Sunday, November 27, 2022

‘कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया में हम सर्वाधिक आज़ाद थे!’ – आन्द्रे व्लाचेक

मिलान कोहूत एक चिन्तक, प्रस्तुतिकर्त्ता एवं प्राध्यापक हैं । उनका जन्म चेकोस्लोवाकिया में हुआ था, जहाँ वह ‘चार्टर 77’ पर हस्ताक्षर करने एवं संयुक्त राज्य अमेरिका चले जाने के पहले तक रहे । अमेरिका में उन्होने अमेरिकी नागरिकता ले ली । कोहूत पूरी तरह से पूंजीवाद से एवं पश्चिमी शासनतंत्र से निराश हो चुके हैं । दशकों से वे पूरी दुनिया में अपनी प्रस्तुतियाँ देते रहे हैं, सीधे तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद, नस्लवाद, पूंजीवाद एवं दुनिया के सभी धर्मों, खास कर इसाईयत के खिलाफ ।

यह बातचीत अक्तूबर 12, 2014 को पश्चिमी बोहेमिया स्थित एक छोटे से गाँव क्लिकारोव में हुई । व्लाचेक पिलसेन शहर के दर्शन व कला विभाग में राजनीतिक व्याख्यान देने के लिये आये । उसी विभाग में कोहूत पढ़ाते हैं । दोनों गाड़ी से पश्चिमी बोहेमिया के दूरस्थित एवं छोटे से गाँव क्लिकारोव चले गये; वहाँ मछली पलने वाले तालाव के किनारे बैठ कर दोनों ने पश्चिमी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद एवं युरोपीय/अमेरिकी प्रचार के विषाक्त प्रभाव के वारे में बातें की । पूर्वी योरोपीय देशों में समाजवाद के पतन एवं बर्लिन-दीवार को ढहाये जाने के 25वें साल पर साम्राज्यवाद द्वारा किये जा रहे भव्य समारोहों के सन्दर्भ में यह बातचीत इन शासनतंत्रों की वास्तविक छवि को उजागर करता है ।   

[इस बातचीत का अंग्रेजी पाठ पीपुल्स डेमोक्रैसी, 10-16 नवम्बर 2014 में छप चुका है]

[http://www.counterpunch.org/2014/10/24/f...]

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आन्द्रे व्लाचेक (एवी) : आप पश्चिम के उन कुछ कलाकारों में से हैं जो पश्चिमी साम्राज्यवाद, बेलगाम पूंजीवाद और धर्मों के विरूद्ध प्रत्यक्ष कार्रवाई कर रहे हैं । कला के इस विशेष रूप को आपने कब और कैसे चुना

मिलान कोहुत (एमके) : नि:सन्देह उन दिनों से जब मैं ‘दूसरी संस्कृति’, ‘चेक भूमिगत’ का हिस्सा था, चेकोस्लोवाक समाजवादी व्यवस्था का वह ज़माना जिसे पश्चिम ‘सर्वसत्तावादी व्यवस्था’ कहता था । ‘दूसरी संस्कृति’ ही वह आन्दोलन था जिसने हमारी सृजनात्मकता एवं कला के अर्थ को शक्ल दिया । उन दिनों हम औपचारिक संस्कृति या ‘पहली संस्कृति’ से बहिष्कृत थे । इसलिये हमने विद्रोह किया । अपनी परिभाषा से ही यह गहन राजनीतिक आन्दोलन था और इसने राजनीतिक कला उत्पन्न किया ।

एवी : आप अक्सर कहते हैं और सही कहते हैं कि आप में से जिन लोगों ने ‘चार्टर 77’ पर हस्ताक्षर किया, और जो लोग शीत युद्ध के दिनों में भूमिगत/विरोधी आन्दोलन से जुड़े थे, वे दर-असल समाजवादी थे, कुछ तो मार्क्सवादी भी थे । आप उनमें शामिल हैं, नि:सन्देह आप एक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं । स्पष्टत: यह एक विरोधाभास है : पश्चिम आपको ‘बेच’ रहा था, आपको कम्युनिस्ट-विरोधी गुट के तौर पर आगे बढ़ा रहा था । क्या आप इस विरोधाभास के बारे में बात कर सकते हैं

एमके : बेशक एक विरोधाभास, काफी बड़ा विरोधाभास रहा क्योंकि भूमिगत आन्दोलन के, ‘दूसरी संस्कृति’ के अधिकांश लोग गहराई तक वामपंथी मूल्यों के समर्थक थे । जैसे चीजों को संगृहित करने के बजाय सबकुछ बाँट लेना । हम सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधनों के सामूहिक मालिकाना में विश्वास करते थे । लेकिन हमने कभी इस पर सैद्धांतिक दृष्टि से नज़र नहीं डाला – हम नहीं समझे कि हमारे मूल्य, दार्शनिक तौर पर वामपंथी हैं । इस तरह, जब हम तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे, वास्तविक तौर पर हम खुद ही सच्चे कम्युनिस्ट थे !

लेकिन, जब यह बात मैं ‘चार्टर – 77’ के अपने उन कॉमरेडों को कहता हूँ जो कभी इस देश से बाहर नहीं गये, वे अक्सर बहुत गुस्से में आ जाते हैं – वे इस सच्चाई को मानना नहीं चाहते हैं ।

एवी : वस्तुत: आपने यहाँ तक कहा कि वाक्स्लाव हावेल भी, जो समयोपरांत पूरी तरह बिक गये और पश्चिमी साम्राज्यवाद का समर्थन करने लगे, वाशिंगटन जाकर सत्ता के प्रतिनिधियों के सहर्ष करतलध्वनि के बदले दासता के मनोभाव वाले भाषण देते रहे, वह हावेल भी जब आपके आन्दोलन का सदस्य था, इन्ही वामपंथी आदर्शों का हिस्सेदार था । 

एमके : हाँ, नि:सन्देह ! उनके दार्शनिक नजरिये का कुछ हिस्सा तो वास्तव में मार्क्सवादी था !

एवी : फिर क्या हुआ ? उनके जैसे लोग बदलते कैसे हैं ?  

एमके : क्रांति के बाद मैं वाक्स्लाव हावेल को लेकर बहुत गर्वित था । क्योंकि खुले आम उन्होने घोषणा की थी कि वे राष्ट्रपति के महल में नहीं रहेंगे । वह अपने छोटे से फ्लैट में रहने लगे, अपनी गाड़ी खुद चला कर दफ्तर जाते थे… मुझे लगा कि वह बहुत बढ़िया रोल मॉडल बन गये…

एवी : राष्ट्रपति के किले के इर्दगिर्द वे अपने साइकिल पर भी घूमते थे… 

एमके : एक सच्चे ‘लोक नायक’ या ‘जनता का राष्ट्रपति’ जैसा बन गये वह । फिर कुछ उनका दिमाग बदल दिया… शायद इसके कारणों में एक यह भी था कि वह एक बुर्जुवा परिवार से आते थे ।

एवी : प्राग के सबसे धनाढ्यों में से एक… 

एमके : हाँ, बहूत ज्यादा ही धनाढ्य परिवार से आते थे वह… । और हालाँकि वह कहा करते थे कि “मैं अपनी सम्पत्ति और मेरे पूर्व परिवार का सामाजिक दर्जा लौटाने का कभी दावा नहीं करूंगा”, कुछ जरूर बदल गया होगा । मेरा अनुमान है कि उनके उपदेशक लोग, उनके राष्ट्रपति बनने के बाद समझाना शुरु किये होंगे कि अगर वे इस किस्म के ‘वामपंथी जीवनधारा’ में जीते चलें तो यह बात, देश जिस पूंजीवादी दिशा की ओर जा रहा है उसमें वाधा डालेगी । वे जरुर हावेल को समझाये होंगे कि लोग उन्हे ‘आजादी’ और ‘आर्थिक विकास’ का भीतरघात करने वाला मानेंगे… और फिर शायद उच्च राजनीतिक पद आदमी को भ्रष्ट बना डालता है… और इसलिये वह बदलने लगे, धीरे धीरे लेकिन निश्चित रूप से । वास्तव में, तथाकथित ‘सम्पत्ति लौटाये जाने के कार्यक्रमों’ के माध्यम से उन्होने अपने परिवार की पूरी पुरानी सम्पत्ति वापस करवा लिया । मुझे सबसे अधिक बुरी लगी यह बात कि वह संयुक्त राज्य अमेरिका की साम्राज्यवादी विदेश नीति का समर्थन करने लगे… फिर बाद में और भी अनोखी बात हुई; वास्तविक जीवन से उनका रिश्ता समाप्त हो गया, चुने हुये लोगों के ‘हरितगृह’ या वैसा ही कुछ में वह जीने लगे ।

एवी : यहीं से हम फिर उस विषय की ओर चलते हैं जिस पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं – सोवियत युग में चेकोस्लोवाकिया की जो भी समस्यायें रहीं हों, यह देश निर्णायक तौर पर पूरी दुनिया की दबी-कुचली जनता के साथ थी । चेक एवं स्लोवाक इंजिनियर, डाक्टर, शिक्षकों ने मानवता के लिये अविश्वसनीय काम किया अफ्रिका, एशिया की जनता के बीच… 

एमके : जैसे क्यूबाई कर रहे हैं…

एवी : हाँ, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखते हुये लगता है कि कम्युनिस्ट जमाने में जनता की एक बड़ी प्रतिशत वास्तव में पश्चिमी देशों के साथ जुड़ने का सपना देख रही थी एवं अप्रत्यक्ष, यहाँ तक कि प्रत्यक्ष तौर पर भी वैश्विक दमन-यंत्र का हिस्सा बनना चाह रही थी । अब जब इतने सारे प्रगतिशील विक्षुव्ध हावेल की तरह पलट गये हैं, अब जब देश बँट गया है और बँटे हुये दोनों हिस्से स्थायी तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी व आर्थिक ढाँचों में शामिल हो चुके हैं, यह एक यथार्थ है कि चेक और स्लोवाक प्रजातंत्र बाकी दुनिया के लिये अब कुछ भी सकारात्मक नहीं कर रहे हैं ।

क्या लोग खुश हैं ? क्या यही वे चाहते थे ?

एमके : यहाँ भी ‘विदेशी निवेश’ जनता का शोषण कर रहा है ।

मैं सच में समझ नहीं पाता हूँ कि यहाँ, चेक प्रजातंत्र में जनता के दिमाग में क्या चल रहा है ।

अवश्य ही, ‘समाज के चुने हुये हिस्से’, जिनके पास कुछ सम्पत्ति है, जो व्यापार में तथाकथित तौर पर सफल हैं, जो काफी धनाढ्य बन चुके हैंवे देश की दिशा से बहुत खुश हैं । यही लोग मीडिया के भी मालिक हैं और इस दक्षिणपंथी व्यवस्था को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन मुझे लगता है कि गरीब जनता अपने इस सपने से जाग रही है कि ‘कि अगर सर्वसत्तावादी व्यवस्था से वे खुद को मुक्ति दिला पायें तो उन्मुक्त जीवन, आनन्दमय अस्तित्व में जीना शुरू कर देंगे’ ।

कोई सपना सच नहीं हो पाया । जनता के अधिकांश के लिये जीवन अभी समाजवादी जमाने से बदतर है ।

एवी : जब आप कहते हैं कि बदतर हैं तो ध्यान में रखना होगा कि चेक प्रजातंत्र आज भी अत्यंत समृद्ध देश है । और अपने नागरिकों के लिये कम से कम, यह देश एक सामाजिक जनवादी सुरक्षाकवच मुहैया करता है… तुलनात्मक तौर पर काफी बेहतर स्तर की नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा, नि:शुल्क शिक्षा,अनुदानप्राप्त संस्कृति एवं देश भर में बहुत बढ़िया और सस्ता परिवहन ! तो किस बात की बदतरी ?

एमके : तथाकथित ‘वेल्वेट क्रांति’ के पहले, जनता की शिकायत थी कि उन्हे कुछ खास प्रकार की सूचनायें नहीं मिलती है, खास प्रकार के सांस्कृतिक उत्पाद (फिल्म सहित) नहीं मिल पाते । जब भी चाहें, देश से बाहर जाने की अनुमति उन्हे नहीं मिलती थी, इत्यादि । लेकिन उन्हे इस बात की समझ नहीं हो पाई कि उनके जीवन की मर्यादा, आज से बहुत, बहुत उँची थी । वे समझ नहीं पाये कि जब पूंजीवाद प्रवेश करेगी, वे चिन्ताओं से घिरना शुरु करेंगे, अस्तित्व से जुड़ी गहन चिन्तायें… वे आतंकित रहना शुरु करेंगे कि कभी भी उनकी नौकरी जा सकती है ।

वे अब नौकरी बचाने के लिये जीवन की मर्यादा का व्यापार करनेको मजबूर हैं ।

कम्युनिस्ट जमाने में जितना करना पड़ता उससे कहीं ज्यादा अपने बॉस लोगों का पिछवाड़ा चूमना पड़ रहा है उन्हे ।

यह सब कुछ बहुत दिलचस्प है कि लोगों को उन सुविधाओं की आदत पड़ जाती है, जिन सुविधाओं का जन्म, निर्माण और स्थापना इतिहास में समाजवादी आन्दोलनों के कारण ही हुआ है । और उन सुविधाओं एवं मूल्यों का उपभोग करते हुये वे एक तरह से भूल गये कि…

एवी : उन्होने उन सुविधाओं और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया ?

एमके : उन्होने उन सुविधाओं और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया । वे समझ ही नहीं पाये कि उनके पास कुछ श्रेष्ठतम चीजें हैं, उनका जीवन श्रेष्ठ है । अचानक, जब वे उन्हे खोने लगे उन्हे एहसास हुआ कुछ भयानक गलत हो गया । कुछ लोग आज बहुत निराश हैं ।

मैं एक साल अपनी पत्नी के साथ मोराविया में बिताया हूँ ।वहाँ बेरोजगारी की दर देश में सबसे अधिक है । लोगों से बड़ी शिकायतें सुनेंगे आप वहाँ ।

बहुत दिलचस्प है, समाजवादी व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था तक का यह सफर । समाजवाद में चेकोस्लोवाकिया सब कुछ बनाया करता था, शाब्दिक अर्थों में सुई से रेल-ईंजन तक ।

एवी : नाभिकीय संयंत्र, हवाई-जहाज, नदी पर चलने वाले बड़े नाव…    

एमके : हाँ ! सब कुछ…नाभिकीय संयंत्र से कपड़ों तक, सारी चीजों का उत्पादन यहाँ होता था । खाद्य यहाँ पैदा होता था । यह देश एक आत्मनिर्भर देश था ।

अब सब कुछ बदल गया है ! सारे राष्ट्रीय उद्योग गायब हो गयेहैं । या तो बेच दिया गया है या चुरा लिया गया है उन…

एवी : या दर्जा नीचे गिरा दिया गया है । हवाईजहाज उद्योग खत्म हो गया है; कारखाने जो पूरी दुनिया में रेल-इंजनों का निर्यात करते थे, पश्चिमी बहुराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा खरीद लिये गये हैं और अब उन कारखानों में रेल के डिब्बे बनते हैं…

एमके : हाँ… सब कुछ जैसे गायब हो गया है । और जैसे जैसे निजीकरण होता गया, उत्पादन पूरब की ओर चला गया, तथाकथित पश्चिमी ‘निवेश’ देश के अन्दर आ गया – पैदा हुये‘गुलाम श्रमिक’, उत्पादन के लिये विशाल हॉल जहाँ लोग चार्ली चैपलिन के फिल्मों की तरह काम करते हैं, जैसा ‘मॉडर्न टाइम्स’ में दिखाया गया था ।

तो यह सचमुच दुखद है कि ‘आजादी’ शब्द का अर्थ समझने में जनता ने गलती की ।

एवी : क्या आप सुझा रहे हैं कि आज से लगभग तीस साल पहले यहाँ ज्यादा आज़ादी थी ?

एमके : निर्भर करता है, किसके लिये । लेकिन बोस्टन में टफ्ट्स विश्वविद्यालय के मेरे छात्र जब मुझसे पूछते थे कि मै कब सबसे अधिक आज़ाद महसूस करता था तो मैं हमेशा उनसे कहा, “चेकोस्लोवाकिया में सर्वसत्तावादी व्यवस्था के दौरान !”

एवी : या, और सही होगा कहना, “सर्वसत्तावादी व्यवस्था के दौरान”…

हम चीन में भी अभी यही पाते हैं । आपने चीन में अपनी प्रस्तुति दिये, और मेरे काम भी अक्सर यहाँ दिखाये जाते हैं ।

कई तरीके से, पश्चिम की तुलना में कलाकार ज्यादा आज़ाद हैं चीन में । बेजिंग में कलाकार ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करते हैं और लन्दन या न्यूयॉर्क में काम करने वाले कलाकारों से ज्यादा जबर्दस्त प्रभाव डालते हैं समाज पर ।

एमके : हाँ, यह तो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ । चार साल पहले बेजिंग में कृत्य-कला का एक बड़ा उत्सव मेरे संरक्षण में हुआ था । मैं आश्चर्यचकित था कि कुछ प्रदर्शन कितने गहन रूप से सत्ता की आलोचना कर रहे थे । जबकि हम पश्चिमी प्रचार मीडिया में पढ़ते हैं कि कम्युनिस्ट चीन सेन्सर करता है, आलोचना की आवाज उठाने वाले लोगों को जेल में डाल देता है आदि आदि । जबकि जो कुछ मैने यहाँ पाया वह बिल्कुल ही भिन्न था।

एवी : चेकोस्लोवाकिया के मेरे अपने अनुभवों से भी… मैं इन विन्दुओं को सुत्रबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ… चेकोस्लोवाकिया में जैसा कि आपने पहले जिक्र किया, लोग कुछप् रकार सूचनाओं के तत्काल नहीं मिल पाने की शिकायत किया करते थे । लेकिन साथ ही,कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया में सूचनायें मायने रखती थी । आज के दिन, पश्चिम-समर्थक और पूंजीवादी चेक प्रजातंत्र में सूचनायें बहुत कम मायने रखती हैं, और सूचनायें उपलब्ध होने पर भी, वास्तविक तौर पर लोग बहुत कम बदलाव लाने में सक्षम हैं ।

एमके : समाजवादी, या पश्चिम जैसा कहता है, ‘सर्वसत्तावादी’ व्यवस्था में लोग शिकायत करते थे… हम शिकायत करते थे, लेकिन हमेशा रास्ते होते थे उन सूचनाओं तक पहुँचने के लिये जो हम पाना चाहते थे । और उन्हे जुटाने में हम खूब तत्पर रहते थे। और जो सूचनायें मिलती थीं उसका मूल्य होता था हमारे लिये, हम उनका अध्ययन करते थेउस पर शोध करते थे । और हमारे पास काफी वक्त होता था । समाजवादी व्यवस्था में समय की वास्तविक दौलत होती थी हमारे पास । आप किताबें पढ़ते हुये, संगीत सुनते हुये, फिल्मे देखते हुये आनन्द ले सकते थे…

एवी : और कभी कभी काम की जगह पर भी, क्यों कि लगता है कि बहुत कड़ी मेहनत कोई नहीं करता था ।

[दोनों हँसते हैं]

एमके : अरे, तो जीवन का अर्थ किसी प्रकार का दास-श्रम तो नहीं, क्या ? सैद्धांतिक तौर पर, जीवन के गुणवत्ता को बढ़ाना दर-असल समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था का हिस्सा हुआ करता था । इस तरह उस व्यवस्था का जोर, जीवन के गुणवत्ता पर था न कि भोग किये जा रहे चीजों के परिमाण पर ।

दूसरी ओर, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था ‘बाज़ार’ पर आधारित है। इसके सिद्धांतकार कहते हैं कि यह व्यवस्था कहीं ज्यादा सामान मुहैया कराती है । चीजें, जैसा कि आप जानते हैं - हाँ, लेकिन उसकी कीमत यही है कि जीवन की गुणवत्ता नाटकीय तरीके से कम हो जाती है ।

एवी : आपके पास तीन गाड़ियाँ होती हैं, पाँच फोन… लेकिन वास्तव में उनकी जरूरत नहीं होती आपको ।

एमके : आपको जरूरत नहीं होती और आपके पास जीने का समय नहीं होता । आप निरन्तर अपनी नौकरी या रोजगार खोने को लेकर या दूसरी बातों को लेकर आतंकित रहते हैं ।

एवी : तो आप लड़ते हैं इन तमाम बातों के खिलाफ और अपनी कला, अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से पूंजीवाद में जीवन की मूर्खताओं पर हमला बोलते हैं । आप धार्मिक मतांधताओं पर भी हमला बोल रहे हैं । धार्मिक मतांधतायें, जो घनिष्ठ तौर पर जुड़ी है इन बातों से – ये सत्ता, शोषण, अत्याचार…; और आप साम्राज्यवाद पर हमला बोल रहे हैं । कैसी प्रतिक्रियायें मिलती है आपको सारी दुनिया से ? क्योंकि आप की प्रस्तुतियाँ सिर्फ यहाँ तो नहीं होती, संयुक्त राज्य अमेरिका में, पूरे योरप में, चीन में, इजरायल और कई अन्य जगहों में आप अपनी प्रस्तुतियाँ लेकर जाते हैं – क्या किसी शून्य स्थान को आप भर रहे हैं ? क्या आपको लगता है कि लोग ऐसी कला, ऐसी राजनीतिक और जुझारू प्रस्तुतियों के लिये बेचैन रहते हैं ?

एमके : लगता है । मुझे बहुत सकारात्मक प्रतिक्रियायें मिली हैं; वास्तव में यही तथ्य मुझे प्रेरित करता है । कभी कभी लोग सड़क पर आ जाते हैं मेरे करीब और बोलते हैं, “आपकी कला अद्भुत है । तरह तरह की मूर्खताओं के खिलाफ हमारी जागरुकता को बढ़ाती है यह कला !” मैं जानता भी नहीं हूँ कि कितने लोगों पर मेरी प्रस्तुतियों का प्रभाव है…

मेरी प्रस्तुतियाँ, मेरी कला – ये भी तथाकथित ‘दूसरी संस्कृति’ के उपज हैं । कला का एक ऐसा रूप है जिसमें अधिक पैसों की जरूरत नहीं होती । इन्हे पेश करने के लिये थियेटर जैसी स्थायी जगहों की जरूरत नहीं होती । यह कला का ऐसा रूप है जिसमें मुख्यत: आपको अपने शरीर का इस्तेमाल करना पड़ता है और आपका शरीर हमेशा आपके पास होता है काम करने के लिये । खुद जीवन के सन्दर्भ में ये प्रस्तुतियाँ की जाती हैं, सड़कों या रेल-स्टेशनों पर । तो आप इस जीवन का हिस्सा होते हैं, और आप परिस्थितियों का सृजन करते हैं, किसी बात पर जागरुकता को बढ़ाते हैं, किसी बात की आलोचना करते हैं… और तब वास्तविक जनता प्रतिक्रियायेँ देने लगती हैं… आपके चारों ओर लोग प्रस्तुति में भाग लेने वाले बन जाते हैं… दर्शक से भाग लेने वाले बन जाते हैं वे… जबकि वास्तविक थियेटर में अभिनेता होता है और दर्शक, और वह ‘पाँचवी दीवार’ होती है जैसा कि लोग कहते हैं । मेरी प्रस्तुतियों में कोई दीवार नहीं होता । प्रत्यक्ष कला है यह । कला और जीवन का मेल है ।

मैं हमेशा बोलता हूँ : थियेटर में अभिनेता छल करता है कि वह दर्द महसूस कर रहा है, जबकि मेरे जैसा प्रस्तुतिकर्त्ता वास्तविक तौर पर, यथार्थ में दर्द का अनुभव करता है ।

कृत्य-कला [पर्फॉर्मेंस आर्ट] वास्तव में अद्भुत है । मानवजाति की शुरूआत से ही यह यहीं थी ।

एवी : मिलान, दुनिया के कई भागों में आप सीधी कार्रवाई कर रहे हैं । फिलस्तिनियों के साथ उनके रवैये के लिये आप इजरायल पर हमला बोलते रहे हैं । रोमा जनता के साथ किये जाते व्यवहार के लिये आप चेक पर भी हमला बोलते रहे हैं । लगभग अकेले ही आपने उस शर्म की दीवार को तोड़ने में मदद की जिसे उस्ति नाद लाबेम में खड़ा किया गया था श्वेत चेक और जिप्सी/रोमा लोगों को अलग रखने के लिये… मानवता के खिलाफ इसाईयत द्वारा किये गये अपराधों को रेखांकित करने के लिये आप गिर्जा में पादरियों के सामने कच्चा गोश्त फेंक रहे हैं । आप शॉपिंग सेन्टर और मॉल मे जबर्दस्ती प्रवेश कर मैमन के भगवान (धनलोलुपता के देवता) के प्रति छद्म-प्रार्थना कर रहे हैं । आप बहुत कुछ कर रहे हैं जो दूसरे लोग करने की हिम्मत नहीं करेंगे । आप कभी गिरफ्तार हुये, धमकी दी गई आपको या हमले किये गये आप पर ?

एमके : हाँ, कई बार ! कई बार गिरफ्तार किया जा चुका हूँ मैं । अदालत का भी सामना करना पड़ा है मुझे, जब मैं बॉस्टन में वह मशहूर प्रस्तुति की थी, बंधकी ॠण घोटाले की शुरूआत में । जब बैंक गरीबों को वह ॠण बेच रहे थे और गरीब बंधक छुड़ा नहीं पाने के नतीजे में आत्महत्या कर रहे थे । तो मैंने एक प्रस्तुति बैंक ऑफ अमेरिका के प्रधान कार्यालय के सामने करना तय किया; वह बैंक सबसे घृणित, जनता को ठगने वाली संस्था थी उस वक्त…। तो मैंने बैंक के सामने कुछ फाँसी के फन्दे रख दिये और एक बोर्ड लगा दिया ‘फन्दों की दुकान’ । मेरा संदेश था, अगर आप यहाँ ॠण के लिये आवेदन करते हैं तो एक फन्दा भी खरीद लिजियेगा ।

एवी : शायद जरूरत पड़ जाय…

एमके : शायद जरूरत पड़ जाय ! पर पुलिस आई, उन्होने मुझे गिरफ्तार किया । काफी संगीनता से लिया उन्होने इस जुर्म को ! शहर ने मेरे खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये और महीनों तक मुझे अदालत की सुनवाई में उपस्थित रहना पड़ा । मुकदमा था, ‘बॉस्टन का शहर और मिलान कोहूत’ । 150 साल पुराना एक कानून उठा लाये वे, जिसमे लिखा था कि आप किसी बैंक के सामने यह सामान नहीं बेच सकते । 150 सालों में यह कानून पहली बार इस्तेमाल किया जा रहा था । लेकिन स्पष्ट था कि वे मेरे खिलाफ कुछ ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे थे… अन्तत: मेरी रिहाई हुई । खूब मीडिया का ध्यान खींचा मेरा मुकदमा, नैशनल पब्लिक रेडिओ भी शामिल थी उनमें ।

एवी : मिलान, हम दोनों पूरी दुनिया के चप्पे चप्पे में खूब घूम रहे हैं । पश्चिमी साम्राज्यवाद से पैदा हो रहे खतरों को आप स्पष्टत: देख रहे हैं । क्या आप खतरे को गंभीरता से लेते हैं ? क्या आप मानते हैं कि पश्चिमी साम्राज्यवाद ग्रह के नियंत्रण की ओर बढ़ रहा है; और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसके त्रासद परिणाम होंगे ?

एमके : नि:सन्देह ! मैं संयुक्त राज्य अमेरिका में 26 साल रहा हूँ । मैंने वह अवधि देखी है जब संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रभुसत्ता बहुत आक्रामक हो उठी थी । मेरी समझ बनी कि यह आक्रामकता बहुत तर्कसंगत थी एवं पूर्वी ब्लॉक के विघटन से जुड़ी थी । जब कम्युनिस्ट ब्लॉक बिखर गया, पश्चिम के सामने अचानक कोई विरोधी-पक्ष नहीं रहा । विरोधी-पक्ष के बिना एक बड़ा शून्य पैदा हुआ अचानक, और तुरन्त उन्होने उस शून्य को अपने आक्रामक व्यवसायिक हितों से भर दिया, क्योंकि यह स्पष्ट है कि ‘पिरामिड के शीर्ष’ पर एक आर्थिक तानाशाही कायम है । अचानक उनके सामने एक जबर्दस्त अवसर आया लाखों करोड़ लोगों को गुलाम बनाने का । और उन्होने बनाया गुलाम !

एवी : और यह देश – चेक प्रजातंत्र – जहाँ बैठकर हम दुनिया के बारे में बातचीत कर रहे हैं इस समय, अचानक इस पश्चिमी शासनतंत्र का हिस्सा बन गया… अब यह देश फिर उनका साझेदार है ।

एमके : बेशक…

एवी : यह अब शिकार नहीं है, जैसा कि पहले यह खुद को दिखाना चाहता था… यह अत्याचारियों के समूह का हिस्सा है । क्या लोग इस बात को समझते हैं ? कोई चर्चा, कोई वादविवाद – इस मसले पर ?

एमके : मैं प्रसन्न हूँ यह कहते हुये कि कुछ लोग, अकादमीय क्षेत्र से भी, यह समझना शुरू कर चुके हैं । पर यह बिल्कुल हाल का घटनाक्रम है । इस बीच, यह आक्रामक पूंजीवादी शासनतंत्र उत्पादन के लगभग सभी साधनों को और जनसंचार माध्यमों को अपने कब्जे में कर चुका है । जैसे वयस्कों के, वैसे ही बच्चों के दिमाग को कब्जे में कर रहे हैं वे । वे उन्हे कम्युनिस्ट युग के बारे में विकृत झूठ बताकर स्थाई तौर पर आतंकित कर रहे हैं, और वे कच्चे दिमाग नि:सन्देह विश्वास करते हैं उन बातों को क्योंकि वही एकमात्र सूचनायें हैं जो उन्हे मिलती है । और इन बच्चों और युवाओं का दिमाग इतना अधिक कब्जे में है दुष्प्र्चार के कि विश्वास नहीं होता ! ऑरवेल [जॉर्ज ऑरवेल] की तरह कुछ अंधमत खड़े किये गये हैं इन प्रचारों के माध्यम से, जैसे, ‘कम्युनिस्ट युग में सभी लोग भूरे कपड़े पहनते थे और धीरे धीरे भूतों की तरह सड़कों पर चलते थे’… पूरा बकवास ! बिल्कुल ही ऐसा नहीं था उन दिनों ! क्योंकि कम्युनिस्ट युग में जीवन के कई पहलू आज से ज्यादा उन्मुक्त थे !

एवी : और जीने के मज़े थे आज से अधिक…

एमके : अधिक मज़े थे ! जीवन की गुणवत्ता, जैसा हमने पहले ही जिक्र किया, बहुत उँची थी, खास कर इस पूंजीवादी गुलामी की तूलना में !

एवी : लेकिन अब एक वैश्विक विरोधी-पक्ष है; देशों का एक गँठजोड़ जो पश्चिम से थोपी गई नीतियों का प्रतिरोध कर रही हैं; उनमें लातिनी अमेरिका है, रूस है, चीन है, दक्षिण अफ्रिका है, इरान है और एरिट्रिया जैसे छोटे देश भी हैं । और यह विरोधी-पक्ष काफी ताकतवर होता जा रहा है, क्योंकि यह बड़े दिमागों से एवं बढ़ती ताकत की मीडिया से टक्कर ले रहा है । हम दोनों उस विरोधी-पक्ष में शामिल हैं । क्या यहाँ, चेक प्रजातंत्र में, और पोलैन्ड में भी, जहाँ आप अक्सर पढ़ाने जाते हैं, लोग समझते हैं कि पश्चिम के साथ शामिल होकर उनकी यात्रा का अन्त इतिहास के गलत तरफ में हुआ ?

एमके : कुछ लोग शायद समझ चुके हैं अब तक, पर बहुसंख्यक लोग नहीं ।

लेकिन कला की ओर वापस लौटते हुये: इस जागरुकता को पैदा करने के काम को कलाकारों का कार्यभार बनाना कला का कर्तव्य है । जनता को सीखाना कलाकारों का काम है । कलासृजन की सौन्दर्यशास्त्रीय, परिचयात्मक एवं अवधारणात्मक भंगिमा भाड़ में जाये ! आइये हम जुझारू, राजनीतिक कला का सृजन करें, क्योंकि बहुत जरूरत है उसकी आज । अभी उम्मीद बाकी है कि पिछले 30 सालों से चल रहे इस विनाश को पलटा जा सकता है । हमारे लिये आज की लड़ाई इस धरती पर इन्सान के बचे रहने की लड़ाई है !   

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Monday, November 21, 2022

আমাদের, মানে লালঝান্ডাওয়ালাদের স্বামীজি

স্বামীজি তো হাজারে হাজারে আছেন। কিন্তু স্বামীজি বলতেই যে একজনের ছবি চোখের সামনে ফুটে ওঠে সেটি বিবেকানন্দের। সেটাই স্বাভাবিক। তাঁর ধারে কাছে তো আর একজনও নেই যিনি আধ্যাত্মিক আলোয় দেশকে ব্যাখ্যা করতে গিয়ে বাস্তবিক ভারতবর্ষের জ্বালাময় সামাজিক দ্বন্দ্বগুলোকে চাপা দিতে চান নি, এড়িয়ে যেতে চান নি, আধ্যাত্মক পথে সমাধানের কথা বলেন নি বরং যখনই প্রয়োজন বুঝেছেন, আধ্যাত্মিক ভাষা থেকে সরে এসে কঠোর বস্তুবাদীদের মত সেই দ্বন্দ্বগুলোকে সামনে তুলে ধরেছেন এবং আধ্যাত্মিক আলোর মায়ায় হারিয়ে যেতে চাওয়া আধুনিক কুলীনদের থেকে অনেক বেশি প্রভাবিত করেছেন সেই তরুণ প্রজন্মদের, যারা ওই দ্বন্দ্বগুলোর বাস্তবিক সমাধানের জন্য সচেষ্ট হয়েছে।

তবুও সেটা একটি গতিপথ বা আবক্রপথ। একটি ঐতিহাসিক মুহূর্ত থেকে আরেকটি ঐতিহাসিক মুহূর্তে পৌঁছোবার। উনবিংশ শতকের সমাজসংস্কার থেকে, অথবা উনবিংশ শতকের ব্রাহ্ম আন্দোলন থেকে, অথবা উনবিংশ শতকের ভক্তি-অধ্যাত্ম থেকে বিংশ শতকের জাতীয়তাবাদ – একটি গতিপথ। জাতীয়তাবাদ থেকে শ্রেণী সংগ্রাম – দ্বিতীয় গতিপথ; দ্বিতীয় থেকে তৃতীয় ঐতিহাসিক মুহূর্তে পৌঁছোবার। 

বিবেকানন্দ একজন হলেও প্রথম গতিপথের পথিক বেশ কয়েকজন ছিলেন। তাঁর আগে স্বামী দয়ানন্দ সরস্বতীও ছিলেন, আবার জালিয়াঁওয়ালা বাগের দিনগুলোয় বিস্ময় জাগিয়ে তোলা স্বামী প্রজ্ঞানন্দও ছিলেন। আবার উল্টো গতিপথে যাওয়া – জাতীয়তাবাদ থেকে অধ্যাত্ম – মানুষেরাও ছিলেন। এক জীবনে দুটো গতিপথ পেরুন – অধ্যাত্ম থেকে জাতীয়তাবাদে পৌঁছে আবার জাতীয়তাবাদ থেকে শ্রেণীসংগ্রামে পৌঁছোন – মানুষ একজনই ছিলেন। স্বামী বিবেকানন্দের ছাব্বিশ বছর পর পূর্ব উত্তরপ্রদেশে জন্ম হলেও তাঁর সম্পূর্ণ কর্মজীবন কেটেছে বিহারে। তিনি সারা ভারত কিসান সভার সংস্থাপক সভাপতি স্বামী সহজানন্দ সরস্বতী। 

বিভিন্ন বাংলা খবরের কাগজের বিহার সংবাদদাতারা এবং মাঝে মধ্যে চাকরিসূত্রে বিহারে কিছু বছর কাটিয়ে যাওয়া বামপন্থী খবরাখবর রাখা বাঙালিরা নাক সিঁটকে বলতে পারেন – স্বামী সহজানন্দ? সেই যিনি ভুমিহার আন্দোলনের নেতা ছিলেন? ওনাদের জন্যই তো বিহারের সবকটা বামপন্থী পার্টির নেতৃত্বে ভুমিহারদের বোলবালা! … 

হ্যাঁ স্যার, সেই সহজানন্দ! ভূমিহার উত্থানের তথাকথিত সূত্রধার। 

স্বামী সহজানন্দ সরস্বতীর জন্মতারিখ উইকিপিডিয়ায় পাবেন ২২শে ফেব্রুয়ারি ১৮৮৯। সে বছর সেদিনই নাকি মহাশিবরাত্রি ছিল এবং গ্রামীণ রীতি অনুসারে শিশুটির কানে বার বার একথাটিই যেত যে মহাশিবরাত্রিতে তার জন্ম। কাজেই স্বামীজি নিজেও ঐ দিনটাকেই নিজের জন্মদিন মানতেন। এখনও তাঁর অনুযায়ী এবং বামপন্থী কৃষক সংগঠনেরও একাংশ, ঐ দিনটাকেই তাঁর জন্মদিন হিসেবে পালন করে, সেটা যে বছর যে তারিখেই পড়ুক। পূর্ব উত্তর প্রদেশের সেই এলাকায় তাঁর জন্ম হয়েছিল যেটা এখনও ভূমিহার অধ্যুষিত – জেলা গাজিপুর। তার ওপর সহজানন্দের ভিতরে ছিল ব্রাহ্মণত্বের অহঙ্কার, কেননা অধিকাংশ জাত্যাভিমানী ভুমিহার আজও নিজেদের ব্রাহ্মণ ভাবে। তা ছাড়া তাঁর প্রতিপালনও সেভাবেই হয়েছিল। তিনি নিজেই পরে লিখেছেন, “ … পুজো এবং পুজারি শিক্ষকদের সংসর্গে থাকার কারণে বলুন আর গ্রামবাসীদের প্রবৃত্তির প্রভাবে বলুন, আমি চিরকাল সনাতনী থেকেছি। এর গভীর প্রভাব যে সে সময় মনের ওপর পড়েছিল তা মোছেনি। যদিও আগের মত গোঁড়ামি আর নেই এবং পরে আমি ধর্মের শুধু সেই সব কথাগুলো সবসময় মেনেছি, যেগুলো বুদ্ধি দিয়ে মানতে পেরেছি। এটা সত্যি যে এখনো অব্দি সেই সনাতনপন্থার কিছু না কিছু প্রভাব রয়ে গেছে।”

পরিবারের কিছুটা জমিদারিও ছিল কিন্তু তাতে খাইখর্চা মিটত না, তাই প্রজাস্বত্বে জমি নিয়ে চাষও করতে হত। সহজানন্দের মা মারা যান তার তিন চার বছর বয়সে। তিনি মায়ের শেষ সন্তান। মায়ের ওপরে তাঁর এক বোন ছিল এবং তাঁদের দুজনের বিয়ে হয়েছিল সহজানন্দের বাবা ও জ্যাঠামশাইয়ের সাথেই। কাজেই শিশুটি মাসির কাছেই মানুষ হয়েছিল। সন্ন্যাস গ্রহণের আগে অব্দি, জন্মসূত্রে তাঁর নাম ছিল নওরঙ রায়।  

শৈশব থেকেই তাঁর মধ্যে বৈরাগ্যের একটা ভাব ছিল। তাঁর আত্মজীবনীতে তিনি লিখেছেন যে গ্রামের বুড়িরা তাঁর বিষয়ে বলত – ছেলেটার হৃদয় যেন পাথর; মা মরল, সবাই কাঁদছে আর এ? বলে কিনা, মা তো মরেই গেছে, কেঁদেকেটে কি আপনারাও মরে যাবেন? খেলাধুলো বা দুষ্টুমিতেও বালক নওরঙের মন বসত না। যা হোক, ছেলেটি বুদ্ধিমান দেখে তাকে স্কুলে ভর্তি করা দেওয়া হল। ভালোভাবে পড়াশুনো করছিলেন। কিন্তু কোনো কোনো শিক্ষকের প্রভাবে পুজোপাঠও বেড়েই চলেছিল। ছেলের অবস্থা দেখে পনের বছর বয়সেই পরিবারের লোকেরা ধরে বেঁধে তাঁর বিয়ে দিয়ে দিল। অবশ্য তিনি নিজেই বলছেন যে মনে বৈরাগ্যের ভাব থাকলেও যে বিয়েতে তাঁর অনিচ্ছে ছিল এমন নয়। তেমন হলে তিনি নিশ্চয়ই বিরুদ্ধে যেতেন। কিন্তু যাননি। অথচ ভাগ্যের পরিহাস, যে দু’বছরের মধ্যে সে স্ত্রীর মৃত্যু হল। তাঁর মনে হল এটাই প্রশস্ত সময়। স্ত্রী বেঁচে থাকলে সন্ন্যাস নিতে পারতেন না, কেননা স্ত্রী-সন্তানের দায়িত্ব ভুলে সন্ন্যাস নেওয়া মহাপাপ, তিনি জানতেন।

১৯০৬ সালের গরমের ছুটির পর গাজিপুরের স্কুলে ফিরলেন (তখন পড়াশুনোর জন্য গাজিপুরেই একটি শিবমন্দিরে থাকতেন) আর একদিন, বেনারসের টিকিট কেটে ট্রেনে চাপলেন। জুলাইয়ের শুরু। তিনি জানতেন চাতুর্মাস্যে সন্ন্যাসগ্রহণে বাধা, কাজেই শিগগির, কয়েকদিনের মধ্যেই ব্যাপারটা সেরে ফেলতে হবে। বেনারস থেকে হরিদ্বারের টিকিট পেলেন না। তখন লখনউএর টিকিট কেটে এগোলেন। লখনউ থেকে হরিদ্বারের টিকিট কেটে ট্রেনে চাপলেন কিন্তু সকালের নিত্যকর্মাদি সারতে কাকোরিতে নেমে পড়লেন। ভাবলেন পরের ট্রেন ধরে যাবেন। কিন্তু সেখানেই মনে ভয় জন্মাল। যদি চাতুর্মাস্য এসে গেছে বলে সন্ন্যাস না নিতে পারেন আর বাড়ি না ফিরলে সাড়া পড়ে যায় যে ছেলে সন্ন্যাস নিতে পালিয়েছে? তখন তাঁকে আর বাড়ি ছেড়ে একা বেরুতে দেওয়া হবে না। সব পন্ড হবে। 

ফিরে এলেন। ম্যাট্রিকের পরীক্ষা আসছে। স্কুলে শিক্ষকেরা সবাই ভাবছিলেন, ব্যস ইংরিজিটা আরেকটু ভালো করে নিলে, ছেলেটির যা মেধা আছে, ও ম্যাট্রিকে ফার্স্ট হবেই হবে। ওদিকে নওরঙ দেখছিলেন আগের বৌয়ের ছোটবোনের সাথে তাঁর দ্বিতীয় বিয়ের তোড়জোড় চলছে বাড়িতে। কাজেই, ঠিক পরীক্ষার আগে, ১৯০৭ সালের ফেব্রুয়ারি মাসে কাশীতে একটি মঠে গিয়ে সন্ন্যাস নিয়ে নিলেন। নাম হল সহজানন্দ। 

তারপর যা হয়, হল। সাড়া পড়ে গেল। খবর পৌঁছোল গ্রামে। পরিবারের লোকেরা এসে তাঁকে অনেক অনুরোধ-উপরোধ করে গ্রামে ফিরিয়ে নিয়ে গেল। কান্নার রোল পড়ে গেল বাড়িতে। সবাই ভাবছিল বুদ্ধিমান, লেখাপড়া শেখা ছেলে, ভালো চাকরি করে সবার দৈন্য ঘোচাবে – সে সব আশা জলে গেল। লুকিয়ে লুকিয়ে পরিকল্পনা করা হল জবরদস্তি গেরুয়া খুলিয়ে সন্ন্যাস ভেঙে দেওয়া হবে, নষ্ট করে দেওয়া হবে – হল না। পরিবারের হিসেবে পন্ডিত, শাস্ত্রজ্ঞানী ব্যক্তিদের নিয়োজিত করা হল, তারা যুক্তি দিয়ে বোঝাবে – পারল না। সহজানন্দ বাড়ি ছেড়ে চলেই গেলেন আবার।

এরপরের ঘটনাগুলো সংক্ষেপে সারছি। কেউ জানতে চাইলে তাঁর আত্মজীবনীর বাংলা অনুবাদ ‘আমার জীবনসংগ্রাম’ পড়তে পারেন, আমিই করেছি, আমার ব্লগে আছে। 

সন্ন্যাস নেওয়ার কিছুদিন পর উনি ভ্রমণে বেরিয়ে গেলেন। কখনো এক সন্ন্যাসী বন্ধুর সাথে, কখনো একা উনি হরিদ্বার, হৃষীকেশ, কেদার, বদ্রী থেকে মধ্যভারতে উজ্জৈন অব্দি নানা জায়গা পদব্রজে বা ট্রেনে চষে বেড়ালেন। উদ্দেশ্য ছিল কোনো গুরুর কাছে ভালো করে প্রাণায়াম ও যোগাভ্যাস শেখা। সাংসারিক কাজের প্রতি তীব্র অনীহায় যোগাভ্যাস, ধ্যান, সমাধি, বেদান্তচিন্তন … এসবকেই আসল কাজ ভাবতেন। মাঝে মধ্যে কিছুদিন কোথাও, কোনো মঠে, কোনো আচার্য্যের কাছে অধ্যয়নে ব্যাপৃত হতেন। এক সময় দন্ডগ্রহণ করার অধিকারপ্রাপ্ত হয়ে দন্ডী হলেন। দিনের পর দিন মাধুকরীর পথে ঘরে ঘরে ভিক্ষে চেয়ে অন্ন জোটাতেন এবং সেই অন্নই দিনে একবার, স্বপাকে গ্রহণ করতেন। কিছু দিন মঠে অধ্যয়ন আর বিশ্রামে কাটিয়ে, আবার সঙ্গী পেয়ে চলে গেলেন গুজরাত। ফিরে এসে গেলেন মিথিলা। সাত বছর এই সন্ন্যাস জীবনে কেটে গেল।

কাশীতেই ছিলেন যখন কয়েকজন সন্ন্যাসী তাঁকে বালিয়ায় অনুষ্ঠিতব্য ভুমিহার ব্রাহ্মণ মহাসভায় যেতে রাজি করালেন। সেখানেই তিনি প্রথম দেখলেন ও জানলেন যে তিনি নিজে যদিও আশৈশব ভূমিহার ব্রাহ্মণ শব্দজোটটাকে ঠিক তেমনই ভেবে এসেছেন যেমন কনৌজিয়া ব্রাহ্মণ, সরযুপারি ব্রাহ্মণ, মৈথিল ব্রাহ্মণ ইত্যাদি, সাধারণভাবে এখানে ভুমিহার ব্রাহ্মণ অর্থ ‘পতিত’ ব্রাহ্মণ। এবং তাঁর অবাক লাগল যে দুস্থ, গরীব ভুমিহার নিজেদের নানারকম সামাজিক ও ধার্মিক ক্রিয়াকর্মে ব্রাহ্মণ পুরোহিতদের খাইখর্চা মেটাতে নিজেদের সর্বস্বান্ত করে দেয়। এর আগেই সন্ন্যাসী হয়ে, স্থানে স্থানে ঘুরে তিনি গুরুবাদের ভন্ডামি দেখেছেন, শাস্ত্রার্থের নামে ভন্ডামি দেখেছেন, যোগীদের ভন্ডামি দেখেছেন … এখানে ভুমিহারসভায় গরীব ভুমিহারদের অবস্থা দেখে শুরু করলেন ভুমিহারদের পুরোহিত হওয়ার অধিকারের আন্দোলন। এটাই তাঁর জীবনে তোলা প্রথম সামাজিক আন্দোলনের আহ্বান এবং তাতে অংশগ্রহণের ঘটনা ছিল। তিনি বললেন যে যেকোনো গৃহী ভুমিহার নিজেদের সামাজিক ও ধার্মিক ক্রিয়াকর্মে নিজেরাই পুরোহিত হতে পারে। কাউকে ডাকার দরকার নেই। শুধু সেই সভাতেই নয় অন্যত্র ঘুরে ঘুরেও কথাটা প্রচার করলেন। এও বললেন যে ব্রাহ্মণদেরও পুরোহিতই হতে হবে এমন কোনো কথা নেই। তারা চাষবাসও করতে পারে; শাস্ত্রে কোথাও কোনো বাধা নেই। এসব নিয়ে বই লেখাও শুরু করলেন, ছাপল, এবং প্রচারিত হল সেসব।

অজান্তেই উনি মৌচাকে ঢিল ছুঁড়ছিলেন। একসঙ্গে দু’তিন জায়গায়। প্রথমতঃ পুরোহিত হওয়ার একচ্ছত্র অধিকারকে চ্যালেঞ্জ জানানর অর্থ হল জাতিপ্রথা ও ব্রাহ্মণবাদের ওপর হামলা। এটা প্রথম। কিন্তু এ থেকে বড় হল স্থিতাবস্থার সমর্থকদের ওপর হামলা। ওই মহাসভায় গরীব, দুস্থ ভুমিহারদের ভীড় থাকলেও নেতৃত্বে তো ছিল বড়, ধনাঢ্য জমিদার, অধিপতি রাজা ও রাজন্যেরা। তাদের টনক নড়ল। স্থিতাবস্থায় হামলা হলে তাদের শাসনের সমীকরণ বিপন্ন হবে। তারা নড়ে চড়ে বসল। তৃতীয় মৌচাকটা সহজানন্দের ভিতরেই ছিল। সন্ন্যাসে জ্ঞান ও ঈশ্বরপ্রাপ্তির সাধনা। সামাজিক আন্দোলনে বড় ভাবে অংশগ্রহণ করার কারণে তার বহিরাবরণটা সরে গেল। 

তিন-চার বছর ভুমিহার ব্রাহ্মণ আন্দোলনের সঙ্গে বিভিন্ন ভূমিকায় থেকে (এবং তাঁর নিজের কথায়, ধনাঢ্য ভুমিহারদের খপ্পরে পড়ে শেষের তিন বছর নষ্ট করে) বন্ধুবান্ধবদের অনুরোধে উনি ইংরেজি পড়া শুরু করলেন আবার। ভিতটা পোক্ত হল। নিয়মিত খবরের কাগজ পড়তে শুরু করলেন। ১৯২০র জুলাইয়ে বাল গঙ্গাধর তিলকের মৃত্যু তাঁকেও আঘাত করল। খিলাফত আন্দোলনের ক্রমে অসহযোগের প্রশ্নে মতবিরোধে তাঁর গান্ধিজি কে ঠিক আর মালবীয় ও অন্যান্যদের ভুল মনে হল। সে বছরই পাটনায় ডিসেম্বরে এলেন গান্ধিজি এবং কংগ্রেসের অন্যান্য নেতারা। 

স্বামীজি লিখছেন জালিয়াঁওয়ালা বাগের ঘটনার বিরুদ্ধে অসহযোগের ডাক দিতে। এতে বোঝা যায় সেই ঘটনার প্রভাব স্বামিজির মনেও পড়েছিল। সভায় নিয়মিত গিয়ে সব নেতাদের ভাষণ শুনলেন। এবং শেষে সিদ্ধান্ত করলেন যে গান্ধিজির সঙ্গে মুখোমুখি কথা বলা দরকার। সে সুযোগও এল। কথা বললেন। সন্ন্যাস নিয়ে, রাজনীতি নিয়ে, গীতা প্রসঙ্গে … অনেকক্ষণ। বার্তালাপ শেষে তাঁর মনে হল এক্ষুণি রাজনীতিতে ঝাঁপিয়ে পড়া উচিৎ। আত্মজীবনীতে উনি লিখছেন, “এজন্য নয় যে দেশের উপকার হবে। বরং একন্য যে তাহলেই আমি সাচ্চা সন্ন্যাসী হতে পারব। এখন তো আমি কাঁচা।” এবং কিছুদিনের মধ্যেই সহজানন্দ রাজনীতিতে যোগ দিলেন। নাগপুর কংগ্রেসে অংশগ্রহণ করার পর বিহারকেই নিজের কার্যক্ষেত্র করলেন। প্রথম অসহযোগ সংগঠিত করলেন বক্সারে। জেলে গেলেন বেশ কয়েক বার। জনগণের প্রশ্নে সোচ্চার হতে পত্রিকার প্রকাশন শুরু করলেন। 

প্রথম বার ভুমিহার আন্দোলনের সাথে সংযোগ তাঁকে কংগ্রেসের রাজনীতিতে নিয়ে এসেছিল। তিনি স্বদেশী দেশসেবক হয়ে উঠেছিলেন। দ্বিতীয়বার ভুমিহার আন্দোলনের সাথে সংযোগ তাঁকে শ্রমজীবী আন্দোলনের দিকে টেনে নিয়ে গেল। 

দুটো ঘটনা ঘটল আগে পরে। প্রথমতঃ, বিহারে স্বাধীনতা সংগ্রামী জননেতা হিসেবে কাজকরা এক সন্ন্যাসী হিসেবে তাঁর নামডাকে প্রভাবিত হয়ে এক সন্ন্যাসী মহন্ত সীতারামদাস মারা যাওয়ার আগে তাঁর বিহটার মঠ ও জমিজমা সহজানন্দকে দিয়ে গেলেন। সহজানন্দ সেখানেই শুরু করলেন ভুমিহার বালকদের সংস্কৃত পড়ানর পাঠশালা। কিন্তু সেখানে থাকার সুবাদে বিহটার কৃষকদের ওপর হওয়া জমিদারের শোষণও খুব কাছ থেকে দেখা শুরু করলেন। শুধু জমিদারের শোষণ নয়। বিহটায় চিনি মিল ছিল। তাই আখচাষিদের প্রকৃত অবস্থা এবং মিলমালিক ও জমিদারদের যুক্ত অত্যাচার প্রত্যক্ষ করতে লাগলেন।      

দ্বিতীয়তঃ, আবার তাঁর ডাক এল ভুমিহার ব্রাহ্মণ মহাসভার তরফ থেকে। কিন্তু সেখানে গিয়ে তিনি দেখলেন ধনী ভুমিহারদের মাঝে তিনি অবাঞ্ছিত। কেননা তিনি কংগ্রেসি, দেশসেবক আর জমিদারেরা ইংরেজশাসনের লেজুড়। তাঁকে শুনতেও হল বাঁকা কথা – আপনি তো সন্ন্যাসী, হিমালয়ে যান, এখানে কী করছেন?

এসবেরই প্রভাবে স্বামীজি আরো বেশি করে গরীব জনসাধারণের সঙ্গে একাত্মতা অনুভব করলেন এবং কৃষক আন্দোলন শুরু করলেন নিজের এলাকায়। ৪ঠা মার্চ ১৯২৮ সালে স্থাপিত হল দেশের প্রথম কিসান সভা – পশ্চিম পাটনা কিসান সভা। কৃষক আন্দোলন সংগঠিত করতে সারা বিহার চষে বেড়ালেন। ভারতবর্ষ চষে বেড়ালেন। যখন সারা ভারত কিসান সভা সংগঠিত হল, তিনি হলেন তার সর্বমান্য সংস্থাপক সভাপতি।  

এরপর স্বামী সহজানন্দ সরস্বতী কৃষক নেতা, সংগ্রামী শ্রমজীবীর বন্ধু, এক অসামান্য বিপ্লবী চিন্তানায়ক। সে জীবনের সংক্ষিপ্তিকরণের কোন প্রয়োজন নেই। যেটুকু লেখা আছে, তার বিশদে গিয়ে আরো আবিষ্কারের প্রয়োজন আছে। 

২১.১১.২২




Tuesday, November 15, 2022

আট ঘন্টা শ্রমদিনের লড়াই এবং মার্ক্স-এঙ্গেলস

পূঁজিপতিদের জন্য বা পূঁজির যুক্তিতে নর্মাল বা স্বাভাবিক শ্রমদিন ২৪ ঘন্টা, কেননা দিন ২৪ ঘন্টার এবং সে দিনের মজুরি দিয়ে শ্রমিকের সারাদিনের শ্রমশক্তি কিনছে। শ্রমিক মানুষটাকে কয়েকঘন্টা ঘুম, খাওয়া, শৌচাদির জন্য ছাড় দেওয়া তার নিরুপায় বাধ্যতা। কাজেই, এটা স্পষ্ট যে স্বাভাবিক শ্রমদিন পূঁজির বিরুদ্ধে শ্রমের লড়াইয়ের ফল ছাড়া অন্য কিছু হতে পারে না। শ্রমিকেরই আন্দোলনের চাপে শ্রমদিন ধীরে ধীরে নিয়ন্ত্রিত এবং সীমিত হয়েছে, সমাজ সে সময় সেটাকেই মেনেছে স্বাভাবিক; কোনো জৈবিক বিশ্লেষণে নয়। 

যদ্দুর বইয়ে দেখতে পাচ্ছি, ১৮১০ সালে কাল্পনিক সমাজবাদীনামে খ্যাতদের একজন, রবার্ট ওয়েন আট ঘন্টা শ্রমদিনের প্রশ্ন তোলেন এবং নিউ ল্যানার্কে নিজের সমাজবাদী উদ্যমে সময়টা বলবৎ করেন। ১৮১৭ সালে তিনি এই শ্রমদিনকে সমাজের লক্ষ্য হিসেবে প্রস্তাবিত করেন এবং এর যৌক্তিকতা বোঝাতে স্লোগান গড়ে তোলেন, আট ঘন্টা শ্রম, আট ঘন্টা বিনোদন, আট ঘন্টা বিশ্রাম। 

কিন্তু তখন নবোদ্ভূত শ্রমিকশ্রেণীর সচেতন শ্রেণী হয়ে ওঠা শুরু হয় নি। উৎপাদনের নতুন নতুন যন্ত্রের বিরুদ্ধে রাগটা প্রকাশ পাচ্ছিল ভাঙচুরে, লুড্ডাইট আন্দোলনে এবং যেখানে সেখানে পূঁজিপতিদের বিরুদ্ধে ছোট খাটো হিংসা এমনকি সশস্ত্র বিদ্রোহের স্ফূরণে। সে সময় সংগঠিত হওয়ার আইনি অধিকারটুকুও তারা পায় নি। ইংলন্ডেও না আমেরিকাতেও না। আমেরিকার নাম নিলাম এজন্য বাঙালি পাঠকদের পড়ার জন্য একটা জনপ্রিয় গল্পের বই আছে, আর্থার কোনান ডয়েলের ভ্যালি অফ ফিয়ার। তাতে বিপরীত অর্থাৎ পাতি-বুর্জোয়া দৃষ্টিভঙ্গি থেকে লেখা এক অসাধারণ বর্ণনা আছে আমেরিকার শ্রমিক অধ্যুষিত শিল্প অঞ্চলের।

ইংলন্ডে শ্রমিক শ্রেণীর প্রথম সংঘবদ্ধ আত্মপ্রকাশ চার্টিস্ট আন্দোলনের মাধ্যমে শুরু হয়। ১৮৩৫ সালের প্রথম চার্টারে যদিও দাবিগুলো শুধু রাজনৈতিক গণতন্ত্রকে প্রসারিত করার দাবি ছিল, কিছুদিনের মধ্যেই শ্রেণীগত দাবিগুলো তাতে উঠে আসে।  ১৮৪৫ সালে প্রকাশিত ১৮৪৪ সালে ইংলন্ডে শ্রমিকশ্রেণির অবস্থা বইটিতে তরুণ ফ্রেডরিক এঙ্গেলস লিখছেন, যেহেতু শ্রমিকেরা আইনকে সম্মান করে না, নিছক তার শক্তির কাছে আত্মসমর্পণ করে কেননা বদলাতে তারা অক্ষম, খুব স্বাভাবিক যে তারা অন্ততঃ কিছু কিছু বদল প্রস্তাব করবে, চাইবে যে বুর্জোয়া আইনি বুনটের জায়গায় একটা সর্বহারা আইন আসুক। সেই প্রস্তাবিত আইন হল পিপলস চার্টার’ [গণদাবিপত্র] যার রূপটা বিশুদ্ধভাবে রাজনৈতিক । ইউনিয়নে এবং সমাবেশে বিরোধটা সব সময় বিছিন্ন ছিল একজন বুর্জোয়ার বিরুদ্ধে একজন শ্রমিক বা তাদের একটি অংশ। যদি লড়াইটা সাধারণ হয়েও উঠত, সেটা শ্রমিকদের ইচ্ছেয় হত না। আর একান্তই যদি ইচ্ছেয় হত, তাহলে তার তলায় চার্টিজম থাকত। বস্তুতঃ চার্টিজমেই পুরো শ্রমিকশ্রেণি পূঁজিবাদিদের [বুর্জোয়াজি শব্দটার বাংলা করলাম] বিরুদ্ধে উঠে দাঁড়ায় এবং সবচেয়ে আগে রাজনৈতিক ক্ষমতাকে আক্রমণ করে, সেই আইন-প্রণয়নকারি দুর্গপ্রাকারটাকে, যেটা দিয়ে পূঁজিবাদিরা নিজেদের চারদিকে ঘিরে রেখেছে। চার্টিজম ১৮৩৫ সালে তার শুরুআত থেকেই প্রধানতঃ শ্রমিকশ্রেণির ভিতরকার আন্দোলন ছিল, যদিও স্পষ্টভাবে পূঁজিবাদিদের থেকে নিজেকে আলাদা করে নি। 

মার্ক্স আর এঙ্গেলসের প্রথম দেখা হয় ১৮৪২ সালে। কোলোনে, রাইনিশে জাইটুংএর দপ্তরে। বিশেষ কথাবার্তা হয় নি। তার পর যখন দেখা হওয়ার মত করে দেখা হয় প্যারিসে, ততদিনে মার্ক্সের হাতে ছিল হেগেলের বিধিদর্শনের সমালোচনার পান্ডুলিপির পর ১৮৪৪এর আর্থিক ও দার্শনিক পান্ডুলিপি যার প্রথমটি শুরুই হচ্ছে শ্রমের মজুরি শিরোনামে একটি অধ্যায় দিয়ে। তাতে আলাদা করে শ্রমদিবসের প্রশ্ন সোজাসুজি উত্থাপিত হয় নি। বরং উনি লিখছেন, না বললেও স্পষ্ট যে রাজনৈতিক অর্থশাস্ত্র সর্বহারাকে, অর্থাৎ এমন একটি মানুষকে যার কাছে পূঁজি এবং ভাড়া না থাকার ফলে শুধু শ্রম দিয়ে জীবনধারণ করে, তাও একতরফা, বিমূর্ত শ্রম দিয়ে, শুধুই শ্রমিক  মনে করে। রাজনৈতিক অর্থ শাস্ত্র তাই প্রস্তাব করতে পারে যে সর্বহারার, যে কোনো ঘোড়ার মত, সেটুকু পাওয়া উচিৎ যেটুকু তাকে কর্মক্ষম রাখতে পারে। যখন সে কাজ করে না, তখন, অর্থাৎ একজন মানুষ হিসেবে, রাজনৈতিক অর্থশাস্ত্র তাকে হিসেবের মধ্যে আনে না; ছেড়ে দেয় ফৌজদারি আইন, ডাক্তার, ধর্ম, পরিসংখ্যানের সারণী, রাজনীতি এবং দরিদ্র-ভবনের তত্ত্বাবধায়কের হাতে। 

অন্যদিকে এঙ্গেলসের হাতে সে সময় ছিল তাঁর সুবিখ্যাত কৃতি, ১৮৪৪ সালে ইংলন্ডে শ্রমিকশ্রেণির অবস্থার খসড়া পান্ডুলিপি। যদিও তার আগে তাঁর একটি বড় লেখা রাজনৈতিক অর্থশাস্ত্রের সমালোচনার রূপরেখা ড্যুশ ফ্রাঞ্জোইশ জাহ্রবুখেরে প্রকাশিত হয়েছে এবং মার্ক্স সে লেখা পড়েছেন (পরে বলেছেন যে ওই লেখাটিই তাঁকে অর্থশাস্ত্রের গভীর অধ্যয়নের দিকে টেনে নিয়ে গেছে; সব জায়গায় গুরুত্ব দিয়েছেন সে লেখাটিকে)। সে লেখায় শ্রম শিরোনামে একটি অনুচ্ছেদে আছে, শ্রম উৎপাদনের প্রধান কারক, সম্পদের উৎস, মুক্ত মানব সক্রিয়তা অর্থশাস্ত্রীদের কাছে খারাপ অর্থে আসে। এও আছে, যদি ব্যক্তিগত সম্পত্তি শেষ করতে পারি তাহলে এই অস্বাভাবিক বিচ্ছেদ [পূঁজি আর শ্রমের, শ্রমের উৎপত্তি আর মজুরির] অদৃশ্য হয়ে যাবে …” ইত্যাদি।  আর ১৮৪৪ সালে ইংলন্ডে শ্রমিকশ্রেণির অবস্থাতে?

চব্বিশ বছর বয়সে ফ্রেডরিক এঙ্গেলস ম্যাঞ্চেস্টারের শ্রমিকবস্তিতে ঘর নিয়ে থেকে, তথ্যাদি যোগাড় করে লেখেন তাঁর সুবিখ্যাত কৃতি, ১৮৪৪ সালে ইংলন্ডে শ্রমিকশ্রেণির অবস্থা। সে বইয়ে তিনি, ১৮৩৮ সালে দুই লক্ষ শ্রমিকের চার্টিস্ট জমায়েতে এক মেথডিস্ট পাদ্রির দেওয়া ভাষণ থেকে উদ্ধৃত করেন, চার্টিজম এমন কোনো রাজনৈতিক আন্দোলন নয় বন্ধুগণ, যাতে আপনাদের ব্যালটের অধিকার পাওয়াটাই প্রধান উদ্দেশ্য হবে। চার্টিজম ছুরি আর কাঁটার [পেটের ভাতের অর্থে] প্রশ্ন; চার্টার মানে একটা ভালো বাসস্থান, ভালো আহার ও পান, উন্নতি এবং ছোট শ্রম-প্রহর[শব্দে জোর বর্তমান লেখকের]  এঙ্গেলস তারপর নিজের ভাষ্যে ফিরে আসেন, নতুন দরিদ্র আইনের বিরুদ্ধে এবং দশ ঘন্টার বিলের পক্ষে আন্দোলন আগে থেকেই চার্টিজমের সঙ্গে ঘনিষ্ঠতম ভাবে সম্পর্কিত ছিল।” 

১৮৪৭ সালে ইংলন্ডের সংসদে কারখানা আইন প্রণীত হয়। বার বছর ধরে চলতে থাকা আন্দোলনের জন্য বিলটার চলতি নামই হয়ে গিয়েছিল ১০ ঘন্টার বিল এবং পরে, ১০ ঘন্টার আইন। এর আগে অব্দি শ্রমসময়ের প্রশ্ন এলেও। যে আইনগুলো প্রণীত হয়েছিল সেগুলো প্রধানতঃ শিশুশ্রম নিবারক ছিল এবং বয়স্কদের শ্রমসময় সম্পর্কে ধারা থাকলেও দেশের রাজনৈতিক অবস্থা এমনই ছিল যে সেগুলো বলবৎ করা যায় নি।

উনিশ বছর পর, ১৮৬৬ সালের আগস্ট মাসে, আমেরিকার বাল্টিমোরের ন্যাশনাল লেবার ইউনিয়ন একটি প্রস্তাব গ্রহণ করে। তাতে বলা হয়, পূঁজিবাদি দাসত্ব থেকে শ্রমকে মুক্ত করার পথে বর্তমান সময়ের প্রথম গুরুত্বপূর্ণ কাজ, এমন একটি আইন প্রণয়ন যার দ্বারা পুরো এমেরিকী সঙ্ঘের সবকটি রাজ্যে স্বাভাবিক শ্রমদিন হবে আট ঘন্টা। সংকল্প নিচ্ছি, এই মহৎ উদ্দেশ্য সাধনে আমরা আমাদের সর্বশক্তি নিয়োজিত করব।

তার কিছুদিনের মধ্যেই, সেপ্টেম্বর ১৮৬৬র ৩ থেকে ৮ তারিখ অব্দি জেনেভায় অনুষ্ঠিত ইন্টারন্যাশনাল ওয়র্কিংমেন্স এসোসিয়েশন (ফার্স্ট ইন্টারন্যাশনাল) এর কংগ্রেসে আটঘন্টা শ্রমদিনের দাবি তোলা হল। ঘোষিত হল, শ্রমদিনের আইনগত সীমিতকরণ প্রারম্ভিক শর্ত। এটি না হলে শ্রমিক শ্রেণির অবস্থার উন্নতিসাধন এবং মুক্তির সমস্ত প্রচেষ্টা ব্যর্থ হবে।এবং, শ্রমদিনের আইনগত সীমা আট ঘন্টা প্রস্তাব করছে কংগ্রেস।

এটা সবাই জানে যে প্রথম আন্তর্জাতিকের দস্তাবেজগুলোর বেশির ভাগই মার্ক্স নিজের হাতে তৈরি করেছিলেন অথবা তাঁর নির্দেশে তৈরি হয়েছিল। আগস্ট ১৮৬৬তে জেনেভা কংগ্রেসের প্রস্তুতি হিসেবে তিনি কিছু নোট তৈরি করেছিলেন। সেই নোটের একাংশ পাওয়া গিয়েছিল এবং পরে পল লাফার্গ সেই নোট ফরাসিতে অনুবাদ করে প্রকাশ করেন। রোজকার দরকার শিরোনামে সেই নোটের ষষ্ঠ অংশের দ্বিতীয় অনুচ্ছেদ ছিল নিম্নরূপঃ

শ্রমদিনের সীমিতকরণ

আমাদের প্রস্তাবে শ্রমদিনের আইনগত সীমা হোক ৮ ঘন্টা। সাধারণভাবে এই সীমিতকরণ যুক্তরাজ্য আমেরিকার শ্রমজীবীদের দাবি, কংগ্রেসের ভোট দাবিটাকে সারা বিশ্বের শ্রমিক শ্রেণীর সর্বজনীন কর্মপন্থা করে তুলবে। 

এর পর, কেন এই দাবি জরুরি তা নিয়ে কিছু সাবধানবাণী এবং দাবীর কিছু বিশদ, যেমন টিফিনের সময়, রাতের ডিউটি, নারীদের শ্রমসময়, শিশুশ্রম ইত্যাদি নিয়ে কথা ছিল ওই নোটে। 

১৮৬৭ সালে মার্ক্সের মহাগ্রন্থ পূঁজির প্রথম খন্ড প্রকাশিত হয়। এগ্রন্থে শ্রম দিন নিয়ে পুরো একটি অধ্যায় (তৃতীয় ভাগের অধ্যায় সংখ্যা ১০) রয়েছে। সাতটা পরিচ্ছেদে শ্রমদিন কী, উদ্বৃত্ত মূল্য বৃদ্ধির জন্য পূঁজিপতির লালসা, তার বিভিন্ন উপায় এবং অপর দিকে ন্যায্য (ইংরেজি নর্মাল শব্দটির অনুবাদ অনুবাদক পীযুষ দাশগুপ্ত ন্যায্য করেছেন) শ্রমদিনের জয় শ্রমিকদের সংগ্রাম, ব্রিটেনে ও অন্যত্র কারখানা আইন প্রণয়নের ইতিহাস ব্যাখ্যা করেছেন মার্ক্স। সেগুলো মূলত রাজনৈতিক অর্থশাস্ত্রের দিক থেকে তাত্ত্বিক ব্যাখ্যা। আট ঘন্টার জন্য লড়াই এই গ্রন্থ প্রকাশনের আগে শুরু হয়ে গেছে এবং মার্ক্স-এঙ্গেলস সে লড়াইয়ের সাংগঠনিক নেতৃত্বে রয়েছেন। তবু প্রথম পরিচ্ছেদের দুটো গুরুত্বপূর্ণ অংশ উদ্ধৃত করছি কেননা সূত্র হিসেবে এদুটো সব সময় মাথায় রাখতে হয়।

শ্রম-দিবস একটি স্থির রাশি নয় বরং একটি পরিবর্তনীয় রাশি। তার একটি অংশ নিশ্চয়ই নির্ধারিত হয় স্বয়ং শ্রমিকের শ্রম-শক্তির পুনরুৎপাদনের জন্য প্রয়োজনীয় শ্রম-সময়ের দ্বারা। কিন্তু তার মোট পরিমাণ পরিবর্তিত হয় উদ্বৃত্ত-শ্রমের মেয়াদের সঙ্গে। সুতরাং শ্রম-দিবস নির্ধারণযোগ্য কিন্তু আপাততঃ অনির্ধারিত।

দুটি সমান অধিকারের মধ্যে এই সংঘাত শক্তির দ্বারা মীমাংসিত হয়। এই কারণেই, যাকে বলা হয় শ্রম-দিবস, তার নির্ধারণের ঘটনাটি ধনতান্ত্রিক উৎপাদনের ইতিহাসে আত্মপ্রকাশ করে একটি সংগ্রামের পরিণতি হিসাবে যৌথ মূলধন অর্থাৎ ধনিক-শ্রেণী এবং যৌথ শ্রম অর্থাৎ শ্রমিক-শ্রেণীর মধ্যে সংগ্রাম হিসাবে। 

প্রথম আন্তর্জাতিকে প্রস্তাব গৃহীত হলেও এবং সারা ইওরোপে, আমেরিকায় এবং রাশিয়ায় তার বার্তা ছড়িয়ে গেলেও কোথায় কোথায় কী কী কাজ হচ্ছে তার সবটা খবর তো আর সে সময় পৌঁছোত না। তার ওপর প্রথম আন্তর্জাতিকের প্রতিষ্ঠার পাঁচ বছরের মধ্যে ফ্রান্সে প্যারি কম্যুনের মত ঘটনা ঘটে যাওয়ায় বিভিন্ন দেশের শাসকশ্রেণী প্রায় বিক্ষিপ্তের মত প্রতিহিংসাপরায়ণ হয়ে ওঠে। প্রথম আন্তর্জাতিকের সবকটি শাখার ওপর নেমে আসে শাসকশ্রেণী, পুলিস ও মিডিয়ার আক্রমণ। ১৮৮৩ সালে মার্ক্স মারা যান। মার্ক্সের মারা যাওয়ার পর এঙ্গেলসও নিজের বাকি সমস্ত কাজ সরিয়ে রেখে পূঁজির দ্বিতীয় খন্ডের অন্তিম পান্ডুলিপি এবং প্রেসকপি তৈরি করার কাজে নিজেকে নিয়োজিত করেন। এক বছর তাতে লেগে যায়। তারপর শুরু করেন মার্ক্সের খসড়া মিলিয়ে মিলিয়ে পাঠোদ্ধার করে পূঁজির তৃতীয় খন্ড নির্মাণের কাজ। তাতে দশ বছর লেগে যায়। তবু, তারই মধ্যে ১৮৮৬ সালের ২৯শে এপ্রিল আট ঘন্টা শ্রমদিনের লড়াই প্রসঙ্গে আমেরিকায় ফ্রেডরিক এডলফ সোর্জকে চিঠিতে লেখেন এঙ্গেলস, এতদসত্ত্বেও আমেরিকায় জোর কদমে লড়াইটা এগিয়ে চলেছে। ইংরেজি-ভাষী জনতার মধ্যে প্রথমবার বাস্তবিক গণআন্দোলন শুরু হয়েছে। এটা অনিবার্য যে পথ না জানা থাকার কারণে খাপছাড়া ভাবে, আনাড়িভাবে সে আন্দোলনকে এগোতে হচ্ছে। সেসব ঠিক হয়ে যাবে। নিজের ভুল থেকে শিখে এ আন্দোলন অবশ্যই এগোবে। যুব জাতিগুলোর সাধারণ বিশেষত্ব তাত্ত্বিক অজ্ঞানতা, কিন্তু বেগবান ব্যবহারিক বিকাশও তাদের তেমনই সাধারণ বিশেষত্ব। এবং দেখা করতে আসা সবাইকে, আমেরিকার শ্রমিক শ্রেণী আর আটঘন্টার লড়াইয়ের কথা বলছেন। ভিতরে ভিতরে আনন্দিত হয়ে উঠছেন যে আন্তর্জাতিকে মার্ক্সের দেওয়া লাইন এগুচ্ছে পৃথিবীতে। 

সে বছরই মে মাসের প্রথম সপ্তাহে শিকাগোর হে-মার্কেটে ঐতিহাসিক ঘটনাবলি ঘটে যায়। হে-মার্কেটের ঘটনার পিছনে পুলিস ও ম্যাককর্মিক কারখানার মালিকদের ঘৃণ্য ষড়যন্ত্রের কথা অনেক বছর অব্দি চাপা ছিল। সব জায়গায় এখবরটাই গিয়েছিল যে নৈরাজ্যবাদীরা বোমা ফেলেছে ইত্যাদি। কাজেই এঙ্গেলস নিজের দুশ্চিন্তার কথা লিখতে শুরু করেন। ১২ই মে, উইলিয়াম লিবনেখটকে লেখেন যে এমেরিকা এখন শিল্পোদ্যমী জাতি; অহেতুক উচ্ছৃংখলতার পথ থেকে তাদের সরে আসা উচিৎ। আবার ২২শে মে বার্নস্টাইনকে লিখছেন যে আমেরিকানদের ভুলটাও হয়ত লাভজনক হতে পারে; বেশি মজুরি এবং ছোট শ্রমদিন পেতে পারে তারা, কিন্তু তাদের ভাবনাচিন্তা পূঁজিবাদী। কাজেই চট করে জিত হয়ে গেলে তাদের মধ্যে ট্রেড ইউনিয়নবাদ অযৌক্তিকভাবে শক্তিশালী হয়ে উঠতে পারে। এক মাস পর ৩রা জুন, এফ কেলি-উইশ্নেওয়েস্কিকেও একই কথা লিখছেন। 

১৮৮৯ সালে প্যারিসে ইন্টারন্যাশন্যাল সোশ্যালিস্ট কংগ্রেস হয়। বলতে গেলে ঝাঁপিয়ে পড়ে এঙ্গেলস ওই কংগ্রেসে মার্ক্সবাদপন্থী বা শ্রমিকবিপ্লবপন্থী বা শ্রেণীসমঝোতাবিরোধী শক্তিগুলোকে একজোট করে তাদের জন্য জায়গা তৈরি করেন। নিজে সে কংগ্রেসে যান নি কিন্তু লাফার্গ ও অন্যান্যদের নির্দেশ দিয়ে দিয়ে নিজেদের ভাবনাচিন্তাগুলোকে কংগ্রেসে প্রতিষ্ঠিত করেন। সেই কংগ্রেসেই সিদ্ধান্ত হয় যে ১৮৮৬ সালে শিকাগোর ঘটনাবলীর স্মৃতিতে প্রতি বছর পয়লা মে আন্তর্জাতিক শ্রমিক দিবস উদযাপিত হবে। 

১৬ই এপ্রিল ১৮৯০ এঙ্গেলস লরা লাফার্গকে লিখলেনঃ

কংগ্রেসের সবচেয়ে ভালো ঘটনা হল পয়লা মের প্রস্তাব। সিদ্ধান্ত নেওয়া হল যে ১৮৯০ সালের ১ মে, আট ঘন্টা শ্রম দিন এবং শ্রম-আইনের দাবিতে বিশ্বের সব দেশে বিক্ষোভ-প্রদর্শন এবং সভা ইত্যাদি অনুষ্ঠিত হবে। 

শিল্প-শ্রমিকের সংখ্যা ইংলন্ডে সে সময় অনেক। তাই কারখানা বা মিলের গেটে পিকেটিং ছাড়া লন্ডনের হাইড পার্কে বড় সভা ইত্যাদি রবিবারেই হত। ১৮৯০ সালের মে দিবসও তাই ৪ঠা মে তারিখে হবে স্থির হল।

এখানে একটা গল্প আছে। ইলিয়ানর (টুসি, মার্ক্সের ছোট মেয়ে) এবং তার স্বামী এডোয়ার্ড লন্ডনে গ্যাস ও অন্যান্য শ্রমিকদের মধ্যে লড়াকু ইউনিয়ন তৈরি করে সমাজবাদী প্রচারপ্রসারের কাজ করছিলেন। ইলিয়ানর তো এত জনপ্রিয় নেত্রী হয়ে উঠেছিলেন যে তাঁকে শ্রমিকেরা মা বলে সম্বোধন করতে শুরু করেছিল। এবার যখন সিদ্ধান্ত হল যে লন্ডনে মে দিবস এক তারিখে নয়, চার তারিখে বড় সভা করে হবে সে সিদ্ধান্তের বড় অংশীদার ছিল সংস্কারপন্থী ট্রেড ইউনিয়নগুলো। তারা আগেভাগে পৌরসভার দপ্তরে গিয়ে বেশির ভাগ জায়গার দখল নিয়ে নিল। ওখানে, এবং আমেরিকাতেও তখন মঞ্চ গড়ে সভা হত না। বড় চাকাওয়ালা উঁচু টানা-গাড়ি থাকত, ওয়াগনকার্ট বলা হত, সেগুলো জায়গা মত দাঁড় করিয়ে দেওয়া হত। বেশির ভাগ জায়গা মানে, ওয়াগনকার্ট লাগানো সভাস্থল সংরক্ষিত করে নিল সংস্কারপন্থীরা। ইলিয়ানর এবং অন্যান্যদের নেতৃত্বে লড়াকু ট্রেড ইউনিয়নের প্রতিনিধিরা গিয়ে দেখলেন সব আগেই সংরক্ষিত। অনেক ঝগড়াঝাঁটি হল। কিছু করার ছিল না। বাকি থাকা কিছুটা জায়গায় ওয়াগনকার্ট লাগানোর ব্যবস্থা করে তাঁরা নিজেদের নামে সংরক্ষিত করালেন। ৩০শে এপ্রিল ১৮৯০ এঙ্গেলস সোর্জকে লিখলেন, একমাত্র টুসি আর এভেলিংএর দৌলতে আসছে রোববার, লন্ডনে আট ঘন্টা শ্রম-দিনের দাবীতে বিশাল প্রদর্শন-সমাবেশ হবে।

৪ঠা মে সকাল থেকেই এঙ্গেলস আনন্দে মাতোয়ারা ছিলেন। মার্ক্সের স্বপ্ন সফল হচ্ছে। যে স্লোগান তাঁরা কম্যুনিস্ট লীগ গঠন করার সময় তৈরি করেছিলেন, ঘোষণাপত্রের মাথায় যে স্লোগান লেখা হল, দুনিয়ার শ্রমিক এক হও! আট ঘন্টা শ্রম-দিনের দাবীতে পয়লা মে আন্তর্জাতিক শ্রমিক দিবস উদযাপনের মধ্যে দিয়ে সে স্লোগান প্রথম রূপায়িত হচ্ছে। সভায় যাওয়ার জন্য অনেক আগে থেকেই তৈরি হলেন। বরং ওনার মুখেই শুনি সেদিনকার কথা। ৯ই মে অগাস্ট বেবেলকে উনি লিখলেনঃ

পূঁজিবাদী প্রেসকেও স্বীকার করতে হয়েছে যে এখানে ৪ঠা মের প্রদর্শন একেবারে অভিভূত করে দেওয়ার মত ছিল। আমি ৪ নম্বর প্ল্যাটফর্মে (একটা ভারি মালগাড়ি) ছিলাম এবং ভীড়ের মাত্র একটা অংশই পাঁচ ভাগের বা ধর আট ভাগের এক ভাগ দেখতে পাচ্ছিলাম। কিন্তু যদ্দূর চোখ যাচ্ছিল, এক বিশাল সমুদ্র ছিল মানুষের মুখের। আড়াই লক্ষ থেকে তিন লক্ষ লোক, তার চার ভাগের তিন ভাগই প্রদর্শনকারী শ্রমিক। এভেলিং, লাফার্গ আর স্তেপন্যাক আমার প্ল্যাটফর্ম থেকে বলল। আমি নিজে শুধু দর্শক ছিলাম। লাফার্গ, ফরাসি ধাঁচে বলা তার সুন্দর ইংরেজি আর দখিনা উদ্দীপনার জন্য প্রচুর তালি কুড়োল। তালি কুড়োল স্তেপন্যাকও। ওদিকে এডকে, যে টুসির প্ল্যাটফর্মে ছিল দারুণভাবে স্বাগত জানাল জমায়েত। 

সাতটা প্ল্যাটফর্মের প্রত্যেকটা একে অন্যের থেকে ১৫০ মিটার দূরত্বে ছিল। শেষেরগুলো পার্কের কিনার থেকে ১৫০ মিটার জায়গা ছেড়ে ছল। কাজেই আমাদের সভার (আন্তর্জাতিক আইন প্রণয়ন করে আট ঘন্টার শ্রম-দিন বলবৎ করার পক্ষে) মোট জায়গা ছিল লম্বায় ১২০০ মিটার আর চওড়ায় ৪০০-৫০০ মিটার। পুরো জায়গাটা ঠাসাঠাসিভাবে ভরা ছিল। তার পরে ছিল ট্রেডস কাউন্সিলের ছটা প্ল্যাটফর্ম আর সোশ্যাল ডেমোক্র্যাটিক ফেডারেশনের দুটো প্ল্যাটফর্ম। কিন্তু শ্রোতাদের সংখ্যা আমাদের আদ্ধেকও ছিল না।  

সব কথার শেষ কথা, এখানে আজ অব্দি আয়োজিত সবচেয়ে বড় সভা ছিল এটা। তার ওপর, বিশেষ করে আমাদের বিরাট জয় নিহিত ছিল এ সভায়। তুমি ভোক্সব্লাটএ এডের রিপোর্টে পড়ে থাকবে। ট্রেডস কাউন্সিল আর সোশ্যাল ডেমোক্র্যাটিক ফেডারেশন ভেবেছিল এদিন আমাদের পার্ক থেকে বাইরে রাখবে, করেও ফেলেছিল তেমনটাই। কিন্তু তারা ধোঁকা খেয়ে গেল। এভেলিং কমিশনার অফ পাব্লিক ওয়র্ক্সকে বাধ্য করল আমাদেরকেও সাতটা প্ল্যাটফর্ম দিতে। যদিও সেটা নিয়মবিরুদ্ধ। কিন্তু সৌভাগ্যবশতঃ টোরিরা ক্ষমতায় ছিল এবং এভেলিং ওদের ভয় দেখাতে সফল হল যে জায়গা না দিলে আমাদের লোকেরা অন্যদের প্ল্যাটফর্মে জবরদস্তি ঢুকে পড়বে। আর শেষ অব্দি, আমাদের সভাটাই হল সবচেয়ে বড়, সবচেয়ে সংগঠিত আর সবচেয়ে বেশি উৎসাহে ভরা। জমায়েতের বিরাট সংখ্যাগরিষ্ঠ অংশ আট ঘন্টার শ্রমদিনের পক্ষে। এভেলিং, এবং তার থেকেও বেশি টুসি পুরো ব্যাপারটা সংগঠিত করেছে। আন্দোলনে ওদের জায়গা এখন আগের থেকে সম্পূর্ণ ভিন্ন। গ্যাসশ্রমিক এবং সাধারণ শ্রমিকদের ইউনিয়ন, নতুন ধরণের কাজের শ্রমসঙ্ঘগুলোর মধ্যে সবচেয়ে ভালো। ওরা এ দুজনকে সমর্থন করে এবং ওদের ছাড়া আজকের ব্যাপারটা হত না। এবার আমাদের দায়িত্ব হবে আমাদের আজকের সভা সংগঠিত করা কমিটিটাকে ট্রেড ইউনিয়ন এবং র‍্যাডিক্যাল ও সোশ্যালিস্ট ক্লাবের প্রতিনিধিদের একজোট রাখা এবং এদেরকে নিয়েই এখানে আন্দোলনের কেন্দ্র গড়ে তোলা।    

চিঠির শেষে লিখলেন, মার্ক্সকে এই জাগরণ দেখাতে আমি আমার সমস্ত কিছু ত্যাগ করতে পারতাম! ওই পুরোন মালগাড়িটা থেকে নামার সময় আমার মাথা দুইঞ্চি উঁচু হয়ে গিয়েছিল।

৪ঠা মের প্রদর্শন নিয়ে এঙ্গেলস একটি রিপোর্ট লিখলেন আর্বেইটার জাইটুংএ। প্রথমেই লিখলেন, "মে দিবসের আয়োজন করে সর্বহারা এক নতুন যুগের নির্মাণ করেছে। শুধু এ কারণে নয় যে এ দিনটার চরিত্র বিশ্বজনীন। এ কারণেও শুধু নয় যে এই আয়োজন লড়াকু শ্রমিক শ্রেণীর প্রথম আন্তর্জাতিক সক্রিয়তা ছিল। বরং এ কারণে যে বিভিন্ন দেশকে এক এক করে দেখলে বোঝা যায় [মে দিবসের আয়োজন সেখানকার শ্রমিক আন্দোলনে] গুরুত্বপূর্ণ প্রগতিকে চিহ্নিত করছে। 

তার পরের বছর মে দিবস হয়েছিল ৩রা মে। এঙ্গেলস গিয়েছিলেন। তাঁকে জার্মান খবরের কাগজ নিউ জেইট-এর প্রতিনিধি হিসেবে প্রেসকার্ড দিয়ে মঞ্চে বসান হয়েছিল। প্রেসকার্ডটা এখনো সংরক্ষিত রয়েছে। ওপরে লেখা আছে, লিগাল এইট আওয়ার্স ডেমন্সট্রেশন, হাইড পার্ক, মে ৩র্ড, ১৮৯১। নিচে জর্জ শিপটন এবং এডোয়ার্ড এভেলিংএর স্বাক্ষর। 


১৬.১১.২০২২