Sunday, December 20, 2020

प्रारंभिक ईसाइयत – फ्रेडरिक एंगेल्स

प्रारंभिक ईसाइयत का इतिहास और आधुनिक श्रमिक वर्ग आन्दोलन के बीच सादृश्य के उल्लेखनीय बिंदु मौजूद हैं। ईसाइयत भी मूलत:, श्रमिक वर्ग आन्दोलन की तरह, शोषित जनता का आन्दोलन था। सबसे पहले इसका आविर्भाव, गुलामों एवं गुलामी से छुट चुके लोगों, सभी अधिकारों से वंचित गरीब जनों, रोम के अधीन की गई या विस्थापित की गई जनता के धर्म के रूप में हुआ। ईसाइयत एवं श्रमिकों का समाजवाद, दोनों गुलामी एवं बदहाली से होने वाली मुक्ति का पाठ पढ़ाते हैं; ईसाइयत इस मुक्ति को, मृत्यु के बाद स्वर्ग में जिए जाने वाले एक जीवन में दिखाता है जबकि समाजवाद इस मुक्ति को इसी दुनिया में, समाज के बदलाव में दिखाता है।  दोनों तंग किए और सताए जाते हैं, उनके अनुयायी निर्वासित किए जाते हैं और अनोखे कानूनों के शिकार बनाये जाते हैं, एक को मानव जाति के दुश्मन के तौर पर तो दूसरे को राज्यसत्ता, धर्म, परिवार और सामाजिक व्यवस्था के दुश्मन के तौर पर। और इस तरह सताये जाने के बावजूद, बल्कि सताए जाने के कारण और अधिक तेजी से दोनों, विजयपताका फहराते हुए, अप्रतिरोध्य रूप से आगे बढ़ते हैं। आविर्भाव के तीन सौ सालों के बाद ईसाइयत, रोमन विश्वसाम्राज्य का स्वीकृत राज्यधर्म था, और महज साठ वर्षों में समाजवाद ने ऐसी स्थिति हासिल कर ली है कि उसका विजय सुनिश्चित हो चुका है।

इसलिए, अगर प्रोफेसर एन्तोन मेंजेर अपने “श्रम के पूर्ण उत्पाद पर अधिकार” में विस्मित होते हैं कि क्यों, रोमन सम्राटों के अधीन भूस्वामित्व की इतनी विशाल केन्द्रीकरण और उस समय के श्रमिक वर्ग – जिनमें अधिकांश दास थे – की अन्तहीन यंत्रणाओं के बावजूद, “प्रतीच्य के रोमन साम्राज्य के पतन के उपरांत समाजवाद नहीं आया”, वह इसलिए विस्मित होते हैं क्योंकि वह देख नहीं पाते हैं कि जितना ‘समाजवाद’ उस समय सम्भव था, उतना ईसाइयत में था और, बल्कि उसके आधिपत्य का भी विस्तार हुया था। बस, बात यही थी कि यह ईसाइयत, जैसी की बन्दिशें थी ऐतिहासिक परिस्थितियों की, इस दुनिया का सामाजिक बदलाव हासिल करना नहीं चाहा, बल्कि इस दुनिया के बाद स्वर्ग में, आने वाली “सहस्राब्दि” में, मृत्यु के बाद शाश्वत जीवन में मुक्ति पाना चाहा।

दो ऐतिहासिक परिघटनाओं के बीच की समानताएं बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं मध्ययुग में, उत्पीड़ित किसानों और खास कर शहरी आमजनों के शुरुआती बगावतों में। मध्ययुग के सभी जनान्दोलनों की तरह इन बगावतों को भी धर्म का मुखौटा पहनना था और फैलती हुई अधोगति से प्रारंभिक ईसाइयत के पुनरुद्धार के रूप में दिखना था, लेकिन धार्मिक उल्लास के पीछे हर समय ठोस दुनियावी हित होते थे। स्मृति के शानदार पन्नों में देखें तो इसका उत्कृष्टतम प्रदर्शन ज़ान ज़िज़का के नेतृत्व में बोहेमियाई टैबोराइटों के संगठन में हुआ था। लेकिन यह प्रवृत्ति पूरे मध्ययुग में दिखती है। अन्तत:, जर्मन किसान युद्ध के बाद यह उत्तरोत्तर फीकी पड़ती जाती है। फिर इस प्रवृत्ति का पुनराविर्भाव होता है सन 1830 के बाद, श्रमिक कम्युनिस्टों के बीच। अर्नेस्ट रेनन ने जो कहा, “जब आप कोई धारणा बनाना चाहें कि शुरुआती ईसाई समुदाय कैसे थे, तो अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के स्थानीय किसी भाग को देख लें” … उसके काफी पहले फ्रांसीसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट और खास कर वेटलिंग एवं उनके समर्थक भी शुरुआती ईसाइयत का हवाला दे चुके हैं।

............

अत: हम देखते हैं कि उस समय का ईसाइयत, जो तब तक अपने बारे में अनजान था, बाद के ‘निसेने परिषद’ द्वारा कट्टर ढंग से तय कर दिये गये वैश्विक धर्म से उतनी ही भिन्न था जितना स्वर्ग भिन्न है धरती से। एक को दूसरे में ढूंढ़ा ही नहीं जा सकता है। उस ईसाइयत में बाद के ईसाइयत की ना तो कट्टरता है और ना नीतिशास्त्र। बल्कि एक एहसास है कि कोई पूरी दुनिया के खिलाफ संघर्ष कर रहा है और उस संघर्ष को विजय प्राप्त होगा ही। संघर्ष के लिये वह आतुरता और निश्चितता, की जीत होगी ही, जिसका आज के ईसाइयों में बिल्कुल ही अभाव है, हमारे समय में समाज के सिर्फ दूसरे छोर पर, समाजवादियों के बीच दिखेगी।

दर असल शुरु में, बलशाली एक दुनिया के खिलाफ संघर्ष, और साथ ही साथ खुद प्रवर्तकों के आपसी संघर्ष, प्रारम्भिक ईसाइयों एवं समाजवादियों, दोनों की चारित्रिक विशिष्टता है। दोनों महान आन्दोलनों में से कोई भी नेताओं या पैगम्बरों के बनाये नहीं हैं – हालाँकि दोनों में पैगम्बर बहुतायत में हैं – दोनों जनान्दोलन हैं। और जनान्दोलन शुरु में भ्रमित होते ही हैं, क्योंकि आमजनों की सोच शुरु में अन्तर्विरोधों, अनिश्चितताओं एवं असम्बद्धताओं में घूमती है; साथ ही, भ्रमित होने का दूसरा कारण बनती है उन्हे शुरु में प्रभावित करती पैगम्बरों की भूमिकाएँ। भ्रम की यह स्थिति उन असंख्य पंथों के निर्माण में दिखती है जो कमसे कम उतने ही उत्साह के साथ एक दूसरे के साथ लड़ते हैं जितना बाहरी शत्रु के खिलाफ। ऐसा ही प्रारम्भिक ईसाइयत के साथ हुआ था, ऐसा ही समाजवादी आन्दोलन की शुरुआत में हुआ। एकता उनमें सम्भव ही नहीं थी, चाहे कितनी भी चिंतित हुए हों एकता का उपदेश देने वाले सदाशय सुयोग्य व्यक्तिगण।

तो, क्या अन्तरराष्ट्रीय किसी समरूप मताग्रह में बँधा हुआ था? बिल्कुल विपरीत। उसमें सन 1848 के पहले की फ्रांसीसी परम्परा के कम्युनिस्ट थे, उनमें भी अलग अलग रंग के थे: पुनरुज्जीवित कम्युनिस्ट लीग के वेटलिंग-धारा के कम्युनिस्ट एवं दूसरे लोग, फ्रांस और बेल्जियम में आधिपत्य रखने वाले प्रुधोंवादी, ब्लांक्वीवादी, जर्मन श्रमिक पार्टी, और अन्तत: बाकुनिनपंथी अराजकतावादी जिन्हे कुछ दिनों के लिए स्पेन और इटली में बढ़त हासिल था … इतने तो सिर्फ मुख्य गुट थे। पचीस साल लगे अन्तरराष्ट्रीय की स्थापना के बाद, सभी जगह अराजकतावादियों को पूरी तरह और अंतिम तौर पर अलग थलग करने में एवं कम से कम, अति सामान्य आर्थिक नजरियों के आधार पर एकता कायम करने में। और वह भी हमारे समय के संचार माध्यमों – रेलमार्ग, तार, विशालकाय औद्योगिक शहर, छापाखाना एवं संगठित जनता के समावेशों – के माध्यम से।

प्रारम्भिक ईसाइयों में भी उसी प्रकार अनगिनत पंथों का विभाजन था, उन्ही के बीच बहस हुए और बाद में एकता बनी।

……………

किस तरह के लोग थे वे जो सबसे पहले ईसाई बनें? मुख्यत:, निम्नतम स्तर में जीने वाले समुदाय के “मेहनत करनेवाले और बोझ से दबे” सदस्य थे वे, जैसे कि क्रांतिकारी तत्व हुआ करते हैं। और, कौन थे उनमें? शहरों से हों तो दासता से मुक्त दरिद्रतम लोग – दक्षिणी स्लाव राज्यों के औसतन गोरे, योरोपीय समुद्रतटों की रेत पर कीमती चीजें बिनने वाले, चीनी और औपनिवेशिक बन्दरगाहों पर किस्मत आजमाने वाले, इटली, सिसिली और अफ्रिका के बड़े गुलाम-खटानेवाले जायदादों से दास और दासता से मुक्त – सभी किस्म के होते थे वे। और, प्रांतों के ग्रामीण जिलों से हों तो छोटे किसान जो कर्ज लेते लेते बँधुआ होते जा रहे हों। इन तमाम तत्वों की मुक्ति के लिये कोई सामान्य रास्ता बिल्कुल ही नहीं था। उन सबके लिए स्वर्ग उनके पीछे खो चुका था – टूटे हुए मुक्त दासों के लिए वह स्वर्ग प्राचीन यूनान के नगर-राज्य थे (शहर और राज्यसत्ता दोनों के लिहाज से), जिनमें उनके पूर्वज मुक्त नागरिक थे। युद्ध-बन्दी गुलामों के लिए वह स्वर्गीय समय उनके पराधीन होने और बन्दी बनाये जाने के पहले का समय था। छोटे किसानों के लिये वह स्वर्ग थी खत्म की जा चुकी गोत्र-केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था एवं सामुदायिक मालिकाना। वह सब कुछ जो विजेता रोम के लौह-मुष्टि के द्वारा धूल में मिला दिया गया था। प्राचीन काल सबसे बड़ा जो सामाजिक जमाव हासिल कर पाया था वह था कबीला एवं आत्मीय कबीलों का संघ। बर्बरों में जमाव आधारित था परिवारों के नातों पर और शहर बसाने वाले यूनानी और इतालवियों में यह आधारित था नगर-राज्यों (पॉलिस) पर, जिनमें एक या अधिक आत्मीय कबीले होते थे। फिलिप और ऐलेकजैन्डर ने यूनानी (हेलेनिक) उपमहाद्वीप को राजनीतिक एकता जरूर दिया था लेकिन उससे यूनानी राष्ट्र नहीं बना था। राष्ट्रों का बनना रोम के वैश्विक आधिपत्य के पतन के द्वारा ही सम्भव हुआ।

रोम का यह वैश्विक आधिपत्य एकबारगी सारे छोटे जमावों को खत्म कर दिया था। सैन्यशक्ति, रोमक अधिकार-क्षेत्र एवं कर-अदायगी तंत्र ने पारम्परिक अन्दरूनी संगठन को पूरी तरह विघटित कर दिया था। स्वतंत्रता और स्वतंत्र पहचान वाले संगठनों की समाप्ति के साथ जुड़ गई रोमक सेना एवं नागरिक प्राधिकारियों की बलपूर्वक लूट। पहले तो उनकी धनसम्पत्ति उनसे छीन ली गई और फिर वही धन उन्हे महाजनी ब्याज पर कर्ज में दिया गया ताकि और भी उनसे ऐंठा जा सके। करों का दबाव एवं इसके चलते नगद पैसों की जो जरूरत उन इलाकों में पैदा हुई जहां पहले प्राकृतिक अर्थनीति का आधिपत्य था, और वह जरूरत किसानों को महाजनी कर्ज में बांधता चला गया। इसके परिणामस्वरूप, धन की बढ़ती विषमताएं पैदा हुईं, धनी और धनी होते गए जबकी गरीब पूरी तरह कंगाल हो गए। दैत्याकार रोमक विश्वशक्ति के खिलाफ, एकांत में बसे किसी छोटे कबीले या शहर के प्रतिरोध का कोई भविष्य नहीं था। तो फिर क्या रास्ता था इससे निकलने का? कैसे होती गुलाम बनाए गये, उत्पीड़ित एवं कंगाल किये गए लोगों की मुक्ति? क्या होता एक सामान्य रास्ता जनता के इन भिन्न भिन्न प्रकार के जमावों के लिये जिनके हित एक दूसरे के लिये न सिर्फ अजनबी थे बल्कि विपरीत भी थे? और फिर भी, अगर किसी क्रांतिकारी आन्दोलन को जनता के इन विभिन्न समूहों को अपने आगोश में लेना था तो उस रास्ते को तलाशना था।

रास्ता ढूंढ़ा गया। मगर इस दुनिया में नहीं। जो स्थिति थी उस समय, यह रास्ता धार्मिक ही हो सकता था। तब एक नई दुनिया का आलिंगन किया गया। पूरी रोमक दुनिया में शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा के जीवित रहने की निरन्तरता क्रमश: एक स्वीकृत धर्मसिद्धांत बन चुकी थी। पृथ्वी पर जीवनकाल में कृतकर्मों के लिए मृत-आत्माओं की सजा या उनसे ली जाने वाली भरपाई की धारणा को भी अधिक से अधिक सामान्य स्वीकृति मिलने लगी थी। जहाँ तक भरपाई का सवाल है, मानी हुई बात है कि सम्भावनाएं अच्छी नहीं थी – अत्यधिक आदिम तौर पर भौतिकतावादी था पुराकाल – साये में जीने से कहीं ज्यादा मोल था उनके लिए पृथ्वी पर जीवन का। यूनानी तो मृत्यु के बाद जीवन को बल्कि दुर्भाग्य मानते थे। तब ईसाइयत आया, जिसने परलोक में सजा और भरपाई को गंभीरता से लिया। स्वर्ग और नरक बनाया गया, और एक रास्ता दिखाया गया जिस पर चल कर मेहनत करने वालों और बोझ तले दबे हुओं को तकलीफों के इस दर्रे से मुक्ति मिलेगी एवं शाश्वत स्वर्ग हासिल होगा। परलोक में पुरस्कृत होने की सम्भावना से ही सन्यासी एवं ‘स्टोइको-फिलोनिक’ (बैरागी एवं दार्शनिक फिलो के मतावलम्बी) नए विश्वधर्म के बुनियादी नैतिक सिद्धांत पर उल्लसित हो पाते क्योंकि वह उत्पीड़ित जनता को उत्साहित करता।

 

[एंगेल्स रचित “ऑन द हिस्ट्री ऑफ अर्ली क्रिश्चियनिटी” से चुने हुए अंश; टिप्पणियाँ हटा दी गई हैं। - अनुवादक]

Photo courtesy: https://mronline.org/2019/06/05/engels-on-the-importance-of-hegel-to-marxism/ & https://www.crystalinks.com/romeslavery.html



No comments:

Post a Comment