गर्मी की एक
दोपहर में मैने उन्हे देखा।
धूल और कचरे से
भरे रास्ते के एक तरफ से वह
घर लौट रहे थे;
कांख में कुछेक विदेशी पत्रिकाएं
और हाथ में नया
उगा एक जामुन का पौधा
जिसका पत्तों
से भरा सिरा उनके
सर से थोड़ा उपर उठ
कर डोल रहा था।
मैंने देखा
उनके हाथ पर उस बच्चे को –
अतीत की किसी
मिट्टी में जिसकी जड़ें
वह कभी फैला
नहीं पायेंगे।
उसे देनी होगी
आज की ही धरती।
फलों के काले
गुच्छे जिस दिन
किसी दूसरे जेठ की हवा में
नाचेंगे,
उस दिन हो सकता
है वह रहें या
न रहें।
1
ध्वंस का नमक और क्षय के रसायन के साथ उनकी हथेली
बात करती है।
अपने भीतर
उन्होने पक्षियों को तैयार किया है
जो कभी कभी समय के विलुप्त लहरों की तरफ उड़ जाती हैं।
डूब लगाती हैं
महसूस करती हैं पानी का स्तर
मात्रा
क्षीण अन्तर्धारा
दिशा
तूफान की सम्भावना।
समाज के किसी एक मुहूर्त का रक्तचाप।
एक मुहूर्त।
स्थिर! पृथ्वी, आकाश, सूर्य और बादलों की छाया
स्थिर! चारों तरफ जनपद के बाद जनपद!
स्थिर! असंख्य लोग,
हरेक अपने काम की तात्क्षणिक
भंगिमा में
स्थिर! शासक का उठा हाथ
स्थिर! जीना चाहते हुए बंदी का चीखता हुआ चेहरा
स्थिर! पहाड़ की गोद में अकेली माँ
अपने
संतान को बुलाने में
स्थिर! वाद्ययंत्र पर तीन उंगलियाँ
स्थिर!
सारा कुछ स्थिर!
प्रवाह के एक अनुप्रस्थ फलक पर
यंत्रणा, स्वप्न, कंठस्वर –
जीवन के उस एक मुहूर्त की स्थिर विशेष निश्चितता! …
पक्षियाँ उस विलुप्त मुहूर्त की
स्थिर, स्तब्धता के भीतर
शोर करते हुए फैल
जाती हैं।
असंख्य, असम्बद्ध घटनाओं के बीच
अनुक्रम और कारण के गुप्त सुत्रों के तिनके और
गहरे जड़ों
को ढूंढ़ ढूंढ़ कर चुगते हुए
उठ आती हैं फिर
लहरों के उपर!
डैनों का कार्बन और समय का पानी झाड़ कर
कई युग पल भर में पार कर वे
घुस जाती हैं
उनके सीने में।
पक्षी अदृश्य हैं
फिर भी वे लौट आई हैं यह
जाना जा सकता है
ग्रंथागार के एक कोने में अचानक
उज्ज्वल हो उठे उनकी दो आंखों में झांक कर। …
तब कागज पर वाक्य निकल आते हैं
धुएं के भीतर से तर्क के तेज-धार ग्रैनाइट की तरह।
कभी विलुप्त हो चुके धूल और शोर से
भर जाता है,
खेल के अंत पर गोधूलि की गैलरी की तरह उनका टेबुल
कलम और चश्मे का, रंग उजड़ा हुआ खोल। …
एक दिन छापाखाने का यंत्र घरघराने लगता है।
और एक नम सुबह में, शहर के
किताब की दुकानों के शीशे के अंदर पहुँच कर
सड़क की ओर नजर डालता है
राह चलते, व्यस्त हमलोगों की
खोई हुई उम्र
अंजानी हो चुकी पहचान। …
2
और वे पक्षी।
उनके प्राणवीज इस उपमहाद्वीप के तट पर
व्यापारी के जहाज के साथ मुद्रा के नियम की तरह आये थे।
सार्वभौम समतुल्य बन कर दुनिया में
खुद को कायम किया था अंग्रेजों का राज –
वह सोना है, मुद्रा बनने का हक है उसका!
तो गेहूं कहां खड़ा है? कपड़ा? खनिज?
बर्तानवी साम्राज्य के परिक्रमापथ
पर आई सभी जनता ने
अपना सापेक्ष मूल्य ढूढ़ना शुरू
किया था।
नये बने शहरों के गलियों मैदानों
में
नये बने कॉलेजों के सींढियों
ग्रंथागारों में –
साम्राज्य के प्रहरियों के आंखों
के सामने से
गैलिलिओ का दूरबीन बन कर,
क्रॉमवेल, रोबेस्पियेरे या
गैरिबॉल्डी का नाम बन कर,
शेली की कविता बन कर,
घुस पड़ा था वह तलाश, सापेक्ष मूल्य
का,
राष्ट्र के तौर पर चिह्नित होने के
लिये जरुरी
ऐतिहासिक श्रम क,
अपने मूल्य को खुद में पाने का,
और उन पक्षियों
का प्राणवीज
स्पन्दित हो उठा था।
शहर के संकटग्रस्त शाम में खड़ा
ताम्बई धूप-जले चेहरे वाले युवा ने
सोचना शुरू किया था –
‘क्यों इतना अपमान? हर दिन?
कौन हैं हम? कहाँ से आये?
उन्हे पूछने पर गिनाते हैं, ग्रीस,
रोम,
मध्ययुग, नवजागरण?
भयानक रक्तपात, अंधेरा, फिर भी बार
बार आन्दोलित मनुष्य।
क्या कहूंगा अगर मुझे सवाल किया
जाय?
स्मरण में बदस्तुर एक समूचा आदमी
नहीं?
सब बस देवताओं का क्रियाकलाप?
कौन हैं हम?
क्यों हम गुलाम हुये?
क्या कभी आजाद भी थे?
क्यों बर्तानवी साम्राज्य का हाथ
तोप के गोले से तोड़ा
नहीं जा सका?
सब बस देवताओं का हाथ है?
या यह सामाजिक जड़ता का एक भयावह
अंधकार था
जो हमें अपने ही जीवन के प्रति
विश्वासघातक बना दिया था?
और आत्मघात के पांक में डूबे इस
भुखंड में
फिर एक चंगेज खां का आना जरूरी
हो गया था?
जरूरी हो गया था
तलवार और घोड़े के खुरों के दाग से
नहीं
स्थाई बन्दोबस्त, कपड़े का मिल और
रेल की पटरियों से
भारत को भारत के तौर पर बांधना?
मुक्ति में जड़ था तो बन्धन गतिशील
होना
वैभव में अस्वस्थ्य था तो
दुर्भिक्ष में स्वस्थ होना
तय हो गया था?’ ……
इन्ही सवालों से प्राण आया था उन
पक्षियों में।
डैने फड़फड़ाये थे। और फिर
साम्राज्य का जहाज बिना नाविक चल
नहीं पाता है।
और जिस तरह नाविक की स्मृतियाँ
अनिवार्य तौर पर
साम्राज्य-विरोधी थीं –
स्मृति जिसमें उन दिनों
चेरी के टुकड़ोंवाला सुनहला केक था
जो क्रिसमस की रात को वह
खरीद नहीं पाया;
क्रिसमस की रात को उसके बच्चे की
दुखी नीली आंखें थी और
जूतों के अन्दर पिघलेए बर्फ का
गंदला पानी था
था शहर के भीड़भरे इलाकों में
धुसर, धंसे हुये गाल,
पुल पर भिखारी,
था दीवार के बाहर झर जाती हुई शाम
को
दो आंखों में पाने का
संग्राम …
उसी तरह यहां भी
तुरंत बने कारखानों के अगल बगल
अगर खड़ा हो रहा था नया मैंचेस्टर
नया लिवरपुल,
अगर बनने लगे थे नये ‘आइरिश
क्वार्टर’
क्या बहुत दूर था लियॉन्स और
साइलेशिया?
क्या बहुत दूर था अट्ठारह सौ
अड़तालीस? …
यहाँ भी उन दिनों
चला आया था जेनिवा का आह्वान –
शाम को पाने के लिये
हड़ताल। …
इसलिये अनिवार्य हो चला था
तलाश,
उन दीर्घ अनुक्रमों की, सुत्रों
की, हड्डियों की उम्र की,
माँ की लोरियों में व्यथा और
विद्रोह के विद्युतप्रवाह की
जिन से देश, देश हो उठता है। …
अतीत सिर्फ आविष्कृत नहीं होता है,
जन्म लेता है;
जन्म लिया भारत की आत्मचेतना में।
महान इतिहासविद आये।
देवताओं का मुखौटा हटा कर वे
सामने लाये आदमियों का चेहरा।
गड़रिये, शिकारी, यायावर और किसानों
के चेहरे।
देववाणियों के शब्दों में लगे जंग
नाप कर उन्होने उजागर किया
आदमी की भाषा।
गड़रिये, शिकारी, यायावर और किसानों
की भाषा।
और हमारे यह बूढ़े इतिहासविद भी
उन्ही के वंशज के तौर पर आ कर आगे
बढ़े।
3
उनका शरीर एक एक कर उनके
सालों को अतीत किया है।
वह सौ सौ के हिसाब से
लौटा कर लाये हैं अतीत के साल।
पटना के रास्तों पर सावन ने उन्हे
बारिश से भिगोया है।
छप छप कीचड़ भरे रास्ते पर खड़े हो
कर
सुदूर प्रश्न की ओर देखते हुये
उन्होने कहा है –
“कुछ नहीं है वह! बस, सूर्य के कक्षपथ
की धूल,
ॠतुओं का ऑक्साइड और हजारों साल के
बर्बर भाववाद का मोह-जाल!
उस बारिश के उस पार
हालांकि दिखता नहीं फिर भी है
हमारे रक्त में लीन दृश्यसमुह।
क्या कहा तुमने?
सम्राटों के किस्से?
नहीं।
पहले मैं शुल्क-अदायगी का फर्मान देखना
चाहता हूँ।
राजदरबार में एक आम आदमी का प्रवेश।
नहीं, राजा के दान की कहानी नहीं,
वह कहाँ से आया है, क्यों आया है,
क्या करता है यह
जानना चाहता हूं।
देवता का वरदान जिसे मिला था – उसने
मांगा क्यूं था?
किस तरह बनी लोकोक्तियाँ और
दन्तकथायें?
और श्लोकों, मंत्रों के भीतर
जीवन की
छवियों के वे टुकड़े?
मैं सामान्य शब्द चाहता हूँ।
धान, मुद्रा,
जमीन की मिल्कियत, उनके मिल्कियत
बदलने के तरीके,
कर्ज, लगान का प्रतिशत,
डकैत, पाइक,
बैल, हल,
तांत, सौदागर, लोहा, नमक, नाव, मछली!
...
याज्ञवल्क और मनुसंहिता में यह किस
बात की लड़ाई है?
उत्पादन के दो व्यवस्थाओं की?
प्राचीन राजनीतिक साहित्य में
राज्य की कार्यप्रणाली पर इतने प्रखर
चिंतन मौजूद हैं
राज्य के सारतत्व और रूप को लेकर कोई
चिंतन क्यों नहीं?”
...............
यह सब कहते हुये उनका जराजीर्ण
शरीर
लगभग घुटनों तक पाजामा और बेटे का
पुराना कुर्ता
पहन कर
और बूढ़े कर्मोरैंट के डैने का
रंगवाली तार-तार छतरी को
माथे पर
फैला कर
आगे बढ़ता गया है
एक ही साथ आज के ट्राफिक की भीड़
में और
समय के
ट्राफिक के अन्दर।
आदमी जिस रास्ते से आगे बढ़ा है
क्रमश:
किसी के स्मरण की तरह वह भी
उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते
पीछे जाने के
समय।
दस जुलाई उन्नीस सौ अठत्तर से सीधा
गुप्त सम्राटों के घर में घुस कर
दस्तावेजों के पन्ने पलटते हैं।
या किसी एक बौद्धश्रमण के साथ
बैठ जाते हैं
नालन्दा के चबुतरे पर।
बिहार-बंगाल के मार्ग पर घोड़ा दौड़ा
कर
शहंशाह का आदेश नवाब के पास ले आने
वाले आदमी के
साथ साथ
अदृश्य घोड़े पर बैठ कर जाने में
उनके कमर में दर्द नहीं होता है
जरा सा भी।
उसी लमहे में वह लौट आ सकते हैं,
या आना भी नहीं पड़ता है –
अतीत के दृश्य-दृश्यांतर के दरार
से उनकी आंखों के सामने
स्पष्ट होता है आज के एक युवा
शिक्षक का चेहरा,
उनके विभाग के;
वह उसके नमस्कार का प्रत्युत्तर
देते हैं – अदृश्य घोड़े पर सवार –
किस
जनपद, किस शताब्दी से?
4
आज!
मैं यह कविता लिख रहा हूँ! आज!
दिन प्रति दिन कितना फैलता जा रहा
है यह आज!
जितना गहन, जितना प्रसारित हो रहा
है चेतना
उतना ही व्याप्त होता जा रहा है।
मनुष्य का सारा जन्म, मृत्यु और नवजन्म
आज ही तो हुआ।
आज ही तो सुबह
एजटेक, सुमेर या हड़प्पा की धूप की तरफ पीठ कर
मैं नाव का पानी
निकाल रहा था।
आज ही तो सुबह
नालन्दा के ग्रंथागार से निकल कर
जाड़े
की हवा में
अपने उत्तरीय
को बदन पर अच्छे से ओढ़ लिया था।
यही, थोड़ी ही
देर पहले मैं
मेक्सिको शहर
के एक मकान के पिछले दरवाजे से निकल कर
कपड़ा धोनेवाला
साबुन का गंध और
बच्चों का शोर
पीछे छोड़
यहाँ पटना में
इस घास पर बैठ कर लिख रहा हूँ।
थोड़ी दूर पर रखी
मेरी साइकिल की छाया पड़ रही है
जोहानेसबर्ग में
रेल की पटरी के किनारे
शैंटी
की दीवार पर।
कोई पुकारा
मेरा नाम – कहाँ से पुकारा? ......
इतिहासविद!
यह आपका कर्ज है मुझ पर!
इसीलिये इस अठत्तर की जुलाई की
दोपहर में
मैं
गा रहा हूँ आपको।
आप और उन सभी को मैं गाना चाहता हूँ
जो रक्त के निर्माण में हजारों वर्ष
के
बीज और वेदना का पहचान
करा देते हैं! ...
5
फिर भी आज!
कितना संकटपूर्ण है यह आज!
अभी तो दोपहर में
इतिहासविद की उम्र का ही उस बूढ़े आदमी
ने
किताबों की बाइंडिंग की दुकान से
निकल कर
रास्ते के किनारे खड़ा होकर एक बीड़ी
सुलगाया है …
वह पढ़ना नहीं जानते,
लेकिन मजदूरी के तौर पर
दो वक्त का भोजन, पहनने का कपड़ा और
छोटा सा एक कमरे के किराये के
बदले
किताबों और थिसिसों का
सुन्दर, टिकाऊ जिल्द तैयार करते
रहे आजीवन …
उनके बगल में एक बच्चा खड़ा है
वह भी पढ़ाई शुरू नहीं कर पाया
लेकिन किताबों का सुन्दर बाइंडिंग
करना शुरू कर दिया है …
और वह जो आदमी
इतिहासविद को नमस्कार कर
चला गया,
प्रेस में काम करता है
इतिहासविद के काम का पृष्ठ दर पृष्ठ
जतन के साथ उसने छापा है
लेकिन कभी पढ़ नहीं पाया …
इतिहासविद!
क्या आप सोच रहे हैं,
क्या अर्थ है
इतिहास के रास्ते विकसित हुये एक शब्द
का,
अगर आज जो उस शब्द के रक्त को अपने
शरीर में धारण करता हो,
वह न जाने
उस शब्द का इतिहास?
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