[विस्मृति के गहराइयों में खो चुकीं भारत की हजारों महान औरतों में एक थी, भारतरत्न डा विधान चंद्र राय की माँ अघोर कामिनी देवी। उनके जीवन के तथ्य जुटाने की एकमात्र स्रोत-पुस्तक है , उनके निधन से शोकाकुल हुये पति प्रकाश चंद्र राय द्वारा रचित स्मृति-ग्रंथ ‘अघोर-प्रकाश’। ‘अघोर-प्रकाश’ एक अनन्य प्रेमगाथा है जिस प्रेमगाथा में कर्म ही साधना है और युगल साधना ही प्रेम। इस पुस्तक से अलग आज किसी भी पुस्तक में अगर डा विधान चंद्र राय के माता-पिता के बारे में, खास कर डा राय के जन्म के पहले की घटनाओं के बारे में कोई भी तथ्य है तो उन तथ्यों का एक मात्र स्रोत यही पुस्तक है। हमने भी यहाँ इसी पुस्तक की सहायता ली है।]
अघोर कामिनी देवी का जन्म आज के पश्चिम बंगाल के पुराने 24 परगना जिले में
स्थित श्रीपुर गाँव में हुआ था। जन्म की तारीख अज्ञात है लेकिन अंग्रेजी साल 1856
के अप्रैल या मई महीने में (यानि बंगला महीना बैसाख में) एक जमींदार परिवार में
उनका जन्म हुआ था। (उपरोक्त पुस्तक में प्रकाश चंद्र राय इस बात पर खेद व्यक्त
करते हैं कि कन्या संतान होने और ग्रामीण होने के कारण ही उनका जन्म की तारीख
अज्ञात रह गया)। अघोर कामिनी के पिता का नाम था विपिन चंद्र बसु। माँ का नाम भी एक
ही, यानि नारी-जन्म के कारण ही अज्ञात है। जमींदार परिवार में धनसम्पत्ति जो था सो
तो था ही, विपिन चंद्र खुद भी ठेकेदारी के काम से अर्थोपाय किया करते थे। अपने
गाँव के ही राय-परिवार का बेटा प्रकाश चंद्र के साथ उन्होने अपनी बड़ी बेटी अघोर
कामिनी की शादी तय की। इतना ज्ञात होता है कि अघोर कामिनी के बाद भी उनके तीन
संतान और थे – अघोर कामिनी के बाद दो बहने, जिनमें से एक का नाम था यामिनी और उसके
बाद एक भाई, जिसका नाम था ज्ञान। माँ घर के दूसरे संतानों को लेकर व्यस्त रहने को
मजबूर थीं, इसलिये बालिका अघोर कामिनी घूमती थी अपनी बड़ी फुआ के इर्दगिर्द।
प्रकाश चंद्र थे गाँव का लड़का जरूर पर गाँव में नहीं रहते थे। उनके पिता
प्राणकाली राय बहरमपुर कलक्टरी में काम करते थे। वहीं प्रकाश चंद्र का जन्म हुआ था
और उनके विद्यालयी जीवन के शुरू के वर्ष बीते थे। पिता की मृत्यु के उपरांत
विद्यालय की पढ़ाई जारी रखने, कुछेक वर्ष के लिये वह कोलकाता गए। प्रवेशिका की
परीक्षा के बाद पुन: बहरमपुर लौटकर वह कॉलेज की पढ़ाई
करने लगे। उसी समय विवाह के लिये गाँव से बुलावा आया।
सन 1866 में जब अघोरकामिनी का विवाह हुआ उनकी उम्र थी दस
वर्ष, जबकि दुल्हा प्रकाश चंद्र की उम्र थी अठारह वर्ष। उपरोक्त ग्रंथ
‘अघोर-प्रकाश’ में प्रकाश चंद्र द्वारा लिखे गये संस्मरण के माध्यम से, अघोरकामिनी
के बचपन की जो विभिन्न घटनाएं मालूम होती हैं, उनसे पता चलता है कि बचपन में
निरक्षर रह गई इस लड़की के भीतर कितना अदम्य कौतुहल, उस उम्र के लिए विरल,
चपलताविरोधी शांत स्वभाव, मनुष्य के प्रति प्यार एवं शिक्षा के प्रति आग्रह जन्म
ले रहा था।
कुछेक कहानियाँ हैं।
गाँव में बसु परिवार और राय परिवार के घर काफी करीब थे। इतना
कि एक घर के छत से दूसरे घर के आंगन का कुछ हिस्सा या एक कमरे की खिड़की दिख जाती
थी। उन दिनों, नियमानुसार, विवाह से पहले दुल्हा दुल्हन को एक दूसरे से मिलने का
कोई मौका नहीं मिलता था। अगर प्रकाश चंद्र गाँव में ही रहने वाले युवा होते तो
शायद खेल के मैदान के पास या राह चलते हुए भेंट हो भी सकती थी। लेकिन आजन्म वह
बहरमपुर के रहने वाले थे। इसलिए, पिता के मुख से अपने विवाह का फैसला सुनने के बाद
एक दिन बालिका अघोरकामिनी छत पर चली गई। राय परिवार के घर के आंगन में ताकझांक कर
देखेगी – कहीं उसका दुल्हा दिख जाएँ! छत के किनारे झुक कर, और झुक कर देखने की
कोशिश करते हुये – धप्प् – सीधा नीचे! हालांकि चोट ज्यादा नहीं आई क्योंकि जहां
गिरी वहीं पर पेड़ों के काटी गई शाखाएं और पत्ते इकट्ठे किये गये थे। वैसे,
अघोरकामिनी भले ही विवाह तक अपने दुल्हे को नहीं देख पायें, प्रकाशचंद्र अपनी भावी
दुल्हन को एक दिन गाँव के रास्ते पर देख चुके थे।
विवाह हुआ। अघोरकामिनी ससुराल आई। विवाह की रात या अगले दिन
ससुराल में, दो-तीन दिनों तक एक बात नहीं की उन्होने अपने दुल्हे से। जबकि युवा
दुल्हा मौका ढूंढ़ ढूंढ़ कर बार बार आ रहा था दुल्हन के पास, उसके मुंह से एक शब्द
सुनने के लिए। जबकि ऐसा नहीं था कि विवाह पसंद नहीं हुआ था। नहीं तो नैहर जाने के
एक रात पहले गंभीर स्वर में नहीं बोलती, “कल मैं चली जाउंगी।” बस, उतना ही सुन कर
दुल्हा कृतार्थ हो गया।
वही जो कहा गया उपर। भीतर में कौतुहल होने के बावजूद, उम्र
के हिसाब से विरल, चपलताविरोधी शांत स्वभाव हो गया था अघोर कामिनी का। शायद घर की
बड़ी लड़की होने के कारण! भाई, बहनों का देखभाल के काम में लगे रहने के कारण!
विवाह के कुछ ही दिनों के बाद गाँव में चेचक फैला। चेचक से
आक्रांत हो कर विपिन चंद्र बसु की मृत्यु हो गई। उस समय प्रकाश चन्द्र भी गाँव में
नहीं थे; कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने बहरमपुर गये हुए थे। अघोर कामिनी अकेले ही
ससुराल से दौड़ कर चली आई पिताजी को देखने। बीमारी के संक्रामक होने की बिना परवाह
किये पिता के शव से लिपट गई। नतीजे में उन्हे भी चेचक हो गया। बहन यामिनी और भाई
ज्ञान को भी चेचक हुआ। दोनों बहनें तो स्वस्थ हो उठीं लेकिन भाई की स्थिति बदतर ह
रही थी। दस साल की उम्र में अघोर कामिनी अकेले अपनी जिम्मेदारी पर भाई को भवानीपुर
में नानी के घर पर ले आई। अथक सेवा के द्वारा उसकी जान बचाई, हालांकि बीमारी के
कारण उसकी एक आँख चली गई।
प्रकाश चन्द्र अपने संस्मरण में एक और कहानी सुनाते हैं। छोटी
उम्र में ही अघोर कामिनी पाक-कला में कुशल हो उठी थी। गाँव में कुटुम्बों के घरों
में भी बड़ा काम होने पर उन्हे बुलाया जाता था। एक बार किसी के घर गई थी। भोजन
बनाने का काम पूरा होने के बाद आंगन में आकर देखी कि जो महिलायें बढ़िया पोषाक पहन
कर, बदन पर खूब गहने वगैरह डाल कर आई हैं उनका भरपूर स्वागत किया जा रहा है। जबकि
जो सामान्य वस्त्र में आ रही हैं, जिनके बदन पर गहने नहीं हैं उनकी उपेक्षा की जा
रही है। भोजन के समय भी यही भेदभाव देखने को मिला। अघोर कामिनी को धक्का लगा।
प्रकाशचन्द्र कहते हैं, ”धन का इतना आदर? यह कैसा अन्याय है! उसी दिन तुमने संकल्प
किया कि जितना हो सके, दुखियों की मदद करोगी।”
नैहर में किसी प्रकार का आर्थिक अभाव नहीं था। आर्थिक अभाव
ससुराल में भी नहीं था लेकिन प्राणकाली राय के मृत्यु के कुछ दिनों के बाद प्रकाशचंद्र
के बड़े भैया और सझले भैया के बीच चल रहे झगड़ों के कारण सम्पत्ति की बिक्री शुरू हो
गई। धीरे धीरे अभाव, आगे की चिंता व कोर्ट-कचहरी के झंझटों ने परिवार को घेर लिया।
इधर बालिका वधु अघोरकामिनी के जीवन में अपना कहे जाने लायक कोई नहीं बचा था। पिता
पहले ही गुजर चुके थे, माँ के लिये कुछ करना सम्भव नहीं था और पति थे बहरमपुर में।
बावजूद इन बातों के, अघोरकामिनी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। चुपचाप ससुराल में
गृहस्थी का सारा काम करती रहीं, गलती हो जाने पर डांट फटकार भी सुनती रही।
इसी बीच कुछ दिनों के लिये पति के साथ रहने का अवसर मिला।
प्रकाशचंद्र के सझले भैया अपनी नईनवेली दुल्हन के साथ बहरमपुर से कोलकाता चले गये।
उधर प्रकाशचन्द्र एफ-ए की इम्तिहान के बाद घर की माली हालत तथा मानसिक अवसाद के
कारण बी-ए की परीक्षा नहीं दे पाए। पढ़ाई बन्द हो चुकी थी और कहीं नौकरी भी नहीं
मिल रही थी। फलस्वरूप, वह अपने गाँव श्रीपुर लौट आये। रात में पत्नी को पढ़ना-लिखना
सिखाने के लिये बैठ जाते थे। अघोरकामिनी के हाथों में गृहस्थी का काम तो रहता ही
था। फिर भी समय निकाल कर रात में उसने पति के पास पढ़ाई-लिखाई सीखना शुरू कर दिया।
कुछ ही दिनों में वह वर्णमाला जान गई, ईश्वरचंद्र विद्यासागर रचित ‘वर्णपरिचय’ का प्रथम
भाग और द्वितीय भाग पढ़ ली। भाषा सीखाने के साथ साथ, हाल ही में ब्राह्मो बने
प्रकाशचंद्र पत्नी को धर्मज्ञान, नैतिक मूल्यों का पाठ आदि सिखाने लगे।
उनका पहला सन्तान सुसारवासिनी श्रीपुर में ही जन्मी। इससे
सम्बन्धित भी एक कहानी है। पहले सन्तान के जन्म के समय अघोरकामिनी नैहर भेज दी गई
थी। आठ महीने का गर्भ लेकर अघोरकामिनी अस्वस्थ हो गईं। प्रकाशचन्द्र भी करीब में
नहीं थे उस समय। उधर ससुराल में कुछ समस्याएं भी थी। कोलकाता से सझले भाभी के गुजर
जाने की खबर आई थी। अघोरकामिनी का बुखार इतना तेज हुआ कि डाक्टर आकर बोले, प्रसूति
का जीवन बचाने के लिये गर्भ गिराना होगा। इस काम में गाँव के डाक्टर को मदद करने
के लिये टाकी शहर से बड़ा डाक्टर बुलाया गया। लेकिन रात में तूफान आया। नदी पार कर
बड़ा डाक्टर आ नहीं पाए। सभी बातों को लेकर अघोरकामिनी काफी विचलित थी। तेज बुखार
के बावजूद मन ही मन उन्होने ठान लिया था कि सन्तान का जन्म तो वह देगी ही। तूफान
के बीच ही रात के दो बजे उन्हे दर्द महसूस हुआ। किसी उन्होने नहीं बुलाया। चुपचाप
अकेले वह नीचे उतर कर उसी घर में पहुँच गई जिसकी साफसफाई कर, गर्भ गिराने हेतु
अगले दिन होने वाले ऑपरेशन के लिये तैयार किया गया था। वहीं रात में अकेली
अघोरकामिनी सामान्य प्रसव के द्वारा एक बच्ची को जन्म दी। सुबह जब डाक्टर पहुँचे
तो भौंचक्के रह गये। देखे कि पूरे घर में खुशी की हवा तैर रही है। जिस शिशु को वध
करने की योजना बनाई गई थी नवजात वह शिशु रो रही है और उसकी माँ हँस रही है। इस
घटना में भी अघोरकामिनी का सुदृढ़ मनोबल देखने को मिलता है।
और एक प्रसंग का जिक्र यहीं हो जाना मुनासिब होगा। कुछ दिनों
पहले से प्रकाशचन्द्र ईश्वर में आस्था होने व नहीं होने के संकट से जूझ रहे थे। कई
मार्ग से गुजरते हुये अन्त में बहरमपुर में ही उन्होने ब्राह्मो धर्म की दीक्षा ली
थी। सन 1870 के जाड़े की छुट्टियों में वह गाँव गये हुये थे। उनकी पत्नी ब्राह्मो
नहीं है, ब्राह्मो धर्म का कुछ भी नहीं जानती है। शुरू शुरू में पति के मुंह से
ब्राह्मो धर्म की बातें सुन कर उनकी हँसी छूट जाती थी। फिर, पति को तकलीफ हो रही
है समझ कर चुप हो जाती थी। धीरे धीरे, जैसा कि पहले भी चर्चा की गई है,
प्रकाशचन्द्र अघोरकामिनी को ब्राह्मो धर्म की बातें समझाना शुरू किये। पढ़ी-लिखी न
होने के (उसी समय तो पति के पास उनका अक्षरबोध भी चल रहा था) बावजूद, पति का धर्म
ही पत्नी का धर्म है – बड़ों से सुनी हुई इस बात को मान कर वह पति की बातों को
ध्यान से सुनने लगी। पति के साथ प्रार्थना में बैठने लगी।
अगला साल शुरू होते ही प्रकाशचन्द्र के भतीजी के विवाह की
तैयारियाँ शुरू हो गई। उस इलाके के नियमानुसार विवाह के एक दिन पूर्व ‘जलसौवा’
(जलसहा) नाम का एक आयोजन होता था। पांच घर से भिक्षा में पानी मांग कर लाने के बाद
कन्या को उस पानी से नहलाया जाता था। जल-भिक्षा के दौरान बाजेवाले बाजा बजाते थे
और बहुएं गँवई गीत गाती थी। तुरन्त तुरन्त ब्राह्मो बने प्रकाशचन्द्र को यह प्रथा
‘कुत्सित’ लगने लगा। इसलिये पत्नी को उन्होने इस आयोजन में भाग लेने से मना कर
दिया। पति की बात अघोरकामिनी मान लीं। इसके बाद की घटना प्रकाशचन्द्र, बाद के
दिनों में भतीजी बसंत का लिखा किसी संस्मरण से (सूत्र अज्ञात) अपने संस्मरणग्रंथ
“अघोर-प्रकाश” में उद्धृत करते हैं, “मेरा विवाह सन 1277 (बंगला साल) के फागुन
महीने में 16 तारीख, सोमबार को हुआ। मेरी उम्र उस समय थी 11 वर्ष। जलसहा
के लिये चाची को बहुत अत्याचार सहना पड़ा था। विवाह के एक दिन पहले रात को जलसहा
होता है और सुबह को बड़ी और क्षीर बनाई जाती है। दादी ने कहा, ”बसंत की माँ नहीं है
और यहाँ पर दूसरी कोई बड़ी या छोटी चाची भी नहीं। शास्त्र सम्बंधित सारा काम तुम्हे
ही करना होगा। अगर नहीं करती हो तो घर से निकल जाओ। अगर कन्या का कोई अमंगल होता
है, तो जान जाओगी।” उसी समय सझली चाची भी आई और बोली, ”छी: तुम्हे शर्म नहीं
आती? किसी अघाट (जो घाट न हो, यानि खतरनाक किनारा हो) पर जा कर, गले
में घड़ा बांध कर डूब मरो।”… आदि। पर इतने अत्याचार के बाद भी चाची का विश्वास अटल
रहा। उस दिन पूरा दिन वह बस रोते हुए, अनाहार में बिताई थी। चाची क्यों उस दिन
किसी की आज्ञा नहीं मान रही थी, उस समय मैं कुछ भी समझ नहीं पाया था। रात में जब
जलसहा का समय आया, सबों ने उन्हे बुलाया। जब वह जाने से इंकार की तो सब उन्हे
जबर्दस्ती खींचते खींचते ले जाने लगे।”
यानि, अघोरकामिनी से बलपूर्वक कराया गया। परिणाम क्या हुआ?
प्रकाशचंद्र उस रात अपनी पत्नी को कमरे में प्रवेश करने नहीं दिये। हालांकि बाद
में उन्हे अनुताप हुआ था। ‘अघोर-प्रकाश’ में लिखते हैं, ”मैं अपने मन का क्षोभ व
असंतोष व्यक्त करने का दूसरा कोई उपाय ढूंढ़ पाने में असमर्थ हो कर, अपने कमरे का
दरवाजा बन्द किये रहा। रात को जब सभी तुम्हे लेकर घर पहुँचे, मैं तुम्हे कमरे में
प्रवेश करने नहीं दिया। तुम्हारा दोष नहीं था; मैं औरों के प्रति अपना असंतोष
व्यक्त करने में असमर्थ हो कर, तुम्हे ही और थोड़ा कष्ट दिया।”
सन 1872 के अप्रैल महीने में जब अस्थाई पोस्टमास्टर की नौकरी
मिलने के बाद प्रकाशचंद्र बर्द्धमान गये, तब अघोरकामिनी भी बेटी को लेकर पति के
साथ गृहस्थी सजाने गई। लेकिन कुछेक महीनों के बाद उस अस्थाई नौकरी का मियाद खत्म
हो गया। प्रकाशचंद्र फिर से नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो गये। पत्नी और बेटी को फिर
से गाँव में रख आये। यद्यपि गाँव के घर में प्रकाशचंद्र की माँ थी उस समय, फिर भी,
प्रकाशचंद्र की नौकरी नहीं रहने के कारण उनकी पत्नी और बेटी को सझले भैया की आय पर
आश्रित होकर रहना पड़ा। दूसरा कन्या संतान, सरोजिनी का जन्म भी श्रीपुर में,
अघोरकामिनी के नैहर में हुआ। एक साल से अधिक समय अघोरकामिनी का, ससुराल में बीता।
दो बेटियों की देखभाल के अलावे – प्रकाशचंद्र खुद ही पत्नी के जीवन की कहानी ‘अघोर-प्रकाश’
में लिखते हैं – ”कुलवधु का सारा काम, चिउड़ा कूटना, गाय के लिये कुट्टी काटना यह
सबकुछ तुम्हे ही करना पड़ता था। सुबह उठकर बर्तन मांजना, घर में झाड़ु लगाना, गोबर
लेपना, यह साराकुछ तुम्हारा नित्यकर्म था।”
फिर भी, यह कहना ही पड़ेगा कि पति का अनुगत रहने का स्वभाव,
अघोरकामिनी के लिये सिर्फ परम्परा का निर्वहन नहीं था, उसके पीछे थी उनकी
चारित्रिक शक्ति, प्यार की ताकत। प्रकाशचंद्र जब एक छापाखाना में काम करने लगे, एक
दिन ग्लानि भरे मन से पत्नी को चिट्ठी लिखे। चिट्ठी पढ़ने के बाद अघोरकामिनी को लगा
कि उनके पति साधुसन्यासी बन कर कहीं चले जायेंगे। तुरंत, घर पर जो नौकर था उसे
बुला कर प्रकाशचंद्र को घर ले आने को कही। नौकर बेनीदादा ने भी मना कर दिया कि
बाबुजी अभी कैसे आयेंगे, कोलकाता में कामकाज कर रहे हैं, घर पर पैसा भी कहाँ कि वह
कोलकाता जायेंगे। सुन कर अघोरकामिनी अपने गले का हार उतार कर दे दीं, बोली, जाओ,
जैसे भी हो सके बुला कर ले आओ। प्रकाशचंद्र सारी बातें सुनकर अवाक रह गये। हँसी भी
आई। पूछे कि उनके सन्यासी बन जाने पर अघोरकामिनी क्या करतीं? अघोरकामिनी उदासीन
भाव से बोली, घर छोड़ती! गेरुआ पहनती, राख मलती और देस देस घूमती जब तक मिलती नहीं
तुम से!
प्रकाशचंद्र को एक काम मिला था जरूर, हिस्सेदारी पर एक दोस्त
का छापाखाना चलाने का काम, लेकिन करार था कि लाभ का पैसा मूलधन में जुटेगा। इसलिए
घर पर एक पैसा भी भेज नहीं पाते थे। गाँव से पत्नी और बच्चियों की बदहाली का खबर
मिलता रहता था। अंत में दोस्त को बोल कर छापाखाने का काम उन्होने छोड़ दिया। बगुड़ा
में पोस्टमास्टर का काम मिला, वह भी छोड़ दिया। तब जा कर, सन 1873 के दिसम्बर में हरिणाभी
(24 परगना) के उच्च अंग्रेजी विद्यालय में द्वितीय शिक्षक का काम मिला। कुछ दिनों
तक ब्राह्मो धर्म के प्रख्यात आचार्य शिवनाथ शास्त्री भी उस विद्यालय में प्रधान
शिक्षक के तौर पर कार्यरत थे। प्रकाशचंद्र का भी उनके ही निवास पर रहने की
व्यवस्था हो गई। फलस्वरूप, अघोरकामिनी को अपने दो संतानों को ले कर प्रकाशचंद्र के
साथ रहने का अवसर तो मिला ही, शिवनाथ परिवार का साहचर्य भी मिला।
हरिणाभी में रहते हुये ही प्रकाशचंद्र को मोतिहारी में अकाल
राहत सुपरिन्टेन्डेन्ट का काम मिला। सरकारी नौकरी, वेतन भी अधिक, प्रोन्नति का भी
संभावना थी। शिवनाथ शास्त्री जी ने भी स्वीकार कर लेने के लिये कहा। प्रकाशचंद्र
चले मोतिहारी। फिर से अघोरकामिनी का अकेला जीवन बिताना शुरू हुआ। शुरू में कुछ
दिनों तक बादुड़बागान में सझले भैसुर के घर पर रही। सझले भैसुर कुछ ही दिनों के बाद
उन्हे गाँव चले जाने को कहा। बहुत बिनती कर कोलकाता में पड़ी रही कि मोतिहारी से आ
कर प्रकाशचंद्र अगर उन्हे ले जाने को चाहे तो सुविधा होगी। अंत में रोज का
धिक्कार, तिरस्कार असहनीय होने पर भवानीपुर में फुआ के घर जा कर रहने लगीं। उधर
प्रकाशचंद्र आ नहीं पा रहे थे क्योंकि अकाल-राहत का काम है, स्थाई भी नहीं हुआ है
तब तक। फलस्वरूप, भवानीपुर से भी निकल कर अंत में गाँव ही जाना पड़ा अघोरकामिनी को।
5 अप्रैल 1874 को लिखी गई अघोरकामिनी की चिट्ठी प्रकाशचंद्र उद्धृत कर रहे हैं,
“तुम्हारा पत्र मिला। कहां हो तुम? मुझे छोड़ कर कहाँ चले गये? मैं आंखों में
अंधेरा देख रहा हूँ। मेरा और कोई नहीं है। तुम कहाँ हो? … हमेशा ईश्वर को बुलाना,
बिल्कुल भूलना मत। … मोतिहारी जगह कैसी है? दोस्त कैसे हैं? समाज है कि नहीं?
धर्म-बंधु हैं कि नहीं? बहुत जानन कि इच्छा होती है कि वहाँ तुम पर स्नेह रखनेवाला
शिवनाथबाबु की तरह कोई व्यक्ति है या नहीं। तुम्हे जो कुछ कष्ट होगा सारा मुझे
देना, मुझे बहुत खुशी होगी।”
जब इस तरह आये दिन लंबी लंबी चिट्ठियों में, पति को माँ जैसा
स्नेह दे रही थी अघोरकामिनी, तब खुद कैसे दिन बिता रही थी गाँव में? ससुराल में और
सारे कामों के अलावे, चूंकि वह धान कूटने का समय था इसलिए धान कूटती थीं। तिस पर
एक जगह निश्चिंत हो कर रह भी नहीं पाती थी। काम नहीं रहने पर ससुराल के लोग उन्हे
भेज देते थे नैहर – वहीं का आटा गीला करे! फिर जब काम पड़ता था, आधा दिन का भी समय
नहीं दिया जाता था – तुरंत दौड़ना पड़ता था ससुराल! इस पर उनकी माँ कुछ कह देती थी
तो उसके लिये भी उन्हे ही ताना सुनना पड़ता था। बस एक ही बात थी थोड़ा आश्वस्त रहने
की। प्रकाशचंद्र के धर्म-बंधु उन्हे सान्त्वना देते हुये पत्र भेजते थे और जरूरत
समझने पर पैसों की भी मदद भेजते थे। यह हमदर्दी काफी कीमती थी उन दिनों।
अंत में प्रकाशचंद्र की नौकरी पक्की हुई। पहले जिस भतीजी
बसंत की चर्चा की गई है, उसी भतीजी और उसके पति रामलाल दत्त के साथ अघोरकामिनी
अपनी दो बेटियों को ले कर कोलकाता पहुँची, प्रकाशचंद्र के एक धर्म-बंधु केदार के
घर पर ठहरीं। फिर वहाँ से सभी रवाना हुए मोतिहारी। वह था सन 1875, अघोरकामिनी की
उम्र थी उन्नीस साल। उस छोटी सी मुलाकात में भी मित्र केदार इतना अभिभूत हुए कि
बाद में प्रकाशचंद्र को उन्होने पत्र में लिखा, “प्रकाश, तुम जानते नहीं हो कि
अघोर कैसा रत्न है।”
यहीं से अघोरकामिनी का बिहार-वास का पर्व शुरू हुआ।
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जैसा कि प्रकाशचंद्र के बयान से समझ में आता है, मोतिहारी
में अघोरकामिनी व्यवस्थित ढंग से गृहस्थी सम्हालना शुरू की; यद्यपि प्रकाशचन्द्र
की आय कम थी, अघोरकामिनी की मितव्ययिता के कारण तथा कुशल गृहिणी होने के कारण कभी
भी कोई समस्या खड़ी नहीं होती थी। साथ ही साथ चूंकि घर पर ही समाज (ब्राह्मोसमाज)
स्थापित किया गया, अघोरकामिनी भी दूसरी औरतों को साथ ले कर नियमित सामाजिक उपासना
में हिस्सा लेती थी। दानशीलता तो उनमें थी ही। उस समय दक्षिणपूर्व बंगाल में बड़ा
तूफान आया, बहुत लोग मारे गये, अन्न का अभाव शुरू हो गया। कोलकाता में ब्राह्मो
आचार्य केशवचंद्र सेन ने सहायता के लिये जो आवेदन किया था उस आवेदन को मोतिहारी
में धर्मतत्व की चर्चा के समय प्रकाशचंद्र ने पढ़कर सुनाया। सहायता का आवेदन सुन कर
उसी रात को अघोरकामिनी अपना सोने का बाजूबंद हाथ से उतार कर दे दीं। जबकि वह सोने का बाजूबंद अपने मायके से पहन
कर आई थी। पहले गाँव में रहते समय वह देसी धोती पहनती थी। कोलकाता में रहते समय रंगी हुई साड़ी और बिलायती धोती पहनती रही। मोतिहारी में उनमें
से कुछ भी नहीं मिलता था। इसलिए थान खरीद कर उसमें खुद ही नीला रंग डाल कर साड़ी
बना लेती थी, वही पहनती थी। फिर वह भी पहनना छोड़
दी। स्थानीय गरीब लोग जो ‘मटिया’ पहनती थी, वह भी वही पहनने लगी। उसी पहनावे में
जाती थी सब जगह, निस्संकोच। हाथ में ‘नोआ’ (लोहा की चुड़ी) नहीं रहने पर पति का
अमंगल होता है, ऐसा कोई अंधविश्वास नहीं था उनमें, इसलिये ब्राह्मो साधिका के
नियमानुसार नोआ, शांखा, चूड़ी सब खोल कर खाली कलाई रखती थीं। ब्राह्मिकाएं नोआ न
उतारने पर बाजाब्ता डांटती थी। एक सम्मानित ब्राह्मिका का नोआ वह जबर्दस्ती उतरवा
ली थीं, क्योंकि झूठा दिखावा वह सह नहीं पाती थी।
एक फूलगोभी की कहानी है। उन दिनों
मोतिहारी के तरफ फूलगोभी नहीं होता था और चूंकि मोतिहारी तक ट्रेन नहीं था इसलिए
बाहर से भी नहीं पहुँचता था। एक दिन प्रकाशचंद्र के एक मित्र जो पटना के रहनेवाले
थे, एक फूलगोभी दे गए। फूलगोभी मिलने पर सभी को खुशी होगी यह सोच कर प्रकाशचंद्र
ने चार-पांच घर पड़ोसियों में थोड़ा थोड़ा बांट देने के लिए कहा। शुरू में अघोरकामिनी
आपत्ति जताई, “छोटा सा गोभी है, पांच घरों मेम बांटने पर वे भी क्या खायेंगे और हम
भी क्या खायेंगे?” लेकिन अंत में टुकड़ों में बांट कर उन्होने सभी को दिया। उसके
बाद से, प्रकाशचंद्र लिखते हैं, “तुम अपने घर की साधारण सी अच्छी चीजें भी थोड़ा
थोड़ा बांटे बिना खुद ग्रहण नहीं करती थी। धीरे धीरे तुम्हारी देने की प्रवृत्ति
तुम्हारी दानशक्ति को पार कर बहुत आगे चली गई थी।”
एक शराबी लेकिन मित्रवत व्यक्ति
अस्वस्थ हो गये। डाक्टर के सुझाव पर उन्हे छुट्टी ले कर बाहर जाना पड़ा। उनकी पत्नी
को अघोरकामिनी अपने साथ अपने घर ले आईं। बहन की तरह रखीं। घर में तीन कमरे थे। एक
में रहती थी प्रकाशचंद्र की भतीजी बसंत और उसका पति राम। और एक कमरा अघोरकामिनी ने
उस महिला को दे दिया। बाकी एक कमरे में ही उन्होने प्रकाशचंद्र एवं खुद के सोने
तथा सभी के खाने की व्यवस्था की।
मोतिहारी में ही सन 1876 के 5 मई को
अघोरकामिनी का पहला पुत्रसंतान जन्म लिया। हालांकि डाक्टर बुला कर लाया गया था
लेकिन वैसा कुछ (सुसार के जन्म के समय तेज बुखार, सरोजिनी के जन्म के समय लगातार
रक्तपात …) घटित नहीं हुआ। सामान्य प्रसव हुआ। उन दिनों नामी एक साधु अघोरनाथ
मोतिहारी पहुंचे हुए थे। वही नवजात का नाम रखे सुबोधचंद्र। धर्मोपदेश देते वक्त
बल्कि वह उदाहरण के साथ समझाते थे कि आसक्ति त्यागे बिना परित्राण नहीं है।
प्रकाशचंद्र भी वैसा ही प्रयास करने लगे। अलग सोयेंगे, पत्नी और संतानों के साथ
नहीं सोयेंगे। रह नहीं पाते थे। बार बार लौट आते थे पत्नी के पास, फिर प्रयास करते
थे। अघोरकामिनी क्या करे, उस प्रयास में भी पति की मदद करने लगीं। कभी शिकायत नहीं
करती थी कि उन्हे अकेले रहना पड़ता है।
उधर भतीजी बसंत गर्भवती हुई। छोटी
सी लेकिन गंभीर एक घटना घट गई एक लोटे को लेकर। एक ही लोटा था घर में। अपनी जरूरत
के कारण बसंत उस लोटे को अपने कमरे में रखना चाही। अघोरकामिनी अपत्ति जताई। बसंत
उम्र में भी और रिश्ते के लिहाज से भी छोटी होने के बावजूद खरीखोटी सुना दी।
अघोरकामिनी भी जबाब दी। प्रकाशचंद्र सुन कर अघोरकामिनी को बोले कि वह बसंत के पैर
पर गिर कर माफी मांगे। अघोरकामिनी पहले प्रतिवाद की लेकिन प्रकाशचंद्र की मर्यादा
रखने के लिये अन्तत: अपनी आत्ममर्यादा त्याग दी – बसंत
के पैर पर गिर कर क्षमाप्रार्थना की। बाद में प्रकाशचंद्र को एक पत्र में उन्होने
लिखा था, “कैसी वेदना के साथ उस दिन मैंने क्षमायाचना किया था वह मेरे अन्तर्यामी
जानते हैं और तुम जानते हो।” प्रकाशचन्द्र अपने संस्मरण में लिखते हैं, “तुम उम्र
और रिश्ता दोनों बड़ी थी और तुम्हारा कोई दोष भी नहीं था … लेकिन प्रेम की खातिर
तुम अपनी आत्ममर्यादा त्यागने को भी तैयार हो गई। ... मैं तुम्हारा आत्मविजय देख
कर तुम्हे धन्यवाद दिया। यह जो किसी और की त्रुटि पर भी झुकना सीख गई, आगे के जीवन
में यह शिक्षा तुम कभी भूली नहीं।” व्यक्तिगत जीवन में हमलोग हर दिन न सिर्फ ऐसा
घटित होते हुये देखते हैं बल्कि खुद भी अंजाम देते हैं। अपने संतान, पत्नी या
प्रियजनों को अपमानित होने से बचाने के लिये, गलती न होते हुये भी पैर पर गिर कर
क्षमा मांग लेते हैं, कभी राज्यसत्ता के आगे, कभी दुष्ट मुहल्लेवालों या पड़ोसियों
के आगे। परिस्थिति के अनुसार तात्कालिक तौर पर आत्ममर्यादा विसर्जित कर पाना भी
निस्स्न्देह एक शिक्षा है, अगर वह कोई बेहतर और ज्यादा महान उद्देश्य को हासिल
करने में काम आये। यह बात समझ में आती है कि अघोरकामिनी के लिये वैसा करना सिर्फ
‘प्रेम की खातिर’ नहीं था। तो क्या सिर्फ गृहशांति बनाये रखने के लिये था? या
ब्राह्मिका के तौर पर आत्मिक क्रमविकास के लिये था? या भविष्य का समाजकल्याणी,
सेविका व शिक्षाव्रती जीवन का बीज अंकुरित हो रहा था भीतर?
और एक घटना का जिक्र करते हैं
प्रकाशचंद्र। जिस घर में थे वह जर्जर हो जाने के कारण एक दूसरा घर किराए पर लिये
थे वे लोग। प्रकाशचंद्र के एक मित्र का मन हुआ कि वह भी उसी घर में रहेंगे। सभी
अपना अपना कमरा पसंद कर लेने के बाद शौचालय के बगल वाला कमरा अघोरकामिनी को मिला।
उसके कुछ दिनों के बाद प्रकाशचंद्र के सझले भैया आये – वह भी रहेंगे। वह बाहर वाला
कमरा लिये। ऊपर से, नये पद पर नियुक्ति (आबकारी निरीक्षक) से संबन्धित सरकारी आदेश
पा कर प्रकाशचंद्र चले गये पटना। ऐसे ही समय में ब्राह्मोसमाज का उत्सव भी आ गया।
सझले भैसुर की आपत्ति के बावजूद अघोरकामिनी और बसंत गईं उस उत्सव में। नतीजा हुआ
कि अघोरकामिनी अपने ही घर में बहिष्कृत हो गई। अकेले अपना खाना बना कर अपने कमरे
में बैठ कर खाती थी।
अघोरकामिनी का कष्ट देख कर प्रकाशचंद्र पहले तो उन्हे गाँव भेज दिये। लेकिन वहाँ भी कष्ट ही है, समझ कर अंत में पटना ले आये।
3
पहली बार पटना आने के बाद कुछ वक्त काफी
विपत्तियों के बीच गुजरा। पुत्र सुबोधचंद्र बीमार चल रहे थे। ऑफिस के काम के
सिलसिले में प्रकाशचंद्र को मोतिहारी जाना था। अघोरकामिनी और सुबोधचंद्र को लेकर
ही
वह मोतिहारी गये। लगा कि हवा बदलने
से और साथ रखने पर सुबोध स्वस्थ हो उठेगा। कुछ दिनों में सुबोध स्वस्थ हो उठा
लेकिन अघोरकामिनी अस्वस्थ हो गई। बीमारी जाये नहीं किसी भी तरह! प्रकाशचंद्र को
फिर पटना लौटना था। इसलिये अघोरकामिनी को कोलकाता रख आये। लेकिन इलाज के नाम पर चल
रहा था वैद्य जी का इलाज। कोई लाभ नहीं हो रहा था। बल्कि वैद्यजी ने कह दिया था कि
यह बीमारी जायेगी नहीं। अंत में एक परिचित साधु आये देखने। उन्होने ही कहा, बहुत
रुपया तो खर्च कर ही दिये, अब और थोड़ा सा खर्च कर फिरंगी डाक्टर दिखा लो! तब एक
फिरंगी डाक्टर को दिखाया गया। डाक्टर ने कहा, कहीं कुछ तो है नहीं! ट्यूमर एक है,
लेकिन वह गर्भवती हैं! इतने दिनों में इतनी सी बात कोई डाक्टर, कोई वैद्य कह नहीं
पाया था।
डाक्टर की अनुमति ले कर अघोरकामिनी
को पटना लाया गया। बाँकीपुर में मुंसिफ थे केदार नाथ राय। उनके घर में ही रहीं
अघोरकामिनी। एक ही कमरे में भंडार, शयन, उपासना … फिर भी केदार नाथ राय की पत्नी
सौदामिनी देवी की सेवा और स्नेह से अघोरकामिनी स्वस्थ हो गईं। प्रकाशचंद्र उस दिन
गये हैं सीतामढ़ी, अघोरकामिनी ने दुसरे पुत्रसंतान साधनचंद्र का जन्म दिया।
ट्यूमर-त्यूमर कुछ भी आड़े नहीं आया।
सौदामिनी देवी शिक्षित थीं लेकिन
कोई अहंकार नहीं था। स्नेह ममता की धनी थीं। अघोरकामिनी को घनिष्ठ मित्र की तरह
उन्होने करीब खींच लिया। बीच बीच में सौदामिनी अघोरकामिनी को ले कर, गाड़ी पर शहर
की सैर करने निकलती थी। नये शहर के लोग, एक शिक्षित औरत के साथ मित्रता आदि का
बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा अघोरकामिनी के जीवन पर। साथ ही साथ, प्रकाशचंद्र के कामकाज
का क्षेत्र भी बदल चुका था। बार बार उन्हे सफर पर जाना पड़ता था। उन जगहों पर प्रकाशचंद्र
कभी कभी पत्नी को ले कर जाने लगे। एक बार डुमराँव के सफर का वर्णन किया है प्रकाशचंद्र
ने। ट्रेनों में उन दिनों सेकेन्ड क्लास में महिला कमरा चालु हुआ था। प्रकाशचंद्र
पत्नी को उसी कमरे में अकेले ही जाने को कहा। स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही जा कर देख आते
थे। अघोरकामिनी शुरू में आपत्ति जरूर जताई लेकिन अकेले सफर से उनकी हिम्मत बढ़ी। सफर
के साथी महिला यात्रियों के साथ बातचीत भी होती होगी। उससे भी इस नई, अंजान भाषाई
इलाके में उनका आत्मविश्वास बढ़ा।
प्रकाशचंद्र खुद ही लिखते हैं, ”बाहर
आ कर तुम्हारे मन में स्वाधीनता का भाव बढ़ने लगा, साहस बढ़ने लगा। साथ ही साथ, नारीजाति
के अधिकारों के बारे में, नारीजीवन के आदर्श के बारे में तुम्हारी सोच की धाराएं प्रवाहित
होने लगीं। जितना तुम बाहर की दुनिया देखने लगीं, उतना ही ज्यादा तुम समझ सकीं इस देश
में औरतों कि हालत कितनी बुरी है और उनके विकास के मार्ग में पग पग पर कितनी बाधाएं
हैं – उतना ही क्लेश होने लगा तुम्हारे मन में।“
देश के सभी धर्ममतों के बीच एकसुत्रता स्थापित करने का महान लक्ष्य
सामने रख कर राजा राममोहन राय ने ब्राह्मोसमाज की प्रतिष्ठा की थी। हालांकि उनके जीवनकाल
में यह समुदाय ‘आत्मीयसभा’ के नाम से परिचित था। बाद में यह ब्राह्मोसमाज के नाम से
जाना गया। सभी जानते हैं कि भारत में औरतों के कौम की आजादी की दिशा में तथाकथित ‘सतीदाह’
प्रथा (यथार्थ में विधवाओं को जबर्दस्ती जिन्दा मृत पति के चिता पर चढ़ाने की प्रथा)
पर रोक कितना बड़ा कदम था। स्वाभाविक तौर उसी राममोहन के द्वारा प्रतिष्ठित, निराकार
ब्रह्म के उपासना की इस विचारधारा में शुरू से ही औरतों में शिक्षा का प्रसार और औरतों
की आजादी की साधना शामिल थी। शुरू से ही दर्शाया जाता रहा कि धार्मिकता मानवकल्याण
के साथ युक्त है। प्रकाशचंद्र कहते हैं, “हमने समझा कि बाहर के जनसमाज की सेवा न करने
पर घर का धर्म भी सही नहीं रहता है; और बाहर की दुनिया देख कर अगर मन बड़ा न हो, अच्छे
लोगों के साथ मिल कर अगर आत्मा उन्नत न हो तो ब्राह्मोधर्म की साधना सम्भव नहीं।” आचार्य
केशवचंद्र सेन द्वारा स्थापित ‘नवविधान’ की धारा में शायद इस आत्मोपलब्धि को और गहराई
प्राप्त हुआ था। वह खुद भी सचेष्ट हुए थे ताकि अन्त:पुर या जनानखाना में
रहनेवाली औरतें साधनासमाज एवं शहर में पुरुषों के कंधों से कंधा मिलाकर चलें।
उपासनास्थल पर समयानुसार खड़ा होने
का आह्वान होने पर पुरुष उठ खड़े होते थे। लेकिन औरतें बैठी रहती थीं। लेकिन अघोरकामिनी
खड़ी हो जाती थी। इस कारण उनकी निंदा भी हुई, फटकार भी पड़ी। एक बार गया में समाज के किसी धर्मोत्सव पर उन्होने
देखा कि पुरुष लोग एक साथ हरिगुणकीर्तन कर रहे हैं। औरतें दूसरी मंजिल पर खड़ी हो कर
देख रही हैं। वह दूसरी मंजिल से ही चीख कर सबको सुनाती हुई बोली, ”भगवन, आप अपने पुत्रसंतानों
के लिए इतना कुछ किए! अच्छा किए! अपने कन्यासंतानों के लिए क्या किए? उनको कौन देखेगा?
उनका विकास कैसे होगा?”
सन
1881 के अंत में प्रकाशचंद्र सपरिवार मुन्सिफ केदार नाथ राय का घर छोड़ कर एक दूसरे,
किराये के घर में चले गये। क्योंकि प्रकाशचंद्र के छोटे भाई प्रबोध अपना परिवार लेकर
भैया की गृहस्थी में रहने आ गये। फिर मोतिहारी की तरह अघोरकामिनी को गृहिणी बन कर स्वतंत्ररूप
से गृहस्थी की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेना पड़ा। इस घर में आने के बाद अघोरकामिनी
अकेले ही पैदल सड़क पर निकलना शुरू कर दीं; तत्कालीन पटना के बंगाली समाज में यह अकल्पनीय
था। अघोरकामिनी बेहिचक आराम से जाने लगीं दूसरे घरों पर, धर्मोत्सवों के दौरान।
साधना
का मार्ग
सन
1882 के 1 जुलाई को विधानचंद्र का जन्म हुआ। पांचवे संतान के जन्म के पहले से ही प्रकाशचंद्र के मन में एक ग्लानि उभर रही
थी। अघोरकामिनी अपनी समस्या बताती थीं। दो बेटी, दो बेटों को तो घर में नौकरानी के
जिम्मे रख कर निकलती थीं धर्म के काम से, लेकिन गर्भ में जो शिशु है उसे कहाँ रख कर
जायेंगी? साधना के वक्त उस शिशु का हिलना-डुलना और भी बाधित करता है। प्रकाशचंद्र सोचते
थे, उनकी साधनसंगिनी पत्नी क्या सिर्फ उनके क्षण भर की शारीरिक मिलन-आकाक्षा की कमजोरी
के कारण इस तरह क्षयित होती जायेगी? इसलिए विधानचंद्र के जन्म के बाद उसे गोद में लेकर
दोनों ने प्रतिज्ञा की कि अब और संतान नहीं होंगे। उस समय प्रकाशचंद्र की उम्र थी पैंतीस
बरस। अघोरकामिनी की छब्बीस। किसी भी समय कमजोरी का शिकार हो जाने की आशंका थी। इसलिए
एक ही बार में पूरे जीवन का संकल्प न ले कर फिलहाल छह छह महीने के लिये आत्मिक मिलन
का व्रत रखने, यानि दैहिक सम्बन्ध नहीं रखने की प्रतिज्ञा ली दोनों ने। पहले भी वे
कई वार हफ्ते भर या महीने भर अलग रहने की कोशिश किये थे पर असफल रहे। इसबार सफल रहे।
इसलिये छह महीना बीत जाने के बाद एक धर्मोत्सव में दोनों ने अनन्त आत्मिक मिलन का व्रत
ग्रहण किया।
यह व्रत
आसान नहीं था। काम, और भी अधिक काम, मनुष्य की सेवा एवं एकाग्र उपासना व्यतीत शरीर
की स्वाभाविक इच्छा का दमन करना आसान नहीं था। अघोरकामिनी के लिये और भी कठिन था यह
परीक्षा। क्योंकि वह उदासीन भी नहीं रह सकती थी, पति के कमजोर होने पर एक माँ की तरह
स्नेह की समग्र शक्ति लगा कर उन्हे सम्हालना पड़ता था। गृहस्थी का सारा जिम्मा अपने
कंधों पर लेते हुए भी वह सारा दिन, अपने घर के अलावे परिचित कई लोगों के घर पर उपासना
के काम करती थीं, धर्मचर्चा, नामगान में हिस्सा लेती थी, बीमारों की सेवा करती थी,
बच्चों को पालती पोसती थी … किसी काम में त्रुटि नहीं रखती थी। और उसी के साथ हर दिन
बढ़ रहा था उनकी चेतना का प्रसार जिसका परिणाम था एक ही साथ मन में वैराग्य का भाव और
सभी के प्रति पहले से अधिक गहरा प्यार। प्रकाशचंद्र लिखते हैं, “बांकीपुर आने के बाद
हमारी कोशिश रही कि किस तरह हमारा जीवन घर की सीमा पार कर बाहर भी व्याप्त हो जाय।
उस समय तक तुम्हारी आत्मा भी इतनी जागृत हो उठी कि तुम्हारी आत्मिक आकांक्षाओं की तृप्ति
कैसे हो देखने के लिये मुझे भी व्यस्त होना पड़ा। दूसरों की सेवा के लिये तुम अधिक व्याकुल
होने लगी। मैंने गौर किया कि जितना अधिक दूसरों से प्यार
किया जा सकता है, शुद्धता का मार्ग भी उतना ही सरल होता है। तुम भी यह बात समझ गई।”
सन
1884 आते आते अघोरकामिनी इतना अधिक सचेत और दृढ़तासम्पन्न हो उठीं कि प्रकाशचंद्र का
प्रतिनिधि बन कर, डेढ़ साल के विधानचंद्र को गोद में लेकर अकेले ही गईं भागलपुर, समाज
के उत्सव में, हिस्सा लीं। इसी साल जनवरी में ब्राह्मोसमाज के आचार्य केशवचंद्र सेन का
निधन हुआ था। प्रकाशचंद्र जाने में असमर्थ थे। केशवचंद्र अघोरकामिनी को बहुत मानते
भी थे। उनके श्राद्ध में अघोरकामिनी अकेले ही कोलकाता हो आई थी। भागलपुर से मन में इच्छा लेकर लौटी कि भागलपुर की तरह
पटना में भी ब्रह्म के उपासक परिवारों को लेकर एक सुन्दर सा मोहल्ला बनायेंगी।
बड़ी बेटी
सुसार के विवाह का सवाल आया। पैसों के अभाव में सुसार की शिक्षा की व्यवस्था कोलकाता में रख कर नहीं हो पाई
थी। पटना के विद्यालयों में लड़कियों को पढ़ाने की अच्छी व्यवस्था न होने के कारण घर
पर गृहशिक्षक रख कर उसकी शिक्षा की व्यवस्था की गई थी। गृहशिक्षक थे वृन्दावनचंद्र
सूर। सच्चरित्र, अच्छा लड़का, ब्राह्मोसमाज का ही एक सदस्य। सुसार और उसके प्रेम
अंकुरित हो चुके थे। सुसार को जब उसकी मां पूछी वह किसी को पसंद करती है या नहीं,
वह वृन्दावनचंद्र का नाम लिख कर दी। पिता और मा के राजी होने पर भी पटना का आम
बंगाली हिन्दू मध्यवर्गीय समाज लाठी लेकर खड़ा हो गया। उनमें ब्राह्मो भी थे।
क्योंकि लड़की कुलीन कायस्थ और लड़का मौलिक सदगोप। धनी भी नहीं, विलायत होकर लौटा
हुआ भी नहीं। समाज में जो मित्र थे उन्होने भी कहा कि गलत हो रहा है। लेकिन
अघोरकामिनी अकेले लड़ती गई। लड़की की इच्छा से विवाह हो रहा है, यही विधाता का संकेत
है, और कुछ देखने की जरुरत नहीं। पति का प्रश्रय अवश्य ही था। लेकिन विवाह के
दिनों में अकेले अथक परिश्रम कर अघोरकामिनी अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न कराई। यहाँ
तक कि देर रात तक पूड़ी भी खुद छानती रही। जब औरतों से सम्बंधित रिवाजों को सम्पन्न
करने का दिन आया, समाज की अचंभित दृष्टि के सामने वस्त्र और दानसामग्री के बदले वर
व कन्या को गेरुआ पहना कर और हाथ में एकतारा दे कर सजाई, क्योंकि, प्रकाशचंद्र
कहते हैं, “गेरुआ ही तुम्हारी नजरों में सबसे कीमती वस्त्र हुआ करता था और
एकतंत्री सबसे मीठा वाद्ययंत्र।” आशीर्वाद के समय औरतों के इकट्ठे होने पर
अघोरकामिनी खड़ी होकर वर और कन्या के कल्याण के लिये प्रार्थना की।
परिणाम यह हुआ कि प्रकाशचंद्र और
अघोरकामिनी के परिवार को पूरे हिन्दू समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। सामाजिक
आयोजनों में पहले उन्हे भी निमंत्रित किया जाता था। वह सब बंद हो गया। अंतिम जिस
आयोजन में निमंत्रित हुए थे वहाँ प्रकाशचंद्र को अलग एक कमरे में भोजन के लिए
बैठाया गया था। प्रख्यात वकील गुरुप्रसाद सेन वहाँ उपस्थित थे। उन्होने प्रतिवाद
किया तो प्रकाशचंद्र ने ही चुप हो जाने की विनती की। … लोग ब्राह्मोसमाज को चंदा
देना बंद कर दिये। उधर प्रकाशचंद्र की मां गुस्से में आ कर छोटा बेटा प्रबोधचंद्र
और उसकी पत्नी को ले कर कोलकाता चली गई थी। खैर, वहाँ आपसी बहस-विवाद के कारण
विवाह के समय प्रबोधचंद्र वापस आ गये थे।
27 मई,
1884 को सुसार का विवाह हुआ। और उसी साल पटना के नयाटोला मोहल्ले
में प्रकाशचंद्र परिवार का अपना मकान बन कर तैयार हुआ। 15 नवंबर को अघोरकामिनी ने
गृह-प्रतिष्ठा का आयोजन किया। कोशिश थी कि घर को एक ही साथ उपासना का स्थल, प्यार
का आश्रयस्थल तथा सेवाश्रम बनाया जाय। पैसों के अभाव के चलते रसोइये को हटा कर खुद ही
भोजन बनाने का काम भी करती रहती थी। जबकि दूसरी ओर, नये मकान में आने के बाद
मोहल्ले के सभी ब्राह्मो परिवारों का खयाल रखना, कोई
जरूरतमंद होने पर अपने ही घर के भंडार से सामान पहुँचा देना, ब्राह्मोसमाज के
प्रचार आश्रम का ध्यान रखना … सब कुछ जैसे अघोरकामिनी की ही जबाबदेही बन गई। लेकिन
कुछ ही महीनों में प्रकाशचंद्र डिप्टी कलक्टर के पद पर नियुक्त हुए। फिर मोतिहारी
जा कर योगदान देने का आदेश मिला। 5 अगस्त 1885 को वे पटना छोड़े।
पिछली बार मोतिहारी में प्रकाशचंद्र एक
मकान खरीदे थे। उस मकान में कोई दूसरा व्यक्ति रहते थे। वह उस मकान को खरीदना चाह
रहे थे लेकिन दाम कम दे रहे थे। अघोरकामिनी के कहने पर कम दाम पर ही प्रकाशचंद्र
मकान बेच दिये। मोतिहारी में भी अघोरकामिनी का सेवाकर्म एक ही तरह चल रहा था। अपनी
दूसरी बेटी सरोजिनी के लिये उन्हे विलायत-से-लौटा लड़का मिल रहा था। सरोजिनी की
उम्र कम होने के कारण वे इंतजार करने के लिये भी राजी थे। लेकिन अघोरकामिनी तो
अघोरकामिनी ही थीं। विवाह के योग्य एक दूसरी लड़की का नाम ले कर पूछीं, ‘उसके’ साथ
विवाह की बात क्यों नहीं सोच रहे हैं? वह भी तो सरोजिनी की तरह मेरी ही बेटी है
समझिये! बल्कि पहले वह ... फिर सरोजिनी! लड़केवाले राजी हो गये और उस लड़की के साथ
ही इस लड़के का विवाह हो गया। जबकि यही सरोजिनी एक साल पहले जब पटना में भयंकर रूप
से बीमार पड़ी थी, जीवन की आशा लोग त्यागने लगे थे, मां अघोरकामिनी अपने विश्वास
में अटल पति को ढाड़स दे रही थी और बेटी की रोगशय्या के पास लगातार बैठी थी।
यहाँ की भी छोटी छोटी घटनाओं के माध्यम से
अघोरकामिनी की दृढ़ता एवं विश्वास का परिचय मिलता है। ऐसे भी दिन हुये, प्रकाशचंद्र
मोतिहारी में नौकरी कर रहे हैं, साथ में है बड़ा बेटा सुबोधचंद्र जो कुछ ही दिनों
पहले कॉलेरा से आक्रांत हुआ था। अघोरकामिनी
के अस्वस्थ होने पर प्रकाशचंद्र ने उन्हे मोकामा में उनके पारिवारिक मित्र अपुर्वकृष्ण
मित्र के यहाँ भेज दिया, अपने बाकी दोनों बेटों, साधनचंद्र और विधानचंद्र को लेकर अघोरकामिनी
मोकामा आ गई। उधर पटना से खबर आई कि देवर प्रबोधचंद्र के बेटे की मृत्यु हो गई। दोनों बेटों को मोकामा में रख कर अघोरकामिनी किसी दूसरे व्यक्ति के साथ लेकर,
सफर में खुद ही सारा इंतजाम करते हुए पहुँच गईं पटना। कर्तव्य के बोध पर गजब अडिग रहती
थी वह। सुबोधचंद्र को जब कॉलेरा हुआ था पति-पत्नी दोनों पटना में धर्मोत्सव में आये
हुये थे। खबर मिलने पर प्रकाशचंद्र जाने के लिये व्यग्र हो उठे। अघोरकामिनी बोलीं,
ईश्वर हैं उसे देखने के लिये, उत्सव खत्म करके तभी जायेंगे।
दूसरी बार मोतिहारी में रहने के वक्त की एक
और घटना उल्लेखनीय है। दामाद वृंदावनचंद्र सुसार को छोड़ देने का मन बना लिये। बोले
कि उनको ब्राह्मो मत अब अच्छा नहीं लग रहा है! तय हुआ कि दम्पति को लेकर दार्जिलिंग
चला जाय; दामाद का मन साफ किया जाय। दामाद का मन तो साफ नहीं हुआ, दार्जिलिंग से लौटने
के बाद सुसार को छोड़ कर वह चले ही गये लेकिन अघोरकामिनी का मन अच्छा हो गया पहाड़ घूम
कर। बर्फ से ढके पर्वतशिखर, जंगल, रास्तों का उतार-चढ़ाव … पैदल चलते चलते रास्ते पर
से बच्चे की तरह हजार चीजें उठाते चलतीं। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर (कविगुरु रवीन्द्रनाथ
के पिता एवं प्रमुख ब्राह्मो प्रचारक) भी उस समय दार्जिलिंग में थे। उनक साथ भी भेंट
हुआ एक दिन; मन परितृप्त हुआ।
सन 1887 के अक्तूबर में वे फिर मोतिहारी से
पटना लौट आये। पटना लौटने के बाद अघोरकामिनी ने ब्राह्मिका समाज का
काम शुरू किया। मन से आसक्ति हटाने के लिये कीमती वस्त्र, गहना आदि तो उन्होने
त्याग ही दिया था, अब केश भी काट कर विसर्जित कर दिया। बाकि रहा ‘पति-धन’, उन्हे
भी “प्रार्थनापूर्वक भगवान के करकमलों में अर्पित” कर दिया। भगवान के सामने
आकांक्षा रखीं कि पति आसक्ति का वस्तु न रहें, सिर्फ धर्मपथ पर सहायक रहें।
कई घटनायें हैं छोटी छोटी जो बताती है कि
अघोरकामिनी त्याग, सेवा और उपासना में डूब जाना चाह रही थीं। साथ ही वे घटनायें
उनके मन की निर्मलता को भी उजागर करती है। ईसाई परिवार के साथ भी मित्रता कर रही
हैं, किसी पाद्री ने हाथ बढ़ा दिया तो बिना झेंपे हैंडशेक भी कर रही हैं (हालांकि
आगे से सावधान हो जाती हैं कि पहले ही हाथ जोड़ कर नमस्ते करें लेकिन ईसाई हो या
पराया मर्द हो, हाथ मिलाने को लेकर कोई ग्लानि का बोध नहीं होता था उन्हे)। अगर
समझ में आ जाये तो किसी अच्छी बात को मानने में वह हमेशा तैयार रहती थीं। उदाहरण
के लिये, पारिवारिक संस्कारों के अनुरूप वह विधवाविवाह का प्रबल विरोधी थीं। लेकिन
जब उन्होने सुना कि एक विधवाविवाह होगा जिसमें आचार्य का काम करेंगे उनके पति, और
विवाह में मदद करने के लिये एक भी आदमी नहीं है, विवाह का सारा जिम्मा उन्होने
अपने कंधों पर ले लिया। देर रात तक विवाहवाले मकान में रुक कर सारा काम पूरा तो
किया ही, वर-वधु की मंगलकामना करते हुये प्रार्थना भी किया।
एक और घटना है जिक्र किये जाने लायक। एक
दिन घर में पति के किसी मित्र की पत्नी अपनी पति के साथ चली आईं। मालुम हुआ कि वह
अपना इलाज के लिये तथा हवा बदलने के लिये आई हैं। यह भी मालुम हुआ कि यह औरत दूर
की रिश्तेदारी से प्रकाशचंद्र की बहन थीं; अघोरकामिनी के साथ विवाह के पहले और बाद
में भी प्रकाशचंद्र इनके पढ़ाई-लिखाई में मदद करते थे और उस कारण से दोनों में
घनिष्ठता भी पनपी थी। भूतपूर्व छात्री की पीड़ा के प्रति कुछ ज्यादा ही हमदर्द हो
कर, प्रकाशचंद्र खुद ही उनकी सेवा करने आ गये। अघोरकामिनी असंतुष्ट हुईं, पति को
रोकीं, लेकिन वह औरत और उसके पति उस घर में ही रही। उस औरत की सेवा का भार भी
अघोरकामिनी अपने ही कंधों पर उठा लीं। यहाँ तक कि उस मित्रदम्पति की बेटी भी जब
भयानक रोग से पीड़ित हुई और बड़ा डाक्टर ने आ कर सुझाव दिया कि किसी बड़े, खुले मकान
में उस लड़की को ले जाया जाय, अघोरकामिनी अपना घर छोड़ उस बड़े मकान जा कर उस लड़की की
सेवा करती रही। उस बीमार बच्ची के लिये सोन नदी का पानी, कोलकाता का मागुर मछली
... सारी व्यवस्था की। अपने हाथों से उसका मलमूत्र साफ करती रही – एक दो सप्ताह
नहीं, छह महीना। हालांकि उसकी माँ की बीमारी सुधरी नहीं, अघोरकामिनी की सेवा से
बेटी स्वस्थ हो उठी।
किसी ने अघोरकामिनी का नाम रखा था
‘मैत्रेयी‘। नाम और उसका अर्थ प्रकाशचंद्र को भी बहुत पसंद था। इसलिये एक दिन जब
एक प्रख्यात ब्राह्मो नेता, पत्रकार व सम्पादक उमानाथ गुप्त घर पर आ कर घर की
बेतरतीब हालत देख कर, कहा जाय तो एक प्रकार से गृहिणी का तिरस्कार किए,
प्रकाशचंद्र को अच्छा नहीं लगा। ‘अघोर-प्रकाश’ में वह लिखते हैं, ”उमानाथबाबु की
बात मैंने तुमसे कहा। तुम कोशिश करने लगी। लेकिन जिस तरह व्यवस्थित रखने पर
गृहस्थी की सारी चीजें पूरी तरह इस्तेमाल हो पाती हैं, बर्बादी नहीं होती है, उतना
व्यवस्थित तुम कर नहीं पाती थी। जब बर्द्धमान में अकेले गृहस्थी करती थी, धर्म के
कार्यों से कोई संबन्ध नहीं था, तब कम चीजें और खर्च पर घर चलाती थी, सभी वस्तुओं
के प्रति नजर रखती थी; अब वह होने को नहीं था। अब अगर मैं तुम्हे घरेलू बनाने का
प्रयास करता तो तुम्हारा मैत्रेयी-भाव भाग जाता। अत: तुम मैत्रेयी ही रही।”
इस बीच डिपार्टमेन्टल परीक्षा में पास
करने पर नौकरी में प्रकाशचंद्र को प्रोन्नति मिली थी। कुछेक प्रसंग हैं भ्रमण के।
वैसे तो ये या तो तीर्थ भ्रमण थे या पति के काम से सम्बन्धित सफर में संगिनी के
रूप में भ्रमण थे, लेकिन भ्रमण सभी का मन बदलता है। अब तक के अघोरकामिनी के जीवन
में एक बेचैनी सी देखने को मिलती है कि और अधिक, और किस तरीके से मनुष्य की सेवा
करें! किस तरह साधना का पथ आत्मिक मिलन के प्रेमामृत का मार्ग बन जाये! शायद एक
तलाश भी था उनके अंदर जिसे वह तलाश के रूप में देख नहीं पा रही थी! इन भ्रमणों के
समय यह स्पष्ट हुआ हो मन में कि क्या करना ईश्वर की सबसे बड़ी उपासना होगी!
भ्रमण करीब के जगहों पर भी हुए और दूर की जगहों पर भी। राजगीर, गया, मसौढ़ी, पुनपुन आदि के साथ साथ सिमला भी! हमेशा सभी से पहले अलसुबह घूमने के लिये तैयार हो जाती थी। साधिका थीं, साजसज्जा, अच्छा वस्त्र आदि का शौक तो था नहीं। एक बात का जिक्र होना चाहिए। आजकल राजगीर जा कर किसी स्थानीय व्यक्ति से अगर आप सवाल करें कि भाई, मखदूमकुंड किधर है तो वह आपके चेहरे और पहनावे कि ओर गौर करेगा। अगर उसे लगेगा कि आप हिंदू हैं तो कहेगा वह कुंड तो मुसलमानों का है! लेकिन प्रतीत होता है कि ऐसा भेदभाव उस समय नहीं था। या यह भी हो सकता है कि ब्राह्मोसमाजियों को कट्टर हिंदू अपने कुंडों में प्रवेश न दिये हों और मुसलमानों ने सादर स्वीकार कर लिया हो! अघोरकामिनी, प्रकाशचंद्र और उनका पूरा दल मखदूमकुंड में ही स्नान, उपासना आदि संपन्न किया! दो बार राजगीर जाने का वर्णन है पुस्तक में – दोनों ही बार!
शिक्षाव्रत
पति-पत्नी होते हुए भी दैहिक मिलन यहाँ तक
कि स्पर्शसुख भी प्राप्त नहीं करने के संकल्प के दस साल बीत गये थे। संकल्प को
उन्होने निभाया था। अब दोनों ने एक आयोजन द्वारा एक दूसरे के साथ आध्यात्मिक विवाह
करने का फैसला लिया। वे दोनों ब्राह्मो थे एवं आचार्य केशवचंद्र सेन द्वारा
प्रवर्तित ‘नवविधान’ धारा के अनुयायी थे। केशवचंद्र सेन रचित ‘नवसंहिता’ में
आध्यात्मिक विवाह आयोजन के विधान दिये गये हैं। वह लिखते हैं, ”जब पति और पत्नी
अधिक पवित्र मैत्रीबंधन के लिये पवित्रात्मा के द्वारा प्रेरित व आहुत होंगे तब वे
उस आह्वान के अधीन होंगे।” 27 जनवरी 1891 को, राजगीर में भोर के वक्त प्रकाशचंद्र
अपने हाथों से अघोरकामिनी के माथे का केश छील कर उन्हे मुंडितमस्तक बनाये। फिर नाई
आ कर प्रकाशचंद्र का मस्तकमुंडन तथा क्षौरकर्म किया। उपासना के उपरांत नवसंहिता के
अनुसार दोनों का आध्यात्मिक विवाह संपन्न हुआ। अघोरकामिनी का दिव्य रूप सभी को
प्रभावित किया था। प्रकाशचंद्र लिखते हैं, ”श्रद्धेय प्रचारक महाशय … ने कहा,
दुनिया में महापुरुष कई आये पर आज तक महानारी नहीं आई थीं। अब उनका आगमन हुआ।” बाद
में दोनों ने इस आध्यात्मिक विवाह के दिन को ही अपने अपने जन्मदिन के तौर पर मनाना
शुरू किया।
अब अघोरकामिनी उस कार्य में अपने को सौंपी
जिसे हम उनके जीवन के प्रधान कार्य के रूप में जानते हैं। पर शायद इसके प्रधान कार्य
या साधना की अंतिम मंजिल या शिखर होने का एहसास उनमें पिछले दस वर्षों के आत्मसंघर्ष
के माध्यम से ही हुआ हो! यह भी हो सकता है कि इसे अंतिम वह मानती भी नहीं थी, वह मानती
होंगी कि बस उन्हे आगे बढ़ते जाना है! लेकिन असमय मृत्यु ने यह अवसर उनसे छीन लिया हो!
खैर, सन 1891 के 11 फरवरी को नयाटोला, पटना
स्थित अपने घर में उन्होने बोर्डिंग स्थापित किया। उस दिन से उस मकान का नाम उन्होने
दिया ‘परिवार’। परिवार का अर्थ सिर्फ पारम्परिक तौर पर स्वजनों का समूह नहीं बल्कि
विद्यार्थी एवं सेवार्थी, सभी। परिवार कहें तो एक ही छत के नीचे शिक्षासदन एवं सेवासदन।
शुरुआत हुई दो कन्याओं को ले कर। मोकामा में रहते थे पूर्वोक्त अपूर्वकृष्ण। अघोरकामिनी
उनके घर को अपना घर मानती थी और कहती थीं वह तो मेरे घर का पूरब का कमरा है। उसी तरह
दानापुर में रहते थे षष्ठीदास, उतने ही करीबी। उनके मकान को कहती थीं पश्चिम का कमरा।
वह इस यथार्थ को महसूस करती थीं कि इस तरह के गरीब ब्राह्मो परिवार कोलकाता में अपनी
बेटियों को भेज कर शिक्षा नहीं दिलवा पायेंगे। जबकि पटना में लड़कियों के लिये शिक्षा
की वैसी कोई व्यवस्था नहीं है। तो, पूरब के कमरे और पश्चिम के कमरे की दो कन्याओं को
ले कर अघोरकामिनी ने अपना बोर्डिंग स्कूल स्थापित किया।
लेकिन शिक्षा देना और सेवा, देखभाल आदि करना
दो अलग अलग तरह के काम हैं। बच्चों को शिक्षा देनें के लिये विशेष प्रशिक्षण चाहिये।
इसलिये अघोरकामिनी ने सख्त फैसला लिया – दूर लखनऊ में रह कर मिस थोबर्न द्वारा स्थापित
वीमेंस कॉलेज में मॉंटेसरी प्रशिक्षण लेंगी और साथ में, सम्भव होने पर अंग्रेजी भी
सीखेंगी। जायेंगी तो जायेंगी ही। कोई बाधा उन्हे रोक नहीं पाई। पति का प्रश्रय अवश्य
ही था। नहीं तो, पति को, बच्चों को खाना कौन देगा, लखनऊ जा कर रहने का, पढ़ाई का खर्चा
कहां से आयेगा यह सब बिना सोचे निकल नहीं पाती। जितने दिनों तक लखनऊ में रहेंगी तब
तक के लिये उनका बालिका विद्यालय दानापुर में रहनेवाले षष्ठीदास के घर पर चला गया।
षष्ठीदास ने उसका जिम्मा लिया। पति घर पर अकेले रहे। तीन बेटों को भेज दिये देवर प्रबोधचंद्र
के घर पर। और तीन बेटियों (अपना दो और भाई ज्ञान का एक) को ले कर, बहुतों का तिरस्कार,
उपहास सहते हुये और कुछेक का आशीर्वाद सर पर लेते हुये अघोरकामिनी 27 फरवरी 1891 को
लखनऊ रवाना हो गईं।
उस समय उनकी उम्र थी 35 साल, विवाहिता थीं
और पांच संतानों की जननी। मिस थोबर्न की शिक्षासंस्थान में प्रवेश के कुछ ही दिनों
में उनकी चारित्रिक विशेषतायें औरों को नजर आने लगी। कुछ उन्हे पसन्द करने लगीं जबकि
कुछ जानबुझ कर उन्हे नीचा भी दिखाने की कोशिश करने लगी। स्वाभाविक तौर पर, सुशिक्षित
अनुभवी मिस थोबर्न ने उन्हे दूसरी नजरों से देखना शुरू किया। दूसरी शिक्षार्थियों की
तरह उन्हे वह नियम व अनुशासन के बंधनों में नहीं रखना चाहती थी; मित्र की तरह, बहन
की तरह बर्ताव करती थी। लेकिन अघोरकामिनी जानती थी, स्वेच्छा से नियम की जंजीर खुद
न पहनने पर उनका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इसलिये अपने लिये उन्होने नियम बना लिया
– भोर साढ़े चार से पांच तक उपासना; पांच से छह बजे के बीच जलपान करना, कपड़े पहनना,
घर साफ करना; छह से साढ़े दस तक स्कूल; साढ़े दस से बारह के बीच स्नान, भोजन व विश्राम;
दोपहर के बारह बजे से शाम के साढ़े पांच बजे तक पढ़ाई; साढ़े पांच से छह बजे के बीच नैशाहार;
छह से सात बजे तक नामपाठ व गान; सात से रात के साढ़े दस बजे तक पढ़ाई; साढ़े दस से ग्यारह
के बीच गान और निद्रा। जब मिस थोबर्न बोलीं कि हर दिन थोड़ा खेलकूद
भी करना होगा, शरीर के लिये आवश्यक है, तो उनकी देखादेखी अघोरकामिनी भी माथे पर
रुमाल बांध कर खेलकूद शुरू कर दीं। पटना लौटने के बाद भी अपने स्कूल की लड़कियों के
साथ उतना ही उत्साह से खेलती थीं।
लखनऊ से प्रकाशचंद्र को लिखीं, ”आज्ञाकारिता
होती क्या है, बचपन में कोई नहीं सिखाया। इस कारण से अकेले में छुप कर खुद ही कष्ट
झेलती रही हूँ। आज्ञाकारिता में इतना सुख है मैं नहीं जानती थी। लगता था आज्ञाकारी
बन कर चलुंगी तो आजीवन दुख में जीना पड़ेगा। अब देख रही हूँ कि यह मेरी गलत सोच थी।
यह एक नई बात देख रही हूँ कि जिसे कड़ुवा कहती थी वह मीठा हो गया, और जिसे मिठा
कहती थी उसे कड़ुआ पा कर त्यागने को मजबूर हुआ हूँ।”
लखनऊ के बोर्डिंग स्कूल में रहते वक्त की
कई घटनाएं हैं जिन्हे विशद में जानने पर पता चलता है किस तरह अघोरकामिनी अपने आगे
के जीवन की मानसिक तैयारी कर रही थीं। अनेकों प्रकार के लोगों के साथ मिल कर एक तरफ
जैसे जैसे सामाजिक अनुभव बढ़ रहा था, अपना-पराया आदि भेदभाव से उत्तीर्ण हो रही थी
सभी को एक समान अपना बनाने की साधना में। साथ ही साथ उन सभी बातों से आत्मिक अलगाव
भी घटित हो रहा था उस ईश्वर के लिये जो जीवों की सेवा में ही सेवित होते हैं। पति
की बात मानते हुए उन्हे पत्र भेजना भी बंद कर दी थीं। नहीं तो सारा दिन मन बार बार
विचलित हो उठता था पत्र के उत्तर की उम्मीद में जिसके कारण साधना वाधित होती थी।
उसके बदले उन्होने डायरी या दिनचर्या लिखना शुरू किया था।
बाद में वही डायरी पढ़ कर प्रकाशचंद्र अघोरकामिनी
के, लखनऊ में बिताये गये दिनों के बारे में जान पाये थे। वह सारी बातें वह ‘अघोर-प्रकाश’
में दर्ज कर गये हैं। इसलिये आज हम उस ग्रंथ के माध्यम से इस महान औरत की बात जान
पा रहे हैं।
अद्भुत अदम्य साहस था इस औरत में। पटना
में रहते समय की ऐसी भी घटनाएं हैं कि खबर मिली कहीं परिचित कोई बीमार है, जबकि इधर
घर में उनके पति भी अस्वस्थ हैं – आधी रात को लालटेन उठाये, एक नौकर को लेकर पैदल चली
गई कई मील, बीमार आदमी को उठा कर अपने घर पर ले आईं, सेवा, देखभाल आदि से वह
व्यक्ति स्वस्थ्य हो उठा। एक बार तो ऐसा हुआ कि शहर में सर्कस आया था। लौटते समय पूरा
दल लौट गया लेकिन एक कर्मचारी गंभीर रूप से बीमर पड़ जाने के कारण उसे पटना में छोड़
गया। अघोरकामिनी को मालुम हुआ तो उस अंजान, भिन्नभाषी व्यक्ति को घर पर ले आईं!
उसका देखभाल करना, सेवा करना भी उनका रोज का काम बन गया।
लखनऊ प्रवास के दिनों के बारे में, ‘अघोर-प्रकाश’
में प्रकाशचंद्र लिखते हैं, ”इन दिनों तुम्हारा साहस भी बढ़ता जा रहा था। हर रविवार
तीनों लड़कियों को लेकर शाम के वक्त तुम ‘अयोध्या ब्राह्मोसमाज’ में जाती थी। लौटते
लौटते रात का दस बज जाता था। अकेले तीन वयस्क कन्याओं को लेकर जाना पड़ता था। तुम
अकेली, नया शहर; अगर कहीं कोई नई विपत्ति खड़ी हो जाय …”
अगर मिस थोबर्न के कॉलेज का, आज का पता भी
हिसाब में लें तो अमीनाबाद के इलाके में लगभग पांच किलोमिटर रास्ता, वह भी रात
में! अपने लक्ष्य के प्रति दृष्टि की स्थिरता बनाये रखने में ऐसा ही बेफिक्र और निश्चिंत रहती थी वह।
लखनऊ में अपनी दो
बेटी और ज्ञान की बेटी के अलावे एक और स्थानीय लड़की को साथ रखने की जिम्मेदारी ली थी
अघोरकामिनी। एकदिन उस लड़की के पिता के साथ बातचीत का निम्नप्रकार उल्लेख है ‘अघोर-प्रकाश’
में। लखनऊ में अघोरकामिनी के जीवन के इस तरह के
प्रसंग, प्रकाशचंद्र लिखित ‘अघोर-प्रकाश’ में स्वाभाविक तौर पर अघोरकामिनी की अपनी
डायरी से अनुलिखित हुए हैं। पहले बातचीत को उद्धृत करें:
दो बातें गौर करने लायक हैं। यदुबाबु के सवालों का दिखता हुआ उद्देश्य वित्तीय सहायता नहीं है। बाद में वित्तीय सहायता हो सकता है वह किये भी हों लेकिन फिलहाल वह निश्चिंत होना चाहते हैं कि अघोरकामिनी के विद्यालय में वह अपनी बेटी दे पायेंगे या नहीं। सवाल-जबाब की यह दीर्घता कौतूहल जगाती है क्योंकि घरों से लड़कियों को बाहर निकाल कर विद्यालय ले आने के लिये इस तरह की लंबी जिरह का सामना अघोरकामिनी को निश्चय ही कई बार करना पड़ा होगा। इनके लगभग चार दशक पहले कोलकाता में खुद विद्यासागर को सामना करना पड़ा था, थोड़ा पहले महाराष्ट्र में साबित्रीबाई फूले को भी शायद करना पड़ा हो, अघोरकामिनी के दो दशक बाद बेगम रोकेया हुसौन को मुसलमान परिवारों में सामना करना पड़ा था। आज इतने वर्षों के बाद भी भारत में लड़कियों को स्कूल भेजने के मुद्दे पर, भले ही अब जिरह नहीं हो, लेकिन उनकी पढ़ाई पर परिवारों की लापरवाही मौजूद है। अघोरकामिनी के लिये समस्या अधिक थी क्योंकि उनकी योजना बोर्डिंग स्कूल की थी।
उपर में उद्धृत बातचीत में उठा दूसरा मुद्दा
सरसरी नजर से आध्यत्मिक शिक्षा संबन्धित है लेकिन मूलभूत तौर पर घर की औरतों या लड़कियों
को कुछ भी सिखाने में परिवार के पुरुष सदस्यों की अनिच्छा की आलोचना है। यह प्रवृत्ति
आज भी हमें घरों के अंदर देखने को मिलता है।
पहले पहल छोटी छोटी बातों को लेकर अघोरकामिनी को हॉस्टल में उपेक्षा और अपमान
सहना पड़ता था। बेशक मिस थोबर्न का पूरा स्नेह था उनके प्रति, लेकिन सभी बातों
की खबर मिस थोबर्न को नहीं हो पाती थी। हमेशा वह रहती भी नहीं थी। कभी
रात में रोशनी के लिये तेल की जरूरत पड़ी, कभी भंडार से दूसरी कोई चीज मांगने गई अघोरकामिनी,
अक्सर इन स्थितियों में उन्हे कार्यरत नौकरानियों का तिरस्कार सहना पड़ता था। एक रात
को बहुत ज्यादा अस्वस्थ हो गई। पेट में ऐसा दर्द उठा कि उन्हे लगा अंत समय आ गया है।
अपनी डायरी में लिखीं, “थोड़ी देर पहले पेट में एक तरह दर्द उठा था। सो नही पा रही थी।
देखते देखते दर्द बहुत अधिक कष्टदायक हो गया। मैंने तुरंत कहा, ’मां, प्रकाश, अगर अभी
जाना पड़े, तो मैं तैयार हूँ। चुप रह कर माँ को और तुम को देखने के लिए बैठी रही।”
अघोरकामिनी सच्चे अर्थों में साधिका बन गई
थी। प्रेम की ईश्वरीय शक्ति उनके अन्दर कितना तीव्र और तेजोमय थी, वह ‘अघोर-प्रकाश’
में उद्धृत उनके पत्र या डायरी के हिस्सों को पढ़ने पर समझ में आता है। उनके लखनऊ प्रवास
के समय ही प्रकाशचंद्र ने, पत्नी को सम्बोधित कर ‘अघोर-प्रकाश’ लिखना शुरू किया था।
एक कॉपी पूरा भर जाने पर उन्होने उसे लखनऊ भेज दिया। कॉपी पढ़ कर अघोरकामिनी अपनी डायरी
में लिखीं, ”अघोर-प्रकाश के जीवन-पुस्तक में लिखा रहेगा कि महात्याग ही महासुख है।”
लखनऊ से वापस आने के पहलेवाले दिनों में उन्होने
लिखा, ”यह तो बस बुनियाद डाली गई काम की। कितना काम करना पड़ेगा कह नहीं पाऊंगा। कैसे
होंगे वह काम यह भी मालूम नहीं, लेकिन करना ही होगा। एक उपासनागृह, एक लड़कियों का स्कूल,
एक पीड़िताश्रम, एक छात्राश्रम स्थापित करना होगा। स्कुल तो बहुत जल्द बनाना होगा। खर्च
फिलहाल महीने में लगभग 100 रुपये होंगे। एक बड़े मकान की जरूरत है। 30/35 रुपये होने
से … बाबु की बेटी जो एन्ट्रान्स पास की हैं, आ सकती हैं। अब समझ रही हूँ ज्ञान की
कितनी जरूरत है। कितनी औरतें इस ज्ञान के अभाव में ब्राह्मोसमाज के अंदर जड़पदार्थ की
तरह आहार-निद्रा में समय बिता रही हैं। रुपयों के लिये हमने कभी सोचा नहीं, सोचते भी
नहीं। अगर वास्तव में माँ1 का काम अघोर-प्रकाश कर पाये, निश्चय ही कोई अभाव
नहीं रहेगा।”
[ब्रह्मोसमाज में ईश्वर की अवधारणा का जो मातृरुप
है, यहाँ या पहले भी दो-एक जगह पर उसी माँ की बात की गई है।]
लखनऊ रहते वक्त अघोरकामिनी का व्यक्तित्व
कॉलेज के प्राधिकारियों को इतना प्रभावित किया था कि वे उन्हे छात्रा से अधिक एक
सहशिक्षिका के रूप देखने लगे थे। कॉलेज ईसाईयों का है, अघोरकामिनी ब्राह्मों हैं,
फिर बहस भी करती हओं कि वह ‘ईशा-पुत्र’ के आगे नहीं, ‘ईशा’ के आगे खुद को निवेदन
करती हैं, फिर भी छात्राओं के बीच यह घोषित था कि मिसेज राय, आवश्यकता पड़ने पर
अन्य शिक्षिकाओं की ही तरह उन्हे उपदेश दे सकेंगी। यदि कोई लड़की कोई गलती करे, उसे
आवश्यक सीख देंगे।
लखनऊ में नौ महीना लगातार पढ़ाई_लिखाई, रोज
की साधना, मिस थोबर्न की अनुपस्थिति में उन्ही के निदेशानुसार विद्यालय का देखभाल,
सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने इधर उधर जाना और नियमित समयानुसार भोजन लेने में
लापरवाही … इन सारी बातों के चलते अघोरकामिनी का शरीर बिल्कुल टूट चुका था। इसी
बीच सुसार का अलग-हो-चुका वर, सुसार के रहते हुये दूसरा विवाह किया। इस घटना की
तकलीफ जितनी सुसार को सहनी पड़ी थी, उसकी माँ को भी सहनी पड़ी थी। हाँ, लेकिन स्कूल खोलने के लिये तैयार हो कर लौटी। बच्चों का
देखभाल, जरूरत हो तो उनके साथ खेलना और जरूरत पड़े तो शासन, प्रबंधन, अंग्रेजी और हिन्दी
का ज्ञान, बीच बीच में बच्चों जैसी सरलता के साथ, आश्चर्य जताने में “ओह माई!“ बोल
देना, बाहर काम पर जाते समय पहनावा चुस्त-दुरुस्त रखना, सर पर घूंघट डाल कर काम करना
चूंकि संभव नहीं है इसलिये ईसाई नन लोगों की तरह रुमाल से बनाया गया एक आवरण माथे पर
दिये रखना …
मिस थोबर्न के स्कूल से अंतिम
विदाई ले कर लखनऊ से दो बेटी के साथ अकेले ही अयोध्या नगरी के लिये ट्रेन पर चढ़ीं।
वहाँ उनके पति भी पहुँच चुके थे। वहाँ से दोनों कानपुर, आग्रा, मथुरा आदि घूम कर
इलाहाबाद, मोगलसराय, काशी, खगौल (दानापुर) हो कर 16 दिसम्बर 1891 को पटना लौटे। ‘अघोर-प्रकाश’ में दिये गये वर्णन से लगता है
कि, भले ही आज का पटना जंशन उस समय बांकीपुर जंशन के नाम से मौजूद हो, वे बांकीपुर
में नहीं उतरे थे। दानापुर स्टेशन पर उतर कर, खगौल में पारिवारिक मित्र षष्ठीदास
से मिल कर फिर घोड़ागाड़ी वगैरह से पटना आये।
एक बंगाली ब्राह्मो गृहिणी मिस थोबर्न के
स्कूल से प्रशिक्षण ले कर अपने शहर में विद्यालय शुरू करने के लिये लौट रही हैं
सुन कर शहर के अन्य बंगाली परिवारों में भी खुशी और उत्सुकता थी। ‘अघोर-प्रकाश’ पढ़ने
पर पता चलता है कि मौजुदा खजांची रोड के उत्तर तरफ से, यानि अशोक राजपथ वाले मोड़
से, अभी जिस मकान में ‘अघोर प्रकाश शिशु सदन’ है उस मकान तक रौशनी से सजाया गया था।
यानि, षष्ठीदास के घर से वे अपराह्न में चले होंगे और शाम को घर पहुँचे होंगे।
किसने आयोजन किया पता नहीं पर (ब्राह्मोसमाज के मित्रों का ही आयोजन होगा) पुस्तक
के अनुसार, लौटने पर शंखध्वनि हुई थी और बाजे बजे थे।
विद्यालय निर्माण
‘अघोर-प्रकाश’ पुस्तक में ही विद्यालय की
स्थापना से संबन्धित तीन अलग अलग सूत्र हैं। एक सूत्र है कि लखनऊ जाने से पहले अघोरकामिनी
अपने घर पर शुरू किये गये विद्यालय का भार खगौल-निवासी भाई षष्ठीदास को दे गईं। दूसरा
सूत्र, लखनऊ से लौट कर 1 जनवरी 1892 को “भाई परेश के साथ मिल कर” “बांकीपुर में
गंगा के करीब Boilard साहब का बंगला किराये पर” लीं। और तीसरा सूत्र, “बांकीपुर का बालिका विद्यालय लगभग
बंद होने को था। … ऐसे समय पर स्वर्गीय गुरुप्रसाद सेन महाशय हमें विद्यालय का भार
लेने को कहे।”
पुस्तक के इन तीन सूत्रों के बाद है सन
1907 में प्रकाशित, एल एस एस ओ’मायली द्वारा संकलित ‘पटना डिस्ट्रिक्ट गेजेटियर्स (Patna District Gazetteers by L. S. S. O’Mailey)। इसमें लिखा है, “बांकीपुर फिमेल हाई इंग्लिश स्कूल, कन्याओं की शिक्षा
हेतु एक प्रमुख संस्थान जिसे 1867 में पटना के कुछ प्रतिष्ठित बंगालियों ने स्थापित
किया था … एक निजी घर, जहाँ उन कन्याओं में से कुछ रहती हैं, उस विद्यालय से जुड़ा
हुआ है” [“The premier institution for the education of girls is the
Bankipore Female High English School, which was founded in 1867 by some of the
leading Bengalis of Patna. … a private home, where some of the girls live, is
attached to the school.”] यह सारे अलग अलग तथ्य मिलाने पर एवं आगे
की घटनाओं के सिलसिले से जो तस्वीर उभर कर आती है वह है –
(1) अघोरकामिनी लौट कर षष्ठीदास को दिये
गये विद्यालय की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लीं।
(2) गुरुप्रसाद सेन उसके पहले ही, सन 1867 में (अघोरकामिनी उस समय 10 वर्ष की थीं)
बांकीपुर, नयाटोला इलाके में (जहाँ वह खुद भी संभवत:, और उस वक्त बंगाली भी, अच्छी संख्या में रहते थे) कई प्रतिष्ठित बंगालियों के सहयोग से एक बालिका
विद्यालय स्थापित किए थे, लेकिन दुर्भाग्यवश वह मृतप्राय हो चुका था, और इसी कारण
से वहाँ पढ़ रही कन्याओं का भार भी उन्होने अघोरकामिनी को दे दिया। ‘अघोर-प्रकाश’
में थोड़ा और विशद में दर्ज है, “बांकीपुर बालिका विद्यालय बंद हो जाने के कगार पर था।
नवम्बर महीने में वहाँ की शिक्षिका की मृत्यु के बाद विद्यालय का कोई काम नहीं हुआ
था। छोटी उम्र की दस लड़कियाँ उस वक्त उस विद्यालय की छात्रा थीं। विद्यालय की आय थी
मासिक 48 रुपए, लेकिन अक्सर चंदे प्राप्त ही नहीं होते थे। ऐसे समय पर स्वर्गीय
गुरुप्रसाद सेन महाशय हमें विद्यालय का भार लेने को कहे। मैंने कहा, ‘कन्याओं को
रहने के लिये विद्यालय में जगह दी जाय और मिसेज राय को विद्यालय का पूरा भार दिया
जाय।‘ उन्होने कहा, ‘मिसेज राय काम करती रहें, खुद व खुद उन्हे सारा भार प्राप्त
होगा।‘”
(3) मकान बदल कर अघोरकामिनी सपरिवार (एवं भाई
परेश के परिवार के साथ) बोइलार्ड साहब के बंगले में रहना शुरू कर दीं और ‘परिवार’ (बाद
में ‘अघोर-परिवार’) नाम का उनका अपना मकान पूरा का पूरा बोर्डिंग स्कूल (छात्राओं
के रहने का छात्रावास तथा विद्यालय) बन गया। बाद में जिक्र है कि ‘मेडिकल स्कूल’ (आज
का पीएमसीएच) के पास अघोरकामिनी का घर ‘बंगला’ है, यानि वही बोइलार्ड का बंगला है
जो अशोक राजपथ के उस पार, पीएमसीएच के पास कहीं रहा होगा।
(4) ओ’मायली साहब द्वारा गेजेटियर तैयार किए
जाते समय वह विद्यालय ‘बांकीपुर फिमेल हाई इंग्लिश स्कूल’ के नाम से जाना जाता था और
साथ में सटे ‘निजी घर’, जहाँ बोर्डिंग चल रहा हो, यह जिक्र स्पष्ट करता है कि विद्यालय
उसी नयाटोला वाले घर ‘परिवार’ में ही चल रहा था (अघोरकामिनी गुजर चुकीं थीं)।
तो अंत में बात यूं बैठती है कि पहला
बालिका विद्यालय की संस्थापिका तकनीकी तौर पर अघोरकामिनी नहीं थी; संस्थापक थे
गुरुप्रसाद सेन व कुछ और प्रतिष्ठित बंगाली, लेकिन उस विद्यालय को जीवनदान
देनेवाली निस्सन्देह अघोरकामिनी हैं। 15 फरवरी 1892 को उस विद्यालय का प्रारम्भ आज के खजांची रोड, नयाटोला, पटना
स्थित ‘अघोर-परिवार’ नाम के मकान में हुआ था, कुछ वर्षों में उस का नाम पड़ा था ‘बांकीपुर फिमेल हाई इंग्लिश स्कूल’ और
वही विद्यालय आज गोलघर के सामने ‘बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कुल’ या ‘राजकीय बालिका उच्च
माध्यमिक विद्यालय, बांकीपुर’ के नाम से स्थित है।
और एक जगह पर लिखा है, ”विद्यालय का काम
हाथ में लेने के बाद तुम्हे भी बहुत सीखना पड़ा। हर दिन सौ काम करते हुए भी थोड़ी देर के लिये पढ़ाई करनी पड़ती। यह काम तुम नियमित
करती थी। एक बार विद्यालय में भुगोल पढ़ाने की जरूरत आ पड़ी। भूगोल तुम नहीं जानती थी।
तुम्हारा प्रधानमंत्री मैं, मुझे आ कर पूछीं, क्या करना होगा। मंत्री ने कहा, ‘थोड़ा
पढ़ कर पढ़ा दो’! तुमने वही किया, और विद्यालय जा कर पढ़ा भी दिया। जब गणित सीखाने की
जरूरत पड़ी, तब भी उसी तरह खुद सीखी, फिर सिखाई। एक बात तुम खुब बढ़िया से समझ गई थी
कि लड़कियों पढ़ाई_लिखाई की ओर अधिकांश लोगों का ध्यान नहीं है, लेकिन इस पर ध्यान है
कि वे घर में खाना वाना पकाने के लायक हों। इसलिये तुम पढ़ाई_लिखाई पर ही ज्यादा जोर
देतीं। एक दिन मैंने कहा, “लड़कियाँ रसोई करना नहीं सीख रही हैं”। तुमने कहा, “अभी जो
समय है उनके पास वह पढ़ाई पूरी करने लायक भी नहीं है; उसमें से रसोई के लिये समय काटने
पर नहीं चलेगा। मात्र 7/8 साल लड़कियों को पढ़ने-लिखने के लिये मिलता है, उसमें से रसोई
सीखने के लिये समय काटने पर कुछ भी शिक्षा नहीं हो पायेगी। मैं पन्द्रह दिनों के अन्दर
लड़कियों को रसोई करना सिखा दूंगी।” जब तुम ये बातें बोल रही थीं, तुम्हारी व्याकुलता
तुम्हारे चेहरे और आंखों पर झलक रही थी। …
“विद्यालय में उपस्थिति और विद्यालय के काम
के सिलसिले में तुम्हारे अनुशासन को देख कर वेतनभोगी शिक्षक भी खुद को नियमित करते
थे। अस्वस्थ होने पर भी विद्यालय जाना बन्द नहीं करती थीं। अनेकों दिन जाने से पहले
आहार नहीं हो पाता था। कभी कभी तुम्हारा भोजन विद्यालय में ले जाया जाता था, लेकिन
वह सूखा अन्न निगलना मुश्किल होता। टिफिन के समय विद्यालय जा कर मैंने देखा है, लड़कियों
के साथ तुम प्रांगण में दौड़ रही हो। कैसे खेला जाता है सिखा रही हो। उस समय तक तुम
किन्डरगार्टन प्रणाली भी थोड़ी बहुत सीख ली थी।
“यह सब तो विद्यालय की अवधि में करती थी। उसके
बाद और एक काम था, घर घर जा कर लड़कियों की माँ-ओं से मिलना। बहुत खुशामद से एक एक कर
लड़की जुगाड़ करती थी।“
यहीं पर, प्रतीत होता है कि एक उद्धरण प्रासंगिक
होगा। थोड़ा लम्बा है। सन 1955 में प्रकाशित हुआ था के. पी. थॉमस रचित डा. विधान चंद्र
राय की जीवनी। उसके दूसरे अध्याय (पृ. 26-28)
में वह लिख रहे हैं: -
“लोग जान कर अवाक होंगे कि अघोरकामिनी, पांच
संतानों के जन्म के बाद अपनी पहली दो कन्यासंतानों को ले कर उच्चतर शिक्षा की शुरुआत
कीं। वस्तुत: एक साल वह अपनी बेटियों को ले कर
लखनऊ स्थित इसाबेला थोबर्न कॉलेज में रहीं। अंग्रेजी भाषा सीखने के साथ साथ वह
लड़कियों का शिक्षा प्रतिष्ठान चलाने की कुशलता भी अर्जित कीं। लखनऊ रहते वह
प्रख्यात धर्मप्रचारक महिला मिस इसाबेला थोबर्न की सबसे अच्छी दोस्त बन गईं। उनके
लिये गहरी श्रद्धा और सम्मान था मिस थोबर्न के मन में।
मिस थोबर्न उनके
साथ छात्रा की तरह नहीं, एक साथी की तरह आचरण करती थी और विभिन्न प्रकार की समस्या
में उनका परामर्श मांगती थी। लखनऊ के प्रशिक्षण के उपरांत अघोरकामिनी ने बांकीपुर,
पटना में एक छोटा सा विद्यालय खोला एवं कन्या-शिक्षा के प्रति अपना जीवन उत्सर्ग किया।
पति की छोटी सी बचत के
अलावे उन्हे और किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिली। यह एक अनोखा कारनामा था। अतिमानवीय
भी कहा जा सकता है। अघोरकामिनी द्वारा स्थापित व संचालित संस्था के बारे में सन
1893 के 2 अप्रैल को ‘इंडियन स्पेक्टेटर’ भावावेश से भरी सम्पादकीय प्रशंसा में लिखा
था –
[यह सम्पादकीय टिप्पणी मूल अंग्रेजी में “अघोर-प्रकाश’ में भी उद्धृत
है। सम्भव है कि थॉमस साहब उसी पुस्तक से लिये हों।]
“By
far the most notable Institution, however, at Bankipur is an unpretentious
Boarding House, managed by a Brahmo lady and her two daughters. Mrs. Prakash
Chandra Rai is the wife of a gentleman who holds a respectable Government
appointment and who is in well-to-do circumstances. At the age of thirty-five,
she and her husband took the vow of Brahmacharya and both have religiously
observed it up to date. With her husband’s full consent, Mrs. Rai (perhaps I
should spell ‘Ray’) went with her two daughters to Lucknow to study at Miss
Thoburn’s Institution there. One of the daughters is now twenty-four, the other
is much younger. The elder is married, but … … continues to live with her
parents and to help them in their beneficent works. The younger girl is a pearl.
She is unmarried and looks after the children in the Boarding House with a
little mother’s care and sets there the example of true sisterly love and
self-sacrifice. Mrs. Ray speaks English fluently and is well read.
“Early
in the morning the children in her home offer their prayers in their own simple
way, for no set prayers are used and no compulsion is put upon their tender
conscience. Each of the elder boarders is in charge of one or two of the
younger ones and each keeps a small diary in which she notes down every day her
failings and backslidings, if any. The boarders attend the female school
conducted under Mrs. Ray’s supervision and are helped in their studies at home
by her and her daughters. The whole cost of education and boarding amounts to
Rs. 7 and odd per month. The children look blithe and lively and the lessons of
purity, self-help and self-sacrifice taught to them by example and precept are
likely to have an enduring influence on their after-life. The Boarding House is
not kept for profit; indeed, the amount charged to the boarders is much less
than the actual cost. The deficit is made up by Mr. Ray who takes the deepest
interest in the work of his wife and daughters.”
[Dr. B. C. Roy by K. P. Thomas, 1955]
इस उच्छ्वसित प्रशंसा को पढ़
कर पति प्रकाशचंद्र राय ने पत्नी को मजाक के लहजे में लिखा था,
“देखी? चार अंग्रेजी किताब पढ़ ली तो कितनी तारीफ मिली? दो एक बात शायद तुम जल्दी
जल्दी में बोली थी। विद्वान हीरानंद उतने ही से गदगद हो गये, बोल दिये कि तुम फटाफट
अंग्रेजी बोलती हो। लेकिन पता नहीं किस मंत्र से मुग्ध हो कर उन्होने कहा कि तुम ‘वेल
रेड’ हो, बहुत सारी पुस्तकें पढ़ी हो।” इतना मजाक करने का अधिकार पति को था क्योंकि
उन्होने ही जबर्दस्ती पकड़ पकड़ कर पत्नी के हाथ में खल्ली थमाया था, किताब थमाया था,
शिक्षा, साधना और स्वतंत्र सोचविचार के मार्ग पर आगे बढ़ने में मदद किया था। और
हीरानंद को वह ‘विद्वान’ कह रहे हैं क्योंकि, ‘अघोर-प्रकाश’ में प्रकाशचंद्र के
वक्तव्य के अनुसार, हीरानंद उस समय भारत के विभिन्न शहरों में घूम घूम कर नारीशिक्षा
की वास्तविक अवस्था जान रहे थे। चूंकि उन्नीसवीं सदी के द्वितीयार्द्ध में पूरे भारत
में, नारीशिक्षा के प्रसार के कार्य में ब्राह्मोसमाज या उस धर्ममत के अनुयायी
व्यक्तियों की अग्रणी भूमिका थी, इसीलिये हीरानंद (सिन्धीभाषी) ब्राह्मोसमाज के भी
नजदीकी बन चुके थे।
थॉमस साहब उसके बाद लिख रहे हैं –
“मार्च 1896 में विद्यालय परिदर्शन के
लिये आये थे मिस्टर बोल्टन, सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव। संस्था को देख कर
उन्होने टिप्पणी की, ‘विद्यालय का परिदर्शन कर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। भारत और
इंग्लैंड में अविवाहित औरतें या विधवायें ये सारे काम कर रहे हैं। कहीं मैंने एक औरत
को अपने पति और संतानों को साथ ले कर ऐसे काम का बीड़ा उठाते नहीं देखा।‘
”अघोरकामिनी ने आदतन अपनी विनम्रता के साथ
जबाब दिया, ‘हम धन्य हैं कि रानी सम्राज्ञी
के प्रतिनिधि के तौर पर आप ने इतना समय हमारे छोटे से विद्यालय के परिदर्शन में दिया
और आप पूरी तरह संतुष्ट हुये।’
”उस छोटे
प्रारंभ से आज यह विद्यालय विशाल प्रतिष्ठान बन गया है। आज यह भारत के सबसे बड़े विद्यालयों
में से एक है – बिहार सरकार द्वारा संचालित ‘बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल’। बांकीपुर
में अघोरकामिनी के नाम से अभी एक और विद्यालय है।”
इंडियन स्पेक्टेटर में प्रकाशित सम्पादकीय
टिप्पणी से दो तरह की गलतफहमी पैदा हो सकती है। यह सही है कि पैसों का अभाव दोनों
(अघोरकामिनी और प्रकाशचंद्र) अपनी तकलीफ बढ़ा कर, भूखा रह कर दूर करते थे। लेकिन ब्राह्मोसमाजी
अल्पसंख्यकों के बीच, खास कर ‘नवविधान’ हिस्से में उनके प्रति समर्थन था, और गुरुप्रसाद
सेन अपनी ओर से न हो, मांगने पर बेशक सहायता करते थे, यह जिक्र ‘अघोरप्रकाश’ में भी
है। लेकिन चूंकि वे स्वाभिमानी थे, भरसक किसी के पास हाथ नहीं फैलाते थे। और एक किस्म
की गलतफहमी, सनातन सवर्ण हिन्दू समाज का जिक्र न होने से पनप सकती है। उन परिवारों
में वस्तुत: इनका प्रवेश निषेध
था। किसी आयोजन में निमंत्रित होने पर अघोरकामिनी या प्रकाशचंद्र को कोने में
अकेले बैठा दिया जाता था, यह पहले ही कहा गया है। साथ ही नारीशिक्षा के विरोधी मध्यवर्गीय
बंगाली या हिन्दीभाषी सभी के द्वारा किया गया विभिन्न प्रकार का अपमान और तिरस्कार
दोनों ही सहन करते थे। प्रकाशचंद्र ऊंचे पद पर आसीन सरकारी अधिकारी थे इस कारण से
उनके साथ आमने सामने वैसा आचरण ज्यादा नही करते थे लोग लेकिन अघोरकामिनी को हर पल झेलना
पड़ता था।
गुरुप्रसाद सेन
से संबन्धित और एक प्रसंग है ‘अघोर-प्रकाश’ में। वह प्रसंग जिक्रतलब है क्योंकि
विद्यालय के छात्राओं की सांस्कृतिक सक्रियता को ले कर एक घटना का उल्लेख है उस
प्रसंग में।
प्रकाशचंद्र लिखते
हैं –
“सन 1894 से ही तुम बीच बीच में स्वर्गीय गुरुप्रसाद सेन के घर जाती थीं। इस
तरह उन लोगों के साथ एक आत्मीय रिश्ता कायम हो रहा था। तुम उनके बड़े से महल में जब
तुम्हारी वह बिहारी साड़ी पहन कर जाती थी, अच्छी ही लगती थी तुम देखने में। शुरू शुरू
में वे लोग कोई भी तुमसे मिलने तुम्हारे घर नहीं आती थीं। लेकिन इस कारण तुम दुखी नहीं
होती थी। क्योंकि तुम दुनियावी शिष्टता के पैमाने पर नहीं चलती थी, या अहंकार पर आधारित
आत्मसम्मान की परवाह भी नहीं करती थी। बाद में जब उनके परिवार कि महिलाएं तुम्हारे
परिवार को स्नेह की नजर से देखने लगीं, और तुम्हारे विद्यालय के सम्पर्क में आने के बाद माघोत्सव के समय टैबलो अभिनय (Tableau vivant) करने की बात हुई, तब वे लोग भी
तुम्हारे घर में नियमित आने जाने लगीं। इस तरह उनके साथ घनिष्टता और बढ़ गई।
“इतनी बड़ी एक परिकल्पना
को अंजाम देने का तुमने संकल्प किया लेकिन तुम्हे ही तो पूरा पता नहीं था किस तरह
किसे सजाना होगा और सिखाना होगा। स्वर्गीय गुरुप्रसाद सेन महाशय की ज्येष्ठ पुत्रवधु
तुम्हारा मुख्य सहारा बनी। सिखाना, सजाना सब सुन्दर ढंग से चलने लगा। क्रमश: तुमलोगों का उत्साह बढ़ने लगा, वे भी
बहुत उत्साहित हुए। देखा गया कि साजसज्जा, गायन, काव्यपाठ सारा कुछ सुन्दर ढंग से
होगा। अंत में अभिनय दिखाने का दिन आया। उस दिन तुमलोगों की कितनी व्यस्तता थी,
कितना उत्साह था, कितनी खुशी थी! सिर्फ खुशी नहीं, साथ में कुछ मानसिक तनाव भी था
क्योंकि एक वर्ग के लोग इस आयोजन को पसंद नहीं कर रहे थे। वे तुम्हारा ऊंचा उद्देश्य
समझे नहीं, और यह सब करना आपत्तिजनक है कह कर आलोचना करने लगे।” [इसके बाद पूरे
सांस्कृतिक आयोजन की वर्णना और अघोरकामिनी के परिश्रम का जिक्र करते हुए] “बाहर तो
बहुत सारे तुम्हारे प्रति असंतुष्ट हुए ही थे, अंत में तुम्हारी अपनी मंडली में शामिल
एक भाई ने कहा कि सब काम में तुम अति कर देती हो, तुम्हारा आचरण बाजारू औरत जैसा
है। उस रात तुम घर आ कर मेरे सीने पर सर रख कर बहुत देर तक रोती रही। … ”
ऐसा ही एक साहसी कदम की चर्चा पुस्तक में दूसरी एक जगह पर है। “8 मार्च
[1896] को लड़कियों को विद्यालय से पुरस्कृत किया गया। सभी को निमंत्रण दिया गया था।
जिनका चरित्र बहुत अच्छा नहीं है वे भी आई थी। इस पर कई लोग खफा हो गये। एक बालिका
कविता सुना [आवृत्ति] रही थी, उस पर भी कईयों ने आपत्ति जताई। तुम हतोत्साहित नहीं
हुई। तुमने लिखा, ‘जितना चाहे तिरस्कार कीजिए, काम छोड़ुंगी नहीं कभी भी, यह मेरी प्रतिज्ञा
है।’”
और एक उद्धरण दे कर इस हिस्से को खत्म करुंगा। पूर्वोक्त के पी थॉमस
साहब की ही किताब से। चूँकि उनकी किताब विधान चंद्र राय की जीवनी है इसलिये उन्होने
विधान के बचपन के बारे में ही लिखा है। लेकिन उसी में हमें अघोर-प्रकाश दम्पति के मानवीय
दृष्टिकोण की गहराई की झांकी मिलती है।
“विधान बचपन में ही समझ गये थे कि उनके पिता धनवान नहीं हैं यद्यपि
एक सीमित वेतन उन्हे मिलता है। घर में विधान और उसके भाई_बहनों के अलावे अन्यान्य अनेकों
शिशु थे जिनमें से अधिकांश अनाथ थे। वास्तविक तौर पर जो परिवार के सदस्य थे, उनसे अलग
आचरण उन शिशुओं के साथ नहीं किया जाता था। फलस्वरूप घर में आत्मीयता और मित्रता का
एक बोध और परिवेश था जो क्रमश: विकसित हुआ था। विधान एवं उनके भाइयों का खाना, कपड़ा और दूसरे
सामग्री एक सार्वजनिक भंडार से आते थे। हालांकि वे उच्च पद पर कार्यरत सरकारी राजपत्रित
अधिकारी के संतान थे, उन्हे कभी सोचने का मौका नहीं मिला कि वे घर के अन्यान्य शिशुओं
से भिन्न एवं स्वतंत्र हैं। सभी को ले कर ही परिवार और मकान का नाम था ‘अघोर-परिवार’
यानि अघोर का परिवार। बहुत कम उम्र से विधान एवं उनके भाइयों को एहसास कराया गया था
कि परिवार में उनका कोई विशेष या उच्चतर स्थान नहीं है। इस तरह विधान को उसके माँ और
पिता सिखाये थे कि परिवार सिर्फ रक्त के संबंधों से तैयार नहीं होता है, विभिन्न
मनुष्यों का पारस्परिक प्रेम और समझदारी में जिन्दा रहता है …।”
अंत के वर्ष
धीरे धीरे साधना
के संबंधों में अघोरकामिनी और प्रकाशचंद्र राय आत्मिक भाई-बहन बनते जा रहे थे। संबंधों
का यह एक अनोखा बदलाव था। ब्राह्मोसमाज के अनुयायी परिवारों में और कितने दंपतियों
ने इस तरह यौवन में ही हमेशा के लिये देह के संबंध यहाँ तक कि स्पर्शसुख भी आजीवन
त्याग कर, दाम्पत्य के भौतिक सुखों को त्याग कर, खुद को ऐसी ईश्वरसाधना में लीन
किया हो जिसका प्रधान स्वरूप हो समाजसेवा, सामाजिक सुधार और जनहित … हमें मालूम
नहीं। कभी एक दूसरे के आलिंगन में भी नहीं होते, कि कहीं प्रतिज्ञा से स्खलन न हो,
आध्यात्मिक विवाह का ऊँचा आदर्श लक्ष्यभ्रष्ट न हो! यद्यपि साधना का उद्देश्य एक
है, एक दूसरे की श्रद्धा करते हुए एक ही साथ रहना भी है निरंतर, और कठिनाइयों में
एक दूसरे के प्रति स्नेह से भरा हुआ प्रेम बनाये रखना है! दोनों में से किसी को
तेज बुखार हो तो माथा कौन धुलायेगा, देह कौन स्पॉंज करेगा, जरूरत पड़ने पर कंधे का
सहारा देकर शौच में कौन ले जायेगा? वही करेंगे, एक दूसरे के लिये। लेकिन सिर्फ
स्नेह, ममता और वात्सल्यमय प्रेम के भाव से! वैचारिक व आत्मिक प्रतिबद्धता से
निर्माण की गई गहरी मित्रता के भाव से! भीतर पैदा होते तमाम हृदयावेग व अस्थिरता,
कामना के हलचलों के निवारण हेतु बार बार ईश्वर को स्मरण करते हुये और बाहर, जनता
के कल्याण में खुद को और और अधिक समर्पित और व्यस्त करते हुए! ब्राह्मोसमाज में
आचार्य केशवचंद्र सेन रचित ‘नवविधान’ में दिखाया गया यह जीवनमार्ग निस्सन्देह
उन्नीसवीं सदी के द्वितीयार्ध में उभर रही राष्ट्रीय व सामाजिक बदलाव की स्फूर्ति
को ही आध्यात्मिकता में बांधने का एक प्रयोग था, लेकिन अनोखा प्रयोग था।
अघोरकामिनी और
प्रकाशचंद्र ने एक दूसरे के लिये स्नेहमय संबोधन चुना था – ‘घोरी’ और ‘पिकु’। एक
दूसरे से दूर रहने पर चिट्ठी लिखना तो पहले ही दोनों ने बंद कर दिया था। सिर्फ
डायरी लिखते थे। वहीं ये प्रिय सम्बोधन दोनों डायरियों में बार बार आते रहते हैं।
दूसरी ओर, साधना के गूढ़ार्थ से प्रेरित जनकल्याण के मार्ग पर अकेले अघोरकामिनी
पूरे बांकीपुर इलाके में बन गई थीं ‘माता ठाकुरानी’। पति तो सरकारी नौकरी के
सिलसिले में दिन भर दफ्तर में, शहर में दूसरी जगहों पर या आसपास के जनपदों में सफर
पर – मनेर, फतुहा, बिहारशरीफ, राजगीर, बिहटा या अन्यत्र होते थे। जबकि मेडिकल
स्कूल (आजका पीएमसीएच) में कहा हुआ था कि किसी अस्वस्थ पुरुष या स्त्री रोगी को
देखभाल करने के लिये अगर कोई नहीं रहे तो माता ठाकुरानी को खबर पहुँचाना है। किसी
के सहायता की कोई आशा न बचे तो माता ठाकुरानी के पास जाए। कोई कष्ट में रहे तो
माता ठाकुरानी देखेंगी। ‘अघोर-प्रकाश’ में लेखक कहते हैं –
“तुम्हारी दैनिकी
पढ़ने पर समझ में आता है, इन दिनों तुम्हारा काम कितना बढ़ता चला गया। एक दिन के
कुछेक कामों की यह सूची है। (1) लड़कों के आहार पर नजर, (2) पाठ, (3) उपासना, (4)
रोगियों की सेवा, (5) विद्यालय जाना, (6) धोबी से कपड़े लेना और देना, (7) भेंट
करना, (8) रजाई बनाना, (9) नये दोस्त के घर की खबर लेना, (10) जूतों का बंदोबस्त
करना, (11) एस्टिमेट बनाना और वेतन देना।” ये तो हुये पहले से सोचे गये काम। उसके
बाद था अचानक आ पड़ा काम। कुछ भी नहीं, तीन मिट्टी के हांडियों को एक दूसरे के ऊपर
बैठा कर पानी का फिल्टर बनाना चूंकि तुमने सीख लिया था, कोई पड़ोसी अनुरोध करके गया
उसका फिल्टर तैयार कर देना होगा – बस, जाकर बना आई! मेडिकल स्कूल से एक डाक्टरसाहब
ने आ कर खबर दिया एक महिला रोगी को देखने वाला कोई नहीं – बस, जा कर उसे घर में
उठा लाई! इन कामों से अलग था पैसों से मदद। एक तो उनकी अपनी ही अभाव की गृहस्थी
थी! एक बार तो छात्राओं या बोर्डरों (‘अघोर-परिवार’ में रहनेवाले बच्चों) से
संग्रह किए गए मासिक सात रुपए के कोष से भी उधार लेना पड़ा था। बाद में लौटा भी दी
थीं लेकिन बहुत शर्मिंदा भी हुई थी। क्योंकि उन्ही का बनाया नियम था कि उस कोष में
कोई हाथ नहीं लगाएगा। फिर भी, किसी के द्वारा सहायता मांगे जाने पर तत्काल
व्यवस्था करती थी। ‘अघोर-प्रकाश’ में कई ऐसी चिट्ठियाँ उद्धृत हैं जिन में विभिन्न
शहरों के निवासी जिन्हे सहायता मांगने पर सहायता मिली थी, धन्यवाद लिख भेजे हैं।
इस पर भी नहीं रुकती थी। असम से एक लड़के को किसी अपराध के कारण गिरफ्तार कर यहाँ
पटना में जेल में डाला गया। अघोरकामिनी औरों से सुन कर, फिर खुद जेल जा कर उस लड़के
से बात कर समझीं की लड़का निर्दोष है। बस, भिड़ गई उसे जेल से छुड़ाने में। आसनसोल
से, एक औरत पर अत्याचार होने की खबर मिली। उसके प्रतिकार के लिये चिट्ठी भेजीं
सरकार को। दुख की बात है ऐसी एक नारी की विस्तृत जीवनकथा लिखना आज आवश्यक तथ्यों
के अभाव के कारण अत्यंत कठिन है।
लखनऊ प्रवास के
नौ महीने में तबीयत बहुत बिगड़ चुकी थी। लौटते ही इस कदर जुट गई काम में कि स्वास्थ
को सुधरने का मौका ही नहीं मिला। सिर्फ विद्यालय और घर पर रह कर सेवा का काम ही तो
नहीं, ब्राह्मोसमाज का भी काम था और उस काम में खुद को अगुआ रखना था ताकि दूसरी
औरतों को भी आगे आने का संदेश मिल सके। देखा जाय तो यह अंतिम काम ही उनके शरीर और
मन को थोड़ा चंगा होने का मौका दे देता था। पहाड़, जंगल, नदी के किनारे घूम आने का
सकारात्मक प्रभाव तो सभी के शरीर और मन पर पड़ता है।
लेकिन कामों का
जबर्दस्त दबाव, कुछ अभाव और कुछ तपस्विनी_स्वभाव के कारण बढ़ता कुपोषण, कभी व्यक्त
न करने पर भी बड़ी बेटी के लिये मन की व्यथा (छोटी बेटी का विवाह सन 1894 में हुआ
था), दाम्पत्य की स्वाभाविकता के विरुद्ध जीवनयापन के दौरान भले ही क्षणिक लेकिन
अंतर्द्वंद्व की ज्वाला … सब कुछ के प्रभाव में इस महान औरत के जीवन का अंत करीब आ
रहा था।
विद्यालय शुरू
होने के सात महीने के अंदर उनकी डायरी में दर्ज हुआ है सांसारिक प्रतिकूलता के
विरुद्ध संघर्ष चलाये जाने के दबाव को ले कर चिंताएं। “9 दिसंबर 1892 (पटना, नवाब
का बंगला)। प्रार्थना – गंगा पर नावें दो तरीके से चलती है। एक, हवा जब अनुकूल हो;
माझी लोग बैठे हैं, नाव खुद ही चल रही है, तेज। दूसरा, नाव हवा के प्रतिकूल चल रही
है, पाल खोल कर, पूरा जोर लगा कर माझी लोग पाल की रस्सी पकड़ कर सावधानी के साथ
बैठे हैं; नाव जा रही है तेज, लेकिन डर है, रस्सी टूटने पर नाव डूब जायेगी। मेरी
भी हालत वही है। भिक्षा करती हूँ मां, जल्द से जल्द मेरे जीवन-नाव को अनुकूल हवा
में ले चलो!”
विद्यालय शुरू
होने के बाद अघोरकामिनी की अथक कोशिशों से बहुत कुछ बदल गया। ‘अघोर-प्रकाश’ के
लेखक पत्नी के 31 मार्च 1896 की दैनिकी से उद्धृत कर रहे हैं, ”आज स्कूल-कमिटी में
चर्चा हुई, सरकार को कहा जायेगा इस विद्यालय को अपने हाथों में लेने के लिये। आज
गाड़ी के खर्चे के लिये सरकार ने 168 रुपयों का विशेष अनुदान दिया। जब मैं विद्यालय
शुरू की थी उस समय सूची में पांच लड़की थी। सिर्फ प्रार्थना का भरोसा था। आज उस
प्रार्थना के फलस्वरूप विद्यालय में लगभग 40 लड़कियां हैं। अपरिचित बाबूलोग आ कर
कार्यभार सम्हाले हैं। हमें छुट्टी देना चाहते हैं; पैसे काफी हैं; अभी विद्यालय
धनी है।”
सन 1896 के 5
जनवरी को छोटी बेटी सरोजिनी के शिशुपुत्र की, कुछ दिनों
की बीमारी के उपरांत मृत्यु हो गई। अस्वस्थ बच्चे की सेवा में उसकी मां से अधिक नानी
ही लगी रहती थी। उसे साथ ले कर सुबह की प्रार्थना में जाती थी। शिशु के चेहरे पर सूरज
की रोशनी पड़ने पर जैसे वह ईश्वर का चेहरा प्रत्यक्ष करती थी। अघोरकामिनी को इस मृत्यु
से बड़ा आघात लगा।
पति प्रकाशचंद्र भी व्यथित हुये थे। मन के
कष्ट के कारण कुछ दिनों तक दोनों में विभिन्न बातों को ले कर अनबन हो जाया करता था।
मन के कष्ट को दूर करने में पति-पत्नी के संबंध की एक अंतरंग अभिव्यक्ति है दैहिक घनिष्टता,
आलिंगन, एक दूसरे के कंधे पर सर रखना …। उससे अलग जा कर, कमजोरी समझ कर, आत्मिक, सात्विक
या पारलौकिक घनिष्ठता की खोज संभव है कि नहीं हम नहीं जानते हैं। लेकिन उनकी युगल जीवनकथा
‘अघोर-प्रकाश’ पढ़ कर प्रतीत होता है कि इसका और ज्यादा बुरा प्रभाव पड़ने लगा अघोरकामिनी
के शरीर और मन पर।
प्रकाशचंद्र खुद ही स्वीकार करते हैं –
”अगर तुम्हे लगता था कि तुम्हे मिलनेवाला समय
या ध्यान मैं किसी और को दे रहा हूँ, तुम्हारे मन को बहुत कष्ट होता था। ……
”देह का संबंध त्यागने का संघर्ष भी तुम्हारे
लिये अत्यंत कठिन हो रहा था। मेरी इच्छा होती थी कि मेरे देह के प्रति तुम में बिल्कुल
खिंचाव न रहे; इसलिये मैंने प्रस्ताव दिया कि हमलोग एक दूसरे का देह बिल्कुल ही स्पर्श
नहीं करेंगे। तुम्हे इससे तकलीफ हुई थी। जब भी तुम्हे एहसास होता था कि मेरे देह के
लिये तुम में जितना खिंचाव है, तुम्हारे देह के लिये मुझमें उतना नहीं है, तुम्हारे
मन में अतिशय कष्ट होता था।
”ये सारे संघर्ष मन के भीतर ही रहते थे, इनके
कारण बाहर के किसी काम में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होता था। लेकिन इन सबों के कारण तुम्हारा
टूटा हुआ शरीर और टूटने लगा।”
एक दिन पति के मुख से (शायद उस दैहिक उदासीनता
लाने के लिये कहे गये) रूखे शब्दों को सुन कर अघोरकामिनी अपनी डायरी में लिखीं, ”आज
जो बात मैं पति के मुख से सुनी, यह भाव कई महीनों से मैं थोड़ा समझ रही थी। जो भी हो,
आज मेरी कितनी भयानक परीक्षा है! लगभग तीस साल हम एक साथ रह रहे हैं। जिनके साथ चलूंगी
सोच कर माँ, बाप, भाई, बहन, देश, आहार, पहनावा, धरती की हर एक बातों से खुद को वंचित
रखी, आज उन्ही के मुख से मेरी इस अवनति की बात सुन कर लगता है उस वक्त मैं थोड़ी होश
खो बैठी थी। और कोई उपाय तो नहीं है। सारी दुख की बातें जिनके निकट बोल कर शांति प्राप्त
करती थी, उन्ही के मुंह से जब यह बात सुनने को मिला, तब वही एक अगति की गति के निकट
जा कर एक घंटा रोती हुई प्रार्थना करती रही। समझी कि उन्होने नहीं, माँ ने ही मुझे
फटकार लगाई।”
वैसे अघोरकामिनी के लखनऊ से लौटने के उपरांत,
पति के सरकारी काम से बाहर जाने पर, दोनों के बीच चिट्ठियों का आदान प्रदान पुन: शुरू
हो गया था।
अत: कुछ दिनों के बाद – प्रकाशचंद्र उस समय मनेर गये हुए थे
– उनका पत्र पाने पर अघोरकामिनी ने जबाब दिया, ”ब्रह्मपुत्र, आशीर्वचन से भरा तुम्हारा पत्र पा कर लगा कि मैं धन्य हो गई।
क्योंकि मैं उपयुक्त नहीं हूँ। तुम्हारा आशीर्वाद पूरा हो, माँ मुझे मिलें, माँ
जल्द यूं करें कि मैं तुम्हारी आत्मा को खरीद सकूँ। क्योंकि मेरा और कोई काम नहीं
हो पाएगा अगर मैं तुम्हारी आत्मा को नहीं खरीद सकूँ। मेरे लिये हमेशा प्रार्थना
करना। आशा करती हूँ कि तुम माँ की गोद में भलेचंगे हो। तुम्हारा मन अच्छा है जान
कर सुख मिला। दुख होता है, मैं कई बार तुम्हारे इस सुख की बाधा बनती हूँ, अपने
स्वार्थ की खातिर। माँ आशीर्वाद करें, मेरी यह बीमारी न रहे। कैसे घर में ब्रह्म
को रखूँ, तुम बाहर से आ कर घर पर ब्रह्मदर्शन कर शांति प्राप्त कर सको, इस विषय पर
कुछ कहना। मेरा शरीर मन ठीक है, और सब ठीक है। अभी मैं जीवब्रह्म से घिरी हुई
तुम्हे दो पंक्तियाँ लिखी। मेरे चार तरफ चार बेंच हैं। उन पर मेरी माँ के दुलारे
25 जीवन-धन, बीच में मैं। जो करती हूँ हर दिन वह सत्य हो, ब्रह्म में नियोजित हो।”
स्पष्ट दिखता है कि बहुत तरह की दुख-तकलीफ
व आत्मिक अंतर्विरोधों के बीच उनकी एकमात्र शांति की जगह थी विद्यालय, और सर्वोच्च
व्याकुलता थी, ‘जो करती हूँ हर दिन वह सत्य हो’!
धीरे धीरे तबीयत और खराब होती जा रही थी। प्रकाशचंद्र
भी समझ रहे थे लेकिन सरकारी कामों की जिम्मेवारी और साथ में, अपने आध्यात्मिक संकल्प
पर अडिग रहने का प्रयास। कष्ट को छुपाते परिहास के लहजे में अघोरकामिनी
ने डायरी में लिखा था कि माँ उनसे बहुत प्यार करती हैं इसीलिए उन्हे अस्वस्थ की
हैं। पति दूर गंगा के तट पर सुख से हैं; उन्हे स्मरण कर उस सुख का हिस्सा लेटी हुई
पत्नी भी ले सकें इसलिये उन्हे भी लेटा दी हैं। एक दिन उन्होने लिखा, “… दस साल कि
उम्र में जो व्रत माँ जननी ने अंजाने में ही मुझे दिया था, चाहती हूँ कि उस व्रत
का पारण हो। पिकु, तुम अवश्य ही जानते हो कि मुझमें और किसी बात की उम्मीद नहीं
है। एक मनुष्य खुद को खो कर कैसे दूसरे के साथ माँ के नाम मे मिल जा सके, यही मेरा
कार्य है। माँ कब वह दिन देंगी! उसी के लिये मेरा इतना कुछ ढोना। जब उद्देश्य भूल
जाती हूँ, शरीर और मन क्लांत हो जाता है। लगता है अब और नहीं चल पायेगा। फिर, जो सदैव
आशा देते हैं, उनके द्वारा चालित हो कर मुझे बल मिलता है। खैर, तुम जो इतने सुख
में दिन बिता रहे हो, सुन कर बड़ा ही सुख मिल रहा है। तुम्हारा सुख, मेरा सुख। माँ शायद
नहीं चाहती हैं कि हमे दैहिक सुख मिले, तुम्हारे साथ मेरा दैहिक संबंध रहे, इसीलिये
इस तरह की घटनाएं घटित कर रही हैं। एक घंटे की दूरी पर रह कर भी तुम मेरे शरीर की कोई
स्थिति नहीं समझ रहे हो। मन बहुत व्यस्त हो रहा है चिन्मय योग के लिये। कुछ नहीं
होने पर मन शांत नहीं हो रहा है। कल 5 बजे से रात 9 बजे तक तुम्हे देखने के लिये
प्राण अबतब हो रहा था पता नहीं क्यों। पत्र मिलने पर बात समझ में आई कि उस समय तुम
भी मुझे स्मरण कर रहे थे। अंजाने में दो आत्मायें एक दूसरे को आकर्षित कर रही थी तभी
वैसा हो रहा था।”
अघोरकामिनी की मृत्यु के बाद जब प्रकाशचंद्र
‘अघोर-प्रकाश’ लिखना शुरू किये तभी वह भी नाती के मृत्यु के प्रभाव को बेहतर ढंग
से समझ पाये। चालिसवें अध्याय का नाम ही उन्होने दिया ‘मृत्युछाया से भरी घाटी” और
शुरू ही इस तरह से किया, “खोका जैसे तुम्हारे जीवन में परलोक की छाया डाल कर चला
गया था। साल 1896 के जो कुछेक महीने तुम देह में थी, किस तरह देह के साथ संघर्ष कर
रही थी वह इस अध्याय में बताने जा रहा हूँ। देह तुम्हे मुक्ति देने से पहले जैसे फिर
एक बार तुमसे भेंट कर गया; फिर एक बार तुम्हारी नजर के सामने घने अंधकार का सृजन
किया।”
पत्नी अघोरकामिनी के मानसिक अंतर्द्वंद्व
को ले कर पति प्रकाशचंद्र के मन में कम नहीं था कष्ट की आंधी। लेकिन दोनों के युगल
संकल्प पर अपने तरफ से वह अडिग थे। इस अध्याय में एक जगह पर एक साथ कहीं घूम आने
के प्रसन्नचित्त वर्णन के बाद वह लिखते हैं, ”इसके बाद 25 फरवरी को मैंने व्रत
लिया था कि किसी भी कारण से मैं तुम्हारा देह स्पर्श नहीं करुंगा। उसके बाद भी अगर
प्यार बना रहे तो समझुंगा कि प्यार में स्थायित्व आया है। लेकिन कुछ ही दिनों के
अन्दर समझ में आया कि तुम्हारा शरीर इतना टूट चुका है कि अब ऐसे व्रत की रक्षा कठिन
होगी। 26 फरवरी को तुम्हारे पेट में एक दर्द शुरू हुआ। उस दिन तुमने अपनी दैनिकी
में लिखा, ‘आज पेट में बहुत अधिक दर्द उठा था। पति बच्चों को बुला कर मदद करने को
बोले, मैं नहीं ली उनकी मदद। क्योंकि मैंने कहा था कि गृहस्थी के सुखदुख में एक ही
से मदद लूंगी। इसलिए अगर भगवान ने मना कर दिया तो उनके सिवा किसी की मदद नहीं लूंगी।
11 बजे तक दर्द के बाद नींद आई। मोह के भय से पति न पूछा नहीं।‘ कोई अगर मेरी
दैनिकी पाठ करे तो वह देखेंगे कि सचेत हो कर भी मैं उस रात अचेत पत्थर की तरह पड़ा था।…
”
15 जून 1896 को दोपहर 2 बज कर 12 मिनट पर
अघोरकामिनी देवी गुजर गईं। कारण के तौर पर पुस्तक में दो अंग्रेजी के शब्द लिखे
हैं, एंडोकार्डाइटिस और रिउमैटिज्म ऑफ द हार्ट। मृत्युकाल की यंत्रणा से भरे दो हफ्तों
के वर्णन में न जा कर, उनके प्रेम के जो पात्र रहे आजीवन, उस व्यक्ति के विस्मयभरे
दो-चार पंक्ति उद्धृत कर इस जीवनकथा का अंत करना बेहतर होगा।
“देवी, जीवनभर … वीर नारी की तरह माँ का आह्वान
सुन कर चलती रहीं। इस संग्राम में तुम कितना क्षत-विक्षत हुई, किस तरह शरीर का
रक्त सुखा कर, सुख व आराम का बलिदान दे कर, विश्वास का, सेवा का और चिन्मय योग का
पताका उठाई रही … !”
अवश्य ही वह भारतीय नारी के संघर्ष की अमर
कहानी है। अपनी डायरी में एक घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देती हुई अघोरकामिनी स्पष्ट
लिखी, “मेरा जीवन नारी को अपनी जगह पर स्थान देने के लिये जीवन का दांव है।”
अघोरकामिनी देवी वास्तव में एक ऐसा
विस्मय-व्यक्तित्व थीं जिन पर आज तक बहुत कम चर्चा हुआ है।
16th to 24th October 2024
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