भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में हमें कई मार्गों एवं विचारों का क्रियान्वयन देखने को मिलता है । कुछ लोग अहिंसावादी व समझौतावादी थे तो कुछ लोग समझौताविहीन व हिंसा पर आस्था रखनेवाले भी थे । कुछ लोगों ने इवोल्युशन का मार्ग चुना तो कुछ लोगों ने रिवोल्युशन को एक मात्र मार्ग माना । और भी कुछ लोग थे जिनकी आस्था मार्क्सवाद में थी । वे भी क्रान्ति में ही आस्था रखते थे ; बेलगाम समझौतों के पक्ष में नहीं थे । ये लोग वर्ग संघर्ष के जरिये साम्राज्यवाद-विरोधी आन्दोलन के मार्ग पर चले हैं । इतिहास के इस यथार्थ को स्वीकारते हुये मानना ही पड़ेगा कि देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में इन सबों की भूमिका है । किसी को छोटा या किसी को बड़ा करते हुये आँकना उचित नहीं । इतना बड़ा है यह देश, इतने सारे मार्गों और विचारों पर चलने वाले हैं – सबों का उद्देश्य था भारत की स्वतंत्रता ।
मैं चर्चा करूंगा उन
क्रान्तिमार्गियों की जिन्होने बिहार में काम किया, पूर्ण आत्मबलिदान के
विस्मयकारी, प्रशंसनीय उदाहरण रख गये । वे मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन समझौताविहीन
सशस्त्र क्रान्ति के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भगाने के मार्ग पर आस्था रखते
हुये, गुप्त समितियों का गठन कर अपने मिशन को प्राप्त करने के लिये आगे बढ़े ।
आये दिन कोई न कोई
मिल जाते हैं इन्हे टेररिस्ट कहने वाले । ये टेररिस्ट या आतंकवादी नहीं थे । इन्हे
अग्नियुग के क्रान्तिकारी कहना ही तर्कसंगत होगा । इन्सानों की निरर्थक हत्या करते
हुये, निरर्थक विध्वंस मचाते हुये आतंकवादी अपने घोषित मार्ग पर आगे बढ़ते हैं । पर
ये क्रान्तिकारी कभी भी निर्दोष लोगों को क्षति नहीं पहुँचाते थे । वे अत्याचारी
शासकों को चिन्हित कर उनकी हत्या की कोशिश करते थे । संयोग से अगर किसी निर्दोष की
हत्या हो जाती थी तो उन्हे अनुताप होता था । मिसाल के तौर पर खुदीराम ने न्यायाधीश
डी॰एच॰किंग्सफोर्ड की हत्या के लिये बम फेंका था लेकिन उस दिन उस गाड़ी में वह साहब
नहीं था । बल्कि दो अंग्रेज महिलायें थीं । इस गलती के लिये वे सब दुखी थे । उनमें
मानवीय विवेक का बोध ज्यादा ही था । अंग्रेजों के अत्याचार का प्रतिवाद करना ही
उनका उद्देश्य था, इन्सानों की बेमतलब हत्या नहीं । आतंकवादी ठीक इसके विपरीत हैं
। वे किसी भी प्रकार हत्या और विध्वंस का दहशत फैला कर जनसमाज में त्रास का संचार
करते हुये परिस्थिति को अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं । न्याय या अन्याय में
फर्क की वे परवाह नहीं करते ।
जो भी हो, बंगाल में
इस अग्नियुग की शुरुआत होने के बाद उसका प्रभाव बिहार पर भी पड़ने लगा । हालाँकि
इसी कालखंड में, सन 1912 में बिहार बंगाल प्रेसिडेन्सी से अलग हो गया । बिहार में
भी कुछ गुप्त समितियाँ बनने लगीं । नवयुवकों को क्रान्ति के मंत्र की दीक्षा दी
जाने लगी । उस इतिहास का पूर्ण विवरण एक निबन्ध में सम्भव नहीं । मैं सिर्फ उसके
कुछ चुने हुये हिस्से का रेखाचित्रण करने का प्रयास करूंगा ।
मैं चुन लूंगा कुछ
ऐसी घटनायें जिन पर अमूमन चर्चा नहीं होती । घटनायें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । खुदिराम
बोस और प्रफुल्ल चाकी को मुजफ्फरपुर भेजा गया किंग्सफोर्ड को माकूल सजा देने के
लिये । वे अपने मिशन में सफल नहीं हो पाये । सौभाग्यवश किंग्सफोर्ड बच गया और उनकी
जगह दो अंग्रेज महिलायें मारी गईं । पकड़े जाने के पहले प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या
किया एवं खुदीराम बोस को फाँसी हुई । बहुतों की धारणा है कि अग्नियुग के
क्रान्तिकारियों में प्रफुल्ल चाकी हैं प्रथम तथा खुदीराम द्वितीय शहीद ।
मुजफ्फरपुर की इस घटना से पहले और एक घटना हुई जिसमें एक क्रान्तिकारी मारे गये ।
वह घटना भी सन 1908 में ही हुई । नलिनीकान्त गुप्त ने लिखा है कि यह घटना जनवरी
महीने में हुई थी । जबकि क्षुदीराम एवं प्रफुल्ल चाकी ने बम फेंका 30 अप्रैल 1908
को । लॉर्ड कार्जन द्वारा जारी बंगाल-विभाजन कानून का विरोध करते हुये
क्रान्तिकारियों ने समझा कि ब्रिटिश राज को भारत छोड़ने को मजबूर करने के लिये
सशस्त्र क्रान्ति की जरूरत होगी । पहले चरण में उन्होने अत्याचारी ब्रिटिश शासकों
को व्यक्तिगत तौर पर दंडित करने का रास्ता चुना । उसी की परिणति थी किंग्सफोर्ड की
हत्या की कोशिश । ऐसे कामों के लिये हथियारों की जरूरत पड़ती है । हथियार खरीदने के
लिये पैसे चाहिये । डकैती या लूट के द्वारा क्रान्तिकारी पैसों का इन्तजाम करते थे
। मेधावी छात्रों ने कॉलेज के प्रयोगशाला में बम तैयार करने के फॉर्मूले का
आविष्कार किया । फॉर्मूला मिलने के बाद सवाल आया कि उस फॉर्मूले के अनुसार बम बना
कर कहीं जाँचनी होगी, सफलता मिली या नहीं । इस जाँच के लिये उन लोगों ने चुना
देवघर के पास दिघिरिया नाम का एक पहाड़ी इलाका । जो क्रान्तिकारी इस काम के लिये
आये वे थे (1) बारीन्द्र कुमार घोष, (2) उल्लासकर दत्त, (3) प्रफुल्लचन्द्र
चक्रवर्ती, (4) विभूतिभूषण सरकार एवं (5) नलिनी कान्त गुप्त ।
एक बम तैयार किया
गया । मुख्य कारीगर थे उल्लासकर दत्त । तय हुआ कि रेललाइन के उस पार, गुमटी पार
कर, छोटी पहाड़ियों पर चढ़ कर जाँच की जायेगी । एक दिन अपराह्न के वक्त पाँचों ने
यात्रा शुरू किया । बम को ढोने का जिम्मा नलिनीबाबु पर था । पहाड़, जंगल के पार
बिल्कुल चोटी पर एक जगह पसन्द की गई । बड़ा एक पत्थर था वहाँ जिसका एक तरफ सीना तक
पहुँचता हुआ सीधा खड़ा था । दूसरा तरफ ढलान जैसा उतर गया था बीस-पचीस हाथ । योजना
बनी कि पत्थर के खड़े तरफ के पास खड़ा होकर प्रफुल्ल बम फेंकेगा ढलान वाले तरफ पर ।
फेंकते ही बैठ जायेगा ताकि फटने के बाद कोई टुकड़ा शरीर को क्षति न पहुँचा सके ।
नलिनीबाबु रहे थोड़ा दूर, एक पेड़ पर, ताकि पूरा दृश्य नजर आ सके । अगले घटनाक्रम
नलिनीबाबु के शब्दों में सुना जाय । “मैं एक टक देख रहा था पत्थर की ओर । अचानक
दिखा कि आग की एक चिनगारी जल उठी । थोड़ा धुआं फैला और उसी के साथ जबर्दस्त धमाका ।
पूरा आसमान जैसे फट कर चिथड़ा चिथड़ा हो गया हो । आवाज की लहरें प्रतिध्वनित हुई एक
छोर से दूसरे छोर तक – जैसे बादल सौ बार गरजे हों एकसाथ । ऐसी आवाज मैने आज तक सुनी
ही नहीं थी । पुलकित, उल्लसित और सहर्ष मैं पेड़ से उतर कर दौड़ते हुये पहुँचा
घटनास्थल पर – ‘सक्सेसफुल’, ‘सक्सेसफुल’ चिल्लाते हुये । लेकिन यह क्या ? क्या
वीभत्स दृश्य था यहाँ ! प्रफुल्ल का शरीर निढाल पड़ा है उल्लास की छाती पर, उल्लास
दोनों हाथों से उसे जकड़े हुये है । धीरे धीरे उसे सुलाया गया – दिखा कि ललाट का एक
तरफ फट गया है, उसके भीतर से थोड़ा मस्तिष्क निकल आया है – आँखों से देखा नहीं जा
रहा है । …… बारीनदा ने कहा – सब कुछ खत्म । कोई उम्मीद नहीं है ।” यह भयानक
दुर्घटना अप्रत्याशित था । पूरी सतर्कता के बावजूद यह घटना हुई कैसे ? नलिनी कान्त
ने इसका उत्तर दिया है । उन्होने लिखा है, “हम लोगों ने सोचा था कि बम के नीचे
गिरने पर, सख्त सतह के साथ रगड़ खाने पर विस्फोटक में आग सुलगेगी । …… विस्फोटक
इतना जोरदार यानि आसानी से दाह्य हो गया था कि आसमान में उछालते ही, हवा के साथ
रगड़ खाकर वह सुलग उठा ।” अब सवाल उठा लाश का । सख्त पत्थर कोड़ कर दफ्न करना असम्भव
था, आग में जलाने पर लोगों की जानकारी में आने का खतरा था । बारीन घोष ने कहा,
“कुछ करने की जरूरत नहीं । उसी तरह छोड़ कर चला जाय । यह युद्धक्षेत्र है,
युद्धक्षेत्र में हमारे पहले सैनिक ने अपना देहदान किया – यह हमारा पहला कैजुयल्टी
है ।” इस घटना में उल्लासकर जख्मी हुये थे । जल्द उसके इलाज के लिये सब पहाड़ से
उतर रहे थे जब नलिनीकान्त गुप्त ने तकलीफ जताते हुये कहा, “हम आये थे पाँच, लौट
रहे हैं चार ।” बारीन घोष ने तत्काल उसे डाँटते हुये कहा, “नो सेन्टिमेन्टलिटी,
प्लीज़ ।” अत: यह कहा जा सकता है कि प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम से पहले प्रफुल्ल
चक्रवर्ती शहीद हुये थे । देशमातृका को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने के महान
व्रत में इन क्रान्तिकारियों ने कैसे कैसे आत्मोत्सर्ग किया उसी के उदाहरण के तौर
पर इस घटना का जिक्र किया गया । और यह घटित हुआ था देवघर के पास एक निर्जन इलाके
में ।
बारीन्द्र कुमार घोष
के बारे में दो-चार बातें यहाँ अप्रासंगिक नहीं होंगी । श्रीअरविन्द (पॉंन्डिचेरी
आश्रम के संस्थापक; शुरू के दिनों में यह भी क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े रहे) के
भाई थे बारीन्द्र । देवघर विद्यालय से सन 1901 में ये प्रवेशिका परीक्षा में
उत्तीर्ण हुये । पटना कॉलेज में छ: महीनों तक एफ॰ए॰ की पढ़ाई करने के बाद ये ढाका
कॉलेज में भर्ती हुये । इसके कुछ दिनों के बाद पटना कॉलेज के पास इन्होने एक चाय
की दुकान खोली । वाणिज्य के लिये मूलधन जुटाने हेतु बड़ौदा गये अपने अग्रज अरविन्द
के पास । अरविन्द के ही प्रभाव में आकर सन 1902 में कलकत्ता आये एक गुप्त
क्रान्तिकारी दल संगठित करने के लिये । इन्होने ही खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी
को मुजफ्फरपुर भेजा । इन्हे ‘बमवर्षक बारीन्द्रकुमार’ के नाम से पुकारा जाता था ।
राजद्रोह एवं आतंकवाद फैलाने के आरोप पर इन्हे पहले मृत्युदंड और आगे चल कर आजीवन
कारावास का दंड दिया गया । सन 1909 से 1920 तक ये कारावास में थे । मुक्ति मिलने
के बाद कुछ दिनों तक पॉन्डिचेरी के अरविन्द आश्रम में थे । बाद में इन्होने महसूस
किया कि इस तरह ब्रिटिश ताकत को पराजित नहीं किया जा सकेगा । अन्य क्रान्तिकारियों
की तरह इन्होने भी व्यक्तिहत्या का मार्ग छोड़ कर दूसरे मार्गों का तलाश करना शुरू
किया । सेना में बगावत एवं गुरिल्ला युद्ध का मार्ग । लेकिन वह एक अलग प्रसंग है ।
और एक अत्यन्त
महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना का जिक्र किया जाय । द्वितीय लाहोर षड़यंत्र मामले का एक
सरकारी गवाह बेतिया के फणी घोष को अपने हाथों से मारने का अपराध प्रमाणित होने पर
न्यायाधीश ने बैकुन्ठ शुकुल को फाँसी का हुक्म सुनाया । फाँसी दिया गया गया केन्द्रीय
कारागार में । उस समय उस कारागार में एक और स्वतंत्रता सेनानी विभूति दासगुप्ता
बन्दी थे । सन 1930 में जब विभूतिबाबु पटना कैम्प-जेल में बन्दी थे तब बैकुन्ठ
शुकुल उस जेल में आये थे और विभूतिबाबु के साथ उनका परिचय हुआ था । विभूतिबाबु
गाते थे बहुत सुन्दर एवं रबीन्द्रनाथ के अनुरागी भी थे । इस गुण के कारण जेल में
बहुत सारे लोग उनके भक्त बन गये । बैकुन्ठ शुकुल भी उनके एक अनुरागी और भक्त थे ।
विभूतिबाबु कहते हैं, “सुनने में आया कि बैकुन्ठ शुकुल की फाँसी का दिन तय हो गया
है । उन दिनों जाड़े का वक्त था – गया का जाड़ा, भयानक कँपकँपी । … हम तीनों उन्मुख
थे – फाँसी के अन्यान्य आसामियों की तरह बैकुन्ठ शुकुल से भी हमारी भेँट होगी ।
बड़े जमादार ने आकर कहा – आपलोगों को पहले बन्द होना होगा आज । … हमलोग अपने सेलों
में बन्द हो गये । … जेल के सारे कैदियों को बन्द करने के बाद बैकुन्ठ शुकुल को
पन्द्रह नम्बर में लाया गया । …
“बेड़ियों की झनझनाहट
के साथ बैकुन्ठ शुकुल पन्द्रह नम्बर के कॉरीडोर में प्रवेश किया । चीख कर बोला,
‘दादा, आ गया’ । हम तीनों ने अगल बगल के तीन सेलों से एक साथ आवाज उठाई,
‘बन्देमातरम’ । …
“एक नम्बर सेल में
प्रवेश कराते वक्त फाँसी के दूसरे आसामियों की बेड़ियाँ और जंजीरें काट दी जाती थी
। बैकुन्ठ का काटा नहीं गया । अभूतपूर्व सावधानी बरती गई थी उसके साथ । …
“बैकुन्ठ शुकुल उसके पहरेदार वार्ड के साथ बातें
कर रहा था । उसकी धीमी सी आवाज कानों में आ रही है । … ढन-ढन कर घन्टा बज उठा ।
समझ में आई कि शाम की गिनती मिल चुकी है । …
“काठ के दरवाजे से
हमारे सेल के आंगन में प्रवेश किये हवलदार साहब । एक ही जेल में ज्यादा दिन बिताने
पर खास कर इस तरह के सेलों में वार्डर, जमादार, हवलदारों के साथ अच्छी दोस्ती हो
जाती है । जो लोग ड्युटी पर आते हैं, हमें अकेला पा कर थोड़ा गपशप करते हैं और कई
बार तो घरेलू सुख-दुख को लेकर भी गपशप होती है, किसी समस्या से घिरने पर परामर्श
भी मांगते हैं वे । दोपहर की ड्युटी पर आकर वार्डर “बाबुजी थोड़ा देखियेगा” बोल कर
मुरैठा खोलता है, फिर निश्चिन्तता के साथ फर्श पर सो जाता है ।
“हवलदार शाम के बाद
राउन्ड में आने पर मेरे सेल में घुसता था, दस-पन्द्रह मिनट बैठ कर गपशप कर जाता था
। यह उसके रोज-व-रोज की ड्युटी के साथ एक अतिरिक्त ड्युटी थी । हवलदार था मुसलमान
पठान । अधेड़, गोरा, बादामी रंगत लिये सलीके की मूंछ और दाढ़ी, घर युपी में, देखने
और बात करने पर पता चलता है कि आदमी खानदानी मुसलमान है ।
“हवलदार ने लालटेन
को नीचे उतार कर रखा । मेरे सेल के बन्द लोहे के पल्ले पर पीठ टिका कर बैठते हुये
दाहिनी मुट्ठी खोल कर कुछ सफेद फूल बढ़ाते हुये बोला, ‘शुकुलजी ने भेजा है’ । फूल
ले लिया, लोहे का तसला लाकर उसमें रख दिया ।
“हवलदार लालटेन को
थोड़ा दूर हटा कर, लौ को थोड़ा कम करते हुये बोला, ‘बाबूजी, क्या सोचते हैं ।’ मैंने
उसके चेहरे की ओर देखा । ये लोग अच्छे हों या बुरे, आज इन सबों के विरुद्ध एक
द्वेष, एक स्वत: क्रोध के भाव को मैं रोक नहीं पा रहा था । मैंने कहा, ‘क्या और
सोचूंगा ?’ हवलदार उर्दू में ही बातचीत करता था, मैं भी टूटीफूटी हिन्दुस्तानी में
उसके साथ बात करता था ।
“मेरे चेहरे की ओर
देखते हुये थोड़ा अनुनयपूर्ण तरीके से उसने कहा, ‘बाबूजी, लाट साहब के उपर भी जो
राजा है विलायत में उनके पास दरबार कर शुकुलजी को बचाया नहीं जा सकता है ?’
“मैं विस्मित होकर
पठान प्रहरी को देखा – क्या बोल रहा है यह ?
“बिना प्रतीक्षा
किये हवलदार बोलता चला गया – बाबूजी, मैंने कई जाँबाज़, बहादुर देखे हैं । लेकिन
ऐसा नहीं देखा । पिछले जंग में मै वर्दूं (Verdoun) में लड़ा, मेसोपोटामिया में लड़ा । बहुत सारे लोगों को मैने
मारा है, बहुत सारे लोगों को मारते देखा है, मरते देखा है । मगर ऐसा बहादुर मैने
कभी नहीं देखा । सोचा भी नहीं कि ऐसा बहादुर कोई हो सकता है ।’
“वह खामोश हुआ । मैं
स्पष्ट समझा कि बोलने के लिये वह व्याकुल है । ऐसी बातें वह अपने संगी, साथी या
बाहर के किसी आदमी के साथ नहीं कर सकता है । इस दर्द को महसूस करना ही उसके लिये
जुर्म है, अभिव्यक्त करना तो दूर की बात हो गई । मुझे पा कर उसकी बातें, उसके सोच,
उसकी कल्पनायें अब वाधाओं को अस्वीकार करना चाह रही थी । सब कुछ बोल कर जैसे वह
अपने मन का बोझ हल्का करना चाह रहा हो । वह बोलता गया, ‘जिस दिन से शुकुलजी की
फाँसी का हुक्म पक्का हो गया, उस दिन से उसका बदन जैसे गुलाब की तरह रंगीन होने
लगा ।’ वह अपनी उर्दू जबान में बोल रहा था, ‘गुलाब जैसा, गुल जैसा खिल रहा था । बाबूजी,
उसके चेहरे की ओर मैं ताज्जुब के साथ देखता रहता था । ऐसी हँसी नहीं देखी, ऐसी
खुशी नहीं देखी, ऐसी हिम्मत किसी की हो सकती है मैं जानता नहीं था । मैं सोच भी
नहीं सकता था कि ऐसा कमसिन लड़का ऐसा बहादुर हो सकता है ।’ मैं अवाक होकर उस
सायेदार रोशनी में देखा कि पठान हवलदार के दो आँखों से झरने की तरह आँसू बह रहे
हैं । उस कठोर वक्ष के भीतर जो अन्त:सलिला जलधारा थी, आज किसी वेदना के स्पर्श से
मुक्त होकर वह पत्थर को सींचने लगी है । उसने कहा, ‘बाबू, बचाने का कोई तरीका, कोई
सिविल नहीं ? अगर अपनी जान देकर भी मैं शुकुलजी को बचा पाता तो लगता कि सच में
मैने खुदा का काम किया है ।’
“मैं उसकी बातों को
सुन कर सोच रहा था । सच में हवलदार ने थोड़ी सोचने वाली बात कही है । हालांकि यह भी
लगा कि जो सोच रहा हूँ वह होना मुमकिन नहीं – फिर भी उम्मीद पर जीता है आदमी !
मृत्यु में भी आदमी अमृत की खोज करता आया है – जो सोच रहा हूँ उसमें भी मैं
संभावना की रोशनी देख रहा था । देह में ताकत है, सर में कुछ दिमाग है, डर-भय
ज्यादा है नहीं, अगर बात बन जाय – देखा ही जाय एक बार !
“हवलदार से कहा, ‘शुकुलको
बचाने का रास्ता है ।’
“वह थोड़ा अचम्भे के
साथ मुझे देखा । बंगालियों के दिमाग पर इनकी असीम आस्था है – फिर अगर वह ‘बमकेसी’
हो तब क्या कहना, आस्था और सम्मान दोनों मिलता है उसे । फिर भी उसकी नज़र में कोई
खास भरोसे का भाव नहीं दिखाई पड़ा ।
“बोला, ‘कैसे?’
“मैंने कहा, ‘आप
चाहें तो हो सकता है !’
“‘हम ?’ उसका विस्मय
और बढ़ गया ।
“बिना किसी भूमिका
के मैंने कहा, ‘हवलदार साहब, आप अगर मुझे खोल दें और शुकुल को भी, तो मैं उसे
दीवार के उस पार कर दे सकूंगा । यहाँ से बाहर निकलने के बाद थोड़ी ही दूर पर तो
दीवार है – और उसके पार बड़ा रास्ता, रास्ते के उस तरफ वह छोटा सा टिला । शुकुलजी
एक बार निकल जायें तो आगे का इन्तजाम खुद कर लेंगे ।’
“हवलदार साहब वास्तव
में निराश हो गये । मेरे दिमाग के प्रति उनकी श्रद्धा थी । लेकिन इस किस्म का
बेदिमाग प्रस्ताव मैं करूंगा इसकी शायद उसने उम्मीद नहीं की थी । उसे दूसरी बार
सोचने की जरूरत नहीं पड़ी, साफ बोल दिया, ‘ये बिल्कुल नामुमकिन है’ । हालात के बारे
में मेरी जानकारी के अभाव को समझते हुये ही उसने कहा, ‘जिस दिन से शुकुलजी इस जेल
में आये हैं उसी दिन से जेल के बाहर चार ओर खास कर रात में आर्म्ड फोर्सेस का कड़ा
पहरा चल रहा है । आज तो डेग डेग पर सन्तरी खड़ा है । एक चींटी को भी निकलना मुश्किल
है । इस पन्द्रह नम्बर को घेर कर भी बन्दुकधारी सन्तरी का पहरा चल रहा है । प्रवेश
करने के गेट पर कड़ा पहरा है । शुकुलजी की कोठरी के बाहर एक न एक स्पेशल वार्डर उसे
पहरा दे रहा है । और फिर जेलखाने की सभी चाभियाँ आज सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब की
अलमारी में है । और पन्द्रह नम्बर, खास कर शुकुलजी की सेल की चाभी साहब के खास
जिम्मा में है । आज सुबह से पुलिस का आइ॰जी॰ और जेल का आइ॰जी॰ गया में अड्डा जमाये
हुये है । कल फाँसी के समय वे रहेंगे । बाबूजी चाहें भी तो यह बिल्कुल नामुमकिन है
। और फिर शुकुलजी के पैरों में तो जंजीर, बेड़ियाँ लगी हैं ही ।’
“हवलदार साहब के
भारी बूटों की आवाज धीमी होकर गुम होते न होते एक नम्बर से पुकार सुना, ‘विभूतिदा
!’
“मैंने उत्तर दिया ।
बैठा था, खड़ा हो गया । लोहे के सींखचों को दो हाथों से पकड़ कर खड़ा हूँ ।
“बैकुन्ठ शुकुल एक
नम्बर में, मैं दस नम्बर में । कोठरी के भीतर है कोठरी लेकिन रात निस्तब्ध है ।
सुनने में किसी को दिक्कत नहीं हो रही थी ।
“शुकुलजी ने टूटी
बांग्ला में कहा, ‘एकबार वह खुदीराम की फाँसी का गीत गाइये न दादा ! वह, हासी हासी
पोरबो फाँसी !’
“मैं गीत गाता था और
काफी जोरदार आवाज में ही स्वदेशी गीत गाता था । मैं, आचारी, तरणी होड़ मुजफ्फरपुर
जेल में खुदीराम जिस सेल में रहते थे उसी टूटे सेल में बैठ कर, जेल में फाँसी का
जो मंच बना है उस पर बैठ कर हासी हासी पोरबो फाँसी गाया करते थे । बालासोर जेल में
हम तीन और कलकत्ता का बीरेन भद्र यह गीत गाये हैं । आरा जेल में ‘नहीं रखनी सरकार’
गाते गाते सेल में गये हैं । स्वराजी कैदियों ने मुझे सेल से इसी गीत को गाते हुये
निकाला है । आरा स्टेशन पर, बालासोर जाते समय, प्लैटफॉर्म पर लगभग दस हजार लोगों
ने मेरे साथ गाया है, ‘नहीं रखनी सरकार’ । ट्रेन आ गया । लोगों ने कहा कि पहले
गाना खत्म होगा फिर ट्रेन जायेगी । कालीप्रसन्न काव्यविशारद से शुरु कर असहयोग युग
के विक्रमपुर के अविनाश दास, मुकुन्द दास, नजरुल आदि के गीतों का बड़ा भंडार था
मेरा । उसके बाद बिहार के जेलों में रहते हुये हिन्दी उर्दू गीतों का संचय भी बना
। लेकिन जेलों में सबसे बेहतरीन गाना था यह ‘हासी हासी पोरबो फाँसी’ । कैम्प जेल
में मैं गाता था, हमारे नामपाड़ा का पगला गाता था । बिहारी स्वराजी भाईलोग जांघिया,
कुर्ता पहन कर बैठ जाते थे । लोहे की थाली बजा कर सर हिला हिला कर ताल देते रहते
थे । एक बार गाना खत्म होने पर दोबारा गाने के लिये कहते थे । खुदीराम की फाँसी के
इस गीत का एक जादू था ।
“खड़े खड़े मैंने गाना
शुरू किया । सींखचों को पकड़कर मैं गा रहा हूँ जी जान लगाकर, आसमान की ओर देखते
हुये – और एक खुदीराम सुनना चाह रहा है उस खुदीराम का गीत – ‘हासी हासी पोरबो
फाँसी देखबे भारतबासी’ । खत्म होने पर शुकुलने कहा, ‘और एकबार दादा !’ बीच बीच में
शुकुल की आवाज सुन रहा हूँ, वह मेरे साथ गाने की कोशिश कर रहा है, गा रहा है ।
“शुकुल ने कहा,
‘दादा, एकबार अपनी बाँसुरी बजाइये ।’ बाँसुरी ! माचिस का एक खाली डिब्बा और पतले कागज
का एक टुकड़ा, यही थी बाँसुरी । यही मैं बजाता था मुंह से । फ्लूट बज रहा है सोच कर
एक बार जेलर साहब हड़बड़ाकर दौड़ आये थे । मैंने कहा यही है मेरी बाँसुरी, अब झंझट मत
कीजिये । पन्द्रह नम्बर जेल प्रशासन के लिये एक सरदर्द देने वाला वार्ड था । हमलोग
खा पी कर शाम को शान्तिपूर्ण ढंग से बन्द हो जाते थे । इसी में जेल का सारा नियम
कानून का पालन हो जाता था । शाम में सेलों में बन्द हो जाने के बाद देर रात तक
चलता था हमारा गायन और बाँसुरी आदि की साधना और अभ्यास ।
“शुकुल बहुत देर तक
सुना । कहा, ‘धुन सुना हुआ लग रहा है ।’ मैंने कहा, ‘यह बिस्मिल का, सरफरोशी की
तमन्ना का धुन है ।’ शुकुल जैसे लपक उठा, चीख कर बोला, ‘जानते हैं यह गीत ?’ मैं
ने कहा, ‘गा रहा हूँ ।’
“युपी में रामप्रसाद
बिस्मिल फाँसी पर चढ़ने से पहले यह गीत तैयार किया था । गीत खालिस उर्दू में होने
के बावजूद जेल के स्वराजी कैदी उतना ही दिल से इस गीत को सुनते थे जितना, ‘बिदाय
दे माँ घुरे आसी’ । यह जो प्राणोत्सर्ग का सामगान होता है यह किसी भाषा पर निर्भर
नहीं होता है – समझ्ने, समझाने या व्याख्या किये जाने पर निर्भर नहीं होता है ।
चाहे जिस भाषा में हो आदमी के हृदयवीणा के तारों में इसका कम्पन होगा ही ।
“बिस्मिल का गीत !
मुल्क के लोग जिस तरह बिस्मिल और बैकुन्ठ शुकुलों को भूल गये हैं, मैं भी भूल गया
हूँ वह गीत । फिर भी विस्मृति की खोह से बाहर लाने की कोशिश कर रहा हूँ दो चार
कलियाँ । पंक्तियों का क्रम अब शायद सही ढंग से याद न हो पर कोई बात नहीं । यह था
गीत –
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है ।
रहबरे-राहे-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंजिल में है ।
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।
आज मक्तल से वह कातिल कह रहा है बार बार –
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ?
अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़
सिर्फ मरमिटने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है ।*
[*गीत
में कुछ और भी पंक्तियाँ हैं पर लेखक विभुति दासगुप्त की स्मृतिशक्ति सराहनीय है –
वर्तमान लेखक]
“सींखचों को पकड़ कर निस्तब्ध
रात के आसमान की ओर देखते हुये मैं गा रहा हूँ । मेरे सामने आसमान में तारों का
जमघट विलीन होता गया है । युपी के कैदखाने के एक कमरे में बिस्मिल को देख रहा हूँ –
और देख रहा हूँ एक नम्बर सेल में शुकुल का चेहरा । मेरे साथ समान रूप से आवाज खोल
कर, दिल खोल कर वह गा रहा है – ‘दिले-शुकुल में है - दिले-शुकुल में है - दिले-शुकुल
में है’ ।
“मेरे पास कुछ भी
नहीं है । फिर भी जितने गीत हैं, धुनें हैं, गाये जा रहा हूँ निरन्तर – निरन्तर । क्यूँकि
आज वह सुनना चाह रहा है गीत । इस रात का हर एक पल मुझे गीतों से, धुनों से भर देना
होगा; रात के खत्म होते ही उषा के आलोक में वह चला जायेगा सभी गीतों के पार ।
“बदली ड्युटी का
वार्डर ताला हिला कर चला नहीं गया । मेरे सामने आकर खड़ा होकर कहा, ‘बाबूजी आप तो
खड़े खड़े रात बिता दिया । शुकुलजी भी एक नम्बर में खड़ा है । पांडेजी, त्रिभुवनजी,
शुकुलजी तो आप लोगों का साथी है । मगर गारद में आज कोई सो नहीं सका । सारे जेल में
शायद कोई भी कैदी आज सोया नहीं है । सोता भी मगर सारा जेल आपका गाना सुन रहा है ।
हमारे गारद से भी आपका गाना सुनाई पड़ती है – क्या आप रात भर गाते रहेंगे ?’
“इस प्रश्न का कोई
उत्तर नहीं होता है । मैंने पूछा, ‘कितना बज रहा है’ । वह बोला, ‘एक बज गया’ ।
“वार्डर जब गया, लगा
कि काफी सावधानी से जा रहा है । ताकि उसके बूटों की अधिक आवाज न उठे, इस बारे में
वह सतर्क है । अब क्या गाऊंगा सोच रहा था – शुकुलजी की पुकार सुनाई पड़ी –
‘दादा वही गाना
गाइये ।’
‘कौन गाना ?’
‘वही जो रवीन्द्रनाथ
का – मरण हे मोर मरण…’
“मैंने कहा, ‘वह तो
गाना नहीं है, कविता है…’
‘नहीं, नहीं, गाइये
…’
“मरण-मिलन पूरा ही
मेरा कन्ठस्थ था – अभी भी है ।
“पर इसे सुर लगा कर
कैसे गाऊँ ? कौन सा सुर लगा कर किस तरह से गाऊँ ?
‘दादा… गाइये…’
“अब तो आगे सोचना
संभव नहीं था । जाने का समय आ गया । सोचना पड़ा भी नहीं । कहाँ से किस तरह सुर मेरे
कन्ठ में आ गया मैं नहीं जानता हूँ । जैसे कोई सुर भर कर चला गया । दरबारी कानाड़ा
में मैंने शुरू किया, ‘अतो चुपी चुपी केनो कथा कओ ओगो मरण, हे मोर मरण’ ।
“खुद को कोई किस तरह
खोता है मैं नहीं जानता हूँ । लेकिन मेरे लिये वह रात अब रात नहीं था । आसमान की
ओर देखती हुई आँखें अपने आप मूंद आईं । मैं गाये चला –
आमि जाबो जेथा तबो तोरी रॉय
ओगो मरण हे मोर मरण
जेथा अकूल होते बायु बॉय
कोरी आँधारेर ओनुसरण ।
“गीत मैंने गाये थे
उस दिन – जो गीत कोई कभी भी नहीं गाया है । इस तरह से गीत कोई कभी भी गाया है या
नहीं मैं नहीं जानता हूँ – आगे कभी गायेगा या नहीं वह भी नहीं जानता हूँ । मैं भी
फिर कभी नहीं गाया, कभी गा भी नहीं सकूंगा । दरबारी कानाड़ा में गीत का अन्तरा चल
रहा है आसमान को पार करते हुये, आस्थायी उतर रहा है मृत्यु-अभिसारी के अन्तर्मन को
स्पर्श करते हुये । कोई क्या सुन रहा है इस गीत को इस तरह ? मृत्यु को आलिंगन करने
के लिये, गाने के लिये सुन रहा है –
तुमी कारे कोरिओना दृकपात
आमी निजे लबो तबो शरण
जदी गोउरबे मोरे लोये जाओ
ओगो मरण हे मोर मरण ।
“रबीन्द्रनाथ का कोई
भी गीत, कोई भी कविता इतनी अपूर्व सार्थकता से भर पाया है या नहीं मैं नहीं जानता
हूँ । लेकिन मैं अपनी पूरी ज़िन्दगी में बस उसी एक रात में गाया था और एक ही गीत
सार्थक गाया था; और मृत्यु से मिलन के लिये व्याकुल एक ही हृदय उस गीत को सुनना
चाहा था – गाया था, सुना था ।
“कब चार बज गया खयाल
नहीं रहा । शुकुल बोला, ‘दादा वक्त नजदीक आ गया, आखरी गाना वन्दे मातरम सुनाईये’ ।
“एक नम्बर, आठ
नम्बर, नौ नम्बर, दस नम्बर हम लोग एक साथ ‘वन्दे मातरम’ गाते रहे । उस दिन यह
वन्दना सिर्फ मातृवन्दना ही नहीं वल्कि मातृपूजा का मंगलाचरण था ।
“जेल गेट पर
घन्टा-घड़ी में पाँच बजा । जाड़े के उषाकाल में तब भी अंधेरा छाया हुआ था । एक साथ
बहुत सारे भारी बूटों की आवाज पन्द्रह नम्बर में प्रवेश किया । बैकुन्ठ शुकुल
पुकार कर बोला, ‘दादा, अब तो चलना है । एक बात कहनी है मुझे । आप जब बाहर निकलेंगे
तब छोटी उम्र में विवाह देने की जो प्रथा बिहार में अब भी चल रही है, उसे बन्द
करने की कोशिश जरूर करेंगे’ ।
“बैकुन्ठ शुकुल
विवाहित था । काफी बचपन में ही उसका विवाह कर दिया गया था ।
“अब सब तरफ निस्तब्ध
है, पूरी तरह निस्तब्ध । शुकुल के सेल का ताला खोलने की आवाज सुन रहा हूँ । उसके
पैरों की बेड़ी और जंजीरों को काटने की आवाज मिली । शुकुल के शब्द सुनने को मिले,
‘मैं तैयार हूँ’ । दलवल सब निकल रहा है उसकी आवाज सुन रहा हूँ । फाँसी के आदामी को
ले जाते वक्त हाथों को पीछे मोड़ हथकड़ी लगा कर ले जाया जाता है । पन्द्रह नम्बर से
निकलते वक्त शुकुल शायद थोड़ा रुका । हमारे सेलों की ओर देखते हुये बोला, ‘दादा, तो
मैं चला । फिर आऊंगा । देश तो आज़ाद नहीं हुआ अभी – वन्दे मातरम !’
“हम तीनों एक साथ
बोल उठे, ‘वन्दे मातरम’ । फिर सब कुछ निस्तब्ध हो गया । मृत्यु के अभिसार की
निस्तब्धता । शुकुलजी की आवाज तब भी सुन पा रहा हूँ, ‘वन्दे मातरम, भारतमाता की जय
!’ आखरी बार सुना, ‘भारतमाता की…’ । पूरी जेल में आवाज गूंजी – धऽम् । सब खत्म हो
गया ।
“इसके बाद का बचा
हुआ हिस्सा न बोलने पर शायद यह कहानी अधूरी रह जायेगी । शुकुलजी की अन्तिम नारे के
साथ साथ हम तीनों के नारे शुरू हुये । शुकुलजी का मृत शरीर बाहर ले जाये जाने से
पहले नम्बर नहीं खुलेगा । बन्द कमरे में सींखचों को पकड़ कर पूरी ताकत से हम नारे
लगा रहे हैं – वन्दे मातरम, भारतमाता की जय, शुकुलजी की जय, भगत सिंह की जय,
खुदीराम की जय । फाँसी पर चढ़ाये गये जितने सारे लोगों का नाम याद आ रहा है, हम
तीनों उनकी जयजयकार किये जा रहे हैं ।
“अचानक सुनने को
मिला बहुत सारे बूटों की आवाज । जेल का आई॰जी॰ दलवल के साथ पन्द्रह नम्बर में घुस
कर चिल्लाते हुये आ रहा है, ‘चुप रहो, चुप रहो’ । पहले आठ नम्बर, फिर नौ नम्बर और
तब दस नम्बर में मेरे सेल के पास आया । कम्बलकुर्ता और जांघिया पहन कर सारी रात
जगने के बाद क्षोभ, शोक और उत्तेजना से हम मरने पर उतारु हो गये थे । सींखचों को
पकड़ कर खड़े हम लोगों के चेहरे देख कर और लगातार नारे सुन कर आई॰जी॰ शायद बदहवास हो
गये थे । जितना चिल्लाते थे ‘शट अप’, हम लोग उतने ही नारे लगाते थे । रघुनाथ पांडे
चीख रहा था, ‘अरे जल्लाद, ठहर जाओ, तुमको भी फाँसी पर चढ़ायेगा’ ।
“आई॰जी॰ चिल्ला रहा
था, ‘तुमलोगों को बेंत लगायेगा, यू विल बी फ्लॉग्ड्’ ।
“त्रिभूवन और जोर से
चिल्लाया, ‘मेरे साथी को फाँसी पर चढ़ाया – ले आओ, तुम्हारा कैठो टिकटिकी है ले आओ,
ले आओ – अंग्रेज मुर्दाबाद, शुकुलजी की जय, वन्दे मातरम’ ।
“गाली देते देते
आई॰जी॰ अपने दलवल के साथ बोलते बोलते चला गया, ‘बेंत लगायेगा, बेंत लगायेगा’ ।
नम्बर खोल दिया गया
है । हम तीनों मिल कर एक नम्बर सेल की ओर जा रहे थे, बड़ा जमादार प्रवेश किया,
‘पांडेजी, त्रिभुवनजी चलिये’ ।
“मैंने कहा, ‘क्या
टिकटिकी तैयार है ? दो आदमी क्यों – हमको क्यों नहीं बुलाता ?’
“जमादार ने कहा, ‘वह
बात नहीं, हुक्म हुआ दूसरे वार्ड में ले जाना है’ ।
“वे दोनों चले गये ।
कॉरिडोर में मैं अकेला चहलकदमी कर रहा हूँ । एक नम्बर सेल के करीब जाकर देखा कि
सेल को धोया पोछा जा चुका है । भन्सिया बाल्टी में सुबह की खिचड़ी ले आया । मैंने
लौटा दिया । मेरा मिजाज देख कर एक शब्द भी बिना कहे वह चला गया ।
“नजर उठी तो देखा कि
सुपरिन्टेन्डेन्ट परेरा पन्द्रह नम्बर में घुस रहे हैं, साथ में सिवाय अर्दली
वार्डर के कोई नहीं है । बिल्कुल मेरे पास चला आया, कहा, ‘तुमने सुबह का खाना लौटा
दिया है ?’ मैंने कहा, ‘साहब, मैं अनशन नहीं कर रहा हूँ । पर अभी कुछ खाने की इच्छा
नहीं है । मुझे थोड़ी देर के लिये अकेला छोड़ देंगे ? हमारे दोस्तों को तो आप बेंत
मारने के लिये ले गये हैं, आपको क्या लगता है – आई ऐम नॉट फिट फॉर फ्लॉगिंग ?’
“परेरा थोड़ा और आगे
बढ़ आया, बोला, ‘डोन्ट माइन्ड, जानते हो तुम ? मैं भी कल रात भर सो नहीं पाया । आई
फेल्ट फॉर द बॉय द डे आई सॉ हिम फर्स्ट । नो… नो… ही कान्ट किल ए मैन । मैं छुट्टी
लेना चाहा था । फाँसी के समय रहना नहीं चाह रहा था ; आई डिड नॉट, आई डिड नॉट, आई
कुड नॉट’ – आवाज रूंध आई उसकी, क्या बोलना चाह रहा था, बोल नहीं सका । मैंने अवाक
होकर देखा परेरा रुमाल में नाक झाड़ रहा है । थोड़ा सम्हल कर बोला, ‘ओह, ही वाज सच ए
ब्रेव बॉय !’
“परेरा चला गया ।
थोड़ी देर के बाद देखा कि बड़ा जमादार पान्डेजी और त्रिभुवनजी को लेकर प्रवेश कर रहे
हैं । मैंने पूछा, ‘क्या बात है ?’ जमादार बोला, ‘हुक्म । साहब का हुक्म । अभी ले
जाओ – अभी वापस ले जाओ । उसके दिमाग का ठिकाना नहीं ।’
“सन 1930 में कैम्प
जेल का सुपरिन्टेन्डेन्ट – ऐंग्लो मद्रासी परेरा । उसे सब पगला साहब कहता था ।
“जमादार बोला, ‘कल
रात भर वह ऑफिस में बैठा था इजी चेयर पर । आई॰जी॰ भी देर रात तक ऑफिस में था ।
बाहर भीतर पहरा ठीक है कि नहीं देख रहा था । आपका गाना सुन कर साहब से पूछा, ‘कौन
चिल्ला रहा है जेल में ? बैकुन्ठ शुकुल ?’
“परेरा ने कहा, ‘जी
नहीं, एक बंगाली कैदी है पन्द्रह नम्बर में वह गाना गा रहा है, फॉर द कॉन्डेम्न्ड
प्रिजनर ।’
“आई॰जी॰ बोला, ‘उसे
गाना रोकने को कहो – रुकवाओ ।’
“परेरा ने कहा, ‘लेट
हिम सिंग, कोई हानि तो नहीं हो रहा है ।’
“परेरा की अनिच्छा
देख कर आई॰जी॰ ने फिर जोर नहीं डाला ।
“दोपहर में हम तीनों
बैठ कर धूप सेंक रहे थे और बीच बीच में दो चार बातें कर रहे थे । बारह बज गया है ।
ड्यूटी में बदली हुई है, बदली वार्डर आया ।
“मैंने पूछा, ‘तुम
लोग तो सभी फाँसी के समय थे ? उसने कहा, ‘थे, शुकुलजी के घर के लोग आये थे, बाहर
के भी लोग आये थे । शुकुलजी की लाश उन्हे नहीं दी गई । हमलोग खुद चन्दा करके लाश
को ढोकर ले गये, दाह करके बस अभी लौट रहा हूँ । आज पूरे गारद में कोई चौका में नहीं
गया है । कोई खाया नहीं है । सारे लोग रोते रहे हैं ।’
वार्डर बिना जूते
खोले वहीं नंगे फर्श पर पलथी मार कर बैठ गया, ‘मैं फाँसी के समय था । हम लोगों की
ड्यूटी थी । आई॰जी॰, परेरा साहब, जेलर सारे लोग थे । फाँसी के ढाँचे पर शुकुलजी के
गले में फाँसी का फंदा डालने से पहले जब चेहरा काला कपड़ा से ढँका जाने लगा तो
शुकुलजी ने मना किया । परेरा साहब बोले, ‘मत दो’ । साहब रुमाल हिला रहे हैं लेकिन
जल्लाद लीवर नहीं खींच रहा है । शुकुलजी ने चिल्ला कर कहा, ‘देर क्यों करते हो
।’…
2
बीसवीं सदी की
शुरूआत में बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्भव एवं विकास हुआ । क्यों हुआ,
किस तरह से हुआ… इन सवालों के जबाब के लिये इनके परिप्रेक्ष पर एक बार विहंगम
दृष्टि डाली जा सकती है । उन्नीसवीं सदी में नवजागरण का जो ज्वार आया था उसकी कई
विशिष्टताओं में से एक था राष्ट्रीयतावादी चेतना का उन्मेष । यह चेतना भी नई
शिक्षा के परिणामस्वरूप आई थी और इस चेतना का उद्गम योरोपीय इतिहास में मिलेगा ।
भारत में बंकिमचन्द्र इस चेतना के अग्रदूत थे । आनन्दमठ उपन्यास में उन्होने अपने
सोच-विचार की बुनियाद डाली थी । उस उपन्यास में कहानी के बहाने उन्होने दिखाया है
कि सन्न्यासियों के एक समूह ने, आत्मसुख व स्वार्थ त्याग कर जंजीरों में बंधी
देशमातृका को जंजीरों से मुक्त करने का संकल्प लिया है । वही उनका व्रत है और वही
उनका धर्म है । इस धर्म के पालन हेतु उन्होने अपना सब कुछ दाँव पर लगाया है । उनकी
देवी हैं देशमाता । उनके धर्म का नाम है अनुशीलन तत्व । ‘वन्देमातरम’ गीत की रचना
हालाँकि इस उपन्यास की रचना के काफी पहले ही बंकिमचन्द्र ने किया था एवं
‘बंगदर्शन’ पत्रिका में यह गीत प्रकाशित भी हुआ था, फिर भी उन्होने इस गीत को
उपन्यास में जोड़ दिया । इस आइडिया या सोच से प्रेरणा लेकर बैरिस्टर पी॰मित्र ने
1902 ईसवी में ‘अनुशीलन समिति’ का गठन किया । उस समय रवीन्द्रनाथ ठाकुर, चित्तरंजन
दास, सुरेन्द्रनाथ हालदार, भगिनी निवेदिता, गणेश देउस्कर आदि बंगाल को राजनीतिक व
सांस्कृतिक नेतृत्व देने वाले कई लोग इस समिति तथा इस किस्म के अन्य क्रांतिकारी
गतिविधियों का, कमोबेश उत्साह के साथ ही, समर्थन करते थे । संगठन का उद्देश्य था
निडर, साहसी व देश के लिये आत्मबलिदान देने को तैयार युवावाहिनी का निर्माण तथा
भारत की मुक्ति के लिये समझौताविहीन संग्राम कूद पड़ना । ये लोग कांग्रेस की,
आवेदन-निवेदन के माध्यम से कुछेक अवसर व सुविधा प्राप्त करने की नीति पर आस्था
नहीं रख सके । सिर्फ अनुशीलन समिति ही नहीं, और कई संगठन इस सोच के साथ अपने अपने
इलाकों में सक्रिय हो उठे थे । कई पत्रिकाओं, जैसे वन्देमातरम, युगान्तर, संजीवनी
ने लगातार चढ़ती हुई आवाज में सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों की सख्त आलोचना कर
तूफान खड़ा कर दिया । नई चेतना के आलोक से आलोकित, शिक्षित युवावर्ग झुंड के झुंड
देशवासियों को जागृत करने के कार्य के व्रती हो गये । स्कूल-कालेजों में
देशात्मबोधक क्रियाकलाप क्रमश: बढ़ने लगे । 1899 ईसवी के दिसम्बर में लार्ड कार्जन
भारत के गवर्नर जेनरल के पद पर नियुक्त होने के बाद कलकत्ता आये । उनके जैसे
उस्ताद, अहंकारी राजनीतिज्ञ शासक को, इस देश की जमीन पर पैर रखते ही वास्तविक
परिस्थिति की दशादिशा समझने में देर नहीं हुई । सख्त हाथों से, साम्राज्यवाद के
खिलाफ सर उठाती हुई ताकतों को उन्होने जड़ से उखाड़ने की कोशिश की । युनिवर्सिटी
कानून लागू कर, युनिवर्सिटियों का स्वायत्त-शासन खत्म कर उन्होने सरकार के कठोर
नियंत्रण को कायम किया । कलकत्ता कॉर्पोरेशन की आजादी को कम करने के लिहाज से और
एक कानून उन्होने लागू किया । इसके बाद अखंड बंगाल को दो भागों में तोड़ने के लिये
एक अधिसूचना जारी की गई 1905 ईसवी के 20 जुलाई को । उसमें कहा गया कि पूर्वीबंगाल,
उत्तरीबंगाल, चट्टग्राम क्षेत्र व आसाम को लेकर पूर्व-बंग के नाम से एक प्रदेश
बनाई जायेगी । पूर्वीबंगाल के मुसलमानों को समझाया गया कि इस विभाजन से उनके हितों
की रक्षा होगी । हिन्दु-मुसलमान में टकराव का सृजन कर सरकार को सुरक्षित करने की
इस साम्राज्यवादी चतुराई की, डिवाईड-एन्ड-रूल की नीति कह कर निन्दा करते हुये लोग
व्यापक जनान्दोलन में कूद पड़े । बंगाल के सभी विद्वतजन इस आन्दोलन में शामिल हुये
। इस आन्दोलन में विदेशी वस्तुओं का बॉयकट कर स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल का नारा
दिया गया । स्वदेशी शिक्षा का प्रवर्तन किया गया । स्वदेशी समाज के गठन का प्रारंभ
किया गया । दूरदर्शी, प्राज्ञजन समझ गये थे कि साम्राज्यवादी इस षड़यंत्र को अंकुर
में ही नष्ट नहीं करने पर यह विषवृक्ष बन कर पूरे भारत में फैल जायेगा । इसलिये,
उनकी यह लड़ाई बंगाल की धरती पर जरूर लड़ी गई थी पर पूरे भारत का हित उनके दिमाग में
था । सन 1906 के 30 दिसम्बर को ढाका शहर में नवाब सलीमुल्ला के सहयोग से मुसलिम
लीग की नींव रखी गई । लॉर्ड कार्जन ने ही सलीमुल्ला के बड़े भाई के बदले सलीमुल्ला
को नवाब की उपाधि दिलवाई थी । नवाब सलीमुल्ला को एक लाख पाउंड, बिना व्याज के, 46
साल के लिये कर्ज दिया गया था । सन 1909 में मुसलमानों के लिये अलग मताधिकार कानून
लागू किया गया । यह कानून सन 1947 तक लागू था ।
खैर, सन 1911 में
बंगाल का विभाजन रद्द किया गया । लेकिन विषवृक्ष की जड़ें रह गई । ये सारी घटनायें
बंगाल में क्रान्तिकारी ताकतों के उत्थान के पीछे के कारणों के तौर पर सक्रिय थीं
।
अनुशीलन समिति की एक
शाखा सन 1909 में बनारस में बनी । शचीन्द्रनाथ सान्याल इसके निर्माता थे । सन 1913
में उन्होने पटना के बांकीपुर में भी एक शाखा खोला । बांकीपुर शाखा का नाम था पटना
रिवल्युशनरी सोसाइटी एवं नेता थे बंकिमचन्द्र मित्र । बंकिमचन्द्र जिला 24 परगना
के निवासी थे । सन 1908 में वह बांकीपुर आये एवं टी॰के॰घोष अकादमी में भर्ती हुये
। तब उन्होने उसी विद्यालय के शिक्षक तारापद गांगुली के घर में आश्रय लिया ।
तारापदबाबु स्वदेशी आन्दोलन के साथ जुड़े थे । उनके एक रिश्तेदार पटना में स्वदेशी
सामान बेचने की दुकान चलाते थे । विदेशी सामानों की तुलना में स्वदेशी सामान सस्ते
में बेचे जा सकें इसके लिये तारापदबाबु उन्हे अनुदान दिया करते थे । सन 1912 में
मैट्रिक पास कर बंकिम बी॰एन॰कॉलेज में भर्ती हुये । उसी साल इतिहास के
ख्यातिप्राप्त प्राध्यापक आचार्य यदुनाथ सरकार ने बंकिम को, अपने बच्चों को पढ़ाने
के लिये गृह-शिक्षक नियुक्त किया और उसे पटना कालेज परिसर में अपने बंगले में जगह
दिया । बी॰एन॰कालेज में बंकिम प्रोफेसर कामाख्या नाथ मित्र के सम्पर्क में आये ।
कामाख्याबाबु घोर स्वदेशी क्रान्तिकारी चिन्तक थे । लेकिन गुप्त तरीके से काम करते
थे । उनके एक समर्थक का नाम था कमलाकान्त मुखर्जी । शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ
इनका सम्पर्क था । बंकिम एवं कमला अक्सर बनारस जाते थे । शचीन्द्रनाथ ने इन्हे
गहराई तक प्रभावित किया । शचीन्द्रनाथ ने बंकिम को स्वामी विवेकानन्द की प्रेरक
रचनायें पढ़ने के लिये दिया तथा उपहार-स्वरूप दिया बोलटन का लिखा ‘द लाईफ ऑफ मैजिनी’
।
बंकिमचन्द्र ने अपने
एक मित्र पारसनाथ सिन्हा से मशविरा कर अन्य मित्रों – गोबर्धन प्रसाद, शोभाकान्त
बनर्जी, अखिलचन्द्र दास – को साथ में लेकर संगठन बनाया और काम शुरू कर दिया ।
सदस्यता देते वक्त बंकिमचन्द्र शपथ ग्रहण कराते थे - “मैं भगवान तथा माता-पिता के
नाम से शपथ ग्रहण कर रहा हूँ कि इस संस्था की गुप्त बातें किसी को नहीं बताउंगा;
मुझे जो काम का आदेश दिया जायेगा उस काम को अपने प्राण का विसर्जन कर भी पूरा
करूंगा ।” इस गुप्त संस्था के सदस्य जो लोग बने उनमें उल्लेखनीय थे रामकिशुन पाठक
(टी॰के॰घोष अकादमी के छात्र), नरेन्द्रनाथ बसु (वकील गोबिन्दचन्द्र मित्र के
नाती), जगदीश चन्द्र राय (पटना कालेज के छात्र), हृषिकेश मजुमदार (लॉ कालेज के
छात्र), सुधीर कुमार सिन्हा (बी॰एन॰कालेज का छात्र एवं प्रोफेसर कामाख्या नाथ
मित्र का भतीजा), सम्पदा मुखर्जी, रघुबीर सिंह (टी॰के॰घोष अकादमी के छात्र) ।
बी॰एन॰कालेज के और भी तीन छात्र बाद में इस संस्था में भर्ती हुये । वे थे, अतुल
चन्द्र मजुमदार, प्रफुल्ल कुमार बिश्वास एवं शिव कुमार सिंह । बी॰एन॰कालेज के
नृपेन्द्रनाथ बसु भी इस संस्था के साथ जुड़े थे । सन 1913 में जब वाइसरॉय बांकीपुर
आये थे तो शहर के दीवारों पर ‘युगान्तर’ एवं ‘लिबर्टी’ के इश्तेहार चिपके दिखे थे
। पुलिस के रिपोर्ट के अनुसार यह अनुशीलन समिति का काम था । कलकत्ता के राजाबाजार
बमकांड में बंकिम गिरफ्तार हुआ था । पर प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव में बंकिम को छोड़
दिया गया । सन 1914 के 13 फरवरी को पुलिस ने यदुनाथ सरकार के घर पर छापा मारा । बंकिमचन्द्र
के कमरे की तलाशी ली गई । वहाँ उन्हे विवेकानन्द रचनावली, माज़्ज़िनी का जीवनी एवं
अन्यान्य प्रेरक स्वदेशी दस्तावेज मिले । 1914 के नवम्बर में शचीन्द्र सान्याल ने
बीरेन्द्र नाथ दास नाम के एक व्यक्ति को बी॰एन॰कालेज में बंकिम के साथ भेंट के
करने के लिये भेजा । उद्देश्य था – ऐसे कुछ देशप्रेमी लोगों के पते जुगाड़ करना जिन्हे गुप्त रूप से
‘युगान्तर’ दस्तावेज भेजा जा सके । बंकिम ने उन्हे छे समर्थकों का नाम लिख दिया ।
वे थे जगदीश चन्द्र राय, अमरेन्द्र नाथ घोष, गोवर्धन प्रसाद, जगतपति घोष – सभी
छात्र - एवं दो शिक्षक, ऐंग्लो संस्कृत स्कूल के श्यामाकान्त बनर्जी एवं
बी॰एन॰कालेज के इतिहास के प्रोफेसर नागेश्वरी प्रसाद । बंकिमचन्द्र के साथ महान
क्रांतिकारी रासबिहारी बसु का सम्पर्क था । रासबिहारी ने अंग्रेज सेना के भारतीय
सिपाहियों में बगावत पैदा करने की योजना बनाई थी एवं देश के छावनियों में बगावत की
आग फैलाने की कोशिश की थी । काफी हद तक सफल होने के बावजूद अन्तत: विश्वासघात के
कारण उनकी योजनायें सरकार की नज़र में आ गईं । व्यापक पैमाने पर गिरफ्तारी शुरू
होने पर रासबिहारी भेंस बदल कर पी॰एन॰टेज के नाम से जापान भाग गये एवं जापानियों
के जेल में बन्द भारतीय सैनिकों को लेकर आजाद हिन्द फौज तैयार करने लगे । बाद मे
इस आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व उन्होने सुभाष चन्द्र बोस के हाथों सौंप दिया ।
दानापुर कैन्टोनमेन्ट के सिपाही रासबिहारी बसु के मुहिम के सम्पर्क में आये थे एवं
काफी प्रभावित हुये थे । बाद में जब सारी योजनायें बन्द कर दी गई तब, बंकिम शहर
में नहीं रहने के कारण सुधीर एवं रघुवीर चला दानापुर कैन्टोनमेन्ट सिपाहियों को
बताने के लिये । रास्ते में, जिस यान से वे जा रहे थे वह दुर्घटना-ग्रस्त हो गया ।
जख्मी हालत में ये दोनों दानापुर पहुँचे एवं सिपाहियों को खबर किया ।
14 फरवरी 1916 को
बनारस षड़यंत्र मामले में शचीन्द्रनाथ सान्याल एवं नगेन्द्रनाथ दत्त को आजीवन
कारावास (कालापानी) तथा बंकिम चन्द्र मित्र को तीन साल सश्रम कारावास का आदेश
सुनाया गया ।
दूसरी ओर, यदुनाथ सरकार की भूमिका पर नज़र डालने पर स्पष्ट
होता है कि इतिहास का यह विश्वप्रसिद्ध विद्वान कितनी दूर तक जाकर इन
क्रान्तिकारियों का साथ दे रहे थे । राजाबाज़ार बमकान्ड के बाद भी उन्होने बंकिम को
अपने घर से नहीं निकाला । बल्कि, 1914 के 13 फरवरी को यदुनाथ के आवास में पुलिस ने
बंकिम के घर की तलाशी भी ली । बंकिम को बी॰एन॰कालेज से बहिष्कृत किया गया तो
यदुनाथ ने उसे साकची मिड्ल स्कूल में एक नौकरी पर लगवा दिया । पर वहाँ भी बंकिम को
रहने नहीं दिया गया । इधर यदुनाथ पर पुलिस की नज़र पड़ी । पुलिस के जासूस अधिकारियों
का यह विश्वास था कि यदुनाथ ने जानबूझ कर ब्रिटिश-विरोधी क्रान्तिकारी क्रियाकलाप
में संलिप्त एक स्वदेशी को अपने घर में आश्रय दिया था । बनारस षड़यंत्र मुकदमे में
बंकिमचन्द्र यदुनाथ के घर से ही गिरफ्तार हुये थे । इन सारे सबूतों के कारण डी॰पी॰आई॰
जे॰बी॰जेनिंग्स ने सरकार के आदेश पर यदुनाथ से स्पष्टीकरण मांगा । यदुनाथ ने अपना
पक्ष समर्थन करते हुये लिखित जबाब दिया । जबाब चाहे जो भी हो, सरकार उन पर कड़ी नज़र
रखती रही एवं कालेज में उनकी प्रोन्नति रुक गई । जिस पद पर उनकी प्रोन्नति होनी थी
उस पद पर उनसे कम योग्य एक गोरे अध्यापक को नियुक्त किया गया । जबकि पूरे भारत में
ख्यातिप्राप्त एक वैज्ञानिक, निरपेक्ष व युक्तिवादी इतिहासविद स्कॉलर थे यदुनाथ
सरकार । भारत के बाहर भी उनकी ख्याति फैल चुकी थी । इसलिये सरकार उन्हे कॉलेज से
बर्खास्त करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई ।* बीस वर्षों तक पटना कालेज
एवं पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के उपरांत सेवानिवृत्त होने पर कलकत्ता
विश्वविद्यालय के वाइस चान्सेलर नियुक्त किये गये । रवीन्द्रनाथ ठाकुर उन्हे
श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । 1904 ईसवी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने बेटे
रथीन्द्रनाथ, प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु एवं उनकी पत्नी अवला बसु
के साथ भगिनी निवदिता के बुलावे पर बोधगया आये थे । यदुनाथ भी पटना से वहाँ बुलाये
गये थे । निवेदिता के साथ उनका सम्पर्क सिर्फ ज्ञानचर्चा तक सीमित था ऐसा प्रतीत
नहीं होता है । निवेदिता के साथ बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों की घनिष्ठता
सर्वविदित है । श्री अरविन्द को निवेदिता ने ही बचाया था । क्रान्तिकारियों के साथ
उनका आत्मिक जुड़ाव था । जो भी हो, यदुनाथ जैसे कई विद्वान, ज्ञानी व्यक्ति स्वदेशी
आन्दोलन के साथ नाना प्रकार से सम्पर्क रखते थे यह हम सब जानते हैं; अगर कहा जाय
कि यदुनाथ सरकार उनमें सबसे अगली कतार में खड़े थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
*यदुनाथ सरकार को तो
सरकार हटा नहीं पाई पर कामाख्यानाथ मित्र को बी॰एन॰कॉलेज छोड़ना पड़ा था । कॉलेज के
तत्कालीन प्रिन्सिपल देवेन्द्रनाथ सेन पर सरकार दबाव डालने लगी कि कामाख्यानाथ को
इस्तीफा देने के लिये कहा जाय । कामाख्यानाथ इस्तीफा देने को राजी नहीं हुये । तब
बिहार-ओडिशा के शिक्षा अधिकारी जेनिंग्स ने से सरकार के प्रधान सचिव को परामर्श
दिया कि बी॰एन॰कॉलेज का सरकारी अनुदान बन्द कर दिया जाय । अन्तत: कॉलेज काउन्सिल
के अध्यक्ष व कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हसन इमाम के बीच-बचाव पर कामाख्यानाथ
पटना छोड़ कर जम्मु में नौकरी लेकर चले जाने को मजबूर हुये ।
यहाँ यह रोचक
अप्रासंगिक नहीं होगा । सन 1914 के 16 जुलाई को आर॰जी॰हैमिलटन, डी॰आई॰जी॰, क्राईम
एन्ड रेलवेज, बिहार एवं ओडिशा सरकार ने बिहार-ओडिशा के मुख्यसचिव को लिखा –
Kamakhya Nath Mitter, Professor, B.N.College, a man of anti-british views is
constantly visited by Prof. Jadunath Sarkar, Bankim Chandra Mitra, Surendra
Nath Mitter, Jadunath Misir, Nalini Madhav and Deochand Punjabi who had been
receiving copies of the Ghadar from Lahore and has been lent the works of Swami
Vivekananda by Kamakhya Nath... Prof. Kamakhya Nath Mitter is said to be
poisoning the minds of the students and others with anti-british views since
some time. It is desirable that both he and Prof. Jadunath Sarkar should be
removed from the Patna College.
सन्दर्भग्रंथ सूची
1-
स्मृतिर पाता – नलिनीकांत गुप्त
2-
सेइ महाबरषार रांगा जल – विभूतिभूषण दासगुप्त (विभूतिभूषण दासगुप्त अपने किशोरावस्था
एवं युवाकाल में क्रान्तिकारियों से प्रभावित हुये थे । काजी नज़रुल इसलाम एवं
स्वदेशी गायक मुकुन्द दास से उन्होने देशात्मवोध के गीत सीखे । क्रान्तिकारी जतीन
दास के वह प्रिय मित्र थे । वही जतीन दास जो लाहौर षड़यंत्र मुकदमे के आरोपी के तौर
पर लाहौर जेल में बन्दी थे एवं राजबन्दियों पर अत्याचार के प्रतिवाद में 63 दिनों
तक अनशन करते हुये मौत को गले लगाये ।)
3-
बंगेर अंगच्छेदेर आन्दोलन – सम्पादकीय, कृष्णकुमार मित्र (संजीवनी 1311
बंगाब्द)
4-
Sir Jadunath Sarkar with Bihar Revolutionaries by N.M.P.Srivastava, Patna (प्राध्यापक
यदुनाथ सरकार एवं पटना के क्रान्तिकारी छात्र, शिक्षकों से सम्बन्धित मूल्यवान
तथ्यों का प्रामाण्य ग्रन्थ)
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद – विद्युत पाल
ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित "बिहार के गौरव" से साभार
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