Tuesday, June 22, 2021

विदूषी लेखिका अनुरूपा देवी - पूर्णेन्दु मुखोपाध्याय

 यह गर्व की बात है कि बंगला साहित्य के आधुनिक दौर की लेखिकाओं में अग्रगण्य अनुरूपा देवी के  साहित्य-जीवन का महत्वपूर्ण अंश बिहार में एवं मुजफ्फरपुर शहर में व्यतीत हुआ यहीं रहते हुये उन्होने महत्वपूर्ण, लोकप्रिय एवं आलोचकों द्वारा प्रशंसित उपन्यासों एवं कहानियों की रचना कीअपने समय कि एक बहुप्रज स्त्री रचनाकार थीं वह, उपन्यास, कहानी एवं अन्य उत्कृष्ट रचनायें उनकी लेखनी से निरन्तर सृजित होती रहीयही नहीं, दस साल की उम्र में विवाह के उपरांत अनुरूपा देवी जब मुजफ्फरपुर पहुँची, उस समय रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बड़ी बेटी माधुरीलता भी वहीं अपने ससुराल में थीं, दोनों में घनिष्ट मित्रता रही और दोनों ने मिलकर वहां स्त्रीशिक्षा के कार्य को आगे बढाने के लिये काम कियाचैपमैंन बालिका विद्यालय, जो आज भी मुजफ्फरपुर में चल रहा है, इन दोनों मित्रों ने मिलकर स्थापित किया था इसीलिये जब ह्म बिहार को बंगला साहित्यकारों की प्रमुख कर्मभूमि के रूप में देखते हैं तो उसमें अनुरूपा देवी की लेखनी पूरी ताकत के साथ सक्रिय दिखती है

अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का बचपन से कॉलेज-जीवन के प्रारंभ तक भागलपुर में बीता था सन 1901 में वह एकबार मुजफ्फरपुर आये भागलपुर एवं मुजफ्फरपुर के मित्रों को लेकर उन्होने एक साहित्यसभा का गठन किया खुद उस साहित्यसभा के अध्यक्ष एवं प्रेरणास्रोत थे नियमित रूप से स्वलिखित रचनाओं के पाठ का कार्यक्रम होता था हाथ से लिखी हुई एक पत्रिकाछायाका भी प्रकाशन होता था उक्त साहित्यसभा से जुड़ी जो तीन महिला लेखिकाओं का जिक्र मिलता है उनमें प्रमुखतम हैं अनुरूपा देवी

कोलकाता शहर के श्यामबाजार में अपने ममहर में 9 सितम्बर 1882 को अनुरूपा देवी का जन्म हुआ पिता थे मुकुन्ददेव मुखोपाध्याय और माता धरासुन्दरी देवी पितामह थे बिहार के अति परिचित प्रख्यात शिक्षाविद भुदेव मुखोपाध्याय मातामह थे नगेन्द्रनाथ बन्दोपाध्यायअनुरूपा देवी के साहित्य की समीक्षा में प्रवेश के पूर्व उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ चर्चा आवश्यक हैपिता के तरफ का परिवार एवं माता के तरफ का परिवार दोनों तत्कालीन समाज में रौशन-खयाल परिवारों में गिने जाते थेबंगाल के नवजागरण के मशाल को आगे बढाने वाले अग्रगण्य मनीषी भुदेव मुखोपाध्याय का बिहार से रिश्ता सर्वविदित हैउन्नीसवीं सदी के सत्तर के दशक में भुदेवबाबु विद्यालय परिदर्शक के रूप में अंग्रेज सरकार द्वारा बिहार में पदस्थापित हुये थेउन्होने उस दौरान कई महत्वपूर्ण विकास-कार्य कियेशहर के विद्यालयों की तूलना में गाँवों के विद्यालय उपेक्षित थेशहरों के साथ साथ उन्होने गाँवों के विद्यालयों की उन्नति के लिये कई कदम उठायेकई जगहों पर आदर्श हिन्दी विद्यालय की स्थापना कियेअच्छे पाठ्यपुस्तकों का अभाव दूर करने के लिये उन्होने बंगला पाठ्यपुस्तकों का हिन्दी अनुवाद कियाबिहार के अदालतों में उस समय फारसी का प्रचलन थाउन्होने अदालतों में हिन्दी का प्रचलान करवाया और इस काम के लिये आम जनता की निगाह में श्रद्धा के पात्र बन गयेशिक्षा एवं प्रशासन के साथ उन्होने स्थानीय भाषा का सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया थाउत्तर बिहार के जिस अंचल में उनका कार्यक्षेत्र था वहाँ बहुसंख्यक जनता लोकभाषा के अलावे हिन्दी ही जानती थी, समझती थीइसलिये, खुद बंगलाभाषी होते हुये एवं किसी भी भाषा को लागू करवाने की क्षमता सरकारी तौर पर उनके हाथों में रहने के बावजूद उन्होने बंगला नहीं बल्कि हिन्दी को लागू करवायायह एक ऐतिहासिक फैसला थास्वतंत्रता के बाद भाषा को लेकर जो अवांछित विवाद उत्पन्न हुआ उसमें देश की अखंडता पर संकट छा गयाभविष्य की सोच रखनेवाले तत्कालीन विचारकों ने भाषा-जनतंत्र की सकारात्मक सोच को समाधान-स्वरूप प्रस्तुत कियाकहना गलत नहीं होगा कि सात दशक पहले भुदेवबाबु का काम उसी भाषा-जनतंत्र का पहला बीजारोपण थाप्रांत की जनता ने भी उस समय भुदेवबाबु को यथोचित सम्मान दियाअम्बिका दत्त व्यास एवं अन्य जनकवियों ने भुदेवबाबु की प्रशस्ति में लोकगीतों की रचना कीदूसरी तरफ बाँकीपुर के मोख्तार रघुवर दयाल के नेतृत्व में भुदेवबाबु के प्रशंसकों ने पैसे इकट्ठे करभुदेव हिन्दी मेडल फंडबनायाजो छात्र मैट्रिक में हिन्दी विषय में सर्वोच्च अंक प्राप्त करता था उसे एक चाँदी का मेडल एवं एक हिन्दी पुस्तक पुरस्कार के तौर पर मिलता थाकई दशकों तक यह मेडल दिया जाता रहा

अनुरूपा देवी के बारे में लिखते हुये उनके पितामह भुदेव मुखोपाध्याय का इतना परिचय देना जरूरी थापितामह भुदेव के अलावे एक और व्यक्तित्व का साहचर्य अनुरूपा देवी को अपने बचपन में मिलावह थे उनके मातामह नगेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय जो आधुनिक प्रगतिवादी नाट्यसमाज के प्रमुखतम प्रवर्तक थे

यानि अपने दोनों तरफ के परिवार से अनुरूपा देवी को बंगाल के नवजागरण की सर्वश्रेष्ठ भावनायेंआत्मनिर्भरता, युक्तिवाद, विज्ञान-चेतना, मानवतान्त्रिक सोच, देशप्रेम, भारतीय विरासत को पुनर्मुल्यांकन के माध्यम से ग्रहण करना या त्यागना, जनवादी मूल्यों का विकास आदिउत्तराधिकार के तौर पर प्राप्त हुआ था

2

अनुरूपा देवी अपने समय की एक अनन्य लेखिका हैंविदूषी तो वह थी हीं, साथ ही उपन्यास के कथ्य को एक बड़े फलक में पकड़ने की कोशिश करती थींउनकापोष्यपुत्रउपन्यास अपने मूल कथानक में बहुत सारे पात्रों और घटनाक्रमों के बीच से गुजरते हुये एक औरत की अपने प्रेम के प्रति आस्था की कहानी हैलेकिन कथ्य का भुगोल बृन्दावन, कलकत्ता, दिल्ली, बनारस से लेकर मदुरै तक फैला रहता है तो दूसरी ओर पात्रों के जीवन में समसामयिक राजनीतिक घटनायेंस्वदेशी आन्दोलन, कांग्रेस का बॉयकट आन्दोलननिरन्तर छाप छोड़ता हैपात्र वैचारिक पुस्तकें साहित्य पढते हैं एवं उन पर बहसें होती हैंपुरुषों में भी और नारियों में भीऐसा करने में कहीं कहीं कथानक थोड़ी अनगढ भी हो जाती हैघटनाओं के विकास में उन्नीसवीं सदी के योरोपीय उपन्यासों की तरह संयोग की एक बड़ी भूमिका रहती हैफिर भी एक आकर्षण बनता है पाठकों का जब उपन्यास की शुरुआत में मुख्य पात्र शिवानी के जीवन के इस पल से हम गुजरते हैं:-

शिवानी बैठी रहीयह जो चारों ओर विराट विश्वव्यापी घना अंधकार है, क्या इसकी कोई सीमा नहीं है? यह जो आकाश में, हवा में, जल-स्थल-अन्तरिक्ष-धरित्री पर भाषाहीन, शब्दहीन अनन्त नीरवता व्याप्त है, क्या इसका भी कोई अन्त नहीं?

अंधकार! उसके प्राण में क्या इससे कम अंधकार है? वह जो उस पार वृक्ष की कतारों में कुछ जुगनू काले केश में हीरे के फूलों की तरह दमक रहे हैं, वह जो आसमान के एक छोर पर दो एक नक्षत्र तैरते बादलों के अन्तराल से झिलमिला रहे हैं, उन नक्षत्रों की तरह. छोटे जुगनू की तरह की रोशनी की कोई किरण को भी तो उसके आशाहीन, सान्त्वनाहीन अंधकार हृदय के कोने में जगह नहीं मिलतीतभी तो उसे अपने अनंत अंधकार में डूबकर बाहर के इस अभेद्य अंधकार को देखते रहना अच्छा लगता हैयह क्षणिक अंधकार उसके असीम अशेष अंधकार से मिल कर एक हो जाता हैदिन के बाद दिन आते हैं, रात के बाद रात आती है, दोनों अपने निर्दिष्ट काम पूरा करते हैं, उसके अन्दर जो कालरात्रि आई है, वह तो खत्म नहीं होती! कब खत्म होगी? इस जीवन में कभी खत्म होगी भी क्या?”

और एक उपन्यास हैज्योतिहारा’। इस उपन्यास में दार्शनिक बहस अधिक मात्रा में हैकान्ट, हेगेल, डारविन, हार्बर्ट स्पेन्सर, हाक्सले, फिर सांख्य, वेदान्त, उपनिषद सभी की चर्चा इस उपन्यास में हैइनकी पीढी के प्रेरक शख्सियत, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय, जिन्हे ये नेता मानते थे, वह भी अनुरूपा देवी की इस लेखकीय प्रवृत्तिआवश्यकता से अधिक पान्डित्य का प्रदर्शन - का समर्थन नहीं कियाआलोचक नन्ददुलाल बसु को भी लगता है कि आवश्यकता से अधिक दार्शनिक सिद्धांतों को लाकर लेखिका ने उपन्यास को बोझिल बना दिया हैफिर भी इस उपन्यास के कई सकारात्मक पहलु हैंवस्तुवादी नास्तिक की बेटी अणिमा इस उपन्यास की नायिका हैजनकल्याण के कामों में उन्होने खुद को समर्पित किया हैशिक्षा के प्रसार के लिये विद्यालयों की स्थापना, जनहित में तालाव का निर्माण, अनाथ आश्रम की स्थापना आदि कामों में लगी इस नारी में हमें नारी-सशक्तीकरण का उन्मेष देखने को मिलता हैदार्शनिकता के आवरण में रख कर लेखिका ने इस पात्र के अन्त:स्थल के छुपे सौन्दर्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया हैकुछ आलोचकों को इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचितगोराउपन्यास का हल्का प्रभाव देखने को मिला हैएक आलोचक ने इस उपन्यास की प्रशंसा में लिखा है, “इस उपन्यास का मूल विषय आम उपन्यासों की तरह का नहीं है और ऐसा उपन्यास बंगला साहित्य में दूसरा नहीं है”। शायद थोड़ी अतिशयोक्ति है लेकिन इसका इशारा एक सही बात की ओर है कि यह उपन्यास चिन्तनध्रर्मी है और इसी कारण से बंगला साहित्य की सामान्य धारा में अपवाद स्वरूप हैरवीन्द्रनाथ ठाकुर या बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों एवं कहानियों में भी, कथा-वाचक की दक्षता के बावजूद गहराई में, अन्त:सलिला फल्गू की तरह निरन्तर प्रवाहित रहती है दार्शनिक चिन्तन की एक समृद्ध धारावह बाहर दिखाई नहीं देती हैइसीलिये उनकी साहित्यिक रचनायें कालजयी हैंअनुरूपा देवी अपनी रचनाओं में शायद शैल्पिक दक्षता की उस उँचाई को छू नहीं पाईंफिर भी बीसवीं सदी की शुरुआत की एक बहुप्रज महिला रचनाकार के रूप में बंगला साहित्य के विकास में उनके योगदान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है

हर युग में दो प्रकार के रचनाकार होते हैंएक प्रकार के रचनाकार सिर्फ मनोरंजन को ध्यान में रखते हुये रसीले, भावातिरेक अतिनाटकीयता से पूर्ण कहानी बुनते हैंउन्के ध्यान में रहती है बस तात्कालिक लोकप्रियताजबकि दूसरे प्रकार के रचनाकार पाठकों को सोचने-विचारने के लिये प्रोत्साहित करते हैं, अपनी लेखनी चलाते हैं जीवन और समाज में शुभ के बोध को जागृत करने के लियेशिल्प के प्राथमिक शर्त, मनोरंजन, को मानते हुये ही वे सामाजिक प्रतिवद्धता को शिरोधार्य करते हैंतॉलस्तॉय, रोम्या रॉलाँ, स्ताँदाल, बारबूस, दॉस्तॉयेव्स्की, गोर्की, हेमिंग्वे, रेमार्क, रवीन्द्रनाथ, बंकिमचन्द्र सभी इस द्वितीय मार्ग के पथिक हैंअनुरूपा देवी, अपनी सभी शैल्पिक कमजोरी के बावजूद इस द्वितीय खेमे की लेखिका हैं और हम यह मानते हैं कि इसके पीछे उनके पितामह एवं मातामह प्रबल प्रेरक शक्ति रहे हैं

अनुरूपा देवी का एक और उपन्यास हैवागदत्ता’। इस उपन्यास में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है एवं जटिल घटना-विन्यास के माध्यम से उपन्यास आगे बढा हैंइसमें शचीकान्त का पात्र हमें आकर्षित करता हैप्रेम को ही अपने जीवन का पाथेय बनाकर निष्ठा एकाग्रता के साथ वह जीवनसंघर्ष में उतरा हैउसके स्वभाव में है धैर्य और दृढतादूसरी ओर, नायिका कमला का पात्र भी आदर की मांग करता हैउसका आत्मसंयम, स्थिर संकल्प, मन की दृढता प्रशंसा के योग्य हैअत्यंत कुशलता के साथ लेखिका ने इस पात्र का निर्माण किया हैयाद रखना होगा कि लेखिका जिस युग की हैं, नवजागरण का आलोक के फैलाव के बावजूद समाज का एक बड़ा हिस्सा उस युग में तब तक सामन्तवादी समाज के अंधकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया थाउस समय, शिक्षा का आलोकप्राप्त, व्यक्तित्वमयी एक नारी-पात्र के निर्माण में लेखिका निर्भय होकर अग्रसर हुईं एवं नारीमुक्ति आन्दोलन को शक्तिशाली बनाने का प्रयास कीइस उपन्यास का एक और उल्लेखनीय पात्र है उमाकांतनिर्विकार पुरुष है वहबाहरी घटनाओं का अभिघात चाहे कितना भी प्रबल हो उसका मन चंचल या विक्षुब्ध नहीं होता है

1915 में प्रकाशितमंत्रशक्तिउपन्यास को कुछ आलोचकों ने अनुरूपा देवी रचित सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के आसन पर रखना चाहा हैडा: नन्ददुलाल राय कहते हैं, “उनके उपन्यासों की सामान्य त्रुटि या गलतियों, अर्थात मन्तव्य एवं विश्लेषण की अधिकता को लेखिका ने इस उपन्यास में यतन के साथ परिहार किया है एवं अनाड़म्बर संयमित वर्णन कहीं भी कहानी पर भार नहीं बना है”। कहानी यूँ शुरू होती है कि एक सज्जन, न्यायप्रिय जमींदार की जमीन्दारी में उनके पूर्वज द्वारा प्रतिष्ठित कुलदेवता गोपीकिशोर की भव्य मन्दिर का पुरोहित जो उसी के संलग्न जमीन्दार की दूसरी कीर्ति संस्कृत चतुष्पाठी का प्रभारी शिक्षक भी है, मृत्यु के समय जमीन्दार महाशय एवं अन्य कतिपय जनों की उपस्थिति में अपने पाठशाला के एक कनिष्ठ विद्यार्थी अम्बरनाथ को अगला प्रभारी शिक्षक मन्दिर का पुरोहित बनाने का प्रस्ताव रखता है और जमीन्दार महाशय से मनवा भी लेता हैअम्बरनाथ उम्र में भी और चतुष्पाठी में प्रवेश के हिसाब से भी सर्वकनिष्ठ था, बहुत ही शान्त विद्यार्थी था, पूरी तरह आज्ञाकारी था और गुरुजी के कहने पर सभी के लिये भोजन पकाने का भार, जो पहले अन्य छात्रों को बारी बारी से करना पड़ता था, अपने उपर ले लिया थागुरुजी के मृत्युकालीन फैसले से सभी अचरज में थे, कुछेक छात्र क्षुब्ध भी थे किभात बनाने वाला छोकरा अब हमारा शिक्षक बन गया’। उधर जमीन्दार की बेटी राधारानी भी, कुछ तो अकारण ही अपने अहंकारी स्वभाव के कारण और कुछ बहकावे में आकर इस नये कुल पुरोहित अम्बरनाथ को नापसन्द करने लगती है (लेखिका ने मन्दिर में दोनों के मुलाकातों का अत्यंत निपुण मनोवैज्ञानिक चित्रण के द्वारा भविष्य के प्रेमभाव का बीजारोपण कर दिया है) और बात बात में पिता से इसकी शिकायत करने लगती हैवह इस कम उम्र के युवक की आज्ञाकारिता, विनयशीलता भी चिढने लगती हैदो घटनायें ऐसी होती है जिससे राधाराणी एवं अम्बर के विरोधी छात्र-गुट के शिकायतों को बल मिलता है और जिसके कारण अन्तत: जमीन्दार उसे कुल पुरोहित के पद से भी और चतुष्पाठी के प्रभारी शिक्षक के पद से भी हटा दिया जाता हैऔर वही दो घटनायें हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि पूर्व के पुरोहित ने इसे ही अपना भार क्यों सौंपा था और खुद लेखिका ने इस अम्बरनाथ को कहानी का नायक क्यों बनायापहला तो यह कि पुरोहित अम्बरनाथ गाँव के किसी शुद्र का उपहार दिया हुआ फूल बेझिझक पवित्र मन से पूजा में लगा देता है, किसी शुद्र का प्रेम से दिया हुआ अनाज भंडारे में (प्रभारी बनने के बाद भी भोजन वही बनाता था) में बेझिझक उतना ही पवित्र मन से लगा देता हैदूसरा, बहसों में (जिससे वह अमूमन कतराता भी है) वह साबित कर देता है कि वेदांत मत के प्रवर्तक शंकर ने, बौद्धों के निरीश्वरवाद के खंडन के लिये बुद्ध के मत से ही आत्मा और परमात्मा के एकत्व की अवधारणा को ग्रहण किया था और ऐसा सोचने में कोई बुराई नहीं हैऐसा कहने पर अम्बर को कोईपापिष्ठ बौद्धकहे तब भी नहींयानि अपने समय से आगे एक धार्मिक उदारता, समन्वय एवं जातिभेद से उपर मनुष्यता की समझ रखने वाला व्यक्ति था अम्बरनाथखैर, आगे की कहानी है कि भाग्य के फेर में जब राधारानी का विवाह उसी अम्बरनाथ से करवाने की बात होती है तो वह, पिता के घर में पूर्व की तरह रानी बिटिया बने रहने के स्वार्थ में शर्त लगा देती है कि विवाह वह बेशक करेगी लेकिन विवाह के बाद अम्बरनाथ को सारा सम्बन्ध त्याग कर देश छोड़ कर चले जाना होगाअम्बरनाथ जमीन्दार की आज्ञाकारिता में इस विवाह को भी और ऐसे बेतुका शर्त को भी मान लेता हैवह आसाम चला जाता है और उसे काफी प्रतिष्ठा हासिल होती हैउधर अकेलेपन में जीवन बिताते हुये राधारानी के मन में प्रेमानुभूति का संचार होता हैफिर आगे चलकर कालाजार से ग्रसित होकर अम्बरनाथ कलकत्ता आता हैराधारानी जो अब तक अनुताप से दग्ध हो रही थी, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर कलकत्ता पहुँचती है और निराश हो चुके डाक्टरों को अचम्भित कर प्रेम की तपस्विनी की सेवा से अम्बर को स्वस्थ करती हैमंत्रशक्ति शीर्षक विवाह के मंत्र की शक्ति के कारण पड़ा है जो राधारानी के उद्धतभाव को तोड़ कर अन्तत: एक प्रेमतपस्विनी बना देता है

महानिशा’ (1919) भी अनुरूपा देवी रचित एक लोकप्रिय उपन्यास है जो नारीहृदय में प्रेमचेतना के उन्मेष पर लिखा गया हैकुछ आलोचक कहते हैं कि, “वर्णन की दक्षता एवं विश्लेषण की निपुणता की दृष्टि से महानिशा उनके श्रेष्ठ उपन्यासों में प्रमुख हैपर अनुरूपा देवी का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास शायदमाँहैइस उपन्यास में मातृत्व की महिमा एवं गौरव की प्रतिष्ठा करने के लिये लेखिका तत्पर हैंनारी की कोमलता एवं सम्वेदनाओं के चित्रण में लेखिका ने अपनी पूरी ताकत लगाई हैजैसे सुधा का कलश उँड़ेल दिया होफिर भी कई आलोचक इस उपन्यास की त्रुटियों की ओर भी ध्यान आकर्षित किये हैंउन्होने दर्शाया है कि इस उपन्यास में भी आवश्यकता से अधिक विश्लेषण एवं विद्वता-प्रदर्शन की गई हैकहानी का नायक अरविन्द मनोरमा से विवाह करने के बावजूद पैसे के लालची पिता के दबाव में आकर गर्भवती पत्नी को त्याग करता है एवं ब्रजरानी से अपना द्वितीय विवाह करता हैंब्रजरानी के प्रति उसका जो कर्तव्य है अरविन्द उसका पूरा निर्वाह करता है, फिरभी ब्रजरानी की सन्देह की प्रवृत्ति तथा उसके चलते घर की अशांति को सम्हाल पा कर वह अपनी मानसिक सन्तुलन खो देता हैब्रजरानी को कोई बच्चा नहीं होता हैजिसके चलते ब्रजरानी का आचरण और उग्र हो उठता हैसन्देह, सौत के प्रति द्वेष सन्तानहीनता के भँवर में पड़कर उसका जीवन एक नकारात्मक काले साये की तरह हो जाता है और अरविन्द, इसके लिये उत्तरदायी होने के बावजूद मानसिक रूप से बीमार एवं फलस्वरूप पक्षाघात से ग्रस्त हो जाता हैब्रजरानी अरविन्द की इस हालत को देख कर अन्तत: मनोरमा के पास ही जाती हैमृत्युपथगामिनी मनोरमा अपने सन्तान अजीत को ब्रजरानी के हाथों में सौंप कर आखरी साँस लेती हैउधर ब्रजरानी का अशान्त मन अचानक शांत होता है, उसकी सारी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ खत्म हो जाती हैं, अजीत को गोद में पाकर उसका रेगिस्तान में घूमता जीवन श्यामल मरुद्यान में पहुँचता हैलेखिका का जै से आशय हो कि मातृत्व वो संजीवनी सुधा था जिसके प्रभाव से ब्रजरानी के जीवन के सारे विकार खत्म हो गयेस्वाभाविक था कि इस उपन्यास को सर्वाधिक लोकप्रियता मिली

और भी कई उपन्यास हैं उनकेउपन्यासों के अलावे अनुरूपा देवी ने कुछ कहानियों की भी रचना कीतत्कालीन पत्रिकाओं में प्रकाशित ये कहानियाँ बाद मेंमधुमल्लीनाम के एक संकलन में संकलित हुईविशेषता यह है कि कहानियों के सारे पात्र एवं कुछ घटनायें भी विदेशी हैंगुलजान, मैककेहान, जेसुन, यासीन, एक नेपाली लड़की...। एक कहानी तो फ्रांसिसी क्रांति के समय का हैयह बड़ी कहानी फ्रांसिसी क्रांति के प्रति लेखिका के मनोभाव को दर्शाता है

अनुरूपा देवी ने दो नाटक भी लिखे – ‘कुमारिल भट्टएवंविद्यारण्य’।

अपने समय की एक सशक्त लेखिका होने के कारण उन्हे कोलकाता विश्वविद्यालय सेलीला व्याख्यानदेने के लिये आमंत्रित किया गया थाउसी व्याख्यान की शुरुआती पंक्तियों से विदूषी लेखिका अनुरूपा देवी के इस संक्षिप्त परिचय का अन्त करता हूँ

मनुष्य के जीवन को मुख्यत: दो भागों में बाँटा जा सकता है; एक दैवायत्त, और दूसरा उसका स्वायत्त। पहले में वह अन्य निचले स्तर के प्राणियों की तरह प्रकृति के अधीन है, प्रवृत्तियों का गुलाम है, जनमता हैमरता है, खाता हैसोता है, सुख में हँसता है, दुख में रोता है। दूसरे में वह प्रकृति का नियन्ता है, प्रवृत्तियों का मालिक है, विज्ञान की सहायता से सिन्धु-पर्वत, देशकाल का फासला खत्म करता है, आग और बिजली को आदेशपालक बनाता है, रेगिस्तान, महामारी, ठंड, गर्मी एवं शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है, आसमान में उड़ता है, पाताल में प्रवेश करता है; दर्शन की सहायता से जीवात्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक के गहन रहस्यों का पता लगाता है, रोग, रिपु, शोक, मलिनता से उपर उठ शांति प्राप्त करता है और कुछ लोग तो कहते हैं कि मुक्ति भी लाभ करता है।

सभ्यता के सबसे निचले स्तर पर कला के बाद ही साहित्य का उदय हुआ है। पद्यक, बोल, गाथायें, परिकथा, व्रतकथा, मन्त्र इत्यादि आदियुग की लोकसाहित्य के विवेचन पर और एक सत्य स्पष्ट हो उठता है कि इन सभी ग्राम्य-प्राकृत साहित्य का अधिकांश ही नारी की रचना है यानी, धरती पर हर देश में आदियुग के साहित्य की शुरूआत की गई है और बुनियाद रची गई है नारी के हाथों।….”

[‘साहित्य मे नारी: स्रष्ट्री एवं सृष्टि’, लीला व्याख्यान, कोलकाता विश्वविद्यालय, 1944]

स्वत: स्पष्ट है कि नारी प्रगति एवं नारी सशक्तिकरण के विकास के एक चरण में लेखिका के तौर पर अनुरूपा देवी की भूमिका स्मरणीय रहेगी।

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद – विद्युत पाल

ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित “बिहार के गौरव – खन्ड 2” से साभार          

               


No comments:

Post a Comment