Wednesday, June 23, 2021

रस-सरोवर के राजहंस केदार नाथ बंदोपाध्याय (1863 – 1944) - चैताली राय

 जीवन के आखिरी पड़ाव पर जब 'दादामोशाई' केदार नाथ बंदोपाध्याय पूर्णियावासी एवं बिहारी हुये, तब तक बंगला साहित्य में वह प्रतिष्ठित साहित्यकार बन चुके थे । गोया कि वह 'बंगला साहित्य के भीष्म पितामह' हों । जीवित रहते वह छोटे-बड़े, तरूण या किशोर, सबके चहेते दादामोशाई थे । उम्र का बिना लिहाज किये सबको अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उनमें । शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी । रवीन्द्रनाथ का स्नेहाशीर्वाद भी खूब मिला उन्हे । उस जमाने के सभी साहित्यकारों के दिलों में उनका आसन श्रद्धा का था । उतने ही लोकप्रिय रचनाकार थे वह । बंगला भाषा व साहित्य के विशेषज्ञ असित कुमार बंदोपाध्याय ने उन्हे 'रस सरोवर का राजहंस' कहते हुये लिखा, “उनका सरस, सहज, सजीव मन विसंगतियों के भीतर कौतुक को ढूंढ लेता रहा ... उनकी भाषा-भंगिमा में एक किस्म का निरीह विट-ह्युमर हमेशा ही दिख जाता है ...” 'आत्मकथा' ग्रंथ में केदारनाथ ने अपने बारे में जो कहा है वह प्रासंगिक है, “उपदेश की बातें - 'सर्मन' खुद को ही अच्छा नहीं लगता है, देश में उसका अभाव भी नहीं । ... क्या लिखूँ ? अन्त में काफी सोचविचार कर जीवन, समाज एवं संसार की वेदनायें यथासंभव हास्यरस के आवरण में प्रकाशित करने की राह ढूंढता हूँ, कि अगर इस रास्ते से पाठकपाठिकाओं की  सहानुभूति हासिल हो ।" इस आत्मकथा में उन्होने और भी कहा, “मध्यवर्गीय भद्रजनों एवं भद्रपरिवारों का कष्टभरा जीवन मुझे हमेशा ही वेदना पहुँचाया है और आज भी वेदनादायक है, विशेषत: महिलाओं का दुखभरा जीवन, जो अपने दुख को अन्त:स्थल में रखकर प्रसन्नचित्त ढोती रही हैं और ढोती हैं।"

(1)

केदारनाथ बंदोपाध्याय का जन्म हुआ था बंगाल के (अभी कोलकाता शहर के अन्तर्गत) दक्षिणेश्वर में। जन्मतिथि, 15 फरवरी सन 1863। अपने पितृभूमि दक्षिणेश्वर में रहते हुये कुछ दिन वह दक्षिणेश्वर बंग विद्यालय, कुछदिन हुगली नदी के उसपार उत्तरपाड़ा एच ई स्कूल, फिर नदीयात्रा को लेकर माँ के भय के कारण कुठिघाटा स्कूल में पढे। फिर उसके बाद जो उन्होने बड़े भाई के साथ बंगाल छोड़ा तो पूरा जीवन बाहर ही बिता दिया। पहले मेरठ शहर में अपने बड़े भाई के पास रह कर स्थानीय विद्यालय में पढाई-लिखाई आगे बढाई। बड़े भाई की बदली अम्बाला हो जाने पर केदारनाथ वहीं एक अंग्रेजी स्कुल में भर्ती हुये। फिर जगह का परिवर्तन हुआ। भैया अब आ गये लखनऊ। केदारनाथ कैनिंग कॉलेजियेट स्कूल में भर्ती हुये। इस तरह भारत के विभिन्न अंचलों में जीवन बिताते हुये एक तरफ उनके व्यक्तिगत अनुभवों का संग्रह भरता गया तो दूसरी तरफ उनमें एक उदार मनोभाव का भी विकास हुआ। स्कूल की पढाई पूरी करने के पहले ही परिवार के दबाव के कारण नौकरी शुरु करनी पड़ी।

नौकरी सरकारी थी, वह अच्छे कर्मचारी थे एवं साहबलोग भी उनकी ईज्जत करते थे। पर नौकरी उन्हे कभी रास नहीं आई। बेशक, नौकरी-पेशा जीवन का पहला हिस्सा जब्बलपुर में बिताना उनके लिये स्मरणीय रहा। यहाँ रहते हुये उन्हे भरपूर साहित्य की चर्चा करने एवं नाटकों में अभिनय करने का अवसर मिला। फिर बॉक्सर युद्ध (भारत का नहीं, चीन का बॉक्सर या 'इहेतुअन' आन्दोलन जो 1899-1901 इसवी में घटित, विदेशी-विरोधी, उपनिवेशवादविरोधी एवं इसाईधर्म-विरोधी एक जन-अभ्युत्थान था) में अंग्रेज सरकार ने हिन्दुस्तान से जो फौज भेजे, उसके साथ असैनिक सरकारी कर्मचारी भी कुछ भेजे गये, बाद में, सन 1902 में केदारनाथ भी उनमें शामिल किये गये। इस चीनयात्रा के अन्तरराष्ट्रीय अनुभवों  पर आधारित उन्होने एक यात्रावृत्तांत लिखा। मनोरम, सरस व सुखपाठ्य इस यात्रावृत्तांत का प्रकाशन काफी बाद में, सन 1925 में हुआ।

सन 1905 में चीन से लौटने के उपरांत सरकार ने उनकी पोस्टिंग कानपुर में की। नौकरी के खिलाफ उनके मन में द्वेष और उभरने लगा था। बल्कि गुस्से में आकर उन्होने लिखना भी कम कर दिया था। हालाँकि कानपुर में भी उन्हे प्रवासी बंगलाभाषी साहित्यकारों एवं विद्वतजनों की अच्छी संगत मिली, कुछ काम भी शुरु करने वाले थे पर वह अधुरा रह गया - उनकी बदली कोलकाता हो गई। भीतर से वह अस्थिर हो चुके थे। सेवानिवृत्त होने के लिये अभी सात साल इन्तजार करना पड़ता। वह सीधा अपने बड़े साहब के पास गये और बोले कि साहब, मुझे अब नौकरी करनी नहीं। वह अंग्रेज अधिकारी, जो उनके प्रति काफी स्नेह रखता था, चौंक कर पूछा, क्यों, क्या बात हुई?  मैं ब्राह्मणसन्तान हूँ साहब, न धर्मकर्म, न सेवा... कुछ भी तो ठीक से कर नहीं पाया जीवनभर। साहब पूछे, उसके लिये इतना बड़ा त्याग? तुम्हारा पेंशन तीनगुणा हो जायेगा अगर वक्त पर रिटायर करोगे तो। केदारनाथ बोले, “सारा जीवन कम्फर्ट-सिकिंग (आराम की तलाश) में बीता। अब इस काम में त्याग ही पहला सोपान है, अगर कम में जीवन नहीं बिता सकूँ मैं, त्याग का आनन्द अगर मेरी सहायता न करे तो मैं समझूंगा मेरे संकल्प में सत्य नहीं है।"

सन 1909 के नवम्बर में केदारनाथ काशी गये, 1910 के मई महीने में वहीं से मेडिकल सर्टिफिकेट भेज कर सेवानिवृत्त हुये। हालांकि इस काम में उक्त अंग्रेज अधिकारी ने, जिन्होने केदार को आश्वासन दिया था, उनकी काफी मदद की। 

(2)

अपने काशीप्रवास के अनुभवों को लेकर उन्होने अपने विख्यात हास्यकौतुकमय काव्य की रचना की, “काशीर किंचित"। समसामयिक काशी का इतना सजीव चित्रण बिरले ही मिलता है। जबकि संकोच के कारण उन्होने सन 1915 में इसके प्रकाशन के समय लेखक का नाम दिया नन्दी शर्मा। इस कृति की बहुत चर्चा हुई एवं शुभार्थियों ने उन्हे और लिखने को कहा। बस, उनकी लेखनी खुल गई। सन 1925 में 'चीनयात्री' के अलावे प्रकाशित हुआ उपन्यास 'शेष खेया''आमरा की ओ के' शब्दचित्र भी 1925 में प्रकाशित हुआ। 'कबलूति' शीर्षक शब्दचित्र सन 1928 में प्रकाशित हुआ। सन 1929 में प्रकाशित हुआ उपन्यास 'कोष्ठिर फलाफल' एवं गल्पसंग्रह 'पाथेय' 1930 में प्रकाशित हुआ। सन 1931 में प्रकाशित हुआ उपन्यास 'भादुड़ी मोशाय', सन 1932 में कथासंग्रह 'दु:खेर देवाली' तथा 1934 में कौतु्ककविताओं का संग्रह 'उड़ो खोइ' प्रकाशित हुआ। सन 1935 में प्रकाशित हुआ उपन्यास 'आइ हैज', 1936 में उपन्यास 'पाओना' तथा 1936 में ही कथासंग्रह 'मा फलेषु' 

कोई स्पष्ट तथ्य तो नहीं है पर उनकी पत्नी के निधन की तिथि (2 जुलाई 1939) को देख कर प्रतीत होता है कि दो-तीन वर्ष वह पारिवारिक तौर पर परेशान रहे होंगे। उनके पुत्र नहीं थे, एक कन्या थी जिसका विवाह वह पूर्णिया में कर चुके थे। अब तक तो काशी में ही जीवन व्यतीत हो रहा था। हाँ, समसामयिक सभी लेखकों से उनकी अच्छी मित्रता थी। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय से तो इतनी अधिक मित्रता थी कि एकबार बीमार पड़ने पर शरतचन्द्र खुद काशी चले आये उनसे मिलने। शरतचन्द्र के घर सामताबेड़े तो वह नहीं जा पाये पर दोनों मिलकर एकसाथ रवीन्द्रनाथ से मिलने गये थे। उधर अतुल प्रसाद सेन लखनऊ में थे और केदारनाथ चले जाते थे उनके साथ बैठकर बातचीत करने के लिये। उनका जो एकमात्र संक्षिप्त आत्मचरित है उसकी रचना उन्होने सन 1940 में की थी जिसमें आखरी सूचना पत्नी की मृत्यु की है। उस आत्मचरित के नीचे रचना का स्थान दुमका लिखा हुआ है। आजीवन घुमन्तु इस रचनाकार को अकेलेपन ने जकड़ लिया होगा पत्नी के मृत्यु के बाद। कोइ तारिख, कोइ वर्ष स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि सन 1940 के बाद कभी वह पूर्णिया चले आये होंगे अपने बेटी-दामाद के पास।

सन 1940 में प्रकाशित हुआ उनके कहानियों का संग्रह 'संध्याशंख', जबकि कहानियों का अगला संग्रह 'नमस्कारी' सन 1944 में प्र्काशित हुआ। 1945 में प्रकाशित हुआ 'स्मृतिकथा'

ग्रंथ के रूप में प्रकाशित उपरुल्लिखित रचनाओं के अलावे भी केदारनाथ बंदोपाध्याय की बहुत सारी रचनायें 'संसार दर्पण', 'भारतवर्ष', 'उत्तरा', 'शनिबारेर चिठी' आदि तत्कालीन सुविख्यात पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है उनका पहला प्रकाशित (1893) ग्रंथ, 'रत्नाकर' शीर्षक एक नाटक। लेकिन इस नाटक का मंचन नहीं हो सका। क्योंकि, इस नाटक के शुरू में ही दस्यु रत्नाकर के द्वारा ब्रह्महत्या किये जाने का दृश्य है और कोई भी नाट्यनिर्देशक इस दृश्य को मंचस्थ करने का हिम्मत नहीं जुटा पाये। बाद के दिनों में उनका एक और नाटक 'मोहमुक्ति' 'भारतवर्ष' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उस नाटक का भी पुस्तकाकार में प्रकाशन नहीं हुआ। हालाँकि नौकरी के प्रारंभ में जबलपुर में उनका नाटकों के साथ अच्छा रिश्ता बना था। अभिनय भी करते थे। फिर भी, बाद के दिनों उन्हे महसूस हुआ होगा कि नाट्यलेखन शायद उनका क्षेत्र नहीं है। इसलिये नाट्यलेखन का प्रयास त्याग कर उन्होने कहानी, उपन्यास, ललित निबन्ध एवं यात्राकथाओं के लेखन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

(3)

केदारनाथ बंदोपाध्याय के सृजन-सम्भार में उनकी श्रेष्ठ कीर्ति की खोज करने पर दुविधा का सामना करना पड़ता है। रसिक साहित्यकार, विहार-गौरव, बिहार बंगला अकादमी के पहले अध्यक्ष दरभंगा निवासी विभूति भूषण मुखोपाध्याय का कहना था कि उनके दो ग्रंथों, 'कोष्ठीर फलाफल' एवं 'आमरा की एबों के' को चुनना पड़ेगा। उधर बंगला साहित्य के प्रख्यात अध्यापक एवं आलोचक असित बंदोपाध्याय के अनुसार 'भादुड़ी मोशाय' एवं 'आइ हैज' श्रेष्ठ है। हमारी राय में केदारनाथ की रचनाओं में से अधिकांश ऐसी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हर एक रचना किसी न किसी विशिष्टता का धारक व वाहक है। केदारनाथ जिस युग के थे वह पुराने से नये में प्रवेश करने का युग था। नई चेतना का उन्मेष हो चुका है, उसका विकास भी हो रहा है लेकिन पुराने का प्रभाव अभी पूरी तरह से हटा नहीं है। केदारनाथ की रचना में नये एवं पुराने का एक सामंजस्य परिलक्षित होता है। यह भी परिलक्षित होता है कि उनकी रचनाओं में आम आदमी की प्रधानता है। अपने जीवन में केदारनाथ निरन्तर संघर्षशील रहे हैं। कम उम्र से जीविका के लिये यथार्थ की पथरीली राह पर चलनी पड़ी है। बार बार शहर बदलने पड़े हैं। देश के कई स्थानों में रहने का अनुभव उनकी झोली में जमा होते गया है। जीविका के सुदूर चीन की भी यात्रा करनी पड़ी। उस जमाने में यात्रायें सरल और सुगम नहीं होती थी। फिर भी, यात्रा के कष्टों का वर्णन नहीं करके अपने 'चीनयात्री' ग्रंथ में सरस, कौतुकरस से ओतप्रोत अनुभवों का वर्णन कर उन्होने पाठकों का दिल जीत लिया।

'भादुड़ी मोशाय' उनका एक उल्लेखनीय रचनाकर्म है। यह बड़ा उपन्यास उस समय पाँच साल तक मासिक 'बसुमती' पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित होता रहा। पाँच वर्षों तक पाठकों के आग्रह को बनाये रखने में सफलता उनकी कला-प्रतिभा का बैरोमीटर है। यह उपन्यास बड़ी आकृति की रोमान्टिक कॉमेडी है। जबकि, जिन पात्रों एवं घटनाओं के माध्यम से कहानी आगे बढता है उसकी बुनियाद है व्यक्ति-जीवन व समाज-जीवन की विसंगति एवं विकृतियों का सजीव चित्रण। सिर्फ कौतुकरस के सहारे एक दीर्घ उपन्यास की रचना कदापि संभव नहीं। केदारनाथ इस रचना में कथावस्तु की धारावाहिकता एवं पात्रों के सूक्ष्म तानेबाने के माध्यम से सारगर्भित परिणति तक पहुँचे हैं। हास्यरस के साथ परोक्ष ढंग से उन्होने मानवीय संवदनाओं का मेल किया है। वह सिर्फ हास्यरस के कारोबारी नहीं थे, समाजजीवन की वेदना से भरे अनुभवों से समृद्ध इस प्राज्ञ इन्सान के कलम से साहित्य-स्रोत का जो प्रवाह अनायास गति से अग्रसर हुआ है उसका रसावेदन हमें चमत्कृत करता है। लेखक, केदारनाथ खुद अपने बारे में जो लिखते हैं वह इस प्रसंग में महत्वपूर्ण है, “ मैं तो गरीब देश के दस आदमियों में से एक हूँ - जन्म से ही मुझे दुख और कष्ट होकर रास्ता बनाते हुये पार जाने की कोशिश करनी पड़ी। इसलिये पुलाव-कालिया भी खा सकता हूँ और मुढी खाकर गमछा पहने सहजता के साथ जीवन व्यतीत कर सकता हूँ।" आनन्द-वेदना, आलोक-अंधकार, ज्वार-भाटे के समन्वय से बना उनका जीवनदर्शन उनके लेखन में सब जगह परिदृष्ट होता है। 'भादुड़ी मोशाय' में भी उस जीवनदर्शन का प्रतिफलन देखने को मिलता है।

कई आलोचक 'आई हैज' को विशुद्ध उपन्यास के रूप में स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। वैसे, उपन्यास के तौर पर ही साहित्य के इतिहास में इसकी चर्चा होती आई है। कुछ आलोचकों का कहना है कि यह दर-असल यात्रावृत्तांत एवं लिपिचित्र (पेन-पिक्चर) का मिलाजुला रूप है। इसमें कई पात्र हैं। सबकी अपनी अपनी कहानी है। जबकि प्रधान पात्र के रूप में लेखक खुद, निर्लिप्त, निरासक्त ढंग से  लोकयात्रा देख रहे हैं। उपन्यास में 'आई हैज' एवं 'आई सन' इन दो गलत अंग्रेजी शब्द बंधों को कौतुक व व्यंग के साथ इस्तेमाल किया गया है। उपन्यास का एक चतुर पात्र हरगोविन्द छोटे लाटबहादुर से अपना काम, जानबूझकर गलत अंग्रेजी बोल उन्हे खुश कर हासिल कर लेता है। अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उत्तीर्ण बेटे के लिये डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर नौकरी मांगते हुये छोटे लाटसाहब से हरगोविन्द कहता है, “इट इज आई सन।" लाटसाहब खुश होकर कहते हैं, “इट इज यु सन हरगोविन्द, वेरी वेरी ग्लैड - आई शैल सी ही गेट्स डेपुटी माउन्टेनशिप" (यानी डिप्टी मैजिस्ट्रेट का पद, डिप्टी माउन्टेनशिप शब्द का इस्तेमाल हरगोविन्द ने किया था, साहब ने उसी की भाषा में जबाब दिया)। शिक्षित बेटा बाप के इस अजीब अशुद्ध भाषा के प्रयोग से क्षुब्ध था। बाप ने कहा, “अगर होगा तो उसी 'आई सन' से ही होगा। तुम अपने बेटे को नौकरी दिलाने के समय 'माई सन' बोलना - चपरासी की नौकरी भी नहीं मिलेगी"

हरगोविन्द मुर्ख नहीं थे। वह जानते थे कि खाँटी अंग्रेज साहब लोग नेटिव की जुबान से खाँटी 'किंग्स इंग्लिश' सुनने के आदी नहीं हैं। बल्कि अशुद्ध 'पिजिन इंग्लिश' सुनने के आदी हैं।

कहीं अन्यत्र हरगोविन्द कहते हैं, “हमलोगों का 'आई' जैसा कुछ नहीं है रे, सब 'इट' है. थर्ड पर्सन सिंगुलर। इतने दिनों से तुने देखा क्या? 'आई' बस हमारे झूठे अभिनय का मुखौटा है।"

 

'कोष्ठीर फलाफल' की यात्रा शुरु होती है पूर्णिया में, खत्म होती है देवघर या वैद्यनाथधाम में। इस यात्रापथ पर जो कुछ भी दृष्टिगोचर हुआ, जैसे पात्र व घटनाये, उन सभी का सरस चित्रण करते हुये दृश्य से दृश्यान्तर में आगे बढा है उपन्यास। वर्णन में इतनी सरसता है, पर्यवेक्षण में इतना नयापन है कि वह पाठकों को चुम्बकीय आकर्षण में बन्दी बना लेता है। चलती हुई रेलगाड़ी, भीड़ से भरा स्टेशन, गंगावक्ष पर स्टीमर, जसिडीह में ट्रेन बदलना, धाम पर पहूँचकर देवदर्शन, पंडों का दल, फल का बागीचा, डाकघर में  चिट्ठी के इन्तजार में सुबह सुबह बैठे स्वार्थी बाबुओं का जमावड़ा, सब कुछ अति सरस भाषा में वर्णित हुआ है।

(4)

दिन प्रतिदिन का घटनाप्रवाह हमारी आँखों के सामने ही घटित होता रहता है, हमलोग उन पर नजर भी नहीं डालते हैं, एक सक्षम रसग्राही लेखक उन घटनाओं की विशिष्टता हमारी दृष्टि में ले आता है। साधारण की भीड़ में असाधारण को ढूंढ लेने की प्रतिभा जिस लेखक में है उसे ही सफल शिल्पी कहा जा सकता है। केदारनाथ बंदोपाध्याय में वह प्रतिभा थी। उनकी हर एक रचना में रसों का, कभी न खत्म होने वाला भंडार है।

केदारनाथ के हास्यरस का विश्लेषण करते हुये बिहार विश्वविद्यालय के दिवंगत अध्यापक डा: नन्ददुलाल राय, 'बिहार में बंगला साहित्य' ग्रंथ में लिखते हैं, “विट, श्लेष, अनुप्रास व यमक का इस्तेमाल एवं इंगितमय वाचनभंगिमा- हास्यरस के सृजन के लिये केदारनाथ के यही औजार हैं। बुद्धि की दीप्ति से उद्भासित है यह हास्यरस। इसमें कल्पना की उड़ान या सोद्येश्यता की कोई जगह नहीं है।"

 सोद्येश्यता जो दिखे वह कला के लिये क्षतिकारक होता है। पर कोई भी बड़ा लेखक सिर्फ मनोरंजन के प्रति समर्पित नहीं रह सकता है। समाजजीवन की विसंगतियाँ, आदमी के छद्म के सही सही चित्रण के पीछे रहता है स्वस्थ, सशक्त, सकारात्मक, परिस्कृत समाज के निर्माण का आग्रह। विदूषक तो यही करते हैं। मीठे खोल के भीतर कड़वा कुइनाइन खिलाकर रोगी को रोगमुक्त करने की कोशिश करते हुये चिकित्सकों के साथ ऐसे लेखकों की तुलना की जा सकती है। केदारनाथ को विदूषक या अच्छे चिकित्सक के साथ तुलना करना शायद गलत नहीं होगा।    

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद – विद्युत पाल

ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित “बिहार के गौरव – खन्ड 2” से साभार          

 



No comments:

Post a Comment