Saturday, August 3, 2024

For Hindi

देवीप्रसाद की “सात-मूर्ति’

उन्होने कहा था, ‘अत्याचारी अंग्रेज! भारत छोड़ो!’
उन्होने सोचा था इसी तरह
सावन के तालाव में उनके गांवों के विम्व
वधु के लज्जारुण तलुवे की तरह उतरेंगे।
मकई के खेतों में,
गीत के बोलों में, बच्चों के चेहरों पर
लौट आयेंगे अकाल में मारे गये अपने लोग।
स्कूल के मास्टरसाहब
चशमा खोलकर, आंसू पोछते हुये,
उनके कंधों पर हाथ रख कर कहेंगे,
‘कितने लोग कितना कुछ देते हैं,
तुम सबों ने स्वतंत्र भारत दिया, धरती को,
                                और मुझे!’
उन्होने सोचा था इसी तरह
सड़कों पर, ट्रेनों में किसी भी आदमी के चेहरे पर
किसी भी पल
कुछेक हजार सालों की रोशनी और छांह नाच जायेगी।
जो फ़सल और रेल के चक्के घुमाता है वह
देश का चक्का हाथ में लेगा।
शायद उनलोगों ने यह सब कुछ भी नहीं सोचा,
सिर्फ आलोड़ित एक स्वप्न की तन्मयता में
यौवन के अदम्य साहस के साथ आगे बढ़े थे।
लेकिन उनका बढ़ना
उस विशेष स्थान और काल में
इन सारी बातों को साथ लिये हुये था।
भगत सिंह के बहुत बाद वे युवा हुये थे।
किसान सभा बन जाने के बाद वे किसानों के घर में बड़े हुये थे।
 
अंग्रेजों ने गोली चलाई।
वे, एक एक कर
हमारे रक्त में लीन हो गये।
 
हम ये बात भूल जाते हैं।
तब शिल्पकार का काम शुरू होता है।
वह रंटजन-किरण डालते हैं हम पर।
और तब आंखों के सामने हवा में
 
खिल उठता है
हमारे रक्त की अन्तर्छवि
           सात शरीरों का कांस्य।
शायद वह भी
अधिक कुछ नहीं सोचते हैं।
सिर्फ अतीत को गाने के लिये काम करते हैं।
लेकिन उनका वह काम करना,
उस विशेष स्थान और काल मे,
हमें कुछ दूसरी बातें याद दिलाती है।
हम देखते हैं
सावन के तालाव में गांवों का विंब
कहां?
नहीं है! उजड़ते जा रहा है।
अकाल
           राजधानी के सड़कों पर
हर दिन गाड़ी पर बैठ कर
वित्त मंत्रालय, चेंबर ऑफ कॉमर्स, विधायकों के फ़्लैट और
पांचतारा होटलों के कमरे में
               आना जाना कर रहा है।
गीत, मालिकों के हृदय का परिवर्तन करते करते
                        चरित्रहीन हो गये।
मास्टरसाहब अनशन पर बैठे हैं एकतीस सालों से
पत्नी गर्भाशय के कैंसर से मर गई,
बेटी कार्बोलिक पी कर चली गई –
चशमा के टूटे शीशों में थार की धूल उड़ रही है।
तिरंगा से झरते फूल की पंखुड़ियों के नीचे
हवाई जहाज से झरते तिरंगा अबीर के नीचे
चमक रहा है
फसल और रेल का चक्का घुमाने वाले आदमीं का
               खून लगा हुआ संगीन, राइफल का काला नल।
आमंत्रित जनसमुद्र के बीच से
स्वतंत्रता
एक रहस्यमय धूसर अवतार की तरह चल रही है
और उसके पीछे
भाड़े पर नाचती हुई चल रही है भारतीय संस्कृति।
शायद वे,
जो नाच रहे हैं, मार्च कर रहे हैं, जिन्हे ‘देश का गौरव’
                                उपाधि मिल रहा है,  
यह सब कुछ भी नहीं जानते हैं, वे
वस्तुत;, स्वतंत्रता के गर्व और खुशी में ही यह सब कर रहें हैं,
लेकिन उनका यह सारा कुछ करना,
इस विशेष स्थान और काल में,
मुर्ख भंड़ैती से अधिक कुछ नहीं है।
 
हम अब नहीं कहते हैं, “अंग्रेज, भारत छोड़ो!”
हम कहते हैं,
          “मृत पूंजीवाद! धरती छोड़ो!
           भारत छोड़ो!
           जो सरकार संप्रभुता की रक्षा नहीं कर पाती,
           जो सरकार स्वतंत्रता बेच देती है पिछले दरवाजे से,
जो अर्थनीति गुलाम बनाती है साम्राज्यवादी विश्वबाजार की,
वह सरकार, वह अर्थनीति, मुर्दाबाद!”
लेकिन ये शब्द बोलने के लिये
कैसे खड़ा होना होगा, यह सीखने
उन सात कांस्य प्रतिमा के करीब जा कर खड़े होते है।
जाड़े की रात में, जुलूस से लौटते हुये,
उन कांस्य अंगुलियों से झरती बिजली की बूंद की तरह ओस में
            हथेली भिगा लेते हैं।
 
स्वप्न में अगर गलतियां भी रही हों,
उससे स्वप्न के लिये जान देना आसान नहीं होता है जरा सा भी।
 
युनियन जैक के खिलाफ़ जिन्होने
               तिरंगा को उठाया था
उनसे हम सीख लेते हैं,
धरती पर सभी रंगों के झूठे इस्तेमाल के खिलाफ लाल
धरती के हर रंग की मुक्ति के लिये लाल
                  किस तरह उठाना होगा।
 
मृत्यु अगर स्याह तूफान की तरह घेर ले
किस तरह बच्चों के रक्त में मिल जाना होगा

[Before 1984]





आज इस रात को, दीदी की याद में

कौन तुम अंधेरे में अकेली, खिड़की के सामने खड़ी हो?
आखरी बार की तरह देख ले रही हो रात का आकाश,
घर में सोये बच्चे के सांस की आवाज सुन रही हो आखरीबार,
आखरीबार देख रही हो बाहर की नि;शब्द धरती पर 
                                                      आदमी की दुनिया को
जिसने तुम्हे जीने नहीं दिया … !
 
हाथ से उतारो किरासन या जहर की शीशी,
शहतीर से साड़ी खोल कर पहन लो।
जाओ।
नदी में डूबो नहीं, पार करो।
सको तो माझी के पास जीवन का पता जान लेना;
बहुत प्राचीन और उज्ज्वल यह बात
                                      मैं फिर बोल रहा हूँ।
 
डिस्टैन्ट सिगनल के पास मत खड़ी हो जाना, स्टेशन पर जाओ।
ट्रेन में धान काटने वाले परिवारों की लड़कियों से मुलाकात होगी –
वे प्रवासी पक्षियों की तरह हैं –
सको तो उन प्रवासी पक्षियों के साथ बातचीत करो;
बहुत गतिशील, तूफान की तरह यह बात
                                             मैं फिर बोल रहा हूँ।
 
जहां ईच्छा हो चली जाओ।
पत्थर तोड़ो, जेल खटो, बरबाद हो जाओ।
जो ईच्छा हो करो।
बहुत बड़ी है यह धरती:
जब तक जीवन है
कोई बात आखरी बात नहीं है,
कोई पहचान आखरी पहचान नहीं है,
कोई मृत्यु, पार न किये जा सकने वाली नहीं है।
 
रात का यह समय
                       तुम्हारा अंत नही
                                          एक अलग तुम्हारी शुरुआत है। 

[Before 1984]





स्लीपरों पर पैर रखते हुए

साउथ-सेन्ट्रल केबिन के बगल से एक के बाद एक
रेल की पटरियाँ, कूड़े का ढेर, पुराना गोदाम, अंधेरा,
टूटी दीवार के उस तरफ बाजार, रिक्शापड़ाव …
यह शॉर्टकट है
शहर के दक्षिण के बाशिंदों का –
ट्रेन से उतर कर या स्टेशन के
उस पार से
काम निपटा कर घर लौटने के लिए।
 
कुछ था, रात के नौ बजे
शॉर्टकट पकड़ कर उस बूढ़ी औरत के
स्लीपरों पर पैर रखते हुए गहरे आत्मविश्वास के साथ
तेज चलते जाने में
कि मुझे भी अपना नाम याद आ गया
जिस पर कभी सोचा नहीं:
सुबह से रात तक
बिहार की मिट्टी का ढेला हथेली में चुर होता है।
 
बुढ़ी देश के विभाजन पर इधर नहीं आईं।
जैसा प्रतीत होता है। क्योंकि हम में से कोई भी
मतलब उस दक्षिण का
जल्ला आबाद करने वाले वाशिंदे
देश के विभाजन पर इधर नहीं आये।
देश के विभाजन के पहले वर्गों का विभाजन …
तो वही वर्गों के विभाजन में बंगाल की
मिट्टी छोड़ फैले थे इधर उधर।
 
समय के तोड़फोड़ में इसी तरह तैयार होते हुए
कामकाजी आदमियों के रोज के शॉर्टकटों पर
तेज चलती हुई उनकी लम्बी राहों में उन्हे देखा,
जिम्मेदारियों का बोझ सर के भीतर सम्हाले
एक एक कर बदलती जा रही हैं देश, शहर, मोहल्ला और उम्र।
 
3-8-1985 




वह लड़की
(पर्वलपुर, नालंदा, 22-5-92)
 
पीपल के नीचे
नये नये पत्तों की नन्ही छायायें सिहरेंगी।
माइक पर बजेंगे और भी कुत्सित गाने।
                          पीछे तेल के मिल में,
धोती लपेट कर बैठेगा मालिक का बेटा,
बाप का दोगुना हरामी।
लटकते हुए भीड़ से लदा बस आ कर खड़ा होने पर
स्टॉल पर सोडा के बोतलों के साथ
ठुन-ठुन बजेंगे महानगर के लंपट इशारे।
 
पीपल के नीचे
           गंदा स्कुलड्रेस पहन कर डोलती हुई
खीरा चबाती लड़की
बहादुर नेता होगी अपने खेल के
                                 साथी और साथिनों की।
स्कुल के मैदान में उसके भाषण की खबर फैलेगी तेज …
बुद्ध का ध्यान भंग होगा।
 
नालंदा के चौक पर उस दिन बहुत भीड़ है।
स्मृतियाँ जग उठने से हैरत में हैं जिले के किसान, कारीगर।
कानों कान फैलेगी खबर,
अभी,
अभी आ रही है वह लड़की
बुद्ध का हाथ थाम कर।
 
 
 
 
लौटना
 
गोया एक भीतरी असमय हो।
छोड़ आये स्कुल के
भरे हैं सारे क्लास, बत्तियाँ जल रही हैं।
तो, लौट आया?
 
साइकिल रखता हूँ टूटे गैराज के आगे।
झुक कर
ताला लगाता हूँ।
पीछे किसी के चेहरे का आभास है …
 
आम का बगीचा, दूरियाँ, रनवे और फांकी
साफ समझमें आता है आज
            कहाँ किसकी शुरुआत है, कहाँ अंत।
कई पीढ़ियाँ हमारे बाद आ कर
धूल के बवंडर की ओर बढ़ी है।
 
-       लौट आया?
-       हाँ, देर हो चुकी बहुत।
-       क्या पढ़ेगा?
-       सारी पढ़ाइयाँ।
फिर पढ़ूंगा, सारे खेल खेलुंगा फिर से।
और कहुंगा कुछ बातें
सुबह की प्रार्थना बिगाड़ कर …
जो उस समय कह नहीं पाया।
…………….………………………
बेंत खाउंगा। रस्टिकेट होउंगा।
नये तौर पर धूल की बवंडर की ओर बढ़ूंगा।

[Before 1997]




बच्चे स्कूल से लौटते हुये बड़े होते हैं

दिन का रंग बदलता है। गली गली में भाषा की
राख बैठती है, कुछ यहाँ की कुछ
                  दूसरे इलाकों के बंद चिमनियों की।

आंख का सफेद
बढ़ता है, ड्योढ़ियों पर, दुकानों में –
नाले पर
          गुमटी की जरा सी जगह को लेकर
दो-फाँक होता है सर।
मोहल्ले के भीतर पनपता है मोरपंखी मोहल्ला –
                                            दुसरे तल्ले पर बैबिलोन।
काला शीशा लगा कर आता है वार्ड काउंसिलर की
                                            दूसरीवाली गाड़ी।
थाना का मोबाइल
आ कर पीटते हुए लाश बना डालता है उस निर्दोष,
                                       थोड़ा मुंहफट लड़के को।
बाजार की तेजी में चलता रहता है उत्तेजक प्रचार
                                       अनेकों किस्म के उत्थान का। …
 
कोई एक काम कर पाने का सवाल था! … एकदिन
शोषितों का एका तोड़नेवाले दलाल मुर्दाबाद! … फिर भी एकदिन
दर असल इतिहास के नियमानुसार भविष्य हमारा ही है! … फिर भी
 
एकदिन
अन्याय जुलूस निकालता है रास्ते पर।
मूढ़ता आग लगाती है तरुणाई की नसों में।
चूकें जगाती हैं सद्विवेक की ऐंठन।
झूठ झराते हैं सहानुभूति के आंसू।
अमानवीयता
अपने ‘शहीदों’ के खून से मिट्टी भिगाती है।
नृशंस भांड़ बनने की ईच्छा
बनती है एक जुझारू आंदोलन।
 
बच्चे
स्कूल से लौटते हुये बड़े होते हैं ... ।

[Before 1997]




रात के विडिओ-कोच

तुमने इस तरह की बस-यात्रायें नहीं की।
कैसे समझोगे रात के विडिओ पर धूमधड़ाके वाली फ़िल्म
                                       देखते हुये जगे रहना,
असह्य गानों के वक्त सर खिड़की से बाहर निकाल
                               धूल सना अंधेरा पोते चेहरे के साथ
सोती हुई बस्ती के कान में कहना –

क्या कहना?
इतना याद भी नहीं रहता है।
बीच बीच में याद आती है बदलते जाना
कही गई बातों का, हर साल –
साढ़े तीन दशक में
स्वप्न के अन्तरराष्ट्रीय मीठी धूप से रोजनामचे के
देह-झुलसाते मैदान में पहुंचना दोपहर को।
उसी बीच मास्को के हिमपात में टैंक के छत पर
                            येल्तसिन की शराबी उन्मत्तता, युग का पतन।
 
दर असल कहने की सीमायें
बस्तियों के नींद की लौकिक खामोशी सुनने देती हैं आज,
हाइवे के दो तरफ, सांसों की लहरों में सर डुबाता हूँ, अच्छा लगता है,
                              एक जिन्दगी के लिये चलो, इतना ही रहे!
 
रात की यात्रायें चल रही हैं,
विडिओ की जगह ली है सीडी, डीवीडी, पेनड्राइव;
फिल्में अपने बन-ठन में पहले से अधिक अजनबी हैं:
डाइवर्सन पर
जाम लगता है कभी कभी _ सामने से आतंकवादी हमले की खबरें आती हैं,
उतर कर, पेशाब करता हूँ, फिर फिल्म में लौट आता हूँ। 




ऑफिसबैग
 
चिथड़ा हो गया है ऑफिसवाले इस बैग का,
फटने लगा है भीतर भीतर,
किसी दिन निकल कर लुढ़कने लगेंगे सारे चिल्लर।
 
रगड़ रहा हूँ।
जिन्होने दिया था अपने
            सम्मेलन में, उनकी शोकसभा
कुछ ही दिन पहले हमलोगों ने की। 
 
आदमी मर गया
सिर्फ ज्यादा तेज और फुर्तीला समझकर खुद को।
क्या, न पानी लाने में
               ट्रेन खुलने लगी, भीतर पत्नी थी अकेली
 
कॉमरेड! उम्र के बारे में नहीं सोचा?  
अपनी, भावीजी की?
                    अट्ठावन, चौव्वन
वह भी, विकासशील देश की!
 
और जा रहे थे?
किसी अंजान सफर में नहीं,
पुश्तैनी घर, आरा तक, एक घंटे के साप्ताहिक सफर पर …
 
चलती ट्रेन की
भीड़ ठसे दरवाजे से लटक गये बेखयाल।
 
ऐसे फेंकाये झाड़ी में, सुनसान,
             जानवर, चिड़िया खा गया चेहरा।
मौत के दो दिनों के बाद शिनाख्त हुआ शरीर।
 
हालांकि, यह भी सच है,
युनियनबाज लोग अंत में इसी तरह
पत्नी के लिये पागल होते हैं अमूमन।




बिसमिल्ला

वही हिंद !
अभी भी लड़ रहा है।
आज भी रेडिओ पर बिसमिल्ला की शहनाई सुनने पर सुबह
                                     काम पर जाने में देर हो रही है फिर भी
आराम से चाय की दुकान की बेंच पर
                            लुंगी नीचे कर बैठ रहा है।
क्या तो कहा था खाँ साहब ने –
अमरीका जा कर रहने की बात पर?
‘पहले गंगा को ले जाओ ! बहाओ वहाँ ... ”
अरे जिओ !
केले के खिच्चे पत्ते
धूप पकड़ रही है जौनपूरी में।  
चाय में उबाल आने पर उलीच कर झस्स्स्स – भाप उड़ा रही है आंच।

‘देखें सर, बीच वाला पन्ना’ … 




अपने ग्रामोफोन के साथ रोक्को

अब तो याद भी नहीं है, शायद
सोवियतलैंड के पन्नों से ही काट कर रखते थे
तस्वीर। अचानक चौंक गये एकदिन।
अरे, यह तो मेरी ही तस्वीर है !
हाँ, चेहरा एक नहीं है, नाम भी,
रोक्को; कलाकार रेनातो गुत्तुसो।
उकड़ुं बैठ ग्रामोफोन पर गाना सुन रहा है आदमी,
1950 से लगता है, छुट्टी के दोपहरों में …
पीछे बेतरतीब शहर,
सामने टीन की छत वाले घर की अधखुली खिड़की पर कोई आयेगी,
उंगलियों के फांक में मसला हुआ सिगरेट,
लाल-काला चेक की कमीज में चढ़ा हुआ मिजाज …
कितने साल एक साथ बिताये हम दोनों उसके बाद।

फिर तो सोवियत गया, लैंड भी गया।
रोक्को और मैं रह गया।
बीच में कुछ दिनों तक मेरे प्रोफाइल पर जा कर आपलोगों को भी
जरूर मिला होगा तेल-लगे उसके पैंट की गंध।
उस दिन फेसबुक पर देखा
बमों से विध्वंस हो चुके अरब के किसी देश के शहर की सुबह।
ढूह से निकल आया है एक बूढ़ा,
ग्रामोफोन चला कर
बमबर्षक हवाई जहाज के लौटने के साथ टक्कर देकर
सुन रहा है गाना।

रोक्को है ही। मैं भी हूँ अभी। और एक हुये।

14।10।21




ईख

डंडा कम पड़ने पर
ईखवाले से एक ईख खरीद, बैनर में लगा कर
शुरु हुआ था जुलूस।
सोचा था,
खा लिया जाएगा वह ईख –
छोटी एक कविता में समेटुंगा उसका मीठा रस।
 
ईख की कविता बहुत दूर तक गई है।
हमारे रोज के जीवन में
उस दूरी तक जाने का
सपना भी मुश्किल है।

हा: हा: !
सम्मेलन के अंत में –
हमारा पहला सम्मेलन –
ईख मिला ही नहीं !
दरवान की बात से लगा,
कूड़ा बटोरनेवाले बच्चों का झुंड
हॉल के बाहर रखे डंडों के गुच्छे में उस ईख को
जरूर पहचान लिया होगा।
गेट के पास उन्हे
एक ईख को तोड़ कर बांटते हुए
देखा गया था।
 
समझ में आई बात, कि
छोटा होना, मीठा होना या मन के मुताबिक होना
बड़ी बात नहीं है।
क्यूबा हो या भारत का यह छोटा शहर,
कविता जिस तरह आगे बढ़ी और जितनी दूर तक गई,
उसी तरह उसे एक, और एक ही कविता में समेटना …
बड़ी बात है
और समस्या भी है। 




ऊन के तोते

1
माँएं बहुत बढ़िया खाना पकाती हैं।
जो बच्चे कल जन्म लेंगे उनकी
पहली रोशनी बना कर रखती हैं,
सजा कर, सँवार कर,
किराए का संकरा सा घर।
शीशे के दुमंजिले पर बजता है विदेशी गीतों का रिकॉर्ड
मिट्टी की पहली मंजिल के अन्दर
माँएं बुनती हैं ऊन के तोते।
माँएं बहुत चाहती हैं पढ़ना
लेकिन पढ़ पाती हैं अगर
नियति दे रखी हो, जिसे कहते हैं,
हिस्सा, आखरी उम्र का।
कैसी थी माओं की
पहली उम्र, यह जानने का खयाल आते आते
कई बार देर हो जाती है।

2
जरा ढूंढ़ना तो वह ऊन का तोता!”
आश्चर्य है कि लिखते लिखते ही
इस वाक्य का हर एक शब्द
एक खोये शहर में भाई, बहन, बंधु, बांधवी और
हमारी माधवी रात बन जाते हैं
केन्द्र में लगभग अदृश्य
रहती हैं एक माँ
जिनका चशमा बदलना
होगा होगा सोचते हुए भी नहीं हो रहा है
पांच मिनट समय लगता है उन्हे
टूटे हरे लाल ऊन से तोता बुन कर
एक मुट्ठी पुरानी रुई भरने में।
 
3
कईयों ने देखा था वह चिड़िया।
हमारे परिचित रिक्शावाले को
दिखाते ही उसे याद आई थी उसकी अपनी माँ
जो दो कोस दूर जाती थी पीने का पानी लाने,
लौटते समय
उठा लाती थी करमी का साग
: कितना गजब का लगता है भात के साथ!
रिकशेवाले ने हँस कर कहा
हमे नहीं लगता है।
इतना खाये हैं साल दर साल!”
 
माँ बुलाईं,
कौन बोलो तो! देखूँ पहचान पाती हूँ या नहीं!
घर कहाँ है, बोला तुमने? और लिखाई पढ़ाई
 
मेरी माँ हो,
उन्हे पहचानते थे तो कई सारे लोग,
किसी किसी की माँ के तौर पर;
इसी तरह और इतना ही
हम एक दूसरे की माँओं को
पहचानते आये हैं इतने दिनों तक।
 
4
एक माँ का ऊन का तोता
उड़ कर बैठा दूसरी माँ की
गुप्त कविताओं पर।
कागज सब खचर मचर उड़ कर
तैरने लगा एक और माँ की
मद्धिम गुनगुनाहट की धुनों में।
वे धुन फिर बांधने लगी अद्भुत घास की बुनावट
किसी और एक माँ के हाथों की।
 
तुम्हारे चेहरे पर उम्र की बढ़ती सिलवटें।
ढूंढ़ता हूँ
ऊन का तोता किसी दूसरे रूप में।

चिड़िया मिलेगी तुम्ही लोगों को, वक्त पर, जानता हूँ।
हमलोग खोते रहेंगे।




कनैली

तुम आज सुबह से हँस रही हो।
साड़ी छोड़
छोटी बहन की सलवार-कमीज पहन
फॉल्स जोड़ कर लम्बी चोटी लटकाई हो।
बेटी को नींद से जगाई,
फूल जुटाने निकली
आज बृहस्पतवार है,
पूजा वगैरह को लेकर हमारा
साप्ताहिक झगड़े का दिन।
 
मैं भी निकला, पीछे पीछे।
मैदान पार कर पता नहीं कहाँ जा रही हो आज!
टूटे, सुनसान मकान के अहाते के अंदर गुमसुम बगीचे में,
वह भी बेटी को लेकर;
मेरे न रहने पर तुम्हे हिम्मत नहीं होती!

आदमी नहीं है फिर भी पानी है नल में।
उसी से मैं अपना चेहरा धो लिया।
तुम्हारे लिये तोड़ लाए तगर, कनेर;
कहा:
कनैलों को जमीन से ही उठा लो,
पेड़ के नीचे की जमीन कभी अपवित्र नहीं होती, बुड़वक!
हरसिंगार नहीं बटोरी हो कभी?

निकल कर
बेल के पेड़ के सामने आकर तुम बोली:
कोई न देख रहा होता तो मैं खुद ही चढ़ जाती।

हाँ रे पगली, कांटों वाले पेड़ पर चढ़ेगी!
मैं और बेटी आश्चर्य से देख रहे हैं तुम्हारा
इतनी आसानी से खुद को और सभी को
अपने में लौटा पाने की ताकत।
कौन कहेगा कल बस मेरी ही गलती के कारण
कितनी तकलीफ में रात बीती थी तुम्हारी!
 
थोड़ी ही देर में,
स्कुल-कॉलेज-ऑफिस की जल्दी में
गड्डमड्ड हो जायेगा समय;
मई महीने का दिन है,
सुबह से ही तेज आग बनता जा रहा है।




अभ्यास 

हर दिन कम-से-कम एक कविता मैं भी लिखना चाहता हूं
प्रेरणा या वो जिसे भाव कहते हैं, जुटाना चाहता हूं, जाड़े की सुबह में
ताने गये तार पर से आधा-भीगे कपड़े उतार कर सूंघते हुये;
घने कुहासे में ग्रिल पर खिले हुए हैं तीन सफेद अपराजिता …
मेरे लिये इन सबों से अधिक भरोसे की जगह है गड्ढे-नाले पार कर
काम पर भागते मड़ोड़े-सिकुड़े लोग –
कल शाम को एक दुबली सी खिली तरुणी को देखा, ड्यूटी से निकल कर
                   गर्मागर्म पकौड़े-बचके खा रही है फुटपाथ पर खड़ा हो कर,
पीछे मिक्सर से पाइप में उंडेला जा रहा था गर्म, तरल, कॉंक्रीट … मशीन
                                                                              का एक मधुर गुंजन;
इसी तरह आम आदमी को बहलाती है विकास की लीला
और बढ़ती जाती है दिन के अंत में मुंह के भीतर थुक का बेबसपन …
फिर भी नहीं, यह सब कुछ नहीं मैं उस तरुणी के चेहरे के फ्रेम में ढुंढ़ता हु हर दिन
थोड़ी कविता थोड़ी गर्म तरल कॉंक्रीट।




दूसरापन

होटल की खिड़की से देख रहा हूं – एक तरुण, साइकिल पर,
पीछेवाले को पार्क की रेलिंग के पास उतार कर
अकेला हुआ, आगे बढ़ा इस तरफ –
 
परिचित है मेरा; मेरे ही पास आ रहा है लेकिन वो बात वह
होटल में, नीचे की लॉबी में पहुंचने पर सोचेगा।
                                            अभी उसके अकेलेपन पर

धूल भरे हवा का एक झोंका उड़ आया,
फैल गया उसकी आंख और चेहरे पर –
                            आंख और सांस बंद कर
कुछेक सेकेंड के लिये, फिर खोला उसने …

जैसे कि वह भी नहीं है वहां, है उसका दूसरापन,
गोया व्यथा से कराहता विश्व उसके शरीर में
                        मनुष्यरूप धारण किया है,
अभी वह सिर्फ समय है –

दोनों आंखों में स्वप्न के मसौदों को बीनते हुये
धीरे दबाव डाल रहा है पैडल पर;
                                            प्रतिश्रुत तरुणाई
इसी तरह बनते हैं हम …




असफल

अस्थाई शिक्षक की नौकरी फिसली।
टाटा-रांची रूट पर हड़ताल से नजर चुरा कर निकला फटीचर बस
चलता है तीन घंटे का रास्ता पांच-छे में:
उसे कोई मतलब नहीं, चित्त सोया है पिछले सीट पर।

चांडिल में चार डाइभर्सन –
बस उलटते उलटते बचता है …
गिरने से बचने को वह कस कर पकड़ता है अपनी नींद।

निकल जाती है पनबिजली, स्पॉंज आयरन, पहाड़ों की गूज़ती तलहटी,
पीछे होती जाती है सोडियम-भेपर की बुलाहट …
निकल जाता है सामाजिक वानिकी अभियान, साक्षरता अभियान।
जुगनुओं की धारा बुझाती हुई बारिश आती है तेज;
खिड़की बंद करने जाओ तो खुल कर गिरता है झप्प,
बस के छत में छेद, पानी गिरता है अंदर,
कुछ लोग छाता खोलते हैं अंधेरे में –
वह उठ कर बैठता है, अपनी वरीयता याद आ जाती है उसे।
 
उसकी असफलता, उसकी शून्यता की वरीयता,
उसके जिला स्कुल के प्रयोगशाला के तेलचट्टे,
उसके प्राइवेट कॉलेज के कोष का गबन …
बुन्डु से बस खुलता है बिना साइलेन्सर के इंजन की आवाज के साथ …
 
रांची में बारिश की आवाज भरी रात में
वह तय नहीं कर पाता है कि जाये कहां –
बरियातु में परिजन के घर या रेलस्टेशन 
वह आधा रास्ता बरियातु के तरफ जा कर स्टेशन की ओर लौट जाता है …
 
पूरा भाड़ा वसूल कर गाली देता है ऑटो का ड्राइवर।




आउटडोर

टिटेनस फैल जाने के कारण पन्द्रह दिन
बन्द थे सारे ओटी, कल खुले हैं।
रोगी देखे जाने वाले हॉल में लगभग
                                        चालीस गर्भवती औरतें।
दरवाजे के पास खड़े हम पांच
कुछ ज्यादा ही उद्विग्न पुरुष।
 
एक एक जन, फुटबोर्ड पर पांव रख
              उठ कर सो रही है टेबुल पर।
डाक्टर अपना दस्ताना पहने हाथ
                          साड़ी के अंदर घुसा रही हैं।
लिखवा रही हैं लक्षण, दवा।
 
असह्य गर्मी है, कीटनाशक का गन्ध
अटक रहा है सांस में।
लाइन में आगे बढ़ती हुई,
     पहुंचते ही धक्का खाई पीछे से –
       आंख घुमा कर एक बार देखी मेरे तरफ।
 
जाओ यार! मैं हूँ यहीं। रहूंगा। कहीं जाने पर भी
मानना कि मैं हूँ। जैसे और सभी मान रही हैं।
तुम न मानोगी तो किस तरह
           सोच रहा हूँ कि इस नर्क को
                           बनाउंगा अस्पताल? 




नाम पृथ्वी

पहाड़ की गोद में बादल उतरता है।
आदमी
मुढ़ी फांक, पानी पी कर डेली पसेंजरी करता है।
इस ग्रह का नाम पृथ्वी है।
धूप की एक झलक में जनम का एहसास पूरा हो जाता है।

टाट के पर्दे के पीछे औरत तुम्हारे डर को चकनाचूर करती है अपने आर्त गर्जन से।
काले बालों वाला एक छोटा सा डाकु उछालती है।
‘तुम बहुत बार इस जगह पर आये हो,
पहचान नहीं रहे हो?”, डाकू पूछता है,
“आश्चर्य है!” –
बड़े बड़े घासों पर लहरें हामी भरती हैं।
प्यार के अतल में कांपता है तुम्हारा सजल आना और जाना।
 
पहाड़ की गोद में बादल उतरता है।
ट्रेन के टूटे दरवाजे में लाल झंडा फंस जाता है।
यतन के साथ छुड़ाते हैं।

बीड़ी का राख झाड़ने की जगह नहीं मिलती है।
अगले स्टेशन पर गर्दन पर धक्का दे कर उतार देता है जीआरपी।
ग्रह का नाम पृथ्वी है।
यहां पर हम
                शांति,
                स्वतंत्रता और क्रांति के लिये संघर्ष करते हैं। 




यही तो

यही तो है जमीन जिस पर मैं खड़ा हूं!
पृथ्वी कहो या देश
जन्म का शहर
या निकलने से पहले तुम्हे देखने का पल;
तोड़ कौन डालेगा?

वही तो है बादल जिसकी छाया मेरे चेहरे पर!
जीवन कहो या दुख
आलोड़ित गीत
या लौट आने का सामुद्रिक क्षितिज;
सोख कौन लेगा?

रात में सोते बच्चे की आँखों की पंखुड़ियाँ काँपती हैं –
स्वप्न देखता है वह।
उसकी उम्र दो दिन, उसके स्वप्न की उम्र एक दिन
उसके रोने का दो दिन
                             उसकी हँसी का एक दिन,
उस एक दिन का दिनमान
हमें होना होगा।




रात में भात की दुकान

हाथ धो कर बैठता हूँ रास्ते पर रखे बेंच पर,
दो पैर दोनों तरफ तान कर फैलाते हुए।
भूख बढ़ती है, सोनामुखी आँच घेर कर
ग्राहकों की बेफिक्र जल्दी –
भात की डेकची से धुँआ निकलता-भात,
                दाल, सब्जी, भुजिया एक नाप
सब के लिये आता है, मेरे लिये भी इसी दरम्यान
                                    छक कर खाता हूँ
दुकानवाले की छोटी बेटी उनींदी आँखों में,
पानी का गिलास रख जाती है,
फतिंगे भगाता हूँ, तीखी भुजिया कुछ अन्त में
खाने के लिये रख देता हूँ
हरी मिर्च रगड़ कर मांगता हूँ थोड़ा प्याज।
 
भोजन समाप्त होने पर बैठ कर
डूब कर सुनता हूँ, पुरानी या नई बस्ती के
दिन गुजारने की आवाज, बिना मिलावट –
गुंजन व मौन जिसका तान उठता है सुनसान रास्ते पर
रोशनी के कीड़ों को घेरते हुये,
                           बह जाता है,
नीम के डालों पर लगती है हवा – कुछ बोलती है क्या?
सिगरेट सुलगा कर देखता हूँ दुकानवाले की बड़ी बेटी
बैठ कर तैयार कर रही है इम्तहान की पढ़ाई,
उसकी माँ रोटी बना रही है, कामवाला लड़का
                   बैठ कर धो रहा है जूठे बर्तनों का ढेर …
                                    कहीं सोऊंगा उसके पहले
अच्छा लगता है निर्जन रास्ते के किनारे
पैर फैला कर बेंच पर बैठना
 
किसी दिन भात न खा कर अगर रोटी खाऊँ
तो तलब होती है चाय की।
“अभी नहीं होगा …” सुनकर दुकानवाले से
मिन्नत करता हूँ कि अगर दया हो,
और हो भी जाता है अगर पुराने ग्राहक हैं आप,
और अगर दोस्त भी रहें,
आवाज लगायें, “जय हो प्रभूजी की!”
 
मद्धिम उज्ज्वल मेघ, अपने मस्तूल पर नक्षत्रों को लपेटे,
नीम की डाल पर उतरता है
बेंच पर बैठ कर, बिना किसी दीक्षा के अपने
अधूरे सफर का आनन्द उठाते हैं हम।





सिक्का

दर असल वही जगहें हमेशा
सबसे अच्छी लगती हैं मुझे
जहां दूसरे रूट का बस उतार कर चला जाता है,
खलासी दिशाहीन दिखाता है,
‘उधर से जाइए! मिल जाएगी सवारी!”
 
दूर तक मैदान भर मवेशी
गाजरघास के फैलाव से बच कर भोजन ढूंढ़ रहे हैं,
दो रास्ते दो तरफ चले गये हैं –
किधर जाऊं? – तभी बारिश
जोरदार उतरती है बड़ी बड़ी बूंदों में

इतनी सारी झाड़ियां, खर-पतवार,
घास की फैली है हरियाली लेकिन
एक बड़ा पेड़ नहीं है कि दौड़ कर
उसके पत्तों की छांह में खड़ा होऊं!
किधर जाऊं?

पॉकेट से सिक्का निकाल कर
उंगली नचा कर उछालता हूं हवा में –
हेड हो तो यह रास्ता टेल हो तो वो …
धत्तेरे की, वह सिक्का भी
लुढ़कते हुये जा कर खड़ा रुकता है
 
भीगे घास के भीतर –
कहां से आ रहा था कहां
जाना था भूल जाता हूं,
सिक्का चमकता है
इन्द्रधनुष जगाती बारिशवाली धूप में!  




जाऊंगा कहां?

कितनी बूढ़ी हो गई हो तुम
कल दिखा, निमंत्रण वाले घर में
आर्क की रोशनी में।
आंखें गड्ढे में धंसी और
छोटा दिख रही थी ठुड्ढी।
 
यह भी सही है कि कल भी
तुम ड्युटी के बाद घर होकर आई थी और
मैं ड्युटी के बाद
संगठन कार्यालय हो कर, इसलिये
कंधे के झोले में भरा था प्रुफ, कागज, चिट्ठी, सर्कुलर …
पानी का बोतल भी, जॉंडिस के बाद से।
 
लेकिन ये बुढ़ाना तुम्हारा,
चलेगा नहीं, कहे देता हूँ।
छोटी छोटी बातों को लेकर बकझक करुंगा रोज!
क्या हुआ है क्या?
सिर्फ इतना ही नहीं कि तुम्हारा गुलाबी अड़हुल
खिलता है अभी भी और
हाथ बढ़ा कर उंगली के छोर
फूल लाते हैं कैकटस में!

छोटी छोटी बातों को लेकर बकझक 
पलट कर अगर मुझे भी सुनने को न मिले
तो जाऊंगा कहाँ?
सबग्रिड के छत से उड़ जायेंगे सारे कबूतर।




बांग्ला

उसके हाथ में थी एक पोटली,
कलम की मिट्टी की तरह भारी।
पहनावे, शिशु की भूख की तरह अबोध।
वदन,
मां और दीदी की तरह,
दीदी और माँ की तरह उसके संतान के पिता के लिये भी।
वह बेतरतीब कुछ बक रही थी अपने आप
अपने दुर्भाग्य के बारे में जिन्हे अनेकों बार हमने
                                  उपन्यासों में पढ़ा, इसलिये
उन उपन्यासों का महान यथार्थवाद हमें अभिभूत कर रहा था।
उस अंधेरे प्लैटफार्म में
अपनी मातृभाषा में बात करना खतरनाक था हमारे लिये और चूंकि
स्थानीय भाषा हम नहीं जानते थे इसलिये
भारत की राजभाषा में बात कर रहे थे।
कई सारी रेल की पटरियों को पार कर वह हमारे पास आई थी।
वह जानना चाह रही थी उसके हाथ में जो टिकट था वह सही था कि नहीं,
उसकी ट्रेन कब आयेगी।
                              थोड़ी देर बाद
अपने ट्रेन पर चढ़ कर, पुल पार करने के तेज शोर में
अचानक हमें एहसास हुआ कि इस बीच उसका गंतव्य हम भूल चुके हैं।




तमिल में जुही

तमिल में ठीक किस तरह
बोलो तो, खिलता है जुही?
भाषा की उम्र ठीक किस तरह
आधी रात को
निकल आती है सड़क पर?

बेचैन घुस जाती है स्टेशन-चौक में
या ढूंढती है चाय की खुली दुकान,
पेड़ के नीचे?
किस तरह बचती है पुलिस से,
नीतिशास्त्र से भी, सिर्फ
कुहासे के पांखों में छुपी
नदी के बारे में सोचते हुये?
 
दवात-स्याही के धब्बे बनाकर
मैं भी खूब बनाता था
रात की खिड़की के सींखच, पत्तों की झाड़ी,
फूलोँ का आभास, चेहरा!
खिड़की के सींखचों में चेहरा – शरद की उड़ान …
किस तरह जूही खिलाती है तमिल?
 
सुगंध के घने पुंज – संगम की वीरांगना कवयित्रियां!
मातृगर्भ में बाघ की आंखें – लोकश्रुतियाँ अशेष!
…………………
 
जुलू भाषा में नीरवता कौन सी दोपहर में चुगती है
चुग कर फाड़ती है वसंत का
धोखा, बांझ शब्दों का जाल?
 
चिट्ठी के भीतर धूप
     एक धरती भर भाषाओं की:
मृत्यु खाद बनती है मिट्टी का –
      कोई कहीं खिलाता है जूही।




जगह

बैठ जा!
सोच, कब से
रक्खा हुआ हूँ जगह!
धक्का पर धक्का आया है समय का
चेहरे पर टॉर्च मार कर,
हक जता कर,
घूंसा तान कर, दोस्ती जगा कर …
 
बहाव के बाद बहाव, बाढ़ का –
डूब गये हैं घाट पर के शिवजी, हनुमानजी,
फिर से नये दियर में जगे हैं मौरुसी पट्टे के साथ,
बालू के परतों में हवा उठती है, आंख लहरता है!

रब्बर के भेंपु कई दोपहर लेकर रह गये,
घर से खोमचा सजा कर मोड़ घूमते ही
जादूगर बन जाने वाले लोग
रह गये उस दोपहर में!
बांस में लिपटा
चीनी के लट्ठे के लिये मुंह का पनियाना …
क्या सब कुछ
कर लिया जा सकता है समयोपयोगी?
सहजन भी नहीं इल्ली भी नहीं!
 
बैठ जा!
शुक्र है कि लेट किया ट्रेन।
शुक्र है कि वह सब कुछ हुआ
जो कभी सोचा नहीं था कि होगा।
शुक्र है कि वह सब कुछ भी उस तरह नहीं हुआ
जिस तरह, सोचा था कि होगा।




आराम करती हुई औरत

जिस घर में वह काम करती है भर दिन
उस घर से वह अब निकल आई है।
रोशनी और अंधेरे में स्पष्ट हो रही है देर-शाम।
रेललाइन पार कर
और आधा मील जाने पर है उसका अपना बसेरा।
क्या वहां वह जायेगी अभी?
वहाँ अभी पहुँचने पर पतोहू
देह-हाथ में दर्द है कह कर उसे ही
फिर से घुसायेगी रसोई में।
हालाँकि बहुत देर करने को भी
             चाह नहीं रहा है मन क्योंकि
अपने देर-दोपहर के भोजन से दो मछली
वह छुपा कर रखी है पोते के लिये, साड़ी के खूंट में।

थोड़ा निर्जन देख कर वह बैठी नाला पर बने फुटपाथ पर।  
बैठते ही हवा ने उसे अपना लिया।
अपना लिया रोशनी और छाँह की रफ्तार ने।
अपना लिया उसे उसके रक्त के थकान की नींद।
आ;, छोड़ छोड़ – जैसे नींद नहीं दो गर्म हाथ हो बच्चे का,
छुड़ा कर, आंख खोल कर वह देखी। उठेगी?
न, थोड़ी देर और। सोच कर वह बैठी रही स्थिर।

कुछ कुछ दूर पर और कुछेक औरतें
इसी तरह बैठी थीं हवा और रोशनी-छाँह की
रफ्तार का अपना बन कर, रक्त के थकान की नींद का
अपना बन कर; उसने ध्यान नहीं दिया था।



पहला एजेंडा

पत्थर को बस थोड़ा सा हटा पाएं हैं हम।
     अभी और बहुत
          हटाना होगा; सब लोग
समझ तो रहे हैं न,
कि यह
पत्थर का वजन है?

वेरिनिया को फिर से
            गुलामी में जाना होगा, नहीं तो
कैसे लौटेगा स्पार्टकस?
 
कवि ने कहा था,
‘ये दाग दाग उजाला, यह शब-गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं”
फिर भी
        जी रहे हैं।
 
जगह ढूढ़ कर निकालनी होगी
                      भुकम्प में भी।
दो बात कहने की,
फैसले लेने की,
             जरूरत पड़ने पर
एक दूसरे से पीठ सटाये
                        खड़े हो कर।
 
झंडे को फहरने देना होगा –
अगर आसमान छीन लें वे तो –
पंजर की ओट में।
 
पहला एजेंडा:
संगठन।




सुकान्त को

मायाकोवस्की,
               वाप्सारोव,
                          तुम।
बोल्शेविक कलाई,
                 दीवार पर फावड़ा,
कविता में संगठन।
 
तुम्हारा वह महानगर –
                                कलकत्ता
जिसके एक आदमी का हाथ
                            कवि नाजिम ने
नक्षत्रों को हटा कर छूना चाहा था,
जिसके सड़क पर की लड़ाई में
                      दंतकथा बन चुके किशोर ने
पढ़ाई के लिये किरासन मांगते हुये
                                  सीना तान कर
तुच्छ साबित किया था सर्जेंट के रिवाल्वर को
और
जिसकी छिपी हुई पत्तियाँ आज भी
            वर्गीय घृणा के कारण ताजी हैं,
 
जाने में पड़ता है जसीडी।
                          अभी सावन में
ट्रेन, प्लैटफॉर्म, बसों पर
                ठसाठस भरी है ईश्वरों की भीड़ से।
भीड़ बढ़ती है हर साल,
                                दोनो गोलार्द्धों में
मनुष्य की लांछना के सारे पवित्र पीठों में
और ईश्वरों को सताता है उनकी
                         मौत का डर।
……………….……….………
सीतारामपुर में
पटरियों के जुड़ने-अलग होने की खटरमटर आवाज में
                                     कमरे में उठ आता है वह युवा।
इधर धनबाद, चन्द्रपुरा, बोकारो, उधर
टाटा, राउरकेल्ला, सामने दुर्गापुर …
और बड़े आंदोलनों का
          काम जारी रखते हुये भी सोचना पड़ता है
बंद कलकारखानों की समस्या
                               दाढ़ी नहीं है दस-बीस दिनों की:
 
टिकट के कोने से वह
                गर्दन की घमौरियों को खुजलाता है।
                             एक सिगरेट की फुर्सत के बाद
शुरू करता है पर्चा बांटना।
……………………………………
उन्नीस सौ नब्बे – चौरानवे।
हम लोग प्रहसनों में ट्रैजेडी जीना सीख रहे हैं।
फिर भी कहा जा सकता है चार वर्षों में
    दुनिया की विश्वसनीयता
                           बढ़ी ही है, घटी नहीं है।
……………………………………
चौंसठ में तुम किधर जाते सुकांत?
और सड़सठ में?  
……………………………………
मैं पटना का आदमी हूँ।
फिर भी तो इधर आज कल
कई बहाने मिल जाते हैं
               हुगली के दोपहर में बैठने के,
कुछेक बहसों के –
       सरकार में वाममोर्चा के रहने के
                  फायदे
               कहां कितना लेने और नहीं लेने पर,
और अच्छा लगता है जब
दिल्ली में
लालकिले के पीछे हम अपने
                           यानि बिहार के
कैम्प में प्रवेश करते हैं,
बैग से डायरी निकाल
बंगाल के कैम्प में जाने पर खबर मिलती है,
तुम कहीं निकले हुये हो।
 
अगला दिन
कंधे पर झंडा उठाना;
भारत का वर्तमान
                 तुम्हारा अनंतकाल।





रिपोर्ट

कल इस शहर में एक दुस्साहसिक हत्याकांड संघटित हुआ है।
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल इस शहर में पुलिस का एक दानवी जुल्म
                                तीन घंटा तक चला है;
 
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल इस प्रांत के मुख्यमंत्री को अदालत ने सम्मन किया है;
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल नदी के तट पर एक लड़की मृत पाई गई है;
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
 
दोष हमारा नहीं हो सकता है –
दो कानों को जोड़ने वाला सर है गर्दन पर,
दोष रिपोर्ट का भी नहीं हो सकता है –
जो घटित हो रहा है, लिखा जा रहा है।
 
दोष घटनाओं का है –
जब भी घटित हो रही है
दो तरह से घटित हो रही है।
 
 
 
 
 
मृत्युचिह्न

राम, कृष्ण, ध्रुव और मेरा बचपन एक साथ बीता है।

ध्रुव मुझे ले जाता था गहन महाकाश में,
वहाँ कृष्ण भी रहता था, नीला, चंचल।
राम थोड़ा बड़ा था, गंभीर,
        ज्यादा बात नहीं करता था कभी।
 
तीनों अपने मृत्युचिह्न ढोये फिरते थे जन्म से ही।
राम ने दिखाया था सरयू की धारा में काँपता
                       अंतिम तारा का कास-फूल,
कृष्ण, उसका हल्का लाल तलवा,
ध्रुव, यमराज के साथ उसकी मित्रता।
 
मेरे न बोलने पर भी वे जानते थे कि
मेरा मृत्युचिह्न है जीवन,
इसलिये देखने की चाह नहीं जताये कभी।
बस, गहरी दोस्ती चाहते थे।
 
 
 
 
 
चकमक पत्थर

उसने देखा महाकाश में अपने कक्ष पथ पर
बहती जा रही है
यह पृथ्वी – अरे अरे, उसे छोड़ कर ही आगे चली गई तो!
 
जाय। पर लेती तो जाय उसके चकमक पत्थर का जोड़ा!
ठीक इतना ही आग कभी कम न पड़ जाए किसी दिनो!
 
बह जाती हुई पृथ्वी से उसके संततियों ने
टीवी पर से नजर हटा कर पूछा, “पिताजी, कुछ चाहिये?”
 
:, कुछ नहीं चाहिये उसे,
चकमक पत्थर को भी उसने पानी में फेंक दिया।
 
पानी में आग
फैलते फैलते
               जिस पल जन्म लेगी नग्न मातृका उसी पल
छलांग लगाया उसने –
 
आधा पानी में रहा
आधा आग रहा।
 
 
 
 
 टेढ़ा पूल

1
आज पाँच हत्यायें हुई हैं शहर में।
भीतर में तीन, दो बाहर।
मॉर्ग में आया हूँ तो जान रहा हूँ।
एक के लिये हमलोग, बाकी चार के लिये दूसरे –
आज लावारिस कोई नहीं है।
 
कुछ लोग रो रहे हैं।
उन्हे सम्हालने की भारी जिम्मेदारी
                           और कुछ लोगों को दिया गया है।
कुछेक जमादार को रख रहा है बातों में मशगूल
ताकि डाक्टर के आने पर, लाश
                              पहले मिल जाये। 
हमारेवाले के लिये पैसा दिया हुआ है,
चिंता की जरूरत नहीं।
असली तो है डाक्टर का रिपोर्ट,
                  उसी पर खड़ा होगा केस। 
 
मॉर्ग के चारो ओर पोखर भरा हेलिओट्रोप, असंख्य,
                         आसमान सोख रहे हैं, हवा में डोल रहे हैं।
हत्यारों के जासूस भी हमारे बीच हैं लेकिन वह बाद की बात है।
पहले लाश का दाहसंस्कार जरूरी है।
 
2
“यहीं पर ऑटो से खींच, उतार कर उसकी हत्या की थी।
अपराधियों ने, नहीं, पोलिटिकल कुछ नहीं है,
                                                 लेकिन हमारा कॉमरेड
उलझता जा रहा है लगातार
                               मरे भाई की समस्याओं में
 अदालत, पुलिस और
                  हत्या की धमकियों का मुकाबला करते करते।
नये किसी काम में हमलोग
                      पा नहीं रहे हैं उनको …”
 
आम का बगीचा और नदी के किनारे खड़े
                                               ईंटे के भट्टों को
दो तरफ रखते हुये हाइवे यहाँ
पतला होकर गाँव के रास्ते की तरह मुड़ गया है –
शेरशाह के जमाने का छोटा पुलिया पकड़ने के लिये।
पूरे इलाके का ही नाम है अभी
टेढ़ा पुल!
सुर्यास्त से गर्म बिस्कुट का गंध तैर आया – नया लगा है कारखाना। 
  

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