Saturday, March 19, 2022

पुस्तक समीक्षा : “बिहार में भूमि संघर्ष” – हसन इमाम

सोवियत समाजवादी क्रांति के अगले ही दिन नई सरकार ने तीन आज्ञप्तियाँ जारी की। इतिहास में प्रसिद्ध, लेनिन रचित उन तीन आज्ञप्तियाँ रोटी, जमीन और शांति पर थी। जमीन पर जारी की गई आज्ञप्ति को तीन महीने के बाद “भूमि सामाजिकरण के मौलिक कानून” के तौर पर जारी किया गया। उक्त कानून शुरु होते हैं निम्नलिखित विधानों से –

1 - रूसी संघीकृत सोवियत प्रजातंत्र की सीमाओं के अन्दर, जमीन, खनिज, पानी, जंगल एवं प्राकृतिक सम्पदाओं पर सभी निजी स्वामित्व हमेशा के लिये खत्म किये जाते हैं।

2 – अब से सारी जमीन बिना किसी (खुली या गुप्त) क्षतिपूर्ति के मेहनती जनता के हाथों उनके इस्तेमाल के लिये सौंपे जाते हैं।

3 – इस आज्ञप्ति द्वारा चिह्नित अपवादों सहित, जमीन के इस्तेमाल का हक उसे होगा जो उस पर अपने श्रम का उपयोग कर खेती करेगा।

4 – जमीन के इस्तेमाल के हक लिंग, धर्म, राष्ट्रीयता या नागरिकता के आधार पर सीमित नहीं किये जा सकेंगे।

आगे इन निर्देशिकाओं को अमली जामा पहनाने के लिये, जहाँ जिस रूप में जरूरी हो, ग्रामीण, स्थानीय या उच्चस्तरीय सोवियतों (सरल अर्थ में – सीधे तौर पर जनता द्वारा चुने गये क्रांतिकारी श्रमजीवी पंचायतों) के हस्तक्षेप की रूपरेखा बताने के लिये विशद कानूनी धारायें दी गई थी।

 

फिर, आगे इन्ही अधिकारों को सुरक्षित रखते हुये सन 1922 में सोवियत संघ की पहली ‘भूमि संहिता’ (कोड ऑन लैंड) बनाई गई।

आज, ठीक सौ वर्षों के बाद, दो-दो विश्वयुद्ध, सैंकड़ों स्थानीय युद्ध, साम्राज्यवादी दमनात्मक सैन्य-हस्तक्षेप के बाद, बीसवीं सदी की क्रांतियों एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्षों के बाद, सोवियत संघ के बिखराव के बाद, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के मूलभूत शोषक, अराजक, वर्चस्व व विस्तारवादी तथा उत्पीड़क चरित्र को छुपाने की, शोषक वर्गों को बचाने की कोशिशों के सतरंगी दौरों के बाद भी एक भूमिहीन किसान की माली हालत में बदलाव उपरोक्त चार विन्दुओं से अलग हट कर क्या सम्भव है?   

नहीं है।

नवाबों के जमाने के इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी रजवाड़े हों, अंग्रेजों के बन्दोबस्त में राजस्व वसूलने वाले जमीन्दार हों, कांग्रेसी भूमिसुधार व भूदान जमाने के गुमनाम तिजोरियों के चाभीधारक मालिक व महाजन (कभी विधायक के बड़ेपापा, कभी हाकिम के छोटेचाचा) हों, कभी फिर उन्ही का बेटा, भतीजा बन कर इक्कीसवीं सदी के कॉर्पोरेट चकाचौंध में सीलिंग कानून में सुधार के पक्षधर बननेवाले हों, (ताकि औद्योगिक उद्यमी व स्टार्ट-अप बनते हुये और भी सस्ती जमीनें सरकारी मदद से हड़पी जा सके) … जमीन और जोतनेवाले की दूरी बढ़ाने में हमेशा सफल रही है भारत की शासकीय व्यवस्था।

तभी, जिस डी॰ बंदोपाध्याय आयोग के रिपोर्ट को नीतीश सरकार ने जनसमक्ष आने नहीं दिया उसका यह आकलन था कि “आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 1990 के दशक के दौरान भूमिहीनता का आंकड़ा रखा. इन आंकड़ों के अनुसार इस दौरान राज्य में भूमिहीनता की दर चिंताजनक हद तक बढ़ी है.

आयोग के अनुसार 67 प्रतिशत ग्रामीण गरीब 1993-1994 में भूमिहीन या करीब-करीब भूमिहीन थे यह आंकड़ा 1999-2000 तक 75 प्रतिशत हो गया

इस दौरान भूमि संपन्न समूहों में गरीबी घटी जबकि भूमिहीन समूहों की गरीबी 51 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई

[देखें https://www.bbc.com/hindi/india/2015/03/150302_bihar_land_reforms_part1_rd ]

 

इसी परिप्रेक्ष में, हाल में प्रकाशित हसन इमाम द्वारा लिखित पुस्तक “बिहार में भूमि संघर्ष” एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बनती है। हालाँकि विषय की गंभीरता को देखते हुये पुस्तक संक्षिप्त है। लेकिन इसके दो अपरिहार्य कारण थे –

1 – इस तरह की ऐतिहासिक रूपरेखा, बिना निचले – जिला या और भी नीचे के - स्तर पर इकट्ठे किये गये स्रोत-सामग्रियों के सम्भव ही नहीं है। वह भी संघर्ष करनेवाली ताकतों के द्वारा इकट्ठे किये गये। वैसी सामग्रियों का यहाँ नितान्त अभाव है। सरकारी अभिलेख, अगर बेहतर हों भी, तब भी सिर्फ सरकारी मुलाजिमों से टकराव या बातचीत के क्षणों के तथ्य मिलेंगे – नोट्स, लिखित स्मारपत्र, थाने में दर्ज शिकायतें …।

2 – यह पुस्तक पहली कोशिश है। यह सम्मान तो इसे प्राप्त होना ही चाहिये। शायद इससे प्रेरित होकर विभिन्न जिलों से सम्बन्धित, स्थानीय संघर्षों में रुचि रखनेवाले लेखक जिलावार संघर्षों का इतिहास प्रकाशित करें!

 

प्राक्कथन, प्रस्तावना आदि के बाद प्रस्तुत पुस्तक को लेखक ने छे अध्यायों में सजाया है – (2) बिहार में भूदान आन्दोलन और भूमि समस्या का प्रश्न; (3) बिहार में भूमि संघर्ष : प्रारंभिक चरण एवं दक्षिण बिहार; (4) बिहार में भूमि संघर्ष : उत्तर बिहार; (5) बिहार में भूमि संघर्ष : सामाजिक और राजनीतिक स्वरूप; (6) भूमि संघर्ष : जनता की राजनीतिक चेतना और नेतृत्वकारी वर्ग; (7) भूमि संघर्ष : अतीत से वर्तमान तक। उसके बाद एक उपसंहार भी है।

सबसे बड़े दो अध्याय हैं तीसरा (68 पृष्ठ) और चौथा (113 पृष्ठ)। पुस्तक का मुख्य कथा-प्रसंग भी इन्ही दो अध्यायों में है।

तीसरे अध्याय में प्रारंभिक चरण की शुरुआत लेखक, स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचित ‘मेरा जीवन-संघर्ष’ में किये गये लड़ाइयों के जिक्र से करते हैं। “सन 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ किसानों ने लड़ीं, … उनमें बड़हिया, देकुलीधाम, अमवारी, राघोपुर मुंगेर, रेवड़ा और मझियावाँ (गया) बकाश्त संघर्ष (सत्याग्रह) ऐतिहासिक है।” उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से संघर्षों के व्योरों को कालानुक्रम में आगे बढ़ाते हुये लेखक, पूर्णिया के जननेता अजीत सरकार की शहादत दिवस पर, 14 जून 2010 को मुख्यमंत्री के समक्ष हुये आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन तक पहुँचते हैं। वह निष्कर्ष करते हैं कि, “कुल मिलाकर आजादी के बाद बिहार में सरकार और प्रशासन तंत्र ने जब भूमि समस्या को हल करने की अपनी संवैधानिक जवाबदेही के निर्वहन से कन्नी कटाते हुये भूस्वामियों के हितों की सुरक्षा के प्रति ही अधिक वफादार बनी रही, तब वामपंथी पार्टियों के नेतृत्व में बिहार के गरीब किसान, भूमिहीन मजदूर एवं गृहविहीन जनता ने सामूहिक एकता के बल पर उस अधिकार को हासिल करने के लिये संघर्ष का रास्ता अपनाया। उन जन संघर्षों के भौगोलिक विस्तार को देखते हुये इसे दक्षिण और उत्तर बिहार में विभक्त कर यहाँ दक्षिण बिहार (गंगा नदी के दक्षिण) के जिलों में हुये भूमि संघर्षों का विवरण दिया जा रहा है।”

दक्षिण बिहार पर केन्द्रित इस बहुत ही रोचक भाग में लेखक एक एक कर नालन्दा, नवादा, गया, भोजपुर, जहानाबाद-अरवल, पटना एवं भागलपुर जिलों में संघर्षों के मार्मिक प्रसंगों से गुजरते हैं। नालंदा के प्रसंग का अंत लेखक सीपीआई(एम) के स्थानीय नेता व गीतकार जनार्दन प्रसाद के गीत से करते हैं जिसके बोल भूमि संघर्ष की आत्मा को सहेजते हैं:

जंगला के काटी काटी खेतबा हम बनैलियौ रे जान

जान छीने ला चाहे जोतलो जमीनमा रे जान …

जेठ के धूपहरिया जलै धरती असमनमा रे जान

जान तयौ आबै तोड़ै हमर झोपड़िया रे जान …

बरसे सावन-भादो पछिया लोटै हरिहर धनवां रे जान

जान आड़ी से आड़ी घूमें मजुर किसनमां रे जान।

 

अगले अध्याय में उत्तर बिहार के जिलों के कहानियों की शुरुआत लेखक किशनगंज से करते हैं। फिर पूर्णिया, कटिहार, सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, खगड़िया, बेगुसराय, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और पश्चिम चम्पारण के प्रसंग हैं। बेगुसराय वाले हिस्से में लेखक एक निजी वाकया याद करते हैं क्योंकि उनके पिता खुद भूमि संघर्षे के नेतृत्व में थे –

“रोज-रोज संघर्ष के विस्तार और कामयाबी के किस्से अपने गाँव परोड़ा के कॉ॰ प्रभु सहनी के माध्यम से सुनने को मिलते थे। उसी किस्से में एक था – पिताजी का शहीद हो जाने की खबर। गाँव में सन्नाटा पसर गया था, मातम जैसा माहौल था। अम्मा रो-रोकर बेहाल हो गई थी, हाथ की चुड़ियाँ फोड़ ली थीं। लेकिन वह बार बार कह रही थी – मुझे यकीन नहीं हो रहा है, गरीबों के हक के लिये लड़नेवाले उनको कुछ नहीं हुआ होगा, खुदा इतना बेरहम नहीं हैं। मुझसे बड़े भाई शाह जफर इमाम जो वर्तमान में माध्यमिक शिक्षक संघ बिहार के राज्य नेतृत्व में हैं, मुझे गाँव के एक बगीचे में ले गये और बोले – अब्बा गरीबों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। पता नहीं मार दिये गये या जिन्दा हैं। हमलोग भी बड़ा होकर उसी लाल झंडा वाली पार्टी में जायेंगे और अब्बा के संघर्षों को आगे बढ़ायेंगे। मैंने हाँ में सर हिलाया। दोनों भाई एक-दूसरे से लिपट कर खूब रोये। तब मेरी उम्र 12 साल और भैया की उम्र 15 साल थी। …”

 

पुस्तक का पांचवां और छठा अध्याय, ‘बिहार में भूमि संघर्ष : सामाजिक और राजनीतिक स्वरूप’ तथा ‘भूमि संघर्ष : जनता की राजनीतिक चेतना और नेतृत्वकारी वर्ग’ भी बिहार जैसे राज्य के सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण है। शोषण की प्रकृति तथा शोषक और शोषितों की परिचायक विशिष्टता में वर्ग एवं जाति के संगम की मार्क्सवादी अवधारणा की सत्यता पांचवां अध्याय में दिये गये तथ्य, आँकड़े एवं खुद लेखक द्वारा किये गये सर्वेक्षण के परिणाम से जाहिर होता है। यह भी फिर एक बार स्पष्ट होता है कि जब संघर्ष के लिये एकता कायम होती है तो साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के कोई दाँव काम नहीं करते।

छठे अध्याय में भी एक महत्वपूर्ण सवाल पर चर्चा की गई है। न्याय के लिये संघर्ष तथा ज्ञान के बीच का सकारात्मक रिश्ता, या मार्क्सवादी शब्दावली में संघर्ष और चेतना का अन्तर्सम्बन्ध। संक्षिप्त लेकिन सटीक ढंग से लेखक ने इस रिश्ते को उजागर किया है।

 

सन 2016 में अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष तथा हाल में हुये किसान संघर्षों का नेतृत्वकारी संयुक्त किसान मोर्चा के महत्वपूर्ण नेता हन्नान मोल्ला ने बिहार में खेती किसानी की स्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाला था। आलेख का अन्त करते हुये उन्होने कहा, “राज्य में तमाम वाम, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष ताकतों का भारी कत्र्तव्य है कि वे आगे आएँ और समुचित वैज्ञानिक भूमि सुधार के लिए संघर्ष करों यह लाखों भूमिहीनों और गरीब किसानों को जमीन दिलाएगा, ग्रामीण शोषकों के अन्र्तसम्बन्ध को तोड़ेगा, पुराने और बर्बर जाति व्यवस्था को कमजोर करेगा, कृषि में लोगों की एकता को मजबूत बनायेगा, लाखों लोगों की आय बढ़ायेगा और उनकी खरीदने की ताकत बढ़ेगा जो बाजार का विस्तार करेगा और कृषि में पैदावार बढ़ायेगा और इस प्रकार औद्योगिक विकास का आधार बनेगा। यह आम लोगों में असली जनशिक्षा का प्रसार करेगा और उनकी राजनैतिक और सामाजिक चेतना को उँचा उठायेगा जिससे के एक नये बिहार के निर्माण की ओर आगे बढ़ेंगे।”

जब तक इस यथार्थ पर पर्दा डाला जाता रहेगा, तमाम कॉर्पोरेटी और टुटपूंजिया विकास बस हाशिये को चौड़ा करता जायेगा ताकि मेहनतकश आबादी के अधिक से अधिक हिस्से उसमें समाते जायें और सर्वशक्तिमान विकासेश्वर के आने पर मीलों कनात खींच कर उस हाशिये को ढक दिया जाय। हाँ, नगर निगम, स्थानीय निकाय आदि जरूर ध्यान रखेंगे कि उन कनातों को मधुबनी पेंटिंग आदि से खूबसूरत बना दिया जाय।

 

पुस्तक के लेखक हसन इमाम को हार्दिक अभिनन्दन!   

 19.3.21  

 


 

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