बिहार में भी कम्युनिस्ट आंदोलन का बीजारोपण विचारधारात्मक राजनैतिक कठिन संघर्षों, लड़ाकू जन आंदोलनों और दमन से गुजरते हुए देश कौ आजादी के आंदोलन के दौर में हुआ। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी परम्पराओं पर 1917 में रूस में अक्तूबर क्रांति का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के बीज आकर ग्रहण करने लगे। यद्यपि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को 'ताशकद में रूसी क्रांति की सफलता से आकर्षित विदेशों में बसे भारतीय क्रांतिकारियों के समूहों तथा मुजाहिरों के द्वारा हुई, लेकिन यह एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि ''वर्गीय राजनीति और वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के बीज भारत में अक्तूबर क्रांति के संदेश प्राप्त होने के साथ ही उगने लगे थे। उपनिवेशवाद् की सच्चाईयों तथा राष्ट्रीय चेतना के उदय ने वह सामाजिक और राजनैतिक जमीन तैयार कर दी थी जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करने के लिए आवश्यक थी। भारत के घटना विकास ने तब ही मार्क्स-एंगेल्स का ध्यान आकर्षित कर लिया था जब वे वेज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे।” (भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास, खंड-।, सी.पी.आई.(एम) प्रकाशन)
1919 में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के गठन के बाद कॉमिनटर्न ने भी भारतीय जनता के संघर्षों का खुले तौर पर समर्थन किया एवं देश में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के समर्थन में विश्व जनमत को यथासंभव प्रभावित किया। भारत के नवोदित कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपनी शुरूआती सीमाओं के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बहुत पहले कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (।92।) में सर्व प्रथम पूर्ण स्वाधीनता की मांग करते हुए घोषणा-पत्र जारी किया। इसका ऐसा असर पड़ा कि राष्ट्रवादी नेता मौलाना हसरत मोहात्ती और स्वामी कुमारानन्द ने कांग्रेस के उस सत्र में एक प्रस्ताव पेश कर 'स्व॒राज' को “विदेशी शासन से पूर्ण मुक्ति' के रूप में परिभाषित करने की मांग की। कांग्रेस पार्टी के गया अधिवेशन (1922) में भी कम्युनिस्टों के घोषणा-पत्र वितरित किये गये। इस घोषणा-पत्र में पूर्ण स्वतंत्रता का नारा और क्रांतिकारी सामाजिक और आर्थिक सुधारों की भी मांग की गयी। गांधी जी और बहुमत कांग्रेस प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया। क्योंकि वे लोग सिर्फ होम रूल की मांग कर रहे थे।
कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और लाहौर इत्यादि केन्द्रों में कम्युनिस्ट समूह काम करने लगे थे। ब्रिटिश शासक ने प्रारम्भिक कम्युनिस्ट गतिविधियों से घबराकर अभूतपूर्व दमन का रास्ता अख्तियार किया। पेशावर, लाहौर, कानुपर षड़यंत्र मुकदमे संगठित कम्युनिस्ट आंदोलन का दमन करने के लिए नहीं बल्कि भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के बीज की जड़ पकड़ने की संभावना को हमेशा के लिए दबा देने के उद्देश्य से किये गये थे। दमन के बावजूद कम्युनिस्ट जनता के बीच सक्रिय रहे। काम को जारी रखने के लिए वकर्स एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी बनायी जबकि कम्युनिस्ट पार्टी गैर-कानूनी ढंग से कार्य करती रही।
कम्युनिस्ट विचारधारा के रूझान इतने मजबूत थे कि इससे आजादी के आंदोलन को परिपवकता प्राप्त हुई, अन्य तमाम स्वदेशी क्रांतिकारी धारा को बल मिला, और 'स्वराज' के अस्पष्ट विचारों को, सिर्फ़ विदेशी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक शोषण तथा भारतीय समाज के संकीर्णतावादी विभाजनों तथा फूट परस्ती से भी मुक्ति के संघर्ष के रूप में बदलने में भारी मदद मिली। खुद कांग्रेस पार्टी के अन्दर उग्र और वाम्रपंथी विचारों की धारा विकसित होने लगी। राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की विभिन्न क्रांतिकारी धाराएं चाहे वे पंजाब के गदर विद्रोही हों अथवा भगत सिंह के साथी, बंगाल के क्रांतिकारी हों या बम्बई, मद्रास इत्यादि के जुझारू मजदूर वर्ग, किसान विद्रोह हों अथवा आम जनवादी संघर्षशील जनता, चाहें वे समाज-सुधार आंदोलन हों अथवा अमानवीय शोषण के खिलाफ लड़ रही आदिवासी, संथाल, दलित और दबी-कुचली जनता – इन अनगिनत संघर्षों के सर्वश्रेष्ठ तत्व विचारधारा से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होते चले गये।
क्रांतिकारी धारा
बिहार पहले बंगाल प्रांत का एक हिस्सा था। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक प्रमुख नेता मुजफ्फर अहमद 'कलककत्ते से ही काम कर रहे थे। अलग प्रांत होने के बाद भी कलकत्ता और बंगाल के अन्य हिस्सों से बिहार का जीवंत सम्बन्ध किसी न किसी रूप से कायम रहा। बंगाल के क्रांतिकारियों का एक केन्द्र मुंगेर था, जहां मीरकासिम के जमाने से निजी बंदूक के कारखाने थे। यहां से हथियार बंगाल के क्रांतिकारियों को भेजे जाते थे। 1930 के दशक में जब कुछ क्रांतिकारी गिरफ्तार होकर जेल गये तो उनका संपर्क कम्युनिस्टों से हुआ।
इसके अलावा इनका संपर्क कुछ ऐसे क्रांतिकारियों से भी हुआ जो अंडमान की जेल में रह चुके थे ओर वहीं मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विचारों से प्रभावित हुए थे। इस प्रकार के कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं, जिससे यह विश्वास होता है कि बिहार में कम्युनिस्ट विचारधारा की एक धारा का उद्गम बंगाल के सशस्त्र क्रांतिकारियों के माध्यम से हुआ। बाद में चलकर जब बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन ।939 में हुआ तो इसके कई संस्थापक नेता – सुनील मुखर्जी, विनोद बिहारी मुखर्जी, ज्ञान विकास मैत्र, अनिल मैत्र, रतन राय, विश्वनाथ माथुर, अजीत मित्रा, चन्द्रमा सिंह इत्यादि इसी धारा से कम्युनिस्ट आंदोलन में आये।
मजदूर वर्ग की धारा
कम्युनिस्ट पार्टी मजदूर वर्ग की पार्टी है, इसलिए स्वाभाविक है कि बिहार के औद्योगिक मजदूरों, खासकर खदानों के मजदूरों पर कम्युनिस्ट विचारधारा का भारी प्रभाव पड़े। अखिल भारतीय वर्कंस ओर पीजेन्ट्स पौर्टी, जिसके संगठनकर्त्ता कम्युनिस्ट समूह ही थे, के कलकत्ता कांफ्रेंस के ठीक पहले एटक (आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) का नवां अखिल भारतीय सम्मेलन झरिया में 18-9-20 दिसम्बर, 1928 को एम. दाउद की अध्यक्षता में सम्पन्त हुआ। बी.एफ. ब्रेडले (ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी) क॑ अनुसार, नवाँ ट्रेड यूनियन कांग्रेस का सम्मेलन “उस
साल के अंत में हुआ जो भारत में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों पर थोपी गयी दुर्दशा के खिलाफ संगठित विद्रोह के लिए भारत में मजदूर वर्ग के इतिहास में अतुलनीय था।“ अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के जे. डब्ल्यू. जॉनस्टन ने साम्राज्यवाद विरोधी लीग, बर्लिन की तरफ से तथा आस्ट्रेलियन कम्युनिस्ट पार्टी के जे.एफ. रयान ने सर्व प्रशांत (Pan Pacific) ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधि के बतौर झरिया सम्मेलन में भाग लिया था। झरिया सम्मेलन ने कई महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रस्ताव पारित किया था। एक प्रस्ताव के माध्यम से एटक के इस लक्ष्य की घोषणा की गयी कि भारत को मजदूरों के समाजवादी गणतंत्र के रूप में बदल देना चाहिये। झरिया सम्मेलन ने भारत के नये संविधान के निर्माण हेतु बुलाये गये सर्वदलीय सम्मेलन (कलकत्ता) में 50 प्रतिनिधियों को भेजने का फैसला लिया और भविष्य के संविधान में शामिल करने के लिए निम्नलिखित सुझाव पर विचार करने की मांग रखी :-
1. मजदूर वर्ग की समाजवादी गणतांत्रिक सरकार का गठन,
2. वयस्क्र मताधिकार का अधिकार,
3. भारतीय रजवाड़े के राज्यों का उन्मूलन कर उनके स्थान पर समाजवादी गणतांत्रिक सरकार की स्थापना,
4, उद्योगों तथा जमीन का राष्ट्रीयकरण,
5. काम का अधिकार,
6. दमनकारी और प्रतिक्रियावादी 'श्रम विधेयक” के कानून बनाये जाने पर रोक।
सम्मेलन द्वारा नये पदाधिकारियों के चुनाव में कम्युनिस्टों का मजदूर वर्ग के आन्दोलन पर बढ़ता प्रभाव स्पष्ट था । यद्यपि जवाहर लाल नेहरू – अध्यक्ष, एन.एम. जोशी – महासचिव चुने गये, मुजफ्फर अहमद, डी.बी.कुलकर्णी, डा. भूपेन्द्र नाथ दत्त – उपाध्यक्ष, एस.ए. डाँगे – सहायक सचिव, बी.एफ. ब्रेडले, फिलीप स्प्रेट, डी.आर. ठेंगड़ी – कार्यकारिणी सदस्य चुने गये। सम्मेलन के अंत में के.एन.जोगलेकर ने उम्मीद जाहिर करते हुए कहा कि अगला नागपुर सम्मेलन ‘काफ़ी लाल' होगा।
चूंकि अधिकांश कल-कारखानें तथा खदानें छोटानागपुर में थीं, गतिविधियों का केन्द्र भी उधर था। |934 में कम्युनिस्ट पार्टी को ब्रिटिश सरकार द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। उसी साल जमशेदपुर में हंसुआ-हथौड़ा के निशान वाले झंडों को लेकर मजदूरों ने जुलूस निकाले, प्रदर्शन और आम सभाएं कौ। मंगल सिंह अपने दो दर्जन साथियों के साथ कम्युनिस्ट गतिविधियों में संलग्न रहते थे। पंजाब में क्रांतिकारियों की मदद हेतु जब वहां से तेजा सिंह और ज्वाला सिंह कोष संग्रह करने आये तो उन्होंने मंगल सिंह और करम सिंह के साथ मिलकर मजदूरों को संगठित करने में सहयोग दिया तथा कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल से उनका संपर्क करने की योजना पर भी चर्चा की।
फनीन्द्र नाथ दत्त ने भी इस कम्युनिस्ट समूह में शामिल होकर मजदूरों को संगठित करने में योगदान दिया। टाटा में मालिक तथा प्रबंधन के मनमाने अत्याचार और धांधली के खिलाफ ।938 में जबरदस्त आंदोलन हुए। मजदूर आंदोलन के तत्कालीन नेता हजारा सिंह को टाटा ने ट्रक से कुचलवा कर हत्या करवा दी। हजारा सिंह अन्डमान की जेल की सजा के दौरान ही कम्युनिस्ट बनकर लौटे थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के उस समय के मुख-पत्र “जनता' ने हजारा सिंह की हत्या पर 'डालमिया की वादी की चादर पर मजदूरों के खून के छींटे' शीर्षक से समाचार भी छापा था। डालमियानगर में कम्युनिस्ट नेता मंजर रिजवी और गिरिडीह, जपला में कम्युनिस्ट नेता हबीबुर रहमान मजदूरों के अगुआ थे।
किसान विद्रोह की धारा
1920 और ।930 के दशक में देश भर में अनेक स्थानों पर किसानों के संघर्ष खड़े हो गये थे। चम्पारण का आंदोलन इतना ऐतिहासिक हो गया था कि गांधीजी को देश भर में ख्याति मिली। किसानों के बीच ये भी अफवाहें थी कि महात्मा गांधी क्रांतिकारी नेता हैं और वे जमींदार विरोधी हैं, जो सच्चाईयों से परे है। कम्युनिस्टों के द्वारा गठित वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी (मजदूर-किसान पार्टी) यद्यपि सामंतवाद-विरोधी नारे दे रही थी, लेकिन उनकी इकाईयों का गठन सभी जगह खासकर देहाती क्षेत्रों में कम ही हो पाये थे। कांग्रेस पार्टी और उसके नेता बटाईदारी, बेदखली, मजदूरी, अमानुषिक सामंती अत्याचारों के खिलाफ नहीं बोल पाते थे क्योंकि जमींदारों से उनके गहरे ताल्लुकात थे। बिहार में स्थिति ओर भी बुरी थी क्योंकि यहां कांग्रेस का प्राय: प्रत्येक महत्वपूर्ण नेता खुद जमींदार, उसकी संतान अथवा उसके कर्मचारी थे। इसलिए यहां एक शक्तिशाली किसान आंदोलन की अगुवाई एक विद्रोही सन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। 1947 के पूर्व देश के सबसे शक्तिशाली और व्यापक किसान आंदोलन का केन्द्र बिहार बना। स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में बिहार प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना 1929 में हुई। उस समय किसान सभा का दृष्टिकोण नरमपंथी था। जैसे-जैसे किसान आंदोलन उग्र होते गये, स्वामी जी का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। बदले में कांग्रेस अपने समर्थकों को किसान सभा की गतिविधियों में भाग लेने से मना करने लगी। खासकर, ऐसे जिला में जहां किसान सभा और उसका आंदोलन तीव्र था। लेकिन इन कठिनाईयों के बावजूद किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन की ताकत बढ़ती गयी ओर अन्तत: ।936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय किसान सभा का भी गठन हो गया। चूंकि किसान आंदोलन की दिशा साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद विरोधी थी, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट
विचारधारा से प्रभावित अनेक नेता और कार्यकर्ता इसमें सक्रिय रूप से जुड़े थे। कांग्रेस की किसान आंदोलन के प्रति उदासीनता का प्रमुख कारण उसका जमींदार तत्वों के साथ गहरा लगाव था जो बंगाल और बिहार जैसे स्थायी बंदोबस्ती के इलाकों में स्पष्ट था जबकि रैयतवाड़ी इलाके, जैसे समुद्र तटीय आंध्र में कांग्रेस के नेतृत्व में धनी तथा मंझोले किसानों के शक्तिशाली किसान आंदोलन हुए क्योंकि यहां लगान वसूली ब्रिटिश शासक खुद करते थे। गुजरात में भी कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता मिली थी। 1934 में किसान सभा का चौथा अखिल भारतीय सम्मेलन गया में हुआ जब इसकी कमिटियां 20 में से 9 प्रांतों में बन चुकी थीं तथा सदस्यता लगभग 8 लाख पहुंच चुकी थी।
बिहार में किसान आंदोलन साम्राज्यवाद विरोध तथा सामंतवाद विरोधी लहर की तेज धार थी जिसने ब्रिटिश शासन और ताकतवर जमींदारों को भी हिलाकर रख दिया था। किसान सभा के नेतृत्व में बकाश्त आंदोलन, टाल आंदोलन, चानन आंदोलन को भारी कामयाबी मिली। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी किसान संघर्ष के प्रमुख योद्धा और नेता थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी किसान सभा के कार्यक्रम में एकाधिक बार भाग लेने के लिए बिहार आये थे। इस संबंध में अनेक लेख और पुस्तकें लिखी गयी हैं जो उस समय किसानों तथा खेत-मजदूरों की दुर्दशा, सामंती अत्याचारों, ग्रामीण समाज के अन्तर्विरोधों ओर आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक सच्चाईयों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा और पार्टी के फलने-फूलने के लिए किसान आंदोलन ने अत्यंत उर्वरा भूमि और ठोस सामाजिक-आर्थिक आधार प्रदान किया।
छात्र एवं अन्य जन आंदोलन की धारा : 1936-39
1936 में पार्टी के नेतृत्व में जन आंदोलन तथा जन संगठन की गतिविधियों में पार्टी पर प्रतिबंध और दमन के बावजूद तीब्र वृद्धि हुई। इसी वर्ष आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन की स्थापना लखनऊ में को गयी थी। पूर्व में भी छात्र आंदोलन की भूमिका स्वदेशी आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन, असहयोग आन्दोलन, नमक सत्याग्रह इत्यादि के दौरान दिखलायी पड़ती थी। लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर ए.आई.एस.एफ. के गठन के बाद छात्र समुदाय की साम्राज्यवाद विरोधी व्यापक एकता कायम हुई तथा जेसे-जैसे छात्र आंदोलन तेज होते गये, कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार नये इलाकों में समाज के विभिन्न हिस्सों तक फैलता गया। 1938 में बिहार में भी प्रान्तीय कमिटी का गठन हुआ, जिसने बाद में चलकर कम्युनिस्ट पार्टी को अनेक प्रांत स्तर के प्रथम पंक्ति के नेता और कार्यकर्ता दिये। ए.आई.एस.एफ. के प्रथम प्रांतीय महासचिव चन्द्रशेखर सिंह भी बाद में चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे विख्यात कम्युनिस्ट एवं जन नेता के रूप में जाने लगे। इसी प्रकार अली अशरफ, इन्द्रदीप सिन्हा, भोगेन्द्र झा, योगेन्द्र शर्मा, कृष्णचंद चौधरी, गंगाधर दास, चतुरानंन मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेता भी ए.आई.एस.एफ. के नेतृत्व में ताकतवर साम्राज्यवाद विरोधी छात्र आंदोलन की उपज हैं।
मेरठ षड़यंत्र मुकदमा
अखिल भारतीय वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी (मजदूर-किसान पार्टी) के कलकत्ता सम्मेलन के बाद 1929 में ब्रिटिश सरकार ने 3। वरिष्ठ महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट नेताओं और अन्य क्रांतिकारियों पर ऐतिहासिक मेरठ षडयंत्र मुकदमा चलाया जिसने देश भर के साम्राज्यवाद विरोधी प्रगतिशील तबकों तथा क्रांतिकारी युवकों का ध्यान आकर्षित कर लिया। अदालत में अभियुक्तों के बयान भारत में कम्युनिस्ट विचारों की राजनैतिक घोषणा थी। इस दौरान कम्युनिस्ट विचारों का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ। यद्यपि कानपुर सम्मेलन में अखिल भारतीय स्तर कम्युनिस्ट पार्टी बनायी गयी लेकिन वास्तव में मेरठ षड़यंत्र मुकदमे के बाद ही दिसम्बर 1933 में विभिन्न कम्युनिस्ट समूहों के बीच बेहतर तालमेल हो पाया और एक अखिल भारतीय केन्द्र भी अस्तित्व में आ सका। जेल में भी कई कांग्रेसी कम्युनिस्ट प्रभाव में आये। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के नरमपंथी और समझौता परस्त रूख और ढुलमुल रवैये के चलते कई कांग्रेस जनों का मोहभंग होने लगा। उग्र कांग्रेसजनों की एक धारा ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन 1934 में किया जो क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार करते हुए भी कांग्रेस में बनी रही।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी
बिहार में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का बड़ा प्रभाव था। जय प्रकाश नारायण और प्रांतीय स्तर के कई नेता कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर थे। कम्युनिस्ट आंदोलन से संभावित खतरे को देखते हुए जब 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो कम्युनिस्ट कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में रहकर साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को तेज कर रहे थे। 1935 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की सातवीं कांग्रेस ने फासीवाद के बढ़ते कदम और उसके खिलाफ संघर्षों का विश्लेषण कर तमाम युद्ध विरोधी ताकतों का संयुक्त मोर्चा बनाने का आह्वान किया। पार्टी ने ठोस फैसला लिया कि एक व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी संगठन बनाने के लिए कम्युनिस्टों को कांग्रेस के भीतर ही काम 'करना चाहिये। बिहार में भी इस का अच्छा नतीजा निकला और जन आंदोलन तेज हुए। इस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महत्वपूर्ण नेता और कार्यकर्त्ता राज्य में पार्टी के गठन के बाद के वर्षो में शामिल हुए। इ.एम.एस. नम्बूदिरिपाद, ए. के. गोपालन, पी. राममूर्ति, दिनकर मेहता, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से कम्युनिस्ट आंदोलन में आये।
बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 20 अक्तूबर, 1939 को मुंगेर शहर में एक गुप्त बेठक में किया गया क्योंकि उस समय पार्टी पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इस बैठक को जान-बूझकर विजयादशमी के त्योहार के दिन आयोजित किया गया था ताकि ब्रिटिश सरकार और उसकी पुलिस का ध्यान बंटा रहे। इस बैठक में सुनील मुखर्जी, राहुल सांकृत्यायन, ज्ञान विकास मैत्र, विश्वनाथ माथुर, अली अशरफ, विनोद बिहारी मुखर्जी, श्यामल किशोर झा, अनिल मैत्रा, शिव बचन सिंहा, कृपा सिन्धु पुटिया, शरत पटनायक, बी.बी. मिश्रा, हबीर्बुर रहमान, पृथ्वीराज, दयानन्द झा, नागेश्वर सिंह, चन्द्रमा सिंह, अजीत मित्रा, रतन राय ने भाग लिया। बैठक में केन्द्रीय समिति की ओर से रूद्रदत्त भारद्वाज ने पर्यवेक्षक के तौर पर भाग लिया था। उनपर गिरफ्तारी का वारंट था। बेठक में अधिकांश साथियों को पूर्ण सदस्यता तथा कुछ साथियों को उम्मीदवार सदस्यता दी गयी। 5 सदस्यों – सुनील मुखर्जी (सचिव), राहुल सांकृत्यायन, ज्ञान विकास मेत्र, अली अशरफ एवं विश्वनाथ माथुर की एक प्रांतीय समिति का भी गठन किया गया। नवगठित प्रांतीय पार्टी ने 2 नवम्बर 1939 को जनता के नाम दो संदेश जारी किये, जिसमें पहले संदेश में उस समय जारी द्वितीय विश्वयुद्ध को अब भारत की स्वाधीनता के युद्ध में बदल देने का आहवान किया गया था और दूसरा संदेश टाटानगर के मजदूरों के नाम से जारी किया गया था, जिसमें साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को तेज करते हुए
1. मुनाफे के आधार पर वेतन में वृद्धि करने,
2. सड़क पर काम करनेवाले और वे सभी जो गर्मी में काम करते हैं, उनके काम के घंटे सिर्फ 6 निश्चित किये जाने,
3. नौकरी से हटाये गये मजदूरों को वापस नौकरी में लेने,
4. सभी मजदूरों को बोनस देने एवं प्रबंधन द्वारा प्रोविडेंट फंड का प्रावधान करने
की जायज मांगों को उठाने तथा मालिक द्वारा नहीं मानने पर पूर्ण हड़ताल पर जाने का आहवान किया गया।
पार्टी ने विभिन्न जिलों में सर्क्यूलर भेजकर राजनैतिक एवं सांगठनिक, दोनों कार्यो को तेज करने का आहवान किया। पार्टी के गठन का संदेश ज्यों-ज्यों फैलता गया, पार्टी नेतृत्व में जन-आंदोलनों का सिलसिला तेज होता गया। विभिन्न स्थानों पर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और नेता ट्रेड यूनियन, किसान आंदोलन, छात्र-आंदोलन और अन्य जन कारवाईयों से पहले से ही जुड़े थे। डालमियानगर में आशिंक हड़तालें, प्रदर्शन, ए.आई.एस.एफ. द्वारा पूर्ण स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रभात फेरी, जुलूस एवं प्रदशनों का तांता लग गया। कलकत्ते के अंग्रेजी अखबार दैनिक “स्टेट्समैन ने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन को नोट करते हुए अंग्रेज सरकार से इस भयंकर बीज को अविलम्ब कुचल देने की अपील की। ब्रिटिश सरकार ने दमन चक्र चलाया, लेकिन डालमियानगर के अलावे पटना, छपरा, मुंगेर, दरभंगा, भागलपुर में भी छात्रों ने युद्ध के खिलाफ हड़तालें की। कम्युनिस्ट मजदूर
नेता मंजर रिजवी सासाराम में आम सभा को सम्बोधित करते हुए जनवरी ।940 में गिरफ्तार कर लिये गये। ।940 में कांग्रेस अखिल भारतीय महाधिवेशन रामगढ़ में होने वाला था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एवं स्वामी सहजानंद सरस्वती ने मिलकर इस अवसर पर 'साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन' करने की तैयारी शुरू कर दी ताकि कांग्रेस नेतृत्व की समझौतावादी मनोवृत्ति के खिलाफ मजदूरों का विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जा सके। पटना में अली अशरफ, गिरीडीह में सुनील मुखर्जी और इलाहाबाद में राहुल सांकृत्यायन तथा विभिन्न स्थानों पर अनेक कम्युनिस्ट नेता गिरफ्तार कर लिये गये। पार्टी की प्रांतीय कमिटी ने बेठक कर भूमिगत रूप से काम करने का निर्देश जारी किया। 1940 के मध्य तक पार्टी सदस्यों की संख्या बढ़कर 55 हो गयी। इसके अलावा सैकड़ों लड़ाकू जन नेता पार्टी के साथ थे। 1940 के अन्त तक पार्टी का प्रभाव इतना बढ़ गया कि किसान सभा और ए,आई.एस.एफ. – दोनों संगठनों के सम्मेलनों में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और जयप्रकाश नारायण के समर्थकों की राजनैतिक रूप से हार होने लगीं। उनके अनेक नेता पार्टी में शामिल होने लगे – जैसे कार्यानन्द शर्मा, किशोरी प्रसन्न सिंह इत्यादि। ट्रेड यूनियन में भी कम्युनिस्ट का प्रभाव तेजी से बढ़ा और अनेक नेता पार्टी में शामिल हुए। पार्टी प्रकाशनों तथा अखबार को प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का कारवाँ चल चुका था .... उसे रोकना संभव नहीं था।
[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक 2008 से साभार]