Wednesday, January 19, 2022

झाँसी की रानी ब्रिगेड* - मेजर जेनरल शाहनवाज खान

 सिंगापुर आने के कुछ ही दिनों के बाद नेताजी की इच्छा हुई कि वह भारतीय औरतों को लेकर एक वाहिनी का गठन करेंगे जिसका नाम होगा झाँसी की रानी वाहिनी । भारत में रहते समय देश का काम करते हुये वह समझ गये थे कि भारत की स्वाधीनता के संग्राम में भारतीय औरतों की सहयोगिता निहायत जरूरी है – इसी अनुभव से नारी वाहिनी गठित करने की उनकी इच्छा उपजी थी । उनकी इच्छानुसार भारतीय स्वाधीनता-संघ की नारी शाखा के द्वारा भारतीय औरतों की एक सभा बुलाई गई । इस सभा में नेताजी ने भाषण दिया था । अनेकों भारतीय औरतें दस-बारह मील पैदल चल कर इस सभा में हिस्सा लेने को आई थीं । कितना जोरदार उत्साह था उनमें ! देश की स्वाधीनता के लिये अपना जीवन उत्सर्ग करने में मर्द जितने व्यग्र थे – वे भी उतने ही व्यग्र थे ।

नेताजी ने उस दिन उनके नाम निम्नलिखित भाषण दिया –

“ बहनों ! देश की स्वाधीनता के लिये आन्दोलन में भारतीय औरतों की क्या भूमिका रही है यह जिस तरह मैं जानता हूँ उसी तरह आप भी जानती हैं; खास कर मैं पिछले बीस वर्षों की बात कर रहा हूँ । वर्ष 1921 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को पुनर्जन्म मिलने के बाद उनकी कार्यतत्परता की खबर आप जरूर रखती होंगी । कांग्रेस की सविनय अवज्ञा आन्दोलन की ही सिर्फ बात नहीं कर रहा हूँ, गुप्त क्रांतिकारी कार्य यहाँ तक की गुप्त आन्दोलनों में भी उन्होने कुछ कम नहीं किया है । दर असल, मेरे लिये यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश के लिये कार्य का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, राष्ट्रीय प्रयास का कोई ऐसा विभाग नहीं जहाँ हमारे देश की औरतों ने खुशी से राष्ट्रीय-संग्राम का भार अपने कंधों पर मर्दों के बराबर न ढोया हो । भूख-प्यास को तुच्छ मान कर गाँव-गाँव में घूमना हो, एक के बाद एक सभाओं में भाषण देने का सवाल हो, हर एक घर के दरवाजे पर जाकर स्वाधीनता की वाणी प्रचारित करने का काम हो, प्रतिद्वन्दिता पर आधारित चुनाव को संचालित करने की बात हो, सरकारी आदेश अमान्य करते हुये अंग्रेज पुलिस की लाठियों का निर्मम चोट तुच्छ कर जुलूस की अगुआई का काम हो या निडर होकर जेल जाना, अपमान व लांछन सहने का सवाल हो – कहीं भी हमारे देश की औरतें पीछे नहीं हठीं । हमारी बहनें क्रांतिकारी कार्यों में भी काफी तत्परता दिखाई हैं । उन्होने साबित कर दिखाया है कि जरुरत पड़ने पर वे भी अपने भाईयों की तरह बन्दूक एवं रिवॉल्वर चला सकती हैं । …आज जो मैं आप पर इतना अधिक भरोसा कर रहा हूँ इसका कारण है कि मैं जानता हूँ हमारे देश की औरतें देश का कार्य करने की कितनी क्षमता रखती हैं । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसी कोई तकलीफ नहीं जो हमारे देश की औरतें सह नहीं सकती ।

“ इतिहास में हम पाते हैं कि हर एक साम्राज्य का जिस तरह उत्थान होता है उसी तरह पतन भी होता है । वह समय आ गया है जब ब्रिटिश साम्राज्य दुनिया से मिट जायेगा । धरती के इस हिस्से से वह साम्राज्य मिट चुका है यह तो हम अपनी आँखों से ही देख रहे हैं, इसी तरह धरती के एक और हिस्से से वह साम्राज्य मिट जायेगा – वह हिस्सा है भारतवर्ष…

“ किसी औरत को अगर यह लगता है कि बन्दूक कंधे पर लेकर युद्ध करना औरत का काम नहीं – मैं कहूंगा इतिहास के पन्ने खोल कर देखिये हमारे ही देश की औरतों ने अतीत में क्या किया है । भारत का पहला स्वाधीनता-संग्राम, सन 1857 के विद्रोह में भारत की वीरांगना झाँसी की रानी क्या की थीं । यह रानी हाथों में खुला तलवार लिये घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना की अगुआई की थीं । नितान्त दुर्भाग्य था हमारा कि युद्ध में उनकी हार हुई, साथ ही साथ भारत का भी पराजय हुआ । लेकिन इसके चलते निराश हो जायें तो नहीं चलेगा, रुकने से नहीं चलेगा, युद्ध जारी रखना पड़ेगा । 1857 की उस महान रानी द्वारा संकल्पित कार्य को हमें पूरा करना होगा…

“ इसलिये भारत की स्वाधीनता के इस अन्तिम – सबसे अन्तिम संग्राम में हमें सिर्फ एक नहीं हजारों झाँसी की रानी की जरुरत है । कितने राइफल आप इस्तेमाल करेंगे वह बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है कितनी गोलियाँ आप दागेंगे । एवं, बड़ी बात है आपके इस साहस के दृष्टान्त का नैतिक प्रभाव …”

भाषण के अन्त में नेताजी ने झाँसी की रानी वाहिनी और रेड क्रॉस के दस्ते में योगदान के लिये औरतों को आह्वान किया । बहुत सारी औरतों ने तभी आगे आकर अपना नाम लिखाया । इसके बाद सिंगापुर में उनके लिये शिक्षाकेन्द्र खोला गया । सिंगापुर में 600 स्वयंसेविकाओं ने इस नारी-वाहिनी में योगदान दिया, इनमें कम उम्र की युवतियों से लेकर उम्रदार महिलायें तक थीं – अधिकांश ऊँचे, संभ्रान्त घरों की औरतें । हिन्दु, मुसलमान, सिख सभी सम्प्रदाय एवं भारत के हर एक प्रांत की औरतें इस वाहिनी में थीं । औरतों के इस शिक्षाकेन्द्र में किसी भी तरह के भोगविलास का नामोनिशान नहीं था । सैनिक शिक्षा प्राप्त करने के समय उन्हे कई सारे कठिन, कष्ट-साध्य कार्य करने पड़ते थे, जैसे, मशीनगन, टॉमीगन चलाना, हथगोला फेंकना, राइफल चलाना, संगीन घोंपना आदि का प्रशिक्षण । मशक्कत वाला शारीरिक व्यायाम, परेड आदि भी उन्हे करना पड़ता था । इसके अलावे भारत के सामाजिक व आर्थिक जीवन के बारे में उन्हे व्याख्यान दिया जाता था । कैम्प में अत्यंत सामान्य भोजन ग्रहण कर उन्हे जीवनधारण करना पड़ता था । भात, मछली, सब्जी यही था उनका भोजन । रात में सोने के लिये कोई नरम बिस्तर नहीं, लकड़ी के फर्श पर बस एक कम्बल बिछाया हुआ, यही उनका बिस्तर था ।

प्रशिक्षण-शिविर के नियम-कानून अत्यंत कठोर थे । बाहर का कोई भी उनसे भेंट नहीं कर पाता था, सगे-सम्बन्धियों को सप्ताह में सिर्फ एक दिन भेंट करने की अनुमति मिलती थी । सैनिक-प्रशिक्षण ग्रहण करने में सुबह से शाम हो जाती थी । डा॰ लक्ष्मी स्वामीनाथन नाम की एक उद्यमी, जवान एवं बेजोड़ साहस वाली औरत को नेताजी ने इनका कमान्डर नियुक्त किया ।  

मात्र छे महीनो में उनकी ट्रेनिंग खत्म । इतने कम समय में भी उनकी सैनिक शिक्षा इतनी मुकम्मल हुई कि आज़ाद हिन्द फौज के पुरुष सैनिकों की शिक्षा और उनकी शिक्षा में कोई फर्क नहीं रहा । संगीन की लड़ाई में वे सबसे अधिक निपुण बनी एवं सभी, ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ संगीन चलाने के लिये हमेशा व्यग्र रहती थीं ।

सन 1944 की शुरुआत में जब आज़ाद हिन्द फौज की सेना इम्फॉल पर आक्रमण करने के लिये वर्मा [म्यांमार] की ओर बढ़ी तो झाँसी की रानी वाहिनी की औरतें अपने खून से नेताजी को एक आवेदन लिखीं कि मर्द सैनिकों की तरह वे भी देश की स्वाधीनता के लिये युद्धक्षेत्र में जा कर प्राणों की आहुति देने के लिये समान रूप से व्यग्र हैं । जितनी जल्द हो सके नेताजी उनकी यह आकांक्षा पूरी करने का उन्हे मौका दें । नेताजी ने उनका आवेदन मंजूर किया । इसके बाद झाँसी की रानी वाहिनी सिंगापुर से रंगून गई, वहाँ नई स्वयंसेविकाओं को सैनिक शिक्षा देने के लिये सन 1944 की शुरुआत में और एक ट्रेनिंग कैम्प खोला गया । इसके उपरांत स्वयंसेविकाओं की संख्या एक हजार हो गई । और कई हजार महिलायें स्वयंसेविका-वाहिनी में योगदान देने की इच्छा के साथ अपना नाम लिखाई थीं, लेकिन शिक्षा आदि की व्यवस्था में असुविधा रहने के कारण उन्हे वाहिनी में लेना सम्भव नहीं हो सका ।

आज़ाद हिन्द फौज इम्फॉल पर आक्रमण शुरू करने के बाद झाँसी की रानी वाहिनी के दस्तों को मेमियो (Maymyo) ले जाया गया । ये मुख्यत: दो वर्गों में बँटे थे । एक वर्ग का काम था युद्ध, दूसरे का था सेवा-सुश्रुशा । लेकिन हर एक औरत को युद्ध एवं अस्पताल का सेवा-सुश्रुशा का काम, दोनों सिखाया जाता था । इस वाहिनी की औरतें सेवा-सुश्रुशा के कार्य में क्या कीर्तिमान बनाई थी उस प्रसंग की चर्चा मैं इस ग्रंथ में अन्यत्र कर चुका हूँ, यहाँ उसकी पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता हूँ ।

इनके युद्ध करने के सवाल पर नेताजी कहते थे, इम्फॉल पर विजय के बाद इन्हे युद्ध में उतारा जायेगा । नेताजी का अभिप्राय था – कलकत्ता पर विजय अगर किसी दिन सम्भव हो तो यह झाँसी की रानी वाहिनी ही आज़ाद हिन्द फौज की अगुआ दस्ता बन कर विजय-उल्लास के साथ उस नगरी में प्रवेश करेगी । हमारा इम्फॉल-आक्रमण विफल हो जाने के कारण झाँसी की रानी वाहिनी को युद्ध करने का मौका बेशक नहीं मिला लेकिन मैं कह सकता हूँ कि मौका मिलने पर इस वाहिनी की स्वयंसेविकायें निस्सन्देह अपनी योग्यता प्रमाणित कर कीर्तिमान स्थापित कर पातीं । इनमें से हर एक का साहस था बाघ की तरह और दृढ़ता थी फौलादी । अपने ट्रेनिंग के आखरी दौर में इन्हे सप्ताह में दो दिन लगभग आधा मन भारी राइफल व गोला-बारूद का बोझ उठा कर 15 से 20 मील चलना पड़ता था । शारीरिक शिक्षा ग्रहण के समय प्रति दिन सुबह इन्हे बिना रुके 2 मील तेज दौड़ना पड़ता था । सन 1944 के अक्तूबर में आज़ाद हिन्द फौज का एक औपचारिक पैरेड आयोजित किया गया था । लगभग तीन हजार सैनिकों ने इसमें हिस्सा लिया । झाँसी की रानी वाहिनी इसके दाहिने हिस्से की अगुआ दस्ता थी । बड़े जापानी जनरल, वर्मा [म्यांमार] के मंत्री एवं रंगून के अन्यान्य विशिष्ट व्यक्ति इस पैरेड के दर्शक थे । नेताजी ने एक मंच पर खड़े होकर भाषण दिया एवं सैनिकों ने उनके सामने के खुले मैदान में कतारबद्ध खड़े होकर उनका भाषण सुना ।

नेताजी का भाषण खत्म होने के बाद सैनिकों को कुच करते हुये नेताजी का अभिवादन करने के आदेश दिया गया । झाँसी की रानी वाहिनी का कूच शुरु होते ही हवाई-हमले का संकेत सुनाई दिया । करीब के हवाई अड्डे से जापानी युद्ध-विमान आसमान में उठने लगे । ब्रिटिश बम-वर्षी व युद्ध विमान रंगून पर आक्रमण करने आ रहे थे । कुछेक पलों के अन्दर वे आ गये और हमारे सरों के उपर मशीनगनों का भयावह युद्ध शुरु हो गया । जापानी जनरल एवं अन्यान्य दर्शक खतरे की गंभीरता समझते हुये, डर कर भाग गये एवं आसपास के खाइयों (ट्रेंच) में जगह ले लिये । नेताजी तब भी पत्थर की मूरत की तरह मंच पर खड़े रहे एवं झाँसी की रानी वाहिनी की औरतें बिना घबड़ाये, बिना किसी उद्विग्नता के कूच करती गई जैसे कुछ भी न हुआ हो । अचानक दुशमन का एक विमान तीर की तरह नीचे आकर, पचास फुट की ऊँचाई पर, नेताजी के करीब 100 गज की दूरी से गुजर गया । विमान-विध्वंसक तोप से इस विमान पर गोले दागे जाने लगे, उसी में से एक गोला लग कर झाँसी की रानी वाहिनी की एक औरत का सर उड़ गया, उसकी मौत हो गई । दूसरी औरतें इस घटना से जरा सी भी विचलित नहीं हुईं, मजबूत कदमों से नेताजी के सामने कूच करती गई । दुशमन के विमान पर छे मशीनगन थे – उन मशीनगनों के चलने पर नेताजी एवं झाँसी की रानी वाहिनी की औरतों के सामने मौत से बचने का कोई रास्ता नहीं था ।

और एक वाकया है कि सन 1944 के दिसम्बर की शुरुआत में जब झाँसी की रानी वाहिनी की कुछ औरतें रंगुन छोड़ कर बैंकॉक जा रही थी, ब्रिटिश गुरिल्ला दस्ता ने उनके ट्रेन पर हमला बोल दिया था । हमारे दस्ते की औरतें तुरन्त बन्दूकें चलाकर उन्हे पीछे हटने के लिये बाध्य कर दीं । इस लड़ाई में हमारी दो औरतें मारी गईं एवं दो घायल हुईं लेकिन हमारी क्षति से काफी अधिक वे दुशमन की क्षति कर सकीं ।

भीषण बारिश में रंगून छोड़ कर बैंकॉक जाते वक्त, दुशमनों द्वारा पीछा किये जाने के बावजूद उन्होने जो दृढ़ता दिखाई एवं कष्ट सहने की क्षमता का परिचय दी थीं उसका विस्तारित वर्णन मैंने इसके पहले किया है । एक स्थान से दूसरे स्थान में हटने की इस यात्रा के दौरान 200 मील का लम्बा रास्ता वे बन्दूक, गोला-बारूद आदि का भारी बोझ सम्हालते हुये पैदल चली थीं । झाँसी की रानी वाहिनी की औरतों के कार्यों से निस्सन्देह यह प्रमाणित हो चुका है कि जरुरत सामने आने पर हमारे देश की औरतें कष्ट सहने की क्षमता, साहस, त्याग आदि गुणों में दुनिया के दूसरे देशों की औरतों से कमतर तो हैं ही नहीं, बल्कि बेहतर हैं ।

आत्मसमर्पण के पहले ही नेताजी ने हर एक औरत को उनके बाप, माँ या अभिभावक के पास भेज देने इन्तजाम किया था । वे ठीक ठीक पहुँच चुकी हैं यह निश्चित जान कर तभी आत्मसमर्पण किया गया था ।

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* मेजर जेनरल शाहनवाज खान रचित ‘आज़ाद हिन्द फौज एवं नेताजी’ शीर्षक ग्रंथ का अन्तिम अध्याय



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