पहला दिन
जयन्त मेहनत खूब कर रहा था, उसके तने गालों पर पसीने की धार बह रही थी । लेकिन लोग समझ रहे थे कि बात बन नहीं पा रही है । जयंत खूद भी समझ रहा था क्योंकि आईने की तरह उसके सामने था निर्देशक महोदय के चश्में का एक़ जोड़ा शीशा और उस चश्मा से थोड़ा ऊपर, अविश्वास में कांपती हूई भौंहें । नाटक था समुद्री चील और जयंत किशोर का रोल अदा कर रहा था । नाटक में किशोर, अपनी मां के दोस्तों के सामने एक नाटक का अभिनय कर रहा है। अस्पष्ट सा एक बौद्धिक नाटंक | और मां चूंकि भूतपूर्व अभिनेत्री है इसलिए रह रहकर बेटे के अभिनय की त्तीखी आलोचना कर रही हैं । फलस्वरूप अचानक किशोर नाटक छोड़ कर मां को गाली गलौज करते हुए निकल जायेगा । इसी दृश्य का रिहर्सल चल रहा था । मातृस्तेह को आतुर पुत्र अचानक कैसे मातृअवज्ञा एवं मातृनिन्दा की विस्फोटक स्थिति में पहुंच जाता है यही शायद जयंत की समझ से बाहर हो रहा था । अंत में जब निर्देशक ने अपनी आंखों पर से चश्मा हटा लिया तो जयंत भी बीच रास्ते में खामोश हो गया क्योंकि चश्मा उतारना निर्देशक महोदय का परिचित इशारा था कि रूको, एकदम बेकार हो रहा है ।
सुलेखा कर रही थी मां की भूमिका । वह आहिस्ते से बोली “हो गया ।” इसका नतीजा हुआ और भी खराब । जयंतः अपने रोल की 'कापी फर्श पर पटककर पिछले एक महीने से जो कुछ तकलीफ उसके मन में उबल रहा था सब बाहर कर दिया- “अभिनय से अधिक कष्टदायक कुछ भी नहीं है । नींद भोजन सब हराम हो गया है। यह रोल मुझसे नहीं होगा । सच पूछा जाय तो अभिनय ही अब मेरे द्वारा नहीं होगा । स्वेच्छा से ऐसी ग्लानि झेंलने की कोई सार्थकता भी है?”
निर्देशक ने तुरंत कहा, “न:, कोई सार्थकता नहीं है ।
जयंत ने शायद सोचा था सब
आकर उसे सहलायेंगे, सांत्वना देंगे लेकिन जबाब सुनकर
थोड़ा भौंचक रह गया । सो कहा “मैं चला” ।
निर्देशक ने कहा, “नमस्कार” ।
लेकिन जयंत में
जाने की कोई तत्परता नहीं दिखाई पड़ी । चिंतित होकर उसने पूछा, “क्या कहा आपने?”
निर्देशक ने दोहराया, “मैंने कहा नमस्कार! जाइए और पार्टवाली कॉपी क्षेत्रजी को देते जाईये जाते वक्त ।
श्रेत्र!”
स्टेज मैनेजर क्षेत्र
आकर कॉपी खींचते ही जयन्त ने खामोशी में ही उन्हे दाँत दिखाया और व्याकुल हो कर आँखें उठाए रखा निदेशक की ओर। निर्देशक महोदय
अपना सर नीचे झुकाये नाक के पास स्क्रिप्ट उठा कर कुछ पढ़ रहे थे। अचानक सर उठा कर उन्होने जयन्त को देखा तो कहा, अरे! आप गये नहीं अब तक? अभिनय अगर कष्टदायक लगता है तो छोड़ दीजिये। अभिनय एक कला है। यहाँ आनन्द है सिर्फ, सृजन का आनन्द। सृजन के प्रवाह में ज्वार की तरह भाटे भी आते हैं । आना स्वाभाविक है । उस समय का गतिरोध भी आनन्द का है। क्योंकि एक कलाकार के लिये चुनौती है वह गतिरोध। इन सब बातों से अगर आपको गुस्सा आता है तो विदा लीजिये, कहीं कलम पीसिए जाकर – अभिनय आपके लिये नहीं है।
निर्देशक महोदय फिर टेबुल पर औंधे-मुँह हिये। तब बासुदेव ने खखारते हुए कहा, “जयन्त दर असल जानना चाह रहा है कि वह अपने रोल को गिरफ्त में क्यों नहीं ला पा रहा है।”
“तो वही कहिये न!” निर्देशक ने कहा, “फिर कष्ट, ग्लानि, पेट में दर्द, माथे में दर्द – ये देवदास-स्टाइल की बातें क्यों?”
सुलेखा हठात बोल पड़ी, “भैया, यह नाटक ही बेकार है। बार बार अचानक इसके पात्र उल्टी दिशा में घूम जाते हैं, यूँ मुड़ जाते हैं कि कुछ समझ में नहीं आता है। यही देखिये, मैं किशोर की माँ हूँ, जबर्दस्त अभिनेत्री, अपने बेटे को देखे बिना नहीं रह सकती। लेकिन जब बेटा करीब आता है तो उसका अपमान करती रहती हूँ। कुछ गड़बड़ी है इस नाटक में।”
निर्देशक महोदय की एक खास आवाज है – भारीपन लिये हुये। जब किसी विषय पर वह लम्बा भाषण देने के लिये तैयार होते हैं, तब अहीन्द्र चौधरी (बांग्ला रंगमंच के सुविख्यात अभिनेता - अनु.) से मेल खाती अपनी उस आवाज का सहारा लेते हैं । सब कहते हैं कि उनका गला कसमसाने लगता है । तब उस मेघमन्द्र आवाज में उन्होंने कहा, “यह नाटक है चेखोव का 'सीगल' । भले ही रूपांतरकार,, स्वीकार करने से कतरा गया हो । इसलिये इसे खराब नाटक कहकर अपनी अक्षमता को न ढँकना ही बेहतर होगा ।
“लेकिन मेरे रोल का
आदि-मध्य-अंत कुछ भी समझ में क्यों नहीं
आ रहा है 7” जयंत ने कातर स्वर में
कहा ।
निर्देशक ने डॉट पिलाई, “ नाक से रोना बन्द कीजिये । वीर की तरह, एक पुरुष की तरह अपने
रोल का सामना कीजिए । किस तरह विश्लेषण
किया है आपने, पहले वही सुना जाय।”
जयंत ने अपने रोल की कॉपी टेबुल पर फैलाया – लाल नीला पेन्सिल की रेखाओं से रंगी थी वह कॉपी। उन रेखाओं पर उंगली रखकर वह बोलने लगा, “यहाँ पहले देख रहा हूँ कि किशोर अपनी माँ की, देवी की तरह, पूजा करता है । इस सीन में आकर देख रहा हूँ कि वह मीरा को चाहता है. देवी की तरह नहीं, औरंत के रूप में । माँ को शायद ईर्षा होती है । इसलिये वह मुझे सबके सामने अपमानित करती हैं, फलस्वरूप यहां अभिमान जगता है किशोर के मन में । यहाँ लाल पेन्सिल का दाग दिया हुआ है, यहाँ मेरा अभिमान घृणा में बदल चुका है, क्योंकि माँ की अतीत के बारे में मेरा मन प्रबल रूप से वितृष्ण हो उठा है । अन्दर ही अन्दर माँ अब मुझे डायन लग रही है । और, “यहाँ जो नीले पेन्सिल का दाग है .......”
“रूक जाईये।” निर्देशक ने कहा, “आप आदमी का चीड़-फाड़ कर रहे हैं । चीड़फाड़ लाश का किया जाता है। जिन्दा आदमी का चीड़फाड़ करने से कुछ बेजान अंग-प्रत्यंग मिल सकते हैं । लेकिन आदमी की मौत हो जायेगी । अपने रोल का आपका विश्लेषण पूरी तरह से गलत रास्ते पर चला गया है । सुलेखा देवी! आपकी बात सुनकर समझ गया हुँ कि आप भी उसी राह के राही हैं । आप भी चौसर के खाने बना ली होंगी – यहाँ माँ किशोर से प्यार करती है, यहाँ माँ किशोर से घृणा करती है, यहाँ माँ मीरा के प्रति ईर्षा की जलन महसूस कर रही है, आदि। क्या? ठीक?
सुलेखा बोली, “हाँ, ठीक।”
निर्देशक ने कहा, “ठीक इसीलिये अपने पात्र की एक मानसिक स्थिति से दूसरी स्थिति तक जाने में आप पसीना-पसीना हो रहे हैं और उस परिवर्तन को विश्वसनीय बनाने में अक्षम होने के कारण दोनों बेमतलब चीख
रहे हैं । साथ ही अस्वाभाविक कुछ थियेटरी दॉंव पेंच के सहारे बात को नाटकीय बना रहे हैं। पात्र के विश्लेषण के बजाय आपने पात्र का चीड़फाड़ किया है । संक्षेप में कहा जाय तो आपने
मार्क्सवादी डायालेक्टिक्स का प्रयोग
नहीं किया है।"
बासुदेव शुरू से ही
शक्की मिजाज का आदमी रहा है । उसने श्लेष
के साथ सवाल किया 'मार्क्सवादी
डायलेक्टिक्स का इस्तेमाल करके
अभिनय किया जा सकता है?”
निर्देशक ने कहा, “अच्छा अभिनय करने के लिये डायालेक्टिक्स के अलावा भी बहुत कुछ चाहिये – आवाज, उच्चारण, शारीरिक क्षमता आदि – लेकिन रोल को समझने के लिये डायालेक्टिक्स के सिवा दूसरी कोई पद्धति नहीं है। अच्छे अभिनय के लिये भी अन्य गुणों के साथ डायालेक्टिक्स की समझ अपरिहार्य है। दुनिया के श्रेष्ठ अभिनेताओं ने, उनमें से अधिकांश अनजाने ही, डायालेक्टिकली अपने रोल अदा किये हैं। चैपलिन कहते है, हँसी में में रोना ढूंढ़ते फिरता हूँ। स्तानिस्लावस्कि मांग करते हैं कि एक ही साथ सजग व विह्वल होना पड़ेगा। उन्नीसवीं सदी के एडमंड कीन कहते हैं, काव्यनाट्य एक ही साथ काव्य और कर्कश गद्य दोनों है। फ्रांसिसी अभिनेता कोकल्यॉ निबन्ध लिखते है, अभिनेता एक ही साथ दो मनुष्य होता है। क्या आप समझ पा रहे हैं कि ये सभी डायालेक्टिक्स के प्रयोग का दृष्टान्त रख रहे हैं? और आज के ब्रेखट-शेपार्ड के युग में डायालेक्टिक्स का प्रयोग सचेतन रूप से किया जाता है, यह तो सभी जानते हैं। चारों तरफ़ स्तब्धता विराजमान देखकर निर्देशक महोदय ने लम्बी सांस छोड़ी और टेबुल से उठकर टहलते हुये बोलने लगे, “अब सोचा जाय कि यह मार्क्सवादी डायालेक्टिक्स है क्या? किस तरह इसका प्रयोग करेंगे नाटक को समझने, रोल को समझने और रोल अदा करने में। आप सभी ने अपने अपने रोल को कह भागों में बौटकर हर हिस्से को एक स्वतंत्र पहचान दिया है, लाल नीला पेंसिल की रेखाओं से टुकड़ा-टुकड़ा कर दिया है। डायालेक्टिक्स इस पद्धति क़ो नहीं मानता है। डायालेक्टिक्स एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कहती है कि विश्व में कुछ भी रुका हुआ नहीं है, निरन्तर परिवर्तनशील है सब कुछ। फलस्वरूप किशोर का पात्र यहाँ गरम है वहाँ नरम है; ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है। किशोर का पात्र एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है; निरन्तर बढ़ता व विकसित होता हुआ एक मन है। कभी भी कोई स्थिर तस्वीर नहीं है वह। हालांकि यह सिद्धांत मौलिक तौर पर मार्क्स का नहीं है। प्राचीन युनान व प्राचीन भारत में दार्शनिकगण डायालेक्टिक्स पर इतनी सोच की प्रवर्त्तना तो कर ही गये हैं । बौद्ध दाशनिकगण जब कहते हैं, जगत में अस्मिता जैसी कोई चीज नहीं है, बल्कि है, 'भव’, है सिर्फ होता हुआ मौत’, तब वे डायालेक्टिक्स बोल रहे होते हैं । लेकिन जहाँ मार्क्सवादी डायालेक्टिक्स अपनी विशिष्टता के साथ उज्वल है, वह है कि यह परिवर्तन साधारण परिवर्तन नहीं, हर पल हर चीज अपने विपरीत में तब्दील हो रहा है, यही है परिवर्तन। प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक सोच में दो विपरीत उपादानों का सहवास हो रहा है और दोनों उपादान, एक दुसरे के साथ पारस्परिक द्वंद्व में गूंथ रहे हैं – एक ही साथ है उनकी मित्रता और कलह । फलस्वरूप सभी वस्तु, मनुष्य: व सोच बदलते बदलते बिल्कुल रूपान्तरित हो जाते हैं; विपरीत बन जाते है।”
सभी लोग कुछ-कछ चिन्ता में डूबे हुये थे। इसीलिये निर्देशक ने कहा “एक उदाहरण दूँ तो समझने में आसानी होगी। वर्ष 1958 के 20 मार्च को चेंग तू सम्मेलन में माओ-त्से-तुंग ने जो उदाहरण दिये थे, उसी में से कुछ आपके सामने रख रहा हूँ। सोचिये कि गुरिल्ला फौज घमासान युद्ध के बीच है, लेकिन युद्ध शुरू होने के साथ ही साथ विश्राम की आवश्यकता भी शुरू हो चुकी है। फलस्वरूप क॒छ दिनों के बाद देखते हैं कि युद्ध विश्राम में रूपान्तरित हो चुका है। फिर विश्राम शुरू होते ही अगले युद्ध की पुकार शुरू हो जाती है। तो देखते हैं कि विश्राम का रूपान्तरण युद्ध में हो गया। युद्ध और विश्राम एक दूसरे में ही रोपे हुये, एक दूसरे में तब्दील होते रहते हैं, कोई जब सोने जाता है उसी वक्त उसके उठने की तैयारी शुरू होती है। उठने पर सोने की तैयारी शुरू होती है। यह जो हम रिहर्सल के लिये इक्टठे हुये हैं, रिहर्सल खत्म करं घर लौटने की पारी भी क्या साथ साथ नहीं चल रही है? और कल सुबह क्या फिर रिहर्सल नहीं है? एकता बनते ही क्या अनेकता शुरू नहीं होती है? एकता अनेकता में तब्दील होती है, और फिर अनेकता, विभिन्न तर्क, वितर्क व द्वन्द्व के बीच से गुजर कर एकता में तब्दील होती है। निर्द्वन्द्व विशुद्ध एकता की बात जो करते हैं, मतान्तरवर्जित विशुद्ध मित्रता की बात जो करते हैं क्या वे झूठे नहीं है? अंर्थनीति की बात लीजिये – उत्पादन तब्दील होता हैं उपभोग में, उपभोग फिर तब्दील होता है उत्पादन में। कृषि की बात लीजिये – बीजारोपण बदल कर फसल की कटनी बन जाता है, कटनी फिर रूप धारण करता है बीजारोपण का। ये ऋतुयें क्या कर रही हैं? गर्मी क्या बरसात में रूपान्तरित नहीं हो रही है? वर्षा शरद में, शरद हेमन्त में, हेमन्त शीत में और शीत वसन्त में? प्रत्येक ऋतु में अगले ऋतु का बीज बोया हुआ है। जन्म का अंत होता है मृत्यु में, मृत्यु परिवर्त्तित होता है जन्म में - मृत वस्तु को प्राण मिलना ही तो जन्म है। माँ की कोख में मृत मांस का एक लोथड़ा, दो ही दिनों के बाद जीवन्त हो उठता है। फसल हर साल जनमता है हर साल मरता है। उसी तरह पेड़ों के पत्ते, फूल, फल! खिलते ही इनके झरने की भी पारी शुरू, झरते ही फिर खिलने की पारी! पिता पुत्र को जन्म देता है, पुत्र खुद फिर पिता होत़ा है। पुरुष कन्या जनमता है, नारी पुत्र जनमती है – दार्शनिक अर्थों में यहाँ पुरुष का रूपांतरण नारी में हो रहा है, नारी का पुरुष में, राजा प्रजा बनने जा रहा है, प्रजा राजा बनने जा ही है - यानि आज का शासक वर्ग आगामी समाज में होगा शासित और आज का शोषित कल का शासक होगा। अभी जारी है यह प्रक्रिया।
युद्ध शांति में परिणत
होता है, शांति युद्ध में।
पूंजीवादी समाज उन्नत होकर समाजवादी समाज, समाजवादी समाज उन्नत होकर साम्यवादी समाज में परिणत होता है।”
सभी सकारात्मक ढंग से सर हिला रहे थे। देखकर निर्देशक महोद॑य उत्साह से आगे बढ़े, “तो फिर जयन्त ने जो चौसर के खानों में पात्र का अंकगणित बनाया है वह अवास्तविक है, असंभव है, प्रकृति के विरूद्ध है। किशोर इस हिस्से में मातृभक्त और उस हिस्से में मातृद्वेषी इस तरह का पृथकीकरण कृत्रिम है। मार्क्सवादी डायालेक्टिक्स आत्मसात करने पर इस तरह का नजरिया नहीं रह पायेगा। वस्तुतः किशोर जब माँ को, देवी समझकर पूजा करता है तभी वह, एक ही साथ, माँ को घृणा भी करता है - घृणा की प्रक्रिया भक्ति की प्रक्रिया के बगल में शुरू हो गयी है। इसीलिये भक्ति घृणा में परिणत हो जाती है। फिर घृणा विकसित होते ही भक्ति का विकास भी शुरू हो गया है, घृणा फिर भक्ति का रूप लेने जा रही है। किशोर का हर पल द्वन्द्व से घिरा है। प्रत्येक दृश्य में वह एक ही साथ मातृभक्त और मातृद्वेषी है, वह एक आदमी है पर उसकी दो अस्मितायें हैं।
वह एक युद्धक्षेत्र है, विपरीत
दो शक्तियों व संघर्ष का केन्द्र है। उसी तरह
सुलेखा देवी, आपका पात्र भी एक ही साथ, बेटे को चाहता है और नहीं
भी चाहता है। प्यार करता हे और घृणा भी करता है। अपने करीब पाना चाहता हे और जल्द से जल्द भगाना भी चाहता है। डायालेक्टिक्स हमें दिखाता है – पात्र को टुकड़ों में न
बांटो, यहाँ सफेद वहां
काला इस तरह सोचो भी मत। पूरा पात्र एक अखंड, सम्रूचा
है। उसके बाहरी आचरणों में
कभी इधर झुकाव है कभी उधर। लेकिन इसका
अर्थ यह नहीं कि उसके मन के अन्तर्विरोध का कभी अन्त हों रहा है। जयन्तबाबु, जब
किशोर माँ से प्यार कर रहा है तब अगर घृणा की अभिव्यक्ति ला पायें और
जब वह माँ से घृणा कर रहा है तब अगर गहरे प्यार के आभास
का एक झलक दे पायें – तब तो आप चेखोव द्वारा सृज़ित जटिल
पात्र की व्याख्या कर पायेंगे। तब तो वह अभिनय कहलायेगा, नहीं तो, नक्शा बनाकर यह जो एकतर्फा
जुगाली है, क्या इसे
अभिनय कहेंगे आप? यह तो स्कूली बच्चों का प्राईज-डे पर किये गये
एक्टिंग का नमूना है।”
अब लग रहा था कि दवा काम कर रही है, सभी जैसे गहरे चिंतन में, आक्रांत से दिख रहे हैं। वासुदेव हठात बोल पड़ा, “अभिनय के बारे में इस तरह कभी सोचा नहीं! एक ही साथ दो विपरीत मनोभाव बनाये रखने की बात कभी नहीं आई दिमाग में।”
निर्देशक महोदय ने टेबुल पर हलका थप्पड़ मारते हुये कहा, “इसका कारण है कि आपने डायालेक्टिक्स के प्रति कभी ध्यान नहीं दिया, जबकि बिना डायालेक्टिक्स के कोई सीरियस रोल को समझना संभव ही नहीं। डायालेक्टिक्स को हटाकर किसी जटिल पात्र का अभिनय करना भी संभव नहीं। विश्व साहित्य के जो श्रेष्ठ पात्र है - हैमलेट, ओथेलो से शुरू कर क्षीरोदप्रसाद रचित कर्ण तक – डायालेक्टिक्स का प्रयोग नहीं करने पर उनका प्राथमिक क्रियाकलाप भी समझ में नहीं आयेगा। हैमलेट पागल है कि पागल नहीं – शेक्सपीयर ने समस्या को इस तरह रखा ही नहीं, हैमलेट एक ही साथ पागल भी है और स्वस्थ्य दिमाग भी। यही है नाटक का प्रतिपादय । बात यही है कि वह माँ को एक ही साथ प्यार भी करता है और घृणा भी। वह ओफेलिया को अपने सीने में भींच लेना है फिर भी उसे अपने जिन्दगी से दुर कर देना चाहता है – यही है हैमलेट की यंत्रणा। वह भूतप्रेत की बात मानता भी है, नहीं भी मानता है – यही है उसका संकट। हर पल वह दो पाटों में विभाजित है, आन्तरिक अन्तर्विरोध के कारण कॉपता हुआ है। डायालेक्टिक्स की मदद के बिना इस रोल को कौन कर पायेगा?
सुलेखा सवाल की, “पर कया यह अभिनय संभव
है? दो विपरीत
चिन्तनों को लिपटाकर एक साथ अभिव्यक्त करना हैं संभव?”
निर्देशक ने कहा, 'डायालेक्टिक्स का प्रयोग करने पर संभव है; अवश्य संभव है। विश्व के श्रेष्ठ अभिनेता यही किया करते हैं। उसपर फिर किसी दिन बातचीत होगी, अब
रिहर्सल शुरू कीजिये ।”
दूसरा दिन
जयन्त: कल आपने कहा बड़ी बेरुखी के साथ कि थियेटर में डायलेक्टिक्स
का इस्तेमाल करना होगा – दो विपरीत भावों को प्रस्तुत करना होगा। किस तरह संभव होगा
यह ?
निर्देशक : संभव तो है ही ! सभी श्रेष्ठ अभिनयों की बुनियाद वही
है। जाने या अनजाने विश्व के श्रेष्ठ अभिनेता डायालेक्टिकली ही अभिनय किया करते हैं।
विश्व के श्रेष्ठ निर्देशक अभिनय के डायलेक्टिक्स पर ही सर खपा रहे हैं; खपायें हैं
आज तक। मोटी किताबें लिखी है उन्होंने। 'डायलेक्टिक्स शब्द का उच्चारण किसी ने नहीं
किया है लेकिन जितनी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास उन्होंने किया है वह सब डायालेक्टिक्स
की ही समस्यायें हैं।
सुलेखा: तब
मेरा प्रस्ताव है कि रिहर्सल बन्द रखकर पहले वही 'डाया' क्या था वह शब्द ?
बासुदेव : डायालेक्टिक्स ।
सुलेखा : हाँ, उसी के अनुसार अभिनय करना सीखा जाय।
निर्देशक : आपकी बातें सुनकर समझ में आ रहा है कि डायालेक्टिक्स
आपके जेहन में नहीं उतरा है अबतक । डायालेक्टिक पद्धति का प्रयोग करने पर हम देखेंगे
कि दुनिया में कोई भी चीज स्थिर नहीं बल्कि परिवर्तनशील है। कोई चीज स्वाधीन, स्वतंत्र
नहीं बल्कि एक दूसरे के साथ सम्बन्धित है। और भी देखेंगे कि हर चीज अपने विपरीत में
तब्दील हो रही है। कल हमने इस पर विचार किया था। इस तरह की जटिल एक परिस्थिति में कौन
वह दूरदर्शी होगा जो एक-दो-तीन की तरह आपको नियमों की जानकारी देगा जिन्हें उपयोग में
लाते ही आप सही अभिनय करने लगेंगी ?
सुलेखा: तो ?
निर्देशक : मन — पहले मन को तैयार करना होगा। डायालेक्टिक सोच प्रक्रिया
की आदत डालनी पड़ेगी। यह विश्व अन्तर्विरोधों की समष्टि है इस बात को दिमाग में बैठा
लेना होगा। आँखों को शिक्षित करना होगा ताकि हर आदमी हर चीज को वे परिवर्तन में देख
पायें, क्रमविकास में देख पायें। हर क्षेत्र में दो विपरीतों का संघर्ष देख पाने में
सक्षम होना ही होगा। क्योंकि थियेटर है ही लगातार विपरीतों का संघर्ष, उल्टा व सीधे
के बीच कुश्ती, सफेद और काला का बौक्सिंग मैच ।
वासुदेव: मतलब ?
निर्देशक: अभिनेता का काम क्या है? वह मंच पर जाकर कोशिश करता है सत्य दीखने का, यथार्थ दीखने का; लेकिन सामने बैठा है कमरा भर दर्शक जिन्हें वह भूल नहीं पाता है। जिनके लिये उसे कहानी उठाना पड़ता है जो कहानी स्वाभाविक तौर पर कोरा यथार्थ नहीं होती है। इसलिये अभिनेता एक ही साथ सत्यवादी भी है और झूठा भी। अभिनेता एक सौ बार रिहर्सल के बाद मंच पर आता है, उसकी हर बात हर भंगिमा निरन्तर अभ्यास से निरुपित व सुनिर्दिष्ट है, लेकिन मंच पर हर पल उसे यूँ बात कहनी पड़ती है जैसे जीवन में पहली बार वह कोई बात कह रहा हो। प्रबल अनुशासन के बीच उसे स्वाभाविक होना पड़ता है। अभिनेता एक ही साथ कैद में भी है और आजाद भी । निर्दिष्ट एवं साथ ही साथ अनिर्दिष्ट । जिस पात्र का अभिनय वह करेगा उसमें उसे डूबना होगा लेकिन हर पल बाहर भी रहना होगा, सचेत ध्यान रखना होगा कि रौशनी चेहरे पर पड़ रही है या नहीं, सही जगह पर वह खड़ा है या नहीं, सभी बिजनेस सही ढंग से हो रहे हैं या नहीं। शिशिर भादुड़ी साहब बोलते थे "राम का अभिनय करते करते मैं बेसुध कैसे हो पाऊंगा ? उसी समय लव कुश को हटाकर बाँई तरफ लाकर मुझे चेहरे पर रौशनी लेनी पड़ती है।" अर्थात अभिनेता एक ही साथ, पात्र के साथ एकात्म भी है और पात्र से वियुक्त भी। समझ रहे हैं आप ?
सुलेखा: यानि अभिनय सर से पांव तक डायलेक्टिक्स ही है?
निर्देशक : बिल्कुल । जिस रोल में अभिनय करूंगा, हर पल उसका सफेद
और काला पक्ष एक साथ प्रस्तुत करना होगा। यह भी डायालेक्टिक्स है। इसपर हम लोगों ने
कल विचार किया था। और भी देखिये – कोई पार्ट मिलने पर अभिनेता करता क्या है — मतलब
उसे क्या करना चाहिये ? (सभी अभिनेता ऐसा करते ही है यह नहीं कहा जा सकता; अगर करते
तो फिर चिन्ता किस बात की थी ?) पहले वह पात्र का वर्ग विश्लेषण करता है, एक वर्ग के
आदमी के रूप में पात्र की वेशभूषा कैसी होनी चाहिये, कैसा आचरण व कैसा चेहरा होना चाहिये
इसकी कल्पना करता है। लेकिन इसके बाद ही वह देखने लगता है पात्र की व्यक्तिगत विशिष्टताओं
की सूची। नाट्यकार अगर मूर्ख न हो, तो वर्गीय चरित्र से अलग वह अपने पात्र में व्यक्ति
स्वतंत्रता का पूट डालता है, व्ययक्तिक
भिन्नताओं के सहारे पार्ट को निखारता है। गोर्की का साटिन, चोर-बेरोजगार-आवारा है लेकिन
दार्शनिक है। ओथेलो, उभरते वेनिसियन प्रजातंत्र में भाड़े का सिपाही है पर है प्रेमियों
में श्रेष्ठ। हैमलेट एक
बाँझ राज्य का राजकुमार है लेकिन सबसे आगे बढ़ा हुआ चिन्तक । हर पल हर पात्र वर्गीय
भी है और व्ययक्तिक भी।
जयन्त: बाप रे ! और अधिक उदाहरणों की जरुरत नहीं । स्टेज पर उठते
ही मैं अपनी हड्डियों तक डायालेक्टिक यंत्रणा महसूस करता हुँ क्योंकि एकाग्रचित्त होकर
मैं अपने डायलॉग्स दोहराता हूँ। रटा हुआ है कि नहीं, बस इसी पर ध्यान रहता है। जबकि
बाहर दिखाना पड़ता है मैं कितना शांत; धीर और कॉनफिडेन्ट हुँ ।
निर्देशक : बेशक । टेन्शन बनाम रिलैक्सेशन, उत्तेजना बनाम प्रशांति
– अभिनय के डायलेक्टिक्स का यह भी एक आयाम है। विश्व के सारे महारथी, डायालेक्टिकस
की समस्या के समाधान में अपना समय बिताये है। स्टानिस्लावस्कि ने जोर डाला पार्ट में
डूब जाने पर, ब्रेख्ट ने
जोर डाला पार्ट से दूर हटने पर।
मायरहोल्ड और आज के ग्रोतोव्स्की
ने इसी अन्तर्विरोध से बेचैन होकर एक अतिक्रांतिकारी समाधान प्रस्तुत किया — उन्होंने
संघर्षशील दोनों पक्षों में से एक को, युद्ध के मैदान से विदा करना चाहा, यथार्थ के
पक्ष को पूरी तरह समाप्त कर उन्होंने थियेटर को सिर्फ अतिवादी थियेटरी दाँवपेंच बनाना
चाहा। शायद सोचा कि जब अन्तर्विरोध ही नहीं रहेगा तो डायालेक्टिक्स की खींचतान भी खत्म
होगी। गॉर्डन क्रेग ने अभिनेता को निष्प्राण
वस्तु बनाने की कोशिश की थी, चेहरा मुखौटे से ढंककर
पत्थर की मूरत बनाने की कोशिश की थी। क्योंकि जीवन्त अभिनेता का अर्थ ही है डायालेक्टिकल
टग-ऑफ-वार। सर्कस के क्लाउन के चेहरे पर जो उतना रंग पुता रहता है तो लगता है कि उसकी
हंसी चिरस्थायी है, कोई मानसिक अन्तर्विरोध नहीं है उसमें। पुराने चैपलिन के विभिन्न जीत और शिकस्तों में सतही
तौर पर दिखती है एक निर्लिप्तता, उदासीनता, अन्तर्विरोध का नहीं होना, जो दर्शक को
हँसाते रहती है। पर क्या वही सच है? मुखौटे के पीछे जो आदमी है वह तो है परिवर्तनशील,
अन्तर्विरोधों से भरा हुआ। जीते जागते भाँड़ को मुखौटा पहनाने पर नये डायालेक्टिक्स
का उदभव होता है — जीवन्त अभिनेता बनाम प्राणहीन चेहरा, जीवन बनाम मृत्यु, चंचलता बनाम
स्थिति, सचल बनाम अचल, तीव्र होता है यह अन्तर्विरोध। इसलिये क्रेग, मायरहोल्ड या ग्रोतोव्स्की का समाधान कोई समाधान है
ही नहीं, बल्कि समाधान को टाल जाना या समस्या को दबा देना मात्र है। उनमें से किसी
ने मार्क्सवादी विचार को लागु नहीं किया। वे भूल गये थे कि अन्तर्विरोध है सर्वव्यापी...
अमोघ, अनिवार्य । उस अन्तर्विरोध को रोकने का व्यर्थ प्रयास न कर उसकी प्रकृति को समझने
की कोशिश करनी चाहिये। उस अन्तर्विरोध को ही अभिनेता के काम में लाना चाहिये।
जयन्त: यह बात समझ में आ रही है। सोचिये कि अगर कोई मुझे धागे से
बंधे एक पुतले का पार्ट करने को कहे। तब हर पल मेरे और पुतले के बीच संघर्ष होगा।
क्षेत्र : हालाँकि आपका अभिनय देखते हुये बहुत बार मुझे लगा कि
आप पुतला ही हैं।
जयन्तः (व्यंग को टालते हुये) लेकिन एक बात समझाइये । यथार्थ में
अवश्य ही आदमी निरन्तर परिवर्तनशील है। लेकिन नाटयकार ने जब उसे नाटक में बाँधा तब
तो वह स्थिर हो गया ! लिपिबद्ध व निर्दिष्ट हो गया ! फिर उसका परिवर्तन कहाँ ? ओथेलो
क्या हर साल बदल रहा है?
निर्देशक: बेशक बदल रहा है। आप क्या सोचते हैं? चार सौ बरस पहले
ओथेलो का अभिनय जिस तरह होता था, आज भी वैसे ही हो रहा है? क्या आप जानते हैं कि शाईलॉक
एक समय नाटक का विलेन था, आज हीरो है ? आपको क्या लगता है। कि आज का बुद्धिजीवी हैमलेट
हमेशा से ऐसा ही था ? सभी श्रेष्ठ नाटक युगों से समाज के साथ विकसित हो रहे हैं; अधिक
गहन हो रहे हैं, वर्तमान को प्रतिफलित कर रहे हैं। इस अर्थ में, लिपिबद्ध नाटक भी परिवर्तनशील
है। हर पल वह नाटक आज के दर्शक व आज के अभिनेता के सान्निध्य में आकर आधुनिक हो रहा
है। आप लोगों की सोच गतिहीन हो गई है, गतिशील डायलेक्टिक्स आपके हाथों में नहीं है
यह समझ में आ रही है। पुराने दर्शन की बुनियाद अरस्तु के आसान गणित में थी: x = x, अंक 'क' अंक 'क' के बराबर है। मार्क्सवादी
दर्शन की बुनियाद इस नये गणित में है कि x कभी भी x के बराबर नहीं, 'क' कभी भी 'क'
के बराबर नहीं। आपलोग वही पुराने गणित में अटके हुये हैं।
वासुदेव : गये काम से । नई मुसीबत आ गई । 'क' और 'क' बराबर नहीं
है ?
निर्देशक : कभी भी नहीं।
जरा दो वार 'क' लिखके तो देखिये। आधुनिकतम छपाई के यन्त्र के सहारे दोनों अक्षर छापकर
देखिये। कोई भी मजदूर जानता है कि हुबहु बराबर दो पेंच या सिलिन्डर बनाना संभव है ही
नहीं।
सुलेखा : एक सेर चावल एक सेर चावल के बराबर नहीं ?
निर्देशक : बिल्कुल नहीं। चावल के दाने गिनने शुरू कीजिये, देखिये
कितना फर्क निकलेगा। बहुतों की धारणा है कि एक रुपया सचमुच एक रुपये के बराबर है। अर्थनीति
का कोई भी छात्र जानता है कि बात सरासर गलत है। रुपये का मूल्य अनवरत बदल रहा है। वर्तमान
में एक रुपया इस इक्वल टू
पन्द्रह पैसा, अगर मेरे बोलते-बोलते और भी न गिर गया हो।
जयन्त : लेकिन अमूर्त सोच के तौर पर मान तो ले सकते हैं कि 'क'
'क' के बराबर है ?"
निर्देशक : अमूर्त ? हाँ, खूब कहा आपने — अमूर्त ! यानि कल्पित
एक दुनिया में आप सिर्फ कल्पनाशक्ति के आधार पर दो संख्या सोच सकते हैं जिनका कोई परिवर्तन
नहीं। लेकिन यथार्थ में जिसका परिवर्तन नहीं उसका अस्तित्व ही नहीं। आप बेशक अस्तित्वहीन
इन सोचों में आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। 'क' का मूल्य ही क्यों, आप एक कदम और आगे
बढ़कर परिवर्तनहीन चरम या परम का ध्यान कर सकते हैं, शनि-भगवान की पूजा भी कर सकते
हैं फुटपाथ पर । पृथ्वी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
सुलेखा: पर एक सेर चावल को एक सेर ही समझने पर तो काम चल रहा है,
दो एक दाना कम होने से हर्ज क्या है?
निर्देशक : बिल्कुल सही ! चावल खरीदते समय दो एक दाना कम या अधिक
होने पर कोई हर्ज नहीं। लेकिन कलात्मक सृजन जैसी जटिल प्रक्रिया में उस दो एक दाना
कम या अधिक का नतीजा भयानक हो सकता है। छोटे परिमाणात्मक फर्कों से कुछ आता जाता नहीं,
लेकिन बड़े गुणात्मक फर्कों के चलते कला की मौत हो सकती है ।
जयन्त : अभिनय के लिये आकर इस टेढ़े वागवितन्डा में फंसना पड़ेगा
मैंने सोचा ही नहीं था।
निर्देशक : अभिनय अगर सिरियसली करना चाहते हैं, अगर अभिनय को आर्ट
समझते हैं तो अभ्यस्त सोच की गुलामी पहले खत्म कीजिये। स्थिर, जड़वत्, परम्परागत धारणाओं
को चकनाचूर कीजिये। क्या आपलोग मार्क्सवादी कलाचिन्तनों की क्रान्तिकारी ताकत समझ नहीं
पा रहे हैं? आजतक हर चीज़, हर नाटक एवं हर पात्र को आप लोगों ने स्थिर चित्र की तरह
देखा है। डायलेक्टिक्स आपको दिखा रहा है चलचित्र । इसी दृष्टिकोण को अगर आप अपना ले
सकें तब थोड़ा आगे बढ़ा जा सकता है — प्रत्यक्ष रिहर्सल में द्वन्द्वात्मकता का सिद्वान्त
प्रयोग में लाया जा सकता है। नहीं तो बस थोड़ी आवाज अच्छी होगी, चलने फिरने में परिष्कार
आयेगा, अभिनय थोड़ा उन्नत होगा, लेकिन अभिनय में गुणात्मक प्रगति असम्भव है, असम्भव
।
[ घर में पूरी खामोशी छाई है।]
इसीलिये बोल रहा था मैं कि रोज के देखने और सुनने में डायलेक्टिक्स
का इस्तेमाल कीजिये, द्वन्द्वात्मक सोच पद्धति को आदत बना डालिये। हर कदम पर शिक्षित
कीजिये खुद को । सुबह अखवार में आपने पढ़ा – पुलिस की गोलियों से वैगन ब्रेकर मारा गया – तुरन्त एक पूरा
सामाजिक मानचित्र क्या आपकी आँखों के सामने तैरने लगा ? उस वैगन ब्रेकर के पीछे जो
व्यापारी कालाधंधा कर रहा है उसका चेहरा देख पाये आप? मृत वैगन ब्रेकर का परिवार है
आपकी आँखों के सामने ? क्या आपकी पकड़ में आई एक सोशल ड्रामा ? सड़क पर आपने देखा हड़ताली
मजदूरों का जुलुस। वर्गसंघर्ष और शोषण के प्रसंगों के अलावा क्या यह बात भी आपके दिमाग
में आ रही है कि दलाल-युनियन कई बार मालिकों के मुनाफे के हित को देखते हुये हड़ताल
करवाता है, उत्पादन घटाने के लिये ? ट्राम में किसी क्लान्त, टूटे हुये बेरोजगार युवक
को देखकर क्या आपको कभी लगता है कि सामने बैठा है संभावित हत्यारा या आत्महन्ता ? गाँव
में राह चलते हुये शीर्णकाय किसान को देखकर क्या सबमेशिनगन लिये हुये गुरिल्ला दिखाई
पड़ता है ? शाम के बाद पार्क स्ट्रीट में, नशे में चूर किसी अमीर के बेटे को गाड़ी
पर सवार होते देखते होंगे आप लेकिन उसमें एक नरसंहारक दिखाई पड़ता है ? बड़ा आदमी गिरफ्तार
हुआ है कालेबाजारी के जुर्म में — क्या आप प्रगतिशील सरकार की प्रशस्ति गाते है ? या
किसी दूसरे बड़े आदमी के आदेश पर राज्यतंत्र, बाजार से उसके प्रतिद्वन्द्वी को हटाने
की साजिश में शामिल है कि नही, इसकी तहकीकात करते हैं? लेबनान की जंग क्या सचमुच मुसलमान
और इसाईयों का साम्प्रदायिक दंगा है, या क्रान्ति है ? चीन और सोवियत के बीच केअन्तर्विरोध को क्या आप बड़ी ताकतों की प्रतिस्पर्धिता
मानकर टाल जाते हैं? या
समझते हैं कि आपके अपने देश का भविष्य भी उससे जुड़ा है ?
जयन्त: यानि दृश्यमान हर एक चीज परिवर्तनशील है। एवं अन्य सभी चीजों
के साथ अन्तर्सम्बन्धित है। किसी चीज को देखते ही वह परिवर्तन और वह सम्बन्ध भी दिखाई
पड़े, यही तो है ?
निर्देशक : मोटी भाषा में, नाटक हमारे लिये पूरी तरह एक सामाजिक
क्रिया है। समाज परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में अगर उसे आत्मसात करना हो तो हर पल, परिवर्तन
पर गौर करने की दृष्टि तैयार करनी होगी। इसके अतिरिक्त अभिनेता भी खुद एक जीवन्त आदमी
है, सतत् परिवर्तनशील है। कोई दो रिहर्सल कभी भी एक जैसा नहीं होता है, हुबहु कभी नहीं
होता है। क्या होता है?
क्षेत्र: असंभव ।
निर्देशक : इसलिये अभिनेता अगर खुद को जानना चाहे, डायालेक्टिकल
मन तैयार किये बिना कोई उपाय है ?
तीसरा दिन
निर्देशक : चूंकि 'क' कभी भी 'क' के बराबर नहीं हो सकता है, एक
सा अभिनय करना भी संभव नहीं। नाना प्रकार के बिजनेस, चलना-फिरना, उठना-बैठना सारा कुछ
मैं लगभग हबहू करता जाऊंगा, लेकिन अपने मानस को हर शाम एक ही मार्ग पर उपर की ओर ले
जाने की बात करना भी वाचालता है। स्तानिस्लाव्स्की
ने यही करना चाहा था विभिन्न अभ्यासों में अभिनेता को बांधकर जीवन के अन्त में आकर
हार मान चुके थे। मार्क्सवादी ब्रेख्ट ने समझा कि यह संभव नहीं, सो उन्होने सीधा कह
दिया कि इसकी जरूरत भी नहीं, अभिनेता के मानस को जब हर शाम, जटिल पात्रों की टेहीमेढ़ी
गलियों में प्रवेश कराना संभव नहीं हो रहा है, तो पात्रों को जटिल बनाना बन्द हो –
गलियों के रास्ते तोड़कर चौड़े चौराहे बनाये जायें। दर्शक अलग-अलग दो तरफों को देखकर
खुद ही उन्हे एक कर लेंगे। यही महाकाव्य का धर्म है एपिक की विशिष्टता है। अर्जुन कभी
महावीर हैं, कभी युद्ध से विमुख।
कर्ण कभी नारी उत्पीड़क है, कभी मातृस्नेह से वंचित अभागा, कमी त्रिभुवन पर विजय पाने
वाला वीर कभी महानतम दाता। इन सभी रूपों को एक साथ दिखाने की जरूरत व्यासदेव ने महसूस
नहीं की, एक एक अध्याय में कर्ण का एक एक रूप है। ब्रेख्ट उसी राह पर चले, इसीलिये
उनका थियेटर एपिक थियेटर है। लेकिन मार्क्सवादी होने के नाते हम इस समाधान से संतुष्ट
नहीं हो सकते। एपिक तो हमें कथावाचकजी सुनाते हैं अपने लय में, एक दूरी बनाते हुये।
अभिनेता को खुद कर्ण होना पड़ता है। ब्रेख्ट जितना भी कहें कि अभिनेता को कथावाचक जैसा
ही निरपेक्ष, निर्लिप्त रहना पड़ेगा, व्यवहार में वैसा होता नहीं। मैं बोल रहा हूँ,
खुद अपनी आँखों से देखकर। हेलेन वाइगेल को हर पल मदर करेज (mother courage) की जटिलता
में डुबना पड़ा है, एकेहार्ड शाल को अर्तुरो उई जैसे पात्र की विभिन्न अजीव समस्याओं
से जूझना पड़ा है। ब्रेख्ट लिखकर चले गये – यहाँ मदर करेज महज एक व्यापारी है और यहाँ
वह माँ है। लेकिन मंच पर पहुँचकर हेलेन वाईगेल को व्यापारी के पात्र में भी माँ को
धारण करना पड़ा, नहीं तो शायद एक विशिष्टता से दूसरी विशिष्टता में वह नहीं जा पाती।
मंच पर एक भाव से दूसरे भाव तक अचानक नहीं पहुँचा जा सकता है। इसलिये ब्रेख्ट के हाथों
बने सशक्त अभिनेताओं ने ब्रेख्ट के सामने ही ब्रेख्टीय पद्धति का उल्लंघन किया है बारवार।
क्योंकि ब्रेख्ट के सिद्धांतो में आदमी थोड़ा कृत्रिम तरीके से विच्छिन्न किया गया
है, अलग अलग कटे हुये टुकड़ों में दिखाया गया है। मार्क्स के दर्शन के अनुसार आदमी
का विश्लेषण उस प्रकार से करना गैरकानूनी है। जयन्त: यानि ब्रेख्ट की पद्धति में भी
मूल समस्या – अभिनेता की मानसिक स्थिति रह ही जाती है। जटिल पात्र के
सृजन के लिये अभिनेता के मन की जो स्थिरता, एकाग्रता, प्रशान्ति
और तत्परता की जरूरत है, वह हर दिन एक जैसी नही रहती है।
निर्देशक : बिल्कुल सही, लेकिन, रहना जरुरी भी है। हर दिन हूबहू
एक नहीं रहेगी, लेकिन लगभग एक जैसी रखनी पड़ेगी। (ऊंची आवाज में) और यह किसी दूसरे
तरीके से नहीं बल्कि सिर्फ अन्तर्विरोधों के सिद्धांत को सचेत रूप से लागु करने से
ही संभव हो सकता है।
सुलेखा: दंभ
से विकल्प नहीं खड़ा किया जा सकता है ब्रेख्ट का।
निर्देशक दंभ नहीं, आत्मविश्वास। चूँकि मार्क्सवाद सत्य है, चुकि
डायालेक्टिक्स एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति है, इसलिये हम मार्क्सवादी दृढ आत्मविश्वास
रखते हैं।
सुलेखा : आप कहना क्या चाह रहे हैं ? क्या सिद्धांत आपका?
निर्देशक : अभिनेता की मानसिक स्थिति में फर्क क्यों होता है? पहला
कारण है कि वह कई सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से पीड़ित है, इसका समाधान है क्रांति, अतः
वक्त का तकाजा है कि इस पर बहस फिलहाल स्थगित रहे। दूसरा कारण है कि अभिनेता मंच पर
आकर कई छोटे छोटे सवालों में उलझ जाता है। अपना स्वास्थ्य, अपनी आवाज, कन्ठस्थ रखने
की कला यह सब तो हैं ही, इन सबके उपर यह उलझन भी रहता है कि किस लम्हे में अपने पात्र
की कौन सी विशिष्टता वह अपनायें। मोटे तौर पर अपने पात्र की एक व्याख्या तो वह रिहर्सल
के वक्त ही खड़ी कर देता है। शुरू-शुरू की प्रस्तुतियों में वह थोड़ा डरा हुआ रहता
है, किसी प्रकार रिहर्सल में हासिल नक्शे को ही बस उतारकर अपना पसीना पोंछता है। लेकिन
जैसे जैसे प्रस्तुतियों की संख्या बढ़ती है, उतना अधिक, डायलॉगस को वह अपनी मुट्ठियों
में पाता है, और उतना ही अधिक पात्र को 'और बेहतर' निभाने का एक अनिर्दिष्ट नशा उस
पर छा जाता है। तभी समस्या आती है। इतना वह समझता हैं कि पात्र के कई आयाम हैं, कई
रुख हैं। लेकिन कब कौन सा आयाम या रुख किस तरह दिखाया जाय इस प्रश्न का समाधान वह नहीं
कर पाता है। तब क्रोध वाला हिस्सा 'अति
उत्तेजित' होने लगता है, प्रेम का दृश्य 'अतिद्रवित’ हो जाता है, हत्या का दृश्य जरूरत
से ज्यादा हिंस्र हो उठता है। अगली रात को फिर थोड़ा हेर-फेर कर अपने मन में वह आकलन
करता है 'और बेहतर' हुआ कि नहीं। लेकिन, और बेहतर होने के बजाय और उलझा हुआ, और अधिक
अनिश्चित एवं कई बार पूरा का पूरा अतिअभिनीत हो जाता है। यह तो आप सब लोग, मैं उम्मीद
करता हूँ, अपने अनुभवों से देख रहे हैं!
बासुदेव : मेरे जीवन में यह हमेशा होता है। रोल अपने कब्जे में
आ जाने के बाद पात्र की गहराई में प्रवेश करने की बात सोचते हुये देखता हूँ, पात्र
और धुंधला हो गया है। तब कई तरह से अभिनय करते हुये जाँचते रहता हूँ कौन सी बात किस
तरह कहूँगा।
जयन्त : और बोलने का वही अन्दाज उठाते
हैं जो, लगता है कि दर्शकों को अच्छा लगा है।
निर्देशक : यानि पात्र के विश्लेषण की दृष्टि से कौन सा सही है
इस पर विचार करना छोड़कर सिर्फ ताली बजवाने या हँसाने का रास्ता ढूंढते हैं। इसीलिये
में कह रहा था कि अभिनेता की दृष्टि मूल प्रश्न से गौण प्रश्न की ओर भटक जाती है –
पात्र से दर्शक की ओर चली जाती है। फलस्वरूप उत्कृष्ट सृजन के अनुकूल मानसिक परिवेश
को वह खो देता है। क्या आदमी का मन मिजाज हर रोज एक रहता है? यह प्रश्न अवांतर है।
पेशेवर अभिनेता दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ, पूरे जीवन की साधना के साथ, मन के इधर उधर भागने
की प्रवृत्ति को जीत कर अभिनय करने के लिये आते हैं। मंच उनके लिये कला की साधना का
मंदिर है। कुछेक निहायत उचक्के फिल्मी छोकरों के सिवा सभी ने अभिनय को संघर्ष के हथियार
के रूप में स्वीकार किया है। इसलिये यह सब गलत धारणायें हैं कि पारिवारिक कारणों से
अभिनेता का मन विक्षिप्त होता है या आर्थिक कारणों से वह चिन्ताग्रस्त रहता है। हम
जिन अभिनेताओं की बात कर रहें हैं। वे वैसी ही प्रतिज्ञा के साथ थियेटर में आते है
जैसी प्रतिज्ञा के साथ एक कम्युनिस्ट राजनीति के क्षेत्र में आता है। कैबरे वाले नाटय-बलात्कारियों
के मन में क्या होता है या नहीं होता है हम नहीं जानते हैं – जानने की जरुरत भी नहीं
समझते हैं। शायद वे किसी दिन अभिनय में इसलिये मन को केन्द्रित नहीं कर पाते क्योंकि
उसदिन पूरा शराब वे नहीं पी रखे होते हैं। उनके मन को केन्द्रित नहीं कर पाने पर नाटयशाला
का कुछ नहीं बिगड़ता है। हम जिनकी बात कर रहे हैं वे 103° बुखार लेकर मंच पर आते हैं,
श्मशान में पिता के शरीर का राख छोड़कर सीधे चले आते हैं नाटयशाला में हाजिरी देने
के लिये, नन्ही बेटी का बीमारी से जर्जर शरीर घर में छोड़कर भागते हुये आते हैं – मेकप
करने के लिये बैठ जाते हैं। हम नाट्ययोद्धाओं के बारे में विचार कर रहे हैं। एवं युद्ध
के लिये, आदर्श के प्रति निष्ठावान उनका उद्यम देखकर मुझे बार बार लगा है कि स्तानिस्लाव्स्की, ब्रेख्ट या पिस्काटर ने
अभिनेता की मानसिक चंचलता के बारे में जो कुछ कहा है वह आंशिक सत्य है मात्र। दिनभर
की थकान या व्यक्तिगत दुख-बदहाली के कारण अभिनेता की एकाग्रता नष्ट होती है, यह बात
पूरी तरह सच नहीं है। कठोर अनुशासन नियमों का अनुपालन एवं आदर्श के प्रति निष्ठा के
द्वारा इस कमजोरी को जीता जा सकता है। नहीं तो विश्व के नाटयशालाओं में एक दिन भी अच्छा
अभिनय नहीं हो पाता। कहाँ से मिलेगा हमेशा सुखी, सदा
आनन्दमय, दाम्पत्य सुख भोगने
वाले अभिनेता अभिनेत्रियों का एक दल ? इस दुनिया में तो नहीं। इसलिये उन बातों में
कोई दम नहीं। प्रबल दुःख से भी उत्कृष्ट सृजन संभव होता है। तीव्र ज्वाला के बीच से
गोर्की निकल आते है, आधा पेट खाकर शेक्सपियर ने लिखा, भूखे शुबर्ट ने अमर संगीत की
रचना की, आवारा घूमने वाले जैक
लन्दन ने शाश्वत क्लासिक लिखा । नहीं, दुःख और गरीबी कोई बाधा नहीं – धरती पर अपनी
लम्बी छाया के साथ वाल्ट व्हिटमैन सामने खड़े हैं। बल्कि इतिहास में कई बार व्यक्तिगत
दुख, भव्य कला के सृजन की सामग्री साबित हुआ है।
सुलेखा : नहीं तो फाँसी के एक रात पहले कवि कविता कैसे लिखते हैं?
जेल खटने वाला, सब कुछ खोया हुआ अपराधी जाँ
जेने कैसे बन जाता है?
बासुदेव : खास तौर पर क्रांतिकारी लेखक कलाकार तो गरीबी और जुल्म
का आलिंगन करते है सहोदर की तरह। यही तो देखता हूँ इतिहास में। जेल, कोडे अत्याचार – यह सब
उन्हे महान कलाकार बनाता है – यही सिलसिला तो जारी है। विक्टर हुगो से बर्तोल्ट ब्रेख्ट
तक।
निर्देशक : तो फिर अभिनेता कौन ऐसा दुलार से पला लडडुगोपाल होता
है कि व्यक्तिगत बदहाली कि आँच बर्दाश्त नहीं कर पाये ? माणिक बन्दोपाध्याय और सुकान्त
कौन सा राजभोग खाकर कलम उठाते थे? काजी नजरुल इसलाम को किसी आगा खाँ महल में बन्दी
बनाकर नहीं रखा गया। चारण कवि मुकुन्द दास तो पुलाव नहीं खाये जेल में बैठकर? नहीं,
नहीं। मुझे लगता है अभिनेता की समस्या दुसरी है। मन को कहाँ केन्द्रित करना पड़ेगा
यह तय नहीं कर पाना ही उस की विपत्ति है। नाटक जो बोलना चाहता है वह बोलता है, नाटक
में उसके पात्र की क्या भूमिका है वह जानता है, सारे डॉयलाग्स उसके कन्ठस्थ हैं, सारा
बिजनेस उसकी उंगलियों पर हैं लेकिन रोज के अभिनय में यह सब उसकी मदद नहीं कर पा रहा
है। यह सब उसके हाड़मास मज्जा में समा गया है। लेकिन उसकी चेतना, उसके मानस की व्यस्तता
किस विषयवस्तु पर होगी यह वह नहीं जानता है, सीखता भी नहीं है। 'सचेत मन को किस चीज
से भरा रखूंगा' इस प्रश्न का समाधान वह नहीं कर पा रहा है। इसलिये सूनी आँखे फैला देता
है दर्शकों की ओर।
जयन्त : समाधान है क्या?
निर्देशक : डॉयालेक्टिक्स (थोड़ी खामोशी)
जयन्त : मतलब ? साफ-साफ बोलते क्यों नहीं?
निर्देशक : दो अभिनय या दो रिहर्सल जब किसी भी स्थिति में एक जैसे
हो ही नहीं सकते हैं तब शुरू में ही यह कहा जा सकता है कि आत्मविभोर अभिनेतागण खतरनाक
चीज हुआ करते हैं। जो कहते हैं कि अभिनय में डूब जाना चाहिये उनके दो अभिनयों में फर्क
घटने के बजाय बढ़ जायेगा। ऐसे ही जहाँ अनुशासन की कमी हैं, वहाँ अनुशासनहीन मूड- विशेषज्ञ
अभिनेता के आगमन पर धरती डोलने लगेगी। नहीं! सचेत और सतर्क अभिनेता ही, दो अभिनयों
के बीच होने वाले अनिवार्य भिन्नताओं को निम्नतम स्तर पर नियंत्रित रख पायेंगे। पिछले
दिन हमने कहा था कि अभिनय एक ऐसा विषय ही है जो डायालेक्टिकल है। आप मंच पर भूल नहीं
सकते हैं कि आप जयन्तबाबू हैं। गो कि आप हैमलेट भी हैं। आप एक ही साथ हमलेट है भी और
नहीं भी हैं। इस स्थिति में मंच पर आकर आप किस विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे?
इतने दिनों तक, दर्शकों ने क्या सोचा, कहाँ उन्होने तालियाँ बजाई इन बातों पर अपना
ध्यान आपने बर्बाद किया। यानि इतने दिनों तक मंच पर आप पूरी तरह जयन्त बाबु ही रहे,
हैमलेट होना भूल गये। हैमलेट को क्या फिक्र है कि वह दर्शकों का मुसाहिबगिरि करे? क्या
करना चाहिये था? अगर हम मान लें कि पार्ट पूरी तरह आपके कब्जे में हैं, कन्ठस्वर साफ
हैं, स्वास्थ मोटे तौर पर अच्छा है, सारा बिजनेस कन्ठस्थ है, शरीर की तत्परता चलने
लायक है तब मंच पर हर पल आपको ध्यान देना चाहिये पात्र के डायालेक्टिक्स पर। याद रखना पड़ेगा कि नुक्कड़
नाटक या सीधे प्रचार नाटकों में यह टेकनिक व्यर्थ होगा क्योंकि उन नाटकों में अधिकांश
पात्रों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है, डायालेक्टिक्स नहीं है। उन नाटकों के पात्र विभिन्न
राजनीतिक ताकतों के प्रतीक मात्र है। प्रतीक के तौर पर ही उनका मंच पर आना जरुरी है,
जटिलता लाने पर नाटक का उद्देश्य ही बर्बाद हो जायेगा। लेकिन जिन नाटकों में गहराई
अधिक है उनमें पात्रों का दोहरा सत्व रहेगा ही। इसलिये पार्ट-वार्ट कब्जे में आ जाने
के बाद अभिनेता का पूर्ण, अखण्ड ध्यान पात्रों के दोहरेपन, अन्तर्विरोध, विरोधाभासों
पर केन्द्रित होना चाहिये। हर पल, हर लम्हा, सचेत रूप से – मूड-फूड जहन्नुम में जाये …
सुलेखा: किस तरह? ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ।
निर्देशक : जयन्तबाबु, आप 'सीगल' नाटक के पहले दृश्य का वह हिस्सा
बोलिये जहाँ कोस्त्या त्रेप्लेव ने गुस्से में आकर नाटक का अभिनय बन्द कर दिया।
जयन्त : इतने दिनों तक जिस तरह से बोलता आ रहा हूँ उसी तरह बोलू?
निर्देशक : हम दर्शक हैं, स्टेज पर जिस तरह बोलने को सोचते रहे
हैं उसी तरह बोलिये।
जयन्त (थोड़ा सोचकर) "नहीं। पर्दे गिरा दो! ऐसा कोई नहीं यहाँ
पर जो नाटक समझे। यहाँ जो लोग बैठे हैं वे सिर्फ खुद से प्यार करते हैं, और स्वार्थी
लोगों को कला की समझ नहीं होती। नाटक बन्द।
नहीं होगा – नहीं होगा नाटक।" (कोस्त्या बना जयन्त जैसे दौड़कर मंच से बाहर निकल
जाता है)
निर्देशक : लौट आइये, लौट आइये।
( जयन्त वापस आता है )
जयन्त : कैसा हुआ?
निर्देशक : थर्ड क्लास। क्या किया आपने ?
जयन्त: गुस्से से काँपने लगा मैं। चीखा।
निर्देशक : क्योंकि आपकी समझ हैं कि गुस्से में आने पर लोग चीखते
हैं।
जयन्त: दर्शकों की समझ है।
निर्देशक : दर्शकों का यह अंधविश्वास है और आप अपने पात्र को छोड़कर
उनकी मामूली सी चाह पूरी करने में लग गये। यही होता है। मंच पर भी यही होता है। एकबार
पार्ट कब्जे में आ जाने पर तुरन्त किसी तरह दर्शक के मनोरंजन की ओर अभिनता का झुकाव
हो जाता है। जबकि आपको समझना चाहिये था कि क्रोध का अर्थ ऊँची आवाज नहीं है। रोज की
जिन्दगी में ट्राम का टिकट काटने को लेकर जो गुस्सा वगैरह होता है उसमे शायद चीखना
चिल्लाना ही मुख्य अभिव्यक्ति बन जाती है। लेकिन चेखोव पर यह लागू नहीं होता। चेखोव
क्रोध के गहन विश्लेषण में गये हैं। दर्शकों की प्राथमिक अपेक्षा पूरी करने के वजाय
क्रोध के इस विचित्र जटिल चेहरे की तरफ उनकी उत्सुकता को जगाना आपका पहला कर्तव्य था।
इसी के लिये दर्शक चेखोव को देखने आये हैं, आवेगों के सुक्ष्मतर स्वरूप को समझने आये
हैं, मानवमन के अनेक अंधेरी गलियों का मानचित्र देखने आये हैं। और यह आप दर्शकों को
उपहार दे पाते अगर पात्र के दुहरेपन, उसके अन्तर्विरोध, उसके डायालेक्टिक्स को लेकर
आप व्यस्त रहते।
जयन्त: मतलब?
निर्देशक : इस समय कोस्त्या का अन्तर्मन एक कुरुक्षेत्र बना हुआ
है। आप बोल रहे हैं वह क्रोधित है। किस पर?
जयन्त: अपनी माँ पर।
निर्देशक : क्यों?
जयन्त : क्योंकि माँ बार-बार चीख कर नाटक की आलोचना कर रही थी।
निर्देशक : वही अन्तिम बात नहीं है। कोस्त्या जानता है कि नाटक
खराब नहीं हुआ है। वह जानता है कि माँ की आलोचना
में ईमानदारी नहीं हैं। वह महसूस कर रहा है कि माँ की तीखी फटकार ईर्ष्या के कारण है।
इसीलिये वह बोल रहा है: यहां जो बैठे हैं वे सिर्फ खुद को प्यार करते है। यहाँ बहुवचन
सिर्फ औपचारिकता की खातिर, दरअसल एकमात्र लक्ष्य है कोस्त्या की माँ। यहाँ आपके बिजनेस में भी गलती
थी। आपकी आँखे सभी अतिथियों के चेहरे पर घूम रही थी। आपने पंक्ति को शब्दशः लिया, उसके
गुढ़ अर्थ में आप नहीं गये। हर पंक्ति में भी तो डायालेक्टिक्स है। बड़े नाटयकारों
के डॉयलाग कई बार विपरीत अर्थों के वाहक होते है। प्रकाशित अर्थ सिर्फ अप्रकाशित की
ओर इशारा करने के लिये होता है। कोस्त्या
दरअसल बोल रहा है: कोई माँ अपने गर्भजात सन्तान के प्रति इतना नीच एवं स्वार्थी ईर्षा
रख सकती हैं यह मैं नहीं जानता था। इसलिये कोस्त्या यहाँ एक ऐसे युद्धक्षेत्र में है
जहाँ प्यार और घृणा एक दूसरे के साथ तलवारबाजी में लिप्त है। इसलिये क्रोध यहाँ माँ
के प्रति अभिमान ज्यादा है। तो जयन्त बाबु, क्या यह क्रोध चीख बनेगा?
सुलेखा: मुझे लगता है कोस्त्या की बातें यहाँ रोने जैसी है।
बासुदेव : मुझे भी अब लग रहा है। दबे हुये रुदन की तरह वे शब्द,
सीने का पंजर तोड़ते हुये निकलने चाहिये।
जयन्त: (अचानक) और अन्त के वे शब्द ‘नाटक बन्द। नहीं होगा – नहीं होगा नाटक’
इसतरह बोलना चाहिये जिससे .. जिससे लगे कि कोस्त्या मतलब कोस्त्या बोल रहा हो ‘मेरे जीवित रहने का अब कोई अर्थ नहीं’।
निर्देशक : बहुत अच्छे अभिमान हमेशा आत्मघाती होता है। दूसरों को
आहत करने के बजाय खुद को आहत करना उसे अच्छा लगता है। तब, जयन्तबाबु, आप अगर दर्शकों
को चमत्कृत करने के लोभ पर काबू पाकर पात्र के डायालेक्टिक्स के प्रति ध्यान देते तो
दर्शक और अधिक चमत्कृत होते। यह हुआ दर्शकों का डायालेक्टिकस जितना आप दर्शकों को भूलेंगे
उतना ही अधिक वे आपके प्रति आकृष्ट होंगे। जितना अधिक आप पात्र की गहराई में जायेंगे
उतना ही दर्शक, मानवचरित्र का नया दिगन्त देखकर रोमांचित होंगे। इसके विपरीत अगर आप
दर्शकों का ख्याल कर अभिनय करेंगे तो अनिवार्य तौर पर आप पात्र को मामूली, आसानी से
समझ में आने वाला अधिकांश दर्शकों के लिये सरल करने के खेल में जुट जायेंगे। इससे उन
अधिकांश दर्शकों का आशीर्वाद नहीं मिलेगा, बल्कि धिक्कार मिलेगा। क्योंकि कोस्त्या
को देखकर उन्हें नया कुछ नहीं मिलेगा, आदमी की नई पहचान नहीं मिलेगी, रोज की जिन्दगी
में जो वे देख रहे हैं उससे अतिरिक्त कोई अनुभव उन्हे हासिल नहीं होगा। एक पंक्ति में
कहा जाय तो कलाकार के रूप में आप अपने कर्त्तव्यों से चूक जायेंगे।
जयन्त : आज जो मैंने समझा, उसका सारमर्म यही है कि – पहले ही जो
बात दिमाग में आये वह अक्सर गलत होती है। क्रोध आने पर चीखना, प्यार के इजहार में आवाज
का कोमल होना, हँसी की बात कहने के लिये मुंह चिढ़ाना ये कोरी शाब्दिकतायें हैं, ऑबभियस
(obvious) बिजनेस, कला नही ।
निर्देशक : बिल्कुल सही । पात्र की गहराई में अगर अनवरत प्रवेश
की चेष्टा की जाय तो देखेंगे कि आमतौर पर दिखता हुआ पूर्वनिर्धारित किसी साँचे में
आदमी को बाँधना संभव ही नहीं। हैमलेट ओफेलिया से प्यार करते हैं इसीलिये उसे कुत्सित
भाषा में अपमानित करते है – सुनने में क्या विचित्र नहीं लग रहा हैं? मुर्ख अभिनेता
को विचित्र लगेगा, अच्छा अभिनेता यह बात सुनते ही प्रेरित हो उठेगा। ओथेलो ने डेसडिमोना
की हत्या की, क्योंकि उनसे वह प्यार करते थे – मानवचरित्र के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ
ने इसी तरह इस समस्या को पेश किया। इस बिन्दु पर विश्व नाटय- शाला में जो क्लासिकल
विमर्श जारी है – दर्शकों को भूलेगें या दर्शकों से बातें करेंगे – हम उस विमर्श का
अर्थ ही समझने में अक्षम हैं। दर्शकों को भूलेंगे नहीं, और दर्शकों से बातें भी नहीं
करेंगे – यही तो इसका डायालेक्टिकल समाधान है। थियेटर एक ऐसी जगह है जहाँ हम दर्शकों
से जितना दूर जायेंगे उतना ही पास आयेंगे। मैं जितना अधिक हैमलेट के अविश्वसनीय अन्तर्विरोध
में प्रवेश करूंगा उतना ही दर्शक उसपर विश्वास करेंगे। मैं जितना अधिक ओथेलो कि जटिल
समस्या में डूबकी लगाउंगा, दर्शक उतना ही मानवमन के अज्ञात रहस्यों के प्रति आकृष्ट
होगा। ‘पार्ट में डूब जाओ' वाली छिछली बातें यहाँ नहीं हो रही है। हम बोल रहे हैं कि
सचेत तौर पर, पात्र के डायालेक्टिक्स पर विचार करने का रुख अपनाओ। हर पल अभिनेता के
मन को दृढ़ता के साथ बँधा रहना पड़ेगा पात्र के अन्तर्विरोध में। कोस्त्या के उस प्रसंग
में लौटकर कहूँ तो एक ही साथ क्रोध और प्यार को प्रस्तुत
करना होगा। क्रोध और प्यार के एक साथ उत्पन्न होने को ही तो हम अभिमान कहते है बंगला
में। और अब जब हमने जान लिया कि दो अभिनय किसी भी तरह हूबहू एक नहीं हो सकते तो उस
अभिमान का चेहरा भी हर शाम हूबहू एक नहीं होगा। किसी दिन क्रोध का हिस्सा कुछ ज्यादा
हो जायेगा, किसी दिन प्यार का हिस्सा। लेकिन इन दो आवेगों का आनुपातिक सन्तुलन बनाये
रखना एक होल-टाईम जॉब है। कभी प्रेम-वर्जित विशुद्ध क्रोध न फूट पड़े, या क्रोध-वर्जित
सिर्फ प्यार न छलक पड़े इस प्रयास में निरन्तर लगे रहना पड़ेगा अभिनेता को । इसी तरफ
उसका एकाग्र अखण्ड ध्यान निवेशित हो। इसके बाद के दृश्य में फिर दूसरी समस्या है –
अपनी प्रेयसी से प्यार कर कोस्त्या माँ को आहत करना चाह रहा है जबकि माँ को दूर हटा
देने के कारण प्रेयसी का साथ असह्य हो रहा है – यानि फिर डायलेक्टिक्स । प्रेमपूर्ण
संवाद की हर पंक्ति के पीछे फिर वही आत्मनाशी अन्तर्विरोध। 'प्यार करता हूँ' बोलने
के पीछे 'घृणा करता हूँ' बोलने का आभास।
इस अन्तर्विरोध का अन्तिम समाधान रिहर्सल में ही कर डाले ऐसा अभिनेता इस दुनिया में
नहीं है। हर शाम हर अभिनय में नये तरीके से इन दोनों आवेगों का एक साथ सृजन करने के
खेल में मशगूल होना पड़ेगा अभिनेता को । जो अभिनेता डायालेक्टिक्स का प्रयोग करता है
वह हर शाम नया सृजन करता है – उस सृजन में कभी प्यार अधिक हो जाता है तो कभी घृणा की
तीव्रता। लेकिन महज प्यार या घृणा दिखाकर छिछला अभिनय वह कभी नहीं करता है। इसलिये
अभिनेता के सारे हथकंडे, दर्शकों को उद्देश्य बनाकर पेशेवर खेल दिखाकर ताली बजवाने
के कूप्रयास मात्र हैं। डायालेक्टिक्स में निवेशित मन को समय ही नहीं मिलेंगा उन सब
बातों को सोचने का। तब बन्द होगा अभिनेताओं का मंच पर खाली मन घूमना, जो थके हुये अभिनेता
के जीवन में अक्सर होता है। अनमना अभिनेता बिना कुछ सोचे हुये कन्ठस्थ संवाद बोलते
जाते हैं, चलने फिरने के सारे निर्देशों का अनुपालन करते हैं यांत्रिक तौर पर। डायालेक्टिस
के विश्लेषण में डूबे अभिनेता का मन भरपूर, लबालब रहेगा। धोखा देकर रटा हुआ पार्ट दुहराना
उनके लिये असंभव है। उनकी हर बात, हर अंग-संचालन के पीछे रहेगा विपरीत मुखीन आवेगों
का संघर्ष, फलस्वरुप बोलना और चलना दोनों ही, हर पल रससंतृप्त होगा ।
[तीन दिनों की यह शृंखला कभी जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार की पत्रिका 'लोकरंग' में छपी थी। ]
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