Wednesday, June 23, 2021

वैष्णवकविता

वैष्णव का गीत
वैकुन्ठ के लिये, मात्र?
पूर्वराग, अनुराग, मान-अभिमान,
अभिसार, प्रेमलीला, विरहमिलन,
वृन्दावनगाथा – यह प्रणयस्वप्न –
            श्रावण की शर्वरी में, कालिन्दी के तट पर,
            कदम्ब-मूल के निकट चार चक्षुओं की दृष्टि
            लज्जा व आदर के भाव –
                                    क्या सिर्फ देवता के नाम?
क्या यह संगीतरसधारा
मिटाने की नहीं,
दीन मर्त्यवासी हम नरनारियों की
            प्रत्येक रात्रि व दिन की तप्त प्रेमतृषा?
                                   
इस गीत-उत्सव में
निर्जन में विराजमान हैं सिर्फ
            देवता और भक्त;
बाहर के दरवाजे पर खड़े हम नरनारी
उत्सुक श्रवण से यदि सुन लें उसके
            दो एक तान – दूर से वही सुनकर
                        तरूण वसन्त के नव फाल्गुन में यदि
                        अन्तरात्मा पुलकित हो उठे, सुनकर वह धुन
                        यदि सहसा दिखे द्विगुणित मधुर
                        हमारी धरती – मधुमय हो उठे
            वह नदी जो हमारे वन की छाया में दौड़ती है,
            वह कदम्ब – हमारी कुटिर के किनारे – जो
                                    खिलता है वर्षा के दिनों में,
उस प्रेमातुर तान सुनकर यदि
मुड़कर देखुँ कि मेरे पास मेरा बाँया हाथ थामे
            खड़ी है संगिनी मेरी, अपना हृदय मेरी ओर बढ़ाये,
                        अपना मौन प्रेम साथ लिये,
उस गीत में अगर मिले उसे अपनी भाषा,
अगर खिले उसके चेहरे पर प्रेम की पूर्ण ज्योति –
किसकी क्षति है इसमें?
            न तुम्हारा न तुम्हारे इश्वर का, मेरे मित्र!
 
सत्य कहो मुझसे हे वैष्णवकवि,
कहाँ मिले थे तुम्हे प्रेम के ये चित्र,
कहाँ सीखे थे तुमने प्रेम के ये गीत,
विरहतप्त!
            देखकर किसका नयन
राधिका की अश्रुभरी आँखें याद आई थी तुम्हे?
वसंतरात्रि के एकांत में मिलनशयन के समय
कौन बाँधती थी तुम्हे दो बाँहों की डोर से;
अपने हृदय के अगाध सागर में
                        रखती थी मग्न? इतनी प्रेम की बातें
राधिका के दिल को चीरती तीव्र व्याकुलता
किसके चेहरे, किसकी आँखों से चुराई है तुमने?
आज उसी का अधिकार नहीं उस संगीत पर?
उसी के नारीहृदय में संचित उसकी भाषा
                        उसे वंचित करेगी, अंतकाल तक?
 
हमारे ही कुटिर-कानन में
खिलते हैं फूल, कोई अर्पित करता है
            देवता के चरणों पर, कोई
                        रखता है प्रियजन के लिये – इसमें
            असंतुष्ट नहीं होते देवता। यह प्रेमगीत-हार
गुंथा जाता है मिलनमेले में, नरनारियों के –
                        कोई डालता है प्रिय के गले में, कोई
देता है देवता को अपने।
जो दे सकता हूँ देवता को वही
            देता हूँ प्रियजन को, जो मिलता है
                        प्रियजन को देने के लिये वही
                                    देता हूँ देवता को – और मिले कहाँ से!
देवता को बनाता हूँ प्रियतम, प्रियतम को देवता।
 
वैष्णवकवि का गूंथा हुआ प्रेमोपहार
चल रहा है वैकुन्ठ के पथ पर रातोंदिन
कितना भार लिये! बीच रास्ते में नरनारी,
जिसका जो साध्य हो,
अक्षय वह सुधाराशि छीनझपट कर
            ले रहे हैं अपने प्रियगृह के लिये;
युगयुगान्तर से हमेशा ही पृथ्वी पर
युवकयुवती, नरनारी हैं ऐसे ही चंचलमति।
 
बिल्कुल बेसुध हैं मिलनोत्सुक दो पक्ष!
अबोध, अज्ञान। दस्यु हैं वे सौन्दर्य के,
लूटपाट कर लेना चाहते हैं सबकुछ।
इतने गीत, इतने छन्द,
इतनी तरह से उच्छ्वसित प्रीति,
इतनी मधुरता दरवाजे के सामने से बहती जाती हुई –
उसी कारण वे सब मिलकर कोलाहल करते हुये
आ पड़े हैं
सुधा की उस धारा में।
बिना सोचविचारे
समुद्र की ओर जाती हुई उस प्रेमधार से
घट भर भर कर वे ले जा रहे हैं तट पर
अपनी कुटिया में, अपने लिये।
तुम बेकार धरते हो दोष, हे साधु पंडित,
बेकार रुष्ट हो रहे हो।
धन जिसका है वह वहाँ अपार संतोष के साथ
असीम स्नेह की हँसी हँस रहा है बैठकर।
 
साहाजादपुर
18 आषाढ़ 1299
                       
 

No comments:

Post a Comment