Tuesday, August 27, 2024

অভিশপ্ত

কত গুরুভার দুষ্কৃত্য আর
                  মৃত্যু বইতে
অভিশপ্ত হয়ে চলেছি আমরা!
 
তোমাদেরকে তো এই
অভিশাপেরও
      ভাগ দেবো না, শয়তান
                শাসকের পাল!
 
দূরতম অপরিচয়েও
          হওয়া একেকটি
বর্বর দুষ্কৃত্য আর
নৃশংস হত্যা যোগ হবে
প্রিয়জন-শোকে,
বাকরোধে আমাদের!
 
আমাদের নিস্তব্ধ
ভারাক্রান্ত রাতগুলোর
             নিগূঢ় যাপনে
কোনো দিন প্রবেশ পাবে না
তোমাদের কোনো প্রহরী।
 
নিদ্রা ও অনিদ্রার
মধ্যবর্তী সে চরাচর
        তোমাদের বোধের
বাইরে থেকে যাবে।
 
শেষরাতে সে যাপনে
নিশ্চুপে এসে বসবে
আহত, রক্তাক্ত পৃথিবী আর
            আর্ত ঈশ্বর!
সেখানেই কিছুক্ষণ তারা
উপশমে বসে প্রতিদিন।

২৫.৮.২৪ 

ক্ষয়

বোধগুলো হারিয়ে ফেলছে প্রাঞ্জলতা!
মুখের ভাষা, দেহের ভাষা জানছেও না,
রাত্রে তারা ঘেঁটেছে কোন ঘৃণ্য ক্লেদ!
 
কী বলবো? ভালোবাসি?
হব না তো আত্মশ্লাঘা ধর্ষকের?
কী বলবো? আয় সোনা?
হব না তো জাল, শিশুনিগ্রহের?
কী বলবো? শ্রদ্ধা করি?
হব না তো পথ, নীচ অভিসন্ধির?
 
যদ্দিন না লুটেরাদের তন্ত্রটা ভাঙছি,
শব্দ হারাতে থাকবে তার সুরের রেশ,
স্পর্শ হারাতে থাকবে তার উজ্জ্বলতা!
 
প্রতি কথায় ভাবতে হবে বলার আগে,
একটি দিনের চলার পথে, কথা কটি
ওঠায় নি তো অর্থ কোনো দুষ্কৃত্যের?

২৪.৮.২৪

 

Wednesday, August 21, 2024

বন্ধুর ফ্ল্যাট

অভ্যস্ত পুরোনো সিঁড়ি ভেঙে উঠে তালা খুলে ঢুকি
আরেকটি সমধর্মী বাঁচার অগোছালোপনায়
কেন যে চাবি দেয় লোকে! কেন বলে যায় তাদের
ফ্ল্যাটটা দেখে আসতে মাঝে মধ্যে। ঘরে ঢুকতেই
শিরিশিরিয়ে ওঠে গা, যেন নিজেরই ফ্ল্যাটটায়
ঢুকছে অন্য কেউ ফেরা কি আর হয় নি আমার? 
বন্ধ-গন্ধ ঘরগুলোর, কলে টিপ টিপ, প্যাসেজে
মেলা ঘরপোছার শুকনো কাপড়, গাছবেরুনো
টি পেঁয়াজ রান্নাঘরে আর ধুলোবসা বেসিন,
পরিবারে কথান্তর, না খোলা কিছু বন্ধ খাম,
বইপত্রের পাহাড়, হলফনামা অসমাপ্তির!
জাল, ঝুল সরিয়ে জানলা খুলি যেকটা সম্ভব।
এমনই কিছু তোরণ কোথাও না-পৌঁছনোর,
পৃথিবীর মুহূর্তগুলোর মহার্ঘ্যতা বলে দেয়।

১৮.৮.২৪

 

 

চিঠিচর্চা ৬

আমিও ভেবেছিলাম চিঠিযুগ শেষ হয়ে গেছে।
হয় নি তো! ডাকপর্ব পেরিয়ে এখন ডিজিটাল!
বুড়ো ডাকপিওন, ডাকবাক্সো, এ দুনিয়া চেনে না।
কখনো অবাক দেখে সুউচ্চ দুর্গমে ছোট্টো বাড়ি
নাকি ডাকঘর বলে; আরো দুর্গমের মানুষেরা
এসে পোছে চিঠি আছে কিনা। রোদ্দুর পোহায়।
 
এ দুনিয়া জানে না ধারাবাহিকতাও নিজেদের
মুঠোফোনে বোতাম টিপে লেখার, ছবি পাঠাবার
নিরবচ্ছিন্ন খেলায় দেখে না, নতুন কিছু নয়!
এভাবেই হাজার বছর ধরে বন্ধুকে মানুষ
পাঠিয়েছে হৃদয়ের অঙ্কুরিত আবোলতাবোল।      
এসবেরই মধ্যে ফুটেছে কবিত্ব, প্রণয়-কূজন!
 
এবং আকাশ কালো করে আসা, মনের অন্ধকারও,
কোনো দিন মৃত্যু বা মুক্তির বিদ্যুচ্চমকে আচ্ছন্ন।

২২.৮.২৪

 

इतिहासविद

गर्मी की एक दोपहर में मैने उन्हे देखा।
धूल और कचरे से भरे रास्ते के एक तरफ से वह
घर लौट रहे थे; कांख में कुछेक विदेशी पत्रिकाएं
और हाथ में नया उगा एक जामुन का पौधा
जिसका पत्तों से भरा सिरा उनके
                             सर से थोड़ा उपर उठ कर डोल रहा था।
मैंने देखा उनके हाथ पर उस बच्चे को –
अतीत की किसी मिट्टी में जिसकी जड़ें
वह कभी फैला नहीं पायेंगे।
उसे देनी होगी आज की ही धरती।
फलों के काले गुच्छे जिस दिन
                      किसी दूसरे जेठ की हवा में नाचेंगे,
उस दिन हो सकता है वह रहें या
न रहें।
 
 
1
ध्वंस का नमक और क्षय के रसायन के साथ उनकी हथेली
बात करती है।
अपने भीतर
उन्होने पक्षियों को तैयार किया है
जो कभी कभी समय के विलुप्त लहरों की तरफ उड़ जाती हैं।
डूब लगाती हैं
महसूस करती हैं पानी का स्तर
                                      मात्रा
                                         क्षीण अन्तर्धारा
                                                दिशा
                                                       तूफान की सम्भावना।
समाज के किसी एक मुहूर्त का रक्तचाप।
एक मुहूर्त।
स्थिर! पृथ्वी, आकाश, सूर्य और बादलों की छाया
स्थिर! चारों तरफ जनपद के बाद जनपद!
स्थिर! असंख्य लोग,
         हरेक अपने काम की तात्क्षणिक भंगिमा में
स्थिर! शासक का उठा हाथ
स्थिर! जीना चाहते हुए बंदी का चीखता हुआ चेहरा
स्थिर! पहाड़ की गोद में अकेली माँ
                              अपने संतान को बुलाने में
स्थिर! वाद्ययंत्र पर तीन उंगलियाँ
स्थिर!
सारा कुछ स्थिर!
प्रवाह के एक अनुप्रस्थ फलक पर
यंत्रणा, स्वप्न, कंठस्वर –
जीवन के उस एक मुहूर्त की स्थिर विशेष निश्चितता! …
पक्षियाँ उस विलुप्त मुहूर्त की
स्थिर, स्तब्धता के भीतर
                   शोर करते हुए फैल जाती हैं।
असंख्य, असम्बद्ध घटनाओं के बीच
अनुक्रम और कारण के गुप्त सुत्रों के तिनके और
                           गहरे जड़ों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर चुगते हुए
उठ आती हैं फिर
लहरों के उपर!
डैनों का कार्बन और समय का पानी झाड़ कर
कई युग पल भर में पार कर वे
घुस जाती हैं
                उनके सीने में।
पक्षी अदृश्य हैं
फिर भी वे लौट आई हैं यह
जाना जा सकता है
ग्रंथागार के एक कोने में अचानक
उज्ज्वल हो उठे उनकी दो आंखों में झांक कर। …
तब कागज पर वाक्य निकल आते हैं
धुएं के भीतर से तर्क के तेज-धार ग्रैनाइट की तरह।
कभी विलुप्त हो चुके धूल और शोर से
भर जाता है,
खेल के अंत पर गोधूलि की गैलरी की तरह उनका टेबुल
कलम और चश्मे का, रंग उजड़ा हुआ खोल। …
एक दिन छापाखाने का यंत्र घरघराने लगता है।
और एक नम सुबह में, शहर के
किताब की दुकानों के शीशे के अंदर पहुँच कर
                                      सड़क की ओर नजर डालता है
राह चलते, व्यस्त हमलोगों की
खोई हुई उम्र
अंजानी हो चुकी पहचान। …
 
 
2
और वे पक्षी।
उनके प्राणवीज इस उपमहाद्वीप के तट पर
व्यापारी के जहाज के साथ मुद्रा के नियम की तरह आये थे।
सार्वभौम समतुल्य बन कर दुनिया में
खुद को कायम किया था अंग्रेजों का राज –
वह सोना है, मुद्रा बनने का हक है उसका!
तो गेहूं कहां खड़ा है? कपड़ा? खनिज?
बर्तानवी साम्राज्य के परिक्रमापथ पर आई सभी जनता ने
अपना सापेक्ष मूल्य ढूढ़ना शुरू किया था।
नये बने शहरों के गलियों मैदानों में
नये बने कॉलेजों के सींढियों ग्रंथागारों में –
साम्राज्य के प्रहरियों के आंखों के सामने से
गैलिलिओ का दूरबीन बन कर,
क्रॉमवेल, रोबेस्पियेरे या गैरिबॉल्डी का नाम बन कर,
शेली की कविता बन कर,
घुस पड़ा था वह तलाश, सापेक्ष मूल्य का,
राष्ट्र के तौर पर चिह्नित होने के लिये जरुरी
                                           ऐतिहासिक श्रम क,
अपने मूल्य को खुद में पाने का,
                                और उन पक्षियों का प्राणवीज
स्पन्दित हो उठा था।
 
शहर के संकटग्रस्त शाम में खड़ा
ताम्बई धूप-जले चेहरे वाले युवा ने
सोचना शुरू किया था –
‘क्यों इतना अपमान? हर दिन?
कौन हैं हम? कहाँ से आये?
उन्हे पूछने पर गिनाते हैं, ग्रीस, रोम,
                          मध्ययुग, नवजागरण?
भयानक रक्तपात, अंधेरा, फिर भी बार बार आन्दोलित मनुष्य।
क्या कहूंगा अगर मुझे सवाल किया जाय?
स्मरण में बदस्तुर एक समूचा आदमी नहीं?
सब बस देवताओं का क्रियाकलाप?
कौन हैं हम?
क्यों हम गुलाम हुये?
क्या कभी आजाद भी थे?
क्यों बर्तानवी साम्राज्य का हाथ
                        तोप के गोले से तोड़ा नहीं जा सका?
सब बस देवताओं का हाथ है?
या यह सामाजिक जड़ता का एक भयावह अंधकार था
जो हमें अपने ही जीवन के प्रति
                    विश्वासघातक बना दिया था?
और आत्मघात के पांक में डूबे इस भुखंड में
                फिर एक चंगेज खां का आना जरूरी हो गया था?
जरूरी हो गया था
तलवार और घोड़े के खुरों के दाग से नहीं
स्थाई बन्दोबस्त, कपड़े का मिल और रेल की पटरियों से
भारत को भारत के तौर पर बांधना?
मुक्ति में जड़ था तो बन्धन गतिशील होना
वैभव में अस्वस्थ्य था तो दुर्भिक्ष में स्वस्थ होना
तय हो गया था?’ ……
 
इन्ही सवालों से प्राण आया था उन पक्षियों में।
डैने फड़फड़ाये थे। और फिर
साम्राज्य का जहाज बिना नाविक चल नहीं पाता है।
और जिस तरह नाविक की स्मृतियाँ
                       अनिवार्य तौर पर साम्राज्य-विरोधी थीं –
स्मृति जिसमें उन दिनों
चेरी के टुकड़ोंवाला सुनहला केक था जो क्रिसमस की रात को वह
                                                             खरीद नहीं पाया;
क्रिसमस की रात को उसके बच्चे की दुखी नीली आंखें थी और
जूतों के अन्दर पिघलेए बर्फ का गंदला पानी था
था शहर के भीड़भरे इलाकों में 
धुसर, धंसे हुये गाल,
                   पुल पर भिखारी,
था दीवार के बाहर झर जाती हुई शाम को
                        दो आंखों में पाने का संग्राम …
उसी तरह यहां भी
तुरंत बने कारखानों के अगल बगल
अगर खड़ा हो रहा था नया मैंचेस्टर नया लिवरपुल,
अगर बनने लगे थे नये ‘आइरिश क्वार्टर’
क्या बहुत दूर था लियॉन्स और साइलेशिया?
क्या बहुत दूर था अट्ठारह सौ अड़तालीस? …
यहाँ भी उन दिनों
चला आया था जेनिवा का आह्वान –
                           शाम को पाने के लिये हड़ताल। …
इसलिये अनिवार्य हो चला था
तलाश,
उन दीर्घ अनुक्रमों की, सुत्रों की, हड्डियों की उम्र की,
माँ की लोरियों में व्यथा और विद्रोह के विद्युतप्रवाह की
जिन से देश, देश हो उठता है। …
 
अतीत सिर्फ आविष्कृत नहीं होता है, जन्म लेता है;
जन्म लिया भारत की आत्मचेतना में।
महान इतिहासविद आये।
देवताओं का मुखौटा हटा कर वे
सामने लाये आदमियों का चेहरा।
गड़रिये, शिकारी, यायावर और किसानों के चेहरे।
देववाणियों के शब्दों में लगे जंग नाप कर उन्होने उजागर किया
आदमी की भाषा।
गड़रिये, शिकारी, यायावर और किसानों की भाषा।
 
और हमारे यह बूढ़े इतिहासविद भी
उन्ही के वंशज के तौर पर आ कर आगे बढ़े।
 
 
3
उनका शरीर एक एक कर उनके
सालों को अतीत किया है।
वह सौ सौ के हिसाब से
लौटा कर लाये हैं अतीत के साल।
पटना के रास्तों पर सावन ने उन्हे बारिश से भिगोया है।
छप छप कीचड़ भरे रास्ते पर खड़े हो कर
सुदूर प्रश्न की ओर देखते हुये उन्होने कहा है –
         “कुछ नहीं है वह! बस, सूर्य के कक्षपथ की धूल,
          ॠतुओं का ऑक्साइड और हजारों साल के
          बर्बर भाववाद का मोह-जाल!
          उस बारिश के उस पार
          हालांकि दिखता नहीं फिर भी है
          हमारे रक्त में लीन दृश्यसमुह।
          क्या कहा तुमने?
          सम्राटों के किस्से?
          नहीं।
          पहले मैं शुल्क-अदायगी का फर्मान देखना चाहता हूँ।
          राजदरबार में एक आम आदमी का प्रवेश।
           नहीं, राजा के दान की कहानी नहीं,
           वह कहाँ से आया है, क्यों आया है, क्या करता है यह
                                                                    जानना चाहता हूं।
           देवता का वरदान जिसे मिला था – उसने मांगा क्यूं था?
           किस तरह बनी लोकोक्तियाँ और दन्तकथायें?
           और श्लोकों, मंत्रों के भीतर
                                        जीवन की छवियों के वे टुकड़े?
            मैं सामान्य शब्द चाहता हूँ।
            धान, मुद्रा,
            जमीन की मिल्कियत, उनके मिल्कियत बदलने के तरीके,
            कर्ज, लगान का प्रतिशत,
            डकैत, पाइक,
            बैल, हल,
            तांत, सौदागर, लोहा, नमक, नाव, मछली! ...
            याज्ञवल्क और मनुसंहिता में यह किस बात की लड़ाई है?
            उत्पादन के दो व्यवस्थाओं की?
            प्राचीन राजनीतिक साहित्य में
            राज्य की कार्यप्रणाली पर इतने प्रखर चिंतन मौजूद हैं
            राज्य के सारतत्व और रूप को लेकर कोई चिंतन क्यों नहीं?”
            ...............
यह सब कहते हुये उनका जराजीर्ण शरीर
लगभग घुटनों तक पाजामा और बेटे का
                                  पुराना कुर्ता पहन कर
और बूढ़े कर्मोरैंट के डैने का रंगवाली तार-तार छतरी को
                                    माथे पर फैला कर
आगे बढ़ता गया है
एक ही साथ आज के ट्राफिक की भीड़ में और
                                     समय के ट्राफिक के अन्दर।
आदमी जिस रास्ते से आगे बढ़ा है क्रमश:
किसी के स्मरण की तरह वह भी
उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते
                               पीछे जाने के समय।
दस जुलाई उन्नीस सौ अठत्तर से सीधा
गुप्त सम्राटों के घर में घुस कर दस्तावेजों के पन्ने पलटते हैं।
या किसी एक बौद्धश्रमण के साथ
                                   बैठ जाते हैं नालन्दा के चबुतरे पर।
बिहार-बंगाल के मार्ग पर घोड़ा दौड़ा कर
शहंशाह का आदेश नवाब के पास ले आने वाले आदमी के
साथ साथ
अदृश्य घोड़े पर बैठ कर जाने में
उनके कमर में दर्द नहीं होता है जरा सा भी।
उसी लमहे में वह लौट आ सकते हैं,
या आना भी नहीं पड़ता है –
अतीत के दृश्य-दृश्यांतर के दरार से उनकी आंखों के सामने
                   स्पष्ट होता है आज के एक युवा शिक्षक का चेहरा,
                                                                 उनके विभाग के;
वह उसके नमस्कार का प्रत्युत्तर देते हैं – अदृश्य घोड़े पर सवार –
                                          किस जनपद, किस शताब्दी से?
 
 
 4
आज!
मैं यह कविता लिख रहा हूँ! आज!
दिन प्रति दिन कितना फैलता जा रहा है यह आज!
जितना गहन, जितना प्रसारित हो रहा है चेतना
उतना ही व्याप्त होता जा रहा है।
मनुष्य का सारा जन्म, मृत्यु और नवजन्म
                            आज ही तो हुआ।
आज ही तो सुबह
एजटे, सुमेर या हप्पा की धूप की तरफ पीठ कर
                            मैं नाव का पानी निकाल रहा था।
आज ही तो सुबह नालन्दा के ग्रंथागार से निकल कर
                                              जाड़े की हवा में
अपने उत्तरीय को बदन पर अच्छे से ओढ़ लिया था।
यही, थोड़ी ही देर पहले मैं
मेक्सिको शहर के एक मकान के पिछले दरवाजे से निकल कर
कपड़ा धोनेवाला साबुन का गंध और
बच्चों का शोर पीछे छोड़
यहाँ पटना में इस घास पर बैठ कर लिख रहा हूँ।
थोड़ी दूर पर रखी मेरी साइकिल की छाया पड़ रही है
जोहानेसबर्ग में रेल की पटरी के किनारे
                                        शैंटी की दीवार पर।
कोई पुकारा मेरा नाम – कहाँ से पुकारा? ......
इतिहासविद!
यह आपका कर्ज है मुझ पर!
इसीलिये इस अठत्तर की जुलाई की दोपहर में
                                            मैं गा रहा हूँ आपको।
आप और उन सभी को मैं गाना चाहता हूँ
जो रक्त के निर्माण में हजारों वर्ष के
                        बीज और वेदना का पहचान करा देते हैं! ...
 
 
5
फिर भी आज!
कितना संकटपूर्ण है यह आज!
अभी तो दोपहर में
इतिहासविद की उम्र का ही उस बूढ़े आदमी ने
किताबों की बाइंडिंग की दुकान से निकल कर
रास्ते के किनारे खड़ा होकर एक बीड़ी सुलगाया है …
वह पढ़ना नहीं जानते,
लेकिन मजदूरी के तौर पर
दो वक्त का भोजन, पहनने का कपड़ा और
                  छोटा सा एक कमरे के किराये के बदले
किताबों और थिसिसों का
सुन्दर, टिकाऊ जिल्द तैयार करते रहे आजीवन …
उनके बगल में एक बच्चा खड़ा है
वह भी पढ़ाई शुरू नहीं कर पाया
लेकिन किताबों का सुन्दर बाइंडिंग करना शुरू कर दिया है …
और वह जो आदमी
                        इतिहासविद को नमस्कार कर चला गया,
प्रेस में काम करता है
इतिहासविद के काम का पृष्ठ दर पृष्ठ
जतन के साथ उसने छापा है
लेकिन कभी पढ़ नहीं पाया …
 
इतिहासविद!
क्या आप सोच रहे हैं,
क्या अर्थ है
इतिहास के रास्ते विकसित हुये एक शब्द का,
अगर आज जो उस शब्द के रक्त को अपने शरीर में धारण करता हो,
वह न जाने
              उस शब्द का इतिहास?


1978 

Monday, August 19, 2024

कलीमलोग

बाप-माँ की पीढी ने
विश्वयुद्ध और अकाल देखा था।
चटकल से छँटनी के बाद
इस छोटे से शहर में आकर रज्जाक ने
बीड़ी की दुकान खड़ी की थी।
“अच्छा ही तो चल रही है दुकान”
बेटे को समझाती है रज्जाक की बीवी,
“बड़ा हो रहा है,
बूढ़े बाप की मदद कर!
तेरे ही नाम पर है दुकान,
न हो तो दो रोटी कम, मगर
रोज मिल तो पाएगा!
बाहर कहीं काम मिलना आसान है क्या?”
बेटे का मन फिर भी नहीं मानता है।
उसके खून के अंदर काम करता है,
समय के घोड़े पर चढ़ने का खतरनाक नशा –
“देखा तो जाय दुनियाँ का हालचाल,
हाथ पैर की ताकत रहे तो मरुंगा क्यों?” …
उसे खींचता है एक-पांच की टिकट पर देखा हुआ
रोशनी से जगमग विशालकाय शहर,
                             रफ्तार और शोर …
परब की रात, गली के मुंह पर टंगे पर्दे पर
हवा चलती है –
                  डोलता है सुनसान मेरिन ड्राइव …
                     ख्वावों की दुनिया के तिलिस्मी पते

तीन दोस्त वे, छुप कर भाग जाते हैं
बॉम्बे मेल पकड़ कर।


2
“कहाँ खड़ा हो गया ट्रेन?”
खिड़की से सर बाहर निकाल कर
              अंधेरे में झांकता है कलीम।
पटना की सीलन भरी गली के कीचड़ में
चौदह साल पला हुआ कलीम
मध्यप्रदेश के तारों के नीचे
असीमित अंधकार में टकटकी लगाये रहता है।
पहाड़ों का गंध भरी हवा नाक में लगती है।
“क्या सोच रही है अम्मा?
अब्बुजान?” …
बाप के कंधे पर चढ़ कर चार साल का कलीम एक बार
सोनपुर का मेला जा कर
मिट्टी की बाँसुरी खरीदा था। …
कलीम को डर सा लगता है।
दो साथियों के चेहरे की ओर देखता है।
सोलह साल का रफीक ज्यादा अनुभवी है।
एक बार कलकत्ता भाग गया था।
रफीक सम्हालता है –
“घबड़ा मत।
ले, बीड़ी सुलगा।”
कलीम बीड़ी सुलगा कर खांसता है।
उसे नींद आती है बहुत।
रत्ती भर जगह नहीं है ट्रेन पर।
उधर किस बात का झगड़ा शुरु हुआ अचानक?
बेंच पर बैठ कर दो लोग
हँसते हुये बातें कर रहे हैं।
   … सब ठेकेदारों का मामला है!
     पूरा गांव बुहार कर आदमी ले जा रहा है।
     फसल खराब है। काम नहीं है। काम मिलेगा कह कर
     ले जा रहा है ठेकेदार का दलाल।
     लेने के समय कहा था कि रास्ते में खाना मिलेगा।
     अब बोल रहा है,
     सब अपना अपना खरीद कर खा लो,
     बाद में हिसाब हो जायेगा।
     हिसाब होगा घंटा। …
सुनते सुनते कलीम को भूख लग जाती है।
उधर झगड़ा बहस से हाथापाई तक पहुँच गया है।
ट्रेन चलना शुरु करता है।

भोर रात में नींद खुलती है।
चेकिंग।
रफीक सावधान कर देता है –  “खबरदार!
घर का पता नहीं देना है।”


3
जेल से निकल आता है वह।
ख्वाब नहीं, कुछेक दूसरे पते पॉकेट में ले कर।
         बम्बई – माहिम बस्ती, विक्टोरिया गोदी,
         छोटे बड़े सारे रेस्तरां, ...
पता देख देख कर घूमते घूमते
अन्त में काम मिलता है कलीम को।
रहने को घर नहीं है, फुटपाथ,
खाना गले में अटक जाता है –
खराब होने के चलते उतना नहीं जितना
‘घर’ और ‘आजादी’ के दोतरफा खिंचाव में।
फिर भी पीछे कौन लौटता है?
एक ने कहा है अच्छा काम दिला देगा।
एँ:!
हाल में जान-पहचान हुआ वह गोदी का लड़का
लाट साहब की तरह घूमता है।
मोटर मेकैनिक का काम सीख लिया है।
दांत से बीड़ी दाब कर बात करता है। …
बोले।
कोई बात नहीं!
मैं भी बोलुंगा।
बस एक अच्छा सा काम सीख लें।
उसके बाद। …
फिर, दिन रात भर
आंखों के सामने मुखरित विशालकाय शहर।
उस दिन अंधेरी गया था।
वही राज कपूर। मोटा बम्पु हो गया है।

डॉक पर लगा रहता है बड़ा बड़ा सब जहाज।
झिलमिलाता है अरब समंदर।
मॉरिशस उधर ही है न?
लक्षद्वीप? जांजीबार? अरब?
उधर सुना है बहुत डिमांड है लेबर का?

सत्रह साल का कलीम
अनुभवी हाथों से सुरज को ओट में करते हुये
माँ के हाथों के घेरे से बहुत दूर खड़ा होकर
प्यासी आंखों से समन्दर की ओर देखता रहता है।


4
रज्जाक की बीड़ी की दुकान में टंगे
फ्लोरा फाउंटेन की तस्वीर वाला कैलेंडर
                बदरंग होता है धीरे धीरे।
दो साल … पांच साल … दस साल … ।
कितनी सारी जगहों से दुर्घटना की खबरें आती हैं।
माँ-बाप ने डरना छोड़ दिया है अब।
मन्तरवाले की खबर पर दो बार कलकत्ता, दो बार
                       बम्बई भी गया था रज्जाक।
पता नहीं चला।
कौन जाने कहाँ है कलीम।
कलीम का छोटा भाई अब किशोर है।
लुंगी पहन कर अकेले ही दुकान सम्हालता है।
बाप से ज्यादा उस्ताद है।
परिवार का बोझ कंधे पर उठाकर
गंभीर भाव से चलता है।


5
कहीं खदान धंस जाता है
कहीं मचान टूट जाता है
कहीं पाड़-सहित, एक पल में गिरता है कई-मंजिला मकान,
कहीं शहर बह जाता है समुद्री तुफान में,
रह रह कर गोलियाँ चलती हैं विभिन्न इलाकों में,
या जहरीला शराब पी कर लाश बन जाता है पूरा एक बस्ती,
कहीं आग बुझता नहीं सबकुछ बिना जलाये –
कलीमलोग मरते हैं
कलीमलोग जिन्दा हो उठते हैं।
कोई झूठा सपना लेकर गया था
कोई थोड़ी सी रोटी के आश्वासन पर गया था
फर्क मिट जाता है –
जग उठता है
हर दिन जिन्दा रहने की ताकीद और लड़ाई,
हर दिन जिन्दा रहने का तीखा अनुभव।
और जग उठता है
उन्नीससौ अस्सी के इस भारत में
हर दिन जिन्दा रहने के लिये जरुरी जुलूस और
                                          लाल झंडे के साथ पहचान।
कोई सरल विश्वास के साथ अपना लेता है,
कोई शक की नजर से देखते हुए कतराते चलता है कुछ दिन तक,
फिर भी बंध की एक पुकार पर खामोश हो जाते हुये
इलाके को देखने का गर्व और खुशी
मुंह से बुलवाकर छोड़ता है, “समझा!
यह हुआ मजदूरों की ताकत!”
हर पांच सात साल के बाद बाद एक संकट,
हर पांच सात साल के बाद बाद तुमूल होता हुआ जनान्दोलन …
कौन गया था दिलीप कुमार बनने?
कौन गाता था मुकेश के गाए,
                          शैलेन्द्र के लिखे, दुख के गीत!
उसके मुंह से भी बुलवाकर छोड़ता है जीवन,
शैलेन्द्र का ही पुराना गीत और
आज का नारा,
                  “हर जोर-जुल्म के टक्कर में
                                संघर्ष हमारा नारा है।”


6
पटना स्टेशन पर
ट्रेन की खिड़की से बाहर झांक कर देखता है वह आदमी।
अट्ठाइस साल का युवा।
खाकी पैंट और चेक का शर्ट पहने।
पॉकेट में सिगरेट, माचिस और पसीने से भीगा रुमाल।
दाढ़ी की जड़ें सख्त।
आवाज भारी, ऊन जैसी।
ट्रेन की खिड़की से बाहर देखता है।
भोर की रोशनी में उसके बचपन का शहर
छोटा सा शहर हँस रहा है।
कितने साल हुए?
दस? बारह? चौदह?
आखरी छे साल घर पर चिट्ठी लिखना शुरु किया था।
जबाब भी मिला था।
माँ-बाप की बेचैन पुकार।
छोटे भाई का संजीदा, बड़े भाई की तरह उपदेश।
लेकिन शुरु के दो-तीन साल तो पैसे ही नहीं थे लौटने के।
और आखरी तीन साल वह जानबूझ कर नहीं लौटा।
क्योंकि सलमा को घर के लोगों ने माना नहीं।
सलमा का चेहरा सामने हुआ अचानक।
सीट के एक तरफ रखे
सलमा के रुमाल से बंधे सेव को देखा।
रात को खाया नहीं वह।
चाहा था इस शहर में उतरने के बाद ही उसका स्वाद ले।
सलमा, उसकी बीवी।
बूढ़ा क्रेन-ड्राइवर अफजल की बेटी।
पैंतालीस में कराची से आकर
        बम्बई में डेरा लिया था अफजल।
न,
सलमा को साथ ला कर इस बार
         झमेला करना नहीं चाहा था कलीम।
पहले इस रिश्ते की आदत पड़े
फिर।

खड़ा होकर
सफर का साथी
सामने के दाढ़ीवाले आदमी से मुस्करा कर कहा –
“चलें भाईसाहब,
एक मुल्क में पहुँच गया अब
दूसरा मुल्क याद आ रहा है।
कह रहे थे न कल रात को,
जहाँ प्यार, वहीं मुल्क?”

विक्टोरिया गोदी का मोटर मेकैनिक कलीम
                 पटना स्टेशन के बाहर आ कर खड़ा होता है।
सारे लोग परिचित लगते हैं।
बात करने की ईच्छा होती है बस-कन्डक्टर के साथ।
“पहचान रहे हैं मुझे?
बस के सारे सवारी? पहचान रहे हैं?
मैं वही छोटा सा कलीम हूँ।
पावर हाउज की चिमनी?
पर्ल सिनेमा?
एक-पांच का बदला हुआ टिकट घर?
पहचाने?
दस लाख लोग? पहचाने मुझे?”
 
चौदह साल बाद कलीम
उस छोटी सी गली में घुसा जहाँ वह
                गुल्लीडंडा खेलता था।
और अचानक
घर के दरवाजे की तरफ देख कर
चौदह साल उसकी आंखों से उतर आया।
चौदह साल उसने नहीं सोचा था
कि घर लौटना इतना
            तकलीफदेह अच्छा लगना हो सकता है। …
दरवाजा खुला था।
फिर भी परिचित बरामदे में वह
                 प्रवेश नहीं करता है।
बाहर तैर आता है पांच परिवारों का शोर।
वह कुन्डी हिलाते रहता है।
अच्छा लगता है कुन्डी हिलाते हुये।


7
वे दस जीवन पार करते हैं उनके एक जीवन में।
इतना बड़ा देश भारत,
इसकी नसों और धमनियों में
तूफानी खून की तरह वे घूमते रहते हैं ...
मेस का रसोईया लड़का अस्थाई दरवान बनता है बैंक में,
फिर चाय का स्टॉल लगाता है बाजार में
                                      पचास रुपये उधार लेकर,
फिर रिक्शावाला,
फिर चिनिया बादाम का खोमचावाला,
या अंडा बेचता है शाम को,
उसके बाद एक दिन जी टी रोड
                                 बालू के ट्रक पर पार कर
झरिया में जमीन के नीचे उतरता है रात के शिफ्ट में –
डेटोनेटर के कॉर्ड को कुछ दिनों तक बेमतलब डर के कारण
                                               उछल कर पार करता है।
वहाँ भी ज्यादा दिन नहीं।
कुछ दिन धनबाद-पाथरडीह ट्रेकर का क्लिनर,
फिर पक्का ड्राइवर,
उसके बाद कोई खबर भेजता है उसके घर सीतामढ़ी से,
लौट कर पक्का एक काम मिलता है कांटी थर्मल में।

कल्याण का वह दुबला गोरा लड़का!
रेसिन प्लांट में पिता के निधन के बाद
दोस्तों के चक्कर में
मेरिन ड्राइव पर तीनपत्ती शुरु किया था,
वहाँ मारपीट कर बॉम्बे सेन्ट्रल जेल …
                             निकल कर
खन्डाला से बेलगांव फेरीवाला।
उसके बाद पूणे – किसी कम्पनी का एजेंट,
हाथ में ब्रीफकेस –
कोल्हापुर एक्स्प्रेस की बॉगी में
    फर्श पर कागज बिछा कर वे चार दोस्त
               ब्रीफकेस बजा कर कव्वाली शुरू करते हैं।

बहत्तर में लूंगी पहन कर, होंठों में बीड़ी ठूंस कर
कंटीला तार के नीचे से घुस कर बंग्लादेश गया था सुनीत।
किसके न किसके दादा की सम्पत्ति पर दावा ठोक कर
या किसी और तरीके से माल कमाने का
धंधा किया था युद्ध के अंत वाले बाजार में।
कुछ हाथ नहीं लगा।
कहाँ कहाँ घूमा उसके बाद।
बीच में कुछ दिनों तक पारिवारिक व्यवसाय, मिठाई भी बेचा।
उस दिन अचानक भेंट हुई,
रक्सौल इलाके का नामी रेफ्रिजरेटर मेकैनिक है,
साथ में थोड़ाबहुत स्मगलिंग का भी उपरी कमाई है।
 
सिर्फ ये ही नहीं। कोडईकनाल की लड़की एगनेस
अस्पताल के वैन में घूमती है दक्षिण बिहार के गाँव में।
खिड़की से देखती है
वह बच्चा भैंस की पीठ पर
                      उन लोगों को देख रहा है अचरज के साथ –
क्यों वह बच्चा मर जाता है बार बार?
कॉलेरा से? चेचक से? आपदाओं से? …
अस्पताल में भूस्वामियों के लम्पट बेटे
लालच के साथ देखते हैं उसे, इशारे करते हैं –
                             दांत भींच कर वह सहती है,
“साला नर्स न हुई जैसे … ”
अगले साल वह कनाडा जाने की कोशिश में है।
मोजा पहनते हुये एग्नेस
शशी की तस्वीर की ओर देखती है एक बार,
जूते का धूल झाड़ती है फर्श पर पटक कर।

लामडिंग में कुली खड़े थे घेर कर। बोले,
“पूरी दुनियां में कुली मतलब बिहार, उत्तर प्रदेश
और बाबू मतलब बंगाल! …”
बिना टिकट विदिशा तक पहुँच पाया था
जब्बलपुर का वह बच्चा लड़का।
रेलिंग चढ़ कर बाहर निकला फिर
टोकरी सर पर लिये उदयगिरि के करीब
हजारों साल का भूस्तर हटा कर किसी राज्य का
         कंकाल खोदने में जुट गया।

और केरल के रास्ते का वह अनाथ लड़का?
समुद्र का प्रेमी?
सफरी रोजगार से पेट चलाते हुये
            पार कर गया तीन हजार मील।
पारादीप।
वहाँ से लौटने में गया कलकत्ता।
पूरे देश में संकट था उन दिनों।
बेरोजगारी बेहिसाब।
मजदूर बेहाल।
हत्या, राहजनी से रात चिपचिपा, स्याह।
फिर भी सिन्दूर के कारखाने में
                       हाथ लगे काम को वह छोड़ दिया।
क्योंकि एक दिन
बारिश, बदली और आंधी वाली शाम में उसने सुना,
बंगाल की खाड़ी में तूफान उठा है।
उसका मन बेचैन हो उठा बचपन का साथी
अरबसागर के बारे में सोचते हुये।
इलाहाबाद में जेल खटा तीन महीना।
मनमाड में फिर।
सात महीने में बम्बई पहुंचा।
कहीं काम नहीं।
बिना खाये सर चकरा रहा है।
पुल पर सो गया था लगभग बेहोश हो कर।
किसी के सुझाव पर चला गया गोवा।
उसके साथ गोवा में जब मेरी मुलाकात हुई
रात के निर्जन समुद्रतट पर
एक मात्र शराब की दुकान और रेस्तरां में –
मेरे तरफ चाय का गिलास बढ़ाते हुये,
साफ बंगला में बोला
पाँच भाषाओं में स्वागत जानने वाला पैंतीस साल का वह आदमी,
“हां, तनख्वाह कम है यहाँ,
लेकिन समन्दर जो है!”


1980