Wednesday, June 23, 2021

सांस्कृतिक मोर्चे पर कार्यभार

 फरवरी 28, 2020

(दिनांक 14-16 अक्तूबर, 2017 की केन्द्रीय कमिटी बैठक में हुई विचार-विमर्श के उपरांत पॉलिटब्युरो द्वारा संशोधित)

1॰

1॰1   संस्कृति का कार्यक्षेत्र, मनुष्य के समूचे सामाजिक जीवन की सभी अभिव्यक्तियों को समेट लेता है। संगीत, नृत्य, मूर्तिशिल्प, साहित्य इत्यादि विभिन्न रूपों में होती कलात्मक अभिव्यंजनाओं में संस्कृति सीमित नहीं है। संस्कृति जिये हुए जीवन की पूर्णता का प्रतिनिधित्व करता है – विभिन्न कलात्मक अभिव्यंजनाओं के अतिरिक्त, आचरण, हाव-भाव, आदतें आदि से भी यह ताल्लुक रखता है। सांस्कृतिक मोर्चे पर हस्तक्षेप का अर्थ है कि हम हर समय, विचारों के युद्ध में शामिल होते हैं और हमारा लक्ष होता है मानव की मुक्ति एवं आदमियों के द्वारा आदमियों का एवं राष्ट्रों के द्वारा राष्ट्रों के शोषण की समाप्ति।

1॰2   वर्गीय ताकतों के सन्तुलन का मौजुदा संयोग, अन्तरराष्ट्रीय तौर पर एवं घरेलू तौर पर भी राजनीतिक दक्षिणपंथ के पक्ष में चला गया है। यह राजनीतिक दक्षिणपंथ, मुक्तिकामी जनता, राजनीतिक वामपंथ एवं सभी किस्म की प्रगतिशील, जनवादी एवं धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के खिलाफ एक द्वेषपूर्ण वैचारिक आक्रमण छेड़ रखा है।

1॰3   चरम पूंजीवादी शोषण के लिए बस एक खूबसूरत छद्म-शब्द है नव-उदारवाद, जिसकी वैधता और सफलता को पूरी तरह से नकार दिया है अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर, वैश्विक पूंजीवाद का वर्तमान में जारी संकट। फिर भी, अधिकतम मुनाफे को बनाये रखने के लिए वैश्विक पूंजीवाद, मानवजाति एवं प्रकृति के निर्मम एवं अंध शोषण के द्वारा पाशविक ‘आदिम धन-संग्रह’ की प्रक्रिया को गहन करते हुए, नव-उदारवाद के रास्ते पर ही चल रहा है। नव-उदारवाद के खिलाफ बढ़ता हुआ जन असंतोष इतना व्यापक है कि इसमें पूंजीवादी व्यवस्था को ही चुनौती देने की क्षमता है। इसी को बाधित करने हेतु खड़े किए गए एक वैचारिक-सांस्कृतिक निर्माण के आधार पर, राजनीतिक दक्षिणपंथ की ओर झुकाव आवश्यक हो जाता है। इस वैचारिक-सांस्कृतिक निर्माण की जरूरत होता है नस्ल, धर्म, जाति, रंग या किसी भी ऐसे दूसरे पहलू पर घृणा का फैलाव जिसमें जनता को विभाजित करने की क्षमता होती है। नतीजे में पैदा होते असहिष्णुता, घृणा, विदेशियों से द्वेष आदि का प्रतिफलन संस्कृति के क्षेत्र में होता है। सांस्कृतिक मोर्चे पर आज विचारों का यही संग्राम है जिसमें, राजनीतिक दक्षिणपंथ की संस्कृति को पराजित करने के लिए हमें अवश्य शामिल होना होगा।

1॰4   मौजूदा आरएसएस/भाजपा नेतृत्वाधीन भारतीय राज्यसत्ता, भारतीय राजनीति में स्पष्ट दक्षिणपंथी बदलाव को संस्थागत रूप दे रहा है। जिसके चलते चौतरफा हमले को अंजाम देने के लिये, नव-उदारवादी आर्थिक नीतियोँ एवं उत्साहित साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का मेल हो रहा है। वैचारिक स्तर पर इस हमले का लक्ष्य है भारत के समृद्ध समन्वयात्मक सभ्यता के इतिहास को हिन्दु पुराणकथाओं से एवं भारतीय दार्शनिक परम्पराओं को हिन्दु धर्मशास्त्र से बदल देना। इसके द्वारा मुख्यत:, यह हमला, हमारे संविधान में दर्ज आधुनिक भारत के उन नींवोँ को ही नकारना चाहता है जिनका विकास, स्वतंत्रता के लिए भारतीय जनता के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में हुआ था। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियोँ एवं उत्साहित साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के मेल पर आधारित हमलों की ये प्रक्रिया, उस आधुनिक भारतीय प्रजातंत्र को कमजोर करना चाहती है जिसकी बुनियाद पर भारत में वर्ग संघर्ष क्रांतिकारी रूपांतर के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बढ़ रहे हैं। इस तरह, सांस्कृतिक मोर्चे पर संग्राम, हमारे समय की ठोस परिस्थितियों में, वर्ग संघर्षों को आगे बढ़ाने का ही काम है। अंतिम विश्लेषण में, सामाजिक बदलाव के क्रांतिकारी अस्त्र को तेज और मजबूत बनाना ही आज की जरूरत है। लेनिन ने पूछा था, “क्या यह एक तथ्य नहीं है कि सिद्धांत के कार्यभार को, विज्ञान के उद्देश्य को यहाँ, वास्तविक संघर्ष में उत्पीड़ित वर्ग की मदद के रूप में परिभाषित किया गया है”। (लेनिन, रचनासमग्र, खण्ड 1, पृष्ठ 327-8) ‘सिद्धांत’ एवं ‘विज्ञान’ दोनों ही, संस्कृति की सामासिक समझ के हिस्से हैं।

1॰5   मार्क्स एवं एंगेल्स ने कहा था, “शासक वर्ग के विचार हर युग में शासक विचार होते हैं: यानि, जो वर्ग समाज की शासक भौतिक शक्ति है, वही समाज की शासक बौद्धिक शक्ति है। भौतिक उत्पादन के साधनों का नियंत्रण जिस वर्ग के पास होता है, परिणामस्वरूप, मानसिक उत्पादन के साधनों को भी वही नियंत्रित करता है। इसके चलते, सामान्यत:, उसके अधीन होते हैं वे जो मानसिक उत्पादन के साधन से वंचित हैं। शासक वर्ग में शामिल व्यक्तियों के पास अन्य चीजों के साथ साथ चेतना भी होती है और नतीजे के तौर पर वे सोचते हैं। इसलिए, जहाँ तक एक वर्ग के रूप में वे शासन करते हैं और एक ऐतिहासिक युग का काल और विस्तार निर्धारित करते हैं, यह स्वत: प्रमाणित है कि यह काम वे इसकी पूरी व्याप्ति में करते हैं। अत:, अन्य पहलुओं के साथ साथ वे चिन्तकों के रूप में विचारों के उत्पादक के रूप में भी शासन करते हैं और अपने युग विचारों के उत्पादन एवं वितरण को नियंत्रित करते हैं; इस तरह उनके विचार युग के शासक विचार होते हैं।” (जर्मन आइडिओलॉजी, मॉस्को, 1976, शब्दों पर जोर हमारा)

1॰6   आन्तोनिओ ग्राम्शी व्याख्या करते हैं, कि शासक वर्गों के विचारों के आधिपत्य को सिर्फ राज्यसत्ता ही लागू नहीं करता है। राज्यसत्ता तो सिर्फ ‘बाहरी खाई’ है जिसके पीछे ‘किलों और मिट्टी के बांधों’ की एक शक्तिशाली व्यवस्था खड़ी रहती है - सांस्कृतिक संस्थाओं एवं मूल्यों का एक तंत्र जो शासक वर्गों के आधिपत्य को मजबूती प्रदान करता है।

1॰7   यह आधिपत्य सामाजिक सम्बन्धों के एक जटिल मकड़जाल एवं उसके फलस्वरूप बने सामाजिक ढाँचों के माध्यम से प्रेषित होता है। परिवार, समुदाय, जाति, धर्म और धार्मिक क्रियाओं की जगहें वे संस्थाएँ हैं जो मूल्यों एवं अभिमतों को वैसा रूप देने के लिये सक्रिय रहते हैं जिससे विचारों पर शासक वर्ग का आधिपत्य और ज्यादा मजबूत हो। इस प्रक्रिया में वे ‘सामान्य संस्कृति’ का मिथक तैयार करते हैं। यह ‘सामान्य संस्कृति’, वर्ग आधिपत्य के मूल्यों का, ‘सामान्यबोध’ के नाम पर चयनित प्रसार के अलावा कुछ भी नहीं है।

1॰8   सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारे हस्तक्षेप को अवश्य ही समय की सांस्कृतिक भाषा के माध्यम से, उन अनुभूतियों एवं अनुभवों के माध्यम से क्रांतिकारी आन्दोलन को उत्प्रेरित करना होगा; जिन्हे क्रांतिकारी वर्ग खुद संग्रह नहीं करते हैं या अक्सर करने में सक्षम नहीं होते। ‘नई संस्कृति’ के सृजन के माध्यम से समाज पर एक ऐसा प्रतिवादी-आधिपत्य तैयार करना जो न सिर्फ उत्पादन के सम्बन्धों को बल्कि राज्यसत्ता (राजनीतिक समाज) एवं नागरिक समाज को भी समाहित कर ले, सफल क्रांतिकारी रूपांतरण के लिये अनिवार्य आवश्यकता है। सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारे कार्यकर्ता, हमारे समय में, व्यवहारिक जीवन में सक्रिय तौर पर भाग लेते हुए, मौजूदा सामाजिक सम्बन्धों को कमजोर करने के लिए ठीक वैसा ही एक प्रतिवादी-आधिपत्य का सृजन करते हैं। इस तरह वे विचारों के उत्पादन के आवश्यक संघटक अंग हैं और विचार, जैसा कि मार्क्स ने एक बार कहा था, “आम जनता के चित्त में बैठते ही भौतिक शक्ति बन जाती है”। (कार्ल मार्क्स, फ़्रेडरिक एंगेल्स, रचनासमग्र, खण्ड 3, पृष्ठ 182}

1॰9   शासक वर्गों के पूर्ण आधिपत्य की अभिव्यक्ति के रूप में संस्कृति, जैविक बुद्धिजीवियों के विकास का एवं मानव अस्तित्व की पूर्णता में, मानवीय सार-स्वरूप उनके द्वारा सृजित प्रतिवादी-आधिपत्य के विकास का क्षेत्र है।

      प्रकृति एवं सहचर मानवों के साथ अंत:क्रिया के परिणामस्वरूप मानवीय तृप्ति के बहुविध प्रकार को इन्द्रियगत पुष्टि, अनुभूति, आचरण, आनन्द एवं कलात्मक सृजनों के विभिन्न चेहरों में अभिव्यंजना प्राप्त होता है। प्रतिवादी-संस्कृति के तत्वों को स्थित कर, शासक वर्गीय बौद्धिक ‘वस्तुओं’ का निषेध भी तृप्ति के वैसे प्रकार में शामिल होता है। ऐसा करते हुए, सांस्कृतिक कार्यकर्ता प्रतिवादी-आधिपत्य के ढाँचों को खड़ा करते हैं। वैसी पुष्टियों की समग्रता, यानि, मानवीय तृप्ति के बहुविध प्रकार की समग्रता को सर्जनात्मक गतिविधियों के सभी रूपों में अभिव्यक्ति मिलती है – उन्ही अभिव्यक्तियों की समग्रता ही अन्तत: क्रांतिकारी आन्दोलन की उस ‘संस्कृति’ को संस्थापित करती है जिसे हम ‘प्रतिवादी’ कह सकते हैं।

1॰10  वैसी संस्कृति हमेशा अस्तित्व की भौतिक शर्तों पर आधारित होती है। उत्पादन एवं उपभोग पर लिखते हुए मार्क्स कहते हैं, “उत्पादन न सिर्फ एक जरूरत के लिये सामग्री की आपूर्ति करता है बल्कि सामग्री के लिए भी एक जरूरत की आपूर्ति करता है। उपभोग ज्यों ही नैसर्गिक भोंडेपन एवं तात्कालिकता के अपने शुरुआती स्तर से बाहर निकलता है, वह खुद वस्तु के चलन द्वारा मध्यस्थित हो जाता है। अगर ऐसा नहीं होता है, यानि उपभोग उसी शुरुआती स्तर में रह जाता है, उसका कारण होता है कि खुद उत्पादन ही उसी स्तर पर रुका हुआ होता है। वस्तु के प्रति उपभोग जो जरूरत महसूस करता है उस जरूरत को बनाता है वस्तु की प्रतीति। कला का वस्तु – किसी भी दूसरे उत्पाद की तरह – एक जनसमूह को तैयार करता है जो कला के प्रति संवेदनशील होता है एवं सौन्दर्य का आनन्द लेता है। इस तरह, उत्पादन सिर्फ विषयी के लिए एक विषय नहीं बल्कि विषय के लिए एक विषयी भी तैयार करता है । इस तरह, उत्पादन उपभोग को पैदा करता है (1) उसके लिए सामग्री तैयार कर; (2) उपभोग के तरीके को निर्धारित कर, और (3) पहले वस्तुओं को सामने रखने के द्वारा, उनके पति उपभोक्ता की जरूरत-रूपी उत्पादों को तैयार कर। इस तरह उत्पादन, उपभोग के वस्तुओं को पैदा करता है, उपभोग के तरीके को पैदा करता है तथा उपभोग के उद्देश्य को पैदा करता है। (ग्रुन्डिसे, पृष्ठ 92)। यह भौतिक उत्पादों के लिये जितना सत्य है, बौद्धिक उत्पादों के लिए भी उतना ही सत्य है।

1॰11  ‘हिन्दुत्व’ की संस्कृति के कुछ ऐसे पहलु हैं जो उतने जाहिर नहीं हैं लेकिन भारतीय राजनीति के दक्षिणपंथी झुकाव के उत्पाद हैं, जिन्हे शासक वर्गीय सांस्कृतिक आधिपत्य के क्षेत्र के बड़े मुद्दों के साथ तैयार किए जा रहे हैं।

1॰12  आधुनिकता बनाम अधुनाई-नशा: समानता का बोध एवं दूसरों के लिए फिक्र को भी आधुनिक समाज में संस्कृति का पारिभाषिक चरित्र माना जाता है। ऐसा नहीं कि एक आधुनिक समाज में सभी वास्तविक तौर पर समान होते हैं। फिर भी, लोगों में मौजूद अनेकों भिन्नताओं के बावजूद, आधुनिकता एक आधारभूत समानता की मांग करती है ताकि लोग सम्मान के साथ जी सकें एवं अपने अस्तित्व की स्थितियों को बेहतर करने के अवसरों को वास्तविक तौर पर इस्तेमाल कर सकें। समानता की इसी आधारशिला पर दूसरी भिन्नताओं एवं असमानताओं को जोड़ा जा सकता है। लेकिन इस आधारभूत समानता को कमजोर नहीं किया जा सकता है क्योंकि आधुनिक समाजों में इसी पर नागरिकता के दावे किए जाते हैं। सामंती प्रणालियों में शासक और प्रजा थे लेकिन नागरिक नहीं थे।

      एक ईरानी बुद्धिजीवी ने, अमीरों द्वारा फैशनवाले ब्रांड के कपड़े और अत्याधुनिक यंत्रों के इस्तेमाल किए जाने को देख कर, ‘पश्चिमीकरण’ के विरूद्ध एक शब्द बनाया था ‘पश्चिमाई-नशा’। इसे भारतीय प्रसंग में लागू किया जा सकता है – आधुनिकता बनाम अधुनाई-नशा । अत्याधुनिक मालों एवं यंत्रों के आधुनिक उपभोक्तावादी दिखावे को आधुनिकता बताया जा रहा है। यह भारत की, जी-20 के मंच पर विश्व-शक्तियों के कंधों से कंधे मिलानेवाली ‘उभरती अर्थव्यवस्था’ का प्रतीक बन गया है। अखबारों में विवाह-सम्बन्धी विज्ञापनों पर एक नजर दौड़ाने से दिखता है कि हमारे समाज के सबसे अधिक ‘आधुनिक’ हिस्से, यहाँ तक कि वे अनिवासी भारतीय भी जिन्होने कभी भारत की धरती पर कदम नहीं रखा है, अपनी उपजातियों में विवाह-बंधन ढूंढ़ते है। यही संस्कृति, आधुनिकता की नहीं, नशाधुनिकता की

है। दक्षिणपंथी राजनीतिक झुकाव को यह प्रशंसनीय ढंग से आश्रय प्रदान करता है।

आधुनिकता की ओर भारत की अग्रगति सिर्फ पुरानी संस्थाओं जैसे जाति-आधारित सामाजिक उत्पीड़न, पितृतांत्रिक व्यवस्था, खाप पंचायतें, धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव आदि की दृढ़ता के कारण बाधित नहीं हो रही है। इन पुरानी संस्थाओं को जीवित रख रहे हैं और आश्रय प्रदान कर रहे हैं नव-उदारवादी उपभोक्तावाद के मूल्य, जिसके तहत औरतों के साथ प्रदर्शन, अधिकार एवं शोषण के वस्तु की तरह आचरण किया जाता है, मानव की तरह नहीं। इन्हे मजबूती प्रदान कर रही है हमारी चुनाव प्रणाली में निहित व्यापक अवसरवाद जहाँ हमारी सामाजिक व्यवस्था की इन सभी अन्यायपूर्ण एवं असमानता के लक्षण, चुनावी फायदों के लिए पुनर्जीवित किए जाते हैं। इस तरह, जब अत्याधुनिक फैशनवाले ब्रान्ड के कपड़े पहने और आधुनिक यंत्र चमकाते लोग, अन्याय व असमानतापूर्ण इन रीतियों का पालन करते हैं जिन्हे एक आधुनिक जनतंत्र में समय का विद्रुप मान कर कुड़ेदान में झोंक दिया जाता।

इस तरह, जाति, धर्म या लिंग निरपेक्ष सभी नागरिकों की समानता के रूप में परिभाषित आधुनिकता, जिसकी गारंटी भारत का संविधान करता है, क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रतिवादी-आधिपत्य की प्रतिष्ठा के लिये आवश्यक संस्कृति का अविच्छेद्य अंग है।

1॰13  संस्कृति उद्योग: धन एवं सम्पत्ति के जबर्दस्त संकेन्द्रण के साथ साथ यह नव-उदारवादी सुधार का मार्ग एक संस्कृति उद्योग की संवृद्धि को जन्म देता है। विश्व को एक एकल वैश्विक सांस्कृतिक बाज़ार में तब्दील करने के लिए, विश्वस्तर पर सूचना, संचार एवं मनोरंजन (आइ॰सी॰ई) के व्यापारसंघों (कारपोरेशन) का विलय, विश्व के मीडिया एवं मनोरंजन की सामग्रियों के उत्पादन एवं वितरण के बड़े हिस्से को नियंत्रित करता है।

      ऐसी प्रक्रिया के लिये जो सांस्कृतिक आधिपत्य चाहिए, जन-रुचि में एकरूपता लाने की जरूरत में उसकी अभिव्यक्ति होती है। जितनी अधिक एकरूप होगी रुचि, बड़े जनसमुदायों के लिये सांस्कृतिक उत्पादों के यांत्रिक पुनरुत्पादन करने लायक प्रौद्योगिकियों को विकसित करना उतना ही आसान होगा। तृतीय विश्व के बहुत सारे देशों में व्यापक निरक्षरता के बावजूद वाल्ट डिजनी के कार्टून पात्रों की तस्वीरें बच्चों के जानी पहचानी हैं (सहाराई अफ्रिका के देशों के सर्वेक्षणों ने इसकी पुष्टि की है)!

      वर्गीय आधिपत्य की दृष्टि से, नव-उदारवाद की संस्कृति जनता को उनकी रोजमर्रे की जिन्दगी के वास्तविक यथार्थ से अलग करना चाहती है। संस्कृति यहाँ सौन्दर्यबोध को आकर्षित नहीं करती बल्कि गरीबी और मुसीबतों की ज्वलन्त समस्याओं से विकर्षण और विषयान्तर का काम करती है। फलस्वरूप, जनता की ऊर्जा को एवं अपने कष्टमय अस्तित्व को बदलने के उनके संघर्षों को बाधित करना चाहती है। माइकेल पैरेन्टी कहते हैं, “हमारी संस्कृति के काफी बड़े हिस्से को अभी सटीक तौर पर ‘आम संस्कृति’, ‘लोकप्रिय संस्कृति’ यहाँ तक कि ‘मीडिया संस्कृति’ कहा जाता है। दैत्याकृति व्यापारसंघें इस संस्कृति के मालिक हैं और वे ही इसे संचालित करते हैं। उनमें से मुख्य व्यापारसंघ सहमत हैं कि इस संस्कृति का उद्देश्य है धनसंचय एवं अपने मालिकों के लिए दुनिया को सुरक्षित बनाना। इस संस्कृति का लक्ष्य उपभोग मूल्य नहीं बल्कि विनिमय मूल्य है, सामाजिक सृजनशीलता नहीं बल्कि सामाजिक नियंत्रण है। आम संस्कृति के बहुतायत को हमें बड़ी वास्तविकताओं के बारे में ज्यादा सोचने से विकर्षित करने के लिए संगठित किया जाता है। मनोरंजन संस्कृति की झाड़बत्ती और झालरों की भीड़, अधिक आवश्यक एवं पोषक चीजों को बाहर ठेल देती है। निरन्तर लघुत्तम [न्यूनतम सामान्य विभाजक] को आकर्षित करते करते, सनसनीबाज लोकप्रिय संस्कृति सामान्य विभाजक को और भी नीचे उतारते जाता है। जन-रुचि और भी ज्यादा चटपटी सांस्कृतिक खाद्य, प्रचार का शोर, तुच्छ, चमकीला, वन्य उग्रता, तत्काल उत्तेजक, अंधाधुन सतही भेंटों के प्रति अभ्यस्त होती जाती है।

      “वैसे आहार अक्सर वास्तविक वैचारिक अंतर्वस्तु लिए होते हैं। भले ही उद्देश्य में कथित तौर पर गैर-राजनीतिक हो, मनोरंजन की संस्कृति (जो यथार्थ में मनोरंजन उद्योग है) अपने असर में राजनीतिक होती है – ऐसी तस्वीरें और ऐसे मूल्य का प्रचार करती है जो अक्सर पूरी तरह से लैंगिकवादी, नस्लवादी, उपभोक्तावादी, अधिकारवादी, सैन्यवादी एवं साम्राज्यवादी होती है।” (मंथली रिव्यु, फरवरी 1999)

1॰14  इस तरह, घरेलु तौर पर नव-उदारवाद एवं सम्प्रदायवाद दोनो, जन-रुचि की एकरूपता चाहते हैं। पहला अपना सांस्कृतिक आधिपत्य को मजबूत करने और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिये। दूसरा, उपरोक्त दो के अलावे एक कट्टर, असहिष्णु, तानाशाही सरकार -  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाला ‘हिन्दु राष्ट्र’ - की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करने के लिए। इसका जो नारा है, “एक देश, एक जनता, एक संस्कृति”, उसे ऐसी ही एकरूपता के द्वारा अमली जामा पहनाया जा सकता है और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता के मूलभूत बुनियादों को नकारा जा सकता है। साथ ही, नव-उदारवाद एवं सम्प्रदायवाद दोनो, रोजमर्रे की समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाना चाहते हैं और, महत्वपूर्ण बात है कि, शोषण पर आधारित मौजूदा व्यवस्था को कमजोर करना चाहते हैं।

1॰15  इस तरह, श्रमिक वर्ग एवं मेहनतकश जनता का ‘प्रतिवादी-आधिपत्य’ स्थापित करने के संघर्षों के लिए जनता के उन मुद्दों को सांस्कृतिक एजेंडे पर वापस लाना जरूरी है, जिन्हे धुंधलाना और मिटाना, नव-उदारवाद एवं सम्प्रदायवाद की संस्कृति के होने का उद्देश्य है।

      सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारे कार्यभार का यही मूलभूत उद्देश्य है।

 

2

2॰1   सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारे संघर्ष को भारतीय सन्दर्भ में ‘संस्कृति’ पर सोच की सही समझ पर आधारित होना होगा। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास ना ही एकल है और ना ही इसके अपने आन्तरिक संघर्षों के बिना। जहाँ तक साक्ष्य मौजूद हैं उस प्राचीनतम अतीत से, हमें धार्मिक विश्वासों एवं रीतियों तथा भौतिकतावादी परम्पराओं (जैसे लोकायत सम्प्रदाय) के बीच संघर्ष दिखते हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य के विरुद्ध, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मानता है कि संस्कृति सिर्फ धर्म से उत्पन्न हुई है। इसलिए, आरएसएस के लिए, ‘भारतीय संस्कृति’ सिर्फ ‘हिन्दु’ है। हिन्दुत्व का आरएसएस प्रकार, काफी समृद्ध सामाजिक एवं दार्शनिक परम्परा का एक गलाघोँटू रूप है। आरएसएस हिन्दुत्व को पदक्रमात्मक एवं वर्जनात्मक तौर पर देखता है जिसे सामान्यत: मनुवाद कहा जाता है। भारतीय उपमहादेश में प्राचीन काल से प्रारम्भिक आधुनिक काल तक वास्तविक जो विविध एवं अन्तर्विरोधी विश्वास, रीति, दर्शन एवं रिवाज विकसित हुए थे, आरएसएस उनका एक हास्य-चित्र बना डालता है। हिन्दु परम्परायेँ जो खुद विविध हैं, अक्सर अन्तर्विरोधी एवं समृद्ध हैं। हमारा इतिहास हमारे भाषाओं, मिथकों, रिवाजों, आदतों, धार्मिक रीतियों एवं सृजनात्मक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में विविधता उत्पन्न करता है। यह उत्पत्ति जो विविध है, इसे ही हम सच्ची ‘भारतीयता’ कह सकते हैं। हमारा स्वतंत्रता संघर्ष खुद को इसी विविधता के तौर पर परिभाषित किया और भारतीय संस्कृति को ‘समन्वयात्मक’ कहा। उपनिवेशवाद-विरोध एवं देशप्रेम पर खुद को एकताबद्ध करते हुए इस संघर्ष ने राष्ट्रवाद को भारतीय संस्कृति व समाज की सभी धाराओं का समावेश समझा। दूसरी ओर, हिन्दुत्व की ताकतों के लिए ‘राष्ट्रवाद’ एक डंडा है जिससे हर उसको पीटा जा सकता है जो उनके द्वारा तय किए गए मानकों से अलग जाए। वास्तव में, विभिन्न सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों एवं रीतियों को ‘एकरूप’ बनाने के लिए हिन्दुत्व का जो हमलावर मुहिम चल रहा है उससे स्थानीय, ‘लोकधर्मी’ एवं ‘देसी’ परम्परायें खतरे में पड़ रही है। हिन्दु धार्मिक उग्रपंथियों एवं उनके साम्प्रदायिक संस्थाओं के परिपूरक बन रहे हैं अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक उग्रपंथी जिनका समर्थन कर रहे हैं उनके अपने प्रतिक्रियावादी एवं साम्प्रदायिक संगठन। ये तमाम ताकतें अपने अपने समुदायों पर नियंत्रण बनाए रखने की ‘प्रतिस्पर्धी सम्प्रदायवाद’ में लगी हुई हैं। अपने संकुचित राजनीतिक हित के अनुरूप, वे सभी धार्मिक निर्देशों की गलत व्याख्या कर रहे हैं तथा बहिष्कार एवं घृणा की संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं। सभी किस्म के सम्प्रदायवाद श्रमजीवी जनता की एकता को तोड़ कर शोषक वर्गों के हितों की सेवा करते हैं।

2॰2   सांस्कृतिक मोर्चे पर काम करने वाले कम्युनिस्टों को, शक्तिशाली पंथों एवं संस्थाओं के उन रुढ़िवादी प्रतिगामी विचारों के इस्तेमाल में विशेष ध्यान देना होगा जो अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दलितों, औरतों एवं, हाशिए पर कर दिए गए अन्य समुदायों का उत्पीड़न करते हैं। उन्हे उन सुधारकों एवं क्रांतिकारी चिंतकों के जीवन, कर्म एवं लेखनों का यथासम्भव गहन अध्ययन करना होगा जो प्राचीन काल से जातीय समाज, मानवों के बीच मानव-निर्मित विभाजन एवं लैंगिक उत्पीड़न के खिलाफ बातें रखते आये हैं। बुद्ध, वासवन्ना, अक्का महादेवी, भक्ति एवं सूफी कवि, सिख गुरु, कबीर एवं ललन, बिरसा मुन्डा, अय्या वैकुन्ड स्वामी, जोतिराओ एवं सावित्रिबाई फूले, नारायण गुरु, पेरियार, राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मुंशी प्रेमचन्द, वल्लथोल, बाबासाहेब अम्बेदकर एवं अन्य कईयों ने प्रतिवाद की इन परम्पराओं में अपना योगदान दिया है। युगों से हमारे देश की शास्त्र-विरोधी परम्पराओं को समाज सुधारकों एवं तर्कवादी चिन्तकों में एक नई आवाज मिली। विदेशी सरकार के अधीन जी रही जनता की चेतना को 19वीं सदी की शुरुआत में इस आवाज ने झकझोर दिया। यह आवाज हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के उत्तराधिकार का हिस्सा बन गई। हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि भारत में जहाँ कहीं भी कम्युनिस्ट एवं प्रगतिशील आन्दोलनों ने अपनी जड़ें जमाई एवं उनका विकास हुआ, आदिवासी, दलित एवं औरतों की सामाजिक मुक्ति के मुद्दों के साथ गहरे सम्बन्धों के कारण ही वहाँ वे सक्षम हुए। हमारे द्वारा छेड़े गये वैचारिक संघर्ष का यह अविच्छेद्य हिस्सा है और इसे हम सांस्कृतिक मोर्चे के माध्यम से भी जारी रखेंगे।

2॰3   औपनिवेशिक इतिहासविद्या ने भारत के इतिहास को ‘हिन्दु’, ‘मुसलमान’ एवं ‘बर्तानी’ युग में बाँटा। बिना किसी आलोचना के आरएसएस इस युगक्रम को ले लेता है क्योंकि यह उनके साम्प्रदायिक रूपरेखा के साथ मेल खाता है। युगक्रम की इस योजना के तहत, मध्यकालीन सदियाँ अंधकार एवं पतन की अवधि के रूप में दिखाई जाती है, जब तथाकथित ‘हिन्दुओं’ पर ‘विदेशियों’ ने कथित तौर पर विजय प्राप्त कर लिया था। जबकि, आधुनिक युग में योरोपीय देशों के वास्तविक उपनिवेशवाद की तस्वीर पर उतनी तीखी रोशनी नहीं डाली गई है। यह इतिहासविद्या मुसलमानों पर सीधा हमला है तथा साम्राज्यवाद के प्रति दिखाई गई नर्मी स्पष्ट है। इतिहास की साम्प्रदायिक धारणा न सिर्फ भारत के बारे में औपनिवेशिक बयान को ही फिर से प्रस्तुत करता है, बल्कि उसमें तथ्यात्मक झूठों को भी डाल देता है। उदाहरण के तौर पर, आरएसएस तर्क देता है कि ‘आर्य’ एक नस्ल है जिसकी उत्पत्ति भारत में ही हुई। उनके तर्क की पद्धति आधुनिक इतिहासविद्या नहीं बल्कि पुराण-कथा की प्रक्रिया है। आरएसएस के लिये इतिहास को परिभाषित करने वाली शक्ति धर्म है। उनकी व्याख्या पूर्णत: अवैज्ञानिक एवं द्वेषपूर्ण है। आरएसएस प्राचीन भारत की गैर-वैदिक परम्पराओं को या तो अस्वीकार करने की कोशिश करता है या साथ रखना नहीं चाहता है। भारतीय इतिहास के समन्वयात्मक लोकप्रिय परम्पराओं को वह दबा देना चाहता है। वह झूठ पेश करता है कि सारे मुसलमान शासक अत्याचारी थे। उपनिवेशवाद के सहयोगी के रूप में सम्प्रदायवाद की भूमिका को वह दबा देता है। और ऐसे मनगढ़न्त इतिहास का इस्तेमाल वह अपना साम्प्रदायिक नजरिए के प्रचार एवं जनता को बाँटने के लिए करता है ताकि उन पर वह हावी हो सके। आरएसएस महज अल्पसंख्यक-विरोधी नहीं है। यह, बहुसंख्यक समुदाय के अन्दर उस नितान्त छोटे से अल्पसंख्यक के पक्ष में है जो बहुसंख्यक समुदाय के अन्दर ही बहुमत का उत्पीड़न एवं शोषण करता है। उत्पीड़न एवं अत्याचार के इतिहास को बिना विकृत किए या बिना ढके, भारतीय इतिहास के प्रति तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक, धर्मनिरपेक्ष एवं जनपक्षीय नजरिए पर जोर डालना सांस्कृतिक मोर्चे के पर हमारे काम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पिछले सौ वर्षों से हम यह काम करते आये हैं। अतीत के लिए संग्राम भविष्य के लिए संग्राम का हिस्सा है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।  

 

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3॰1   उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष में हम प्रगतिशील लेखक संघ (सन 1936 में स्थापित) एवं भारतीय जननाट्य संघ (सन 1942 के आसपास स्थापित) के काम से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। मुख्य कार्यभार के बारे में प्रलेस ने कहा, “साहित्य एवं अन्य कलाओं को जनता के निकटतम सम्पर्क में ले आने के लिए उन रुढ़िवादी वर्गों के हाथों से निकालना जिनके हाथों में इतने लम्बे समय तक उनका पतन होता रहा है, और उन्हे जनता के जीवन का अत्यावश्यक अंग बनाना ताकि जीवन की यथार्थ उनमें दर्ज हों, साथ ही जिस भविष्य की ओर हमारी नजर है उधर हमें ले चले”। उसी तरह इप्टा ने अपना कार्यभार तय किया, “मंच एवं पारम्परिक कलाओं को पुनर्जीवित करने के लिए पूरे भारत में जननाट्य आन्दोलन” संगठित करना “एवं उन्हे तत्काल स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति एवं आर्थिक न्याय के लिए जनता के संघर्ष की अभिव्यक्ति एवं संगठक, दोनों बनाना”। अपने सार में, आज भी हमारा कार्यभार यही है, हालाँकि उस समय से आज तक हुए ऐतिहासिक परिवर्तनों का जायजा हमें लेना पड़ेगा।

3॰2   हम एक ऐसी संस्कृति के पक्ष में हैं जिसका आधार हो तार्किकता, वैज्ञानिक मनोवृत्ति, जाँच एवं सवाल पूछने का मिजाज। हमारी सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में ये तत्व मौजूद हैं, तमाम खामियों के बावजूद और इस तथ्य के भी बावजूद कि इस शिक्षा प्रणाली के सार्वजनीकरण को प्रतिक्रियावादी एवं उनके वर्ग मित्र पत्थर की दीवार की तरह रोके हुए हैं। कई प्रख्यात पंडितों एवं विद्वानों ने, यहाँ तक कि औपनिवेशिक शासन के दिनों से, प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में प्रगतिशील चिन्तन की परम्पराओं के निर्माण में मदद किया है। ये परम्परायें सिर्फ विश्वविद्यालय के परिसरों में सीमित नहीं रहती हैं बल्कि लोकप्रिय विज्ञान आन्दोलनों के माध्यम से भी अभिव्यक्त होती हैं। एक तरफ, उग्र पूंजीवाद हर जगह बेलगाम मुनाफाखोरी को बढ़ावा दे रहा है एवं सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर रहा है, दूसरी ओर, तार्किकता-विरोधी, विज्ञान-विरोधी एवं अंधविश्वासपूर्ण विचारो के बढ़ते बोलबाला के कारण लोकप्रिय विज्ञान आन्दोलनें जोखिम में पड़ रहे हैं। लेकिन हमें वैसे आन्दोलनों को, हमारे संघर्ष के अमूल्य संसाधनों के तौर पर बचाकर रखना पड़ेगा तथा विकसित करना पड़ेगा। हम भूले नहीं कि हाल के दिनों में पानसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी एवं गौरी लंकेश जैसे साहसी लोग, वैज्ञानिक चिन्तन के पक्ष में अपने प्राण त्यागे।

3॰3   भारत में सांस्कृतिक रूपों एवं प्रथाओं का इतिहास दीर्घ है एवं समृद्ध है। साहित्य, संगीत, नाट्य, ललित कला आदि की शास्त्रीय या ‘उच्च’ परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढी, धनी एवं ताकतवर हड़पते गये हैं और उनका उपयोग सिर्फ उन्ही के मनोरंजन के लिए हुआ है। यह एक वास्तविकता है कि जिन्हे ‘उच्च’ या ‘शास्त्रीय’ कला कहा जाता है वे अमूमन, समय के साथ, ‘लोक’ या ‘नीच’ कहे जाने वाले कलाओं के ही विकसित, शोधित एवं संहिताकृत रूप होते हैं। ‘उच्च’ या ‘शास्त्रीय’ कला को हम इसके चलते खारिज नहीं करते कि उनमें प्रतिगामी विचार होते हैं एवं सामन्ती एवं पूंजीवादी रुचि का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन कलाओं में पूरी मानवता के लिए जो जीवित संदेश हैं हमें उन्हे समझना होगा, उनकी पुनर्व्याख्या करनी होगी, हमारे उपयुक्त बनाना होगा एवं इस तरह उनका प्रसार करना होगा ताकि जनता में उनका उपयोग सार्थक हों। इस सन्दर्भ में, हमारे उपयुक्त बनाने का मतलब यह नहीं है कि उन कलाओं को शाश्वत और अमर कह कर प्रस्तुत किया जाय्। उनमें मौजूद बहुत सारे प्रतिग्रामी एवं प्रगतिविरोधी लक्षणों को हमें खारिज करना होगा। उनके रूप एवं अन्तर्वस्तु को आगे ले जाने के सृजनात्मक एवं अभिनव उपाय हमें खोजने होंगे। संस्कृति में जो कुछ भी सर्वोत्कृष्ट है उस तक जनता की पहुँच होनी चाहिए। हमें उन्हे हमारी अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखना होगा।

3॰4   भूतपूर्व सोवियत संघ में, चीनी जनप्रजातंत्र में, वियतनाम में, क्युबा में एवं अन्य देशों में भी प्रगति एवं समाजवाद के पक्ष में क्रांतिकारी बदलाव हुये थे। उनके क्रांतिकारी आन्दोलनों में एवं एक नये समाज के निर्माण के प्रयासों में सांस्कृतिक संघर्षों एवं नवाचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हमें सिर्फ सांस्कृतिक रूपों के साथ उनके द्वारा किये गए प्रयोगों का ही नहीं, बल्कि लिंग, नस्ल, नृजातीयता आदि एवं मानवता की पूर्णत: नई अवधारणा के क्षेत्र में उन्होने प्रगतिशील सामाजिक बदलाव लाने के जो प्रयास किए थे उनका भी अध्ययन करना चाहिए एवं उन्हे आत्मसात करने चाहिए। वे हमारे बौद्धिक भंडार के आवश्यक हिस्से बनने चाहिए। हमें उनकी गलतियों से भी सीखनी चाहिए।

 

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4॰1   भारत के विभिन्न हिस्सों में जिन सांस्कृतिक गुटों, मोर्चों, मंचों एवं समितियों में पार्टी सदस्य सक्रिय हैं उनकी गतिविधियों में अनेकों प्रकार के कलाकारों, सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों को शामिल करना पड़ेगा। उन गतिविधियों में उत्कृष्टता एवं सर्जनात्मक ऊर्जा लानी पड़ेगी। इसके लिए हमारे नजरिए को विस्तृत, समावेशी एवं गैर-संकीर्णतावादी होना पड़ेगा। सांस्कृतिक गतिविधि में विस्तृत भागीदारी के लिए, जो कलाकार एवं बुद्धिजीवी बड़े जनवादी, प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है उसे हमारे मंच में अवश्य ही जगह देनी होगी, भले ही खास खास मुद्दों पर उसके और हमारे मतों में भिन्नता हो। सचेत रूप से हमें गैर-पार्टी कलाकारों को उन सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में हिस्सा लेने के लिए उत्साहित करना होगा जिनका सम्बन्ध हमारे साथ हो।

  4॰2 सालकिया एवं कोलकाता प्लेनमों में जन एवं वर्ग संगठनों के जनतांत्रिक व स्वतंत्र कामकाज पर जोर डाला गया है। सांस्कृतिक संगठनों के मामले में यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्हे सापेक्ष स्वायत्तता दी जाय। सांस्कृतिक संगठनों को महज पार्टी के पिछलगुआ के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इसके प्रति सही दृष्टिकोण तभी उभर सकता है जब पूरी पार्टी एवं उसके वर्ग व जनसंगठन, सामाजिक बदलाव के संघर्ष में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के महत्व को समझेंगे। सांस्कृतिक संगठनों के भीतर भी यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि खुली एवं आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित किया जाय। इसे सुनिश्चित करने पर ही हम सांस्कृतिक जगत में युवा एवं नये नेतृत्व को विकसित कर पायेंगे। विशेष प्रयास होने चाहिए कि दलित, आदिवासी एवं हाशिए पर कर दिए गए तथा वंचित अन्य दलों व समुदायों में से, अल्पसंख्यकों में से महिलाओं एवं कलाकारों को संगठन के सभी स्तरों पर ज्यादा सक्रिय होने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। उन्हे नेतृत्वकारी भूमिका भी दी जानी चाहिए।

4॰3   संस्कृति सिर्फ सांस्कृतिक संगठनों का ही अधिकार-क्षेत्र नहीं है। जिन जन-मोर्चों एवं वर्गीय मोर्चों पर पार्टी सदस्य काम करते हैं उन्हे भी सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होना चाहिए। जनता के दैनिक जीवन के मुद्दों के साथ विस्तृत सांस्कृतिक समुदाय को जोड़ना जरूरी है। लेकिन हमारे अभियानों में उन्हे शामिल करते वक्त हमें ध्यान देना चाहिए कि वे खुद किन बातों में रुचि रखते हैं एवं कौन सी गतिविधियाँ वे सबसे अच्छी तरह कर पायेंगे। उसी तरह, उनका यह जुड़ाव सिर्फ चुनावी राजनीति में सीमित नहीं रहनी चाहिए। जहाँ भी सम्भव हो, हमारे साथियों को विद्यमान उन सांस्कृतिक संगठनों में प्रवेश करना एवं काम करना चाहिये जिनमें साम्प्रदायिक या समाजविरोधी तत्व हावी न हों। यह उन संगठनों को प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी दिशा देने की कोशिश होगी।

4॰4   हमें एक कलाकार के कामों के वस्तुपरक आकलन को उस कलाकार के मनोगत एवं व्यक्तिगत रायों पर हमारी प्रतिक्रिया से अलग रखना होगा। हमारे सक्रिय कार्यकर्ता तभी आकलन एवं मूल्यांकन कर पायेंगे कि हमारे उद्देश्य की ओर बढ़ने में क्या हमारे लिये मददगार होगा जब वे समाज में चल रहे विभिन्न किस्म के सांस्कृतिक पहलों में शामिल होंगे एवं हिस्सा लेंगे। कहाँ हमें अभी भी सृजनात्मक एवं संप्रेषणात्मक परिसर मिलेंगे जहाँ सोचने की आज़ादी एवं प्रगतिशील पहलों की इजाजत हो? कहाँ ऐसे परिसर पूरी तरह से मुनाफे के उद्देश्य या सामाजिक/धार्मिक रुढ़िवाद द्वारा कब्जे में कर लिए गये हैं या विकृत कर दिये गये हैं। अपने संघर्षों को मजबूत बनाने के लिए संसाधन की इस तलाश में हम कठोर पूर्व-धारणाओं से बंधे नहीं रह सकते हैं। बल्कि, जिन संसाधनों की हमने पहचान कर ली है उनके आधार पर हमें खुद जमीन को जाँचनी पड़ेगी।

4॰5   देश के विभिन्न भागों में कई धर्मनिरपेक्ष, जनवादी सांस्कृतिक संगठन हैं। एक राज्य के अन्दर भी, कई प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक संगठन हैं जो विभिन्न कला विधाओं में काम कर रहे हैं जिनमें हमारे पार्टी सदस्य भी सक्रिय हो सकते हैं। जहाँ भी सम्भव हो हमें व्यापकतम एकता, सहयोग एवं समधर्मी झुकाव बनाने के प्रयास करने चाहिए। इस उद्देश्य से हम सांस्कृतिक महाधिवेशन या समावेश, उत्सव, कार्यशाला एवं परिचर्चायें आयोजित करने की संभावना तलाशनी चाहिए। हमें अन्तर-राज्य सोशल मीडिया ग्रुप बनाने की संभावना तलाशनी चाहिए ताकि तात्कालिक मुद्दों पर तुरन्त एवं एकताबद्ध प्रतिक्रिया देनें में हमारी मदद करे; खास कर सेन्सर या अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमलों के मामलों में।

      उपर बताये गये समग्र दृष्टिकोण के साथ, सांस्कृतिक मोर्चे अर हमारे मुख्य कार्यभार होंगे:

 

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5॰1   निरन्तर आत्म-अध्ययन एवं आत्मालोचना के द्वारा हमारे आचरण एवं दैनिक अभ्यासों में एक मानक को बनाये रखना, ताकि हम अपने बुनियादी वर्गों, ग्रामीण एवं शहरी भारत के श्रमजीवी आमजनों का विश्वास जीत सकें और उनके साथ सम्पर्क बना सकें।

5॰2   संस्कृति के क्षेत्र को समग्रता में देखना, सिर्फ ‘कला’ के तौर पर नहीं बल्कि जनता द्वारा ‘जिए गए जीवन’ के तौर पर। बहुत सारे सांस्कृतिक कारक, जिनमें, यहाँ तक कि हमारे बोलने में आवाज का उतार-चढ़ाव, हमारे भोजन के स्वाद-गंध, हमारे वस्त्र के रंग एवं ढंग, और ऐसी ही कई चीजें शामिल हैं, जनता के प्रतिदिन के सामान्य जीवन के सभी पहलुओं को शक्ल देते हैं। ठीक इसी कारण से हमारा ध्यान, सांस्कृतिक हस्तक्षेप – एक बात कहने के लिए कला एवं संस्कृति का यंत्र-माध्यम की तरह ‘इस्तेमाल’ – से आगे बढ़ कर संस्कृति में हस्तक्षेप पर केन्द्रित करना होगा, यानि, दैनिक जीवन के तानेबाने में प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी विचारों को भर देना होगा - हमारे हस्तक्षेप के दायरे में शामिल होगा कि कैसे हर दिन के जीवन को समाज में, संगठनों में एवं परिवार में संगठित किया जाय।

5॰3   धर्मनिरपेक्ष जनवादी संस्कृति की परम्पराओं के लिए सामाजिक परिसर को फिर से हासिल करना। इसके लिए हमें अपने देश के तथा दुनिया के उन दूसरे हिस्सों के प्रगतिशील चिन्तन की धाराओं से गहनता के साथ परिचित होना होगा जिन्होने प्रमुख आधिपत्यों का प्रतिरोध किया है। हमें उपनिवेशवाद-विरोधी चिन्तन की परम्पराओं से भी परिचित होना होगा। उन शास्त्रीय, आधुनिक एवं लोक कला विधाओं एवं उन विधाओं के श्रेष्ठ शिल्पियों एवं कलाकारों से परिचित होना होगा जिनके पास जनता के लिए एक जीवित सन्देश है। साथ ही हमें, मार्क्सवादी चिन्तन एवं समाजवाद के लिए क्रांतिकारी आन्दोलनों के इतिहास से भी परिचित होना होगा और संस्कृति में अधिकारवादी अखण्ड एवं संकीर्णतावादी प्रवृत्तियों से जूझने के लिए इस ज्ञान का प्रयोग करने में सक्षम होना होगा।

5॰4   सभी रूप में असहिष्णुता का प्रतिरोध करना, चाहे वह साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर प्रचारित किया जा रहा हो या ‘धार्मिक भावना’ के नाम पर, या ‘जातीय श्रेष्ठता’ के नाम पर। जनता के सांस्कृतिक रिवाजों में भाषिक, नस्लीय, क्षेत्रीय विविधताओं को स्वीकार करना एवं प्रोत्साहित करना। उन विविध रिवाज वालों के बीच बेहतर सम्पर्क और समझ को बढ़ावा देना। जिन चिन्तकों एवं कलाकारों पर इन विविध परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने के कारण हमले होते हैं उनके पक्ष में खड़ा होना।

5॰5   रुढ़िवाद, कट्टरता, अंधविश्वास, गैर-तार्किकता का प्रतिरोध करना; सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली तथा वैज्ञानिक, विद्वत एवं सांस्कृतिक संस्थानों की स्वायत्तता की रक्षा करना; उच्चतर शिक्षा एवं शोध के केन्द्रों पर हमलों का विरोध करना; हमारे इतिहास का सांस्कृतिक नवजागरण एवं स्वतंत्रता संघर्ष के तर्कवादी, समन्वयात्मक एवं धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं की रक्षा करना।

5॰6   जनता के दुख-तकलीफों का, भावनात्मक मदद एवं आस्था की उनकी गहरी आवश्यकता का, उन विभिन्न दर्जे के ‘धार्मिक’ संस्थाओं एवं ‘आध्यात्मिक’ नेताओं द्वारा किए जा रहे व्यापक शोषण का पर्दाफाश करना एवं उसके खिलाफ खड़ा होना, जो धर्म को बड़े व्यवसाय की तरह इस्तेमाल करते हैं, गैर-तार्किकता एवं अंधविश्वास का प्रचार करते हैं, अपने अनुयायियों में विभेद और साम्प्रदायिकता का बीज बोते हैं।

5॰7   साम्प्रदायिक एवं उग्रवादी संगठनें उपासना के अनेकों स्थानों में सक्रिय हैं। वहाँ पर्व-त्योहारों से सम्बन्धित होती गतिविधियों पर साम्प्रदायिक विभेद का प्रचार हावी होता है जिनका उद्देश्य होता है जनता को गुमराह करना। हर जगह की ठोस परिस्थिति पर निर्भर करते हुए हमारे कार्यकर्ताओं के हस्तक्षेप के द्वारा जहाँ तक हो सके इसे रोकने की कोशिश करना।

5॰8   वैसे सृजनात्मक प्रयासों का समर्थन करना एवं साथ खड़ा होना जिनमें मानव समाज के लिये अधिक समानतावाले भविष्य के विचार होते हैं - ऐसा भविष्य जहाँ न सिर्फ आर्थिक बल्कि जाति, लिंग आदि के आधार पर सामाजिक शोषण की कोई जगह नही होगी।

5॰9   श्रमजीवी जनता के पारम्परिक कलारूपों का समर्थन करना एवं साथ खड़ा होना; इन कलारूपों के सम्मान एवं समाज में इनके मूल्य की स्वीकृति के लिए काम करना। इनमें से कई कला रूप, जनता की अपनी सृजनात्मकता का धारक होने के साथ साथ उन्हे बनानेवाले शिल्पियों के जीवनधारण के साधन भी होते हैं (कठपुतलीवाले, कथा-चित्रावलियों के चित्रकार, ग्रामीण एवं शहरी नुक्कड़ों के अदाकार, ग्रामीण पहलवान आदि)। ये अब या तो बड़ी धार्मिक संस्थाओं / बड़े व्यवसायों द्वारा पूरी तरह सहयोजित कर लिये जा रहे हैं या ध्वस्त किए जा रहे हैं। फलस्वरूप, श्रमजीवी जनता जो उनके वास्तविक पेशेवर, संरक्षक, लाभार्थी एवं उपभोक्ता हुआ करते थे अब एक सांस्कृतिक शून्यता का सामना कर रहे हैं। इन कलाकारों को प्रोत्साहित करना होगा ताकि अपनी सृजनात्मकता से वे जनता की सेवा कर सकें।

5॰10  सांस्कृतिक शक्तियों (बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं, सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेवाले आदि) को, उत्पीड़न एवं अन्याय (आर्थिक, राजनीतिक, जाति-आधारित, लिंग-आधारित, अल्पसंख्यकों के विरुद्ध आदि) के खास खास घटनाओं के खिलाफ इकट्ठा करना ताकि वे अपने विशेष कौशल को, जनता एवं समाज की रक्षा में अभिनव एवं सृजनात्मक तरीकों से इस्तेमाल कर सके।

5॰11  विचारशून्य उपभोक्तावाद एवं भोगवाद के बहकावे में, सांस्कृतिक मूल्यों को माल बनाने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करना। माल बनाने की प्रक्रिया का मतलब सिर्फ यह नहीं कि सभी सांस्कृतिक उत्पादों को आज के दिन बाजार के माध्यम से गुजरना होगा, बल्कि यह कि कॉर्पोरेट पूंजी उन तमाम उत्पादों पर अपनी पूरी मिल्कियत पर जोर डालना चाहता है जिनमें, उनकी नजर में कुछ बाजार-मूल्य होता है; यहाँ तक कि उन्हे बनानेवालों, कलाकारों, लेखकों, पेशेवरों आदि की सृजनात्मकता पर भी। कॉर्पोरेट द्वारा चलाये जा रहे विश्व सांस्कृतिक बाज़ार की सनक की दासवत अधीनता, कलाकारों एवं जनता - जो संस्कृति के वास्तविक भंडार हैं – के मन की जीवनदायी शक्ति को ध्वस्त कर देता है। इसे हर कीमत पर रोकना होगा।

5॰12  प्रौद्योगिकी के स्तर पर आगे बढ़े हुए मुद्रण एवं दृश्य-श्रव्य जनमाध्यमों की दुनिया में जनता के लिये परिसर को पुन: हासिल करने के लिए संघर्ष करना। इलेक्ट्रॉनिक जनमाध्यमों पर कॉर्पोरेट पूंजी की गलाघोँटु पकड़ के कारण जनता उन अग्रगतियों के लाभों से वंचित हो रही है। इस पकड़ के कारण उन माध्यमों पर विचारशून्य विज्ञापन और बेकार की खबरों के सिलसिले, गंदे और फालतु रियलिटी शो और प्रतिगामी, पितृतांत्रिक एवं स्त्री-विरोधी सिरियल हावी हैं। ऑन-लाइन प्रकाशन, सोशल मीडिया, डॉक्युमेन्टरी फिल्म, सामुदायिक रेडिओ आदि कुछ ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा उस नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर, जनता के लिए अधिक प्रासंगिक कुछ परिसर पुन: हासिल किया जा सकता है। जिन्हे इन क्षेत्रों में विशेष ज्ञान है उन्हे इन कामों के लिए योजनाबद्ध एवं व्यवस्थित तरीके से प्रोत्साहित एवं प्रेरित किया जाना चाहिये।

5॰13  बच्चो, छात्रो एवं युवाओं की सुरक्षा के लिये खड़ा होना ताकि उन्हे अपने स्वतंत्र सृजनात्मक शक्तियों को विकसित करने के अवसर प्राप्त हों। सुनिश्चित करना कि उनकी आकांक्षायें समय के निर्मम प्रतिस्पर्धी उपभोक्तात्मक मूल्यों के द्वारा या घृणा एवं पारस्परिक विध्वंस के द्वारा लील न लिए जायें। उनके शैक्षणिक अधिकार एवं सर्वाधिक अग्रसर ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार के दावे करने होंगे। कई तरफ से प्रयास करने होंगे ताकि शैक्षणिक संस्थानों के भीतर एवं बाहर हमारे सबसे अच्छी बौद्धिक एवं सृजनात्मक परम्पराओं के साथ उन्हे जोड़ा जा सके।

5॰14  हम एक ऐसी दुनिया में जीते हैं जहाँ उग्रवादी, कट्टरपंथी एवं आतंकवादी संगठनें एवं विचारधाराएं जोर पकड़ रही हैं एवं हिंसात्मक गतिविधियों में लगी हुई हैं। इस वास्तविकता का गलत इस्तेमाल, पूरे विश्व में सरकारें ज्यादा अधिकारवादी रूपों की ओर बढ़ने के लिए कर रही हैं। जहाँ कहीं भी सम्भव है, राज्यसत्ता द्वारा विशेष ताकत हड़पी जा रही है। बहुत सारे मामलों में, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर राज्यसत्ता द्वारा उठाए जा रहे ऐसे कदमों के समर्थन के लिए आम जनता को बरगलाया जा रहा है या जबरन मजबूर किया जा रहा है। जहाँ कहीं भी अधिकारवादी राज्यसत्ता नागरिक स्वतंत्रता, जनतांत्रिक एवं मानवाधिकारों पर रोक लगा रही हो, हम उनकी रक्षा में खड़े होते हैं। हम असैनिक नागरिकों के खिलाफ सेना एवं अर्धसेना बलों के इस्तेमाल का विरोध करते हैं। हम उन क्रूर कानूनों का विरोध करते हैं जो मतभेदों को दबाने के लिए राज्यसत्ता को बेलगाम ताकत एवं छूट देते हैं।

5॰15  उपरोक्त कार्यभारों को पूरा करने के लिए सांस्कृतिक मोर्चे पर काम के प्रति हर स्तर पर पार्टी को नये ढंग से ध्यान देना होगा तथा समयबद्ध लक्ष्य की प्राप्ति के लिये काडरों को नियुक्त करना होगा।

5॰16  जन संगठन एवं शिक्षक, सेवा संगठन, योजनाकर्मी आदि, कर्मचारियों के दूसरे संगठनों को गीत जत्था, नुक्कड़ नाटक दल आदि सरीखे सांस्कृतिक शाखा बनाने के लिए प्रोत्साहित एवं निर्देशित करना होगा। सांस्कृतिक मोर्चे पर काम को सिर्फ सांस्कृतिक मोर्चे के कार्यकर्ताओं का कार्यभार मान कर अलग करना या त्याग देना उचित नहीं है।

5॰17  पास-पड़ोस में किशोर व किशोरियों के लिये ‘बालवेदी’ या ‘बालसंघम’ संगठित करने के लिए मदद करना ताकि सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं खेलकूद गतिविधियों के माध्यम से उन्हे जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील धारा पर विकसित किया जा सके। जहाँ कहीं भी ऐसी गतिविधियाँ सफल रही हैं, उन्हे और फैलने और मजबूत होने में मदद करना।

5॰18  जिन राज्यों में सांस्कृतिक मोर्चे की गतिविधियाँ अनुपस्थित हैं, इस कमी को दूर करने हेतु तत्काल योजनाबद्ध कदम उठाना।

5॰19  कला एवं संस्कृति के सृजनात्मक पेशेवर/कलाकार (क) विभिन्न स्तरों पर गतिविधियों को प्रेरित करने एवं (ख) भविष्य के कार्यक्रम एवं सर्जनात्मक हस्तक्षेप को सामान्य मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए नियत अवधि में सांस्कृतिक महाधिवेशन संगठित करेंगे ।

5॰20  समयबद्ध तरीके से नियतकालीन समीक्षा की जाएगी कि कहाँ तक इस कार्यभार सम्बन्धित दस्तावेज को विभिन्न स्तरों पर प्रभावी ढंग से लागू किया गया।

 

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