Wednesday, June 23, 2021

हिन्दू-मुसलमान - रवीन्द्रनाथ ठाकुर

देश के नेताओं ने प्रण किया है कि भारतवर्ष के सभी प्रांतों के सभी समाजों की एकता पर स्थापित एक महाराष्ट्रीयता को जागृत करेंगे और उसका एक प्रमुख शासकीय आसन रचेंगे ।

वह आसन नाम की चीज जिसे कॉन्स्टिट्युशन कहा जाता है, बाहर की चीज है । राज्य-शासनप्रणाली में हमारे पारस्परिक अधिकारों का निर्णय कर उसे ठोक-ठाक कर तैयार करना होगा । इस निर्माण-प्रक्रिया के विभिन्न प्रकार के नमूने हमें विभिन्न देशों में देखने को मिले हैं, उन्ही में से चुन कर, जाँच कर आगे बढ़ने की योजना बन रही है । पहले धारणा थी कि उस आसन को पक्का खड़ा करने में वाधायें बाहर की यानि मौजुदा प्रशासन की इच्छा के अधीन हैं । उसी के साथ करार करने के, तकरार करने के काम में ह्म कुछ दिनों से भिड़े हुये हैं ।

जब लगा कि काम आगे बढ़ा है, अचानक धक्का खाकर हमने देखा कि सबसे बड़ी बाधा तो अन्दर से है । घोड़ागाड़ी को तीर्थस्थान तक पहुँचाने के प्रस्ताव पर गाड़ीवान अगर आधा-राजी हुआ भी तो अस्तबल से निकालते वक्त ख्याल आया, गाड़ी के दो चक्कों में विपरीत किस्म का बेमेलपन है, चली नहीं कि उलटने लगती है ।

विरुद्ध में खड़े जिस आदमी के साथ हमारा बाहर का सम्बन्ध है, लड़-झगड़ कर एक दिन उसे हटा देना, बाहर कर देना अगर दु:साध्य भी है तो असाध्य नहीं है, वहाँ मामला हमारे हारने-जीतने का है । लेकिन अन्दर के आदमियों के आपसी विवाद में कोई एक पक्ष अगर जीत भी जाये तो कुल मिला कर वह हार ही है, और हारने पर भी शांति नहीं है । किसी पक्ष को हटाया भी नहीं जा सकता और अगर दबा कर रखा जाय तब भी झंझट को हमेशा के लिये उत्तेजित किये रखने जैसा ही होगा । दाहिने तरफ का दाँत अगर बायें तरफ के दाँत को हिला कर डींग हांकना चाहे तो अन्त में खुद भी अटल नहीं रह पायेगा ।

इतने दिनों तक हम लोगों ने राष्ट्रसभा में वर की सजावट की ओर ही सिर्फ ध्यान दिया था, आसन कैसा होगा यही सोच कर मुग्ध था । वह आसन है महामूल्यवान और लोभ भी जगाता है । पड़ोसियों ने जो अपना अपना रेशम-जरी का आसन बनाया है उनके जलसों का वैभव देख कर ईर्ष्या होती है । लेकिन हाय, खुद हमलोग वर को वरण करने का आन्तरिक आयोजन कब से भूल बैठे हैं । इसीलिये आज दहेज लेकर बारातियों के झगड़े होते हैं । शुभकार्य में अशुभ ग्रह की शांति की बात पर शुरू से ही ध्यान नहीं दिया, सिर्फ आसन बनाने के साजोसामान की सूची को लेकर हमने शाम कर दिया ।

राज्यसत्ता के महासन-निर्माण से काफी अधिक है हमारे देश में सत्ता को थामने वाली महाराष्ट्रीयता के सृजन की आवश्यकता, यह बोलने की जरूरत नहीं । समाज में, धर्म में, भाषा में, रिवाजों में हमारे बीच विभेदों का अन्त नहीं । ये दरारें हमारी राज्यसत्तात्मक सम्पूर्णता में बाधक हैं, लेकिन उस से भी अधिक अशुभ इस कारण से है कि यह विच्छेद हमारी मनुष्यता-साधना में बाधक हैं; इन्सान के बगल में इन्सान रहता है फिर भी किसी भी तरह मन का मेल नहीं होता है, कार्यों में तारतम्य नहीं रहता है, हर कदम पर मार-काट लग जाता है – ये बर्बरता के लक्षण हैं । पर हम जिस आत्म-शासन की बात कर रहे हैं वह तो बर्बरों का प्राप्य नहीं है । जिनके धर्म में, समाज और रिवाजों में, जिनके मनोवृत्तियों में टूट का ऐसा एक अन्तर्निहित संकट है कि बातों बातों में वे एक को सात टुकड़ों में तोड़ देते हैं, किस यंत्र की सहायता से बिखराव के ये दल एकक राज्यसत्ता का ईजाद करेंगे । जिस देश में मुख्यत: धर्म का मेल ही आदमियों में मेल पैदा करता है, दूसरा कोई बंधन उन्हे बांध नहीं पाता है, वह देश अभागा है । स्वयं धर्म से जो विभेद का सृजन करता है कोई देश तो वह सर्वाधिक सर्वनाशी विभेद होता है । आदमी का मोल आदमी ही के तौर पर है इस बात को सहज प्रीति के साथ स्वीकार कर लेना ही है वास्तविक धर्म-बुद्धि । जिस देश में धर्म ही उस बुद्धि को पीड़ित करता है, सत्ता की स्वार्थबुद्धि क्या उस देश को बचा पायेगा ? इतिहास में बार बार देखा गया है कि जब भी किसी महाराष्ट्रीयता ने नवजीवन की प्रेरणा से राज्यसत्ता में क्रांति का प्रवर्तन किया, उसी के साथ प्रबल रूप से अभिव्यक्त हुआ उसका धर्म-द्वेष । डेढ़ सौ साल पहले हुई फ्रांसिसी क्रांति में इसका दृष्टान्त देखा गया । सोवियत रूस वहाँ प्रचलित धर्मतंत्र के खिलाफ प्रतिबद्ध है । सम्प्रति स्पेन में भी धर्म को खत्म करने की यह आग जल रहा है । मेक्सिको का विद्रोह बार बार रोम के गिर्जा पर चोट करने को उठता है ।

नया तुर्की प्रचलित धर्म को उखाड़ तो नहीं फेंका है लेकिन बलपूर्वक उसकी ताकत को कम किया है । इन सभी घटनाओं के भीतर की बात यह है कि धर्मों के आदि-प्रवर्तकों ने देवता के नाम पर आदमी को मिलाने के, उसे लोभ, द्वेष, अहंकार से मुक्ति दिलाने के उपदेश दिये थे । उसके बाद सम्प्रदाय के लोगों ने महापुरुषों की वाणी को संघ-बद्ध कर विकृत किया, संकीर्ण बनाया; उस धर्म से आदमी को उन लोगों ने ऐसी मार लगाई जैसी मार दिमाग में स्वार्थबुद्धि डालने पर भी संभव नहीं होता है; आदमी का प्राण, मान, बुद्धि और शक्ति हर लिया उन्होने, मनुष्यता के सर्वोत्कृष्ट वैभव को छिन्नभिन्न कर दिया । धर्म के नाम पर पुराने मेक्सिको में स्पेनी इसाईयों द्वारा किये गये भयानक जुल्म की कोई तुलना नहीं । पृथ्वी पर निर्बाध प्रभुत्व रख कर राजायें जिस तरह कितनी ही बार दुर्दांत अराजकता में मदमत्त रहे, प्रजा का रक्षक होने का दावा कर प्रजा का सर्वनाश करने से भी पीछे नहीं हटे और अन्तत: उसी कारण से आज के इतिहास में राज्यसत्ताओं से राजायें सिर्फ लुप्त ही हो रहे हैं, धर्म के क्षेत्र में भी कई बार एक ही कारण से, धर्मतंत्र की बेहद अधार्मिकता का दमन करने के, आदमी को धर्मपीड़ा से बचाने के प्रयास देखे गये । आज उन देशों के प्रजाओं को वास्तविक स्वतंत्रता मिली है जिन देशों में धर्म का मोह आदमी के चित्त को अभिभूत कर देशवासियों में परस्पर के प्रति उदासीनता और विरोध के माहौल को कई प्रकार से न फैलाये रखा हो ।

हिन्दु समाज में आचार बन गया है धर्म । फलस्वरूप आचारों में फर्क आपस में कठोर अलगाव पैदा करता है । मछली खाने वाले बंगाली को शाकाहारी प्रांत के पड़ोसी अपना नहीं मान पाते हैं । आम तौर पर बंगाली दूसरे प्रांत में जाकर अपने अभ्यस्त आचारों के अपवादों के प्रति मन में अवज्ञा का भाव रखते हैं । जिन मनोवृत्तियों में बाह्य आचारों का  काफी अधिक मोल होता है उस मनोवृत्ति में ममत्व का बोध संकीर्ण होगा ही । अखिल भारतीय सम्मेलनों में भी यह अभाव बात बात में पकड़ा जाता है और दिखता है कि हमलोग जो आपसी भेद साथ लिये चलते हैं वे संस्कारगत हैं, बहुत सूक्ष्म हैं और उसी कारण से लांघ नहीं पाते हैं । जब हम जुबान से इस भेद के होने की बात को अस्वीकार करते हैं तब भी, अपने अन्जाने में वह भेद हमारे अन्दर रह जाता है । धर्म हमें मिला नहीं पाया है, बल्कि हजार बाड़े लगाकर उन भेदों को इतिहास के अतीत, शाश्वत कह कर पक्का कर दिया है । अंग्रेज अपनी राष्ट्रीयता का परिचय अंग्रेज कहकर ही देता है । अगर कहता इसाई तो फिर अंग्रेज-बौद्ध, अंग्रेज-मुसलमान और अंग्रेज-नास्तिकों को लेकर राज्यसत्ता के निर्माण में सर-फुटौवल शुरू हो जाता । हमारा मुख्य परिचय है हिन्दु या मुसलमान । एक समुदाय को खास परिचय देते वक्त ‘हिन्दुस्तानी’ बोलते जरूर हैं पर उनका ‘हिन्दुस्तान’ बस बंगाल के बाहर है ।

कुछ साल पहले अपने अंग्रेज मित्र एन्ड्रुज [सीएफ या ‘दीनबन्धु’ एन्ड्रुज] के साथ मालाबार में घूम रहा था । ब्राह्मणटोले की सीमा पर पैर रखते ही टिया-समाज के एक शिक्षित व्यक्ति हमारा साथ छोड़ कर भागने लगे । एन्ड्रुज विस्मित होकर उन्हे रोक लिया और पूछ कर मालुम किया कि इस मुहल्ले में उनके जात का प्रवेश निषिद्ध है । कहना बाहुल्य होगा कि हिन्दुसमाज की विधियों के अनुसार एन्ड्रुज के आचार-विचार टिया जात के भद्रमानुष से कई गुना गैर-शास्त्रीय थे । चुँकि एन्ड्रुज शासक की जात थे इसलिये उनमें बल था, लेकिन हिन्दु होने के बावजूद हिन्दु में आत्मीयता का वह बल नहीं था । उसे देख कर तो हिन्दु-देवता भी अपना जात बचा कर चलते हैं, स्वयं जगन्नाथ भी प्रत्यक्षत: दर्शनीय नहीं होते । सौतेला बेटा भी माँ की गोद पर अपने हिस्से की मांग कर सकता है – भारत में विश्वमाता की गोद के इतने बँटवारे क्योँ । गैर-आत्मीयता को अपने अस्थि-मज्जा में हमने संस्कार बना रखा है, लेकिन राज्यसत्ता की जरूरत पर उनकी आत्मीयता न मिलने पर हम विस्मित होते हैं । सुनने को मिला है कि इस बार पूर्वीबंगाल में हिन्दुओं पर उत्पात मचाने में नम:शुद्र लोगों ने भी निर्ममता के साथ मुसलमानों का साथ दिया था । क्या सोचना नहीं पड़ेगा कि उनके दिलों में दर्द क्यों नहीं जगे, आत्मीयता का दायित्व निभाने में बाधा कहाँ से आई । इस गैर-आत्मीयता के असंख्य अन्तराल कई युगों से हमारे राज्यसत्ता के भाग्य को व्यर्थ करते रहे हैं और आज भी भीतर भीतर हमारे लिये दुख का कारण बन रहे हैं । जहाँ जोरदार आवाज में बोल रहे हैं कि हम एक हैं, सूक्ष्म स्वर में वहाँ अन्तर्यामी हमारे मर्मस्थल पर बैठ कर बोल रहे हैं, “धर्म-कर्म में, आचार-विचार में एक होने लायक उदारता तुमलोगों की नहीं है ।” इसका फल मिल रहा है – और हम फल पर नाराज हो रहे हैं, बीज बोने पर नहीं । जब बंगाल के बँटवारे का खतरनाक प्रस्ताव को लेकर बंगालियों के चित्त में विक्षोभ था तब अन्तत: बंगाली बहिष्कार की नीति पर चलने का प्रयास किया था । बंगाल के उस बुरे दिनों का लाभ उठाते हुये बम्बई के मिलवाले निर्मम तरीके से अपने मुनाफे की राशि को बढ़ाने में और बँटवारे के प्रतिरोध की हमारी जी जान कोशिशों को रोकने में कुंठित नहीं हुये । उसी के साथ यह भी देखा गया कि बंगाली मुसलमान उन दिनों हमसे मुँह फेर लिये । उसी जमाने से बंगाल में हिन्दु-मुसलमान के बीच सम्बन्धों में शर्मनाक कुत्सित अध्याय का सुत्रपात हुआ । अपराध मुख्यत: किस पक्ष का था और इस प्रकार के उपद्रव को अचानक कहाँ से प्रोत्साहन मिला उस बहस की आवश्यकता नहीं है । हमारे चिन्तन का विषय यह है कि बंगाल का विभाजन होने से बंगाली राष्ट्रीयता में जो विकलांगता आती वह बंगाल के सभी समुदायों के जीवन में आती और वस्तुत: पूरे भारतवर्ष के कल्याण के लिये हानिकारक होती, इस सच्चाई को वास्तविक संवेदन के साथ समझने लायक एकात्मता हममें नहीं है और इसी कारण से उन दिनों बंगाली हिन्दुओं के विरुद्ध गैर-आत्मीय असहयोग संभव हुआ था । राज्यसत्ता की प्रतिमा का ढाँचा बनाते समय इस बात को याद रखना जरूरी है । खुद को बहलाने के बहाने विधाता को बहला नहीं पाउंगा ।

इन मामलों को लेकर उन दिनों कईयों ने अपना क्रोध जाहिर किया था । लेकिन छेद वाले घड़े में पानी भरने पर अगर पानी गिर जाये तो इसमें पानी या घड़े को आँख दिखाने से क्या फायदा । जितना भी गर्ज हो हमारा, छेद का आचरण तो छेद जैसा ही होगा । कलंक हमारा ही है और यथा समय वह कलंक आ ही जायेगा बाहर, दैव की कृपा से लज्जा का निवारण नहीं होगा ।

बात चली है कि भारतवर्ष में एकक राज्यसत्ता का शासन न होकर संयुक्त राज्यसत्ता की नीति का प्रवर्तन होना चाहिये । यानि माननी पड़ी है यह बात कि जुड़ने के दाग न रहें, उतनी अधिक एकता हमारे देश में नहीं है । मान लिया जाये हमारी राज्यसत्ता की समस्या का यह एक कामकाजी समाधान है । लेकिन फिर भी एक मुश्किल गाँठ रह गई, हिन्दु-मुसलमान के बीच विभेद एवं विरोध । कई कारणों से अलगाव भीतरी हो चुका है । बाहर से राजनीतिक मलहम लगाकर इसकी दरारों को बन्द करना संभव नहीं होगा, किसी कारण से ताप थोड़ा बढ़ते ही फिर से दरारें पड़ेंगी ।

जहाँ आपस में वास्तविक विभेद है वहीं सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अलग कोठरी में अपना अपना हिसाब चलता रहता है । वहाँ स्वाभाविक तौर पर यह याद नहीं रहता है कि राज्यसत्ता की जो सम्पदायेँ होंगी उसमें सभी का अखंड हित साधित होगा । ग्रहों के ऐसे फेर में एक ही गाड़ी को दो घोड़े दो तरफ खींचने की समस्या पैदा करते हैं । अभी से अधिकारों में अपने अपने हिस्सों को लेकर शोरगुल शुरू हो चुका है । इसमें राजनीतिक विषय-बुद्धि जुटेगी तो क्या कोई उम्मीद बन सकती है कि गोल-मेज के बाद भी यह शोर बढ़ेगी नहीं, कम होगी । विषय-बुद्धि के जमाने में सहोदर भाईयों में भी तू-तू मैं-मैं लग जाता है । अन्त में गुन्डों के हाथों के लाठीभाले भी जुटते हैं और अन्तिम समाधान की जिम्मेदारी यमराज को मिलती है ।

मुसलमानों का एक दल सम्मिलित चुनाव के विरोध में हैं । वे अलग चुनाव की रीति की मांग करते हैं और अपने तरफ पलड़ा भारी करने के लिये विशेष सुविधाओं का बटखरा बढ़ा लेना चाहते हैं । अगर मुसलमानों में सभी या अधिकांश एकमत होकर अलग चुनाव की रीति की मांग करें और अपनी तरफ का वजन बढ़ा लेना चाहें, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तब उनकी ऐसी मांग मान कर भी महात्माजी [महात्मा गांधी] समझौता करने को तैयार हैं । अगर ऐसा हो तो महात्माजी का प्रस्ताव सर झुका कर मान लेना ही अच्छा होगा । क्योंकि भारतवर्ष कि तरफ से राजनीतिक जो अधिकार हमें जीतने होंगे उनके बारे में स्पष्ट धारणा एवं साधना की प्रणाली समग्रता में उन्ही के दिमाग में है । अभी तक सिर्फ वह ही पूरे मामले को असाधारण दक्षता के साथ प्रबल बाधाओं के खिलाफ आगे बढ़ाते आये हैं । काम हासिल करने की नज़र से अन्तत: उन्ही के हाथ में सारथी का दायित्व देना सही होगा । फिर भी, एक आदमी या एक दल की व्यक्तिगत सहिष्णुता पर निर्भरशील होकर यह भूलने से नहीं चलेगा कि अधिकार देने में अगर किसी एक पक्ष के साथ पक्षपात किया जाय तो सामान्य मनुष्य-प्रकृति को यह अन्याय सहन नहीं होगा; इसे लेकर एक अशांति हमेशा के लिये हिंसक बन कर रह जायेगा । वस्तुत:, यह आपसी विवाद खत्म करने का रास्ता नहीं है । सब लोग अगर एकजुट होकर प्रसन्न मन से एक मुश्त समझौते करने को राजी हों तब कोई बात नहीं । लेकिन आदमी का मन ! किसी एक तार पर अगर ज्यादा खिचाव हो तो सुर बिगड़ जाता है, तब संगीत का भले कोई दुहाई दे, संगत तो बर्बाद होता ही है । ठीक से मैं जानता नहीं हूँ कि महात्माजी इस बारे में किस तरह सोच रहे हैं । शायद उन्हे लगता होगा कि गोल-मेज-बैठक में हमारी सम्मिलित मांग की ताकत को अक्षुण्ण रखना ही फिलहाल सबसे अधिक गंभीर आवश्यकता है । दोनो पक्ष अपनी अपनी जिद पर समान रूप से अटल हो जाये तो काम आगे नहीं बढ़ेगा । यह बात सत्य है । इस स्थिति में एक पक्ष द्वारा त्याग करने पर आपस में सुलह हो जाये तो तात्कालिक बचाव हो जाता है । इसी को कहा जाता है डिप्लोमैसी । पॉलिटिक्स में शुरू से ही सोलह आना प्राप्य को दबा कर बैठ जाने से सोलहों आना गँवाना पड़ता है । जो लोग अदूरदर्शी कृपणों की तरह बहुत ज्यादा खींचतान किये बिना समझौता करना जानते हैं वे ही जीतते हैं ।

अंग्रेजों का एक गुण है । नाव को डूबने से बचाने के लिये बहुत सारा माल अंग्रेज पानी में गिरा दे सकता है । मेरी अपनी समझ है कि समझौते के वर्तमान प्रस्ताव में अंग्रेजों के आगे हमलोग जो बड़ी क्षति स्वीकारने की मांग कर रहे हैं वैसी मांग योरप की किसी दूसरी राष्ट्रीयता के आगे नहीं चलती – शुरू से घूँसा उछाल कर वे बात दबा देने की कोशिश करते । राजनीति के मामले में अंग्रेजों की बुद्धि की ख्याति है, पूरे पर नज़र रख कर वे बहुत कुछ सह सकते हैं । इस बुद्धि का प्रयोजन हमें नहीं है यह अड़ियल वाली बात होगी; अन्त में अड़ियल की हार होती है । राजनीतिक अधिकारों को लेकर अड़ियल तरीके से मोलभाव कर हिन्दु-मुसलमान के बीच मनमुटाव को काफी दूर तक आगे बढ़ने देना शत्रुपक्ष के आनन्द को बढ़ाने का मुख्य उपाय है ।

मेरा वक्तव्य यह है कि तात्कालिक कार्योद्धार के लिये फिलहाल अपनी मांग को काटछाँट कर एक सुलह तक पहुँचना सम्भव हो तो हो, लेकिन फिर भी असली बात ही बाकी रह गई । पॉलिटिक्स के क्षेत्र में बाहर से चिप्पी लगाकर जितना मेल हो सकता है उस मेल से हमारी हमेशा की जरूरत पूरी नहीं होगी । यूँ तो पॉलिटिक्स में भी यह चिप्पी हमेशा बनी रहेगी ऐसी आशा नहीं है, फांकी के उस जोड़ के पास बार बार खिचाव होगा । जहाँ जड़ में अलगाव है वहाँ पत्तों पर पानी डाल कर पेड़ को हमेशा के लिये ताजा रखना असम्भव है । हमें मिलना पड़ेगा उसी जड़ में, नहीं तो किसी भी तरह कल्याण नहीं ।     

इतने दिनों तक एक किस्म का मेल था उस जड़ की तरफ । एक दूसरे में फर्क को मानते हुये भी परस्पर के करीब थे हम । सम्प्रदाय के घेरे पर ठोकर खाकर गिरना नहीं पड़ता था, घेरे को पार करने के बाद भी आदमी के साथ आदमी के मेल के लिये पर्याप्त जगह थी । अचानक एक समय देखा गया कि दोनों पक्ष अपने धर्म के अभिमान को उँचा करने में लग गये हैं । जब तक हमारा धर्म-बोध सहज था तब तक कट्टरता के बावजूद कोई हंगामा नहीं हुआ । लेकिन एक समय के बाद चाहे जिस कारण से हो, धर्म का अभिमान जब उग्र हो उठा तभी से सम्प्रदाय के काँटों का घेरा एक दूसरे को रोकना और चुभना शुरू किया । हम ने भी मसजिद के सामने से प्रतिमा लेकर जाते समय कुछ अधिक ही जिद के साथ ढाक बजाना शुरू किया, दूसरा पक्ष भी कमर बांध कर  कुर्बानी का उमंग बढ़ा दिया, और यह सब किया अपने अपने धर्म की मांग पूरी करने के लिये नहीं बल्कि परस्पर के धर्म के अभिमान को आघात पहुँचाने की स्पर्धा के साथ । ये सारे उत्पात शुरू हुये शहर में, जहाँ आदमी आदमी के बीच वास्तविक मेलजोल नहीं होने के कारण परस्पर के प्रति ममत्व नहीं रहता है ।

धर्ममत एवं समाजरीति में, हिन्दु-मुसलमान के बीच सिर्फ फर्क नहीं बल्कि विरोध है यह मानना ही पड़ेगा । अत: हमारी साधना का विषय है, उन विरोधों के बावजूद अच्छी तरह मिलना पड़ेगा । इस साधना में सिद्धि हमें चाहिये ही चाहिये । लेकिन इसकी नितान्त आवश्यकता पर आज भी हम ने अपने हृदय और मन से सोचना शुरू नहीं किया । एक समय था जब महात्माजी ने सोचा था कि खिलाफत का समर्थन कर मिलन का सेतु बना पायेंगे । खैर । यह मूल बात नहीं है, खिलाफत को लेकर मतभेद का होना मेरे हिसाब से कोई नाजायज बात नहीं, बल्कि प्रमाण हैं कि मुसलमानों के बीच भी मतभेद रह सकते हैं । विभिन्न अवसरों पर और बिना किसी अवसर के भी हमेशा हमें परस्पर का साथ और सीधी बातचीत चाहिये । अगर हम अगल बगल चलें, करीब आयें तभी देख पायेंगे कि आदमी होने के कारण ही आदमी को अपना मानना आसान है । जिनके साथ मेलजोल नहीं उन्ही के बारे में मतों का भेद सख्त और बड़ा हो जाता है । और जब परस्पर के नजदीक आने जाने की चर्चा होने लगती है तो मत पीछे चला जाता है, आदमी सामने आ जाता है । शान्तिनिकेतन में बीच बीच में मुसलमान छात्र और शिक्षक आते रहे हैं, उनके साथ हमारा कोई भेद मैंने महसूस नहीं किया तथा मित्रता व स्नेह-सम्बन्ध स्थापित करने में कहीं से कोई वाधा नहीं आई । जिन गाँवों के साथ शान्तिनिकेतन के सम्बन्ध हैं उनमें मुसलमान गाँव भी हैं । जब कलकत्ता का हिन्दु-मुसलमान दंगा दूतों के माध्यम से कलकत्ता के बाहर फैलता चला जा रहा था उस समय बोलपुर के इलाके में अफवाह फैली कि हिन्दुलोग मसजिद तोड़ने का संकल्प कर रहे हैं; साथ ही कलकत्ते से गुन्डे भी मंगाये गये थे । लेकिन स्थानीय मुसलमानों को शान्त करने में ह्में कोई कठिनाई नहीं हुई क्यों कि वे सुनिश्चित तौर पर जानते थे कि हम उनके असली मित्र हैं ।

       मेरे अधिकांश प्रजा मुसलमान हैं । कुर्बानी को लेकर जब देश मे तीव्र उत्तेजना फैली हुई थी उस समय हिन्दु प्रजाओं ने हमसे, हमारे इलाके में कुर्बानी पूरी तरह बन्द करवा देने को कहा था । मुझे यह सुझाव तर्कसंगत नहीं लगा, लेकिन मुसलमान प्रजाओं को बुला कर मैंने उनसे कुर्बानी का काम यूँ करने को कहा कि हिन्दुओं के मन में चोट न पहुँचे । उन्होने उसी वक्त मेरे सुझाव को मान लिया । हमारे वहाँ अभी तक किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं हुआ । मेरा विश्वास है कि मेरे साथ मेरे मुसलमान प्रजाओं का सम्बन्ध सहज व निर्बाध होना ही इसका प्रधान कारण है ।

इस बात की आशा की ही नहीं जा सकती है कि हमारे देश के भिन्न भिन्न समाजों में धर्मकर्म को लेकर मत और आस्थाओं का फर्क पूरी तरह खत्म हो जायेगा । फिर भी मनुष्यता की खातिर आशा तो करनी पड़ेगी कि हमारे बीच मेल होगा । परस्पर को अगर हम दूर किये न रखें तो आसानी से हो पायेगा वह मेल । साथ रहने की नज़र से देखा जाय तो हिन्दु-मुसलमान के अलग होने से आजकल साम्प्रदायिक विभेद को बढ़ा गया है और मनुष्यता का मेल दब गया है । मैं हिन्दुओं की ओर से ही बोल रहा हूँ, मुसलमानों की गलतियों पर बातचीत बन्द करें – अगर मुसलमानों को करीब खींच नहीं पाये हों तो उसके लिये शर्म करें । छोटी उम्र में पहली बार जब जमीन्दारी का दफ्तर देखने गया था तब देखा कि हमारे ब्राह्मण मैनेजर गद्दा लगे जिस खाट पर बैठ कर दरबार करते हैं उसका जाजिम एक तरफ उठाया हुआ है, वह जगह मुसलमान प्रजाओं के बैठने के लिये है और जाजिम पर बैठते हैं हिन्दु प्रजा । यह देख कर मुझ में धिक्कार जगा था । जबकि यह मैनेजर आधुनिक देशभक्त दल के साथ है । अंग्रेजीराज के दरबार में भारतीयों के असम्मान के खिलाफ तीखी बातें हों तो उन्हे खुशी मिलती है पर अपने स्वदेशवासी को भद्रजनोचित सम्मान देने के समय इतना कंजूस हैं । यह कंजूसी समाज और कार्यक्षेत्रों में बहुत दूर तक प्रवेश कर गया है, अन्तत: ऐसा हुआ है कि जहाँ हिन्दु हैं वहाँ मुसलमानों के लिये दरवाजे छोटे हैं, जहाँ मुसलमान हैं वहाँ हिन्दुओं के लिये अनेकों बाधायें हैं । यह आन्तरिक विच्छेद जितने दिनों तक रहेगा उतने दिनों तक स्वार्थ का भेद खत्म नहीं होगा और राज्यसत्ता की व्यवस्था में एक के कल्याण का भार दूसरे के हाथों सौंपने में संकोच अनिवार्य हो जायेगा । आज सम्मिलित मतदान को लेकर जो विवाद छिड़ गया है उसका जड़ तो यहीं है । इस विवाद को लेकर जब हम असहनशील होते हैं तब इसके स्वाभाविक कारण की ओर क्यों नहीं ध्यान देते हैं ।

इस बीच बंगाल में हमें बार बार अकथनीय बर्बरता का सहन करना पड़ा है । जार के शासनकाल में रूस में इस किस्म के अत्याचार अक्सर हुआ करते थे । मौजुदा क्रान्तिमुखीन पॉलिटिकल जमाने से पहले हमारे देश में इस तरह की दानवीय घटनायें कभी सुनी नहीं गई थीं । ठीक इस विशेष समय में पुलिस के पहरे की खुली नज़र के सामने स्पर्धा के साथ बार बार लांछित होने लगा बृटिश-शासित भारत का अति गौरवान्वित ‘लॉ ऐन्ड ऑर्डर’ । मार का दुख सिर्फ हमारे पीठ पर नहीं रहा, प्रवेश किया हृदय में । ऐसे समय में यह हुआ जब हिन्दु-मुसलमान आवाज मिलाकर खड़े होते तो भाग्य प्रसन्न होता, विश्वसभा के सामने हमारा सर झुकता नहीं । इस तरह कि अमानवीय घटना लोकस्मृति को हमेशा के लिये विषाक्त कर देता है, देश के दाँये हाथ के साथ बाँये हाथ का मेल कर इतिहास का निर्माण करना दु:साध्य हो जाता है । लेकिन उसके चलते निराश हुआ तो नहीं जा सकता है; गाँठ फँस गया है देख कर गुस्से में खींचखाँच कर और कस देना मुर्खता होगी । वर्तमान के तीखेपन से भविष्य के बीज को भी बाँझ बना देना सामुदायिक आत्महत्या जैसा होगा । कई तात्कालिक और दूर के कारणों से, बहुत दिनों के जमा अपराध के कारण हिन्दु-मुसलमान मिलन की समस्या कठिन हुई है, इसीलिये अविलम्ब एवं दृढ़ संकल्प के साथ उअसके समाधान की ओर बढ़ना होगा । अप्रसन्न भाग्य पर क्रोधित होकर उसे और परेशान करना चोर पर आये गुस्से से फर्श पर भात रख कर खाने जैसा है ।

वर्तमान राज्यनीतिक उद्यम में आन्दोलन का काम सबसे तेज जो बम्बई प्रांत में चल पाया था उसका प्रमुख कारण है कि वहाँ हिन्दु-मुसलमान विरोध शुरू करने के उपकरण अपर्याप्त थे । पार्सी और हिन्दु को दो पक्ष बनाने का काम आसान नहीं हो पाया । क्योंकि, पार्सी समाज सामान्यत: शिक्षित समाज है, स्वदेश के कल्याण के वारे में पार्सी बुद्धि के साथ सोचना जानता हैं, इसके अलावे उनमें धर्म को लेकर पागलपन नहीं है । बंगाल में हम लाक्षागृह में हैं, आग लगाने में अधिक देर नहीं लगती है । बंगाल में जब भी हम दूसरे के साथ समझौते की ओर बढ़ते हैं ठीक उसी समय अपना घर सम्हालना असाध्य हो उठता है । इस दुर्घट का कारण हमारे यहाँ गहराई में अपना जड़ जमाया है यह तो मानना ही पड़ेगा । इस स्थिति में शान्त मन से बुद्धि के साथ परस्पर के बीच संधि स्थापित करने के उपाय निकालने में अगर हम अक्षम हुये, बंगाली-सुलभ भावावेग के वश में आकर अगर सिर्फ अपनी ज़िद में रहकर स्पर्धा बढ़ाते जायें, तो हमारे दुखों का अन्त नहीं रहेगा और हम सबके कल्याण का मार्ग नितान्त दुर्गम हो जायेगा ।

हममें से कोई कोई आँखें मूंद कर कहते हैं कि देश अपने हाथों मिलते ही सब कुछ आसान हो जायेगा । यानि अपने बोझ को स्थितिपरिवर्तन के कंधे पर डाल पायेंगे इस भरोसे से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का एक बहाना है । जरा विचार किया जाय । मान लिया गया कि गोलमेज़ बैठक के बाद देश का शासनभार हमें ही मिलेगा । लेकिन देश के हाथ बदलने के बीच की एक दीर्घ संक्रमणकालीन अवधि है । सिविल-सर्विस की मियाद कुछ समय तक टिकी रहेगी । लेकिन उस दिन का सिविल-सर्विस होगा जख्मी भेड़िये की तरह । दिमाग गरम रहेगा । उस छोटी सी अवधि में उसके लिये देश और विदेश के लोगों के बीच में इस बात को दाग देना जरूरी होगा कि देखो, ब्रिटिशराज का पहरा अलग होते ही अराजकता का कालसर्प कई गढ्ढों से निकल कर फन उठाये हुये है, यानि हम लोग स्वदेश का भार लेने में पूरी तरह अक्षम हैं । हमारे अपने लोगों की जुबान सेभी यह कबूल करवा लेने की इच्छा उसे जरूर होगी कि ‘पहले के जमाने में ही स्थिति बेहतर थी’ । उस संक्रमणकाल में जिस जिस गुफा में हमारे आत्मीय-विद्वेष के घाव छिपे हैं वहीं पर खूब खोंच लगायेंगे वे सिविल-सर्विस वाले । वह हमारे किये कठिन परीक्षा की घड़ी होगी । पूरी दुनिया के सामने हमें देनी होगी वह परीक्षा । अभी से पूरी तरह तैयार रहना पड़ेगा कि विश्वजगत की दृष्टि के सामने हमारी मूढ़ता और बर्बरता के कारण हमारे नये इतिहास के चेहरे पर कालिख न लगे ।

रचनाकाल: बांग्ला वर्ष आषाढ़ 1446 (अंग्रेजी जुलाई 1931)

[कालान्तर शीर्षक प्रबंध संकलन से चयनित]

[इस निबन्ध की पृष्ठभूमि में इतिहास-प्रसंग के रूप में ध्यान में रखना होगा सन 1931 की घटनायें मसलन गांधी-आर्विन समझौता, डॉमिनियन स्टैटस की मांग एवं उससे सम्बन्धित आशायें एवं आशंकायें, बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव आदि] 



No comments:

Post a Comment