Wednesday, June 23, 2021

निर्भय - रवीन्द्रनाथ ठाकुर

नहीं गढ़ेंगे खिलौने का स्वर्ग इस धरती पर प्रिय
आँसुओं में पिघलते मुग्ध भाव के ललित गीतों से हम
वासना के वाणों की व्यथा के माधुर्य से
नहीं रचेंगे हम सुहाग की रात
कभी मांगें भीख
भाग्य के कदमों पर दुर्वल प्राण की तरह गिरकर ।
कोई भय नहीं, जानते हैं हम निस्सन्देहतुम हो, मैं हूँ
 
फहरायेंगे ऊँचा, प्यार का ध्वज
दुर्गम रास्तों के बीच, कठिनतम कार्यों में, अदम्य वेग के साथ
मिले तो मिले दुख, कठोर दिनों का
नहीं चाहिये शांति, सान्त्वना भी नहीं मांगेंगे
पार होने में नदी अगर टूट जाये पतवार, टूटे पाल की रस्सी,
मौत के कगार पर खड़े हो कर जानेंगेतुम हो, मैं हूँ

दोनों की आँखों से देखी है दुनिया, दोनों को देखा है हम दोनों ने
मरुपथ का ताप हम दोनों ने सह लिया है
भागे नहीं हैं हम लुभावने मृगमरीचिकाओं के पीछे,
बहलाया नहीं है हमने दिल, झूठ को सच बना कर -
इसी गौरव के साथ चलेंगे इस धरती पर, जियेंगे जब तक
यह वाणी, प्रेयसी, हो महिमान्वित – ‘तुम हो, मैं हूँ  

श्रावण 1928 



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