आठ साल की उम्र में कन्या का दान करने पर पिता माता को गौरीदान का पूण्य होता है। नौ-साल वाली को दान करने पर पृथ्वीदान का फल प्राप्त होता है। दस-साल वाली को पात्र के हाथों सौंपने पर आगे चलकर पवित्रलोक की प्राप्ति होती है। स्मृतिशास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित ऐसी ही कल्पित मृगतृष्णाओं में मुग्ध होकर, परिणाम की विवेचना से शून्य चित्त के साथ हमारे देश के मनुष्य मात्र ने बाल्यकाल में पाणिग्रहण की रीति को प्रचलित किया है।
किसे न अनुभव है कि
इसके कारण आज तक कितने दारुण अनर्थ संघटित हुये हैं? शास्त्रकारों ने इस बालविवाह
को संस्थापित करने हेतु एवं तारुण्यावस्था में विवाह को निषिद्ध करने हेतु अपनी
अपनी बुद्धि की कौशल से, अधर्म के भागी होने की कैसी कठोर से कठोर विभीषिका दर्शाई
है! अगर कोई कन्या कन्यादशा में ही पिता के घर में स्त्रीधर्मिनी
होती है, तो वह कन्या पिता और माता दोनों कुल के लिये कलंक की मूर्ति बन कर सात पीढ़ी
तक को नरक में भेज देती है और उसके पिता और माता आजीवन अशौचग्रस्त हो कर लोकसमाज में
अनादर एवं भेदभाव के भागी होते हैं।
इस बात से अगर किसी
सुबोध व्यक्ति के अन्त:करण में उक्त विधि के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, फिर भी वह परंपरागत
लौकिक आचरण के अधीन हो कर अपने अभीष्ट की सिद्धि करने में असमर्थ होता है। उनका आन्तरिक
विचार अन्तर्मन में उदित हो कर क्षणप्रभा की तरह क्षणमात्र में अन्तर्मन में ही विलीन
हो जाता है।
इस तरह लोकाचार व
शास्त्रव्यवहारपाश में आबद्ध हो कर दुर्भाग्यवश हम सदा बाल्य-विवाह
के कारण अशेष क्लेश व कभी न जाने वाली दुर्दशा झेल रहे हैं। बाल्यावस्था में विवाह
होने के कारण दम्पति, विवाह के मीठा फल, प्रणय का स्वाद कभी नहीं ले पाते हैं। फलस्वरूप,
आपस में प्रणय के साथ घरसंसार का निर्वाह करने में भी पग पग पर विडंबनाएं आती हैं।
आपस के उलझन भरे संबंधों में जो संतान की उत्पत्ति होती है, उसमें
भी उसी प्रकार हीन भावना होने की विलक्षण संभावना रहती है। नवविवाहित
बालक-बालिकायें एक दूसरे के मनोरंजन की खातिर सरस बातचीत, निपुणता, बातों की
चतुराई, कामकलाकौशल आदि के अभ्यास व प्रकाश के लिये सदा यतन में रहते हैं, तथा उस दिशा
में आवश्यक मार्गों की परिपाटी पर सोच बनाने में भी तत्पर रहते हैं। अत: उनके विद्याभ्यास
में प्रबल बाधा उत्पन्न होता है। जगत का सारपदार्थ, विद्या के धन से वंचित रह कर
वे केवल मनुष्य के आकार मात्र रह जाते हैं। वस्तुत: यथार्थ मनुष्य
में उनकी गणना नहीं होती है।
सारे सुख का मूल जो दैहिक स्वास्थ्य है, वह भी बालविवाह से
क्षयप्राप्त होता है। फलस्वरूप, दूसरी जातियों के मुकाबले हमारे देश के लोग दैहिक
व मानसिक सामर्थ्य की दृष्टि से जो नितांत दरिद्र हुये हैं, ढूंढ़ने पर निस्सन्देह उसका भी कारण
मुख्य रूप से बालविवाह ही पाया जायेगा।
हाय! जगदीश्वर हमें इस दुर्गति से
कितने दिनों में उद्धार करेंगे। और
वह शुभ दिन भी कितने युगों के बाद आयेगा। जो भी हो, आजकल इस विषय को लेकर जो
आंदोलन हो रहे हैं, यह भी अच्छी बात
है। लगता है कभी न कभी इस देश के लोग उस आगामी शुभ दिन के शुभागमन पर सुख की
स्थिति भोगने में सक्षम होंगे।
इसी तरह, अगर हमारे
देश की दूसरी बुरी परिपाटियों पर नियमित लिखा जाय और उनकी समीक्षा की जाय, निस्सन्देह उन्हे समाप्त
करने का कोई न कोई सही उपाय अवश्य ही निकाला जा सकेगा। लगातार मिट्टी खोदते रहने
पर एक दिन पानी निकलेगा ही।
काठ के टुकड़ों को निरंतर रगड़ते रहने पर कभी न कभी आग जरूर निकलेगी। अनवरत सत्य का
अनुसंधान करते रहने पर कितने दिनों तक वह मिथ्या के जाल से ढका रहेगा? वह निश्चय
ही प्रकाशित होगा।
इसी तरह अपने अन्त:करण में नाना प्रकार से सोच कर मैंने बालविवाह के बारे में
यथासाध्य किंचित लिखने को प्रवृत्त हुआ।
सृष्टिकर्ता की इस
विश्वरचना में सभी जीवों के भीतर स्त्री पुरुष का अस्तित्व एवं उनके बीच घनिष्ठता
दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इससे स्पष्ट तौर पर विश्वरूप का यह अभिप्राय प्रकाशित होता
है कि स्त्री और पुरुष किसी तरह के प्रतिबंध के बिना आपस में बंधे रहकर एक दूसरे
का देखभाल करते हुये स्वजातीय जीवों की उत्पत्ति के निमित्त यत्नशील होते हैं। खास
कर मनुष्यजातीय में, एक स्त्री और एक पुरुष मिल कर एक दूसरे के अनुरोध आदि मानते
हुये, प्रणय के साथ उत्तम नियमानुसार संसार के नियम की रक्षा करते हैं।
जगत के सृजन के कितने
कालावधि के उपरांत मनुष्य जाति के बीच इस विवाह संबंध का नियम प्रचलित हुआ है उसका
ठीक ठीक निर्णय करना यद्यपि कठिन है, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि जब मनुष्यसमाज
में वस्तुपरक ज्ञान थोड़ा साफ होने लगा और राजनीति में कुछ प्रबलता आने लगी, सभी के
अन्त:करण में बोध का
उदय होने लगा कि आत्म-पर-विवेक, स्नेह, दया, वात्सल्य, ममता की अभिमान के बगैर
संसारयात्रा का अच्छा निर्वाह नहीं होता है और विवाह संबंध ही उन सभी गुणों का
मुख्य कारण है, निस्सन्देह तभी ही दाम्पत्य संबंध यानि विवाह का नियम संस्थापित
हुआ था।
उसके बाद से सभी देशों
में विवाह की यह रीति उत्तरोत्तर पहले से अधिक उत्कृष्ट होती आ रही है। लेकिन
हमारे देश में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होना तो दूर, बल्कि इतना निकृष्ट हो चुका है कि
सही ढंग से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होगा कि मौजूदा विवाह-नियम ही हमारे देश
के सर्वनाश का मूल कारण है।
इस देश में पिता और
माता कन्या को सौंपने के लिये, खुद या दूसरों के द्वारा पात्र की खोज कर, सिर्फ
निस्सार कुलीन मर्यादा का खयाल रखते हुये, अगर पात्र मूर्ख हो या विवाह की उम्र
प्राप्त न किया हो या अयोग्य हो फिर भी उसे कन्या दान कर खुद को कृतार्थ एवं धन्य
महसूस करते हैं; आगे के जीवन में कन्या के संभावित सुखदुख से नजर फेर लेते हैं। इस
संसार में दाम्पत्य से मिलता सुख ही सर्वोच्च सुख है। इस तरह के सच्चे सुख में
विडंबना आने पर दम्पति को सारा जीवन विषाद में बिताना पड़ता है। हाय, कितनी दुख की
बात है! जिस पति
के प्रणय पर प्रणयीनी का सारा सुख निर्भर करता है, और जिसके सच्चरित्र होने पर
सारा जीवन सुखी और सच्चरित्र न होने पर सारा जीवन दुखी रहना मजबूरी होती है, परिणय
के समय उसके आचार व्यवहार व चरित्र पर कन्या की सम्मति की ही अगर जरूरत न रहे, तब
उस दम्पति के सुख की क्या संभावना बचेगी।
मन की एकता ही प्रणय
का मूल है। वह एकता उम्र, अवस्था, रूप, गुण, चरित्र, बाहरी भाव व आंतरिक भाव आदि
विभिन्न कारणों पर निर्भर करता है। हमारे देश के बाल दम्पति परस्पर का आशय नहीं
जान पाये, परस्पर के अभिप्राय को समझने का अवसर उन्हे नहीं मिला, एक दूसरे कि
अवस्था की खोजखबर नहीं पाये, आपसी बातचीत के द्वारा एक दूसरे के चरित्र को जानने
कि बात तो दूर, एक बार एक दूसरे से आंखें भी नहीं मिला सके, बस एक उदासीन वाचाल
घटक के सोद्देश्य वृथावचन को भरोसा कर पितामाता की जैसी अभिरुचि हो, बेटी बेटा को
उसी प्रकार बांध देना सुखदुख का अनुल्लंघनीय सीमा होकर रह गया। इसी लिये इस देश
में दाम्पत्य से उपजा निश्छल प्रणय अक्सर दिखाई ही नहीं पड़ता है। प्रणयी बस भोजन
देने वाला और प्रणयीनी घर की दासी बन कर घरगृहस्थी का निर्वाह करते हैं।
ठंडे दिमाग के शरीर-क्रिया विज्ञानी, जानकार चिकित्सकों ने कहा है कि
शैशवावस्था में ही पत्नी-पति संबंधों के फलस्वरूप जो संतान की उत्पत्ति होती है,
उसके गर्भवास में ही प्राय: विपत्ति होती है। अगर जीवित जन्म ले भी ले, दाई की गोद
में न जा कर जल्द ही ‘भुत की दाई’ की गोद में सोना पड़ जाता है। कभी अगर जनक-जननी
के सौभाग्यवश वह बच्चा जनसंख्या का आंकड़ा बढ़ाने में सक्षम हो भी गया, देह की
स्वाभाविक कमजोरी और सर्वदा प्रवल पीड़ा आदि का शिकार होकर वह संसारयात्रा का नगण्य
यात्री बन, अल्पकाल में ही परलोक सिधार जाता है। अत: संतानोत्पत्ति की जिस परिणति
के लिये दाम्पत्य संबंधों के नियम बने हैं, बालविवाह से वही परिणति यूं
वाधाप्राप्त होती रहती है।
हमारे देश के लोग भूमंडल पर स्थित लगभग सभी जातियों की अपेक्षा भीरु, क्षीण,
दुर्बलस्वभाव और थोड़े ही दिनों मे बुढ़ापे की अवस्था प्राप्त कर थक जाता है।
हालांकि ढूढ़ने पर इसके अन्य सामान्य कारण मिल सकते हैं, लेकिन विशेष रूप से
अनुसंधान करने पर यही प्रतीत होगा कि बालविवाह ही इन सभी स्थितियों का मुख्य कारण
है। पितामाता सबल और दृढ़ शरीर के न होने पर संतान कभी भी सबल नहीं होंगे। यह सभी
स्वीकार करेंगे कि दुर्बल कारण से सबल कार्य की उत्पत्ति कभी संभव नहीं होता है।
जिस तरह बंजर जमीन में उत्कृष्ट बीज बोने और उपजाऊ जमीन में निकृष्ट बीज बोने से
उत्कृष्ट फल नहीं होते, उसी तरह असमय में बोने पर भी इष्ट की सिद्धि में विसंगति
आती है।
ऐसा नहीं कि भारतवर्ष में साहसी वीर पुरुषों का अभाव था। पूर्व के क्षत्रिय-संतान
और कुछ विप्र-संतान भी युद्ध आदि में प्रबल पराक्रम और असीम साहस दिखा कर इस
भूमंडल पर शाश्वत कीर्ति संस्थापित कर गये हैं। उनका वह चरित्र पौराणिक आख्यानों में ग्रंथित है। उन सभी
वीरों का प्रसव करनेवाली यह भारतभूमि भी वीरप्रसविनी के नाम से ख्यात थी। और अभी भी पश्चिम प्रदेश में भूरी
भूरी पराक्रमी पुरुष अनेकों विषय में साहस और शौर्यगुण के कार्य दर्शाकर अपने
पूर्वजों के पराक्रम के दृष्टांत बन रहे हैं। इस देश के हिन्दु, उसी जाति और उसी वंश में उत्पन्न होकर
भी जो इस तरह के निर्बल दशा से ग्रस्त हुये हैं, क्या बालविवाह ही उसका मुख्य कारण
नहीं है? क्योंकि पहले लगभग सभी जातियों में अधिक उम्र में विवाह की क्रिया संपन्न
होती थी। हालांकि उस समय आठ प्रकार के विवाहक्रिया का शास्त्र उपलब्ध है, फिर भी
अधिक उम्र में होने वाला गांधर्व, आसुर, राक्षस, पैशाच, इन चार प्रकार का विवाह
अधिक प्रचलित था। इसके अलावे स्वयंबर प्रथा का भी प्रचलन था, और ये सभी
विवाहक्रिया वर और कन्या की अधिक उम्र के बिना संभव नहीं थे। और भी। अनुसंधान के
द्वारा पश्चिम देश के लोगों से हम ज्ञात हुये हैं, उस देश में आज भी लगभग सभी जाति
में वर और कन्या की अधिक उम्र होने पर ही विवाहकर्म का निर्वाह होता है। फलस्वरूप,
उस देश में संतानोत्पत्ति में जनक-जननी संभावित कोई विसंगति न रहने के कारण लगभग
सभी पराक्रमी व साहसी बनते आ रहे हैं। इसका
प्रमाण है, पश्चिम देश के लोगों को जब दूसरी जीविका नहीं मिलती है तो वे राज की
सेना में एवं दूसरे धनाढ्य लोगों के यहां प्रहरी आदि के काम में नियोजित होकर
अनायास ही जीवन निर्वाह करते हैं। इस देश के लोग अन्न के अभाव में जघन्य कार्य भी
स्वीकार कर लेते हैं, पर साहस और पराक्रम के कोई कार्य करने को इच्छुक नहीं होते।
इसी लिये राज की सेना में बंगदेश में पैदा हुआ कोई व्यक्ति देखा नहीं गया।
उत्कलदेश के लोग हमसे भी अधिक भीरु एवं दुर्बलस्वभाव के होते हैं, इस करण से हम भि
उन्हे डरपोक और कायर कहकर उपहास किया करते हैं। ज्ञात हुआ है कि उनके बीच भी इस
देश की तरह बालविवाह प्रचलित है। अत: पश्चिम के लोगों के बनिस्बत हमारे और उत्कलवासियों के साहस
और पराक्रम में इतनी अधिक भिन्नता देख कर किसे न स्पष्ट प्रतीत होगा कि बालविवाह
ही इस तरह की भिन्नता का कारण है। नहीं तो क्या कारण है कि जिन दोनों देशों में
बालविवाह प्रचलित है, उन्ही देशों में लोग निर्बल और साहसहीन होते हैं, और जिस देश
में विवाह अधिक उम्र में हो रही है, वहीं के लोग ही क्यों साहसी और पराक्रमी हो
रहे हैं।
इस देश में अगर स्त्रीजाति के लिये विद्याशिक्षा की प्रथा प्रचलित रहती, तब
हमारे देश के बालक-बालिकायें मां से भी सही परामर्श प्राप्त कर कम उम्र में भी सुशिक्षित
हो पाते। संतान अपने शैशव में जिस तरह अपनी अपनी प्रसूति के अनुगामी रहते हैं,
पिता या अन्य गुरुजनों के उतने अनुगामी नहीं होते। शिशुओं को सस्नेह मधुर वचन
जितनी अनुकूल अनुभूति प्रदान करती है, उपदेशक का हितवचन उतना प्रीतिकर नहीं होता
है। इसलिये बच्चे स्त्रीसमाज में रह कर जितने खुश रहते हैं, पुरुषसमाज में रह कर
उतने खुश और संतुष्ट नहीं होते। अत: स्तन्यपान छोड़ने के तुरंत बाद अगर बच्चे मातृ-मुख-चन्द्रमंडल से सरस
उपदेश-सुधा का आस्वादन कर पायें, तब बचपन में ही विद्या के दृढ़ अनुरागी बन कर वे
अनायास सुशिक्षित हो सकते हैं। क्यों
कि संतान के हृदय में जननी का उपदेश जितना गहरा पैठता है और उसके द्वारा जितना
शीघ्र उपकार होते हुये दिखता है, दूसरे शिक्षकों के द्वारा उसका शतांश भी संभावित
नहीं होता, जननी की उपदेशक-शक्ति रहने के कारण ही यूरोपीय लोग कम उम्र में ही समझदार
होते हैं और उनमें सभ्य होने के लक्षण होते हैं। अत: जब तक हमारे देश से बालविवाह की रीति का अंत नहीं होगा, वैसा उपकार कभी भी घटित नहीं होगा। हम जानते हैं, कुछेक भद्रसंतान अपने
कन्यासंतानों को भी पुत्रवत शिक्षा प्रदान करते हैं, लेकिन उन कन्याओं का
अक्षरपरिचय होते न होते विवाह का दिन आ जाता है। फलस्वरूप उनके पठन का प्रस्ताव
उसी दिन अस्त हो जाता है। बाद में पराये घर के निवासी बन कर, पराये के अधीन होकर,
सास ससुर आदि गुरुजनों की इच्छानुसार घर बुहारना, बिस्तर लगाना, भोजन पकाना,
परोसना व अन्यान्य परिचर्या की परिपाटी की शिक्षा लेनी पड़ती है। पिता के घर में जो
कुछ अक्षर सीख पाई थी, थाली, कड़ाही, कलछुल आदि के साथ नियमित वार्तालाप के कारण वे
सारे लुप्त हो जाते हैं। अगर उन कन्याओं
के पिता माता इस देश के विवाह-नियम के आज्ञाकारी बन कर शिक्षा की शुरुआत में ही
कन्याओं को पात्र के हाथों न सौंपें, तब कुछ दिनों और शिक्षा ग्रहण करने पर उनकी वही बेटियां
भावी संतानों को उपदेश देने की क्षमता अर्जित कर पिता माता की अनगिनत अभिलाषाओं को
सफल कर पायेंगी। अत:, आधुनिक सभ्य सुशिक्षित
व्यक्तियों को हम अनुरोध करते हैं, वे स्त्रीजाति को शिक्षा प्रदान करने के मुद्दे
पर जितना उद्यम दिखायेंगे, उतना ही यतन बालविवाह को निर्मूल करने के लिये भी करें,
नहीं अभीष्ट की सिद्धि कदापि नहीं होगी।
बाल्यावस्था में विवाह कर हम सभी प्रकार से शर्मिन्दा और अतिव्यस्त हो जाते
हैं। कारण है कि, अव्वल तो विवाह् से संबंधित
आमोदप्रमोद व अठखेलियों में विद्याशिक्षा का मुख्य समय, बाल्यकाल वृथा चला जाता
है। दूसरा, कमाने का सामर्थ्य पैदा होने के पहले ही संतान के जन्मदाता बन जाते हैं। तब नित्य आवश्यक पैसों की खातिर व्याकुल होना पड़ता है।
क्योंकि गृहस्थ व्यक्ति के हाथों में क्षण भर भी पैसा न रहे तो दुनिया अंधेरी हो
जाती है। उस समय अगर बुरा काम कर के भी पैसा मिलता है तो उससे दूर रहने के बजाय
बार बार करने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि वास्तव में
सच्चे स्वभाव वाले लोग भी परिवार के कुछेक निकम्मे सदस्यों से घिर कर अन्तत: गलत काम करना स्वीकार किये हैं। और वैसी स्थिति में परम प्रीति के पात्र बेटा, पोता, परिवार सब उत्पात लगते
हैं। तब बाध्य होकर पिता के घर में
उनके अधीन रह कर, कभी सहोदरों के अनुग्रह पर जी कर, कभी रिश्तेदारों पर भार बन कर,
अपनी स्वतंत्रता के सुख से वंचित व मोहल्ले में कदम कदम पर अपमानित होकर अति कष्ट
में मनोव्यथा के साथ जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अत: जिस बालविवाह के कारण हमारी इतनी
दुर्दशा होती है, उसे पूरी तरह खत्म करना क्या सब तरह से श्रेयस्कर नहीं?
अगर कोई व्यक्ति यूं अपनी आपत्ति दर्ज करते हैं कि हमारे देश में बालविवाह
प्रथा न रहने पर बालक बालिका दुष्कर्म के प्रति आसक्त होंगे, इस बात पर हम पूरी
तरह उदासीन नहीं रह सकते हैं। लेकिन यह अवश्य बोल सकते हैं कि अगर बाल्यकाल में
विद्या के अनुशीलन में निरंतर मन निविष्ट रहे, तब कभी दुष्कर्म की प्रवृत्ति ही
नहीं जगती है। क्योंकि विद्या से धर्म-अधर्म का तथा सत-असत कर्म की
प्रवृत्ति-निवृत्ति का निर्णय उपजता है और विवेकशक्ति की प्रखरता की बृद्धि होती
है। तब, बुरी इच्छा के उदय का अवकाश कहां? अत: बिना पक्षपात के विवेचना करने पर
इस तरह का तर्क आ ही नहीं सकता है।
अगर इस विषय पर हम विचार करें कि किस उम्र में मनुष्यों की मृत्यु
होने की अधिक संभावना है, तब अवश्य ही प्रतीत होगा, मनुष्य के जन्मकाल
से बीस वर्ष की उम्र तक मृत्यु की अधिक संभावना है। यानि अगर बीस वर्ष पार होने के
बाद विवाह कर्म सम्पन्न किया जाय तो विधवाओं की संख्या भी अधिक नहीं होगी। और उसकी आशंका भी पितामाता के हृदय में कम
होगी। सभी अनुभव से जानते हैं कि चूंकि हमारे देश में विधवाओं
के विवाह की विधि दृढ़तापूर्वक अवरुद्ध है, फलस्वरूप उन्हे शास्त्रानुसार
कितना कठोर व्रत का आयोजन एवं उसके चलते किस प्रकार असह्य दुख सहना पड़ता है। विधवा
का जीवन केवल दुखों का पहाड़ है। और यह विचित्र जगत उसके लिये मनुष्यहीन अरण्य जैसा
है। पति के साथ साथ उसका सारा सुख समाप्त हो जाता है। और पतिवियोग के दुख के साथ
सभी दुस्सह दुखों का समागम होता है। उपवास के दिन प्यास लगने के कारण या भयानक
किसी बीमारी के कारण अगर उसका प्राण चला जाता है, तब भी निर्दयी विधि उसके सूखकर
मर रहे जीभ पर एक बूंद पानी या दवा देने की अनुमति नहीं देती है। अत: कोई बालिका अगर
अनाथ होकर इस निदारुण अवस्था तक पहुँचती है – जो बालविवाह के कारण नित्य संभव है –
तब विचार करें कि उसके जैसा दुखी और यातनापीड़ित कौन होगी? जो कठोर व्रताचरण का
निर्वाह परिपक्व शरीर के लिये भी दुष्कर होता है, उस कठोर व्रत में अगर कोमल अंग
वाली बालिका को बाल्यावस्था से ही व्रती होना पड़े तब उसका दुख से दग्ध जीवन और
कितना दुख में बीतता है, क्या बतायें? हम अपनी आंखों से देख रहे हैं, इस प्रकार
सैंकड़ों की संख्या में हतभाग्य कुमारी उपवास की रात में भूख-प्यास से क्षीण हो रहे
उदर, सूख रहे तालु, म्लान चेहरा लेकर मृतप्राय हो जाती है, फिर भी कोई कारुणिक
व्यक्ति उसके उस दयनीय अवस्था पर करुणा दिखाते हुये, निर्मम शास्त्रविधि और
लोकाचार का उल्लंघन करने का साहस नहीं करना चाहता है। और उन अभागिनियों में भी
संस्कारों की इतनी कठोरता पनपती है कि प्राणवायु निकल जाये तो जाये, स्वीकार है
लेकिन एक बूंद पानी भी गले के नीचे नहीं उतारेगी। अत: जिस समय लालन
पालन, शरीर का देखभाल आदि के द्वारा पितामाता को संतानों की रखवाली करनी चाहिये,
उस समय विवाह द्वारा उन्हे पराये घर में विसर्जित कर इस तरह के असीम दुख के सागर
में फेंक देना नितांत अनुचित है। और भद्रकुल में विधवा स्त्री के रहने पर कितने
प्रकार के पापों की आशंका है, विचार करने पर सभी समझ सकते हैं। विधवा नारी अज्ञान के वश में कभी कभी
सतीत्व धर्म को भी भूल कर विपथगामिनी हो सकती है, और लोकापवाद के भय से भ्रूणहत्या
आदि अत्यंत गर्हित पाप कार्य करने में भी प्रवृत्त हो सकती है। कम उम्र में जो
विधवा होने की स्थिति उत्पन्न होती है, बालविवाह ही उसका मुख्य कारण है। बाल्यावस्था में
विवाह देना अतिशय निर्दयी व नृशंस का कर्म है। अत: हम विनयपूर्वक
स्वदेश के भद्र महाशयों के निकट निवेदन कर रहे हैं, सभी एकमत होकर सतत यूँ यतन
करें ताकि बालविवाह-स्वरूप यह कुरीति हमारे देश से हटे!
बालविवाह के बारे में हमने आज की पत्रिका में जो लिखा वह
केवल उपक्रम है। विषय से संबंधित अनेकों युक्ति और दृष्टांत मन में बचे रह गये।
क्रमश उन्हे प्रकाशित करने के लिये सचेष्ट रहूंगा।*
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*प्रस्तुत आलेख सन 1850 में मतिलाल चट्टोपाध्याय
महाशय के सम्पादन में प्रकाशित ‘सर्वशुभंकरी’ मासिक पत्रिका में मुद्रित हुआ था।
इस पत्रिका में प्रकाशित किसी भी रचना में लेखक का नाम नहीं था। ‘सर्वशुभंकरी’
पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित ‘बालविवाह के दोष‘ शीर्षक आलेख विद्यासागर महाशय
की रचना है इसका जिक्र राजनारायण बसु रचित ‘आत्मचरित’ तथा शम्भुचन्द्र विद्यारत्न
रचित ‘विद्यासागर जीवनचरित’ में है।
17-2-24
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