मिलान कोहूत एक चिन्तक, प्रस्तुतिकर्त्ता एवं प्राध्यापक हैं । उनका जन्म चेकोस्लोवाकिया में हुआ था, जहाँ वह ‘चार्टर 77’ पर हस्ताक्षर करने एवं संयुक्त राज्य अमेरिका चले जाने के पहले तक रहे । अमेरिका में उन्होने अमेरिकी नागरिकता ले ली । कोहूत पूरी तरह से पूंजीवाद से एवं पश्चिमी शासनतंत्र से निराश हो चुके हैं । दशकों से वे पूरी दुनिया में अपनी प्रस्तुतियाँ देते रहे हैं, सीधे तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद, नस्लवाद, पूंजीवाद एवं दुनिया के सभी धर्मों, खास कर इसाईयत के खिलाफ ।
यह बातचीत अक्तूबर 12,
2014 को पश्चिमी बोहेमिया स्थित एक छोटे से गाँव क्लिकारोव में हुई
। व्लाचेक पिलसेन शहर के दर्शन व कला विभाग में राजनीतिक व्याख्यान देने के लिये
आये । उसी विभाग में कोहूत पढ़ाते हैं । दोनों गाड़ी से पश्चिमी बोहेमिया के
दूरस्थित एवं छोटे से गाँव क्लिकारोव चले गये; वहाँ मछली
पलने वाले तालाव के किनारे बैठ कर दोनों ने पश्चिमी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद एवं युरोपीय/अमेरिकी प्रचार के विषाक्त प्रभाव के वारे में बातें
की । पूर्वी योरोपीय देशों में समाजवाद के पतन एवं बर्लिन-दीवार को ढहाये जाने के 25वें साल पर साम्राज्यवाद द्वारा किये जा रहे भव्य समारोहों के सन्दर्भ में
यह बातचीत इन शासनतंत्रों की वास्तविक छवि को उजागर करता है ।
[इस बातचीत का अंग्रेजी पाठ
पीपुल्स डेमोक्रैसी, 10-16 नवम्बर 2014 में छप चुका है]
[http://www.counterpunch.org/2014/10/24/f...]
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आन्द्रे व्लाचेक (एवी) : आप पश्चिम के उन कुछ कलाकारों में से हैं जो पश्चिमी साम्राज्यवाद,
बेलगाम पूंजीवाद और धर्मों के विरूद्ध प्रत्यक्ष कार्रवाई कर रहे
हैं । कला के इस विशेष रूप को आपने कब और कैसे चुना ?
मिलान कोहुत (एमके) : नि:सन्देह उन दिनों से जब मैं ‘दूसरी संस्कृति’, ‘चेक
भूमिगत’ का हिस्सा था, चेकोस्लोवाक समाजवादी व्यवस्था का वह
ज़माना जिसे पश्चिम ‘सर्वसत्तावादी व्यवस्था’ कहता था । ‘दूसरी संस्कृति’ ही वह
आन्दोलन था जिसने हमारी सृजनात्मकता एवं कला के अर्थ को शक्ल दिया । उन दिनों हम
औपचारिक संस्कृति या ‘पहली संस्कृति’ से बहिष्कृत थे । इसलिये हमने विद्रोह किया ।
अपनी परिभाषा से ही यह गहन राजनीतिक आन्दोलन था और इसने राजनीतिक कला उत्पन्न किया
।
एवी : आप अक्सर कहते हैं
और सही कहते हैं कि आप में से जिन लोगों ने ‘चार्टर 77’ पर
हस्ताक्षर किया, और जो लोग शीत युद्ध के दिनों में
भूमिगत/विरोधी आन्दोलन से जुड़े थे, वे दर-असल समाजवादी थे,
कुछ तो मार्क्सवादी भी थे । आप उनमें शामिल हैं, नि:सन्देह आप एक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं । स्पष्टत: यह एक विरोधाभास है :
पश्चिम आपको ‘बेच’ रहा था, आपको कम्युनिस्ट-विरोधी गुट के
तौर पर आगे बढ़ा रहा था । क्या आप इस विरोधाभास के बारे में बात कर सकते हैं ?
एमके : बेशक एक विरोधाभास,
काफी बड़ा विरोधाभास रहा क्योंकि भूमिगत आन्दोलन के, ‘दूसरी संस्कृति’ के अधिकांश लोग गहराई तक वामपंथी मूल्यों के समर्थक थे ।
जैसे चीजों को संगृहित करने के बजाय सबकुछ बाँट लेना । हम सम्पत्ति एवं उत्पादन के
साधनों के सामूहिक मालिकाना में विश्वास करते थे । लेकिन हमने कभी इस पर
सैद्धांतिक दृष्टि से नज़र नहीं डाला – हम नहीं समझे कि हमारे मूल्य, दार्शनिक तौर पर वामपंथी हैं । इस तरह, जब हम
तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे, वास्तविक तौर
पर हम खुद ही सच्चे कम्युनिस्ट थे !
लेकिन, जब यह बात मैं
‘चार्टर – 77’ के अपने उन कॉमरेडों को कहता हूँ जो कभी इस
देश से बाहर नहीं गये, वे अक्सर बहुत गुस्से में आ जाते हैं
– वे इस सच्चाई को मानना नहीं चाहते हैं ।
एवी : वस्तुत: आपने यहाँ तक
कहा कि वाक्स्लाव हावेल भी, जो समयोपरांत पूरी तरह बिक गये
और पश्चिमी साम्राज्यवाद का समर्थन करने लगे, वाशिंगटन जाकर
सत्ता के प्रतिनिधियों के सहर्ष करतलध्वनि के बदले दासता के मनोभाव वाले भाषण देते
रहे, वह हावेल भी जब आपके आन्दोलन का सदस्य था, इन्ही वामपंथी आदर्शों का हिस्सेदार था ।
एमके : हाँ, नि:सन्देह ! उनके दार्शनिक नजरिये का कुछ हिस्सा तो वास्तव में
मार्क्सवादी था !
एवी : फिर क्या हुआ ?
उनके जैसे लोग बदलते कैसे हैं ?
एमके : क्रांति के बाद मैं
वाक्स्लाव हावेल को लेकर बहुत गर्वित था । क्योंकि खुले आम उन्होने घोषणा की थी कि
वे राष्ट्रपति के महल में नहीं रहेंगे । वह अपने छोटे से फ्लैट में रहने लगे,
अपनी गाड़ी खुद चला कर दफ्तर जाते थे… मुझे लगा कि वह बहुत बढ़िया रोल
मॉडल बन गये…
एवी : राष्ट्रपति के किले
के इर्दगिर्द वे अपने साइकिल पर भी घूमते थे…
एमके : एक सच्चे ‘लोक नायक’
या ‘जनता का राष्ट्रपति’ जैसा बन गये वह । फिर कुछ उनका दिमाग बदल दिया… शायद इसके
कारणों में एक यह भी था कि वह एक बुर्जुवा परिवार से आते थे ।
एवी : प्राग के सबसे
धनाढ्यों में से एक…
एमके : हाँ, बहूत ज्यादा ही धनाढ्य परिवार से आते थे वह… । और हालाँकि वह कहा करते थे
कि “मैं अपनी सम्पत्ति और मेरे पूर्व परिवार का सामाजिक दर्जा लौटाने का कभी दावा
नहीं करूंगा”, कुछ जरूर बदल गया होगा । मेरा अनुमान है कि
उनके उपदेशक लोग, उनके राष्ट्रपति बनने के बाद समझाना शुरु
किये होंगे कि अगर वे इस किस्म के ‘वामपंथी जीवनधारा’ में जीते चलें तो यह बात,
देश जिस पूंजीवादी दिशा की ओर जा रहा है उसमें वाधा डालेगी । वे
जरुर हावेल को समझाये होंगे कि लोग उन्हे ‘आजादी’ और ‘आर्थिक विकास’ का भीतरघात
करने वाला मानेंगे… और फिर शायद उच्च राजनीतिक पद आदमी को भ्रष्ट बना डालता है… और
इसलिये वह बदलने लगे, धीरे धीरे लेकिन निश्चित रूप से ।
वास्तव में, तथाकथित ‘सम्पत्ति लौटाये जाने के कार्यक्रमों’
के माध्यम से उन्होने अपने परिवार की पूरी पुरानी सम्पत्ति वापस करवा लिया । मुझे
सबसे अधिक बुरी लगी यह बात कि वह संयुक्त राज्य अमेरिका की साम्राज्यवादी विदेश
नीति का समर्थन करने लगे… फिर बाद में और भी अनोखी बात हुई; वास्तविक
जीवन से उनका रिश्ता समाप्त हो गया, चुने हुये लोगों के
‘हरितगृह’ या वैसा ही कुछ में वह जीने लगे ।
एवी : यहीं से हम फिर उस विषय
की ओर चलते हैं जिस पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं – सोवियत युग में चेकोस्लोवाकिया
की जो भी समस्यायें रहीं हों, यह देश निर्णायक तौर पर पूरी
दुनिया की दबी-कुचली जनता के साथ थी । चेक एवं स्लोवाक इंजिनियर, डाक्टर, शिक्षकों ने मानवता के लिये अविश्वसनीय काम
किया अफ्रिका, एशिया की जनता के बीच…
एमके : जैसे क्यूबाई कर रहे
हैं…
एवी : हाँ, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखते हुये लगता है कि कम्युनिस्ट जमाने में जनता की
एक बड़ी प्रतिशत वास्तव में पश्चिमी देशों के साथ जुड़ने का सपना देख रही थी एवं
अप्रत्यक्ष, यहाँ तक कि प्रत्यक्ष तौर पर भी वैश्विक
दमन-यंत्र का हिस्सा बनना चाह रही थी । अब जब इतने सारे प्रगतिशील विक्षुव्ध हावेल
की तरह पलट गये हैं, अब जब देश बँट गया है और बँटे हुये
दोनों हिस्से स्थायी तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी व आर्थिक ढाँचों में शामिल हो
चुके हैं, यह एक यथार्थ है कि चेक और स्लोवाक प्रजातंत्र
बाकी दुनिया के लिये अब कुछ भी सकारात्मक नहीं कर रहे हैं ।
क्या लोग खुश हैं ? क्या यही वे चाहते थे ?
एमके : यहाँ भी ‘विदेशी
निवेश’ जनता का शोषण कर रहा है ।
मैं सच में समझ नहीं पाता हूँ कि यहाँ, चेक प्रजातंत्र में जनता के दिमाग में क्या चल रहा है ।
अवश्य ही, ‘समाज के चुने हुये हिस्से’, जिनके पास कुछ सम्पत्ति
है, जो व्यापार में तथाकथित तौर पर सफल हैं, जो काफी धनाढ्य बन चुके हैंवे देश की दिशा से बहुत खुश हैं । यही लोग
मीडिया के भी मालिक हैं और इस दक्षिणपंथी व्यवस्था को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन
मुझे लगता है कि गरीब जनता अपने इस सपने से जाग रही है कि ‘कि अगर सर्वसत्तावादी
व्यवस्था से वे खुद को मुक्ति दिला पायें तो उन्मुक्त जीवन, आनन्दमय
अस्तित्व में जीना शुरू कर देंगे’ ।
कोई सपना सच नहीं हो पाया । जनता के
अधिकांश के लिये जीवन अभी समाजवादी जमाने से बदतर है ।
एवी : जब आप कहते हैं कि
बदतर हैं तो ध्यान में रखना होगा कि चेक प्रजातंत्र आज भी अत्यंत समृद्ध देश है ।
और अपने नागरिकों के लिये कम से कम, यह देश एक सामाजिक
जनवादी सुरक्षाकवच मुहैया करता है… तुलनात्मक तौर पर काफी बेहतर स्तर की नि:शुल्क
चिकित्सा सुविधा, नि:शुल्क शिक्षा,अनुदानप्राप्त
संस्कृति एवं देश भर में बहुत बढ़िया और सस्ता परिवहन ! तो किस बात की बदतरी ?
एमके : तथाकथित ‘वेल्वेट
क्रांति’ के पहले, जनता की शिकायत थी कि उन्हे कुछ खास
प्रकार की सूचनायें नहीं मिलती है, खास प्रकार के सांस्कृतिक
उत्पाद (फिल्म सहित) नहीं मिल पाते । जब भी चाहें, देश से
बाहर जाने की अनुमति उन्हे नहीं मिलती थी, इत्यादि । लेकिन
उन्हे इस बात की समझ नहीं हो पाई कि उनके जीवन की मर्यादा, आज
से बहुत, बहुत उँची थी । वे समझ नहीं पाये कि जब पूंजीवाद
प्रवेश करेगी, वे चिन्ताओं से घिरना शुरु करेंगे, अस्तित्व से जुड़ी गहन चिन्तायें… वे आतंकित रहना शुरु करेंगे कि कभी भी
उनकी नौकरी जा सकती है ।
वे अब नौकरी बचाने के लिये जीवन की
मर्यादा का व्यापार करनेको मजबूर हैं ।
कम्युनिस्ट जमाने में जितना करना पड़ता
उससे कहीं ज्यादा अपने बॉस लोगों का पिछवाड़ा चूमना पड़ रहा है उन्हे ।
यह सब कुछ बहुत दिलचस्प है कि लोगों
को उन सुविधाओं की आदत पड़ जाती है, जिन सुविधाओं का जन्म,
निर्माण और स्थापना इतिहास में समाजवादी आन्दोलनों के कारण ही हुआ
है । और उन सुविधाओं एवं मूल्यों का उपभोग करते हुये वे एक तरह से भूल गये कि…
एवी : उन्होने उन सुविधाओं
और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया ?
एमके : उन्होने उन सुविधाओं
और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया । वे समझ ही नहीं पाये कि उनके पास कुछ
श्रेष्ठतम चीजें हैं, उनका जीवन श्रेष्ठ है । अचानक, जब वे उन्हे खोने लगे उन्हे एहसास हुआ कुछ भयानक गलत हो गया । कुछ लोग आज
बहुत निराश हैं ।
मैं एक साल अपनी पत्नी के साथ
मोराविया में बिताया हूँ ।वहाँ बेरोजगारी की दर देश में सबसे अधिक है । लोगों से
बड़ी शिकायतें सुनेंगे आप वहाँ ।
बहुत दिलचस्प है, समाजवादी व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था तक का यह सफर । समाजवाद में
चेकोस्लोवाकिया सब कुछ बनाया करता था, शाब्दिक अर्थों में
सुई से रेल-ईंजन तक ।
एवी : नाभिकीय संयंत्र,
हवाई-जहाज, नदी पर चलने वाले बड़े नाव…
एमके : हाँ ! सब
कुछ…नाभिकीय संयंत्र से कपड़ों तक, सारी चीजों का उत्पादन
यहाँ होता था । खाद्य यहाँ पैदा होता था । यह देश एक आत्मनिर्भर देश था ।
अब सब कुछ बदल गया है ! सारे
राष्ट्रीय उद्योग गायब हो गयेहैं । या तो बेच दिया गया है या चुरा लिया गया है उन…
एवी : या दर्जा नीचे गिरा
दिया गया है । हवाईजहाज उद्योग खत्म हो गया है; कारखाने जो
पूरी दुनिया में रेल-इंजनों का निर्यात करते थे, पश्चिमी
बहुराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा खरीद लिये गये हैं और अब उन कारखानों में रेल के
डिब्बे बनते हैं…
एमके : हाँ… सब कुछ जैसे
गायब हो गया है । और जैसे जैसे निजीकरण होता गया, उत्पादन
पूरब की ओर चला गया, तथाकथित पश्चिमी ‘निवेश’ देश के अन्दर आ
गया – पैदा हुये‘गुलाम श्रमिक’, उत्पादन के लिये विशाल हॉल
जहाँ लोग चार्ली चैपलिन के फिल्मों की तरह काम करते हैं, जैसा
‘मॉडर्न टाइम्स’ में दिखाया गया था ।
तो यह सचमुच दुखद है कि ‘आजादी’ शब्द
का अर्थ समझने में जनता ने गलती की ।
एवी : क्या आप सुझा रहे हैं
कि आज से लगभग तीस साल पहले यहाँ ज्यादा आज़ादी थी ?
एमके : निर्भर करता है,
किसके लिये । लेकिन बोस्टन में टफ्ट्स विश्वविद्यालय के मेरे छात्र
जब मुझसे पूछते थे कि मै कब सबसे अधिक आज़ाद महसूस करता था तो मैं हमेशा उनसे कहा,
“चेकोस्लोवाकिया में सर्वसत्तावादी व्यवस्था के दौरान !”
एवी : या, और सही होगा कहना, “सर्वसत्तावादी व्यवस्था के
दौरान”…
हम चीन में भी अभी यही पाते हैं ।
आपने चीन में अपनी प्रस्तुति दिये, और मेरे काम भी अक्सर
यहाँ दिखाये जाते हैं ।
कई तरीके से, पश्चिम की तुलना में कलाकार ज्यादा आज़ाद हैं चीन में । बेजिंग में कलाकार
ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करते हैं और लन्दन या न्यूयॉर्क में काम करने
वाले कलाकारों से ज्यादा जबर्दस्त प्रभाव डालते हैं समाज पर ।
एमके : हाँ, यह तो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ । चार साल पहले बेजिंग में कृत्य-कला
का एक बड़ा उत्सव मेरे संरक्षण में हुआ था । मैं आश्चर्यचकित था कि कुछ प्रदर्शन
कितने गहन रूप से सत्ता की आलोचना कर रहे थे । जबकि हम पश्चिमी प्रचार मीडिया में
पढ़ते हैं कि कम्युनिस्ट चीन सेन्सर करता है, आलोचना की आवाज
उठाने वाले लोगों को जेल में डाल देता है आदि आदि । जबकि जो कुछ मैने यहाँ पाया वह
बिल्कुल ही भिन्न था।
एवी : चेकोस्लोवाकिया के
मेरे अपने अनुभवों से भी… मैं इन विन्दुओं को सुत्रबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ…
चेकोस्लोवाकिया में जैसा कि आपने पहले जिक्र किया, लोग कुछप्
रकार सूचनाओं के तत्काल नहीं मिल पाने की शिकायत किया करते थे । लेकिन साथ ही,कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया में सूचनायें मायने रखती थी । आज के दिन,
पश्चिम-समर्थक और पूंजीवादी चेक प्रजातंत्र में सूचनायें बहुत कम
मायने रखती हैं, और सूचनायें उपलब्ध होने पर भी, वास्तविक तौर पर लोग बहुत कम बदलाव लाने में सक्षम हैं ।
एमके : समाजवादी, या पश्चिम जैसा कहता है, ‘सर्वसत्तावादी’ व्यवस्था
में लोग शिकायत करते थे… हम शिकायत करते थे, लेकिन हमेशा
रास्ते होते थे उन सूचनाओं तक पहुँचने के लिये जो हम पाना चाहते थे । और उन्हे
जुटाने में हम खूब तत्पर रहते थे। और जो सूचनायें मिलती थीं उसका मूल्य होता था
हमारे लिये, हम उनका अध्ययन करते थे, उस पर शोध करते थे । और हमारे पास काफी वक्त होता था । समाजवादी व्यवस्था
में समय की वास्तविक दौलत होती थी हमारे पास । आप किताबें पढ़ते हुये, संगीत सुनते हुये, फिल्मे देखते हुये आनन्द ले सकते
थे…
एवी : और कभी कभी काम की जगह पर भी, क्यों कि लगता है कि बहुत कड़ी मेहनत कोई नहीं करता था ।
[दोनों हँसते हैं]
एमके : अरे, तो जीवन का अर्थ किसी प्रकार का दास-श्रम तो नहीं, क्या
? सैद्धांतिक तौर पर, जीवन के गुणवत्ता
को बढ़ाना दर-असल समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था का हिस्सा हुआ करता था । इस तरह
उस व्यवस्था का जोर, जीवन के गुणवत्ता पर था न कि भोग किये
जा रहे चीजों के परिमाण पर ।
दूसरी ओर, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था ‘बाज़ार’ पर आधारित है। इसके सिद्धांतकार कहते
हैं कि यह व्यवस्था कहीं ज्यादा सामान मुहैया कराती है । चीजें, जैसा कि आप जानते हैं - हाँ, लेकिन उसकी कीमत यही है
कि जीवन की गुणवत्ता नाटकीय तरीके से कम हो जाती है ।
एवी : आपके पास तीन गाड़ियाँ
होती हैं, पाँच फोन… लेकिन वास्तव में उनकी जरूरत नहीं होती
आपको ।
एमके : आपको जरूरत नहीं
होती और आपके पास जीने का समय नहीं होता । आप निरन्तर अपनी नौकरी या रोजगार खोने
को लेकर या दूसरी बातों को लेकर आतंकित रहते हैं ।
एवी : तो आप लड़ते हैं इन
तमाम बातों के खिलाफ और अपनी कला, अपनी प्रस्तुतियों के
माध्यम से पूंजीवाद में जीवन की मूर्खताओं पर हमला बोलते हैं । आप धार्मिक
मतांधताओं पर भी हमला बोल रहे हैं । धार्मिक मतांधतायें, जो
घनिष्ठ तौर पर जुड़ी है इन बातों से – ये सत्ता, शोषण,
अत्याचार…; और आप साम्राज्यवाद पर हमला बोल
रहे हैं । कैसी प्रतिक्रियायें मिलती है आपको सारी दुनिया से ? क्योंकि आप की प्रस्तुतियाँ सिर्फ यहाँ तो नहीं होती, संयुक्त राज्य अमेरिका में, पूरे योरप में, चीन में, इजरायल और कई अन्य जगहों में आप अपनी
प्रस्तुतियाँ लेकर जाते हैं – क्या किसी शून्य स्थान को आप भर रहे हैं ? क्या आपको लगता है कि लोग ऐसी कला, ऐसी राजनीतिक और
जुझारू प्रस्तुतियों के लिये बेचैन रहते हैं ?
एमके : लगता है । मुझे बहुत
सकारात्मक प्रतिक्रियायें मिली हैं; वास्तव में यही तथ्य
मुझे प्रेरित करता है । कभी कभी लोग सड़क पर आ जाते हैं मेरे करीब और बोलते हैं,
“आपकी कला अद्भुत है । तरह तरह की मूर्खताओं के खिलाफ हमारी
जागरुकता को बढ़ाती है यह कला !” मैं जानता भी नहीं हूँ कि कितने लोगों पर मेरी
प्रस्तुतियों का प्रभाव है…
मेरी प्रस्तुतियाँ, मेरी कला – ये भी तथाकथित ‘दूसरी संस्कृति’ के उपज हैं । कला का एक ऐसा
रूप है जिसमें अधिक पैसों की जरूरत नहीं होती । इन्हे पेश करने के लिये थियेटर
जैसी स्थायी जगहों की जरूरत नहीं होती । यह कला का ऐसा रूप है जिसमें मुख्यत: आपको
अपने शरीर का इस्तेमाल करना पड़ता है और आपका शरीर हमेशा आपके पास होता है काम करने
के लिये । खुद जीवन के सन्दर्भ में ये प्रस्तुतियाँ की जाती हैं, सड़कों या रेल-स्टेशनों पर । तो आप इस जीवन का हिस्सा होते हैं, और आप परिस्थितियों का सृजन करते हैं, किसी बात पर
जागरुकता को बढ़ाते हैं, किसी बात की आलोचना करते हैं… और तब
वास्तविक जनता प्रतिक्रियायेँ देने लगती हैं… आपके चारों ओर लोग प्रस्तुति में भाग
लेने वाले बन जाते हैं… दर्शक से भाग लेने वाले बन जाते हैं वे… जबकि वास्तविक
थियेटर में अभिनेता होता है और दर्शक, और वह ‘पाँचवी दीवार’
होती है जैसा कि लोग कहते हैं । मेरी प्रस्तुतियों में कोई दीवार नहीं होता ।
प्रत्यक्ष कला है यह । कला और जीवन का मेल है ।
मैं हमेशा बोलता हूँ : थियेटर में
अभिनेता छल करता है कि वह दर्द महसूस कर रहा है, जबकि मेरे जैसा
प्रस्तुतिकर्त्ता वास्तविक तौर पर, यथार्थ में दर्द का अनुभव
करता है ।
कृत्य-कला [पर्फॉर्मेंस आर्ट] वास्तव
में अद्भुत है । मानवजाति की शुरूआत से ही यह यहीं थी ।
एवी : मिलान, दुनिया के कई भागों में आप सीधी कार्रवाई कर रहे हैं । फिलस्तिनियों के
साथ उनके रवैये के लिये आप इजरायल पर हमला बोलते रहे हैं । रोमा जनता के साथ किये
जाते व्यवहार के लिये आप चेक पर भी हमला बोलते रहे हैं । लगभग अकेले ही आपने उस
शर्म की दीवार को तोड़ने में मदद की जिसे उस्ति नाद लाबेम में खड़ा किया गया था
श्वेत चेक और जिप्सी/रोमा लोगों को अलग रखने के लिये… मानवता के खिलाफ इसाईयत
द्वारा किये गये अपराधों को रेखांकित करने के लिये आप गिर्जा में पादरियों के
सामने कच्चा गोश्त फेंक रहे हैं । आप शॉपिंग सेन्टर और मॉल मे जबर्दस्ती प्रवेश कर
मैमन के भगवान (धनलोलुपता के देवता) के प्रति छद्म-प्रार्थना कर रहे हैं । आप बहुत
कुछ कर रहे हैं जो दूसरे लोग करने की हिम्मत नहीं करेंगे । आप कभी गिरफ्तार हुये,
धमकी दी गई आपको या हमले किये गये आप पर ?
एमके : हाँ, कई बार ! कई बार गिरफ्तार किया जा चुका हूँ मैं । अदालत का भी सामना करना
पड़ा है मुझे, जब मैं बॉस्टन में वह मशहूर प्रस्तुति की थी,
बंधकी ॠण घोटाले की शुरूआत में । जब बैंक गरीबों को वह ॠण बेच रहे
थे और गरीब बंधक छुड़ा नहीं पाने के नतीजे में आत्महत्या कर रहे थे । तो मैंने एक
प्रस्तुति बैंक ऑफ अमेरिका के प्रधान कार्यालय के सामने करना तय किया; वह बैंक सबसे घृणित, जनता को ठगने वाली संस्था थी उस
वक्त…। तो मैंने बैंक के सामने कुछ फाँसी के फन्दे रख दिये और एक बोर्ड लगा दिया
‘फन्दों की दुकान’ । मेरा संदेश था, अगर आप यहाँ ॠण के लिये
आवेदन करते हैं तो एक फन्दा भी खरीद लिजियेगा ।
एवी : शायद जरूरत पड़ जाय…
एमके : शायद जरूरत पड़ जाय !
पर पुलिस आई, उन्होने मुझे गिरफ्तार किया । काफी संगीनता से
लिया उन्होने इस जुर्म को ! शहर ने मेरे खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये और महीनों
तक मुझे अदालत की सुनवाई में उपस्थित रहना पड़ा । मुकदमा था, ‘बॉस्टन का शहर और मिलान कोहूत’ । 150 साल पुराना एक
कानून उठा लाये वे, जिसमे लिखा था कि आप किसी बैंक के सामने
यह सामान नहीं बेच सकते । 150 सालों में यह कानून पहली बार
इस्तेमाल किया जा रहा था । लेकिन स्पष्ट था कि वे मेरे खिलाफ कुछ ढूंढ़ने की कोशिश
कर रहे थे… अन्तत: मेरी रिहाई हुई । खूब मीडिया का ध्यान खींचा मेरा मुकदमा,
नैशनल पब्लिक रेडिओ भी शामिल थी उनमें ।
एवी : मिलान, हम दोनों पूरी दुनिया के चप्पे चप्पे में खूब घूम रहे हैं । पश्चिमी
साम्राज्यवाद से पैदा हो रहे खतरों को आप स्पष्टत: देख रहे हैं । क्या आप खतरे को गंभीरता
से लेते हैं ? क्या आप मानते हैं कि पश्चिमी साम्राज्यवाद
ग्रह के नियंत्रण की ओर बढ़ रहा है; और यह एक ऐसी सच्चाई है
जिसके त्रासद परिणाम होंगे ?
एमके : नि:सन्देह ! मैं
संयुक्त राज्य अमेरिका में 26 साल रहा हूँ । मैंने वह अवधि
देखी है जब संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रभुसत्ता बहुत आक्रामक हो उठी थी । मेरी
समझ बनी कि यह आक्रामकता बहुत तर्कसंगत थी एवं पूर्वी ब्लॉक के विघटन से जुड़ी थी ।
जब कम्युनिस्ट ब्लॉक बिखर गया, पश्चिम के सामने अचानक कोई
विरोधी-पक्ष नहीं रहा । विरोधी-पक्ष के बिना एक बड़ा शून्य पैदा हुआ अचानक, और तुरन्त उन्होने उस शून्य को अपने आक्रामक व्यवसायिक हितों से भर दिया,
क्योंकि यह स्पष्ट है कि ‘पिरामिड के शीर्ष’ पर एक आर्थिक तानाशाही
कायम है । अचानक उनके सामने एक जबर्दस्त अवसर आया लाखों करोड़ लोगों को गुलाम बनाने
का । और उन्होने बनाया गुलाम !
एवी : और यह देश – चेक
प्रजातंत्र – जहाँ बैठकर हम दुनिया के बारे में बातचीत कर रहे हैं इस समय, अचानक इस पश्चिमी शासनतंत्र का हिस्सा बन गया… अब यह देश फिर उनका साझेदार
है ।
एमके : बेशक…
एवी : यह अब शिकार नहीं है,
जैसा कि पहले यह खुद को दिखाना चाहता था… यह अत्याचारियों के समूह
का हिस्सा है । क्या लोग इस बात को समझते हैं ? कोई चर्चा,
कोई वादविवाद – इस मसले पर ?
एमके : मैं प्रसन्न हूँ यह
कहते हुये कि कुछ लोग, अकादमीय क्षेत्र से भी, यह समझना शुरू कर चुके हैं । पर यह बिल्कुल हाल का घटनाक्रम है । इस बीच,
यह आक्रामक पूंजीवादी शासनतंत्र उत्पादन के लगभग सभी साधनों को और
जनसंचार माध्यमों को अपने कब्जे में कर चुका है । जैसे वयस्कों के, वैसे ही बच्चों के दिमाग को कब्जे में कर रहे हैं वे । वे उन्हे
कम्युनिस्ट युग के बारे में विकृत झूठ बताकर स्थाई तौर पर आतंकित कर रहे हैं,
और वे कच्चे दिमाग नि:सन्देह विश्वास करते हैं उन बातों को क्योंकि
वही एकमात्र सूचनायें हैं जो उन्हे मिलती है । और इन बच्चों और युवाओं का दिमाग
इतना अधिक कब्जे में है दुष्प्र्चार के कि विश्वास नहीं होता ! ऑरवेल [जॉर्ज
ऑरवेल] की तरह कुछ अंधमत खड़े किये गये हैं इन प्रचारों के माध्यम से, जैसे, ‘कम्युनिस्ट युग में सभी लोग भूरे कपड़े पहनते
थे और धीरे धीरे भूतों की तरह सड़कों पर चलते थे’… पूरा बकवास ! बिल्कुल ही ऐसा
नहीं था उन दिनों ! क्योंकि कम्युनिस्ट युग में जीवन के कई पहलू आज से ज्यादा
उन्मुक्त थे !
एवी : और जीने के मज़े थे
आज से अधिक…
एमके : अधिक मज़े थे ! जीवन
की गुणवत्ता, जैसा हमने पहले ही जिक्र किया, बहुत उँची थी, खास कर इस पूंजीवादी गुलामी की तूलना
में !
एवी : लेकिन अब एक वैश्विक
विरोधी-पक्ष है; देशों का एक गँठजोड़ जो पश्चिम से थोपी गई
नीतियों का प्रतिरोध कर रही हैं; उनमें लातिनी अमेरिका है,
रूस है, चीन है, दक्षिण
अफ्रिका है, इरान है और एरिट्रिया जैसे छोटे देश भी हैं । और
यह विरोधी-पक्ष काफी ताकतवर होता जा रहा है, क्योंकि यह बड़े
दिमागों से एवं बढ़ती ताकत की मीडिया से टक्कर ले रहा है । हम दोनों उस विरोधी-पक्ष
में शामिल हैं । क्या यहाँ, चेक प्रजातंत्र में, और पोलैन्ड में भी, जहाँ आप अक्सर पढ़ाने जाते हैं,
लोग समझते हैं कि पश्चिम के साथ शामिल होकर उनकी यात्रा का अन्त
इतिहास के गलत तरफ में हुआ ?
एमके : कुछ लोग शायद समझ
चुके हैं अब तक, पर बहुसंख्यक लोग नहीं ।
लेकिन कला की ओर वापस लौटते हुये: इस जागरुकता को पैदा करने के काम को कलाकारों का कार्यभार बनाना कला का कर्तव्य है । जनता को सीखाना कलाकारों का काम है । कलासृजन की सौन्दर्यशास्त्रीय, परिचयात्मक एवं अवधारणात्मक भंगिमा भाड़ में जाये ! आइये हम जुझारू, राजनीतिक कला का सृजन करें, क्योंकि बहुत जरूरत है उसकी आज । अभी उम्मीद बाकी है कि पिछले 30 सालों से चल रहे इस विनाश को पलटा जा सकता है । हमारे लिये आज की लड़ाई इस धरती पर इन्सान के बचे रहने की लड़ाई है !