Wednesday, June 23, 2021

देशिकोत्तम विभूतिभूषण मुखोपाध्याय (1899 – 1987) - पूर्णेन्दु मुखोपाध्याय


 मिथिला अंचल के लोग विभूतिभूषण मुखोपाध्याय को मिथिला का गौरव मानते हैं अगर थोड़ा और आगे बढ़ कर कहा जाय कि विभूतिबाबु बिहार के भी गौरव हैं तो वह बिलकुल ही अतिशयोक्ति नहीं होगी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सर्वाधिक ख्यात, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यताप्राप्त, कविगुरु रवीन्द्रनाथ के अपने हाथों से निर्मित आदर्श विश्वविद्यालय, विश्वभारती ने, विभूतिबाबु को वर्ष 1987 में देशिकोत्तम की उपाधि के लिये योग्य विवेचित किया बिहार से अभी तक कोई दूसरा व्यक्ति उस महासम्मान का अधिकारी नहीं बना पुरस्कार एवं सम्मान उन्हे जीवन में कई बार मिला कुछेक के जिक्र किये जा सकते हैं वर्ष 1986 में वर्धमान विश्वविद्यालय द्वारा उन्हे साम्मानिक डी॰ लिट॰ की उपाधि दी गई विभिन्न समय में कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हे चार बार सम्मान प्रदान किया जैसे, वर्ष 1957 में उन्हे शरत-स्मृति पुरस्कार दिया गया, वर्ष 1965 में शरत-स्मृति व्याख्यान के लिये उन्हे आमंत्रित किया गया, वर्ष 1973 मे  उन्हे जगत्तारिणी पदक दिया गया एवं वर्ष 1975 में आमंत्रित किया गया डी॰एल॰ रॉय रीडरशिप व्याखान के लिये

इसके अलावे भी वर्ष में उन्हे बंगीय साहित्य परिषद की ओर से हरनाथ बसु पुरस्कार तथा शरत स्मिति की ओर से शरतस्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया वर्ष 1972 में इस बार प्रियम्बदा (एबार प्रियम्बदा) उपन्यास के लिये उन्हे रवीन्द्र पुरस्कार मिला अति चर्चित इस पुरस्कार की प्राप्ति पर बिहार के बारह सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा उन्हे एक बड़े आयोजन में सम्मानित किया गया वर्ष 1969 में बिहार बंगाली समिति के भागलपुर सम्मेलन में उन्हे सम्मानित किया गया वर्ष 1965 में पश्चिमबंगाल सरकार द्वारा आयोजित गुणीजन सम्मान समारोह में उन्हे सम्मानित किया गया वर्ष 1978 में वाराणसी में सम्पन्न निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन की सभा में उन्हे स्वर्णजयंती पदक देकर सम्मानित किया गया वर्ष 1957 में ही आनन्दबाज़ार पत्रिका प्रकाशन की ओर से दिया जाने वाला आनन्द पुरस्कार मिला उन्हे वर्ष 1984 में नब्बे वर्ष की उम्र की पूर्ति पर उन्हे पटना के कालिदास रंगालय में, बिहार के कई सुधीजनों की उपस्थिति में आयोजित एक बड़ी सभा में विभूतिबाबु को सम्मानित करते हुये मानपत्र दिया गया वर्ष 1983 में वह बिहार बांग्ला अकादमी के अध्यक्ष नियोजित हुये यह अकादमी पूरे भारत में किसी भी राज्य सरकार द्वारा स्थापित पहला बंगला अकादमी था बिहार के गणमान्य साहित्यकार के तौर पर मान्यता देकर बिहार सरकार ने साहित्य-सहायता कोष से उनके लिये आजीवन पेंशन का इंतजाम किया उनके जीवन काल में ही उनके साहित्यकर्म पर शोध कर, भारत के छे विश्वविद्यालयों से कम से कम दस शोधार्थियों ने डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है पुरस्कार सम्मानप्राप्तियों की सूची और लम्बी है उस सूची से मात्र कुछेक का यहाँ जिक्र किया गया

दरभंगा से बारह मील दूर पन्डौल शहर में दिनांक 24 अक्टूबर 1894 को विभूतिभूषण का जन्म हुआ निधन हुआ दरभंगा शहर में 29 जुलाई 1987 को उनके पितामह मधुसूदन मुखोपाध्याय नीलहे कोठी की नौकरी लेकर पन्डौल आये थे उनके सुपुत्र एवं बिभूतिभूषण के पिता बिपिन बिहारी मुखोपाध्याय का जन्म भी पन्डौल में हुआ उनके नौ बेटे दो बेटियाँ हुईं बिभूतिभूषण दूसरे सन्तान थे पन्डौल में उत्कृष्ट विद्यालय रहने के कारण उन्हे बड़े भैया के साथ श्रीरामपुर भेजा गया; शिक्षा के लिये चतरा प्राथमिक विद्यालय में भर्ती कराया गया बाद में, वर्ष 1903 में वह दरभंगा राज विद्यालय की एक शाखा पीताम्बरी बेंगॉली मिड्ल स्कूल में भर्ती हुये वर्ष 1912 में वह राज विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये वर्ष 1914 में वह कलकत्ता के रिपन कॉलेज से आइ॰ए॰ पास किये वहाँ से पटना आकर वह बी॰ एन॰ कॉलेज में भर्ती हुये एवं बी॰ ए॰ पास किये इसी समय में उनकी पहली कहानी अविचार, बनारस से रामानन्द चट्टोपाध्याय द्वारा सम्पादित प्रवासी पत्रिका में प्रकाशित हुई तब वह पटना के ख्यातिप्राप्त वकील शरदिन्दु गुप्त के नयाटोला मोहल्ला स्थित मकान स्वर्णासन में रहते थे एवं उसी घर में गृहशिक्षक का काम करते थे पहली नौकरी मिली सन 1917 में दरभंगा स्थित माड़वाड़ी स्कूल में सहायक शिक्षक की इसके बाद सन 1920 में मुज़फ्फरपुर स्थित मुखर्जी सेमिनरी में शिक्षक की नौकरी मिली सन 1921 से 1924 तक तीन साल वह दरभंगा राज विद्यालय में शिक्षक रहे सन 1924-25 में वह दरभंगा के महाराजा के प्राईवेट सेक्रेटरी के रूप में नियुक्त हुये 1927 से 1929 तक वह रघुनन्दन सिंह के बेटे के गृहशिक्षक रहे वहाँ से फिर वह मुज़फ्फरपुर आये एवं बी॰ बी॰ कॉलेजियेट स्कूल में शिक्षक बने 1933-34 में वह चले गये पंडौल विद्यालय में शिक्षकता के लिये दोबारा दरभंगा आये तो दरभंगा महाराजा के भांजा कन्हैयाजी के गृहशिक्षक रहे 1934 से 1937 तक सन 1937 से 1939 तक उन्होने दरभंगा राज प्रेस की मैनेजरी की वहां से फिर आये दरभंगा राज विद्यालय में, पर अब प्रधान शिक्षक के रूप में आखरी नौकरी थी इन्डियन नेशन अखबार में मैनेजरी सन 1942 में नौकरी छोड़कर वह पूरी तरह साहित्य की सेवा में तल्लीन हुये

उनके पहले ग्रंथ का नाम है रानुर प्रथम भाग (1937) अंतिम – ‘अजाचीर संधानेएक उपन्यास जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के उपरांत आनन्दबाज़ार पब्लिकेशन ने सन 1989 में किया सत्तर वर्षों से भी अधिक समय तक, सृजन के आनन्द में उनकी कलम असंख्य फूल खिलाती रही है उनके साहित्य का संभार लगभग 112 ग्रंथों की उपस्थिति से समृद्ध है जिसमें उपन्यास चार यात्रा वृत्तांतों के अलावे सात सौ लघु कथायें भी मौजूद हैं सृजित सामग्रियों का यह विशाल भंडार पाठकों की पठन-क्षमता के सामने चुनौती बन कर खड़ी है

विश्लेषण कर के देखा गया है कि उनका कथासाहित्य चार बुनियाद पर खड़ा है – () वात्सल्यरस, () निर्मल हास्य एवं कौतुक, () यात्रारस की सृष्टि में अनुपम निपुणता एवं () मनोवैज्ञानिक चित्रण की क्षमता

रानुर प्रथम भाग, रानुर द्वितीय भाग, रानुर तृतीय भाग आदि ग्रंथों में संकलित कहानियों में विशेषत: गहन वात्सल्यरस का प्रमाण मिलता है निर्मल, ईर्षावर्जित हास्यरस का परिचय मिलता है बरयात्री एवं गणशा सिरीज के ग्रंथों में दुआर होते अदूरे, ‘कुशी प्रांगणेर चिठि, अजात्रार जयजात्रा आदि सरस कृतियों से प्रमाणित होता है कि अपरिचित जनपदों एवं उससे भी अधिक अपरिचित इंसानों को लेकर भी उत्कृष्ट यात्रा-वृत्तांत लिखे जा सकते हैं और, पुरूष स्त्री के मनोवैज्ञानिक अन्तर्विरोध एवं टकरावों का अपूर्व चित्रण है नीलांगुरीय उपन्यास में यह उपन्यास पहले उल्लिखित उनके तीन श्रेणियों के गद्य से इतना भिन्न है कि सन्देह होता है कि यह एक ही लेखक का लिखा हुआ है लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि विभूतिभूषण की रचनाशैली की विशेषता इस उपन्यास में भी परोक्ष तौर पर विराजमान है बल्कि उनके समग्र लेखन में ही कमोवेश परिलक्षित होती हैं एक ही किस्म के गहन पर्यवेक्षण, अन्तर्दृष्टि, तुच्छ से तुच्छ विवरणों के प्रति प्रीति एवं अनुराग, समाज एवं संसार के प्रति ममता, जीवनप्रेम, पार्थिव जगत के प्रति निविड़ आकर्षण आदि विशेषतायें

बांग्लावर्ष 1350 में फासीविरोधी लेखक शिल्पी संघ की ओर से बंगला के अतिविशिष्ट लेखकों की राय संगृहित कर क्यों लिखता हूँ शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित किया गया उस पुस्तक में विभूतिभूषण ने लिखा था, “हास्य और अश्रु से बनी यह पृथ्वी, लेकिन जमीन की तुलना में नमकीन पानी की तरह आँसू का हिस्सा अधिक होने के कारण इच्छा होती है कि हास्य वाला हिस्सा थोड़ा थोड़ा कर रंग उभारते हुये पसारुँ सबके सामने फिर कभी कभी लगता है कि आँसू में भी बुरा क्या है ? वह आँसू वेदना के माधुर्य से निचोड़ा गया है जिस आँसू में जीवन उसके छोटे बड़े रूपों में प्रतिविम्बित होता है अपरूप है यह जीवनक्षुद्रता को पार कर विराट यहाँ निरन्तर आत्मप्रतिष्ठा का प्रयास कर रहा हैं यह कहने की आकूलता मेरा धर्म है ।”       

बंगला साहित्य के इतिहास के विख्यात प्रणेता असित बन्दोपाध्याय ने विभूतिभूषण के हास्यरस पर विचार करते हुये कहा है, जीवन के प्रति उदार प्रसन्नता रहने पर साहित्य में हास्यरस का सृजन संभव नहीं होता है विभूतिभूषण छोटे-बड़े सबसे प्यार करते थे, पर बच्चे, किशोर एवं कम उम्रवालों के प्रति उनका अपार स्नेह पोनु नाम का वह छोटा लड़का, स्वरूप नाम का वह नौकर, राणु, गणेश की टोलीये सारे जैसे हमारे सामने ही खड़े हैं उनका हास्यकौतुक वृहत मानवधर्म का ही हिस्सा है, दुख की बात है कि हम इस मानव-बोध से दूर चले गये हैं ।” दूसरे एक विशिष्ट साहित्य आलोचक ने विभूतिभूषण के हास्यरस का गहन विश्लेषण कर जो कहा है वह अत्यन्त तात्पर्यपूर्ण है – “जो सही अर्थों में रसिक होते हैं वे सामान्यत: नीरस चीजों में भी रस खोज लेते हैं विभूतिभूषण उसी प्रकार के रसिक व्यक्ति थे जो नितान्त ही तुच्छ है, सामान्य है वही उनके वर्णन के तरीके से, रंगों के लेप से अत्यन्त उपभोग्य रसवस्तु बन जाता है ।” अजितबाबु ने इसके बाद जो कहा है वह विभूतिभूषण की जीवनदृष्टि की सच्चाई को उजागर करता है विभूतिभूषण की कहानियों में घटनाओं की अतिनाटकीयता, अशान्त कामना की ज्वाला, प्रवृत्तियों की उन्मुक्त क्रिया आदि कुछ भी नहीं है यानि उन सब चीजों की तरफ उन्होने नज़र ही नहीं दिया जो आदमी को आसानी से उत्तप्त उत्तेजित कर सकता है जीवन की विकृतियाँ एवं विपर्यय, निषिद्ध जीवन का बेतरतीब रूप, स्त्री-पुरुष की लालसा से भरी यौनलीलाइन विषयों के प्रति उनका कोई आग्रह नहीं है हमारी परिचित जमीन से जीवन की जो रमणीय धारा रौशनी और धूप से खेलते हुये बह रही है, उस के तट पर बैठ कर लेखक धारा की लीला देख रहे हैं ।”

विभूतिभूषण के साहित्य सृजन में सामग्रियोँ के संग्रह का बड़ा स्रोत है पारिवारिक परिमंडल एवं दोस्त, यारों से घिरा हुआ जाना-पहचाना समाज इस तरह के सामाजिक परिवेश से हम सभी परिचित हैं ऐसे परिवेश में चौंकाने वाली घटनायें-दुर्घटनायें कम ही होती हैं इसी सुपरिचित परिवेश से विभूतिभूषण की खोजी आँखें असंख्य सरस चित्र ढूंढ़ लाई हैं सामान्यत: नीरस, घिसे-पिटे जीवनप्रवाह से भी, कुशल गोताखोर की तरह वह उठा लाये हैं बहुत सारी रस-ग्राही कहानियाँ पारिवारिक परिमंडल नाम के स्रोत को पाने के लिये उन्हे प्रयास नहीं करना पड़ा, उसी परिमंडल में वह अपना दीर्घ जीवन व्यतीत किये हैं बात को थोड़ा और स्पष्ट किया जाय विभूतिभूषण एक बड़े संयुक्त परिवार के सदस्य थे सिर्फ सदस्य कहने से अर्धसत्य होगा वह दर असल उस परिवार के नगीना थे पहले ही कहा गया है कि वे नौ भाई थे एवं उनकी दो बहनें थीं अधिकांश सदस्य एक साथ दरभंगा के घर में रहते थे सभी भाई विवाह के बाद भी पत्नी और बच्चों को लेकर उसी घर में रहते थे बहनें उनके पतियों के घरों में ही रहते थे लेकिन वे एवं घर के दामाद भी उस घर के साथ एक आत्मिक बंधन में बंधे रहते थे अक्सर आना जाना लगा ही रहता था विभूतिभूषण उस बड़े संयुक्त परिवार के सम्पर्क-सुत्र थे उन्होने खुद विवाह नहीं किया सभी के अच्छे बुरे के प्रति उनकी सजग, सतर्क दृष्टि रहती थी घर के बच्चों के साथ उनका गहरा सम्बन्ध रहता था बच्चों के दिलोदिमाग के सारे गलियारे वे अच्छी तरह से जानते थे विभूतिभूषण का बालसाहित्य या बच्चों को लेकर रचे गये साहित्य का संभार विपुल है बड़ों की दुनिया को बच्चे किस निगाह से देखते हैं उसका वर्णन करती हुई सहज सरस कहानियाँ पाठकों को तृप्त करेंगे एवं आनन्द का संचार करेंगे एइ जगत ओदेर चोखे शीर्षक ग्रंथ में ऐसी बहुत सारी सरस रचनायें मौजूद हैं इसके अलावे पोनुर चिठि शीर्षक ग्रंथ में भी चिट्ठियों के शक्ल में बहुत सारी सरस रचनाओं को जगह मिली है पोनुर चिठि का विषयवस्तु यथेष्ट चित्ताकर्षक है पोनु एक बालक है वह अपने मन की बातें अशुद्ध बंगला में लिख कर बीच बीच में डाकघर जाकर पोस्ट कर आता है पता में भगवान को सम्बोधित करता है पोनु की धारणा है कि डाकिया उसकी चिंट्ठियों को भगवान के पास पहुँचा देता होगा इस किस्म का अजीब पता लिखा देख कर पोस्टमास्टर चिट्ठियों को खोल कर पढ़ते हैं उन्हे मजा आता है चिट्ठियों को पढ़ते हुये इन चिट्ठियों में पोनु के मन की गहराई में बसे शिशुहृदय का पता मिलता है जिन बातों को कहने पर डाँट या कान की ऐंठ मिलेगी, जिन बातों को बड़े कोई महत्व नहीं देंगे बल्कि हँसी-मज़ाक का विषय बनायेंगे, पोनु ने उन गुप्त, पूरी तौर पर अपनी बातों को भगवान के नाम लिख भेजा है हर एक चिट्ठी मज़ेदार है हर एक चिट्ठी के दर्पण पर शिशु मन का सही प्रतिफलन हुआ है भाषा पर भी पोनु की पकड़ काफी कम है संयुक्ताक्षर उसने अभी तक सीखा नहीं, इसलिये संयुक्ताक्षरों को तोड़ कर उसने अपना काम आसान कर लिया है कई बार ऐसा होता है कि बच्चे बड़ों का शासन मान नहीं पाते हैं, लेकिन डर के कारण प्रतिवाद या शिकायत नहीं कर पाते हैं उनकी शिकायतों को कोई पसन्द नहीं करता है पोनु उन शिकायतों को खुल कर लिखते हुये भगवान को प्यार भरे शब्दों में निपटारा करने को कहा है शिशुमन का यह दृढ़ विश्वास है कि भगवान उसकी शिकायतों को सुनेंगे और निपटारा भी करंगे पोनुर चिठी शीर्षक ग्रंथ में कई सारी मज़ेदार चिट्ठियाँ संकलित हुई हैं

बिहार के बहुआयामी चित्र विभूति भूषण के लेखन में बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैंबिहार के लोग, बिहार के रीति-रिवाज, बिहार की प्रकृति, बिहार की भाषा जीवंत रूप से उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में मौजूद हैं इस चिरपरिचित बिहार के साथ, हर दिन सामने मौजूद बिहारी समाज के साथ बिभूति भूषण ने नये तौर पर हमारा परिचय कराया है वैसे वह आजीवन मिथिला अंचल के अधिवासी थे और अन्तिम साँस भी उन्होने दरभंगा में ली कहना गलत नहीं होगा कि मैथिली भाषा एवं समाज के साथ उनका सम्बन्ध बहुत दूर तक पानी और मछली के अनुरूप था मिथिला और बंगाल को वह एक ही वृंत में उगे दो फूल मानते थे उनकी राय में मैथिली भाषा सुनना भी तो संगीत सुनने जैसा है बंगला की सहोदरा, - उतनी ही नर्म, उतना ही मीठा अन्यत्र उन्होने कहा है, सिर्फ सहोदरा ही नहीं बल्कि दो जुड़वाँ लड़कियाँ हों जैसेएक जैसा चेहरा, एक जैसी आँखें, एक जैसी कदकाठी, एक जैसी चाल मिथिला को अपने लेखन उन्होने माँ जानकी का देश कहते हुये श्रद्धा के साथ स्मरण किया है कुशी प्रांगणेर चिठि (कोसी प्रांगण की चिट्ठियाँ) में वहां की पुरानी बातें, जीवन की बातें, समाज की बातें आदि बहुत सारी बाते हैं लेकिन सर्वोपरि हैं कभी खत्म होने वाली प्यार और लगाव की बातें

मैथिली भाषा में उनकी अनायास दक्षता उन्हे एक बार मजेदार एक जोखिम में डाल दिया था उस घटना का जिक्र उनके लेखन में मिलता है मिथिला के पंजियार समुदाय के सदस्य धूर्त तुनमुन झा का टार्गेट बन गये थे विभूति भूषण कोसी के प्रांगण में घूमते घूमते वह पहुँच गये थे सौराठ के मेले में दूल्हों के इस विख्यात मेले में वरपक्ष एवं कन्यापक्ष दोनों उपस्थित रहते हैं कन्यापक्ष मोल-तौल कर वर चुनते हैं विभुतिबाबु के माथे पर था हैदर मियाँ का तोहफा, खूबसूरत गुलाबी पाग देखते ही तुनमुन झा की खोजी आँखें चमक उठी पूछे – “आपने के घर ? जबाब शुद्ध मैथिली में मिला बातचीत जम गईपचास की उम्र पार किये हुये विभूतिभूषण को दूल्हा समझ कर लगभग बाँध ही लिया था तुनमुन झा उस्ताद पंजियार को धोखे में डालने की इस सरस घटना को विभूतिभूषण ने उतनी ही सरस रूप से रसिक पाठकों को उपहार दिया है उनकी आत्मजीवनी जीवनतीर्थ में उन्होने सरस ढंग से कई मजेदार घटनाओं का जिक्र किया है उनमें से एक का जिक्र किया जाय कई वर्षों के बाद पिता के मित्र फणीन्द्र झा की पत्नी (जिन्हे वह चाची कहते थे) से पन्डौल में भेंट हो गई चाची स्नेह के साथ शिकायत कर रही हैं, रे विभूति, तोहूँ सचमुच कुटुम गेले, हाँ ? हेडमास्टर गेले, हाँ ? तेँई हमरो लेके पैख, हमरो लेके हेडमास्टर हैबा ? रे विभूति ? नई बहू गिरिबाला पन्डौल आई है पहली बार सास, ननद एवं मुहल्ले के पड़ोसी महिलायें नई बहू को घेर कर जमी हुई है मैथिल लड़की दुलारमन कह रही है, हुनका माथा पर लक टोला टोला घुमला सकैछी, गौरी थिकि, ढकिया ढकिया पून हे तै चलथुन ।“ गिरिबाला के वधू वरण समारोह में मैथिल बहूएँ गाना गा रही है बंगाली औरतें शंख बजा रही हैं एवं उलूध्वनि दे रही हैं उलूध्वनि सुन कर मैथिल लड़कियाँ हँसते हुये बोल रही है, अँहा लोकैन गिदड़ जँका की दुक्की पड़ैत छी ? बंगाली लड़कियाँ गीत सुन कर बोल रही हैं, : हसैछी क्या ? अँहा लोकैन आहे माहे की गवैत जाइछी ?”

स्वर्गादपि गरियसी उपन्यास में इस तरह की मैथिली बातचीत पृष्ठ दर पृष्ठ भरी हुई है सिर्फ मैथिली ही क्यों, भोजपूरी में बातचीत भी उनके लेखन में कई बार आई है अयात्रार जययात्रा नाम की यात्रा-वृत्तांत में इस भाषा का भरपूर प्रयोग दिखता है लेखक गलत ट्रेन पर चढ़ कर गलत जगह पहुँच गये हैं, लौट कर आना होगा सही स्टेशन पर बस खराब है लॉरी पर ही एक मात्र भरोसा है चाय की दुकान का मालिक ग्राहक (लेखक) के लिये लॉरीचालक से मदद मांगता है वह लॉरीचालक से कहता है, दुखन भाई, तु बंगालीबाबु के जरा पहुँचा सकब ?” व्यंग की नज़र से तिरछा देखते हुये ड्राइवर ने जबाब दिया, नौकरी खोयाय से बनि ? फिर थोड़ी खुशामद से पिघलते हुये कहता है, अब तू कहतार का करी ? नौकरी जाई दिह चाय बनावे के दुकान में ।“ कलतलार काव्य कहानी में जूट मिल के भोजपूरी भाषी मजदूरों के समावेश का दृश्य है उनकी बातचीत से उन लोगों के बारे में तथा उनकी पृष्ठभूमि के बारे में स्पष्ट धारणा बनती है अन्य कहानियों, उपन्यासों एवं यात्रा वृत्तांतों में भी मैथिली एवं भोजपूरी भाषा के अनेकों सरस चित्र मिलते हैं हिन्दी, उर्दु मिली हुई हिन्दी, अंगिका, बज्जिका भाषा के भी असंख्य रत्न फैले हुये हैं उनके सातसौ लघुकथा, यात्रा-वृत्तांत तथा उपन्यासों में द्रौपदी की साड़ी की तरह कभी खत्म होने वाले होंगे उदाहरण

उनकी कथाओं उपन्यासों के कहानियों की मिठास, चुम्बक जैसा आकर्षण, पात्रों की विचित्रता आदि ने फिल्मकारों को भी खूब खींचा है अपनी ओर जिन कथाओं/उपन्यासों पर फिल्म बनी है वे हैंनीलांगुरीय, बरयात्री, टनसिल, दोलगोबिन्देर कड़चा, फुलेश्वरी, कांचनमूल्य, राणुर प्रथम भाग, दैनन्दिन, श्रीमन पृथ्वीराज बंगाल का लोकनाट्य जिसे जात्रा कहा जाता है, उस जात्रा की दुनिया में फुलेश्वरी उपन्यास को खूब चाहा गया है इस उपन्यास का नाट्यरुपान्तर शहर के रंगमंचों पर भी अपनी लोकप्रियता बना रखा है एक कहानी या उपन्यास को फिल्म, जात्रा, नाटक सभी जगहों पर एक समान प्यार मिला हो ऐसा उदाहरण अधिक नहीं मिलता है विभूतिभूषण के कहानी उपन्यासों का हिन्दी, मैथिली एवं अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है हिन्दी में नीलम की अंगूठी, मैथिली में कोसी प्रांगण की चिट्ठी तथा बिहार हेरल्ड (पटना से प्रकाशित अंग्रेजी साप्ताहिक) में कदम कहानी का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुई है

डा॰ शैलेश दे द्वारा संकलित बांग्लार प्रोबाद (बंगाल की लोकोक्तियाँ) पुस्तक में विभूति भूषण द्वारा संगृहित लोकोक्तियाँ शामिल की गई हैं

विभूति भूषण के जीवन में जीवनसाधना एवं साहित्यसाधना, दोनों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है उनके जीवन में शरतचन्द्र की तरह उत्थान और पतन, विष और अमृत का तीव्र स्वाद देने वाली घटनायें घटित नहीं हुई हैं शरतचन्द्र की तरह ऐडवेंचर का अवसर भी उन्हे नहीं मिला है शान्त, सामंजस्यपूर्ण, आनन्दमय जीवनधारा में डुबकी लगा कर ही वह तृप्त रहे हैं जगत जीवन के आनन्दरूप अमृत का स्वाद पाकर ही वह परमतृप्त हैं अपने जीवन की तूलना उन्होने तीर्थ के साथ किया है उनके आत्मजीवनी का नाम है जीवनतीर्थ; अत्यंत सुखदायी पाठ्य है                  

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद – विद्युत पाल

ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित “बिहार के गौरव – खन्ड 2” से साभार          

     


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