वनचंडाल का नृत्य
वनचंडाल के पेड़ पर
प्रयोग कर उद्भिदों की स्पन्दनशीलता अनायास ही देखी जा सकती है ।
इसके छोटे छोटे पत्ते खुद व खुद नृत्य करते रहते हैं । लोग मानते हैं कि हाथों से
चुटकी बजाने पर ही नृत्य शुरू होता है । पेड़ों में संगीत का बोध होता है या नहीं यह
तो मैं बता नहीं पाऊंगा, लेकिन वनचंडाल के नृत्य के साथ चुटकी का कोई सम्बन्ध नहीं
है । तरुस्पन्दन के उत्तरों का वर्णमाला पढ़ कर यह निश्चित तौर पर कह पा रहा हूँ कि
पशु एवं उद्भिद के स्पन्दन एक ही नियमों से निर्देशित होते हैं ।
पहली बात यह है कि
प्रयोग की सुविधा के लिये वनचंडाल के पत्ते को छेदने से स्पन्दनक्रिया बन्द हो
जाता है । लेकिन नली के द्वारा उसमें रस का दवाब देने पर स्पन्दन की क्रिया पुन:
शुरू होती है एवं अनवरत चलती रहती है । उसके बाद यह भी परिलक्षित होता है कि ताप
से स्पन्दनों की संख्या में वृद्धि होती है और ठंढक से स्पन्दन धीमी होती है । ईथर
के इस्तेमाल से स्पन्दनक्रिया थम जाती है, लेकिन हवा करने पर बेहोशी की हालत खत्म
होती है । क्लोरोफॉर्म का प्रभाव खतरनाक होता है । सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि
जिस जहर से और जिस प्रकार स्पन्दनशील हृदय नि:स्पन्द होता है उसी जहर से उसी प्रकार
उद्भिद का स्पन्दन भी निरस्त होता है । उद्भिद में भी एक जहर से दूसरे जहर को
काटने में मैं सफल हुआ हूँ ।
तार के बिना खबर
अदृश्य आलोक ईंट-सुरकी, घर-मकान भेद कर अनायास ही चला
जाता है । अत: इसके सहारे तार के बिना खबरें भी भेजी जा सकती हैं । सन 1895 में
कलकत्ता के टाउनहॉल में इस वारे में मैंने कई प्रकार के प्रयोग प्रदर्शित किये थे
। बंगाल के लेफ्टेनैंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी वहाँ मौजूद थे । वेतार के
विद्युत्तरंग उनका विशालकाय देह तथा दो बन्द कमरों को भेद कर तीसरे कमरे में पहुँच
कर कई प्रकार के हंगामे किये थे । लोहे के एक गोले को उन तरंगों ने फेंक दिया, एक
पिस्तौल चलाया एवं बारूद के ढेर को उड़ा दिया । सन 1907 में मार्कनी ने बिना तार के
खबर भेजने का पेटेन्ट लिया । उनकी अद्भुत तपस्या एवं विज्ञान के व्यवहारिक विकास
में उनका कृतित्व पृथ्वी पर एक नये युग का प्रवर्तन किया है ।
- आचार्य जगदीश चन्द्र बोस (अव्यक्त)
30 नवम्बर 1858 – 23 नवम्बर 1937
आचार्य जगदीश चन्द्र बसु
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