Wednesday, June 23, 2021

साम्प्रदायिकता – आर॰ एस॰ एस॰ व भाजपा की कार्यप्रणाली

 सोच में साम्प्रदायिकता का घुसपैठ – इतिहास के मार्ग पर

बेहतर होगा कि एक सच्चाई का सामना करते हुये यह बातचीत शुरू की जाय । हमारे देश में साम्प्रदायिकता का प्रारम्भ अंग्रेजों ने नहीं किया । लेकिन साम्प्रदायिकता की क्षीण बहती धारा को उन्होने बार बार थोड़ा बढ़ा दिया है । सन 1905 में लॉर्ड कार्जन ने जब बंगाल के विभाजन के लिये कदम उठाये, कविगुरु रवीन्द्रनाथ तभी समझ गये थे कि कितना बड़ा सर्वनाश होने जा रहा है । वह खुद रास्ते पर उतर आये थे । राखी-बन्धन के उत्सव का आयोजन किये थे । एक वक्त आया जब दिखा कि यह आन्दोलन हिन्दु समाज के आन्दोलन का रूप ले लिया । आम मुसलमान बंगाली समाज इस आन्दोलन के साथ एकात्मता नहीं महसूस कर रहे थे । रवीन्द्रनाथ ने इस यथार्थ को समझा और खुद को आन्दोलन की सक्रियता से अलग कर लिया । इस में कोई सन्देह नहीं कि प्रशासनिक समस्याओं का जिक्र अंग्रेजों के लिये सिर्फ दिखावा था, हिन्दु-मुसलमान विभेद वे चाहते थे ।

सन 1906 में बना ‘ऑल इन्डिया मुसलिम लीग’ । इसकी स्थापना से जुड़े थे श्रद्धेय शिक्षा सुधारक सैयद अहमद खान । भारतीय मुसलिम समाज के लिये वह आधुनिक पश्चिमी शिक्षा चाह रहे थे । चाह रहे थे विज्ञान की शिक्षा । सन 1886 में, राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के एक साल बाद हुये ‘अखिल भारतीय मुसलिम शिक्षा सम्मेलन’ में उनकी यह सोच उभर कर आई थी । सन 1906 में ढाका शहर के ‘नबाब मंजिल’ में  27-30 दिसम्बर को तीन हजार प्रतिनिधि उपस्थित थे । अन्तिम दिन, 58 सदस्यों को लेकर ‘ऑल इन्डिया मुसलिम लीग’ की स्थापना हुई । सैयद अहमद खान के आह्वान पर धन संग्रह किया गया । बना ‘अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय’ । इतिहासकार मुशीरुल हसन लिखते हैं, “ब्रिटिश राज की कोशिश थी वश में रहने वाला छात्रसमाज के निर्माण की, उस काम में वे सफल नहीं हुये । सन 1939 तक स्वतंत्रता के संग्राम में सहयोग करता रहा छात्रसमाज । उसके बाद हालाँकि, तस्वीर बदलने लगी ।“

प्रथम विश्वयुद्ध के समय ‘खिलाफत आन्दोलन’ जीवित था । उस आन्दोलन को भारत के हिन्दु, मुसलमान सभी कांग्रेस नेता समर्थन करते रहे । सन 1922 के बाद तस्वीर बदलने लगी । तुर्की ने एक मुल्क के तौर पर धर्मनिरपेक्षता की ओर कदम बढ़ाया । कांग्रेस के कई नेताओं ने इसका समर्थन किया । लेकिन कई नेता ऐसी परिणति को स्वीकार नहi कर पाये । कांग्रेस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घट गया । सन 1921 में जो कुल प्रतिनिधित्व का 11% था, सन 1924 में वह घट कर हो गया मात्र 4% ।

सन 1913 में मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलिम लीग में योगदान दिया । शुरू के दिनों में जिन्ना हिन्दुओं और मुसलमानों का भाईचारा बचाये रखना चाहते थे । बीस के दशक में वह ब्रिटेन में थे । सन 1930में सर मोहम्मद इकबाल ने पहली बार मांग उठाई कि भारत के मुसलमानों को रहने की अलग जगह चाहिये । द्वि-राष्ट्रीयता के सिद्धांत का जहर फैल गया देश में । मुसलमान समाज में इस सोच को समर्थन मिलने लगा । स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस ने इसका समर्थन नहीं किया । मोहम्मद इकबाल ने, साफ तौर पर पाकिस्तान की मांग न करते हुये भी सन 1930 में ऑल भारतीय मुसलिम लीग की वार्षिक सभा में कहा था, “मैं चाहता हूँ कि पंजाब, उत्तर-पश्चिम प्रदेश, सिन्ध व बलुचिस्तान को लेकर एक राज्य बने । वहाँ ब्रिटिश राज के अधीन स्व-शासित सरकार रहे । या ब्रिटिश राज के बाहर स्वतंत्र शासन रहे ।“ भाषण से समझा जा सकता है कि इकबाल ने अलग देश की मांग नहीं की थी । भारत में रह कर स्वशासन की मांग रखी थी । प्रख्यात इतिहासकार ताराचन्द ऐसा ही लिखते हैं ।

यह तो गई एक तरफ की बात । दूसरी तरफ की तस्वीर कैसी थी ? ब्रिटिश राज हमेशा घात लगा कर बैठी रहती थी, कि कोई भी अवसर मिले तो उसे किस तरह अपनी स्वार्थसिद्धि में इस्तेमाल किया जाय । सन 1906 में मुसलमान प्रतिनिधियों की एक जमात ने मुसलमान प्रतिनिधियों के चुनाव के लिये अलग मुसलमान मतदातामंडली की मांग उठाई तो अंग्रेजों ने इस प्रस्ताव को हाथोंहाथ लिया । सन 1909 में ब्रिटिश राज ने ‘मॉर्लि-मिन्टो सुधार’ की घोषणा की । मतदाताओं को इस तथाकथित सुधार के माध्यम से धार्मिक पहचान के आधार पर अलग कर दिया गया । मिस्टर मिन्टो ने प्रतिनिधियों से वादा किया था कि मुसलमानों के लिये कुछ सीटें आरक्षित कर देंगे । सिर्फ मुसलमान मतदाता उन सीटों के लिये मतदान करेंगे । यहाँ जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि कांग्रेस के नेताओं ने इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताई थी । यह अभियोग लाया गया था कि अंग्रेज हिन्दु और मुसलमानों के बीच बँटवारा लाना चाह रहा है । ‘मॉर्लि-मिन्टो सुधार’ के फलस्वरूप भारत के विधान परिषद में भारतीयों के निर्वाचन की वैधता बेशक स्वीकृत हुई, पर विभेद का जहरीला धुँआ भी उठना शुरू हुआ ।

जिस वर्ष ‘मॉर्लि-मिन्टो सुधार’ घोषित हुआ उसी वर्ष हिन्दु इकट्ठे होने लगे । सन 1909 में आर्य समाज के तीन नेता लाला लाजपत राय, लाल चाँद एवं शादी लाल ने मिल कर ‘पंजाब हिन्दु सभा’ का गठन किया । इसकी पहली सभा सन 1909 में लाहोर में हुई । मदन मोहन मालवीय ने अध्यक्षता की । प्रासंगिक तौर पर कहा जा सकता है कि कुल तीन बार (1909, 1918, 1932) मालवीयजी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे । मदन मोहन मालवीय ने खिलाफत आन्दोलन में कांग्रेस की भागीदारी का समर्थन नहीं किया था । पंजाब हिन्दु सभा के सम्मेलन के अन्त में संस्थापकों ने घोषणा की, “हम कोई साम्प्रदायिक दल नहीं हैं । पूरे हिन्दु समाज के कल्याण के लिये हम आन्दोलन करेंगे ।“ कुछ ही दिनों के बाद पंजाब प्रादेशिक हिन्दु सम्मेलन का आयोजन हुआ । सम्मेलन ने कांग्रेस के खिलाफ क्षोभ जताया कि कांग्रेस हिन्दुओं के हित को नज़रअन्दाज कर रहा है । एक घटना हमें बेशक चकित करता है । सन 1909 में कांग्रेस का जो अधिवेशन लाहोर में हुआ उसमें मदन मोहन मालवीय अध्यक्ष चुने गये । उसी वर्ष वह ‘पंजाब हिन्दु सभा’ के सम्मेलन में भी अध्यक्षता किये । क्या इससे धर्मनिरपेक्षता की स्पष्ट सोच थोड़ी धुमिल नहीं हुई ? पंजाब में यह महासभा सबसे पहले सक्रिय हुआ , एक वर्ष में और पाँच सम्मेलन पंजाब प्रान्त में ही हुआ था । धीरे धीरे बिहार, बंगाल एवं बम्बई प्रान्त में सभा का गठन हुआ । काफी तेजी से आगे बढ़ रहा था यह संगठन । इलाहाबाद में सम्मेलन हुआ सन 1910 में । आश्चर्यचकित होने वाली बात यह है कि इलाहाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में अखिल भारतीय हिन्दु महासभा के गठन का प्रस्ताव आया । एक कमिटी भी गठित किया गया लाला बैजनाथ की अध्यक्षता वाली, महासभा की नियमावली तैयार करने के लिये । हालाँकि, बात फिर आगे नहीं बढ़ी । कहा जा सकता है कि अच्छा ही हुआ, कांग्रेस पार्टी को इस तरह के कलंक रचने से छुटकारा मिला । दो साल बीता । सन 1913 में पंजाब के हिन्दु महासभा का फैसला हुआ अम्बाला सम्मेलन में कि इस संगठन को अखिल भारतीय स्वरूप देना होगा । फैसला हुआ कि सन 1915 में हरिद्वार के कुम्भ मेला में पूरे भारत से प्रतिनिधियों को आमंत्रित कर फिर घोषणा किया जायेगा । सन 1915 के अप्रैल महीने में कुम्भ मेला के प्रांगण से घोषित हुआ ‘अखिल भारतीय हिन्दु सभा’ के गठन का प्रस्ताव । इस सभा में कई अन्य लोगों के साथ साथ आर्यसमाज के प्रचारक स्वामी श्रद्धानन्द भी उपस्थित थे । और, जो बात जानने पर हम सब को अचरज होगा कि सभा में उपस्थित थे स्वयं गांधीजी । क्या उन्होने उस वक्त सोचा था कि इसी संगठन के उग्रवादियों के हाथों वह एकदिन मारे जायेंगे ? किसी ने भी सोचा था क्या? स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती एक तरफ हिन्दु सुधार आन्दोलन में भी सक्रिय थे दूसरी तरफ कांग्रेस के भी सक्रिय कार्यकर्त्ता थे । सन 1919 में अमृतसर शहर में हुये कांग्रेस के अधिवेशम में उन्होने अध्यक्षता की । जालियाँवालाबाग की घटना के बाद कई नेता उस वक्त अमृतशहर जाने को राजी नहीं हुये थे । मोतीलाल नेहरु गये थे । स्वामी श्रद्धानन्द अकेले एकमात्र हिन्दु सन्यासी थे जो दिल्ली के जामा मस्जिद के प्रांगण से वैदिक मंत्र के पाठ के बाद राष्ट्रीय एकजूटता को लेकर भाषण दिये थे । यह बात बेझिझक कही जा सकती है कि इस आदमी का परिवर्तन हम सबको अवाक करता है । सब कुछ छोड़छाड़ कर एक समय वह मुसलमानों के धर्म परिवर्तन के कार्य में मग्न हो गये । ऐसा काम कोई भी सचेत आदमी समर्थन नहीं करेगा । मुसलमान धर्मप्रचारकगण तो और भी नहीं करेंगे । फलस्वरूप हिन्दु के अलावा अन्य धर्मावलम्बियों की निगाहों में वह ‘ग्रहणीय’ नहीं रहे । गान्धीजी की बात हम बार बार कहते हैं जरूर, कहना भी चाहिये, पर हमें याद रखना होगा कि सन 1926 के 23 दिसम्बर को श्रद्धानन्द दिल्ली में मारे गये, मारने वाले आततायी का नाम था अब्दुल रशीद । गांधीजी उस वक्त गौहाटी में थे । कांग्रेस के अधिवेशन में 25 दिसम्बर को एक शोक प्रस्ताव पारित करवाये गांधीजी । प्रस्ताव रखते हुये गांधीजी ने कहा था :

“…You will perhaps understand why I have called Abdul Rashid a brother and I repeat it. I do not even regard him as guilty of Swamiji’s murder. Guilty indeed are all those who excited feelings of hatred against one another. For us Hindus the Gita enjoins on us the lesson of equi-mindedness, we are to cherish the same feelings towards a learned Brahmin as towards a Chandala, a dog, a cow or an elephant.” [The official Mahatma Gandhi e-archive & Reference Library, Mahatma Gandhi Foundation, India]  

प्रसंगवश यह उल्लेखनीय होगा कि भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद दिल्ली स्थित टाउन हॉल के सामने के प्रांगण से रानी विक्टोरिया की मूर्त्ति हटाकर वहाँ स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती की मूर्त्ति बैठाई गई है ।

सन 1921 के अप्रैल महीने में हिन्दू महासभा का नाम बदल कर रखा गया ‘अखिल भारतीय हिन्दु महासभा’ । जिस समय राजा मणीन्द्र चन्द्र नन्दी अध्यक्ष थे, उस समय संविधान संशोधित कर ‘ब्रिटिश आज्ञाकारिता’ की बात हटाई गई । बदले में लिखा गया कि ‘संगठन एकतावद्ध एवं स्व-शासित भारतीय राष्ट्रीयता’ के निर्माण के लिये प्रतिवद्ध रहेगा । यह गौर करने वाली बात है कि ‘हिन्दु जाति’ की बात नहीं कही गई थी । ‘Indian Nation’ या ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ की बात की गई है ।

1920 के दशक के अन्त में हिन्दु महासभा जिस व्यक्ति के नेतृत्व में चला, देश में साम्प्रदायिकता का बीज बोने में उसके कुकर्मों का अन्त नहीं है । वह एक समय कांग्रेस के कार्यकर्त्ता थे । बाल गंगाधर तिलक के घोर समर्थक । मध्य भारत में गणेश पूजा एवं शिवाजी उत्सव उसी ने चालू किया । उसका नाम हमारे लिये अपरिचित नहीं है । बालकृष्ण शिवराम मुंजे (1872 – 1948) । मुंजे चिकित्सक थे । कुछ समय तक उन्होने बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के मेडिकल ऑफिसर के पद पर नौकरी भी की थी । सन 1920 में बाल गंगाधर तिलक के निधन के बाद उन्होने कांग्रेस के साथ सारे सम्बन्ध तोड़ दिये । गांधीजी का ‘असहयोग आन्दोलन’ एवं ‘धर्मनिरपेक्षता का आदर्श’ उन्हे पसन्द नहीं था । उग्र हिन्दुत्व का दर्शन उनकी पसन्द का आदर्श था । सन 1927 में वह हिन्दु महासभा के अध्यक्ष बने । एक दशक तक वह अध्यक्ष रहे । सन 1937 में विनायक दामोदर साभरकर (1883 – 1966) हिन्दु महासभा के अध्यक्ष बने । साम्प्रदायिक सोच को आगे बढ़ाने में इनमें से कोई भी किसी से कम नहीं था । जो संगठन आज इस देश में साम्प्रदायिकता का प्रधान स्तंभ है उसकी शुरुआत मुख्यत: तीन आदमियों के हाथों हुआ । दो थे मुंजे और साभरकर । तीसरे थे केशव वलिराम हेगड़ेवार (1889 – 1940) ।

अंग्रेजों को देश से भग कर स्वतंत्र भारत के निर्माण का लक्षा आर॰एस॰एस्॰ का कभी भी नहीं था । डा॰ मुंजे हिन्दुओं को लेकर एक सैन्य संगठन बनाना चाहते थे । उनके एवं उनके बाद के लोगों के द्वारा जो संगठन तैयार हुआ उसका परिचय विकिपिडिया में दिया गया है, ‘दक्षिणपंथी, स्वेच्छासेवी, अर्ध-सैनिक संगठन’ । स्वयंसेवक लोग बीच वाले विशेषण का इस्तेमाल करते हैं । पहला एवं तीसरा परिचय ओट में छुपाकर रखते हैं ।

सन 1925 में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में केशव वलिराम हेगड़ेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आर॰एस॰एस॰ का गाठन किया । मुंजे उम्र में हेगड़ेवार से बड़े थे । उन्होने हेगड़ेवार को कलकत्ता में डाक्टरी पढ़ने को कहा था । स्वतंत्रता संग्राम के गुप्त संगठनों में भाग लेकर हथियार चलाना सीख लेने को कहा था । नहीं, स्वतंत्रता संग्राम के लिये नहीं । एक राष्ट्रीयता का देश बनाना होगा । हिन्दु राष्ट्रीयता देश । बिना हिंसात्मक पद्धति के यह नहीं होगा । इसलिये बंगाल के ‘अनुशीलन समिति’ में हेगड़ेवार रहे कुछ समय तक । फिर नागपुर लौट आये । उधर सन 1923 में साभरकर लिखित ‘हिन्दुत्व’ शीर्षक किताब निकल चुकी थी । हेगड़ेवार ने इस किताब को पढ़ा । किताब का पूरा नाम था ‘Hindutva: Who is a Hindu’ । पहले नाम था ‘Essentials of Hindutva’ । बाद में, सन 1928 में यह किताब नये नाम से प्रकाशित हुई । इस किताब को ‘हिन्दु राष्ट्रीयतावाद का पहला बाइबल’ कहा जा सकता है । लेखक की नजर से ‘हिन्दुत्व’ अब सिर्फ धर्म के परिचय में सीमित नहीं रहा । धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक परिचय का अखंड-स्वरूप हो उठा । पूरे भारतीय उपमहादेश में ‘अखंड भारत’ का निर्माण उनका स्व्प्न हुआ । यह भारत एक ‘हिन्दु राष्ट्र’ होगा । सन 1969 में इस किताब के पाँचवें संस्करण से दो एक पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती है ।

“हम हिन्दु सिर्फ प्यार के बन्धन में बँधे नहीं हैं । हमारी एक ही पितृभूमि है । हमारे नसों में एक ही रक्त प्रवाहित होकर हमारे हृदय को सचल रखा है । हमारा स्नेह गर्म है । हमारी हिन्दु संस्कृति के प्रति हम सब समान रूप से श्रद्धाशील हैं।

सोचने में अच्छा ही लगता है कि जिस आदमी ने बार बार माफीनामा लिख कर दिया अंग्रेज सरकार को, जेल से निकलने के लिये, बाद में भक्तों ने उसी का नामकरण किया ‘वीर’ साभरकर । अगर वह ‘वीर’ नहीं तो और कौन?

किताब के तीसरे संस्करण के प्रकाशन के समय प्रकाशक ने लिखा था, हिन्दु कौन है समझाने के लिये पचास किस्म की परिभाषायें मिलती हैं । साभरकर ने कहा है कि सिर्फ धर्म के परिचय के लिये ‘हिन्दु’ शब्द यथेष्ट नहीं है । इसीलिये इतनी विपत्तियाँ, इतने तरह की सोच । कट्टरपंथ में सोच का वैचित्र नहीं चलता है । एक परिभाषा में बाँधना होगा । सभी को एक ही आवाज में उसी परिभाषा को दोहराना होगा ।

सन 1923 में जब ‘Essentials of Hindutva’ प्रकाशित हुआ, किताब में लेखक का नाम नहीं था । प्रकाशक थे, भी॰ भी॰ केलकर, बीए, एलएलबी । इस किताब को देख कर उल्लसित हुये थे लाला लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय आदि लोग । उन्हे लगा कि हिन्दु विचारधारा के लिये एक सही किताब मिली । साभरकर के शब्दकोष में ‘मातृभूमि’ शब्द नहीं था । हिटलर की नाजी पार्टी की तरह ‘पितृभूमि’ की अवधारणा थी । और थी पवित्रभूमि की अवधारणा । देश का राष्ट्रीय जीवन इन दो भूमियों के प्रति आज्ञाकारिता से निर्धारित होगा । उनके शब्दों में, “Loyalty to one’s fatherland and loyalty to one’s holyland are the two great forces that govern the national life of a country.”

आगे लखिन्दर के कोहबर में छेद रख देने [देखें बेहुला-लखिन्दर की लोककथा – अनुवादक] की तरह साभरकर ने लिखा, “When a person or a community is torn between these two loyalties their actions are unpredictable.” ऐसी बात क्यों लिखनी पड़ी ? क्योंकि, मुसलमान सम्प्रदाय की पवित्रभूमि भारत के बाहर है, हिन्दुओं की तरह स्वदेश के भीतर नहीं । दो सम्प्रदायों की आज्ञाकारिता फिर कैसे एक किस्म की रहेगी ? सन्देह व विभेद का परिवेश तैयार कर दिये साभरकर । सवाल तो एक उठा ही दिया जाय । चर्चा चलती रहे सभी जगहों पर । मौका देख कर वार किया जायेगा ।

सन 2000 के 22 जनवरी को ‘इकॉनमिक एंड पॉलिटिकल विकली’ में “Hindutva’s foreign tie-up in the 1930 : Archival evidence’ शीर्षक एक निबंध प्रकाशित हुआ था । लिखी थीं Marzia Casolavr । सन 2002 के 13 अप्रैल को उसी पत्रिका में उन्होने और एक निबंध लिखा था, “Role of Benares in constructing Political Hindu Identity” । खैर हम पहले वाले निबंध की बात करें । इस में निबंधकार ने लिखा है कि सन 1931 के फरवरी से मार्च के बीच गोलमेज बैठक खत्म होने के बाद बी॰ एस॰ मुंजे ने योरप का सफर किया था । उस समय वह इटली में कुछ समय बिताये थे । कई शैक्षणिक संस्था एवं सैन्य प्रशिक्षण केन्द्रों का उन्होने भ्रमण किया । मुसोलिनी से भेंट हुई उनकी । उस भेंट का वर्णन मुंजे ने अपने रोजनामचे में तेरह पृष्ठों में किया है । [Nehru Memorial Museum and Library, Moonje papers, microfilm, m1]

सन 1931 के 15 मार्च से लेकर 24 मार्च तक मुंजे रोम में थे । उस वक्त वह जिन जगहों को देखने गये थे उस सूची में है, The Military College, The Central Military School of Physical Education, The Fascist Academy of Physical Education । कई ‘Balilla and Avanguardisti’ संगठन भी देख आये थे । मुसोलिनी की राज में इटली का फासीवादी युवा संगठन था ‘Opera Nazionale Balilla’ । सन 1926 में इस संगठन की स्थापना हुई थी । नैशनल फासिस्ट पार्टी का युवा संगठन । 8 से 14 वर्ष तक की उम्र की किशोरकिशोरियों को यह संगठन प्रशिक्षण देता था । उग्र राष्ट्रीयतावाद एवं द्वेष की सोच बचपन से ही दिमाग में डाल दिया जाता था । 14 साल की उम्र के बाद सब को छोड़ देना संभव नहीं हो पाता था । तब उन्हे ‘Avanguardisti’ की छत्रछाया में ले आया जाता था । एक वक्त ऐसा आया जब दोनो नामों को एक कर दिया गया । संगठन के रूप में ‘Balilla and Avanguardisti’ का नाम हुआ था । यह खुद का परिचय सांस्कृतिक संगठन के रूप में देता था । इस में लड़कों को अर्ध-सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता था । ताकि बाद में इन्हे इतालवी सेना में भर्ती किया जा सके । लड़कियों को सिर्फ घर-गृहस्थी के काम काज का प्रशिक्षण दिया जाता था । लड़कों के लिये कुछेक प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ कार्यक्रम थे । इनके पोशाक अलग होते थे । लाठी चलाने से लेकर अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रों का भी प्रशिक्षण दिया जाता था । यह सब देख कर मुंजे खुश होकर देश लौट आये । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक ही किस्म की फासीवादी दक्षता से लैस करते रहे । बच्चों को लेकर इनलोगों ने शाखाओं का परिचालन शुरू किया । लाठी, छुरा से शुरू कर अन्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण शुरू हुआ । संघ बनाने का स्वप्न देखा तो हेगड़ेवार ने था पर उस स्वप्न को सांगठनिक शक्ल दिया था बी॰ एस॰ मुंजे ने । इटली के फासीवादी संगठनों के बराबर के संगठन के रूप में खुद को इन लोगों ने तैयार किया था ।

उन संगठनों का कामकाज देख कर मुंजे ने अपने रोजनामचे में लिखा था:

“The idea of fascism vividly brings out the conception of unity amongst people… India and particularly Hindu India need some such Institution for military regeneration of the Hindus; …our institution of Rashtriya Swayamsevak Sangh of Nagpur under Dr. Hedgewar is one of this kind, though quite independently conceived. I will spend the rest of my life in developing and extending this institution of Dr. Hedgewar all throughout the Maharashtra and other provinces.”

सन 1931 के 19 मार्च को मुंजे ने मुसोलिनी के साथ जो बैठक की उसका वर्णन उनके रोजनामचे में है । उसमें एक जगह वह साफ साफ लिखते हैं, “I just saw this morning and afternoon the Balilla and the Fascist organisations and I was much impressed.” … मुसोलिनी के एक सवाल के जवाब में उन्होने कहा, “I am much impressed. Every aspiring and growing nation needs such organisations. India needs them most for her military regeneration. …I shall have no hesitation to raise my voice from the public both in India and England when occasion may arise in praise of your Balilla and Fascist organisations. I wish them good luck and every siccess.”

सन 1925 के विजया दशमी के दिन पाँच आदमियों की बैठक नागपुर में हुई । बैठक में हाजिर थे बलिराम हेगड़ेवार, बालकृष्ण शिवराम मुंजे, लक्ष्मण वासुदेव परंजपे, गणेश दामोदर साभरकर एवं बी॰ बी॰ ठोलकर । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ । विनायक साभरकर का एक संगठन था ‘तरुण हिन्दु सभा’ । आर॰एस॰एस॰ के साथ उसका विलय हो गया ।

साभरकर-हेगड़ेवार-मुंजे का जमाना खत्म होने के बाद नेता बने माधव सदाशिव गोलोवलकर । सन 1937 में वह आर॰ एस॰ एस॰ के प्रधान बने । कुछ दिनों तक इन्होने कानून की चर्चा की थी । थोड़े दिनों के लिये रामकृष्ण मिशन के सन्न्यासी भी थे । उसके बाद नागपुर जाकर आर॰ एस॰ एस॰ का कार्यभार ग्रहण किये । उनके द्वारा लिखित ‘वी ऐन्ड आवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ काफी चर्चित पुस्तक है । घृणा एवं द्वेष को बढ़ावा देने में उनकी लेखनी साभरकर से आगे चला गया है । अन्य धर्मों के खिलाफ उनके निन्दावाक्यों में थोड़ी सी भी सहिष्णुता की जगह नहीं है । साभरकर वाली किताब के बाद यह किताब स्वयंसेवकों के हाथों में दूसरा बाइबल है । सन 1939 में, दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत में, हिटलर-मुसोलिनी की लम्पटगिरी के समय यह किताब लिखी गई है । याद रखना जरूरी है कि धरती पर विज्ञान की दुनिया के एक हिस्से में उस समय ‘युजेनिक्स’ [एक तरह का विज्ञान जो पितृत्व-मातृत्व को नियंत्रित कर मानवजाति को बेहतर बनाने की सोच रखता है – अनुवादक] को स्वीकार्यता प्राप्त हो चुका है । कुल मिला कर समय अच्छा नहीं था । तब लिखी गई थी यह किताब । हिटलर की तारीफ कर गोलवलकर ने लिखा, “जर्मनी के जातिश्रेष्ठ आज बहुतों के लिये चर्चा का विषय बन चुके हैं । इहुदियों का विनाश कर पृथ्वी को चौँका दिया है इन जर्मनों ने । यह सीख हमें ग्रहण करना चाहिये ।” जिस रास्ते पर चल कर दूसरी संस्कृतियों का सर्वनाश किया हिटलर ने, उस पद्धति की प्रशंसा करते गोलवलकर नहीं थकते । अनुवाद करने पर बातें यूं आती हैं, “बाहर से आनेवालों को अपनी संस्कृति की बात भूलनी पड़ेगी । नहीं तो बाहर से आने वालों की ही तरह रहना पड़ेगा उन्हे । राज्यसत्ता के सभी नियम-कानून उन्हे मान कर चलने होंगे । कोई अलग व्यवस्था नहीं रहेगी । किसी तरह की सुविधा या अधिकार की बात अलग से कही नहीं जा सकेगी । राज्यसत्तासीन राष्ट्रीयता [या ‘राष्ट्रीय नस्ल’ (?) – अनुवादक] जब भी चाहेगी तभी उन्हे देश छोड़ कर चले जाना पड़ेगा ।” घृणा की तीव्रता बढ़ाने का इससे अधिक क्या उपाय हो सकता है, हमें नहीं मालूम । जबकि गोलवलकर की बातों को ही आगे बढ़ाते हुये कहा जा सकता है कि राज्यसत्ता ने अपने नागरिकों के लिये जो संविधान [यानी यथा-पूर्वोक्त ‘सभी नियम-कानून’] तैयार किया है उसे तो वे खुद ही नहीं मान रहे हैं । वे तो चाह रहे हैं कि भारत के संविधान को बदल दिया जाय, उसे ‘हिन्दुराष्ट्र’ घोषित किया जाय, उस राष्ट्रीय झंडे को बदल दिया जाय जो उन्हे पहले ही दिन से पसन्द नहीं है । हम भूले नहीं हैं कि सन 1945 में जब भारतीय नौसेना में बगावत हुआ, आर॰ एस॰ एस॰ ने न तो इस बगावत में हिस्सा लिया और न ही इसका समर्थन किया । स्वतंत्रता के संघर्ष में एक भी स्वयंसेवक नेता नहीं है । एक थे जीवन के प्रारंभिक दौर में । साभरकर । तथाकथित ‘वीर’ साभरकर । देश के मुसलमानों को लेकर साभरकर की सोच थी कि जर्मनी ने जो किया है उसे दिमाग में रखना होगा । जर्मनी ने यहूदियों को भगा दिया है । ये यहूदी अल्पसंख्यक थे । बात को जेहन में रख कर आगे बढ़ना होगा । सन 1938 में नागपुर में आयोजित हिन्दु महासभा के बीसवें अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर साभरकर ने जो कहा था उसे पढ़ने पर साम्प्रदायिकता की जहरीले धूँए से भरा एक व्यक्ति दिख जाता है । किसी न किसी ने तैयार किया है ‘savarkar.org’ । वहीं पर लिखी कुछ पंक्तियों को, अनुवाद न करते हुये हुबहु उद्धृत रहे हैं हम ।   

‘We must watch (the Moslem minority) in all its actions with the greatest distrust possible. Granting them on the one hand every equitable treatment which an Indian citizen can claim on an equality of footing with another, we must sternly refuse them any the least preferential treatment in any sphere of life – religious, cultural or political. Not only while we are engaged in our struggle for liberating India but even after India is free we must look upon them as suspicious friends…’    

राष्ट्रीय झंडे के प्रसंग में एक और तथ्य दिया जा सकता है । हमारा राष्ट्रीय झंडा तिरंगा है । गोलवलकर पूरा गेरुआ झंडा चाहते थे । वह नहीं हुआ । हमारे राष्ट्रीय झंडे में तीन रंग हैं । उपर में गेरुआ साहस और त्याग का प्रतीक है । सफेद रंग शान्ति, एकता व सत्य का प्रतीक है । हरा रंग संस्कृति व सृजन का प्रतीक है । क्षुब्ध होकर आर॰ एस॰ एस॰ ने सन 1947 के 14 अगस्त को अपने अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गानाइजर’ में लिखा:

“भाग्य से जिन्हे सत्ता मिली है उन्होने हमें तिरंगा राष्ट्रीय झंडा उपहार स्वरूप प्रदान किया है । हिन्दु इस झंडे का कभी भी सम्मन नहीं करेंगे । मानेंगे भी नहीं वे । संख्या ‘तीन’ अशुभ है । तिरंगा झंडे का निस्सन्देह हमारे उपर अत्यन्त खराब मानसिक प्रभाव पड़ेगा । देश के लिये वह हानिकारक होगा।”

आज के हमारे संविधान के बारे में आर॰ एस॰ एस॰ क्या सोचता है इस पर दो-एक बातें कही जा सकती है । अम्बेदकर सहित कुछ अन्य प्रमुख व्यक्तियों के द्वारा रचित भारतीय संविधान इन्हे पाश्चात्य का अनुकरण प्रतीत होता है । उनका कहना है कि इसमें अपनी खासियत कुछ नहीं है । ‘मनुस्मृति’ पर भरोसा कर संविधान रचने की इच्छा थी आर॰ एस॰ एस॰ की । सन 1949 के 26 नवम्बर को भारतीय संविधान की रचना का कार्य पूरा हुआ । चार दिनों के बाद ‘ऑर्गानाइजर’ उसकी आलोचना करते हुये लिखा, “मनुस्मृति के कानून को पूरी दुनिया श्रद्धा की नज़र से देखती है (कहाँ से आर॰ एस॰ एस॰ को यह तथ्य मिला था कहना मुश्किल है; हिटलर-मुसोलिनी का समर्थन तो रह ही सकता है) । हमारे संविधान रचयिताओं का पांडित्य ऐसा है कि इस विषय की ओर उन्होने ध्यान तक नहीं दिया ।“ साभरकर तो बोल ही चुके थे कि वेदों के बाद उनके लिये सबसे अधिक श्रद्धा का ग्रंथ है ‘मनुस्मृति’ । जात-वर्ण-श्रम लेकर क्याकुछ लिखा है ‘मनुस्मृति’ में, वेद में, आप अवश्य ही अनेकों लेख में पढ़े होंगे । विशेष कर भारतविद सुकुमारी भट्टाचार्य के लेख पढ़े होंगे । विस्तृत चर्चा में जाने का अवसर नहीं है । क्या कह रहा है ‘मनुस्मृति’ ? ब्रह्मा के मुह, बाँहें, जांघ और दो पैरों से जने हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र (1/31) । शुद्र का एक ही काम है, ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों की सेवा करना (1/91) । शुद्र एक बार जने हैं । दो बार जनें आदमियों को लेकर कोई बात करने से उनकी जीभ काट ली जायेगी (8/270) । अगर छोटी जात का आदमी ब्राह्मण को उसका कर्त्तव्य समझाने लगे तो स्वयं राजा उस अपराधी के मुंह में और कान में गर्म तेल डाल देने की सजा सुनायेंगे (8/272) । राजा की ताकत के साथ धर्म का महामिलन इसे ही कहते हैं । ब्राह्मण अगर महाअपराध भी करे, ‘मनुस्मृति’ कहता है कि उसकी ‘हत्या नहीं की जा सकेगी । अधिक से अधिक देश-निकाले की सजा दी जा सकती है । उसकी सम्पत्ति अक्षुन्न रहेगी । शरीर निरापद रहेगा ।’ (8वाँ अध्याय/ श्लोक 80) ।

आर॰ एस॰ एस॰ मनुस्मृति मानता है । इसीलिये जाति का भेद भी मानता है । गोलवलकर ने इसे स्वीकार किया है । आज पूरे देश में दलित व जाति-व्यवस्था के निचले पायदान वाले लोग जिस तरह मारे जा रहे हैं, अत्याचारित हो रहे हैं तथाकथित ‘हिन्दुभक्तों’ के द्वारा, इसके बाद भी क्या जातिभेद पर आर॰ एस॰ एस॰ के नजरिये के बारे में कोई सन्देह की गुंजाइश रहती है?

‘मनुस्मृति’ औरतों को मनुष्य ही नहीं मानता है । हमेशा वे पुरुष के अधीन रहेंगे (9/2-17) । नौवें अध्याय में कई एक श्लोकों में नारी के प्रति चरम अपमान की भाषा है । भारतीय समाज में इसका गहरा प्रभाव है । राममोहन, विद्यासागर का काम इसीलिये आसान नहीं था । इतना कहना यथेष्ट नहीं कि ये समाज सुधारक थे । कहना होगा कि समाज सुधार के साहसी योद्धा थे राममोहन, विद्यासागर एवं और भी कुछ लोग । सबसे अधिक डरावनी बात है कि औरतें खुद भी, अपने ‘छोटे परिचय’ की बात सुनते सुनते अभ्यस्त हो रहे हैं, ‘मनुस्मृति’ पर भरोसा करना सीख रहे हैं । हाल में शबरीमाला मन्दिर में सभी उम्र की औरतों के प्रवेशाधिकार को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकृति दी है । दीर्घकालीन उपेक्षा का अन्त हुआ । केरल के राजमार्ग पर कई औरतें न्यायालय के इस फैसले के प्रतिवाद में उतरीं । संघ परिवार ने इनकी सोच एवं चेतना में सड़न पैदा कर दिया है । और एक गहरे सवाल के जवाब का खोज कर रहा है यह फैसला । पाँच न्यायाधीशों में से एक महिला थीं । उन्होने इस फैसले का समर्थन नहीं किया । चार-एक की बहुमत से फैसला हुआ है । हालाँकि उनका तर्क अन्धविश्वास वाला नहीं था । उनका कहना था कि राज्यसत्ता क्यों धर्म की दुनिया में हस्तक्षेप करेगी ? न्यायालय की राय का पूरा भाष्य देखने पर हम और अधिक विचार या विश्लेषण कर पायेंगे । एक सवाल विनीत भाव से करने का मन कर रहा है । न्यायव्यवस्था क्यों राज्यसत्ता का स्थान ग्रहण करेगा? संविधान किसी धर्म, जात, समुदाय, वर्ण या वर्ग का नहीं है । एक व्यक्ति मनुष्य के अधिकार एवं मर्यादाओं की रक्षा संविधान का काम है । वह काम किसी समुदाय (धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक जैसा भी हो) के हाथों में समर्पित किया जा सकता है? यहीं उठता है धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न । किसे कहा जाता है ‘सच्ची’ धर्मनिरपेक्षता? ‘सच्ची’ शब्द का इस्तेमाल करना पड़ रहा है क्योंकि संघपरिवार अक्सर वामपंथी एवं स्पष्टवक्ता धर्मनिरपेक्ष लोगों को ‘छद्म’ धर्मनिरपेक्ष कहकर गालियाँ देता है ।

 

साम्प्रदायिकता की वर्तमान कार्यप्रणाली

याद रखना होगा, आर॰ एस॰ एस॰ तथाकथित हिन्दु राष्ट्रीयतावाद के प्रचार का मूल केन्द्र है । इसके अधीन अनेकों संगठन हैं । नाना प्रकार के क्षेत्र में काम करते हैं ये । विचारधारा के प्रचार में अलग अलग तरीका अपनाते हैं । सरस्वती शिशु मन्दिर के नाम से पूरे देश में संघ असंख्य विद्यालय का परिचालन करता है । एक ही तरफ देखने की शिक्षा देते हैं ये विद्यालय । विज्ञान की शिक्षा की अवहेलना की जाती है । गलत इतिहास सिखाया जाता है । सन 1997 में आर॰ एस॰ एस॰ ने उनकी प्रकाशन संस्था (सुरुचि प्रकाशन) के माध्यम से ‘परम वैभव के पथ पर’ शीर्षक एक पुस्तक का प्रकाशन किया है । पुस्तक में कम से कम चालीस संघों के शाखा परिवार का परिचय है । मजदूर, किसान, छात्र, युवा सभी क्षेत्र में उन्होने संगठन बनाया है । किसानों के बीच ‘भारतीय किसान संघ’, मजदूरों के बीच ‘भारतीय मजदूर संघ’, छात्रों के बीच ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ के नाम से ये काम करते हैं । महिलाओं के बीच है आर॰ एस॰ एस॰ की तरह ‘राष्ट्रीय सेविका समिति’ । इसके अलावे ‘विश्व हिन्दु परिषद’, ‘स्वदेशी जागरण मंच’ और ‘बजरंग दल’ का नाम हमारे लिये परिचित है । शिक्षा के क्षेत्र में है उनका ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ एवं ‘विद्या भारती’ । जनकल्याण का चोगा पहन कर ये ‘सेवा भारती’ नाम का संगठन चलाते हैं । राजनीति के क्षेत्र में आर॰ एस॰ एस॰ ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया है । वर्ष 1998 के दो ताकतवर राजनीतिक व्यक्तित्व अटलबिहारी बाजपेयी एवं लालकृष्ण आडवानी संघ आर॰ एस॰ एस॰ से आये थे । वर्त्तमान प्रधानमंत्री खुद ही थे स्वयंसेवक । देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रहे हैं अस्थिरता के संदेश । उत्कर्ष के शिक्षा प्रतिष्ठान ध्वस्त हो रहे हैं । तर्कवाद पर हमले हो रहे हैं । संघ परिवार अंतत: संविधान को बदलना एवं हिन्दु राज्यसत्ता की प्रतिष्ठा करना चाहता है । उसके लिये योजना बना कर उन्होने दो कामों में हाथ लगाया है । देश के पौराणिक आख्यानों को देश का इतिहास घोषित कर जनता के बीच इन्हे मान्य बनाना होगा । यह पहला नम्बर का काम है । दूसरा काम है, भारत के धार्मिक सिद्धांतों को भारत का दर्शन कह कर जनता की सार्वजनीन स्वीकृति प्राप्त करनी होगी । इन दो कामों के सफल होने पर मस्तिष्क के सड़न का काम पूरा होगा । हिन्दू राज्यसत्ता के निर्माण का काम सुगम होगा ।

समकालीन स्वदेश में संघ परिवार के साथ हाथ मिलाई है औद्योगिक पूंजी एवं विश्वपूंजी । ‘स्वदेशी जागरण मंच’ नाम के एक संगठन का शोरशराबा सुनने को मिलता था एक समय । अब नहीं मिलता है । डोनल्ड ट्रम्प की अभिरुचि के आगे स्वदेश बिक गया है । काला धन लौटा कर लाने का वादा किया था संघप्रचारक, देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने । लगभग पूरा पैसा ही बैंक में जमा हो गया । कहाँ गया काला धन? प्रधानमंत्री निरुत्तर हैं । चारों तरफ जैसे ‘इमानदारी’ का नामयज्ञ चल रहा है । कैमरा में आप देखेंगे कि वे महानुभाव गड्डियों में रुपये ले रहे हैं, उच्च न्यायालय बोल रहा है कि फुटेज सच है, फिर भी वे बहाल तबीयत अपनी जगहों पर डटे हैं । संघ परिवार अस्त्रों से लैस कर बच्चों को रास्ते पर उतारते हैं और वे धमकी देते हैं – हम भी कम नहीं । भारत के समाज और संस्कृति में नहीं थे ऐसे असहिष्णुता के चित्र । जिनके चलते भारत को वर्तमान पृथ्वी पर पहचान मिली है, वे देश की धरती पर प्रति दिन राज्यसत्ता के द्वारा तिरस्कृत किये जा रहे हैं । औपचारिकता नहीं, रीति नहीं, आदर्श के कारण कट्टरपंथ एवं साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष करते हैं वामपंथी लोग । वह काम हमें करते जाना होगा ।

वर्ष 2014 में संसदीय चुनाव हुआ । 336 आसन जीत कर मोदी एवं उनका दल-बल सत्ता में आया । अब देश बदलने की बारी है । उस काम का निर्देश संघ परिवार ने दिया । भारत की सांस्कृतिक विविधता को ध्वस्त करना होगा, विविधता की सोच, धारणायें, संगीत, सिनेमा, कला, भोजन, भाषा… कला व संस्कृति की तमाम विविधताओं पर आघात करना होगा । लेखक कलाकारों ने प्रतिवाद किया । भारत के लगभग पचीस शख्सीयतों ने, जो सृजन के विभिन्न शाखाओं में काम करते हैं, राष्ट्रीय सम्मान लौटा दिया ।

दिसम्बर 2014

तमिल कवि एवं उपन्यासकार पेरुमल मुरुगन पर हमला हुआ । उन्होने फेसबुक पर लिखा, ‘This is P. Murugan writing for the person called Perumal Murugan. Writer Perumal Murugan is dead… All those who have bought his books are free to burn them.’ वर्ष 2015 के 5 जुलाई को मद्रास हाईकोर्ट ने कहा, ‘Come back to life and keep writing.’ अदालत आजादी की बात कर ही सकता है । समाज को उस आजादी की रक्षा करनी पड़ती है ।

फरवरी 2015

गोबिन्द पानसरे पर हमला । उन्हे जान देनी पड़ी ।

अगस्त 2015

एम॰ एम॰ कलबुर्गी पर हमला । उन्हे जान गँवानी पड़ी ।

सितम्बर 2017

गौरी लंकेश की हत्या हो गई ।

ऐसा नहीं कि इन घटनाओं के दौरान प्रतिवाद, प्रतिरोध नहीं हुये । तीन सौ से अधिक साहित्यिक बुद्धिजीवियों ने देश के विभिन्न प्रान्त से अपना प्रतिवाद जताया है । वर्ष 2013 के 20 अगस्त को पहली जान गई नरेन्द्र दाभोलकर की । अपराधी आज तक पकड़े नहीं गये । धीर कदम चल रही है राष्ट्र की ‘शुभबुद्धि’ । क्या इसे ‘शुभबुद्धि’ कहा जा सकता है ?

वर्ष 2016 में कुल 869 साम्प्रदायिक दंगे संघटित हुये हैं । यह तथ्य हमें दिया है नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्युरो । सालाना यह आँकड़ा उपर की ओर जा रहा है । देश में कोई रोजगार नहीं । बन्द हो रहे हैं एक के बाद कल कारखाने । इस समय किसानों एवं मजदूरों को संगठित कर आन्दोलन की रूपरेखा खींचनी पड़ेगी वामपंथियों को । रोटी-रोजगार की लड़ाई में रहने पर मजदूर-किसान साम्प्रदायिकता का शिकार नहीं बन पायेंगे । कुछेक किसान समावेशों ने दिखाया है कि आन्दोलन का निर्माण किया जा सकता है । दिल्लि में हुये अभूतपूर्व किसान-मजदूर जमावड़े ने भी दिखाया है । आश्चर्यजनक परिचय हो गया है हम भारत देश वासियों का । देश में धनकुबेरों की संख्या बढ़ रही है । पृथ्वी के धनकुबेरों को वे टक्कर दे रहे हैं । जबकि दूसरी ओर, किसान आत्महत्या कर रहे हैं । मजदूर बेरोजगार हो रहा है । नये रास्ते की दिशा वामपंथियों को ही ढूंढ़ निकालनी होगी ।

[सीपीआइएम पश्चिम बंगाल की प्रशिक्षण सामग्री से]



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