Monday, January 24, 2022

मजदूरी को उत्पादकता से सम्बन्धित करने की मांग बनाम काम के अधिकार की मांग

[साल 1987, सेंट्रल बैंक आफ इंडिया इम्प्लाइज यूनियन (बिहार) का चौथा सम्मेलन, मुज़फ़्फ़रपुर। उसी की स्मारिका में मेरा यह लेख (गुमनाम) छपा था। अचानक पुराने कागजों के एक बस्ते में मिल गया। थैंक्स, Anish Ankur , टेक्स्ट कन्वर्शन हो भी गया।]

उपरोक्त दोनों ही मांगे आज देश के पैमाने पर उठायी जा रही हैं। एक को उठा रही है, खुद केन्द्रीय सरकार, उसके अफसरशाही तबके और उनके पृष्ठपोषक देश के इजारेदार घराने और बड़े पूंजीपति। दूसरी मांग देश के ट्रेड यूनियनों तथा उनका सर्वोच्च संयुक्त मंच-- राष्ट्रीय उमियान समिति द्वारा उठायी जा रही है।

थोड़ा गौर करने पर दोनों माँगों के बीच एक अन्तर्संम्बन्ध दिखाई पड़ेगा ।

अगर काम के अधिकार की मांग का आधार ढूढ़ा जाय तो हमें बेरोजगारी का एक ऐसा आलम दिखाई पड़ेगा जो सिर्फ पौने तीन करोड़ शहरी रजिस्टरशुदा बेरोजगार या चार करोड़ ग्रामीण बेरोजगार (जिनका किसी भी रजिस्टर पर नाम नहीं है) तक सीमित नहीं है, बल्कि उन कई करोड़ों तक व्याप्त हैं जिनका रोजगार साल के कुछ महीनों, महीने के कुछ दिनों या दिन के कुछ ही घन्टों तक का है। यानि पूरे देश में दस करोड़ से भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनकी उत्पादकता को 'उत्पादकता' की शक्ल देने की क्षमता इस पुंजीवादी व्यवस्था के पासे नहीं है। जो 'उत्पादक' होने की मांग उठाते हैं तो यह सरकार जवाब में एक ही चीज का 'उत्पादन' करती हैं तानाशाही के कानूनी हथियार और वहशी दमन।

और वही सरकार मजदूरी को उत्पादकता से सम्बन्धित करने की मांग करती है। मिट्टी सोना बनती है तो मेहनत से पत्थर लोहा बनता है तो मेहनत से, लोहा मशीन बनता है तो मेहनत से, मशीन चीजों की शक्ल बदलती है--'नाचीज' को चीज बनाती है तो मेहनत से, सिर्फ मेहनत से और उत्पादकता जीवन के लिये जरूरी चीजों की शक्ल में तब्दील मेहनत के सिवा कुछ भी नहीं है। क्या इस सरकार की हिम्मत है कि वह उत्पादकता के साथ मजदूरी को जोड़े ? पूरे राष्ट्रीय उत्पादन की मिल्कीयत उत्पादक वर्ग', मेहनतकश वर्ग के हाथ सौंप दे ? इजारेदारों की सम्पत्ति, जो मजदूरों के खून पसीना से बनी है उसे मजदूरों को दे दे ? हजारों एकड़ जमीनें जो मेहनत से आवाद हुई हैं उसे जमीनदारों से छीन लें और खेतिहर मजदूर और छोटे किसानों को दे दे ? 

कतई नहीं। इस सरकार की जान पर बन आयगी, इजारेदारों की सम्पत्ति पर हाथ तक लगाने में क्योंकि वे ही उनके विधाता है ।

मजदूरी को उत्पादकता से जोड़ने का सवाल सिर्फ एक ढकोसला है । ढकोसला से भी ज्यादा एक नपीतुली साजिश हैं। एक नकाब है अपने इरादों को छुपाने के लिये ।

विश्व पूजीवादी व्यवस्था का एक अंग होने के फलस्वरूप भारत की अर्थ व्यवस्था एक सर्वव्यापी संकट के गिरफ्त में है। माल जो तैयार हो रहे हैं, कोई बाजार नहीं है उनके लिये । आधुनिकीकरण और व्यापक मशीनी करण के द्वारा विदेशी बाजार की प्रतिस्पर्धा में खड़ा होने के चाहे कितने मनसूबे यह केन्द्रीय सरकार बांधले, सिवायें बेंजरोवारी का आलम और बढ़ाने का तथा संकट को और घनीभूत करने का और कुछ भी उससे हासिल नहीं होगा। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण के तौर पर मौजूद है, बलेस ऑफ पेमेन्ट्स के आंकड़े जो यही बताते हैं कि पिछले दिनों आयात-निर्यात का भार साम्य इस कदर गड़बड़ाया है कि बहुत जल्द ही देश फिर एक मुद्रा अवमूल्यन की स्थिति में खड़ा होगा। जो दूसरा रास्ता है, जिसे हम सही और जनवादी रास्ता मागते हैं, एकमात्र रास्ता मानते हैं इस संकट से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिये, वह रास्ता यह सरकार अपनाने से रही। व्यापक भूमि सुधार के द्वारा, देश के सत्तर प्रतिशत लोगों के हाथों में क्रय शक्ति पैदा कर एक आन्तरिक बाजार की सृष्टि .... यह कार्यक्रम जमींदारों के स्वार्थों का प्रतिकल है और केन्द्रीय सरकार जमीदारों को नाराज करने की नीति अपनाने में खतरा महसूस करती है।

अतः संकट बढ़ता ही जा रहा है यह एक कठोर सत्य है। इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है । पूंजीपति या साधारणतया मूनाफे के आधार पर चलने वाली किसी भी अर्थनीतिक शक्ति के लिये मांग' को आंकने का एकमात्र तरीका है मुद्रा में अभिव्यक्त क्रयशक्ति। जरूरतमन्द, पर 'खरीदने' में अक्षम लोगों के लिये पूंजीवाद में कोई जगह नहीं है। इसका ही एक प्रतिफलन है खाद्य निगम के गोदामों में लाखों टन अनाज का सड़ते जाना, फिर भी 'काम के बदले खाद्य' (Food for work) को लागू करने में सरकार की आनाकानी। गाँव का गरीब 'मेहनत' से खाना 'खरीदें' यह सरकार को मंजूर नहीं। उसे पैसा चाहिये। वैसे भी पूंजीवादी 'मांग' शब्द की अमानवीय परिभाषा हर उस आदमी के लिये साफ है जो सड़कों पर आंख खोल के चलता है। अतः पूँजीवाद के लिए एक ही रास्ता है। मांग' अगर घट रहा है, या स्थितिशील भी हैं, तो उत्पादन घटाओ । न सिर्फ 'मांग' के मुताबिक उत्पादन करो, बल्कि उससे भी काफी कम करो ताकि एक अप्राकृतिक अकाल (Artificial Crisis) पैदा कर चीजों की कीमत बढ़ाई जा सके और पुरजोर मुनाफा कमाया जा सके । इजारेदार पूंजी के लिये यह बात और भी आसान है। इजारेदारी बनती ही है इसीलिये कि पूरा बाजार उसके इजारे में हो । उत्पादन के सारे स्रोत, सारे साधन तथा उपभोक्ता का 'भाग्य' उसकी गिरफ्त में हो।

स्वाभाविक तौर पर पूँजीवाद घटते उत्पादन की स्थिति में मजदूरों को वह मजदूरी देना नहीं चाहेगा जो बढ़ते उत्पादन की स्थिति में उसे देना पड़ता था। श्रमिक संगठनें इस देश में इतनी मजबूत तो हो ही चुकी है खासकर संगठित क्षेत्र में कि प्रत्यक्ष रूप से मजदूरी को घटाना महंगा पड़ेगा। अतः यह नया नारा - मज़दूरी को उत्पादकता के साथ जोड़ो।' इसका सीधा मतलब है, आज की स्थिति में, 'मजदूरी को घटाओ'।

आज क्या स्थिति है ? हर एक उद्योग में स्थापित क्षमता' (Installed capacity) का 30% प्रतिशत से 60% प्रतिशत तक का उत्पादन हो रहा है। सरकार कहती है इसका कारण है वहाँ के मजदूरों का काम नहीं करना। क्या यह सच है ? क्या मजदूरों के काम नहीं करने के चलते उत्पादन कम हो रहा है? या ठीक उल्टा, उत्पादन पर लगी पूंजीवादी आर्थनीतिक बंदिशे मजदूरों के कार्य क्षमता को घटा रही है -  प्रत्यक्ष रूप से यानि काम नहीं लेकर और परोक्ष रूप से यानि कम करने का उत्साह और मनोवल तोड़कर ?

आईये एक उद्धरण पर निगाह डालें!

"वे कौन सी बन्दिशें हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं और हमारे आर्थिक जीवन में वे क्या महत्व रखती है ? कृषि में यह बन्दिश है कि जमीन के मालिक ज्यादेतर खुद खेतिहर नहीं है और इसलिये कृषि उत्पादन में उनकी कोई रुचि नहीं है, वे महज इससे मतलब रखते हैं कि वास्तविक खेतिहरों से वे कितना निचोड़ सकते हैं, जबकि ये (वास्तविक खेतिहर) इस तरह निचुड़े जाने के कारण आशाहत होने को बाध्य होते हैं और स्वाभाविक तौर पर उनसे (उत्पादन को बढ़ाने में ) वैसी रुचि की अपेक्षा नहीं की जा सकती है जैसी, वे तब दिखाते जब निचुड़े जाने की प्रक्रिया नहीं होती और जमीन उनकी अपनी होती। औद्योगिक क्षेत्र में यह बंदिश है कि इजारेदार पूंजीपति औद्योगिक उत्पादन को सिर्फ ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की दृष्टिकोण से देखते हैं, जनता का सर्वात्मक लाभ की दृष्टिकोण से बिल्कुल नहीं और इसलिये, उनकी रुचि व्यक्तिगत फायदों में ज्यादा है बजाय औद्योगीकरण के। जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाने की स्थिति में, कठोर शोषण की स्थिति में और उत्पादन के साधनों पर अधिकार से वंचित मजदूर भी उत्पादन के लिये उत्साह खो देते हैं।" (नरेश दास- "व्यापक बेरोजगारी, फिर भी बैंकों में कम्प्युटर, इन्डियन बैंक इम्पलाईज यूनियन, प० बंगाल का मुख पत्र "हथियार, एप्रिल-जून १९८५)

कितनी सुन्दर सच्चाई के साथ लेखक ने उस सामाजिक ट्रैजडी को रखा है जिसका नाम है पतनशील पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ! जिस ट्रैजेडी का शिकार बन रही है एक पूरी कौम की शक्ति, सृजन शक्तिः, - हाथों में बहार को पैदा करने की ताकत होते हुये भी वे हाथ जाड़े में ठिठुर रहे हैं और कुछ मुट्ठीभर लोग पूंजीपति, जमीन्दार और सत्ता पर  आसीन उनके दुमछल्ले, जो इतने उत्पादकताहीन', इतने परजीवी हैं कि उत्पादकता पर उनकी 'मजदूरी' तय होने पर उनकी चमड़ी तक उड़ जायेंगी - फर्मान जारी कर रहे हैं, "मजदूरी को उत्पादकता से जोड़ना होगा" !

ऐसी ही बिडम्बनापूर्ण स्थिति में हम बुलन्द करते हैं, काम के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बनाने का नारा, जिसकी प्रतिध्वनि न सिर्फ दस करोड़ से भी ज्यादा बेरोजगारों/अर्द्ध बेरोजगारों के बल्कि इस देश के पूरे मेहनतकश अवाम के दिल से आती है। काम का अधिकार दो- जिन्दगी को अपने हाथों संवारने तो तुम दे नहीं सकते, कम से कम हाथों को जिन्दगी तो बनने दो !

'काम का अधिकार' भारतीय न्यायशास्त्रियों के लिये कोई नयी चीज नहीं है। संविधान में इस अधिकार का जिक्र है। पर उस अध्याय में जिसे 'कानूनन' आप लागू नहीं कर सकते ! कितनी मजेदार बात है यह । कानून के कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जिसे 'कानूनन आप लागू नहीं कर सकते। और ये हिस्से वे ही हिस्से हैं, जिनके होने पर शोषक वर्गों की खुली लूट और दमन पर थोड़ी सी आँच आ सकती है। मुखबन्द ( Preamble )  और राज के लिये नीति निर्देश ( Directive of state policy ) सिर्फ कानून बनाने वाली संस्था - लोकसभा, विधान सभा आदि को उपदेश देने के लिये है कि वे इस राह पर चलें। काम का अधिकार कायम हो, महिलाओं अर बच्चों पर अत्यचार कम हो, सम्पत्ति और अन्य का यह व्यवधान कि कुछ लोग करोड़पति और बाकी भुखमरे - कुछ कम हो आदि-आदि। क्या गारंटी है कि कानून बनाने वाली संस्था इस राह पर चलेगी? अगर नहीं चले तो कोई कानूनी कार्रवाई हो सकती है ? नहीं। कोई आवाज उठ सकती है ? कानूनन हो, लेकिन सरकार उसे अपने विशाल बहुमत के वहशी इस्तेमाल से कुचल सकती है क्योंकि यह भी कानूनी हैं।

तो अततः फिर वही बात रह जाती है, पूरे देश का मेहनतकश अवाम एक आवाज में गरज उठे- 'काम का अधिकार दो' ।

जहाँ सरकार उत्पादकता से जोड़ने के बहाने मजदूरी घटाने की साजिश कर रही है, मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के नाम मजदूर घटाने (यानि पुरा राष्ट्रीय मजदूरी का और ज्यादा हिस्सा हड़प जाने) की साजिश चला रही हैं लूट और दमन से अपना निकम्मापन और वर्गवफादारी ढकने की कोशिश कर रही हैं, उसका सीधा टक्कर हमें आज लेना होगा इस बुनियादी नारा के साथ कि काम के अधिकार को संवैधानिक अधिकार घोषित करो !"






Wednesday, January 19, 2022

आचार्य जगदीश चन्द्र बोस

वनचंडाल का नृत्य

 

वनचंडाल के पेड़ पर प्रयोग कर उद्भिदों की स्पन्दनशीलता अनायास ही देखी जा सकती है । इसके छोटे छोटे पत्ते खुद व खुद नृत्य करते रहते हैं । लोग मानते हैं कि हाथों से चुटकी बजाने पर ही नृत्य शुरू होता है । पेड़ों में संगीत का बोध होता है या नहीं यह तो मैं बता नहीं पाऊंगा, लेकिन वनचंडाल के नृत्य के साथ चुटकी का कोई सम्बन्ध नहीं है । तरुस्पन्दन के उत्तरों का वर्णमाला पढ़ कर यह निश्चित तौर पर कह पा रहा हूँ कि पशु एवं उद्भिद के स्पन्दन एक ही नियमों से निर्देशित होते हैं ।

                        

पहली बात यह है कि प्रयोग की सुविधा के लिये वनचंडाल के पत्ते को छेदने से स्पन्दनक्रिया बन्द हो जाता है । लेकिन नली के द्वारा उसमें रस का दवाब देने पर स्पन्दन की क्रिया पुन: शुरू होती है एवं अनवरत चलती रहती है । उसके बाद यह भी परिलक्षित होता है कि ताप से स्पन्दनों की संख्या में वृद्धि होती है और ठंढक से स्पन्दन धीमी होती है । ईथर के इस्तेमाल से स्पन्दनक्रिया थम जाती है, लेकिन हवा करने पर बेहोशी की हालत खत्म होती है । क्लोरोफॉर्म का प्रभाव खतरनाक होता है । सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि जिस जहर से और जिस प्रकार स्पन्दनशील हृदय नि:स्पन्द होता है उसी जहर से उसी प्रकार उद्भिद का स्पन्दन भी निरस्त होता है । उद्भिद में भी एक जहर से दूसरे जहर को काटने में मैं सफल हुआ हूँ ।

 

 

तार के बिना खबर

 

अदृश्य आलोक ईंट-सुरकी, घर-मकान भेद कर अनायास ही चला जाता है । अत: इसके सहारे तार के बिना खबरें भी भेजी जा सकती हैं । सन 1895 में कलकत्ता के टाउनहॉल में इस वारे में मैंने कई प्रकार के प्रयोग प्रदर्शित किये थे । बंगाल के लेफ्टेनैंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी वहाँ मौजूद थे । वेतार के विद्युत्तरंग उनका विशालकाय देह तथा दो बन्द कमरों को भेद कर तीसरे कमरे में पहुँच कर कई प्रकार के हंगामे किये थे । लोहे के एक गोले को उन तरंगों ने फेंक दिया, एक पिस्तौल चलाया एवं बारूद के ढेर को उड़ा दिया । सन 1907 में मार्कनी ने बिना तार के खबर भेजने का पेटेन्ट लिया । उनकी अद्भुत तपस्या एवं विज्ञान के व्यवहारिक विकास में उनका कृतित्व पृथ्वी पर एक नये युग का प्रवर्तन किया है ।

 

-     आचार्य जगदीश चन्द्र बोस (अव्यक्त)

 

30 नवम्बर 1858 – 23 नवम्बर 1937

आचार्य जगदीश चन्द्र बसु 

झाँसी की रानी ब्रिगेड* - मेजर जेनरल शाहनवाज खान

 सिंगापुर आने के कुछ ही दिनों के बाद नेताजी की इच्छा हुई कि वह भारतीय औरतों को लेकर एक वाहिनी का गठन करेंगे जिसका नाम होगा झाँसी की रानी वाहिनी । भारत में रहते समय देश का काम करते हुये वह समझ गये थे कि भारत की स्वाधीनता के संग्राम में भारतीय औरतों की सहयोगिता निहायत जरूरी है – इसी अनुभव से नारी वाहिनी गठित करने की उनकी इच्छा उपजी थी । उनकी इच्छानुसार भारतीय स्वाधीनता-संघ की नारी शाखा के द्वारा भारतीय औरतों की एक सभा बुलाई गई । इस सभा में नेताजी ने भाषण दिया था । अनेकों भारतीय औरतें दस-बारह मील पैदल चल कर इस सभा में हिस्सा लेने को आई थीं । कितना जोरदार उत्साह था उनमें ! देश की स्वाधीनता के लिये अपना जीवन उत्सर्ग करने में मर्द जितने व्यग्र थे – वे भी उतने ही व्यग्र थे ।

नेताजी ने उस दिन उनके नाम निम्नलिखित भाषण दिया –

“ बहनों ! देश की स्वाधीनता के लिये आन्दोलन में भारतीय औरतों की क्या भूमिका रही है यह जिस तरह मैं जानता हूँ उसी तरह आप भी जानती हैं; खास कर मैं पिछले बीस वर्षों की बात कर रहा हूँ । वर्ष 1921 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को पुनर्जन्म मिलने के बाद उनकी कार्यतत्परता की खबर आप जरूर रखती होंगी । कांग्रेस की सविनय अवज्ञा आन्दोलन की ही सिर्फ बात नहीं कर रहा हूँ, गुप्त क्रांतिकारी कार्य यहाँ तक की गुप्त आन्दोलनों में भी उन्होने कुछ कम नहीं किया है । दर असल, मेरे लिये यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश के लिये कार्य का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, राष्ट्रीय प्रयास का कोई ऐसा विभाग नहीं जहाँ हमारे देश की औरतों ने खुशी से राष्ट्रीय-संग्राम का भार अपने कंधों पर मर्दों के बराबर न ढोया हो । भूख-प्यास को तुच्छ मान कर गाँव-गाँव में घूमना हो, एक के बाद एक सभाओं में भाषण देने का सवाल हो, हर एक घर के दरवाजे पर जाकर स्वाधीनता की वाणी प्रचारित करने का काम हो, प्रतिद्वन्दिता पर आधारित चुनाव को संचालित करने की बात हो, सरकारी आदेश अमान्य करते हुये अंग्रेज पुलिस की लाठियों का निर्मम चोट तुच्छ कर जुलूस की अगुआई का काम हो या निडर होकर जेल जाना, अपमान व लांछन सहने का सवाल हो – कहीं भी हमारे देश की औरतें पीछे नहीं हठीं । हमारी बहनें क्रांतिकारी कार्यों में भी काफी तत्परता दिखाई हैं । उन्होने साबित कर दिखाया है कि जरुरत पड़ने पर वे भी अपने भाईयों की तरह बन्दूक एवं रिवॉल्वर चला सकती हैं । …आज जो मैं आप पर इतना अधिक भरोसा कर रहा हूँ इसका कारण है कि मैं जानता हूँ हमारे देश की औरतें देश का कार्य करने की कितनी क्षमता रखती हैं । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसी कोई तकलीफ नहीं जो हमारे देश की औरतें सह नहीं सकती ।

“ इतिहास में हम पाते हैं कि हर एक साम्राज्य का जिस तरह उत्थान होता है उसी तरह पतन भी होता है । वह समय आ गया है जब ब्रिटिश साम्राज्य दुनिया से मिट जायेगा । धरती के इस हिस्से से वह साम्राज्य मिट चुका है यह तो हम अपनी आँखों से ही देख रहे हैं, इसी तरह धरती के एक और हिस्से से वह साम्राज्य मिट जायेगा – वह हिस्सा है भारतवर्ष…

“ किसी औरत को अगर यह लगता है कि बन्दूक कंधे पर लेकर युद्ध करना औरत का काम नहीं – मैं कहूंगा इतिहास के पन्ने खोल कर देखिये हमारे ही देश की औरतों ने अतीत में क्या किया है । भारत का पहला स्वाधीनता-संग्राम, सन 1857 के विद्रोह में भारत की वीरांगना झाँसी की रानी क्या की थीं । यह रानी हाथों में खुला तलवार लिये घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना की अगुआई की थीं । नितान्त दुर्भाग्य था हमारा कि युद्ध में उनकी हार हुई, साथ ही साथ भारत का भी पराजय हुआ । लेकिन इसके चलते निराश हो जायें तो नहीं चलेगा, रुकने से नहीं चलेगा, युद्ध जारी रखना पड़ेगा । 1857 की उस महान रानी द्वारा संकल्पित कार्य को हमें पूरा करना होगा…

“ इसलिये भारत की स्वाधीनता के इस अन्तिम – सबसे अन्तिम संग्राम में हमें सिर्फ एक नहीं हजारों झाँसी की रानी की जरुरत है । कितने राइफल आप इस्तेमाल करेंगे वह बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है कितनी गोलियाँ आप दागेंगे । एवं, बड़ी बात है आपके इस साहस के दृष्टान्त का नैतिक प्रभाव …”

भाषण के अन्त में नेताजी ने झाँसी की रानी वाहिनी और रेड क्रॉस के दस्ते में योगदान के लिये औरतों को आह्वान किया । बहुत सारी औरतों ने तभी आगे आकर अपना नाम लिखाया । इसके बाद सिंगापुर में उनके लिये शिक्षाकेन्द्र खोला गया । सिंगापुर में 600 स्वयंसेविकाओं ने इस नारी-वाहिनी में योगदान दिया, इनमें कम उम्र की युवतियों से लेकर उम्रदार महिलायें तक थीं – अधिकांश ऊँचे, संभ्रान्त घरों की औरतें । हिन्दु, मुसलमान, सिख सभी सम्प्रदाय एवं भारत के हर एक प्रांत की औरतें इस वाहिनी में थीं । औरतों के इस शिक्षाकेन्द्र में किसी भी तरह के भोगविलास का नामोनिशान नहीं था । सैनिक शिक्षा प्राप्त करने के समय उन्हे कई सारे कठिन, कष्ट-साध्य कार्य करने पड़ते थे, जैसे, मशीनगन, टॉमीगन चलाना, हथगोला फेंकना, राइफल चलाना, संगीन घोंपना आदि का प्रशिक्षण । मशक्कत वाला शारीरिक व्यायाम, परेड आदि भी उन्हे करना पड़ता था । इसके अलावे भारत के सामाजिक व आर्थिक जीवन के बारे में उन्हे व्याख्यान दिया जाता था । कैम्प में अत्यंत सामान्य भोजन ग्रहण कर उन्हे जीवनधारण करना पड़ता था । भात, मछली, सब्जी यही था उनका भोजन । रात में सोने के लिये कोई नरम बिस्तर नहीं, लकड़ी के फर्श पर बस एक कम्बल बिछाया हुआ, यही उनका बिस्तर था ।

प्रशिक्षण-शिविर के नियम-कानून अत्यंत कठोर थे । बाहर का कोई भी उनसे भेंट नहीं कर पाता था, सगे-सम्बन्धियों को सप्ताह में सिर्फ एक दिन भेंट करने की अनुमति मिलती थी । सैनिक-प्रशिक्षण ग्रहण करने में सुबह से शाम हो जाती थी । डा॰ लक्ष्मी स्वामीनाथन नाम की एक उद्यमी, जवान एवं बेजोड़ साहस वाली औरत को नेताजी ने इनका कमान्डर नियुक्त किया ।  

मात्र छे महीनो में उनकी ट्रेनिंग खत्म । इतने कम समय में भी उनकी सैनिक शिक्षा इतनी मुकम्मल हुई कि आज़ाद हिन्द फौज के पुरुष सैनिकों की शिक्षा और उनकी शिक्षा में कोई फर्क नहीं रहा । संगीन की लड़ाई में वे सबसे अधिक निपुण बनी एवं सभी, ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ संगीन चलाने के लिये हमेशा व्यग्र रहती थीं ।

सन 1944 की शुरुआत में जब आज़ाद हिन्द फौज की सेना इम्फॉल पर आक्रमण करने के लिये वर्मा [म्यांमार] की ओर बढ़ी तो झाँसी की रानी वाहिनी की औरतें अपने खून से नेताजी को एक आवेदन लिखीं कि मर्द सैनिकों की तरह वे भी देश की स्वाधीनता के लिये युद्धक्षेत्र में जा कर प्राणों की आहुति देने के लिये समान रूप से व्यग्र हैं । जितनी जल्द हो सके नेताजी उनकी यह आकांक्षा पूरी करने का उन्हे मौका दें । नेताजी ने उनका आवेदन मंजूर किया । इसके बाद झाँसी की रानी वाहिनी सिंगापुर से रंगून गई, वहाँ नई स्वयंसेविकाओं को सैनिक शिक्षा देने के लिये सन 1944 की शुरुआत में और एक ट्रेनिंग कैम्प खोला गया । इसके उपरांत स्वयंसेविकाओं की संख्या एक हजार हो गई । और कई हजार महिलायें स्वयंसेविका-वाहिनी में योगदान देने की इच्छा के साथ अपना नाम लिखाई थीं, लेकिन शिक्षा आदि की व्यवस्था में असुविधा रहने के कारण उन्हे वाहिनी में लेना सम्भव नहीं हो सका ।

आज़ाद हिन्द फौज इम्फॉल पर आक्रमण शुरू करने के बाद झाँसी की रानी वाहिनी के दस्तों को मेमियो (Maymyo) ले जाया गया । ये मुख्यत: दो वर्गों में बँटे थे । एक वर्ग का काम था युद्ध, दूसरे का था सेवा-सुश्रुशा । लेकिन हर एक औरत को युद्ध एवं अस्पताल का सेवा-सुश्रुशा का काम, दोनों सिखाया जाता था । इस वाहिनी की औरतें सेवा-सुश्रुशा के कार्य में क्या कीर्तिमान बनाई थी उस प्रसंग की चर्चा मैं इस ग्रंथ में अन्यत्र कर चुका हूँ, यहाँ उसकी पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता हूँ ।

इनके युद्ध करने के सवाल पर नेताजी कहते थे, इम्फॉल पर विजय के बाद इन्हे युद्ध में उतारा जायेगा । नेताजी का अभिप्राय था – कलकत्ता पर विजय अगर किसी दिन सम्भव हो तो यह झाँसी की रानी वाहिनी ही आज़ाद हिन्द फौज की अगुआ दस्ता बन कर विजय-उल्लास के साथ उस नगरी में प्रवेश करेगी । हमारा इम्फॉल-आक्रमण विफल हो जाने के कारण झाँसी की रानी वाहिनी को युद्ध करने का मौका बेशक नहीं मिला लेकिन मैं कह सकता हूँ कि मौका मिलने पर इस वाहिनी की स्वयंसेविकायें निस्सन्देह अपनी योग्यता प्रमाणित कर कीर्तिमान स्थापित कर पातीं । इनमें से हर एक का साहस था बाघ की तरह और दृढ़ता थी फौलादी । अपने ट्रेनिंग के आखरी दौर में इन्हे सप्ताह में दो दिन लगभग आधा मन भारी राइफल व गोला-बारूद का बोझ उठा कर 15 से 20 मील चलना पड़ता था । शारीरिक शिक्षा ग्रहण के समय प्रति दिन सुबह इन्हे बिना रुके 2 मील तेज दौड़ना पड़ता था । सन 1944 के अक्तूबर में आज़ाद हिन्द फौज का एक औपचारिक पैरेड आयोजित किया गया था । लगभग तीन हजार सैनिकों ने इसमें हिस्सा लिया । झाँसी की रानी वाहिनी इसके दाहिने हिस्से की अगुआ दस्ता थी । बड़े जापानी जनरल, वर्मा [म्यांमार] के मंत्री एवं रंगून के अन्यान्य विशिष्ट व्यक्ति इस पैरेड के दर्शक थे । नेताजी ने एक मंच पर खड़े होकर भाषण दिया एवं सैनिकों ने उनके सामने के खुले मैदान में कतारबद्ध खड़े होकर उनका भाषण सुना ।

नेताजी का भाषण खत्म होने के बाद सैनिकों को कुच करते हुये नेताजी का अभिवादन करने के आदेश दिया गया । झाँसी की रानी वाहिनी का कूच शुरु होते ही हवाई-हमले का संकेत सुनाई दिया । करीब के हवाई अड्डे से जापानी युद्ध-विमान आसमान में उठने लगे । ब्रिटिश बम-वर्षी व युद्ध विमान रंगून पर आक्रमण करने आ रहे थे । कुछेक पलों के अन्दर वे आ गये और हमारे सरों के उपर मशीनगनों का भयावह युद्ध शुरु हो गया । जापानी जनरल एवं अन्यान्य दर्शक खतरे की गंभीरता समझते हुये, डर कर भाग गये एवं आसपास के खाइयों (ट्रेंच) में जगह ले लिये । नेताजी तब भी पत्थर की मूरत की तरह मंच पर खड़े रहे एवं झाँसी की रानी वाहिनी की औरतें बिना घबड़ाये, बिना किसी उद्विग्नता के कूच करती गई जैसे कुछ भी न हुआ हो । अचानक दुशमन का एक विमान तीर की तरह नीचे आकर, पचास फुट की ऊँचाई पर, नेताजी के करीब 100 गज की दूरी से गुजर गया । विमान-विध्वंसक तोप से इस विमान पर गोले दागे जाने लगे, उसी में से एक गोला लग कर झाँसी की रानी वाहिनी की एक औरत का सर उड़ गया, उसकी मौत हो गई । दूसरी औरतें इस घटना से जरा सी भी विचलित नहीं हुईं, मजबूत कदमों से नेताजी के सामने कूच करती गई । दुशमन के विमान पर छे मशीनगन थे – उन मशीनगनों के चलने पर नेताजी एवं झाँसी की रानी वाहिनी की औरतों के सामने मौत से बचने का कोई रास्ता नहीं था ।

और एक वाकया है कि सन 1944 के दिसम्बर की शुरुआत में जब झाँसी की रानी वाहिनी की कुछ औरतें रंगुन छोड़ कर बैंकॉक जा रही थी, ब्रिटिश गुरिल्ला दस्ता ने उनके ट्रेन पर हमला बोल दिया था । हमारे दस्ते की औरतें तुरन्त बन्दूकें चलाकर उन्हे पीछे हटने के लिये बाध्य कर दीं । इस लड़ाई में हमारी दो औरतें मारी गईं एवं दो घायल हुईं लेकिन हमारी क्षति से काफी अधिक वे दुशमन की क्षति कर सकीं ।

भीषण बारिश में रंगून छोड़ कर बैंकॉक जाते वक्त, दुशमनों द्वारा पीछा किये जाने के बावजूद उन्होने जो दृढ़ता दिखाई एवं कष्ट सहने की क्षमता का परिचय दी थीं उसका विस्तारित वर्णन मैंने इसके पहले किया है । एक स्थान से दूसरे स्थान में हटने की इस यात्रा के दौरान 200 मील का लम्बा रास्ता वे बन्दूक, गोला-बारूद आदि का भारी बोझ सम्हालते हुये पैदल चली थीं । झाँसी की रानी वाहिनी की औरतों के कार्यों से निस्सन्देह यह प्रमाणित हो चुका है कि जरुरत सामने आने पर हमारे देश की औरतें कष्ट सहने की क्षमता, साहस, त्याग आदि गुणों में दुनिया के दूसरे देशों की औरतों से कमतर तो हैं ही नहीं, बल्कि बेहतर हैं ।

आत्मसमर्पण के पहले ही नेताजी ने हर एक औरत को उनके बाप, माँ या अभिभावक के पास भेज देने इन्तजाम किया था । वे ठीक ठीक पहुँच चुकी हैं यह निश्चित जान कर तभी आत्मसमर्पण किया गया था ।

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* मेजर जेनरल शाहनवाज खान रचित ‘आज़ाद हिन्द फौज एवं नेताजी’ शीर्षक ग्रंथ का अन्तिम अध्याय



बलदेव पालित की कविता में गंगापथ पर बिहार का दर्शन

[सन 1869 में प्रकाशित काव्यग्रंथ 'काव्यमंजरी" में संकलित कविता 'गंगा के प्रति' का अंश। यह सही अनुवाद नहीं है। तुक मिलाने की कोशिश ही बेतुकी थी फिर भी ऐसा किया गया ताकि 19वीं सदी में दानापुर, पटना में जीवन निर्वाह कर रहे एक बांग्ला कवि - जो विद्यालयों के संस्थापक के रूप में ही अधिक परिचित है - की नजरों से गंगातट पर दृश्यमान बिहार के शहरों की झांकी को रुचिकर बनाया जा सके। ]

करमनाशा के आगे बक्सर ग्राम,
त्रेता में ताड़का का जहाँ वध किये श्रीराम ।
अभी यहाँ है अंग्रेजों का तबेला, जहाँ
होता है पालन-पोषण कितने सारे घोड़ों का !
बक्सर के बाद भृगु मुनि का आश्रम,
तुम्हारे साथ सरयु की एक शाखा का संगम ।
इस पवित्र तीर्थ से आगे लगभग बारह कोस पर
देहा और सोन के साथ तुम्हारा आकस्मिक टक्कर ।
करीब में दानापुर, देखने में रुचिर,
अंग्रेज सेना का अद्भुत शिविर ।
थोड़ी दूर पर दिखता है तुम्हारे तट पर
प्राचीन पाटलीपुत्र पटना नगर ।
पहले था वह उद्यानों से भरा,
तभी नाम उसका पुष्पपुर पड़ा ।  
अभी उन उद्यानों जैसी नहीं कोई शोभा,
टूटे घाट बस दिखते हैं दो-चार ।
दो हजार साल बीत गये, चन्द्रगुप्त की
यह जगह राजधानी थी;
कुटिल कौटिल्य ने अद्भुत कौशल से दिया जिसे राजपाट,
छल से कर नन्दवंश का नाश ।
इसी स्थान पर था सिंहासन अशोक का;
अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये जो राजा
नगर नगर खड़ा किया जयस्तंभ,
देश देशान्तर में फैलाया बौद्धमत ।
आया यवनों का राज, नवाब हुये अजीमुश्शान;
इस शहर को दिया बिहार की राजधानी का मान,
कई सारे खूबसूरत भवन खड़े किये;
आज तक ख्यात है यह नगर उनके नाम से ।
कहते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ यहीं,
जिनकी शिक्षा के बल से आगे बढ़े सिख ।
उस पार हरिहर देव का मन्दिर –
तुमसे मिला जहाँ गन्डक का नीर ।
पुराण में वह स्थान महातीर्थ कहलाया;
हाथी और कछुये का वहाँ युद्ध हुआ ।
रास पूर्णिमा पर वहाँ हर बरस
कैसा मेला लगता है गज़ब -
हाथी, घोड़े, गऊ, भैंस आदि पशुधन
कितने बिकते हैं, हिसाब रखे कौन ?
कुछ सिविल, कुछ सैनिक, गोरे लोग
घुड़दौड़ के नशे में खोते हैं होश !
पटना छोड़ कर, गंगा, खुशी से बहती हुई,
पुन:पुना नदी के साथ मिलती हुई,
उर्वरा मगध-भूमि का कर भ्रमण,
कितने दूर मुंगेर में रखी कदम ।
पता नहीं जरासन्ध-कारागार है कहाँ;
सामने यवन का किला है टूटा हुआ ।
थोड़ी दूर पर है सीताकुन्ड – प्रसिद्ध झरना
अनवरत उष्णजल जिससे निकलता रहता ।
मुंगेर नगर से पहुँच जहांगिरा,
मुग्ध होता है मन, देख तुम्हारी शोभा,
पानी में – क्या अचंभा - पहाड़ की चोटी !
उसके उपर सुन्दर छोटा सा मन्दिर !
भागलपुर भी देखता हूँ उधर, भवानी
प्राचीन चम्पापुरी – अंग राजधानी ।
इसके दक्षिण में होता है गोचर
सागर-मंथन-दंड मन्दार भूधर ।
त्याग कर भागलपुर की सीमा
पार करता कहलगाँव तुम्हारा प्रवाह;
जहाँ तुम्हारे जल में है तीन शिलाखंडों का राज;
अन्जान लोग कहते इसे भीम का भार ।
अंगदेश से आगे देखता हूँ मनोहर
मोतीझरना जलधार पहाड़ के उपर,
फिर दिखता है तुम्हारे तट पर
महाराज मानसिंह स्थापित राजमहल !
जब यहाँ नवाब सूजा का था ठौर
इसकी छटायें भी होती थी कुछ और ;
कहाँ गईं वे सारी शोभायें ?
कुछेक महल सिर्फ दिखते हैं ।
राजा का घर वगैरह सारे भवन
बन गया है निर्जन गहन वन !
टूटीफूटी हालत में अट्टालिकायें सारी
हैं अब बस जंगली पशुओं की आश्रयस्थली !
वृथा है धन-जन-महावैभव -
बताता है अपने मौन से यह सूना शहर ।
जितना भी गर्व है आदमी का, होता है बौना एकदिन,
कोई भी चीज इस धरती पर स्थाई नहीं ।
देश देशान्तर से लाकर कलाकार
इस राजधानी को जब सजाया सूजा,
कभी भी क्या उसे लगता होगा ?
दुर्गम रास्ते होंगे ये सारे मकान !
दो सौ सालों में इतना बदलाव !
पहले का अहंकार अब सपना हो गया ।
छोड़ राजमहल का पहाड़ी प्रदेश,
समतल बंगाल में तुम, गंगे, किये प्रवेश ।

বলদেব পালিতের কবিতায় গঙ্গাপথে বিহারদর্শন
১৮৬৯ সালে প্রকাশিত কাব্যগ্রন্থ "কাব্যমঞ্জরী"র "গঙ্গার প্রতি কবিতার অংশবিশেষ

কর্মনাশা ছাড়াইয়া বকসর গ্রাম ;
ত্রেতায় তাড়কা যথা বধিলা শ্রীরাম ।
অধুনা এখানে ইংরাজের অশ্বালয় ;
লালিত পালিত যথা হয় কত হয় ।
বকসর পরে ভৃগু মুনির আশ্রম,
তব সঙ্গে যথা শাখা-সরযু-সঙ্গম ।
এ পবিত্র তীর্থ হতে প্রায় ত্রিযোজন,
দেহা আর শোণ সঙ্গে তব সংঘটন ।
সন্নিকট দানাপুর দেখিতে রুচির ;
ইংরাজ সৈন্যের যথা অপূর্ব্ব শিবির ।
অল্পদূরে দেখা যায় তোমার উপর,
প্রাচীন পাটলীপুত্র পাটনা নগর ।
পূর্ব্বেতে ওখানে ছিল উদ্যান প্রচুর,
এ জন্য উহার নাম হল পুষ্পপুর ।
অধুনা তাদৃশী শোভা কিছু মাত্র নাই,
গোটাকত ভাঙ্গাঘাট দেখিবারে পাই ।
দ্বি সহস্র বর্ষ প্রায় করিল প্রয়াণ,
চন্দ্রগুপ্ত-রাজধানী ছিল এই স্থান ;
কুটিল কৌটিল্য যারে, অপূর্ব্ব কৌশলে
রাজপাট দিল, নন্দ-বংশ নাশি ছলে ।
এই স্থানে অশোকের ছিল সিঙ্ঘাসন ;
যে রাজা আপন কীর্ত্তি করিতে বর্দ্ধন,
উঠাইয়া জয়স্তম্ভ নগরে নগরে,
প্রচারিল বৌদ্ধ মত দেশ দেশান্তরে ।
নবাব আজিমোশ্বান, যবনাধিকারে,
বেহারের রাজধানী করিল ইহারে ;
নির্ম্মাইল রম্য হর্ম্ম্য এখানে বিস্তর ;
অদ্যাবধি তার নামে খ্যাত এ নগর ।
গুরু গোবিন্দের জন্ম বলে এই স্থলে ;
শিখদের প্রাদুর্ভাব যাঁর শিক্ষাবলে ।
ও পারেতে হরিহর দেবের মন্দির ;
তোমাতে মিলিল যথা গন্ডকীর নীর ।
মহাতীর্থ বলি উহা কথিত পুরাণে ;
গজ কচ্ছপের যুদ্ধ হইল ওখানে ।
বর্ষে বর্ষে ওই স্থলে রাস-পূর্ণিমায়,
যে প্রকার মেলা হয় বলা নাহি যায় ;
গজ, বাজী, গো, মহিষ আদি পশুচয়
কত যে বিক্রয় হয় কে করে নির্ণয় ?
সিবিল সৈনিক আদি শ্বেত কান্তি কতয়
অশ্বচক্রে পড়ি হয় বাহ্যজ্ঞান-হত ।
পাটনা ত্যজিয়া, গঙ্গে, আনন্দে ভাসিয়া,
পুনঃ পুনা নদী সঙ্গে একত্রে মিশিয়া,
উর্বরা মগধ-ভূমি করিয়া ভ্রমণ,
কত দূরে মুঙ্গেরে করিলে পদার্পণ ।
জরাসন্ধ-কারাগার নাজানি কোথায় ;
সম্মুখে যাবনী দুর্গ পতিতাবস্থায় ।
অদূরেতে সীতাকুন্ড – খ্যাত প্রস্রবণ ;
উষ্ণজল যাহা হতে উঠে অনুক্ষণ ।
মুঙ্গের নগর হতে জাহাঙ্গিরা আসি,
মন মুগ্ধ হয় হেরি তব শোভারাশি
জল মধ্যে গিরি-শৃঙ্গ কিবা চমৎকার !
দেউলের কিবা শোভা উপরে উহার !
অগৌণে ভগলপুর নিরখি, ভবানি, -
পূর্ব্বকার চম্পাপুরী – অঙ্গ রাজধানী ।
ইহার দক্ষিণ দিকে হয় সুগোচর
সমুদ্র-মন্থন-দন্ড মন্দর ভুধর ।
ভগলপুরের সীমা করি পরিহার,
উত্তীর্ণ কাহালগায় প্রবাহ তোমার ;
যথা তিন শৈল খন্ড রাজে তব জলে ;
যাদিগে ভীমের ভার অজ্ঞ লোকে বলে ।
অঙ্গদেশ ছাড়াইয়া দেখি মনোহর
মতিঝর্ণা প্রস্রবণ পর্ব্বত উপর ;
পরে রাজমহল নিরখি তব ধারে,
মহারাজা মানসিংহ স্থাপিলা যাহারে ।
যে সময় ছিল ইহা সুজার আসন,
ইহার ছটার সীমা ছিলনা তখন ;
সে সকল শোভারাশি এখন কোথায় ?
গোটাকত প্রাসাদ কেবল দেখা যায় ।
রাজবাটী আদি কত সৌধ-নিকেতন
হইয়াছে জনহীন গহন কানন !
ভগ্নদশা সমুদয় অট্টালিকা চয় !
এখন কেবল বন্য পশুর আশ্রয় !
ধন-জন-মহৈশ্বর্য্য-সকলি বৃথায়,
মৌন ভাবে এই শূন্য নগরে জানায় ।
মানুষের যত গর্ব্ব কালে খর্ব্ব হয়,
পৃথিবীতে কোন বস্তু চিরস্থায়ী নয় ।
দেশ দেশান্তর হতে শিল্পিগণে আনি,
সাজাইল সুজা যবে এই রাজধানী,
কখন কি তার মনে হইত এমন ? –
কান্তার হইবে তার এসব ভবন ।
দুই শত বর্ষে এত পরিবর্ত্ত হায় !
পূর্ব্বকার অহঙ্কার স্বপনের প্রায় !
ত্যজি রাজমহলের পার্ব্বত প্রদেশ,
সমভূমি বঙ্গে, গঙ্গে, করিলে প্রবেশ ।



Tuesday, January 18, 2022

मनुष्य की मुक्ति के लिये काम करता जाउंगा - ज्योति बसु

(दिनांक 24 फरवरी 2001 को पश्चिम बंगाल विधान सभा में उनका अंतिम भाषण। 17 जनवरी 2022 को उनके मृत्युदिवस पर बंगला अखबार ‘गणशक्ति’ में प्रकाशित।) 


माननीय स्पीकर महाशय,

सही में, मैं तैयार नहीं था। मुझे मुख्यमंत्री ने खबर पहुँचाई कि यहाँ बिजनेस कमिटी में तय हुआ है कि चूंकि इतने दिनों तक मैं था, मुझे सम्मानित किया जायेगा। आज आखरी दिन है। मैंने उनसे मना किया था कि इन बातों का कोई खास मूल्य नहीं है मेरे लिये। खैर, आज मुख्यत: हमारे माननीय स्पीकर महाशय को धन्यवाद देने के लिये हम यहाँ इकट्ठे हुये हैं और सभी ने उन्हे धन्यवाद दिया है, मैं भी उन्हे धन्यवाद दे रहा हूँ। 

मुझे बस याद आ रहा है, कई स्पीकरों को मैं देखता रहा हूँ सन 1946 से, मुसलिम लीग के जमाने से। हाउस दर असल विरोधी पक्ष का हुआ करता है। विरोधी पक्ष की बातें अधिक सुननी पड़ती है। उन्हे मर्यादा देनी पड़ती है। मुझे लगता है कि संसदीय जनतंत्र में यह सही है। उसी नीति को लेकर आप चल रहे हैं यह सभी जानते हैं। हमारे देश में, भारतवर्ष में स्पीकरों का जो सम्मेलन हुआ है, उसमें मुझे सुनने को मिला है, दूसरों से भी सुनने को मिला है, सबों ने आपकी तारीफ की है। इसलिये मैं आपका अभिनन्दन कर रहा हूँ, डेपुटी स्पीकर को भी धन्यबाद दे रहा हूँ। क्योंकि कभी कभी आपको कुर्सी छोड़ कर जाना पड़ता है, उन अवधियों में वह सही तरीके से सभा का कार्य संचालित करते रहे हैं। इसके अलावे यहाँ के जो कर्मचारी हैं उन सबों को मैं धन्यवाद दे रहा हूँ। इस सत्र के दौरान उन्होने काफी मेहनत किया है। 

अपनी बात कुछ बोलनी पड़ेगी क्योंकि मैंने इतनी सारी बातें सुनी। मुख्यमंत्री का पद त्यागने के बाद कुछेक जगहों से मुझे सम्मान दिया जा रहा है। जो यह सब कर रहे हैं उनमें चेम्बर ऑफ कॉमर्स है, आम लोग हैं, कई प्रकार की संस्थायें हैं। जैसे आपने शाल ओढ़ाया – हालांकि जाड़ा बीत रहा है – उन्होने भी शाल ओढ़ाया है – जिन्दा रहूँ तो इस्तेमाल करुंगा। सभी जगहों पर मैं कहता हूँ, यहाँ भी कहता हूँ, – शास्त्र तो मैंने पढ़ा नहीं - सुना है कि शास्त्र में यूँ है कि प्रशंसा निंदा जैसी है, प्रशंसा करना एक तरह से निंदा करना होता है, प्रशंसा करने से निंदा करना बेहतर है। कहते हैं कि शास्त्र में है, प्रशंसा विषवत्, निंदा अमृत समान। यह बात मैं हर समय याद किये चलता हूँ। मैं मार्क्सवादी हूँ, कम्युनिस्ट हूँ, मेरे हिसाब से 60 वर्ष पहले मैं राजनीति में प्रवेश किया था, विलायत से लौटने के बाद 60 वर्षों से मैं राजनीति में हूँ। कम्युनिस्टों की बात पूरी दुनिया में फैली हुई है। संसदीय जनतंत्र में जिस तरह जनता के लिये काम किया जा सकता है, उसी हिसाब से काम करने का तरीका है हमारा। हम कहते हैं कि संसद के भीतर और बाहर, विधायिका के भीतर और बाहर हमें काम करना होगा। पार्लियामेंटरी तथा एक्स्ट्रा-पार्लियामेंटरी काम हमें करना होगा। जनता के बीच हमें काम करना होगा, मजदूर, किसान, देश के मेहनती जन, देश के उद्योगों को आगे बढ़ाने के लिए हमें काम करना होगा एवं विधायिका के अंदर, जो उनकी मांगें हैं उन्हे हमें पेश करना होगा। यही है हमारी नीति। इसी नीति के साथ हम और हमारे मित्र यहाँ चल रहे हैं और एक इतिहास बना है यहाँ – पिछले 24 वर्षों से लगातार जनता हमें चुन रही है। सिर्फ यही नहीं, लोकसभा में बड़ी बहुमत, त्रिस्तरीय पंचायतों में बड़ी बहुमत … इस तरह लोगों ने हमारा समर्थन किया है। हमारे साथ सहयोग किया है। उन लोगों को मैं आज अंतिम दिन यहाँ खड़ा होकर, धन्यवाद दे रहा हूँ, अपनी कृतज्ञता जता रहा हूँ। जो इतिहास यहाँ कायम हुआ है, जनता ने ही उस इतिहास को बनाया है। 

अंतिम दिन, विरोधी दल के मित्र आज यहाँ नहीं हैं, विरोधी दल के बिना मल्टी पार्टी सिस्टम, पार्लियामेन्टरी डेमोक्रैटिक सिस्टम तो चल नहीं सकता है। मैं तो लम्बे अर्से तक विरोधी दल में था। 27 साल मैं विरोधी दल में था। उन दिनों में विरोधी दल का नेता रहा हूँ 4 बार, फिर कभी उपमुख्यमंत्री बन कर सरकार में आया हूँ, 24 साल मुख्यमंत्री भी रहा हूँ। लेकिन विरोधी दल के बारे में – उनके रहने पर बोलते, चीख-चिल्लाहट मचता जानता हूँ – उन्होने भी एक इतिहास की रचना की है नि:सन्देह, वैसा इतिहास भारत में कहीं रचित नहीं हुआ। भारतवर्ष के संसदीय जनतंत्र में हम देख रहे हैं नाना प्रकार का भ्रष्टाचार का प्रवेश हुआ है, नाना प्रकार की अनैतिकता का प्रवेश हुआ है, अपराधीकरण हुआ है। हमने देखा है, किसी एक राज्य में विधायिका के, विधानसभा के 70 सदस्य मंत्री होने के लिये अपनी पार्टी छोड़ कर चले गये उस पार्टी में जिसने सरकार बनाई है और मंत्री बन गये। उनके बैठने का कमरा नहीं है, कुर्सी नहीं है, डिपार्टमेन्ट नहीं है। यह इतिहास कई जगहों पर दुहराया गया है। मेरी राय है कि अगर लोगों की राजनीतिक सोच का परिवर्तन करना चाहते हैं – परिवर्तन की जरूरत है, लेकिन जिस पार्टी ने आपको चुना, उस पार्टी को आपने छोड़ दिया और दूसरी पार्टी में चले गये यह कहाँ की नैतिकता है? क्या सिखा रहे हैं हम नई पीढ़ी को? भ्रष्टाचार सिखा रहे हैं। यहाँ वही हुआ है। इन्होने नया इतिहास बनाया है जैसा भारतवर्ष में और कहीं पर नहीं बना। फ्लोर क्रॉसिंग जरूर हुआ है पर यह नहीं हुआ है। जो हमारे विरोधी हैं उनमें से अधिकांश को जब पूछा जाता है कि आपका दल कौन सा है – यहाँ के तीन, चार लोगों से अलग – वे कहते हैं कि हम कॉंग्रेस हैं। जो तृणमूल और बीजेपी के सदस्य चुन कर आये हैं वे यहाँ बोलते हैं हम कांग्रेस हैं, बाहर जाकर बोलते हैं हम तृणमूल हैं। इस तरह का इतिहास धरती पर कहीं भी नहीं है। माननीय स्पीकर को मैने कहा है, आपको अगर लगे तो बढ़िया से टीवी वालों को कहिये हमारा सारा आचरण हमारे चरित्र को कवर करे, लोग समझ पायेंगे। और नहीं, अगर यह हो नहीं पा रहा हो तो यहाँ की दर्शक-दीर्घाओं को खाली रखेंगे। कम से कम स्कूल के बच्चों को यहाँ आने नहीं दीजियेगा। यहाँ कूद-फाँद होता है, एक की बात दूसरा नहीं सुनता है, इससे क्या सीखते हैं वे? हम क्या यहाँ सिर्फ वेतन लेने के लिये, भाषण देने के लिये आते हैं? हमें यहाँ पर एक दृष्टांत स्थापित करने की बात थी लेकिन अलग ही दृष्टांत स्थापित हो गया है यहाँ। अगर मनुष्य की चेतना बढ़े तब ऐसा न हो। जिन्हे लोग भेज रहे हैं उनका आचरण इत्यादि … यही जो बात है कि एक आदमी यहाँ एक दल का है और बाहर दूसरे दल का। तो हमारे बच्चे क्या सीख रहे हैं? हमारे बच्चों को हम घर में बोल रहे हैं, हमेशा सच बोलोगे। लेकिन राजनीति में हमेशा झूठ बोलोगे, यही देख रहा हूँ मेरे जीवन में। लेकिन अफसोस करने से कोई लाभ नहीं होगा। इसीलिये हम हैं, मनुष्य की चेतना बढ़ाने के लिये, संगठित करने के लिये, अधर्म-अन्याय के विरुद्ध, शोषण के विरुद्ध हमें संघर्ष करना होगा। 

इसी के लिये संसदीय जनतंत्र में हम हैं। भीतर भी हम हैं, बाहर भी हम हैं। बड़े बड़े जनसंगठन हमें गठित करने होंगे। भारतवर्ष की स्वतंत्रता के 53 साल के बाद भी भयावह स्थिति है। जो हम कभी नहीं सोचे थे वह दिल्ली में हो रहा है। नीति, नैतिकता, मोरालिटी ऑफ पॉलिटिक्स यह सब कुछ नहीं है और देश को बेच दिया जा रहा है। सरकार ने घोषणा किया है की कर्मचारियों की संख्या कम करनी होगी। मझौले, छोटे उद्योग यहाँ तक कि कुछ बड़े उद्योग बन्द हो जायेंगे और अधिकाधिक तौर पर विदेशियों पर निर्भर हो गये हैं, देश की जनता पर भरोसा खो चुके हैं। जबकि हमारे देश में कितने अच्छे वैज्ञानिक, इन्जिनियर, तकनीकी शिक्षा से लैस लड़के और लड़कियाँ, मजदूर, कुशल मजदूर … कितने कुछ हैं हमारे पास्। हमलोग यहाँ कई बार कहे हैं कि ऑल्टरनेटिव अर्थनीति गठित करना चाहते हैं हम, वैकल्पिक अर्थनीति। अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हम भूमंडलीकरण से अलग हो जायेंगे, दुनिया से अलग हो जायेंगे। हमने कहा है, जो हम नहीं जानते हैं हम बाहर से सीखेंगे, जो हमारे पास नहीं है, बाहर से खरीद लायेंगे। लेकिन अन्तत: किस बात के लिये? जवाहरलाल नेहरु आदियों ने पहली योजना के समय अपने पैरों पर खड़ा होने की बात कही थी, ताकि हम आत्मनिर्भर बन सकें। कहाँ गई वो सारी बातें? भूमिसुधार कहाँ है? सभी राज्यों में भूमिसुधार चल रहा है। लेकिन कहीं सफल नहीं हुआ तीन राज्यों के अलावे। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा। और यहाँ तो मै 22/23 वर्षों से जा रहा हूँ मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जिसे प्रधानमंत्री बुलाते हैं, उसके बाद हमारे प्लानिंग कमीशन, उनसे बातचीत होती है। मैं और मेरे वित्त मंत्रीं वहाँ जाते हैं, अब वे सारी बातें सुनाई नहीं पड़ती है, भूमिसुधार की कोई बात नहीं होती है। अपने पैरों पर खड़े होने की कोई बात नहीं है। विदेशियों पर अब निर्भर हैं हम। नये नये कानून बनाये जा रहे हैं। उसके ऊपर विश्व संस्था बना है। सिर्फ अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष नहीं, सिर्फ वर्ल्ड बैंक नहीं, अब डब्ल्यु टी ओ, गैट … इन सबों पर भरोसा कर हमारा सर्वनाश हो रहै। हमारे किसानों का सर्वनाश होगा। जबकि यह सब कुछ जो कर रहे हैं, अमरीका, फ्रांस आदि देश, वे अपने लिसानों को हजारों करोड़ रुपये, डालर का अनुदान देते हैं। और हमें उपदेश सुनाते हैं कि सारे अनुदान बन्द कीजिये। 

मुझे खेद है कि सत्र के अन्तिम दिन, ये सारी बातें मुझे बोलनी पड़ रही है। लेकिन और कोई उपाय नहीं है। इन बातों को जनता के पास हमें ले जाना होगा। सब कुछ अन्तत: आदमी पर ही निर्भर करता है। हम विश्वास करते हैं की आदमी ही इतिहास की रचना करता है। लेकिन आदमी तो गलत रास्ते पर भी जा सकता है। गलत रास्ते पर चलने के लिये निर्देशित किया जा सकता है। उसके तरफ हमें नजर रखना होगा। हमारे जनतंत्र को खत्म करने के सारे इंतजाम हमारे उसी संविधान में किये जा रहे हैं जिसे हम धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, सेक्युलर, जिसके लिये हम गर्वित हैं। उसे बदलने की कोशिश की जा रही है। आयोग बना है। मैंने सुना कि हमारी सरकार के पास चिट्ठी आई थी उस आयोग से, संविधान बदलने के आयोग से कि हमें कहिये क्या वक्तव्य है आपलोगों का इन सारे विषयों पर। मैंने मुख्यमंत्री से सुना है, हमारी सरकार ने जबाब दिया है कि आपसे हम क्यों कहने जायेंगे? संविधान में है कि अगर संशोधन करने की जरूरत पड़े, जरूर किया जाना चाहिये। कुछेक आयोग बन जायेगा, उनके पास हम अपनी बात क्यों रखने जायेंगे? हमारी वाम मोर्चे की सरकार ने सही फैसला लिया है। खैर, मैं बात बढ़ाना नहीं चाहता हूँ। मैं सभी का धन्यवाद एवं अभिनन्दन कर रहा हूँ, सभी का कोआपरेशन मिला है, सहयोग मिला है। जिनका सहयोग नहीं मिला, जिन्होने आलोचना की, उन्हे भी थोड़ा धन्यवाद मुझे देना पड़ेगा। क्योंकि, अखबारों के बारे में भी मैं वही कहता हूँ, अखबार हमारी आलोचना नहीं करे तो हम गलत रास्ते की ओर निर्देशित होंगे। बस सिर्फ इतना कहूंगा कि आलोचना सच्चाई पर होनी चाहिये। बुनियाद हो सच्चाई। दुर्भाग्य से बहुत बार ऐसा नहीं होता है। फिर भी हम हैं और मैं अन्तत: यह कह सकता हूँ कि हम रहेंगे इस बारे में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है। 

और एक बात कह कर मै अपने बारे में बोलना खत्म कर रहा हूँ। कि मैं अब चुनाव में खड़ा नहीं होऊंगा। और आपलोग कौन खड़े होंगे, मुझे अभी तक पूरा लिस्ट नहीं मिला है, देखा नहीं है मैंने, जिलों से सारा लिस्ट आ रहा है, पूरी पार्टी का। लेकिन एक आदमी खड़ा नहीं होगा यह तय हो चुका है। वह हूँ मैं। मैं इस चुनाव में खड़ा नहीं हो रहा हूँ। लेकिन मैं कह चुका हूँ। मैं राजनीति छोड़ कर नहीं जा रहा हूँ, पार्टी छोड़ कर नहीं जा रहा हूँ। पॉलिटब्युरो से शुरु कर सभी उन जगहों पर, जो मेरी जगहें हैं, जहाँ मैं हूँ, जहाँ मैं चुना जाता हूँ और हम कम्युनिस्ट कहते हैं, चाहते हैं कि आखरी सांस तक मनुष्य के लिये काम कर सकें, मनुष्य की मुक्ति के लिये हम काम कर सकें। 

यही बात हम कम्युनिस्ट कहते हैं। वह विश्वास, वह भरोसा मुझ में है और उसे ही लेकर अपने शरीर से जितना भी हो सकता है मैं उस मनुष्य के लिये उसकी मुक्ति के लिये काम करता जाऊंगा। धन्यवाद।




Monday, January 17, 2022

রামমোহন

তাজ্জব লাগে – আজ কি? সেই ডাকাতপড়া যুগে,
বছর ষোল বয়সে এক অভিমানী ক্ষণে,
পাড়ি দিলেন হাজার মাইল হিমালয়ের বুকে – 
পৌঁছতে তিব্বত, হিম নির্জনারোহণে?
চিরাচরিত সুখশান্তি ভেবে অন্ধকূপ,
তালাশ করতে বুদ্ধ-সঙ্গে স্রষ্টার অরূপ? 
ভিক্ষুরাই খেপলো এমন মেরে ফেলত তাঁকে!
বেঁচে গেলেন তিব্বতি মা-মেয়ের ‘চুবা’র ফাঁকে।   

পাটনায় আর বেনারসে, আরবি-ফার্সি শিখে, বসে
ধর্মে ধর্মে ভেদাভেদের ছিঁড়ে দিলেন ভেক!
মুর্শিদাবাদ গিয়ে শেষে, রুজির দমে ছাপিয়ে প্রেসে
‘তুহফৎ-উল-মুবহ্‌হিদীন’, বললেন ঈশ এক! 

বাচ্চা বয়স থেকেই যেন শাস্ত্রবিচার পাকা!
পাঁচ শহরে টাকা করে ফিরে কলকাতায় 
তর্কযুদ্ধে খবরকাগজ করলেন তিন ভাষায়,
সব ধর্মের পুরুতগিরির গুমোর করতে ফাঁকা।

শিক্ষা চাই, দীক্ষায় চাই আধুনিক মনন! 
কলেজও গড়লেন, তবু শান্ত না হয় মন – 

স্মৃতি সজল করে কত মা, পিসি, দি …, বৌদির স্নেহ!
অথচ রোজ নারীহত্যার রোল বাজে কানে!
বন্ধ তো করলেনই – চিতায় তোলা, তাদের জ্যান্ত দেহ!
দেখালেন, মা-র হক সমান, শাস্ত্রেরও সন্ধানে।  

বিদ্বান? নাকি ব্যবসাদার? 
ভাবুক? নাকি ধর্মকথক? নাকি কর্মদৈত্য? 
আগুনঘোড়া এমনি হয়,  
বেতো লাশ মুরুব্বিদের ছিলেন চোখের বিষ তো!

মেপে নয়, নিজের মতন লম্বা পায়ে হেঁটে
নতুন যুগের স্থানাঙ্ক সব লিখে গেলেন স্লেটে,
চকখড়িতে! প্রাণযাপনে এগিয়ে সেই ধারা,
আজও দিচ্ছে দা, কাটতে অন্ধকারের দাঁড়া।
জাহাজ চেপে পাড়ি দিলেন একাই,
চাষীর প্রতি অন্যায় যা চলছে, বিহিত চাই। …
রাজার সাজ দেখল না তাঁর মুন্ডেশ্বরি
অ্যাাভনেরই জলে আজও সোনা।

১৭.১.২২ / ২২.৫.২২ / ২০.৪.২৩ / ২৭.৯.২৩



Tuesday, January 4, 2022

দানিশ সিদ্দিকি

শুনেছি জাইস আজকাল শুধু 
উপগ্রহে বসান ক্যামেরার লেন্স তৈরি করে 
অবশ্য নোকিয়ার দামি ভার্শনগুলোও 
ফলাও করে লেখে জাইস, 
ডিজিটালে লাইকা জাইস ব্যবহার করে কিনা 
জানি না; হ্যাসেলব্লাড হলে করত
কিন্তু সে তো এ্যানালগেই ছিল জানি

বাবার জাইস-আইকনের 
নিগেটিভগুলো রোঁয়া খাড়া করে দিত যখন
নিজের নতুন ঘরোয়া ডার্করুমের রক্তাভ আঁধারে 
এনলার্জার থেকে ডেভেলাপারে ফেলতাম প্রিন্টটা
কী অদ্ভুত সামঞ্জস্যে পুরো ফ্রেমটা ভরে উঠত 
চিয়ারোস্কুরোয়!
মরে যাওয়া বড়দি যেন ধিকিধিকি ফুটে উঠতো যৌবনে
মেটল-হাইড্রোকুইনলের রসায়নে!

অবশ্য ভালো লেন্স থাকলেই রঘু রাই হওয়া যায় না
হওয়া যায় না কিশোর পারিখ
আর হওয়া না হওয়ার বাইরেও তো অনেক টান থাকে হাওয়ায়
বাবা তো সেই হাওড়া ব্রিজ তৈরি হওয়ার আগেই
পন্টুন পেরিয়ে বাংলা ছাড়ল
সে স্টুডিও আর রইলই না

তোর কোন লেন্স ছিল জানিনা দানিশভাই!
হয়ত জাপানি ব্রান্ডগুলোরই ছিল – নিকন, ক্যানন, সোনি …সত্যি বলব?
তোর ছবিগুলো দেখেও তত জ্বলিনি ঈর্ষায়
যতটা তোর মৃত্যুর খবরে জ্বলেছি।
নাই যেতিস তুই, 
আমিই যেতাম। 
এখন তো আরো অনেক উদ্বাস্তুতে ভরে উঠবে পৃথিবী!
রক্তার্ত ধনিকদের স্বপ্নে
অক্ষাংশে দ্রাঘিমায় পিনে গাঁথা হচ্ছে সম্ভাব্য ফ্ল্যাশপয়েন্টগুলো। 

৩.৯.২১



Saturday, January 1, 2022

জনপদ-অন্ত প্রাণ

মানুষটি নিজের বা নিজ মানুষীর নিসন্তান
যৌবনযাপনে কত কিছু খোয়াল, বইল! বিয়ের
দুবছরে বোন পুড়ল আগুনে, তার হিসেব নিতে নিতেই
ভাই মরল মস্তানদের গুলিতে আর পাল্টা এফআইআরে
আদালতে, পুলিসে সাত বছর। ভাই-বৌটার, তার সন্তানের
খবর রাখা রোজ লেখাপড়া, রোজগার অপিচ
জনপদ-অন্ত প্রাণ দরজায় টোকা পড়লেই
জামাটা গলিয়ে ঠিক বেরিয়ে পড়া মিছিল ধরতে
বাজারমোড়ে। অথবা জনপদের গর্ব, পুরোনো গ্রন্থাগারটির
শতবর্ষ আয়োজনে। রেলগেট
পেরিয়ে সার-বীজের দোকানে গিয়ে বন্ধুর  
খোঁজখবর নিতে নিতেই ট্রেন ধরা আটটা-পঁয়তিরিশের,
এবং বিকেলেও, হাজির থাকা রাজধানির চৌরাস্তায় সমাবেশে;
সবচেয়ে শান্ত দৃঢ় কন্ঠস্বর হয়ে যে কোনো বৈঠকে,
এই তো, সেদিন অব্দিও।
 
বহুদিন পর কথা হল ফোনে, অনেকক্ষণ।
দুবছরের অতিমারি-কালে তার নিজের নানা অসুখেই
মৃতপ্রায় হয়ে এখন কিছুটা ফিরে আসা,
যদিও নিঃসংশয় নয় তবু খাপরার ছাতটা তো ঢালাই হয়েছে আর
রোদে পিঠ দিয়ে বসা যায়, কাগজের খবরে কিছুক্ষণ।
ফোনে তার কন্ঠস্বর ধরে যাই সে জনপদের কলস্বরে,
উন্নয়নী ধুলোয় কালো কুয়াশা ঝেড়ে গা থেকে
পুনপুন যেখানে মিশেছে গঙ্গায় এবং নতুন সেতু পেরিয়ে
রেললাইন দৌড়োচ্ছে হিলসা, ইসলামপুর।
নবাবী আমলের বিখ্যাত মেঠাই কিনি, মির্জই,
স্টেশনে ঢোকার বাঁকে, ফলসার নিচে দাঁড়িয়ে
ফলসাগুলো পাকবে, কাল আমি বা সে না থাকলেও
যাব, খুব শিগগিরই একদিন, যাব নিশ্চয়ই কমরেড!
ভাবীর হাতে খিচুড়ি খাব না, টাটকা দই মেখে?

১.১.২২





যাব কোথায়?

তুমি যে কী বুড়িয়েছ
কাল নেমন্তন্ন বাড়িতে দেখলাম
আর্কের আলোয়।
চোখ দুটো কোটরে আর ছোট্ট ছিল চিবুক।
 
এটা ঠিক যে কালও
তুমি রুজি সেরে বাড়ি হয়ে এসেছিলে আর
আমি রুজি সেরে
সংগঠন দপ্তর হয়ে, তাই
কাঁধঝোলায় উপচে ছিল প্রুফ,
                             ডাইরি, খবরকাগজ, চিঠি, সার্কুলার;
জলের বোতলটাও জন্ডিসের পর থেকে।
 
কিন্তু তোমার
বুড়োনো বলে দিচ্ছি, চলবে না।
ছাই নিয়ে, ছাতা নিয়ে খ্যাঁকাব রোজ।
কী হয়েছে কী?
শুধু এটুকু নয় যে এখনো ফোটে
তোমার গোলাপি জবা এবং
হাত বাড়িয়ে আঙুলের ডগাগুলো
ফুল করে ক্যাকটাস!

ছাই, ছাতা আর খ্যাঁকানিও
পাল্টা না পেলে যাব কোথায়?
সব পায়রাগুলো সাবগ্রিডের ছাত থেকে উড়ে যাবে।

 ২৬.৪.২০০৬/ ১.১.২২