[न तो यह शीर्षक कुछ नया है और न ही यह विषय। संक्षेप में, फिर भी गहराई के साथ प्रख्यात इतिहासकार सव्यसाची भट्टाचार्य ने “द महात्मा ऐंड द पोएट” नाम की अंग्रेजी पुस्तक में इस विषय पर रोशनी डाली है। प्रस्तुत लेख भी एक तरह से उसी पुस्तक से प्रेरित है।]
बंगला
साहित्य-गगन के सूर्य रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भूमिका हर मायने में भारतीय संस्कृति एवं
साहित्य में एक युगप्रवर्तक की है।
भारत
में ‘नवजागरण’ को – दृष्टि के केन्द्रस्थल में आदमी को रखनेवाली सोच के विकास के सन्दर्भ
में – एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। चौदहवीं सदी में जो बंगाल
के ही किसी कवि ने घोषणा की थी ‘सबार उपरे मानुष सत्य, तहार उपरे नाइ’, वह सोच एक अन्त:सलिला
प्रवाह के रूप में भक्ति-सूफी परम्परा के कवि और सन्तों में दिखाई पड़ी। उन्नीसवीं सदी
में बंगाल के ‘नवजागरण’ के रूप में हम जिस परिघटना को पाते हैं, यूरोपीय-नवजागरण से
प्रेरित उस मनुष्यकेन्द्रिकता को रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भक्ति-सूफी सोच-परम्परा की निरन्तरता
और विकास के रूप में अभिव्यक्त किया। बल्कि उस सोच-परम्परा की जड़ों को कवि ने उपनिषद
से प्रवाहित, बौद्ध-चेतना की शक्ति और व्याप्ति से संवर्धित उस दृष्टि में ढूंढ़ा जो
पृथ्वी पर मनुष्यता के अभियान को आगे बढ़ते रहने के लिये सम्बोधित करता है।
यह
खोज, इसी कारण से, अमूर्त्त सिद्धांतों से कहीं अधिक, सृजन और कर्म की एक विशाल व्याप्त
धारा के रूप में प्रवाहित हुई। कविता, गीत, संगीत, नाटक, उपन्यास, कहानियाँ, चित्र
आदि के सृजन के साथ साथ, पिता द्वारा प्रतिष्ठित शांतिनिकेतन को उन्होने अपने शिक्षादर्शन
के मुताबिक आदर्श विद्यालय बनाया, विश्वभारती विश्वविद्यालय स्थापित कर अपनी सारी कमाई
उसी के विकास में लगा दी। बंगाल के विभाजन के खिलाफ वह सड़क पर जनता के बीच चले आये,
जालियाँवालाबाग जनसंहार के खिलाफ उन्होने न सिर्फ नाइट की उपाधि का त्याग किया बल्कि
तीक्ष्णतम भाषा में अंग्रेज सरकार को लगातार कठघरे में खड़ा करते रहे। नोबेल पुरस्कार
मिलने से जो ख्याति प्राप्त हुई, उसका पूरा इस्तेमाल किया उन्होने पूरे विश्व में घूम
घूम कर युद्ध के खिलाफ शांति का संदेश प्रसारित करने के लिये, उस अंधराष्ट्रवाद के
खिलाफ विश्वमानवता का सन्देश देने के लिये जिसका हिंसक फासीवादी रूप दिखने लगा था और
साथ ही, उस भारतात्मा के साथ विश्व के मनीषाओं को परिचित करने के लिये जो उनकी खोज
थी। अपनी समग्र सृजनशीलता के अभिमुख को उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में निहित नई आधुनिक
भारतीयता के निर्माण के साथ जोड़ दिया। भारतीय नवजागरण की पूर्णता जिस सामाजिक क्रांति
में निहित है, रवीन्द्रनाथ ठाकुर उस सामाजिक क्रांति के लिये हमारे कार्यों एवं प्रयासों
के नित्यसहचर हैं।
स्वाभाविक
है कि ऐसे युगप्रवर्त्तक के साथ एक दूसरे युगप्रवर्त्तक एवं मुक्ति की सदी के वैश्विक
जननायकों में से एक, महात्मा गांधी का आपसी सम्बन्ध, न सिर्फ रोचक विषय होगा बल्कि
भारतीयता एवं भारत-भावना को तय करने वाले कुछ महत्वपूर्ण आयामों को परिभाषित करेगा।
महात्मा
गांधी ने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को अपने कुशल नेतृत्व के द्वारा देशव्यापी जनान्दोलन
में तब्दील किया – गाँव गाँव कस्बे कस्बे में लोग गांधी बाबा के आह्वान पर आन्दोलित
होने लगे। दूसरी ओर, रवीन्द्रनाथ ने चाहा कि उसी आन्दोलन में मानवोत्कर्ष के इतिहास-यात्रा
की पदध्वनि भी सुनाई पड़े। (भारत के राष्ट्रगान में हम जिस गीत का सिर्फ पहला सर्ग गाते
हैं, उस पूरे गीत को पढ़ने पर उनकी यह अभिलाषा दिखाई पड़ेगी।)
महात्मा
और गुरुदेव। दोनों एक दूसरे को इसी नाम से सम्बोधित करते थे। उम्र का फर्क लगभग आठ
वर्षों का था। महात्मा तो गुरुदेव के, शांतिनिकेतन में किये जा रहे कार्यों के प्रशंसक
थे ही। गुरुदेव भी मोहनदास करमचन्द गांधी नाम के एक अद्भुत शख्सियत के द्वारा दक्षिण
अफ्रिका में किये जा रहे कार्यों के प्रशंसक थे। सी॰ एफ॰ ऐन्ड्रुज (दीनबंधु ऐन्ड्रुज)
को उन्होने गांधी के डरबन स्थित फीनिक्स आश्रम में घूम आने को कहा। वहाँ से छात्रों
का एक जत्था आया शांतिनिकेतन में अध्ययन करने के लिये। फिर जब गांधीजी भारत आये, तब
तक तो दोनों एक दूसरे के गहरे मित्र बन चुके थे। कहा तो यह भी जाता है कि ‘महात्मा’
एवं ‘गुरुदेव’, ये दोनों सम्मानसूचक उपनाम उन्होने ही एक दूसरे को दिये थे। जो भी हो,
दोनों एक दूसरे को इन्ही नामों से सम्बोधित करते थे। कोई भी महत्वपूर्ण वैचारिक सवाल
पर बिना गुरुदेव की राय जाने महात्मा को चैन नहीं मिलता था। गुरुदेव थे कि असहमति जताने
के क्रम में अगर कड़वी बातें लिख दी तो ‘महात्मा आहत तो नहीं हुये!’ इस फिक्र में बेचैन
हो उठते थे।
असहमति
के प्रधान कारण होते थे आन्दोलन के रूपों के बारे में दोनों की अलग अलग धारणायें। गौर
से देखा जाय तो यह अलगाव भी लाजिमी था और इस अलगाव के कारण ही आन्दोलन के कई महत्वपूर्ण
सवालों पर वैचारिक विमर्श की जमीन तैयार हुई। जैसा कि पहले ही कहा गया कि स्वतंत्रता
के आन्दोलन में गुरुदेव मानवोत्कर्ष के इतिहास-यात्रा की पदध्वनि सुनने का प्रयास करते
थे। नहीं मिलती थी तो क्षुब्ध होते थे। उन्हे आशंका होती थी कि कहीं यह आन्दोलन, मानवमूल्यों
के विकास की ओर, विज्ञान एवं वैज्ञानिक चेतना की ओर अपना अभिमुख बनाये रखने के बजाय
पिछड़ेपन की ओर न ले जाय। कहीं जात-पात, साम्प्रदायिकता से पीड़ित यह देश अपने अतीत के
सकारात्मक पहलुओं से सीखने के बजाय नकारात्मक पहलुओं पर ही न गुरूर करने लगे। कहीं
साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद विरोध, पाश्चात्य-विरोध का पर्याय न बन जाय और उत्तर-नवजागरण
यूरोप की सारी वैज्ञानिक प्रगति, फ्रांसीसी राजनीतिक क्रांति के बाद की सारी राजनीतिक
प्रगति एवं ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति के बाद की सारी औद्योगिक प्रगति को नकारने में
ही अपनी पहचान न बनाने लगें – शान न बनाने लगें!
दूसरी
ओर महात्मा, वास्तव में एक महान आत्मा तो थे ही, विलक्षण राजनीतिक सिद्धांतकार थे।
उनका दक्षिण अफ्रिका का फीनिक्स आश्रम, तोलस्तॉय आश्रम, भारत लौटने के बाद साबरमति
का आश्रम, अपनी ही जीवनधारण-पद्धति पर किये गये प्रयोग, दार्शनिक चिन्तायें … सब कुछ
सिर्फ इसीलिये क्योंकि वह भी गुरुदेव की तरह ही एक रेनेशाँ-व्यक्तित्व थे – सिद्धांत
और व्यवहार की एकता की समस्या को औरों की तरह टालना नहीं बल्कि जीवन को दाँव पर लगाकर
हल करना चाहते थे। रवीन्द्रनाथ की तरह वह भी रूस के नाम पर सिर्फ तोल्स्तॉय से नहीं,
बल्कि बॉलशेविक क्रांति की मूल सामाजिक अवधारणाओं से प्रभावित थे।
सिर्फ
वह क्यों, सामन्ती-पूंजीवादी-राष्ट्रवादी नेताओं से भरा कांग्रेस भी दबाव में आ गया
था; अमृतसर कांग्रेस में श्रमिक संघों के निर्माण व समर्थन हेतु प्रस्ताव लेना पड़ा
जिसमें उनके आर्थिक प्रश्नों पर ध्यान देने के साथ साथ श्रमिकों को ‘भारत की राजनीति
में सही स्थान’ देने की बात कही गई; कराची कांग्रेस में किसानों के सवाल को भी शामिल
किया गया। (उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध से ही शोषितों के बगावत का आतंक यूरोप के आसमान
पर छाने लगा था, जिससे प्रभावित स्वामी विवेकानन्द ने भी उस अवधारणा का ‘हिन्दुकरण’
किया कि वैश्यों के युग के बाद अगला युग शुद्रों का युग होगा।)
गांधीजी
भी, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में श्रमिकों एवं किसानों के उभरते आन्दोलन को स्पष्टत:
समझने एवं उन आन्दोलनों पर अपने वैचारिक प्रभाव
को जाँचने के लिये पहले गुजरात के मजदूरों एवं फिर बिहार के किसानों के बीच जाकर काम
किये।
देश
की जनता का नब्ज टटोलने में वह अपने जमाने के सभी नेताओं से कोसों आगे थे। चरखा, स्वदेशी,
उपवास, असहयोग, नमक, अहिंसा, सत्याग्रह … इन सारे शब्दों का, उनके मुख से निकलते ही
एकता और प्रतिरोध की जादुई ताकत बन जाने के पीछे का राज उन्हे मालूम था। वह जानते थे
कि वह एक ऐसी जनता के बीच काम कर रहे हैं जिसे, प्रथम राज्यसत्ताओं के उदय के साथ एक
बार जो निरस्त्र किया गया, फिर उस जनता में जनसेना (मिलिशिया) की कोई परम्परा नहीं
बनी। यूरोप जैसा उथल पुथल से भरा नहीं रहा इस देश का आम जीवन्। (सिर्फ मूलनिवासियों
को उनके पारम्परिक हथियारों से अंग्रेज भी अलग नहीं कर पाये)। वह जानते थे कि अंग्रेज
शासन ने जो सबसे कीमती चीज छीनी थी इस देश की जनता से वह थी स्वाभिमान और उद्यमिता।
दादाभाई नॉवरोजी इसकी चर्चा करते हैं ‘पॉवर्टि ऐंड अनब्रिटिश रूल’ में। अनैतिकता और
भ्रष्टाचार अंग्रेज शासन के पहले तक, सामान्यत: राजपुरूषों से लेकर जमींदार, महाजन
एवं उसके मुनीम तक सीमित था। अंग्रेज शासन के समय यह पूरे मध्यवर्ग में फैल गया। गांधीजी
ने खुद अपनी आत्मकथा में अहिंसा को परिभाषित किया है। अहिंसा निष्क्रियता नहीं है।
युवाओं में अंग्रेज शासन के खिलाफ बढ़ रहे आक्रोश एवं आतंकवादी गतिविधियों के विकल्प-स्वरूप,
आत्मत्याग की अधिक बड़ी चुनौती है। पिस्तौल और बम के साथ (किसी अंग्रेज प्रशासक का प्राण
लेने के क्रम में) प्राण त्यागने से अधिक गरिमामय है शासकों के अत्याचार का निहत्था
सामना करना। और एक निहत्थी जनता के लिये यह वीरता सामूहिकता में सम्भव है, जबकि अस्त्र
आदि के साथ सिर्फ छोटे जत्थे बन सकते हैं। इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुये गांधीजी
ने उपरोक्त प्रतीकात्मक शब्द चुने।
प्रतीकों
के इस्तेमाल के अपने जोखिम होते हैं। लेकिन जनता को एकजुट करने में उनके महत्व से कोई
इन्कार नहीं कर सकता है। चरखा एक ऐसा प्रतीक था जो हर ग्रामीण भारतीय के दिल को छूनेवाला
था। इसी चरखे और करघे के घर घर चलने से मध्ययुगीन बंगाल कभी सोने का चिड़िया बना। सिर्फ
बंगाल नहीं, चरखा पूरे ग्रामीण भारत का आवश्यक घरेलु उद्योग था। अंग्रेजी शासन ने इस
चरखे एवं करघे को बर्बाद किया।
गांधीजी
इस चरखे की ‘शक्ति’ को पहचाने और इस प्रतीक को सामने लाये। स्वाभाविक तौर पर अति-उत्साही
कांग्रेसी एवं उनसे प्रभावित सामान्य लोग भी ‘चरखे के सहारे’ ‘यूरोप की औद्योगिक शक्ति’
को पछाड़ने की बात करने लगे। बस, रवीन्द्रनाथ क्रुद्ध होकर बरस पड़े गांधीजी पर। ‘किधर
जा रहे हैं हम?’ गांधीजी ने भी लम्बे खत लिखे अपनी बातों को स्पष्ट करने के लिये।
उसी
तरह उपवास पर। गरीब आदमी के लिये भूखे रहना कोई नई बात नहीं थी। पर व्रत की ‘चमत्कारिक
शक्ति’ को भी वह मानता था। और पूजा-समारोह में अगर पुरूष-आधिपत्य था तो व्रत पर घर
के अन्दर की औरतों का आधिपत्य था। यही व्रत अगर किसी राष्ट्रीय ध्येय से जुड़ जाय और
उससे सम्बन्धित उपवास परोक्ष प्रतिरोध का अस्त्र बन जाय तो पूरे देश में उसकी पवित्र
भावना दौड़ जायेगी। गांधीजी इस बात को समझते थे। सो इस्तेमाल किया। प्रतीकों का जो जोखिम
है वह सामने आ गया। प्राचीन भारत के योगी, मुनि, ॠषियों के महाज्ञान, तपश्चर्या एवं
चमत्कारिक शक्तियों के नाम पर उलजलूल बातें सामने आने लगी; आधुनिक विज्ञान की जरूरत
को ही नकारा जाने लगा। गुरुदेव चिन्तित हो उठे।
इसी
तरह पच्चीस वर्षों तक गांधीजी एवं रवीन्द्रनाथ के बीच स्वतंत्रता आन्दोलन के महत्वपूर्ण
प्रसंगों पर पत्रों के माध्यम से, लेखों के माध्यम से एवं आमने सामने बातचीत के माध्यम
से विचारों का आदान-प्रदान होता रहा। कई मामलों में दोनों में तत्काल सहमति हो जाती
थी। कई मामलों में गांधीजी को, गुरुदेव के सवालों का धैर्यपूर्वक जबाब देना पड़ता था,
तब सहमति होती थी। कई मामलों में अन्त अन्त तक सहमति नहीं हो पाई (जैसे बिहार में सन
1934 में आये भूकम्प को गांधीजी द्वारा “दैवीय दंड” कहे जाने के सवाल पर।)
इन
दोनों हस्तियों के बीच चलता रहा यह वैचारिक आदान-प्रदान भारत के स्वातंत्र्योत्तर संस्कृति
के निर्माण का अमूल्य मार्गदर्शक है।
दोनों
ऐतिहासिक व्यक्ति जब आमने सामने होते थे तो किस तरह की बातचीत होती थी उनमें? काफी
गहरी सैद्धांतिक बातचीत तो अकेले में ही होती थी। उसका कोई प्रामाणिक अभिलेख हो भी
नहीं सकता। लेकिन भीड़ के बीच जो हल्की फुल्की बातचीत होती थी, उसमें भी किस तरह बिजली
कौंधती थी, आइये देखें। वर्ष 1930 के जनवरी महीने में जब रवीन्द्रनाथ अहमदाबाद स्थित
गांधीजी के सत्याग्रह आश्रम में पहुँचे तो दोनो में हुई बातचीत की एक बानगी 23 जनवरी
की यंग इन्डिया में छपी, महादेव देसाई ने इसे लिखा था।
“ …’मैं
अब सत्तर का हूँ, महात्माजी’ उन्होने [गुरुदेव ने] कहा, ‘इसलिये आपसे काफी बूढ़ा हूँ
मैं।’
“ ‘लेकिन’,
गांधीजी ने हँसते हुये कहा, ’60 साल का बूढ़ा भले नाच नहीं पाये, 70 साल का जवान कवि
नाच सकता है।’
“ ‘यह
तो सच है’, कवि ने प्रशंसा को स्वीकारते हुये कहा, पर लगा कि वह गांधीजी द्वारा अपनाये
गये सुखी वृद्धावस्था के फटाफट नुस्खे से ईर्ष्यान्वित थे। क्योंकि उन्होने कहा, ‘आप
गिरफ्तारी-चिकित्सा के अगले दौर के लिये तैयार हो रहे हैं! काश, वे हमारा भी इलाज करते
एक बार।’
“ ‘पर’,
गांधीजी ने कहा, ‘आपके आचरण सही नहीं हैं’, और इस पर उस छोटे से घर में हँसी का फव्वारा
फूटा, जहाँ कवि और चरखावाले आदमी बैठे हुये थे।
“कवि
अपने स्वाभाविक तरीके से विभिन्न विषयों पर बातचीत करते रहे। हम सब मुग्ध भाव से ध्यानपूर्वक
सुनते रहे। उनकी स्मृति में एक कोरियाई आदमी का चेहरा स्पष्ट हो रहा था जो उनसे मिला
था। वह आदमी नये कोरिया का सपना देख रहा था।
“ ‘शोषण
करनेवाले जापान से आप कैसे लड़ेंगे?’
“कवि
ने उस कोरियाई से पूछा थ और उसने कहा था:
“ ‘दुनिया
विभाजित होगी दो वर्गों में – शोषक और शोषित, और शोषितों के जुड़ाव के माध्यम से ही
हम जापान के खिलाफ लड़ पायेंगे।
“ ‘वह
जुड़ाव सम्भव हो रहा है, और एक दिन हम सभी शोषित जनता को एक साथ पायेंगे और यहाँ तक
कि जापानी शोषितों को भी हम हमारे कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते हुये पायेंगे।’
“ ‘क्या
यह सच नहीं होगा महात्माजी? [कवि ने कहा] उस [कोरियाई] का विचार था कि धनी लोग कभी
एक साथ नहीं हो सकते, उत्पीड़ित और निचले तबके के लोग ही सिर्फ एक साथ हो सकते हैं।’
“ ‘बिल्कुल
सही, बिल्कुल सही’, गांधीजी ने कहा। ‘और वह बोला’, कवि ने जोड़ा, ‘कि हम शोषकों के खिलाफ
उनके हथियारों से नहीं लड़ पायेंगे। यानि आधुनिक हथियारें; लेकिन एक दिन आयेगा जब पूरी
दुनिया हमारी ओर से लड़ेगी। शायद उसे यह विचार रूसियों से मिला जिन्होने अभी दुनिया
में घबड़ाहट पैदा कर दिया है। कितना भी हम रूस के खिलाफ अपने चारों ओर बांध लगायें,
विचारों के धावे को रोकना नामुमकिन है। हमारे यहाँ कभी ब्राह्मण-सत्ता थी, फिर क्षत्रीय-सत्ता,
अभी वैश्य-सत्ता चल रही है, और आगे हम शुद्र-सत्ता के दौर में होंगे क्योंकि संख्या
में वे बहुमत हैं।’
“वे
[कवि] चिन व दूसरी जगहों की हालात के बारे में गहरी जानकारी के साथ बातें करते रहे
और बोले, ‘कोई सरकार, अगर वह जनता की सच्ची प्रतिनिधि न हो तो झेल न पाये। उन्हे शिक्षित
करना होगा और उन्हे जानना होगा कि किस तरह अपनी जरूरतें रखी जाती हैं, और सरकार को
उन जरूरतों के प्रति सम्वेदनशील होना होगा।’
“गांधीजी
का काफी वक्त ले लेने के लिये कवि की क्षमा-याचना, गांधीजी को अपने प्रिय विषय पर कुछ
बोलने का मौका दिया।
“ ‘नहीं’,
उन्होने कहा, ‘अपने मेरा समय बर्बाद नहीं किया, पूरी बातचीत के दौरान मैं बिना रुके
सूत कातते रहा। हर मिनट जो मैं यहाँ सूत कातता हू।, मैं सचेत रहता हूँ कि राष्ट्र की
सम्पत्ति में कुछ जोड़ रहा हूँ। मेरी गणना यह है कि अगर एक करोड़ लोग प्रति दिन एक घंटा
सूत कातें, और इस तरह एक बेकार घन्टे को हिसाब में लायें तो प्रतिदिन राष्ट्रीय सम्पत्ति
में हम 50,000 रुपये जोड़ सकते हैं। हमारी आय है मात्र सात पैसा प्रतिदिन, उसमें एक
पैसे का जुड़ना भी महत्व रखता है। जबकि सबसे अधिक गरीबों की आय सात पैसे भी नहीं हैं,
क्योंकि उक्त औसत में लखपतियों की आय भी शामिल है। इसका मतलब है कि दसियों लाख की आय
सात पैसे प्रतिदिन भी नहीं है और निश्चय ही वे भूखे जी रहे हैं … ।‘ …”
यह
बातचीत कुछ देर तक और जारी रहती है। गांधीजी अर्थनीति, औपनिवेशिक लूट और चरखे की ताकत
पर बातें करते रहते हैं। महादेव देसाई द्वारा लिखित दो महान व्यक्तियों के बीच बातचीत
की यह बानगी उन दोनों की सोच की दिशा और चारित्रिक विशेषताओं को भी उजागर करता है।
इस
निबंध को यहीं खत्म किया जा सकता था। लेकिन अन्त में, रवीन्द्रनाथ के 160वें जन्मदिन
के अवसर पर उनकी कविता की कुछेक पंक्तियों को उद्धृत कर लें (‘बलाका’ काव्यग्रंथ के
38वें कविता का शेषांश)।
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