Monday, January 24, 2022

मजदूरी को उत्पादकता से सम्बन्धित करने की मांग बनाम काम के अधिकार की मांग

[साल 1987, सेंट्रल बैंक आफ इंडिया इम्प्लाइज यूनियन (बिहार) का चौथा सम्मेलन, मुज़फ़्फ़रपुर। उसी की स्मारिका में मेरा यह लेख (गुमनाम) छपा था। अचानक पुराने कागजों के एक बस्ते में मिल गया। थैंक्स, Anish Ankur , टेक्स्ट कन्वर्शन हो भी गया।]

उपरोक्त दोनों ही मांगे आज देश के पैमाने पर उठायी जा रही हैं। एक को उठा रही है, खुद केन्द्रीय सरकार, उसके अफसरशाही तबके और उनके पृष्ठपोषक देश के इजारेदार घराने और बड़े पूंजीपति। दूसरी मांग देश के ट्रेड यूनियनों तथा उनका सर्वोच्च संयुक्त मंच-- राष्ट्रीय उमियान समिति द्वारा उठायी जा रही है।

थोड़ा गौर करने पर दोनों माँगों के बीच एक अन्तर्संम्बन्ध दिखाई पड़ेगा ।

अगर काम के अधिकार की मांग का आधार ढूढ़ा जाय तो हमें बेरोजगारी का एक ऐसा आलम दिखाई पड़ेगा जो सिर्फ पौने तीन करोड़ शहरी रजिस्टरशुदा बेरोजगार या चार करोड़ ग्रामीण बेरोजगार (जिनका किसी भी रजिस्टर पर नाम नहीं है) तक सीमित नहीं है, बल्कि उन कई करोड़ों तक व्याप्त हैं जिनका रोजगार साल के कुछ महीनों, महीने के कुछ दिनों या दिन के कुछ ही घन्टों तक का है। यानि पूरे देश में दस करोड़ से भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनकी उत्पादकता को 'उत्पादकता' की शक्ल देने की क्षमता इस पुंजीवादी व्यवस्था के पासे नहीं है। जो 'उत्पादक' होने की मांग उठाते हैं तो यह सरकार जवाब में एक ही चीज का 'उत्पादन' करती हैं तानाशाही के कानूनी हथियार और वहशी दमन।

और वही सरकार मजदूरी को उत्पादकता से सम्बन्धित करने की मांग करती है। मिट्टी सोना बनती है तो मेहनत से पत्थर लोहा बनता है तो मेहनत से, लोहा मशीन बनता है तो मेहनत से, मशीन चीजों की शक्ल बदलती है--'नाचीज' को चीज बनाती है तो मेहनत से, सिर्फ मेहनत से और उत्पादकता जीवन के लिये जरूरी चीजों की शक्ल में तब्दील मेहनत के सिवा कुछ भी नहीं है। क्या इस सरकार की हिम्मत है कि वह उत्पादकता के साथ मजदूरी को जोड़े ? पूरे राष्ट्रीय उत्पादन की मिल्कीयत उत्पादक वर्ग', मेहनतकश वर्ग के हाथ सौंप दे ? इजारेदारों की सम्पत्ति, जो मजदूरों के खून पसीना से बनी है उसे मजदूरों को दे दे ? हजारों एकड़ जमीनें जो मेहनत से आवाद हुई हैं उसे जमीनदारों से छीन लें और खेतिहर मजदूर और छोटे किसानों को दे दे ? 

कतई नहीं। इस सरकार की जान पर बन आयगी, इजारेदारों की सम्पत्ति पर हाथ तक लगाने में क्योंकि वे ही उनके विधाता है ।

मजदूरी को उत्पादकता से जोड़ने का सवाल सिर्फ एक ढकोसला है । ढकोसला से भी ज्यादा एक नपीतुली साजिश हैं। एक नकाब है अपने इरादों को छुपाने के लिये ।

विश्व पूजीवादी व्यवस्था का एक अंग होने के फलस्वरूप भारत की अर्थ व्यवस्था एक सर्वव्यापी संकट के गिरफ्त में है। माल जो तैयार हो रहे हैं, कोई बाजार नहीं है उनके लिये । आधुनिकीकरण और व्यापक मशीनी करण के द्वारा विदेशी बाजार की प्रतिस्पर्धा में खड़ा होने के चाहे कितने मनसूबे यह केन्द्रीय सरकार बांधले, सिवायें बेंजरोवारी का आलम और बढ़ाने का तथा संकट को और घनीभूत करने का और कुछ भी उससे हासिल नहीं होगा। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण के तौर पर मौजूद है, बलेस ऑफ पेमेन्ट्स के आंकड़े जो यही बताते हैं कि पिछले दिनों आयात-निर्यात का भार साम्य इस कदर गड़बड़ाया है कि बहुत जल्द ही देश फिर एक मुद्रा अवमूल्यन की स्थिति में खड़ा होगा। जो दूसरा रास्ता है, जिसे हम सही और जनवादी रास्ता मागते हैं, एकमात्र रास्ता मानते हैं इस संकट से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिये, वह रास्ता यह सरकार अपनाने से रही। व्यापक भूमि सुधार के द्वारा, देश के सत्तर प्रतिशत लोगों के हाथों में क्रय शक्ति पैदा कर एक आन्तरिक बाजार की सृष्टि .... यह कार्यक्रम जमींदारों के स्वार्थों का प्रतिकल है और केन्द्रीय सरकार जमीदारों को नाराज करने की नीति अपनाने में खतरा महसूस करती है।

अतः संकट बढ़ता ही जा रहा है यह एक कठोर सत्य है। इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है । पूंजीपति या साधारणतया मूनाफे के आधार पर चलने वाली किसी भी अर्थनीतिक शक्ति के लिये मांग' को आंकने का एकमात्र तरीका है मुद्रा में अभिव्यक्त क्रयशक्ति। जरूरतमन्द, पर 'खरीदने' में अक्षम लोगों के लिये पूंजीवाद में कोई जगह नहीं है। इसका ही एक प्रतिफलन है खाद्य निगम के गोदामों में लाखों टन अनाज का सड़ते जाना, फिर भी 'काम के बदले खाद्य' (Food for work) को लागू करने में सरकार की आनाकानी। गाँव का गरीब 'मेहनत' से खाना 'खरीदें' यह सरकार को मंजूर नहीं। उसे पैसा चाहिये। वैसे भी पूंजीवादी 'मांग' शब्द की अमानवीय परिभाषा हर उस आदमी के लिये साफ है जो सड़कों पर आंख खोल के चलता है। अतः पूँजीवाद के लिए एक ही रास्ता है। मांग' अगर घट रहा है, या स्थितिशील भी हैं, तो उत्पादन घटाओ । न सिर्फ 'मांग' के मुताबिक उत्पादन करो, बल्कि उससे भी काफी कम करो ताकि एक अप्राकृतिक अकाल (Artificial Crisis) पैदा कर चीजों की कीमत बढ़ाई जा सके और पुरजोर मुनाफा कमाया जा सके । इजारेदार पूंजी के लिये यह बात और भी आसान है। इजारेदारी बनती ही है इसीलिये कि पूरा बाजार उसके इजारे में हो । उत्पादन के सारे स्रोत, सारे साधन तथा उपभोक्ता का 'भाग्य' उसकी गिरफ्त में हो।

स्वाभाविक तौर पर पूँजीवाद घटते उत्पादन की स्थिति में मजदूरों को वह मजदूरी देना नहीं चाहेगा जो बढ़ते उत्पादन की स्थिति में उसे देना पड़ता था। श्रमिक संगठनें इस देश में इतनी मजबूत तो हो ही चुकी है खासकर संगठित क्षेत्र में कि प्रत्यक्ष रूप से मजदूरी को घटाना महंगा पड़ेगा। अतः यह नया नारा - मज़दूरी को उत्पादकता के साथ जोड़ो।' इसका सीधा मतलब है, आज की स्थिति में, 'मजदूरी को घटाओ'।

आज क्या स्थिति है ? हर एक उद्योग में स्थापित क्षमता' (Installed capacity) का 30% प्रतिशत से 60% प्रतिशत तक का उत्पादन हो रहा है। सरकार कहती है इसका कारण है वहाँ के मजदूरों का काम नहीं करना। क्या यह सच है ? क्या मजदूरों के काम नहीं करने के चलते उत्पादन कम हो रहा है? या ठीक उल्टा, उत्पादन पर लगी पूंजीवादी आर्थनीतिक बंदिशे मजदूरों के कार्य क्षमता को घटा रही है -  प्रत्यक्ष रूप से यानि काम नहीं लेकर और परोक्ष रूप से यानि कम करने का उत्साह और मनोवल तोड़कर ?

आईये एक उद्धरण पर निगाह डालें!

"वे कौन सी बन्दिशें हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं और हमारे आर्थिक जीवन में वे क्या महत्व रखती है ? कृषि में यह बन्दिश है कि जमीन के मालिक ज्यादेतर खुद खेतिहर नहीं है और इसलिये कृषि उत्पादन में उनकी कोई रुचि नहीं है, वे महज इससे मतलब रखते हैं कि वास्तविक खेतिहरों से वे कितना निचोड़ सकते हैं, जबकि ये (वास्तविक खेतिहर) इस तरह निचुड़े जाने के कारण आशाहत होने को बाध्य होते हैं और स्वाभाविक तौर पर उनसे (उत्पादन को बढ़ाने में ) वैसी रुचि की अपेक्षा नहीं की जा सकती है जैसी, वे तब दिखाते जब निचुड़े जाने की प्रक्रिया नहीं होती और जमीन उनकी अपनी होती। औद्योगिक क्षेत्र में यह बंदिश है कि इजारेदार पूंजीपति औद्योगिक उत्पादन को सिर्फ ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की दृष्टिकोण से देखते हैं, जनता का सर्वात्मक लाभ की दृष्टिकोण से बिल्कुल नहीं और इसलिये, उनकी रुचि व्यक्तिगत फायदों में ज्यादा है बजाय औद्योगीकरण के। जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाने की स्थिति में, कठोर शोषण की स्थिति में और उत्पादन के साधनों पर अधिकार से वंचित मजदूर भी उत्पादन के लिये उत्साह खो देते हैं।" (नरेश दास- "व्यापक बेरोजगारी, फिर भी बैंकों में कम्प्युटर, इन्डियन बैंक इम्पलाईज यूनियन, प० बंगाल का मुख पत्र "हथियार, एप्रिल-जून १९८५)

कितनी सुन्दर सच्चाई के साथ लेखक ने उस सामाजिक ट्रैजडी को रखा है जिसका नाम है पतनशील पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ! जिस ट्रैजेडी का शिकार बन रही है एक पूरी कौम की शक्ति, सृजन शक्तिः, - हाथों में बहार को पैदा करने की ताकत होते हुये भी वे हाथ जाड़े में ठिठुर रहे हैं और कुछ मुट्ठीभर लोग पूंजीपति, जमीन्दार और सत्ता पर  आसीन उनके दुमछल्ले, जो इतने उत्पादकताहीन', इतने परजीवी हैं कि उत्पादकता पर उनकी 'मजदूरी' तय होने पर उनकी चमड़ी तक उड़ जायेंगी - फर्मान जारी कर रहे हैं, "मजदूरी को उत्पादकता से जोड़ना होगा" !

ऐसी ही बिडम्बनापूर्ण स्थिति में हम बुलन्द करते हैं, काम के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बनाने का नारा, जिसकी प्रतिध्वनि न सिर्फ दस करोड़ से भी ज्यादा बेरोजगारों/अर्द्ध बेरोजगारों के बल्कि इस देश के पूरे मेहनतकश अवाम के दिल से आती है। काम का अधिकार दो- जिन्दगी को अपने हाथों संवारने तो तुम दे नहीं सकते, कम से कम हाथों को जिन्दगी तो बनने दो !

'काम का अधिकार' भारतीय न्यायशास्त्रियों के लिये कोई नयी चीज नहीं है। संविधान में इस अधिकार का जिक्र है। पर उस अध्याय में जिसे 'कानूनन' आप लागू नहीं कर सकते ! कितनी मजेदार बात है यह । कानून के कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जिसे 'कानूनन आप लागू नहीं कर सकते। और ये हिस्से वे ही हिस्से हैं, जिनके होने पर शोषक वर्गों की खुली लूट और दमन पर थोड़ी सी आँच आ सकती है। मुखबन्द ( Preamble )  और राज के लिये नीति निर्देश ( Directive of state policy ) सिर्फ कानून बनाने वाली संस्था - लोकसभा, विधान सभा आदि को उपदेश देने के लिये है कि वे इस राह पर चलें। काम का अधिकार कायम हो, महिलाओं अर बच्चों पर अत्यचार कम हो, सम्पत्ति और अन्य का यह व्यवधान कि कुछ लोग करोड़पति और बाकी भुखमरे - कुछ कम हो आदि-आदि। क्या गारंटी है कि कानून बनाने वाली संस्था इस राह पर चलेगी? अगर नहीं चले तो कोई कानूनी कार्रवाई हो सकती है ? नहीं। कोई आवाज उठ सकती है ? कानूनन हो, लेकिन सरकार उसे अपने विशाल बहुमत के वहशी इस्तेमाल से कुचल सकती है क्योंकि यह भी कानूनी हैं।

तो अततः फिर वही बात रह जाती है, पूरे देश का मेहनतकश अवाम एक आवाज में गरज उठे- 'काम का अधिकार दो' ।

जहाँ सरकार उत्पादकता से जोड़ने के बहाने मजदूरी घटाने की साजिश कर रही है, मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के नाम मजदूर घटाने (यानि पुरा राष्ट्रीय मजदूरी का और ज्यादा हिस्सा हड़प जाने) की साजिश चला रही हैं लूट और दमन से अपना निकम्मापन और वर्गवफादारी ढकने की कोशिश कर रही हैं, उसका सीधा टक्कर हमें आज लेना होगा इस बुनियादी नारा के साथ कि काम के अधिकार को संवैधानिक अधिकार घोषित करो !"






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