Wednesday, June 23, 2021

क्या एक आवश्यक राजभाषा की जरूरत है? - व्लादिमिर इलिच लेनिन

 [भारत के संविधान आवश्यक राजभाषा स्वीकृत है, जिसे हम मानते हैं, सम्मान करते हैं। लेकिन साथ ही उसी को हथियार बनाकर पिछले सत्तर सालों से, हिन्दी-आधिपत्यवाद द्वारा पैदा किये गये सारे भाषाई विवादों को झेल रहे हैं एवं अपनी अपनी मातृभाषा का क्षय का गवाह बन रहे हैं। भाषाई आधिपत्यवाद, राज्यों/प्रदेशों के अधिकारों के खिलाफ केन्द्रीयता के वैचारिक हमलों का, ‘युनियन ऑफ इन्डिया’ के खिलाफ ‘इन्डियन नेशन’ को खड़ा कर देने का भी प्रधान वाहक है।

उस परिप्रेक्ष में लेनिन का यह लेख उनके जन्मदिवस पर प्रस्तुत है।]

 

क्या एक आवश्यक राजभाषा की जरूरत है?

 

व्लादिमिर इलिच लेनिन

 

उदारवादी इस बात पर प्रतिक्रियावादियों से अलग हैं कि वे स्थानीय भाषा में शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को मान्यता देते हैं। लेकिन वे इस बिन्दु पर प्रतिक्रियावादियों के साथ एकमत हैं कि एक बाध्यकर राजभाषा आवश्यक है।

बाध्यकर राजभाषा का अर्थ क्या है? व्यवहार में इसका अर्थ है कि महान रूसियों – जो रूस की आबादी में अल्पमत हैं – की भाषा का रूस की बाकी आबादी पर थोपा जाना। हरेक विद्यालय में राजभाषा की शिक्षा आवश्यक तौर पर अनिवार्य हो। सारे शासकीय पत्र-व्यवहार राजभाषा में किये जायें, न की स्थानीय जनता की भाषा में।

जो दल बाध्यकर राजभाषा की वकालत करते हैं वे कैसे इसकी आवश्यकता को न्यायसंगत ठहराते हैं?

ब्लैक हन्ड्रेड्स के तर्क बेशक रूखे हैं। वे कहते हैं कि सभी गैर-रूसियों पर फौलादी हाथों से शासन करना चाहिये ताकि वे “हाथ से बाहर नहीं निकल जायें”। रूस का अविभाज्य होना आवश्यक है और सारी जनता को महान-रूसी शासन की अधीनता स्वीकार करना होगा क्योंकि महान-रूसियों ने ही रूस की धरती का निर्माण किया है एवं एकताबद्ध किया है। अत: शासक वर्ग की भाषा का बाध्यकर राजभाषा होना आवश्यक है। पुरिश्केविच लोगों [व्लादिमिर पुरिश्केविच एक दक्षिणपंथी, राजतंत्री राजनीतिज्ञ थे - अनु॰] को, “स्थानीय बोलियों” को पूरी तरह निषिद्ध कर देने से भी फर्क नहीं पड़ेगा हालाँकि वे रूस की पूरी आबादी के 60 प्रतिशत द्वारा बोले जाते हैं।

उदारवादियों का रुख काफी अधिक “सुसंस्कृत” एवं “परिष्कृत” है। वे एक सीमा तक स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल की अनुमति देते हैं (जैसे, प्राथमिक विद्यालयों में)। साथ ही साथ वे एक अनिवार्य राजभाषा की वकालत करते हैं। वे कहते हैं कि ऐसी भाषा का होना “संस्कृति” के हितार्थ आवश्यक है, “एकताबद्ध” एवं “अविभाज्य” रूस के हितार्थ आवश्यक है इत्यादि इत्यादि। “राज्यत्व सांस्कृतिक एकता का पुष्टिकरण है …… राजभाषा राज्यसत्ता की संस्कृति का आवश्यक घटक है …… राज्यत्व प्राधिकार की एकता पर आधारित है, राजभाषा उसी एकता का औजार है। राजभाषा के पास उतनी ही बाध्यकर एवं सार्वजनीन बलप्रयोगकारी शक्ति होती है जितनी राज्यत्व के दूसरे रूप के ……

“अगर रूस को एकताबद्ध एवं अविभाज्य रहना है, तब हमें रूसी साहित्यिक भाषा के राजिनीतिक लाभ पर जोर डालना होगा।”

राजभाषा की जरुरत पर उदारवादी दर्शन का यह लाक्षणिक दर्शन है।

उपरोक्त अंश हमने श्री एस॰पत्राश्किन के निबन्ध से उद्धृत किये हैं जो उदारवादी अखबार डायेन (अंक 7) में प्रकाशित हुआ था।

समझ में आने लायक कारणों से, ब्लैक हन्ड्रेड नोवोया व्रेम्या  ने इन विचारों के लेखक का जोरदार चुम्बन किया था। मेन्शिकॉव के अखबार (संख्या 13588) ने लिखा कि मिस्टर एस॰ पत्राश्किन “बहुत बढ़िया विचार” रखते हैं। ब्लैक हन्ड्रेड्स का दूसरा अखबार है राष्ट्रीय-उदारवादी रुस्काया मिस्ल , जो लगातार ऐसे बहुत “बढ़िया” विचारों का तारिफ कर रहा है। और, तारीफ करने से वे खुद को रोक भी कैसे सकते हैं जब उदारवादी अपने ‘सांस्कृतिक’ तर्कों की मदद से ऐसी दलीलें पेश कर रहे हैं जिनसे नोवोये व्रेम्या  के लोग खुश होते हों!

रूसी एक महान एवं ताकतवर भाषा है, उदारवादी हमें कहते हैं। क्या आप नहीं चाहते हैं कि रूस के सीमांत अंचलों में रहने वाले सारे लोग इस महान एवं ताकतवर भाषा को जाने? क्या आप देख नहीं पा रहे हैं कि रूसी साहित्य गैर-रूसियों के साहित्य को समृद्ध करेगा, संस्कृति के महान खजानों तक वे पहुँच पायेंगे, इत्यादि? ये सारी बातें सच हैं, भद्रमहोदयों, हम उदारवादियों से कहते हैं। हम आपसे बेहतर जानते हैं कि तुर्गेनेव, तॉलस्तॉय, दोब्रोल्युवोव एवं चेर्निशेवस्की की भाषा महान एवं ताकतवर है। हम आपसे ज्यादा चाहते हैं कि बिना किसी भेदभाव के, रूस में रहनेवाले सभी राष्ट्रों की शोषित वर्गों के बीच घनिष्टतम मेलजोल एवं बिरादराना एकता स्थापित हो। और हम, निश्चय ही, इसके पक्ष में हैं कि रूस के सभी निवासियों को महान रूसी भाषा सीखने का अवसर प्राप्त हो।

जो हम नहीं चाहते वह है, दबाव का तत्त्व। हम नहीं चाहते की डंडे दिखाकर लोग स्वर्ग में घुसाए जाएं। “संस्कृति” के बारे में कितने भी बेहतरीन मुहावरे आप कहें, एक बाध्यकर राजभाषा में दबाव का तत्त्व, डंडे का प्रयोग होता है। हम नहीं समझते हैं कि किसी को महज बाध्यता के कारण महान एवं ताकतवर रूसी भाषा सीखने की जरूरत हो। हम आश्वस्त हैं कि रूस में पूंजीवाद का विकास एवं सामान्यत: सामाजिक जीवनधारा की समुची दिशा सभी राष्ट्रों को करीब ला रहे हैं।  

लाखों लोग रूस के एक छोर से दूसरी छोर की ओर जा रहे हैं। विभिन्न राष्ट्रीय आबादियाँ एक दूसरे में मिल रही हैं। विशेषतायें एवं रूढ़िवाद अवश्य मिट जायेंगे। जीवन एवं काम की शर्तों के कारण जिन लोगों के लिये रूसी भाषा सीखना अपरिहार्य हो जायेगा, वे बिना किसी दबाव के यूँ ही सीख जायेंगे। लेकिन दबाव (डंडा) का सिर्फ एक नतीजा होगा: यह महान एवं ताकतवर रूसी भाषा को दूसरे राष्ट्रीय समूहों में फैलने से रोकेगा। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह मनमुटाव को तीखा बनायेगा, लाखों नये रूपों में टकराव पैदा करेगा, रोष एवं गलतफहमी को बढ़ायेगा इत्यादि।

कौन चाहता है इस तरह की बातें? रूसी जनता नही, रूसी जनवादी भी नहीं। वे राष्ट्रीय उत्पीड़न को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते, “रूसी संस्कृति एवं राज्यत्व के हित में” भी नहीं।

इसीलिये रूसी मार्क्सवादी कहते हैं कि कोई बाध्यकर राजभाषा नहीं होगी, आबादी को ऐसे विद्यालय मुहैया कराये जायेंगे जहां शिक्षण सभी स्थानीय भाषाओं में होगा एवं संविधान में एक ऐसा मौलिक कानून अवश्य लाया जाय जो किसी एक राष्ट्र के लिये विशेषाधिकार एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों के सभी उल्लंघनों को अमान्य घोषित करेगा।

[प्रोलेत्स्काया प्राव्दा, अंक 14 (32), लेनिन की सम्पूर्ण रचनायें, खन्ड 20, पृष्ठ 71-72]



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