Wednesday, January 19, 2022

बलदेव पालित की कविता में गंगापथ पर बिहार का दर्शन

[सन 1869 में प्रकाशित काव्यग्रंथ 'काव्यमंजरी" में संकलित कविता 'गंगा के प्रति' का अंश। यह सही अनुवाद नहीं है। तुक मिलाने की कोशिश ही बेतुकी थी फिर भी ऐसा किया गया ताकि 19वीं सदी में दानापुर, पटना में जीवन निर्वाह कर रहे एक बांग्ला कवि - जो विद्यालयों के संस्थापक के रूप में ही अधिक परिचित है - की नजरों से गंगातट पर दृश्यमान बिहार के शहरों की झांकी को रुचिकर बनाया जा सके। ]

करमनाशा के आगे बक्सर ग्राम,
त्रेता में ताड़का का जहाँ वध किये श्रीराम ।
अभी यहाँ है अंग्रेजों का तबेला, जहाँ
होता है पालन-पोषण कितने सारे घोड़ों का !
बक्सर के बाद भृगु मुनि का आश्रम,
तुम्हारे साथ सरयु की एक शाखा का संगम ।
इस पवित्र तीर्थ से आगे लगभग बारह कोस पर
देहा और सोन के साथ तुम्हारा आकस्मिक टक्कर ।
करीब में दानापुर, देखने में रुचिर,
अंग्रेज सेना का अद्भुत शिविर ।
थोड़ी दूर पर दिखता है तुम्हारे तट पर
प्राचीन पाटलीपुत्र पटना नगर ।
पहले था वह उद्यानों से भरा,
तभी नाम उसका पुष्पपुर पड़ा ।  
अभी उन उद्यानों जैसी नहीं कोई शोभा,
टूटे घाट बस दिखते हैं दो-चार ।
दो हजार साल बीत गये, चन्द्रगुप्त की
यह जगह राजधानी थी;
कुटिल कौटिल्य ने अद्भुत कौशल से दिया जिसे राजपाट,
छल से कर नन्दवंश का नाश ।
इसी स्थान पर था सिंहासन अशोक का;
अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये जो राजा
नगर नगर खड़ा किया जयस्तंभ,
देश देशान्तर में फैलाया बौद्धमत ।
आया यवनों का राज, नवाब हुये अजीमुश्शान;
इस शहर को दिया बिहार की राजधानी का मान,
कई सारे खूबसूरत भवन खड़े किये;
आज तक ख्यात है यह नगर उनके नाम से ।
कहते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ यहीं,
जिनकी शिक्षा के बल से आगे बढ़े सिख ।
उस पार हरिहर देव का मन्दिर –
तुमसे मिला जहाँ गन्डक का नीर ।
पुराण में वह स्थान महातीर्थ कहलाया;
हाथी और कछुये का वहाँ युद्ध हुआ ।
रास पूर्णिमा पर वहाँ हर बरस
कैसा मेला लगता है गज़ब -
हाथी, घोड़े, गऊ, भैंस आदि पशुधन
कितने बिकते हैं, हिसाब रखे कौन ?
कुछ सिविल, कुछ सैनिक, गोरे लोग
घुड़दौड़ के नशे में खोते हैं होश !
पटना छोड़ कर, गंगा, खुशी से बहती हुई,
पुन:पुना नदी के साथ मिलती हुई,
उर्वरा मगध-भूमि का कर भ्रमण,
कितने दूर मुंगेर में रखी कदम ।
पता नहीं जरासन्ध-कारागार है कहाँ;
सामने यवन का किला है टूटा हुआ ।
थोड़ी दूर पर है सीताकुन्ड – प्रसिद्ध झरना
अनवरत उष्णजल जिससे निकलता रहता ।
मुंगेर नगर से पहुँच जहांगिरा,
मुग्ध होता है मन, देख तुम्हारी शोभा,
पानी में – क्या अचंभा - पहाड़ की चोटी !
उसके उपर सुन्दर छोटा सा मन्दिर !
भागलपुर भी देखता हूँ उधर, भवानी
प्राचीन चम्पापुरी – अंग राजधानी ।
इसके दक्षिण में होता है गोचर
सागर-मंथन-दंड मन्दार भूधर ।
त्याग कर भागलपुर की सीमा
पार करता कहलगाँव तुम्हारा प्रवाह;
जहाँ तुम्हारे जल में है तीन शिलाखंडों का राज;
अन्जान लोग कहते इसे भीम का भार ।
अंगदेश से आगे देखता हूँ मनोहर
मोतीझरना जलधार पहाड़ के उपर,
फिर दिखता है तुम्हारे तट पर
महाराज मानसिंह स्थापित राजमहल !
जब यहाँ नवाब सूजा का था ठौर
इसकी छटायें भी होती थी कुछ और ;
कहाँ गईं वे सारी शोभायें ?
कुछेक महल सिर्फ दिखते हैं ।
राजा का घर वगैरह सारे भवन
बन गया है निर्जन गहन वन !
टूटीफूटी हालत में अट्टालिकायें सारी
हैं अब बस जंगली पशुओं की आश्रयस्थली !
वृथा है धन-जन-महावैभव -
बताता है अपने मौन से यह सूना शहर ।
जितना भी गर्व है आदमी का, होता है बौना एकदिन,
कोई भी चीज इस धरती पर स्थाई नहीं ।
देश देशान्तर से लाकर कलाकार
इस राजधानी को जब सजाया सूजा,
कभी भी क्या उसे लगता होगा ?
दुर्गम रास्ते होंगे ये सारे मकान !
दो सौ सालों में इतना बदलाव !
पहले का अहंकार अब सपना हो गया ।
छोड़ राजमहल का पहाड़ी प्रदेश,
समतल बंगाल में तुम, गंगे, किये प्रवेश ।

বলদেব পালিতের কবিতায় গঙ্গাপথে বিহারদর্শন
১৮৬৯ সালে প্রকাশিত কাব্যগ্রন্থ "কাব্যমঞ্জরী"র "গঙ্গার প্রতি কবিতার অংশবিশেষ

কর্মনাশা ছাড়াইয়া বকসর গ্রাম ;
ত্রেতায় তাড়কা যথা বধিলা শ্রীরাম ।
অধুনা এখানে ইংরাজের অশ্বালয় ;
লালিত পালিত যথা হয় কত হয় ।
বকসর পরে ভৃগু মুনির আশ্রম,
তব সঙ্গে যথা শাখা-সরযু-সঙ্গম ।
এ পবিত্র তীর্থ হতে প্রায় ত্রিযোজন,
দেহা আর শোণ সঙ্গে তব সংঘটন ।
সন্নিকট দানাপুর দেখিতে রুচির ;
ইংরাজ সৈন্যের যথা অপূর্ব্ব শিবির ।
অল্পদূরে দেখা যায় তোমার উপর,
প্রাচীন পাটলীপুত্র পাটনা নগর ।
পূর্ব্বেতে ওখানে ছিল উদ্যান প্রচুর,
এ জন্য উহার নাম হল পুষ্পপুর ।
অধুনা তাদৃশী শোভা কিছু মাত্র নাই,
গোটাকত ভাঙ্গাঘাট দেখিবারে পাই ।
দ্বি সহস্র বর্ষ প্রায় করিল প্রয়াণ,
চন্দ্রগুপ্ত-রাজধানী ছিল এই স্থান ;
কুটিল কৌটিল্য যারে, অপূর্ব্ব কৌশলে
রাজপাট দিল, নন্দ-বংশ নাশি ছলে ।
এই স্থানে অশোকের ছিল সিঙ্ঘাসন ;
যে রাজা আপন কীর্ত্তি করিতে বর্দ্ধন,
উঠাইয়া জয়স্তম্ভ নগরে নগরে,
প্রচারিল বৌদ্ধ মত দেশ দেশান্তরে ।
নবাব আজিমোশ্বান, যবনাধিকারে,
বেহারের রাজধানী করিল ইহারে ;
নির্ম্মাইল রম্য হর্ম্ম্য এখানে বিস্তর ;
অদ্যাবধি তার নামে খ্যাত এ নগর ।
গুরু গোবিন্দের জন্ম বলে এই স্থলে ;
শিখদের প্রাদুর্ভাব যাঁর শিক্ষাবলে ।
ও পারেতে হরিহর দেবের মন্দির ;
তোমাতে মিলিল যথা গন্ডকীর নীর ।
মহাতীর্থ বলি উহা কথিত পুরাণে ;
গজ কচ্ছপের যুদ্ধ হইল ওখানে ।
বর্ষে বর্ষে ওই স্থলে রাস-পূর্ণিমায়,
যে প্রকার মেলা হয় বলা নাহি যায় ;
গজ, বাজী, গো, মহিষ আদি পশুচয়
কত যে বিক্রয় হয় কে করে নির্ণয় ?
সিবিল সৈনিক আদি শ্বেত কান্তি কতয়
অশ্বচক্রে পড়ি হয় বাহ্যজ্ঞান-হত ।
পাটনা ত্যজিয়া, গঙ্গে, আনন্দে ভাসিয়া,
পুনঃ পুনা নদী সঙ্গে একত্রে মিশিয়া,
উর্বরা মগধ-ভূমি করিয়া ভ্রমণ,
কত দূরে মুঙ্গেরে করিলে পদার্পণ ।
জরাসন্ধ-কারাগার নাজানি কোথায় ;
সম্মুখে যাবনী দুর্গ পতিতাবস্থায় ।
অদূরেতে সীতাকুন্ড – খ্যাত প্রস্রবণ ;
উষ্ণজল যাহা হতে উঠে অনুক্ষণ ।
মুঙ্গের নগর হতে জাহাঙ্গিরা আসি,
মন মুগ্ধ হয় হেরি তব শোভারাশি
জল মধ্যে গিরি-শৃঙ্গ কিবা চমৎকার !
দেউলের কিবা শোভা উপরে উহার !
অগৌণে ভগলপুর নিরখি, ভবানি, -
পূর্ব্বকার চম্পাপুরী – অঙ্গ রাজধানী ।
ইহার দক্ষিণ দিকে হয় সুগোচর
সমুদ্র-মন্থন-দন্ড মন্দর ভুধর ।
ভগলপুরের সীমা করি পরিহার,
উত্তীর্ণ কাহালগায় প্রবাহ তোমার ;
যথা তিন শৈল খন্ড রাজে তব জলে ;
যাদিগে ভীমের ভার অজ্ঞ লোকে বলে ।
অঙ্গদেশ ছাড়াইয়া দেখি মনোহর
মতিঝর্ণা প্রস্রবণ পর্ব্বত উপর ;
পরে রাজমহল নিরখি তব ধারে,
মহারাজা মানসিংহ স্থাপিলা যাহারে ।
যে সময় ছিল ইহা সুজার আসন,
ইহার ছটার সীমা ছিলনা তখন ;
সে সকল শোভারাশি এখন কোথায় ?
গোটাকত প্রাসাদ কেবল দেখা যায় ।
রাজবাটী আদি কত সৌধ-নিকেতন
হইয়াছে জনহীন গহন কানন !
ভগ্নদশা সমুদয় অট্টালিকা চয় !
এখন কেবল বন্য পশুর আশ্রয় !
ধন-জন-মহৈশ্বর্য্য-সকলি বৃথায়,
মৌন ভাবে এই শূন্য নগরে জানায় ।
মানুষের যত গর্ব্ব কালে খর্ব্ব হয়,
পৃথিবীতে কোন বস্তু চিরস্থায়ী নয় ।
দেশ দেশান্তর হতে শিল্পিগণে আনি,
সাজাইল সুজা যবে এই রাজধানী,
কখন কি তার মনে হইত এমন ? –
কান্তার হইবে তার এসব ভবন ।
দুই শত বর্ষে এত পরিবর্ত্ত হায় !
পূর্ব্বকার অহঙ্কার স্বপনের প্রায় !
ত্যজি রাজমহলের পার্ব্বত প্রদেশ,
সমভূমি বঙ্গে, গঙ্গে, করিলে প্রবেশ ।



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