नहीं गढ़ेंगे खिलौने
का स्वर्ग इस
धरती पर प्रिय
आँसुओं में पिघलते
मुग्ध भाव के ललित गीतों
से हम ॥
वासना के वाणों
की व्यथा के
माधुर्य से
नहीं रचेंगे हम
सुहाग की रात –
कभी न मांगें
भीख
भाग्य के कदमों
पर दुर्वल प्राण
की तरह गिरकर ।
कोई भय नहीं,
जानते हैं हम निस्सन्देह – तुम हो, मैं हूँ
॥
फहरायेंगे
ऊँचा, प्यार का
ध्वज
दुर्गम रास्तों के बीच, कठिनतम कार्यों
में, अदम्य वेग
के साथ ।
मिले तो मिले
दुख, कठोर दिनों
का –
नहीं चाहिये शांति,
सान्त्वना भी नहीं
मांगेंगे ।
पार होने में
नदी अगर टूट जाये पतवार,
टूटे पाल की रस्सी,
मौत के कगार
पर खड़े हो कर जानेंगे
– तुम हो, मैं हूँ ।
दोनों की आँखों
से देखी है दुनिया, दोनों को
देखा है हम दोनों ने
–
मरुपथ का ताप
हम दोनों ने
सह लिया है ।
भागे नहीं हैं
हम लुभावने मृगमरीचिकाओं
के पीछे,
बहलाया नहीं है
हमने दिल, झूठ
को सच बना कर -
इसी गौरव के
साथ चलेंगे इस
धरती पर, जियेंगे जब
तक ।
यह वाणी, प्रेयसी,
हो महिमान्वित – ‘तुम
हो, मैं हूँ ॥
श्रावण 1928
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