30 अक्तूबर 2000 को सुबह 6.00 बजे साथी नरेश पाल, बैंक इम्प्लाईज फेडरेशन आफ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष तथा कोचिन सम्मेलन में चुने गये संगठन के स्थाई उपदेष्टा, हमें छोड़कर चले गये। तब वह 84 वर्ष के थे एवं कई महीनों से बीमार चल रहे थे ।
साथी नरेश पाल का जन्म सन1916 की पहली मार्च को, वर्तमान बांग्लादेश में हुआ था। स्नातक की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के उपरान्त, सन् 1944 में उन्होंने सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया (जो उस समय निजी क्षेत्र में एक लिमिटेड कम्पनी थी) में नौकरी करनी शुरू की । वह उन कुछेक लोगों में से एक थे जिनके प्रयासों ने, देश भर के बैंक कर्मचारियों के, अलग-अलग हो रहे आन्दोलनों को एक अखिल भारतीय स्वरूप दिया जिसके नतीजे के तौर पर सन् 1945 में ऑल इंडिया बैंक इम्प्लाईज एसोसियेशन की स्थापना हुई। सन् 1946 में उन्होंने अपने साथियों के साथ सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया इम्प्लाईज एसोसियेशन (पं. बंगाल) की स्थापना की एवं इस संगठन के प्रथम महासचिव चुने गये। सन् 1948 के 5 अगस्त को, एस०के०सेन० ट्राइब्यूनल एवार्ड को लागू करवाने के लिए सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया इम्प्लाईज एसोसियेशन (पं० बंगाल) ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की शुरूआत की। वीरतापूर्ण यह हड़ताल 19 दिनों तक चली, जिसके दौरान साथी नरेश पाल सहित अन्य नेताओं पर शारीरिक हमले किये गये। इस हड़ताल के समर्थन में पूरे पश्चिम बंगाल में सभी बैंकों के कर्मचारी आन्दोलित हो उठे और इस तरह यह एक इतिहास बन गया। साथी नरेश पाल का जुझारूपन, सांगठनिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता, बैंक के मालिक, प्रबन्धन तथा सरकार के लिये चिन्ता का कारण बन रही थी। हड़ताल के दौरान नरेश पाल सहित कई नेताओं की गिरफ्तारी एवं नौकरी से बर्खास्तगी हुई। बाद में उनमें से कईयों को फिर से बहाल किया गया। जब साथी नरेश पाल, प्रबन्धन के किसी भी शर्त को मानने को तैयार नहीं हुए तो प्रबन्धन ने उन्हें निःशर्त नौकरी में वापस आने का प्रस्ताव दिया। पर साथी पाल तब तक जीवन के बड़े उद्देश्यों के सामने खड़े हो चुके थे। पूरे बैंक कर्मचारी आन्दोलन को उनके जैसे धैर्यशील, समझदार संगठनकर्त्ता की जरूरत थी। बंगाल के अन्य मजदूर आन्दोलनों को भी उनकी जरूरत थी। इसलिए सन् 1948 में नौकरी से बर्खास्त होने के बाद से लेकर अन्तिम साँस तक साथी पाल, बैंक कर्मचारी एवं मजदूर आन्दोलन के पूरावक्ती कार्यकर्त्ता बने रहे।
आल इंडिया बैंक इम्प्लाईज एसोसियेशन एवं इसकी पश्चिम बंगाल इकाई के विभिन्न पदों पर वह कार्यरत रहे बैंक इम्प्लाईज फेडरेशन ऑफ इंडिया ने अपने स्थापना सम्मेलन में उन्हें अध्यक्ष चुना। अस्वस्थता के बावजूद वह बेफी के कोचिन सम्मेलन में उपस्थित रहे। स्वास्थ्य के ही कारण उन्होंने जब अध्यक्ष पद त्यागने की इच्छा जताई तो सम्मेलन ने भारी मन से उनकी इच्छा को स्वीकार किया तथा उन्हें आजीवन संगठन का उपदेष्टा बने रहने का, एवं संगठन के सभी मंच पर स्थाई विशेष आमंत्रित रहने का सम्मान दिया।
बिहार के संगठन के साथ साथी नरेश पाल का विशेष सम्बन्ध रहा है। यह अब इतिहास है कि अखिल भारतीय स्तर पर बेफी के गठन से पहले, देश का पहला प्रांत था बिहार जहाँ, समझौतापरस्ती तथा सांगठनिक जनतंत्र पर कुठाराघात के विरूद्ध प्रान्तस्तरीय संगठन बिहार स्टेट बैंक इम्प्लाईज युनियन के नाम से बना था। बाद में इसी संगठन का नामकरण हुआ बैंक इम्प्लाईज फेडरेशन, बिहार। इस संगठन के स्थापना सम्मेलन में साथी नरेश पाल लगातार मौजूद रहे एवं मार्गदर्शन करते रहे।
बिहार के संगठन ने जब भी उन्हें बुलाया उन्हें अपने बीच पाया। ओजस्वी वक्ता वह नहीं थे। पर संगठन के एक एक साथी के लिये, पिता जैसा स्नेह और ममता भरा रहता था उनमें। अपने नम्र स्वर के भाषणों में, छोटे-छोटे सहज वाक्यों से यथार्थ के उस द्वन्द्वात्मक विकासमार्ग को बुनते थे जिससे होकर एक संगठन को गुजरना पड़ता है (बेफी को गुजरना पड़ा) - संयुक्त संघर्ष एवं स्वतंत्र पहल जो एक दूसरे को मजबूत करता है एवं अन्ततः एक वर्ग की व्यापकतम एकता कायम हो पाती है।
हम बिहार के साथियों को नरेशदा एक और कारण से याद आते हैं। वैसे तो खुद साथी नरेश पाल या साथी आशीष सेन सहित बेफी के सभी नेता बिहार में विभिन्न बैंकों के राज्य स्तरीय सम्मेलनों में हमेशा आते रहे हैं। ऐसे सादगी भरे नेतृत्व (जो किसी साथी के स्कूटर के पीछे बैठकर स्टेशन से होटल और होटल से सम्मेलन स्थल पहुँच जाते हों, होटल भी सामान्य हो) को देखकर अन्य संगठनों के सदस्य अचंभित रह जाते थे। लेकिन कभी-कभी ऐसा वक्त भी आता था कि किसी बैंक का राज्यस्तरीय संगठन का सम्मेलन सर पर हो, हम सभी बैंकों के साथी जिला संगठन के आह्वान पर पटना में, मुजफ्फरपुर में या गया में, जमशेदपुर, राँची, धनबाद में उसकी तैयारी में लगे हों और ऐन वक्त पर सूचना पहुँचे कि उद्घाटन कर्त्ता / मुख्य अतिथि नहीं आ पायेंगे। तब हमारे शरणस्थल बनते थे नरेश दा उनके पास पहुँचकर अपनी समस्या बताते थे। वह फोन घुमाकर किसी न किसी नेता को आदेश दे ही डालते थे हमें संकट से उबारने के लिये; उनके आदेश को टालना किसी के लिये संभव नहीं होता था 3 यह बात कई बार कही जा चुकी है कि सादगी की प्रतिमूर्ति थे वह । लेकिन फिर भी इस बात को दुहराये जाने की जरूरत है। पूंजीवादी बाजार की चकाचौंध और एवं पाशविक उपभोक्तावाद, हमारी आत्माओं में जो स्याह बवंडर खड़ा करता है, संगठन और संघर्ष की जरूरत से यहाँ तक की इन्सानियत की मंजिल से भी उदासीन कर देता है, उससे बचने के लिये याद रखने की जरूरत है कि किस तरह नरेश पाल, सोदपुर स्थित एक किराये के घर से रोज चलकर लोकल ट्रेन और बस का सफर तय कर विनय-बादल-दिनेश बाग पहुँचते थे सिर्फ संगठन करने के लिये। सोदपुर के घर में खुद खाना बनाते थे, कपड़े धोते थे (उन्होंने विवाह नहीं किया) और दिन भर, विनय-बादल-दिनेश बाग स्थित संगठन कार्यालय में या फिर पूरे बंगाल और भारत में बैंक कर्मचारियों के बीच सांगठनिक गतिविधियों के मार्गदर्शन में व्यस्त रहते थे। याद रखने की जरूरत है, इस मामूली बात को कि दो जोड़ा घो और कमीज से अधिक की जरूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई, और आजीवन उन्होंने भरोसा रखा कि देश के मेहनतकश अवाम का व्यापक संघर्ष, देश को अन्ततः उस मोड़ तक पहुँचायेगा, जहाँ से समाजवाद की मंजिल स्पष्ट और हासिल होती हुई नजर आती है।
चुंकि उनकी सोच युक्तिपरक थी, और समाज के प्रति वह प्रतिबद्ध थे, इसलिये मरणोपरान्त अपने शरीर का वह, वैज्ञानिक व चिकित्सा अनुसंधान के लिये दान कर गये । उनके निधन के अगले दिन अपराहन में बैंक कर्मचारियों का विशाल शोक- जुलूस, उनका शरीर नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज व अस्पताल को सौंप दिया।
साथी नरेश पाल के आदर्श अमर रहे !
साथी नरेश पाल को लाल सलाम !
- बैंक इम्प्लाईज फेडरेशन, बिहार
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