রাণা
সেবার মা’কে নিয়ে গেল – রাজপিপলায়।
মাটি হয়ে লাগতে পারছে সে,
মাটি
পাচ্ছে নিজের শিকড়ে –
এখানে
যে এসেছিল, বুক যেন বনস্পতি,
দুলছে রসের ঝড়ে ...
জানবে
না মা? বাউন্ডুলের পথচক্রে ছেলে
কোথায়
থাকে! কিই বা রেঁধে খায়!...
বাসটা
গিয়ে পৌঁছে হবে দুপুর রোদের ঝিমে।
“বোসো মা! আজকে শুধুই বসো।
আমিই ভাত চাপাই।
এই
যে আমার ঘর, দপ্তর –
সাথিরা
সব আসবে সাঁঝে, আসবে মগন ভাই।” ...
ছোট
ছোট ঢেউ দু’কথার,
গান
বলতে সাইকেল আর
নিমজানা
এক ভাষার পাথার ...
নাগাল
বলতে সমুদ্রও সে রাখত পশ্চিমে।
মাকে
সে বুঝিয়ে হবে এনজিও – তার কাজের ঝকমারি।
সংগঠনেই
কর্মচারি হওয়া
শ্রমবিভাগে,
ট্রাইব্যুনালে, কাজকর্মে ... বিকেল হলে খাস বড়োদায়
লেনিনবাদের
বিতর্কে সৎ বন্ধু পাওয়া ...
মাকে
সে বুঝিয়ে হবে পটভূমি –
ভীল,
গুর্জর, মেধা পাটকর,
দুধ
সমবায়, শিল্পে মুখর
ঈষৎ
অচিন রোদ্দুরে তার অন্তর্গত পাড়ি।
......
তার
আগে লখনো গিয়েও ছিল কয়েকটি মাস।
পোস্টকার্ডে
জানিয়েছিল অতুল সেনের বাড়ির চিহ্ন নাশ।
বিষ
হল কিসের অভাব – ভালোবাসা? কাজ?
সাইন্স
কলেজের মাঠে তার চোখে পেলাম
ক্ষোভ
নয়, নেশাখোরের ঝাঁজ!
এবং
সেদিন এল যে লাশ, গঙ্গা থেকে উঠে
কী
উত্তর ছিল তার সে ঠান্ডা হলুদ ঠোঁটে?
রইল
অচিন, দোস্ত, দূরত্বের এই আঁধার।
পাটনায়
রইল তোমার গান ও রাজনীতি,
বিশ
বছরের প্রগতি সংস্কৃতি,
ঘরে
বা সভায় সঙ্গে গাওয়ার সুখস্মৃতি,
মনের
জ্বালা, ধরে তোমায় রাখতে না পারার।
পুনর্লিখন, ব্যাঙ্গালোর
১১.১২.২০
राणा
राणा अपनी माँ को ले कर गया राजपिपला उस बार!
मिट्टी बनकर लग पा रहा था वह,
मिट्टी पा रहा था अपनी भी जड़ों में –
जब आया था यहाँ, सीना ज्यों दरख्त हो
डोल रहा था रस की उफान में …
माँ जानेगी नहीं? आवारापन के चक्कर में बेटा
आखिर रहता कहाँ है! क्या खाता है पका कर! …
बस जा कर पहुँची होगी दोपहर की धूप के सन्नाटे में।
“बैठो माँ! आज बस बैठी रहो! मैं ही चढ़ाउंगा भात।
यही है मेरा घर, दफ्तर,
साथी सब आयेंगे शाम को, मगनभाई भी।” …
छोटी छोटी लहरें दो-चार बातों की,
गीत कहने को साइकिल और
नीम-मालूम एक भाषा की अपार …
करीब कहने को एक समन्दर भी रखा था वह पश्चिम की ओर।
माँ को समझाया होगा वह एन॰जी॰ओ॰ - उसके कामों का झंझट।
संगठन का ही कर्मचारी बनना
श्रमविभाग में, ट्राइब्युनल में, कामकाज में … शाम होने पर खास बड़ौदा में
सच्चे दोस्तों का मिलना लेनिनवाद पर बहस के लिये …
माँ को वह समझाया होगा माहौल –
भील, गुर्जर, मेधा पाटकर, दूध सहकारिता, उद्योगों से गूंजती
थोड़ी अजनबी धूप में उसकी आन्तरिक यात्रायें।
……………
उसके पहले लखनऊ जा कर भी रहा था कुछेक माह।
पोस्टकार्ड पर बताया था अतुल सेन के मकान के नामोनिशान का मिटना।
किस चीज का अभाव बना जहर – प्यार? काम?
साइन्स कॉलेज के मैदान में उसकी आँखों में मुझे
नशाखोरी का झांझ मिला!
और उसदिन उसकी लाश जो आई, गंगा से उठ कर,
क्या उत्तर था उसके उन ठंडे पीले होंठों पर?
……………
अनजाना ही रह गया दोस्त, दूरी का यह अंधेरा।
पटना में रह गए तुम्हारे गीत और राजनीति,
बीस सालों की प्रगति संस्कृति,
घर या सभा में साथ गाने की सुखभरी यादें,
मन की ज्वाला, तुम्हे पकड़ कर रख नहीं पाने की।
2.2.22
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