत: …”। कब्रिस्तान के संक्षिप्त भाषण में बातों को बस उसकी अन्तिम परिणति
– क्रांतिकारी सक्रियता की ओर निर्देशित करना था, इसलिये इससे अधिक उन्होने कहा नहीं।
दूसरी बार, जब मार्क्स की मृत्यु के पांच साल
बाद एंगेल्स अकेले अपने हस्ताक्षर से कम्युनिस्ट घोषणापत्र की भूमिका लिख रहे थे तब
उन्होने फिर कहा, “सन 1845 के पहले कुछेक वर्षों से हम दोनों धीरे धीरे इसी सिद्धांत
की ओर अग्रसर हो रहे थे। स्वतंत्र रूप से मैं कितना आगे बढ़ पाया था उसका श्रेष्ठ प्रमाण
है मेरी किताब, “इंग्लैंड में श्रमिकवर्ग्स की स्थिति”। लेकिन जब सन 1845 के बसन्त
ॠतु में मैं फिर ब्रसेल्स शहर में मार्क्स से मिला, तब तक मार्क्स सिद्धांत तक पहुँच
चुके थे।”
क्या था वह सिद्धांत? हम जानते हैं। पर उसके
मूल में क्या था जो मार्क्स ने ब्रसेल्स में एंगेल्स से कहा था और सम्भवत: उसका लिखित
रूप भी एंगेल्स के सामने प्रस्तुत किया था? एंगेल्स साथ में लेकर गये थे “इंग्लैंड
में श्रमिक वर्ग की स्थिति” मसौदा पांडुलिपि (जिसे वह वहाँ से बार्मेन जाने के बाद
घर बैठ कर परिष्कृत किया) और मार्क्स के पास थे बहुत सारे पांडुलिपियों के मसौदे। उन
पांडुलिपियों में से जो कुछ बाद में प्राप्त हुआ वह सारा एकत्रित कर सोवियत संघ द्वारा
“सन 1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपि” के नाम से प्रकाशित किया गया। सिर्फ चार
पृष्ठ अलग से एंगेल्स ने सन 1888 में प्रकाशित किया था, “लुडविग फायरबाख एवं जर्मन
क्लासिकीय दर्शन का अन्त” शीर्षक पुस्तिका के साथ – “थिसिस ऑन फायरबाख” जो आज जाने
पहचाने ग्यारह सुत्र हैं। इन सुत्रों में पहला ही है उस सिद्धांत का मूल जो मार्क्स
ब्रसेल्स में या तो एंगेल्स को बताये होंगे या पूरा “थिसिस” पढ़ाये होंगे। फिलहाल अपनी
समझ को आगे बढ़ाने के लिये उस मूल बात को हम कह सकते हैं “डायालेक्टिक ऑफ कॉग्निशन”
या “बोध की द्वंद्वात्मकता”।
(1) बोध की द्वंद्वात्मकता (डायालेक्टिक
ऑफ कॉग्निशन)
दोबारा पढ़ लिया जाय पहला थिसिस।
“पूर्व के सभी भौतिकतावाद की – फायरबाख की
भौतिकतावाद की भी – मुख्य त्रुटि है कि उनमें भौतिकता (वैसे मूल शब्द gegenstand का अंग्रेजी में
अर्थ है वस्तु, चीज), वास्तविकता, ऐन्द्रियता को सिर्फ विषय (object) या मनन के रूप में देखा गया है, लेकिन मानविक ऐन्द्रिक क्रिया के
रूप में, व्यवहारिक कर्म के रूप में नहीं देखा गया है, विषयी की ओर से (subjectively) नहीं देखा गया है। परिणाम स्वरूप, भौतिकतावाद
के विपरीत, सक्रिय पक्ष को विकसित किया है भाववाद, लेकिन सिर्फ अमूर्त रूप में, क्योंकि
वास्तविक, ऐन्द्रिक क्रिया जो है, उस रूप में भाववाद उसे नहीं जानता है। …”
‘वास्तविकता या ऐन्द्रिकता को केवल वस्तु के
रूप में या मनन के रूप में’ देखने के कारण, ‘मानविक ऐन्द्रिक क्रिया के रूप में, व्यवहारिक
कर्म के रूप में’ न देखने के कारण, विषयी की ओर से न देखने के कारण ‘पूर्व के सभी भौतिकतावाद
की’ क्या क्षति हुई है? क्षति यही हुई है कि वे मानव इतिहास को देख ही नहीं पाते हैं
तो सृष्टि को समझेंगे कैसे। लकड़ी के कुन्दे को वास्तविकता कहेंगे, लकड़ी से बनाई गई
टेबुल को वास्तविकता कहेंगे लेकिन जिस बढ़ई मिस्त्री ने टेबुल को तैयार किया उसके श्रम
को वास्तविकता में नहीं गिनेंगे। और अगर आप बढ़ई के श्रम को वास्तविकता में गिनेंगे
तो याद रखना पड़ेगा कि उसके काम के दो ‘पल’ (कड़ी) हैं। पहली में वह अपने दिमाग में टेबुल
का एक खाका खींचता है उसके बाद लकड़ी के कुन्दे पर हाथ लगाता है। हाथ लगाने के चरण दर
चरण वह समझता है लकड़ी की दृढ़ता, लोच, गीला और सूखा होने का फर्क, रेशों की मजबूती,
गाँठ की दिक्कतें यानि प्रतीति के विभिन्न पक्ष। श्रम की वास्तविकता कुन्दे पर हाथ
लगाने के बाद शुरु होता है या दिमाग में खाका खींचने की शुरुआत से? अगर दिमाग में खाका
खींचना भी श्रम की वास्तविकता है तो लकड़ी की प्रतीति एक द्वंद्वात्मक गति है – वस्तु
से विषयी तक एवं फिर विषयी से वस्तु तक – श्रम की इसी प्रक्रिया में क्या हमें विपरीतों
की – वस्तु एवं चित्त (दिमाग) की, मैटर एवं माइन्ड की एकता एवं संघर्ष नहीं मिल रहे
हैं? … मानव का पूरा पूर्वइतिहास एवं इतिहास तो इसी द्वन्द्व पर खड़ा है। और अगर इसी
को वास्तविकता में नहीं गिनें तो इतिहास को देखेंगे कैसे?
स्वाभाविक तौर पर इस ‘जिम्मेदारी’ को भाववाद
ने अपने ढंग से निभाया। वह मानवश्रम की पूरी वास्तविकता को, एक ईश्वर के द्वारा दुनिया
को बनाये जाने की सच्चाई के रूप में पेश किया – कि सर्वशक्तिमान ईश्वर के दिमाग में
तैयार हुई इस ब्रह्माण्ड की तस्वीर और उन्होने इसे बनाया (या बनाते जा रहे हैं, ‘बहिर्स्थापित’
करते जा रहे हैं – हेगेल की भाषा में)!
अत: मार्क्स द्वारा आविष्कृत इस सिद्धांत को
हम बोध की द्वंद्वात्मकता या बोध का श्रम सिद्धांत भी बोल सकते हैं।
इस प्रसंग में “पूंजी” के पहले खण्ड के सातवें
अध्याय से एक लम्बा उद्धरण प्रस्तुत करने की ईच्छा हो रही है।
“श्रम सबसे पहले एक ऐसी प्रक्रिया होता है,
जिसमें मनुष्य और प्रकृति दोनों भाग लेते हैं और जिसमें अपनी मर्जी से प्रकृति और अपने
बीच भौतिक प्रतिक्रियाओं को आरम्भ करता है, उनका नियमन करता है और उनपर नियंत्रण करता
है। … इस प्रकार बाहरी दुनyआ पर असर डालकर और उसे बदलकर मनुष्य उसके साथ-साथ खुद अपनी
प्रकृति भी बदल डालता है। … अब हम श्रम के उस नैसर्गिक रूपों की चर्चा नहीं कर रहे
हैं, जो हमें महज पशु की याद दिलाते हैं। … हम श्रम के अन्तर्गत विशुद्ध मानवश्रम को
ही मानकर चल रहे हैं। मकड़ी ठीक बुनकर की तरह ही जाला बुनती है, और शहद की मक्खी इस
खूबी के साथ अपनी कोठरियाँ बनाती है कि बहुत से वास्तुकार देखकर सिर नीचा कर ले। लेकिन
अनाड़ी से अनाड़ी वास्तुकार और अच्छी से अच्छी शहद की मक्खी में फर्क यह होता है कि वास्तुकार
वास्तव में भवन बनाने से पहले उसे अपनी कल्पना में बनाता है।”
इस हिस्से को खत्म करने से पहले हल्के से यह
बोल सकता हूँ कि सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में मानवश्रम की भूमिका की समझ तो दूर
की चीज है, छुट्टी बिताने के लिये देश-विदेश की जिन जगहों पर जाकर भद्रसमुदाय विस्मय
से चीख पड़ते हैं “वर्जिन फॉरेस्ट” या “प्रिस्टाइन नेचर”, उनका सत्तर-अस्सी भाग मानवश्रम
का ही फसल है, आज का सोश्यल फॉरेस्ट्री न भी हो तो लाखों वर्षों से उन जंगलों के सहारे
जी रहे आदिम जनसमुदायों ने उन्हे उगाया है, बसाया है।
बोध की द्वंद्वात्मकता का उद्घाटन कर भौतिकतावाद
को द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक बनाया मार्क्स ने। एंगेल्स भी वहीं पहुँच रहे थे। लेकिन
मार्क्स चूँकि दर्शन के और खासकर हेगेलीय दर्शन के विधिवत छात्र थे इसलिये तत्कालीन
भौतिकतावादी दार्शनिक परिभाषाओं के ठीक उस हेत्वाभास या तर्कदोष पर चोट कर पाये थे
जिसके कारण भौतिकतावाद असफल हो रहा था और भाववाद विजयी हो रहा था बार बार।
एंगेल्स इस शिक्षा से वंचित हुये थे उनके परिवार
एवं खासकर उनके पिता के कारण। इसलिये खुद को शिक्षित करने हेतु उनका संग्राम एक अनुकरणीय
अध्याय बना बाद के कईयों के जीवन में। लॉरेंस विशर्ट प्रकाशित मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र
के दूसरे खंड का सम्पादकीय वक्तव्य कहता है:
“हालाँकि एंगेल्स के लिये प्रगतिशील दर्शन
के मार्ग पर पहुँचना मार्क्स से बहुत ज्यादा कठिन था। बारमेन के रुढ़िवादी और धार्मिक
परिवार में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता ने उन्हे स्कूल छोड़ने और व्यवसाय में जाने
को बाध्य किया था। यानि समकालीन धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक व साहित्यिक प्रवृत्तियों
के भूलभुलैया में प्रवेश कर अपना रास्ता निकालने के लिये अपनी शिक्षा उन्हे स्वतंत्र
रूप से पूरी करनी पड़ी थी। इस राह पर चलने के लिये बचपन से ही उनके भीतर, धार्मिक आस्थाओं
से ऊपर उठने का एक तकलीफदेह आत्म-अनुसंधान पोषित हुआ था। मुख्यतं:, धर्म एवं ईश्वरतत्व
का आलोचनात्मक विश्लेषण ही एंगेल्स को प्रगतिशील दार्शनिक सोच की ओर खींचकर ले गया
था। साहित्य की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी उनके विकास में, खासकर प्रारम्भिक वर्षों
में।”
बर्लिन से ड्रेसडेन भेजी गई, आर्नॉल्ड रूज
के नाम उनकी चिट्ठी को पढ़ने से कष्ट होता है। रूज द्वारा सम्पदित डॉएश ज़ाह्रबुखेर पत्रिका
में उन्हे अगला आलेख भेजना था। नहीं भेजे। उन्होने लिखा:
महाशय, सिर्फ इतना बताने को लिख रहा हूँ कि
आपको अब मैं और कुछ नहीं भेजूंगा। कुछ दिनों के लिये मैं अपना सारा साहित्यिक कार्य
छोड़ देने का फैसला किया है ताकि अध्ययन में अधिक समय दे सकूँ। वजह बहुत आसान है। मैं
युवा हूँ एवं दर्शन में स्वशिक्षित हूँ। अपने नजरिये को तैयार करने या उस नजरिये की
हिफाजत करने के लिये इतनी शिक्षा पर्याप्त है। लेकिन उस नजरिये के अनुसार सही तरीके
से एवं सफलता के साथ कोई काम करने के लिये यह शिक्षा पर्याप्त नहीं है। और मुझसे तो
लोग कुछ अधिक की ही अपेक्षा करेंगे क्योंकि दर्शन के क्षेत्र में मैं ‘ट्रैवेलिंग एजेन्ट’
हूँ। डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर दार्शनिक सोचविचार को लिखित रूप देनें का अधिकार
मैंने अर्जित नहीं किया है। … “
यह तो गई चालीस के दशक की बात। आगे, अगर पचास-साठ
के दशकों में एंगेल्स को मार्क्स के साथ बैठकर ब्रिटिश म्युजियम में काम करने का मौका
मिलता? जैसा मिला था एकबार, सन 1845 के जुलाई-अगस्त में – मैंचेस्टर स्थित चैटहैम लाइब्रेरी
में एक टेबुल पर आमने सामने बैठकर अपनी अपनी पढ़ाई कर रहे हैं, नोट ले रहे हैं, एक दूसरे
को नोट दिखा रहे हैं और दोनो एक दूसरे की नोटों के हाशिये पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज
कर रहे हैं … ! जिन्दगी ऐसी होती तो कमसे कम दूसरा आविष्कार तो संयुक्त रूप से ही होता।
लेकिन वे स्वर्णिम दिन तो लौटकर नहीं आनेवाले
थे। ‘पगले मूर’ को, काम न कर पाने की अन्तर्ज्वाला के कारण टूट जाने से कौन बचायेगा?
एंगेल्स! और उसके लिये अट्ठारह साल एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स कम्पनी के मिल में किरानीगिरि
करनी होगी।
फलस्वरूप, दूसरा आविष्कार भी मूर यानि मार्क्स
ने अकेले ही किया। इस आविष्कार को हम बोल सकते हैं मूल्य की द्वंद्वात्मकता या मूल्य
का श्रमसिद्धांत।
(2) मूल्य की द्वंद्वात्मकता (डायालेक्टिक
ऑफ वैल्यु)
बोध की द्वंद्वात्मकता के बारे में लिखते हुए एंगेल्स के जिस भाषण से उद्धरण दिया
गया था, सन 1883 के 17 मार्च को मित्र के समाधिस्थल पर दिये गये उसी भाषण में एंगेल्स
आगे बढ़े थे, “लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं। वर्तमान पूंजीवादी उत्पादन-पद्धति की एवं इस
पद्धति के कारण जो पूंजीवादी समाज पैदा हुआ है उसकी गति के विशेष नियम का आविष्कार
भी मार्क्स ने किया है। जिस समस्या का समाधान ढूढ़ने में इतने दिनों तक सारे पूंजीवादी
अर्थशास्त्री एवं समाजवादी आलोचक अंधेरे में अनुसंधान के तीर चला रहे थे, उस पर सहसा आलोकपात हुआ अतिरिक्त
मूल्य के आविष्कार के फलस्वरूप।”
यह सबकुछ ‘पूंजी’ के पहले खण्ड के शुरुआती सौ पृष्ठ हैं, जिन्हे एंगेल्स ने ही
बार बार पढ़ने को कहा है। वह समीकरण याद है? पहला अध्याय, अनुभाग दो – “माल में निहित
श्रम का दोहरा स्वरूप”। हालाँकि, हमारा आलोच्य विषय है ‘मूल्य की द्वंद्वात्मकता’,
उससे पहले इस अनुभाग की प्रारम्भिक पंक्तियों पर नजर डालें जहाँ मार्क्स ने खुद कहा
है कि माल में निहित श्रम के दोहरे स्वरूप को उन्होने ही पहली बार उजागर किया है।
“पहली दृष्टि में माल दो चीजों के – उपयोग-मूल्यो और विनिमय-मूल्य के – संश्लेष
के रूप में हमारे सामने आया था। बाद में हमने यह भी देखा कि श्रम का भी वैसा ही दोहरा
स्वरूप होता है, क्योंकि जहाँ तक कि वह मूल्य के रूप में व्यक्त होता है, वहाँ तक उसमें
वे गुण नहीं होते, जो उपयोग-मूल्य के सृजनकर्ता के रूप में उसमें होते हैं। मालों में
निहित श्रम की इस दोहरी प्रकृति की ओर सबसे पहले मैंने इशारा किया था और उसका आलोचनात्मक
अध्ययन किया था।”
अब आएँ मूल्य की द्वंद्वात्मकता पर। तीसरा
अनुभाग, “मूल्य का रूप अथवा विनिमय मूल्य”।
मूल्य की अभिव्यक्ति क्या किसी एक माल को हाथ
में लेकर उलट-पलट कर देखने से मिलती है? आज के दिन एक बच्चा तो क्या, बड़ा आदमी भी शायद
बोल दे, “क्यों? प्राइस टैग तो दिया ही रहता है!” आम आदमी मूल्य और दाम/कीमत में फर्क
नहीं जानता है। सामान्य जीवन में हम भी याद नहीं रखते हैं। खैर, उधर जाने की जरूरत
नहीं है। मूल्य एवं दाम/कीमत के बीच का अन्तर्सम्बन्ध ‘पूंजी’ के उसी खण्ड के बाद के
पन्नों में विशद रूप से बताया गया है। यहाँ यह सवाल छेड़ने का अर्थ है कि किसी माल को
हाथ में लेकर देखने से कहा जा सकता है कि, “वा:, क्या अच्छी/सुन्दर चीज है!” यानि,
जिस “उपयोगी श्रम ने, …… एक निर्दिष्ट प्रकार के एवं एक निर्दिष्ट उद्देश्य से खर्च
किये गये श्रम ने” उसके उपयोगमूल्य को बनाया है, उसकी तारीफ की जा सकती है। लेकिन
“माल का मूल्य” कहने से जिस “विश्लिष्ट मानवश्रम, सामान्य रूप से मानवश्रम के खर्च”
का प्रसंग आता है, क्या उसकी अभिव्यक्ति मिलती है?
मार्क्स कहते हैं,
“एक माल के साथ भिन्न प्रकार के दूसरे एक माल का जो मूल्य-सम्बन्ध है, वही है सरलतम
मूल्य-सम्बन्ध।” और उसी से, यानि, किसी एक माल का आकार, आकृति, रंग या गन्ध से नहीं,
दूसरे माल के साथ उसके सम्बन्ध से हमें मुल्य की अभिव्यक्ति मिलती है, वह भी दोनों
मालों का नहीं, किसी एक माल का, “यानि दो मालों के बीच जो सम्बन्ध है, उससे हमें मिलती
है सिर्फ एक माल के मूल्य की सरलतम अभिव्यक्ति।” कौन से माल का? और कहाँ होती है उस
मूल्य की द्वंद्वात्मकता?
अब आया जाय उस समीकरण पर।
“क) मूल्य
का प्राथमिक अथवा आकस्मिक रूप
‘क’ माल का ‘प’ परिमाण = ‘ख’ माल का ‘फ’ परिमाण,
अथवा
‘क’ माल का ‘प’ परिमाण का मूल्य है ‘ख’ माल
का ‘फ’ परिमाण।
20 गज कपड़ा = 1 कोट, अथवा
20 गज कपड़े का मूल्य है 1 कोट।
1) मूल्य की अभिव्यंजना के दो ध्रुव : सापेक्ष
रूप और सम-मूल्य रूप
मूल्य के रूप का सारा रहस्य इस प्राथमिक रूप
में छिपा हुआ है। इसलिये इस रूप का विश्लेषण करना ही हमारी असली कठिनाई है।”
[‘पूंजी’
के सारे उद्धरण, प्रगति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, मदनलाल मधु द्वारा किये गये हिन्दी
अनुवाद से लिये गये हैं]
बस। और उद्धरण नहीं। हमें जो विषय प्रतिपादित
करनी है वह बस इतनी ही है कि मूल्य की जो यह द्वंद्वात्मकता है कि वह एक माल में विश्लिष्ट
तरीके से अभिव्यक्त नहीं होता है, हो नहीं सकता है – क्योंकि वह माल है, पैदा ही हुआ
है विनिमय के लिये (उपयोगी वस्तु के रूप में तो वह पहले से था, उसका माल-रूप एक निर्दिष्ट
ऐतिहासिक उत्पाद है) – उसकी अभिव्यक्ति सिर्फ किसी दूसरे माल के साथ सम्बन्ध में होती
है एवं उन दोनो मालों की बराबरी तय होती है दोनो मालों में निहित ‘सामाजिक तौर पर आवश्यक
श्रमसमय’ के द्वारा।
और वह अभिव्यक्ति दो मालों की नहीं, एक की
होती है, समीकरण में स्थान के अनुसार। वह अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है – सापेक्ष,
जिसकी अभिव्यक्ति उसी माल में होती है जिसका मूल्य जानने के लिये वह समीकरण बनता है
(मनुष्य समाज में आज भी प्रत्यक्षत: बनते रहता है जहाँ वस्तुविनिमय-बाज़ार का प्रचलन
है) जबकी सम-मूल्य रूप दूसरे वाले माल में अभिव्यक्त होती है। जैसा मार्क्स खुद आगे
कहते हैं:
“सापेक्ष रूप और सम-मूल्य रूप मूल्य की अभिव्यंजना
के दो घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित, एक दूसरे पर निर्भर और अपृथक तत्व हैं, लेकिन वे साथ
ही साथ एक दूसरे के अपवर्जक, विरोधी चरमछोर – यानि एक ही अभिव्यंजना के दो ध्रुव –
हैं। ये दो रूप क्रमश: उन दो भिन्न मालों में बँट गये हैं, जिनको इस अभिव्यंजना ने
एक दूसरे के सम्बन्ध में ला खड़ा किया है। कपड़े के मूल्य को कपड़े के रूप में व्यक्त
करना सम्भव नहीं है।”
‘पूंजी’ का सारसंक्षेप
करने का कोई दुस्साहसिक इरादा नहीं है। ‘पूंजी’ में ही विशद वर्णन है कि किस तरह इसी
द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति के कारण, उपरोक्त समीकरण विस्तृत होते होते उलट जाता है एक
दिन (यानि, परिमाणात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तन को जन्म देता है और प्रतिपक्ष पक्ष
बन जाता है) : समीकरण की दाहिनी ओर, सभी मालों का सम-मूल्य अभिव्यक्त करने वाला माल
सार्वजनीन सम-मूल्य, मुद्रा बन जाता है। और मालों के बाजार में मुद्रा के चलन की आवश्यक
गति के रूप में पूंजी का जन्म होता है।
एंगेल्स इस आविष्कार
के समय मैंचेस्टर में थे। बीच बीच में लन्दन आकर मार्क्स का काम देखते जा रहे थे, मार्क्स
को डाँट-फटकार लगा रहे थे ताकि दूसरे सारे काम छोड़कर मार्क्स इसी काम में जल्द आगे
बढ़ें।
बाद में जब एंगेल्स, सैमुयेल मूर एवं एडवर्ड
एवलिंग द्वारा किये गए अंग्रेजी अनुवाद के सम्पादन के लिए बैठे तब, पृष्ठों के नीचे
जो टिप्पणियाँ उन्होने की, उसमें से एक यहाँ उद्धृत किया जा सकता है सिर्फ यह समझने
कि जब एंगेल्स मार्क्स के घर पहुँचते थे और दोनो मित्र अध्ययन-कक्ष में आड़ा-तिरछा एक
दूसरे के विपरीत चलना शुरु करते थे तब मार्क्स के काम में एंगेल्स कितने दूर तक प्रवेश
कर जाते थे।
‘पूंजी’ के पहले खण्ड (हिन्दी अनुवाद) के पृष्ठ
54 में “सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम-समय” समझाने के क्रम में मार्क्स की अपनी एक टिप्पणी
है जिसमें उन्होने एक गुमनाम लेखक को उद्धृत किया है:
“जब उनका (जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का)
आपस में विनिमय होता है, तब उनका मूल्य इस बात से निर्धारित होता है कि उनको पैदा करने
में कितने श्रम की लाजिमी तौर पर आवश्यकता होती है और आम तौर पर उनके उत्पादन में कितना
श्रम लगता है। (‘मुद्रा के सूद के विषय में सामान्य रूप से और विशेषत: सार्वजनिक कोष
की मुद्रा के सूद के विषय में कुछ विचा, इत्यादि, लन्दन, पृष्ठ 36)। पिछली शताब्दी
में लिखी गयी इस उल्लेखनीय गुमनाम रचना पर कोई तारीख नहीं है। परन्तु अन्दरूनी प्रमाणों
से यह बात साफ है कि वह जॉर्ज द्वितीय के राज्यकाल में, 1739 या 1740 के आसपास प्रकाशित
हुई थी।”
अंग्रेजी अनुवाद के सम्पादन के समय, श्रम के
दोहरे स्वरूप के बारे में मार्क्स की व्याख्या का महत्व समझाने के लिये और खासकर इंग्लैंड
का गर्व ऐडम स्मिथ की गलती बताने के लिये एंगेल्स को भी एक टिप्पणी जोड़नी पड़ी (देखिये
हिन्दी अनुवाद का पृष्ठ 61) :
“यह साबित करने के लिये कि श्रम ही एकमात्र
ऐसी सर्वथा पर्याप्त एवं वास्तविक माप है, जिससे हर जमाने में तमाम मालों के मूल्यों
का अनुमान लगाया जा सकता है और उनका एक दूसरे से मुकाबला किया जा सकता है, ऐडम स्मिथ
ने लिखा है, “श्रम की समान मात्राओं का मजदूर के लिये सब समय और सब जगह एक सा मूल्य
होना चाहिये। उसके स्वास्थ्य, बल और क्रियाशीलता की सामान्य अवस्था में और उसमें जितनी
औसत निपुणता हो उसके साथ उसे अपने अवकाश, अपनी स्वतंत्रता तथा अपने सुख का सदा एक सा
अंश देना पड़ता है (वेल्थ ऑफ नेशन्स, पहली पुस्तक, अध्याय 5)।” एक ओर तो यहाँ (किंतु
हर जगह नहीं)
ऐडम स्मिथ ने मालों
के उत्पादन में खर्च किये गये श्रम की मात्रा के द्वारा मूल्य के निर्धारित होने को
श्रम के मूल्य के द्वारा मालों के मूल्य के निर्धारित होने के साथ गड़बड़ा दिया है और
इसके फलस्वरूप यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि श्रम की समान मात्राओं का सदा एक सा
मूल्य होता है। दूसरी ओर, उनको अन्देशा है कि जहाँ तक श्रम मालों के मूल्य के रूप में
प्रकट होता है, वहाँ तक वह केवल श्रम-शक्ति के खर्च के रूप में ही गिना जाता है, लेकिन
श्रम-शक्ति का यह खर्च उनके लिये महज अवकाश, स्वतंत्रता और सुख का त्याग करना है और
उसके साथ साथ जीवित प्राणियों की साधारण कार्रवाई नहीं है। लेकिन ऐडम स्मिथ की दृष्टि
में तो केवल मजदूरी पर काम करने वाला आधुनिक मजदूर ही है। उनके उस गुमनाम पूर्वज का,
जिसे हमने पृष्ठ 54 के पहले फुटनोट में उद्धृत किया है, यह कहना ज्यादा सही लगता है
कि “जीवन की इस आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने के लिये एक आदमी ने हफ्ते भर काम किया
है … और वह, जो उसे बदले में कुछ देता है, वह जब इसका हिसाब लगाने बैठता है कि उसका
सम-मूल्य क्या है, तो वह इससे बेहतर और कुछ नहीं कर सकता कि अनुमान लगाकर देखे कि इतना
ही श्रम और समय उसका किस चीज में लगा था। और यह – असल में देखा जाय, तो – एक चीज में
किसी निश्चित समय तक लगे एक आदमी के श्रम का किसी दूसरी चीज में उसी समय तक लगे किसी
दूसरे आदमी के श्रम के साथ विनिमय करने के सिवा और कुछ नहीं है। (उप॰पु॰, पृ॰ 39)।”
क्या ऐसा नहीं
लगता है कि गुमनाम लेखक की पुस्तक को दोनो मित्र एक ही साथ बैठकर पढ़े होंगे?
[समाप्त]
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