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কর্তার পূনরাবির্ভাব
(বাবরি মসজিদ ভাঙার আগে-পরের পরিস্থিতি দেখে লেখা একটি পুরোনো কবিতা)
Wednesday, February 15, 2023
रूबरू
कविता से बुनियाद बचाने की कोशिश
आदमी के रोजमर्रा के संघर्षों के बीच आदमी की संभावनाओं को देखना होगा। मजदूर जहां अपनी ऊर्जा लगा रहा है, स्थिति को नियंत्रित कर रहा है वहां एक वर्ग के रूप में खुद व खुद उभर रहा है। रचनाकारों को वहीं अपने नायकों को ढूंढना होगा। कविता को विद्युत पाल शब्दों और शब्दजनित निःशब्दों का कारोबार मानते हैं
विद्युत पाल बांग्ला भाषा के स्थापित कवि और हिन्दी प्रदेश में एक चर्चित नाम हैं। इनके दोनों कविता संग्रह ‘आजकेर दिनटार जोन्नो’तथा 'समुद्रो दुभावे डाके' की कविताएं आम लोगों के भावों की परत दर परत कलात्मक अभिव्यक्ति है। इनकी कविता एक नये किस्म का डिक्सन रचती है जिसमें बांग्ला की मौलिकता के साथ ही बिहार की माटी की खुशबू भी है। ‘आजकेर दिनटार जोन्नो' की पहली कविता – ‘कलीम लोग’ जहां अपने बाप की बीड़ी की दुकान पर बैठे कलीम के सपनों और संघर्षों की बात करती है वहीं ‘समुद्रो दुभावे डाके’ की कविता ‘जलाधार’ में वे वाटरटैंक के हवाले जीवन में जल के प्रवेश को चिन्हित करते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी के अंतरद्वंद्वों को रेखांकित करने वाले कवि विद्युत पाल रू-ब-रू करा रहे हैं चर्चित रंगकर्मी हसन इमाम :
कविता के प्रति पाल दा के झुकाव की कहानी दिलचस्प है। युवा विद्युत के रोमांटिसिज्म ने उन्हे देश की सैर करने को उकसाया और 1969 में दोस्तों के साथ साइकिल से निकल पड़े यात्रा पर। बिहार से प. बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु होते केरल पहुंचे – रास्ते में नये-नये अनुभव बटोरते, सहेजते। इस क्रम में अपना देश जैसा दिखा, उससे जिन्दगी को लेकर कई सवाल खड़े हो गये। सवालों जूझते कोलियरी के मजदूरों के बीच रहते हुए एक दिन ईश्वर की पड़ताल करती कविता फूट पड़ी और यह सिलसिला चल पड़ा। इसी सिलसिले पर ये कहते हैं – मेरी कविताओं में मेरी निजता होती है।
रोजमर्रा के जीवन में जो घूटन है, टूटन है उसे एकांत में कविता के साथ शेयर
करता हूं। तमाम तरह के विभाजनों के बीच बेसिक इंटीग्रिटी की तलाश और उसे बचाने का प्रयास कविता के माध्यम से करता हूँ। इस
प्रयास में कविता के साथ कोई संघर्ष चलता है तो उसे कैसे सहेजते हैं – मेरे इस सवाल पर
पाल दा कहते हैं – कविता के क्षेत्र में मैंने पहली दुश्मनी
मनोगत आशावाद से ली। फिर मैने इस मनोगत आलंकारिक आशावाद का कारण ढूंढ़ा तो पाया कि
अन्तविरोधी
यथार्थ को विरोधाभासी यथार्थ के रूप में देखना, कंट्राडिक्शन को पैराडॉक्स के रूप में देखना, संघर्ष की गति और
गति के संघर्षो को विड़म्वित
रूप में देखना। इस
तरह कविता में यथार्थ की विरोधाभासी प्रस्तुति से मैंने दूसरी दुश्मनी मोल ले ली।
मैंने इसका भी कारण ढूंढ़ा तो पाया कि खुद को उस यथार्थ से बाहर तथाकथित निरपेक्ष
स्थिति में रखने की कोशिश में मूलतः अन्तविरोधी यथार्थ आपातदृष्टया विरोधाभासी
दिखता है ऐसे में यथार्थ के किसी एक तरफ मैं हूँ। आप जिस तरफ होते हैं उसको गति में
आशा झलकती है? अगर
नहीं तो 'वाद' कैसा ? और अगर झलकती है तो
उसकी बुनियाद
कहां है? वे कहते हैं –
गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ भविष्य का राजा कहीं तो दिखता है, अचानक किसी विरल
क्षण में राजा की
हैसियत में।
उन्हीं हैसियतों को कविता में तलाशता हूँ। मिल जाने पर तराशता हूँ अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता के मुताबिक। इसी तलाश और तराशने के क्रम में मैं अपनी
दिनचर्या में रोज बिखरते हुए खुद को भी जोड़कर एक कर लेता है अगले दिन के लिए। और
इस तरह बिना हैसियत बताये राजा का ढिंढोरा पीटने वालों से भी मैंने तोसरी दुश्मनी मोल ले ली। मेरी इस जिज्ञासा पर कि
विडम्बनाओं के बीच आशाएं टूट रही है, फिर भी लोग आशावादी हैं – ऐसे में नायको की
तलाश कहां होगी
- पाल दा 1983 की एक घटना की चर्चा करते हैं। तारापुर
एटोमिक प्लांट में
रसायन रिसने से पूरा इलाका रेडियो एक्टिव हो गया। इंग्लैंड व अमेरिका से वैज्ञानिक
बुलाने की
बात होने लगी। इसी बीच वहां कार्यरत मजदूरों ने उपलब्ध साधनों द्वारा इलाके को
कुप्रभाव से बचानें का बीड़ा उठाया और आखिरकार वे इसमें सफल हो गये। इस रोमांचक
घटना के हवाला से वे कहते हैं - आदमी के रोजमर्रा के संघर्षों के बीच आदमी की संभावनाओं को देखना होगा।
मजदूर जहां अपनी ऊर्जा लगा रहा है, स्थिति को नियंत्रित कर रहा है वहाँ एक
वर्ग के रूप में खुद व खुद उभर रहा है। रचनाकारों को वहीं अपने नायकों को ढूंढ़ना
होगा। कविता को विद्युत पाल शब्दों और शब्दजनित निःशब्दों का कारोवार मानते हैं। उनकी नजर में
सारी सच्ची बातों को इस देना कविता नहीं है। वह भाषा को व्यंजना, हृदय और चेतना के
अंदर शब्दों की अनुगूंज का सर्वोत्तम औजार है जो सैकड़ों वर्षों के
परिष्कार से हासिल हुआ है। इसलिए किसी अतिक्रांतिकारिता में इसे नकारते हुए कविता
लिखने की बात बेईमानी होगी। कविता को कविता होनी होगी। पहले ही श्रवण में उसे भीतर
घर कर जानी होगी।
कविता के स्वरूप पर वे कहते हैं – अपने समय को बहुआयामी चुनौतियों का सामना करते श्रेष्ठ कविता का जो
स्वरूप सामने आया उसे देखकर कहा जा सकता है कि कविता फ्रंटियर सायंस का सहचर है।
कई बार कविता में उठाये गये सवाल विज्ञान (समाज विज्ञान एवं प्रकृति विज्ञान) के
लिए रास्ते खोलते हैं तो कई बार विज्ञान में उठाये गये सवाल कविता के लिए। दोनों में झगड़े भी खूब होते हैं लेकिन
दोनों ऐसे सहचर है कि एक दूसरे के बगैर जीवनबोध अधूरा रह जाता है।
बिहार में साहित्यिक आन्दोलन की मौजूदा स्थिति पर वे कहते हैं – साहित्यकारों, कवियों का आपस में मिलना-जुलना और संवाद करना कम हुआ है। काफी हाउस परम्परा के अभाव को स्वीकारते हुए वे कहते हैं इसकी वर्गीय स्थिति चाहे जो भी हो, लेकिन उस तरह की अड्डेबाजी से, अनौपचारिक ढंग से ही सही, साहित्य के सवाल परत दर परत खुला करते हैं। मेरे इस अंतिम सवाल पर कि कवि का एक्टिविस्ट होना जरूरी है ? पाल दा कवि सुकांत भट्टाचार्य को थाह कर कहते हैं – अगर यथार्थ से जुड़कर कविताएं लिखनी है, उस यथार्थ में किसी किस्म के बदलाव की चाहत है तो यकीनन कवि को पोएट एक्टिविस्ट के रूप में सामने आना होगा। वे महाश्वेता देवी के इस कथन को रेखांकित करते हैं – ‘तुम कहां खड़े हो वही तुम्हारा रणक्षेत्र है।‘
[कसौटी,
दैनिक
जागरण,
पटना
दिनांक
26 मई 2006 में प्रकाशित]