“लगभग तीन साल पहले, सन 1974 में कलकत्ता पहुँच कर एक दिन शाम को बनफूल से भेंट करने के लिये लेकटाउन स्थित उनके आवास पर गया । घन्टा दो घन्टा भर आनन्द में बिताये हम दोनों ने । लौटने के वक्त उन्होने एक पुस्तक उपहार में दिया । उपहार वाले पृष्ठ पर उन्होने क्या लिखा उस पर नजर नहीं पड़ी थी । घर लौट कर देखा कि उपहार देने वाले का नाम ‘बनफूल’ ठीक ही लिखा है लेकिन पता लिखा है ‘लेक टाउन, भागलपुर’ । रहते हैं कलकत्ते में लेकिन मन के अन्दर बसा हुआ है भागलपुर ।“ [भागलपुर के बनफुल – नलिनीकान्त सरकार]
आजीवन बिहार में रहने के बाद अन्तिम पड़ाव के रूप में दस साल के लिये बंगाल आकर
बिहार को भूल जाना बनफूल के लिये कितना असम्भव था एवं बिहार के प्रति उनका आकर्षण
कितना दृढ़ था उसे दर्शाने के लिये ही उपरोक्त उद्धरण दिया गया ।
केसरिया गंगा एवं कृष्णा कोसी के संगम पर स्थित है एक छोटा सा गाँव मणिहारी ।
इसी गाँव में सन 1899 के 19 जुलाई की शाम को ‘बनफूल’ यानि बलाईचाँद मुखोपाध्याय का
जन्म हुआ । कलाकार बलाई की कला-चेतना प्रस्फुटित हुई इसी ग्रामीण परिवेश में ।
खुले मैदान में, खुले आसमान के नीचे स्वच्छन्द विचरण का अवसर बचपन में ही उन्हे
मिला था । बलाई की प्राथमिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में ही हुई, उसके बाद वह
साहबगंज के रेलवे हाईस्कूल में भर्ती हुये । इस साहबगंज स्कूल के हॉस्टेल में
बिताये जीवन में ही बलाई के साहित्य का अंकुरण हुआ एवं उनके अपने ही द्वारा
प्रकशित ‘विकास’ पत्रिका के माध्यम से वह विकसित हुआ । 1915 ईसवी में ‘मालंच’
पत्रिका में बलाई की पहली कविता उनके नाम से छपी । कविता छपने पर स्कूल के
हेडमास्टर की नाराजगी के कारण बलाई ने अपन छद्मनाम ‘बनफूल’ ग्रहण किया । इस नाम को
चुनने के विषय में वह लिखते हैं, “वन हमारे लिये हमेशा ही रहस्यों का घर है ।
इसीलिये शायद छद्मनाम चुनने के समय मैंने बनफूल नाम तय किया ।“ [पश्चातपट]
साहबगंज स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद बनफूल चले गये हजारीबाग कॉलेज,
आई॰एससी पढ़ने के लिये । आई॰एससी पास करने के बाद बिहार से चुने गये बारह छात्र में
से एक बन कर चले गये कलकत्ता, मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुये । सन 1923 में बीमारी
के कारण एम॰बी॰ की परीक्षा नहीं दे पाये । उसी साल पटना में प्रिन्स ऑफ वेल्स
मेडिकल कॉलेज स्थापित हुआ । बिहार सरकार के कानून के अनुसार वे इस कॉलेज में चले आये
एवं सन 1927 में उन्होने इस कॉलेज से एम॰बी॰ किया । उत्तीर्ण होने के बाद उसी
कॉलेज में नौकरी मिल गई । लेकिन सरकारी रीति के तहत उच्च अधिकारी को सलाम करना
पड़ता, तो इस्तीफा दे दिया । लगभग साल भर अजीमगंज म्युनिसिपल अस्पताल में काम करने
के बाद भागलपुर में अपनी लैबरेटरी की प्रैक्टिस शुरू की । एक दिन विख्यात पत्रिका
‘शोनिबारेर चिठी’ के परिमल गोस्वामी भागलपुर आये बनफूल की रचना ले जाने के लिये ।
उसके बाद हर महीने बनफुल की रचना प्रकाशित होने लगी, पर उनमें अधिकांश व्यंग
कवितायें थीं । कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने एक बार बनफूल को उपदेश दिया था, “यदि
निरपेक्ष कोई रसिक व्यक्ति तुम्हारी रचना सुन कर या पढ़ कर कहे कि अच्छी है, तब तुम
अपनी रचना छापने के लिये दे सकते हो; सच्चे रसिक अमूमन गलती नहीं करते …।“ इसी
उपदेश को शिरोधार्य कर बनफूल साहित्य के क्षेत्र में अग्रसर हुये हैं । 15 जनवरी
1934 को बिहार में भयावह भुकम्प आया । बिहार के इतिहास की स्मरणीय घटना है यह
भुकम्प । बनफूल का घर भी भुकम्प में
ध्वस्त हो गया । हालाँकि व्यक्तिगत क्षति कोई खास नहीं हुई। इसी समय लेखक का पहला
उपन्यास ‘तृणखंड’ रचित हुआ । प्रकाशित हुआ 1935 में । इसी उपन्यास के प्रकाशन के
बाद कवि एवं कथाकार बनफूल उपन्यासकार बनफुल के नाम से बंगला साहित्य की दुनिया में
परिचित हुये ।
बहुमुखी प्रतिभा के अधिकारी बनफूल ने अपने स्वभाव की वैविध्य की अभिव्यक्ति
अपने साहित्य में की । साहित्य में वैविध्य के बारे में लिखते हुये उन्होने कहा
है, “मेरा एक स्वभाव है कि अधिक दिनों तक मैं एकरसता बर्दाश्त नहीं कर पाता हूँ ।
लगातार एक ही किस्म की सब्जी नहीं खा सकता हूँ । … मैं खुद भी रसोईघर जा कर नया
कुछ पकाने का प्रयास करता था । लेखन में भी हमारा यह स्वभाव क्रमश: खुद को जाहिर
करने लगा । कुछ दिनों तक व्यंग कविता लिखने के बाद फिर व्यंग कविता लिखने की रुचि
नहीं रही ।“ [पश्चातपट]
इन बातों से स्पष्ट होता है कि किसी भी ऊँचे दर्जे के साहित्यकार की तरह बनफूल
के लेखन में बार बार शैली व विषय के बदलाव के कारण भी उनके स्वभाव में ही निहित थे
। कलुषित समाज पर विद्रुप की जो शुरूआत उन्होने व्यंग कविता से की थी, बाद में
कहानी एवं उपन्यासों में उसे प्रसार मिला । बंगला नाटक में भी बनफूल की प्रतिभा का
हस्ताक्षर देखने को मिला । इस तरह, साहित्य के कई क्षेत्र में बनफूल विचरण किये
एवं उन्हे सफलता मिली । कलकत्ता में ‘शोनिबारेर चिठि’ पत्रिका के दफ्तर में उनका
परिचय बंगाल के कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों से हुआ । वे थे – ताराशंकर
बन्दोपाध्याय, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, प्रमथनाथ बिशी, विभूति भूषण मुखोपाध्याय,
बीरेन्द्र कृष्ण भद्र, नीरद चौधुरी, मोहितलाल मजुमदार, सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय,
ब्रजेन्द्र नाथ बन्दोपाध्याय, डा॰ सुशील कुमार दे आदि । सजनी कान्त दास
(‘शोनिबारेर चिठि’ के सम्पादक) द्वारा दिया गया उत्साह एवं प्रेरणा बनफूल की
साहित्यिक अग्रगति में सहायक सिद्ध हुआ । सन 1935 में पटना स्थित बी॰ एन॰ कॉलेज से
एक साहित्य सभा का निमंत्रण आया । अन्य जो साहित्यकार निमंत्रित थे वे थे, विभूति
भूषण बन्दोपाध्याय, शरदिन्दु बन्दोपाध्याय, विभूति भूषण मुखोपध्याय, ताराशंकर
बन्दोपाध्याय, परिमल गोस्वामी, सजनी कान्त दास । उनके रहने की व्यवस्था हुई थी
इतिहासकार योगीन्द्रनाथ समाद्दार के घर में । बहुजन का मन हर लेने की बनफूल की
क्षमता को खुली स्वीकृति मिली इस साहित्यसभा में ।
कठोर परिश्रम के द्वारा बनफूल को प्रतिष्ठा मिली थी । उन्ही दिनों उनकी
मुलाकात रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हुई । रवीन्द्रनाथ से मुलाकात के बारे में बनफूल ने
लिखा है, “कवि रवीन्द्रनाथ से मेरा परिचय उनके विपुल सृजन-संभार के माध्यम से हुआ
था, इंसान रवीन्द्रनाथ से मेरा परिचय उनके सान्निध्य में पहुँच कर हुआ । समझ में
आई कि वास्तविक आभिजात्य का स्वरूप क्या है । वह धन का झंकार नहीं होता है, वह
महत्व की अभिव्यक्ति होती है । उस महत्व मे स्नान कर मैं कृतार्थ हुआ था । उनके
जीवन के अन्तिम वर्षों में उनके साथ मेरा जो घनिष्ठ परिचय हुआ था, वही मेरे जीवन
की परम प्राप्ति है ।” रवीन्द्रनाथ से परिचय होने के बाद बनफूल ने अपने ग्रंथ
उन्हे उपहार के तौर पर दिया था । उन ग्रंथों को पढ़ कर रवीन्द्रनाथ ने अपनी राय भी दी
थी । लेखन के बारे में उपदेश देते हुये रवीन्द्रनाथ ने बनफूल से कहा था, “……
इतिहास, विज्ञान, दर्शन अधिक से अधिक पढ़ने की जरूरत है, उपन्यास नहीं पढ़ने पर भी
कोई बात नहीं । जिस तरह मिट्टी में खाद दिया जाता है, मन में भी खाद दिया जाता है
। नहीं तो फसल अच्छी नहीं होती है … ।“ [बनफूल रचनावली, द्वितीय खंड, पृ॰ 616 ]
भागलपुर में रहते हुये बनफूल का इकतालीसवाँ जन्मदिवस मनाया गया एवं भागलपुर
साहित्य परिषद ने उन्हे सम्मानित किया । बंगला साल 1343 के सावन माह की चार तारीख
को उनकी जन्मतिथि पर कलकत्ता से भी उनके साहित्यिक मित्र आये थे । ब्रजेन्द्र नाथ
बंदोपाध्याय, ताराशंकर बंदोपाध्याय, सजनीकान्त दास एवं सुबलचन्द्र बंदोपाध्याय ।
उस दिन ताराशंकर बंदोपाध्याय द्वारा लिखित एक मानपत्र पढ़ा गया । उस समारोह के कुछ
दिनों के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ जिसका तीव्र प्रभाव भारत पर भी पड़ा ।
अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के लिये भारत में अगस्त आन्दोलन शुरू हुआ । वैसे आज़ादी
का आन्दोलन एक जारी आन्दोलन था एवं काफी पहले से भारतवासी आन्दोलनों में कमोबेश
भाग लेते रहे हैं । कोई खुले तौर पर तो कोई गुप्त तौर पर । राजनीति के बारे में
बनफूल कहते हैं, “हालाँकि खुले तौर पर मैं किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं था,
लेकिन राजनीति का प्रभाव मेरे मन पर भी पड़ा था । मन ही मन मैं कांग्रेसी था,
महात्मा गांधी पर मेरी श्रद्धा थी फिर भी उस दिन बहुत चोट पहुँची थी जब नेताजी
सुभाष चन्द्र कांग्रेस से निकाले गये …” [पश्चातपट]
बयालीस का आन्दोलन पूरे देश में फैल गया । लेखक के दिल को इस आन्दोलन ने हिला
दिया । बनफूल द्वारा उस समय रचित एक उपन्यास में इस आन्दोलन का लेखक पर पड़े प्रभाव
का वर्णन है । जो लोग देश की मुक्ति के लिये मौत को गले लगा रहे थे उनके त्याग और
आदर्श को श्रद्धा की नज़र से देखते हुये वह परोक्ष रूप से मदद करने लगे । जिन लोगों
ने मालगुदाम लूटा उन्हे बनफूल के घर में आश्रय मिला । रात जग कर बनफूल
आन्दोलनकारियों का इश्तहार एवं बुलेटिन अंग्रेजी और बंगला में लिख देते थे । वे उन
इश्तहारों का हिन्दी में अनुवाद कर, जान जोखिम में डाल कर दीवारों पर टांग दे थे ।
इसके बाद भारत में एक के बाद एक जो राजनीतिक संकट आये उनका प्रत्यक्ष या
परोक्ष प्रभाव बनफूल के कुछ उपन्यासों में दृष्टिगोचर हुआ । बाद में वह दिल्ली
स्थित सरकारी साहित्य अकादमी के सदस्य भी चुने गये । लेखकों को पुरस्कार देनें के
लिये अकादमी ने जो तरीका अपनाये थे बनफूल उसका समर्थन नहीं कर सके । इसलिये अकादमी
से सारे सम्बन्ध उन्होने तोड़ दिये ।
भागलपुर में रहते हुये बनफूल की प्रतिभा विविध रूपों में विकसित हुई । उनके
अपने शब्दों में, “भागलपुर में मेरा जीवन सुखद था । डाक्टरी करता था, रात जग कर
लिखता था, बीच बीच में आकाश की चर्चा करता था, दिन में फुरसत मिलते ही पक्षियों की
खबर लेता था ।” [पश्चातपट] ये सारे अनुभव उनके साहित्य की सामग्री बने हैं । इन्ही
दिनों कहानी और उपन्यास लिखने की उनकी गति भी तेज हुई । बनफूल द्वारा रचित विभिन्न
किस्म की कहानियाँ एवं उपन्यासों के प्लॉट के बारे में सतीनाथ भादुड़ी ने उनसे
प्रश्न किया कि इतने सारे प्लॉट उन्हे कहाँ से मिलते हैं । इस प्रश्न के उत्तर में
बनफूल ने कहा कि लिखना उनके लिये साँसों की तरह हो चुका है । जब भी नया कोई प्लॉट
उनके मन में आता था वह विलम्ब किये बिना तत्काल उसे लिख डालते थे । हालाँकि लिखने
के बाद एक दो दिन अलग रख देते थे और फिर उसमें संशोधन कर दोबारा लिखते थे । अधिक
संख्या में लिखने के कारण बनफूल के शिक्षक डा॰ बनबिहारी मुखोपाध्याय बनफूल को
डाँटते थे । लेकिन लिखने की नशा बनफूल को रुकने नहीं देता था ।
बहुमुखी प्रतिभा के अधिकारी थे बनफूल एवं उनके सृजन की विविधता की कोई सीमा
नहीं थी । साहित्य के विभिन्न क्षेत्र में वह सव्यसाची की तरह विचरते थे । कविता,
नाटक, कहानी और उपन्यासों की विधा में समान रूप से दक्ष थे । उनके अध्ययन का क्षेत्र
भी उतना ही विशाल था । मूल रूप से वह चिकित्साशास्त्र के छात्र थे लेकिन
मानवसभ्यता के इतिहास से लेकर दर्शन, भू-शास्त्र, प्रेत-शास्त्र, जीव-शास्त्र,
राजनीति, मनोविज्ञान, आकाश-विज्ञान इत्यादि बहू-विचित्र अध्ययनक्षेत्रों के वह
एकाग्र पाठक थे । विदेशी साहित्य का भी उन्होने गहन अध्ययन किया ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व्यंग कविता एवं कहानियों के माध्यम से
बनफूल को साहित्य में प्रतिष्ठा मिली । सन 1935 में ‘तृणखंड’ उपन्यास के प्रकाशन
के बाद वह सुदृढ़ता के साथ प्रतिष्ठित साहित्यकार हुये । उपन्यासों की दुनिया के परम्परागत
सभी नियमों को तोड़ कर वह एक नया युग ले आये । कुछेक पल को केन्द्र में रख कर
रसोत्तीर्ण उपन्यास बंगला साहित्य में उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था । विदेशी
साहित्य के रस का आस्वादन करने वाले बनफूल ने बंगला साहित्य में उसे सम्भव कर दिया
। दूसरी ओर उनके उपन्यासों के फॉर्म में भी नई नई चीजें जुड़ती गई हैं । उपन्यास की
शैली को लेकर प्रयोग करने में बनफूल बंगला साहित्य में अग्रणी रहे हैं ।
रसोत्तीर्ण साहित्य के सृजन के लिये सिर्फ भीतर की प्रेरणा एवं चिंतापरायणता ही
नहीं, लेखक के अनुभवों का समृद्ध होना भी नितान्त आवश्यक है ।
यही अनुभव नये नये साहित्य के सृजन में कल्पना और प्रेरणा को विस्तार देता है,
नये नये पात्रों के सृजन में सहायक होता है । बनफूल में यह अनुभव पूर्ण मात्रा में
था । बनफूल की वैज्ञानिक दृष्टि, डाक्टरी जाँच केवल मानवशरीर को लेकर ही नहीं,
मानवचरित्र के सूक्ष्म विश्लेषण में भी जारी रहती थी । समाज के बीच रह कर भी
मनुष्य हर पल अपना वजूद, अपने भीतर गहराई में स्थित रूप को भूल जाता है । बनफूल के
साहित्य में मानव चरित्र के भीतर गहराई में बसे इस रूप की अभिव्यक्ति है ।
चिकित्साकार्य में व्यस्त रहने के बावजूद अपने व्यक्तिगत जीवन में बनफूल
शिल्पी, सत्य के खोजी एवं निसर्ग के प्रेमी व्यक्ति थे ।
बनफूल के शिल्पी व प्रेमी मन से हमारी मुलाकात उनके, सितार आदि वाद्ययंत्रों
के अभ्यास से होती है । फुरसत के क्षण में दुरबीन की मदद से उन्होने अन्तरीक्ष का
भी अध्ययन किया । इसी के साथ फूलों की सुन्दरता पर भी वह ध्यान देते थे; गुलाब
उन्हे अत्यंत प्रिय था । उनके भागलपुर वाले घर में तार की जाली से घेरा हुआ उनके
अपने गुलाब के बाग की परिचर्या वह खुद करते थे ।
सन 1957 में रचित ‘कवय’ नाटक में उन्होने बेटी के बाप की भूमिका में अभिनय
किया । नाटक के दर्शकों में थे प्रख्यात साहित्यकार ताराशंकर बंदोपाध्याय, विभूति
भूषण मुखोपाध्याय, नचिकेता आदि । प्रौढ़ काल में इस अभिनय प्रचेष्टा में दिखती है
उनकी कलाकार-सुलभ मानसिक सरसता एवं सामाजिक आयोजनों में हिस्सा लेने का आग्रह ।
साहित्यक्षेत्र में बनफूल का आविर्भाव बीसवीं सदी के तीस के दशक में हुआ । उस
समय बंगला साहित्य में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रभाव मध्य-गगन में सूर्य के आलोक की
तरह चारों ओर फैला हुआ है । इस काल के साहित्यकार कोई भी रवीन्द्र-प्रभाव खुद को
मुक्त नहीं कर पाये । फिर भी, युग के प्रभाव में पूर्वपुरुषों के आलोक से आलोकित
मार्ग पर कई कवि व लेखक अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हुये – बनफूल उनमें उल्लेखनीय
हैं ।
बनफूल का पहला उपन्यास ‘तृणखड’ प्रकाशित हुआ सन 1935 में एवं अन्तिम उपन्यास
‘हरिशचन्द्र’ प्रकाशित हुआ सन 1979 में । इस काल खन्ड में उनके द्वारा रचित चालीस
उपन्यास अब तक मिले हैं । कहानी लगभग 200 । इसके बाद कविता एवं नटक । ईश्वरचन्द्र
विद्यासागर एवं माइकेल मधुसूदन दत्त पर लिखा दो जीवनी नाटक को कालजयी कृति का
दुर्लभ सम्मान प्राप्त हुआ है । ये दोनों नाटक विभिन्न विश्वविद्यालयों में स्नातक
व स्नातकोत्तर बंगला पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत है । उनके उपन्यास पर बनी
फिल्म ‘भुवन सोम’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला । दो बंगला फिल्म, ‘किछुक्षण’ एवं
‘हाटेबाजारे’ को बहुत प्रशंसा मिली । सोच को आगे बढ़ाने वाले उनके कई तर्कवादी
निबंध, निबंध रचना में उनकी सहज दक्षता का परिचायक है ।
साहित्य के आलोचकों द्वारा बनफूल के उपन्यासों को विकास के कुछ चरणों में
विभाजित किया गया है ।
पहले चरण में उन्होने ‘तृणखंड’ (1935), ‘बैतरणीतीरे’ (1936), ‘किछुक्षण’
(1937) एवं ‘से ओ आमि’ (1943) उपन्यासों को रखा है ।
दूसरे चरण में उन्होने ‘द्वैरथ’ (1937), ‘मृगया’ (1941), ‘निर्मोक’ (1940) आदि
को रखा है – इन उपन्यासों में मोटे तौर पर पारम्परिक शैली का इस्तेमाल किया गया है
। यानि साहसिक प्रयोग जो बनफूल के लेखन की खास पहचान है, इन उपन्यासों में उभर कर
नहीं आया है ।
तीसरे चरण में आते हैं ‘मानदन्ड’ (1948), ‘नवदिगन्त’ (1949), ‘पंचपर्व’ (1955)
आदि । इनमें मनोविज्ञान को प्रधानता दी गई है । घटनाओं पर निर्भरशील प्लॉट को
प्रधानता दी गई है ।
चौथे चरण में है ‘स्थाबर’ (1951), ‘जंगम’ (तीन खंड 1943 – 1945), ‘डाना’ (तीन
खंड 1948 – 1955) । बिल्कुल नये प्रयोग किये गये हैं । परिप्रेक्ष्य में
क्लासिकीयता एवं फैलाव देखा जा सकता है ।
पाँचवां चरण । शैली एवं जीवन-दर्शन के नयेपन के कारण ‘अग्नीश्वर’,
‘हाटेबाज़ारे’, ‘मानसपुर’, ‘रौरव’, ‘त्रिवर्ण’ को साहित्य के समझदारों से तारीफ
मिली है । इनके अलावा भी पाँचवें चरण में उन उपन्यासों को रखा जा सकता है जिनमें
समकालीनता एवं राजनीति प्रतिविम्बित हुआ है । अगस्त आन्दोलन को लेकर ‘अग्नि’,
धार्मिक दंगे को लेकर ‘स्वप्नसम्भव’ इस दायरे में आते हैं । देश का बँटवारा एवं
शरणार्थी समस्या को लेकर ‘पंचपर्व’ को इस पर्व में भी शामिल किया जा सकता है ।
एक विशिष्ट साहित्यालोचक का बनफूल के साहित्य के बारे में कहना है :-
गहन मानवीय अनुभूति, अपराजेय नैतिक साहस, दृष्टि की पारदर्शिता, वक्तव्य की
ॠजुता, जाति-धर्म-रंग के बारे में उदारता एवं सभी प्रकार के संकीर्णता का विरोध
बनफूल रचित साहित्य की विशेषता है । उसी के साथ भाषा एवं शिल्प की निपुणता जैसे
सोने में सुहागा जैसा युक्त हुआ है ।
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद – विद्युत पाल
ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा
प्रकाशित “बिहार के गौरव – खन्ड 2” से साभार
No comments:
Post a Comment