भारत में आर्थिक नियोजन स्वतंत्रता
संग्राम के हिस्से के रूप में विचारा गया था । स्वतंत्रता संग्राम में समझौताविहीन
संघर्ष की जो धारा थी, उसी धारा पर चलते हुये नेताजी सुभाषचन्द्र बसु ने सबसे पहले,
सन 1938 के फरवरी महीने में राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अध्यक्षीय
भाषण के दौरान, स्वातंत्र्योत्तर भारत में राष्ट्रीय नियोजन की परिकल्पना, उसे
कार्यान्वित करने की जरूरत एवं इस उद्देश्य से योजना आयोग के गठन के खास महत्व की
चर्चा की थी । अपना भाषण तैयार करते हुये सुभाष ने जिन लोगों के साथ राय मशविरा
किया था उनमें थे स्वामी विवेकानन्द के भाई, भारत में समाजविज्ञान के जन्मदाता
भूपेन्द्रनाथ दत्त एवं वामपंथी लोग। उस समय राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्दर एक
वामपंथी ब्लॉक का भी गठन हुआ था ।
हरिपुरा अधिवेशन के भाषण में
राष्ट्रीय नियोजन के महत्व की चर्चा के साथ साथ सुभाष ने यह भी कहा था कि ब्रिटिश
साम्राज्यवाद के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष के द्वारा ही भारत को स्वतंत्रता अर्जित
करना होगा । इसलिये स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद देश का निर्माण करते वक्त सतर्क
रहना पड़ेगा कहीं राष्ट्रीय अर्थनीति पुन: विदेशी पूंजी पर आश्रित न हो जाय, और
इसीलिये आत्मनिर्भरता अर्जित करने को प्राथमिकता देनी होगी । आत्मनिर्भरता हासिल
करने का आधारभूत लक्ष्य होगा रोजगार में वृद्धि, गरीबी उन्मूलन एवं शिक्षा व
जनस्वास्थ्य का प्रसार । आत्मनिर्भरता एवं रोजगार को प्राथमिकता देने के कारण ही
औद्योगिक क्षेत्र में बुनियादी उद्योगों (लौह व इस्पात, कोयला, पेट्रौलजनित
सामग्रियाँ, रासायनिक द्रव्य आदि) को सरकारी मिल्कियत में रखनी होगी । उपभोग के
वस्तुओं के क्षेत्र में, खासकर मझौले एवं छोटे उद्योगों को निजी हाथों में रखा जा
सकता है एवं यहाँ रोजगार में वृद्धि के उद्देश्य से बड़े एवं मझौले उद्योगों के साथ
छोटे उद्योगों के सामंजस्य पर महत्व दिया जायेगा । कृषि पर बोलते हुये नेताजी के
इस भाषण में सर्वोच्च प्राथमिकता आमूल भूमिसुधार को दी गई थी एवं उसी के साथ सिंचाई
का प्रसार एवं उत्पादकता में वृद्धि पर जोर डाला गया था । किसानों को आसानी से
कर्ज मिले इसके लिये सहकारी बैंकिंग व्यवस्था के प्रसार पर जोर डाला गया था । साथ
ही किसान एवं खरीदार, दोनों के ही हित में फसलों की जायज कीमत पर जोर डाली गई थी ।
शिक्षा, खासकर, कारीगरी शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य के त्वरित प्रसार को महत्व दिया
गया । सुभाष के इसी भाषण में आगे राज्यों में सत्ता के विकेन्द्रीकरण एवं राज्यों
के अन्दर पंचायत व नगरपालिकाओं के माध्यम से स्वायत्तशासन की स्थापना को विशेष
प्राथमिकता दिये गये । और सबसे उपर महत्व दिया गया भारत की अखंडता, धर्मनिरपेक्षता
एवं धार्मिक भाईचारे को ।
प्राथमिकताओं
पर चर्चा के बाद इसी भाषण में कहा गया कि इन सभी प्राथमिकताओं पर काम करने के लिये
बेलगाम बाजार की व्यवस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता है; उत्पादन व वितरण
व्यवस्था को सामाजिक स्वरूप देना होगा और उसके लिये आवश्यक होगा भारतीय
विशिष्टताओं को शामिल करते हुये समाजवादी तरीके से योजना-निर्माण एवं उसका
क्रियान्वयन – समग्रता में इस नियोजन को शक्ल देने में विशेष महत्वपूर्ण भूमिका
निभायेगा योजना आयोग । (स्रोत: नेताजी सुभाषचन्द्र बसु का भाषण, 1938, पृष्ठ:
39-42, पुनर्मुद्रित, योजना आयोग, 1997)
अपने इस वक्तव्य को पेश करने के बाद
सन 1938 के अक्तूबर महीने तक सुभाष ने राष्ट्रीय राष्ट्रीय योजना कमिटी का गठन कर
लिया । जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बनाये गये तथा डा· मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक,
विश्वेश्वरैया जैसे प्रौद्योगिकी-विद्वान एवं अन्य कई विशिष्ट व्यक्ति सदस्य बनाये
गये । प्राथमिकता के क्षेत्रों को चिन्हित कर एक प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिये
समयसीमा बांध दिया गया । अगले साल (1939) राष्ट्रीय कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन
में महात्मा गांधी द्वारा मनोनीत प्रत्याशी को पराजित कर सुभाष फिर से राष्ट्रीय
कांग्रेस के अध्यक्ष बने । फलस्वरूप और अधिक त्वरित गति से वह ब्रिटिश
साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम को आगे बढ़ाने लगे एवं उसीके अंग के रूप में
राष्ट्रीय नियोजन
की तैयारी का
काम चलने लगा । उसी समय पश्चिम भारत के बड़े औद्योगिक घरानों एवं बड़े वणिकों के
तबकों की ओर से रुकावट आने लगे । उन्ही रुकावटों की अभिव्यक्ति थी कांग्रेस दल के
सर्वोच्च स्तर से जारी बयान, “सुभाष राष्ट्रीय नियोजन को लेकर ज्यादती करने
लगा है” । सुभाष पर दबाव बनाया गया जिसके चलते सुभाष कांग्रेस अध्यक्ष के पद से और
अन्तत: कांग्रेस दल से ही इस्तीफा देने को वाध्य हुये ।
उसके बाद की घटनायें – नेताजी का देश
से बाहर जाना, जापान पहुँचना, क्रांतिकारी रासबिहारी बसु की मदद से एवं
दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयों द्वारा संगृहित धन के बदले जापान की सरकार से
हथियार खरीदना,
आजाद हिन्द फौज का निर्माण, उस फौज का सन 1945 में भारत की सीमा तक आ जाना एवं
उसके जबर्दस्त प्रभाव के तौर पर भारत की नौसेना, वायुसेना व स्थलसेना में बगावत की
परिस्थिति, भारतीय जनता द्वारा उस बगावत का समर्थन एवं मुख्यत: उसी कारण से सन
1946 के फरवरी महीने में, बहुत जल्दवाजी में ब्रिटिश शासकों द्वारा सत्ता हस्तांतर
का फैसला लिया जाना (तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड ऐटली के वक्तव्य में
दिये गये तथ्यों के अनुसार) – ये सारी बातें आज तथ्यों के आधार पर प्रमाणित हैं । इसके
बाद सन 1946 में राजनीतिक घटनायें दो दिशाओं में प्रवाहित हुईं । एकतरफ
जनान्दोलनों की ज्वार (किसानों का तेभागा आन्दोलन, डाक विभाग के कर्मचारियों का
देशव्यापी हड़ताल आदि) से आन्दोलित हो उठा भारत एवं समझौताविहीन संग्राम के रास्ते
पर चल कर स्वतंत्रता अर्जित करने की संभावना भी बनी । पर दूसरी तरफ, इस संभावना को
खत्म करने के लिये ब्रिटिश शासकों की मदद लेकर देश के विभिन्न इलाकों में साम्प्रदायिक
दंगे भड़काये गये, और उसी मौके का फायदा उठा कर राजनीतिक दलों के भीतर का निहित
स्वार्थी खेमा ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ समझौता किया और देश के बँटवारे
के माध्यम से एक खन्डित भारत की स्वतंत्रता को मान लिया ।
2-
स्वतंत्रता के बाद योजना आयोग
उपरोक्त परिप्रेक्ष में स्वतंत्रता
की प्राप्ति के बाद पहले ढाई वर्षों में भारत सरकार ने योजना आयोग का गठन नहीं
किया । सिर्फ एक योजना परामर्शदात्री बोर्ड बनाकर काम चलाने की कोशिश की गई ।
नतीजा हुआ कि मंत्रालयों के कामकाज के बीच सामंजस्य का पूरा अभाव पाया गया ।
केन्द्र और राज्य सरकारों के कामकाज के बीच भी सामंजस्य का अभाव रहा । परिस्थिति
नियंत्रण के बाहर चले जाने के इस अनुभव के कारण सन 1950 में भारत सरकार ने
प्रशासनिक आदेश जारी कर योजना आयोग का गठन किया (स्रोत: भारत सरकार, मंत्रालय
सचिवालय, 1950) । इस योजना आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होने के नाते बने
जवाहरलाल नेहरू, सदस्य बने उनके मंत्रीमंडल के चार सदस्य । उसके बाद तत्काल गठन
किया गया राष्ट्रीय विकास पर्षद का भी, जिसके अध्यक्ष बने प्रधानमंत्री एवं सदस्य
बने विभिन्न मंत्रालयों के पूर्ण-मंत्री एवं सभी राज्यों के मुख्यमंत्री । कहा गया
कि पूरे देश की नैसर्गिक सम्पदा, बौद्धिक सम्पदा एवं आर्थिक सम्पदा के आकलन के
आधार पर विभिन्न क्षेत्रों की प्राथमिकताओं के अनुसार वित्त के आबंटन के प्राथमिक
प्रस्ताव की रचना योजना आयोग के कार्यों के लक्ष्य होगा । उसके उपरांत उस प्रस्ताव
का अनुमोदन करेगा राष्ट्रीय विकास पर्षद । उक्त अनुमोदन के आधार पर वित्तीय वर्ष
1950-51 से शुरू होगा अगले पाँच वर्षों के लिये योजना का क्रियान्वयन । इस हिसाब
से प्रथम पंचवार्षिक योजना की अवधि होगी 1950-55, द्वितीय पंचवार्षिक योजना की
अवधि होगी 1955-60… आदि । यहाँ पर जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि इन योजनाओं को
रचना में, भारतीय सांख्यिकी के पिता अध्यापक प्रशान्तचन्द्र महलानवीश ने राष्ट्रीय
स्तर पर सांख्यिकी के परामर्शदात्री के रूप में विशेष महत्वपूर्ण भूमिका निभाया और
पहले दो पंचवार्षिक योजनाओं के ढाँचों का मुख्य अंश कलकत्ता स्थित इन्डियन
स्टैटिस्टिकल इन्स्टिटूट में ही तैयार किया गया । इन्हे तैयार करने में विशिष्ट
अर्थशास्त्री अध्यापक सुखमय चक्रवर्ती एवं अध्यापक अमर्त्य सेन ने भी हिस्सा लिया
था । बाद में अध्यापक सुखमय चक्रवर्ती योजन आयोग के सदस्य भी बने ।
योजना के जिस ढाँचे को अध्यापक
महलानवीश ने रचा (जो नेहरू-महलानवीश मार्ग के नाम से परिचित है) उसका बुनियादी
लक्ष्य था कि अगर भारत जैसे विकासशील देश को आत्मनिर्भर बन कर आगे बढ़ना है तो
आधारभूत उद्योगों (खास कर लोहा, इस्पात, कोयला, पेट्रोलियम आदि) को सरकारी
मालिकाने में लाना होगा ताकि निवेश बढ़ाया जा सके । उक्त ढाँचे के अनुसार उपभोग के
वस्तुओं का उत्पादन निजी क्षेत्र के मालिकाने में ही छोड़ने की बात कही गई थी ।
इसके अलावे, शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य के क्षेत्र को भी सामाजिक महत्व दिया गया ।
गौरतलब है कि इन सभी क्षेत्रों को इसी तरह प्राथमिकता देने की बात सन 1938 में
कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में अपने
भाषण में सुभाषचन्द्र ने कहा था (जिसकी चर्चा पहले की गई है) ।
योजनाबद्ध
ढंग से सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र में सरकारी निवेश पर महत्व देने के बाद देश में,
कुल निवेश सरकारी निवेश का हिस्सा कदम दर कदम बढ़ने लगा । वर्ष 1987-88 में कुल
निवेश था 81,204 करोड़ रुपयों का जिसमें 41,211 करोड़ रुपये यानि लगभग 51 प्रतिशत था
सरकारी निवेश (भारत सरकार की आर्थिक समीक्षा, सांख्यिकी परिशिष्ट, 1988-89) ।
इस सरकारी निवेश में, पहली
पंचवार्षिक योजना में महत्व दिया गया सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं को (कुल
योजना आबंटन का 22%) । दूसरी और तीसरी पंचवार्षिक योजना (1955-60, 1960-65) में,
सरकारी मालिकाने में स्थापित लोहा, इस्पात, कोयला, रासायनिक, खाद, पेट्रोलियम आदि
बुनियादी उद्योगों में निवेश को प्राथमिकता दी गई (कुल योजना आबंटन का 25%) । इसके
अलावे सभी बड़े निजी बैंक, जीवनबीमा एवं साधारणबीमा संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया
गया ।
लेकिन यहाँ जिक्र करना जरूरी है कि
राष्ट्रीय नियोजन पर अपना वक्तव्य रखत हुये सुभाषचन्द्र ने भूमिसुधार को विशेष
महत्व दिया था । वामपंथी लोग भी बार बार भूमिसुधार की जरूरत की बात कहते आये हैं ।
इसके बावजूद स्वतंत्रता की प्राप्ति के उपरांत, वर्गीय हितों के कारण शासकवर्ग
अखिल भारतीय स्तर पर भूमिसुधार की दिशा में कोई कारगर कदम उठाने में पूरी तरह असफल
रहा ।
नतीजे
के तौर पर देश के ग्रामीण इलाकों में जमीन्दार-जोतदार वर्ग (उपर का दस फिसदी
परिवार) के कब्जे में रह गया जमीन का मालिकाना, अन्यान्य सुविधायें एवं उन्ही के
माध्यम से कृषि में अर्द्ध-सामंती व्यवस्था कायम रह गई । जबकि सामान्य श्रमजीवी
किसान एवं खेतमजदूरों (ग्रामीण इलाके के लगभग 90 फिसदी परिवार) की क्रयशक्ति नें
वृद्धि वाधित हुई और सन 1976-77 में भी, ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे
ज़िन्दगी बसर कर रही आबादी का अनुपात 50% से अधिक बना रहा । इतनी बड़ी तादाद में
जनता की क्रयशक्ति नहीं बढ़ने के कारण उद्योग के आन्तरिक बाज़ार के विकास को भी
क्षति पहुँची । दूसरी ओर, उद्योगों के मालिकाने में भी विषमता बढ़ती देखी गई –
इजारेदारी जाँच कमिटी (1970-71) के प्रतिवेदन के अनुसार सत्तर के दशक में ही मात्र
20 इजारेदार औद्योगिक घराने पूरे देश की औद्योगिक पूंजी का 33% कब्जे में कर चुके
थे और यह इजारेदारी बढ़ रही थी । आन्तरिक बाज़ार नहीं बढ़ने एवं इजारेदारी बढ़ने के
कारण सामग्रिक तौर पर उद्योग का विकास क्षतिग्रस्त हुआ । दूसरी ओर आर्थिक विषमता
बढ़ने के साथ साथ देश के उच्चवर्ग विदेश से भोगविलास के सामानों का सीधा आयात बढ़ाने
लगे । साथ ही, देश में भोगविलास के सामानों के उत्पादन के लिये संबन्धित संयंत्रों
का आयात भी बढ़ने लगा । इन कारणों से, देश का कुल आयात बढ़ गया । जबकि, उपर में
चर्चा किये गये कारणों से देश में उत्पादन में वृद्धि की गति धीमी रही और फलस्वरूप
निर्यात नहीं बढ़ा । निर्यात नहीं बढ़ने के कारण आयात और निर्यात में फासला यानि
विदेशी व्यापार में घाटा लगातार बढ़ते हुये देश की अर्थनीति के लिये जोखिम पैदा
करने लगा । इस परिप्रेक्ष्य में, देश के भीतर ही आर्थिक नीति में बदलाव (भोगविलास
के वस्तुओं के आयात पर नियंत्रण आदि) नहीं लाकर और शासकवर्ग के हित में, देश के
संसद में कोई चर्चा किये बिना वर्ष 1991 में भारत सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा
कोष से ॠण लिया और ॠण के शर्त के तौर पर आसानी से तथाकथित उदारनीति को कबूल कर
लिया । तथाकथित उदारनीति को कबूल करने के बाद योजना आयोग की क्या हालत बनी और हाल
में भाजपा के नेतृत्व में मौजुदा केन्द्रीय सरकार किस तरह के हमले चला कर योजना
आयोग को ध्वस्त कर रही है इस चर्चा में अब प्रवेश किया जायेगा ।
3-
उदारीकरण की नीति के बाद योजना आयोग
उदारीकरण की नीति के तहत यह कहा जाने
लगा कि देश के सभी महत्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक मुद्दों को बाज़ार की व्यवस्था पर
छोड़ देना चाहिये एवं सरकार की कल्याणकारी भूमिका को कम किया जाना चाहिये । चूंकि
बाज़ार का संचालन वही करते हैं जिनकी आर्थिक ताकत सर्वाधिक है अत: इस नीति में कहा
गया कि पूरी अर्थव्यवस्था की जिम्मेदारी क्रमश: छोड़ देनी होगी पहले देश के बड़े
पूंजीपति घरानों के हाथों और फिर और भी ज्यादा ताकतवर बहुराष्ट्रीय निगमों के
हाथों; साथ ही सर्वाधिक मुनाफा कमाने की उनकी प्रवृत्ति को भी मान लेनी होगी ।
इसी उदारीकरण की नीति के चलते
आयातशुल्क व तमाम परिमाणात्मक बाधायें तेजी से कम की गई । फलस्वरूप विदेश से आयात
और वड़े पैमाने पर बढ़ने लगा । लेकिन हमारे निर्यातों के लिये पूंजिवादी दुनिया के
धनी देशों के दरवाजे नहीं खुले । इसलिये आयात एवं निर्यात में जो फासला था (समस्या
की शुरूआत जिस कारण से हुई, पहले जिस पर चर्चा हो चुका है) वह और बढ़ने लगा । वर्ष
1991-92 में आयात व निर्यात में फासला था 3,800 करोड़ रुपयों का । वर्ष 2013-14 आते
आते उसमें 20 गुना वृद्धि हुई –
फासला हो गया 8,26,000 करोड़ रुपयों का (स्रोत : आर्थिक समीक्षा, भारत सरकार,
2013-14) । यानि उदारीकरण की नीति के कारण हमारे देश में उत्पादित मालों, खास कर
औद्योगिक मालों का बाज़ार खोता चला गया, उद्योग बीमार पड़ गये । पिछले आर्थिक वर्ष
में हमारे देश के औद्योगिक विकास में वृद्धि की दर नकारात्मक रही (0·4%) । और इसी
कारण से शहरी और अर्द्धशहरी इलाकों में बेरोजगारी बढ़ी ।
फिर, इसी उदारीकरण की
नीति के कारण कृषि के क्षेत्र में भी केन्द्रीय सरकार ने अपनी कल्याणकारी भूमिका
को कम किया है । जहाँ पहले पंचवार्षिक योजना में केन्द्रीय योजना-बजट का 22%
सिँचाई व बाढ़ नियंत्रण के लिये आबंटित किया गया था वह आबंटन अब 2% पर उतर आया है
(स्रोत : केन्द्रीय बजट, 2014-15) । फलस्वरूप देश की कुल कृषिभूमि में सिंचित-भूमि
का अनुपात अभी भी पचास प्रतिशत से नीचे रह गया है । उदारीकरण की नीति के तहत भारत
सरकार ने अपने सभी महत्वपूर्ण खाद कारखानों (झाड़खन्ड में सिन्ध्री का खाद कारखाना,
इस राज्य में हलदिया व दुर्गापुर का खाद कारखाना आदि) को बन्द कर दिया है एवं खाद
की आपुर्त्ति के मामले में हमें निजी संस्थाओं एवं विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों पर
आश्रित बना दिया है ; उन्होने भी मौका देख कर रासायनिक खाद का दाम तेजी से बढ़ा
दिया है । कृषि में उत्पादन का खर्च बढ़ा है लेकिन किसानों को उनके पैदा किये गये
फसलों का उचित दाम नहीं मिला । नतीजे के तौर पर कृषि उत्पादन में भी धीमापन आया है
और ग्रामीण इलाकों में भी बेरोजगारी बढ़ी है ।
आम किसानों को फसल का उचित दाम नहीं मिला,
फिर भी बड़े व्यापारियों के इजारेदारी के कारण क्रेताओं पर महंगाई का बोझ बढ़ता ही
जा रहा है । यह सबको मालूम है, यह भी मालूम है कि सार्वजनिक जनवितरण प्रणाली के
माध्यम से जवाबी प्रतिस्पर्धा का सृजन करके ही केन्द्रीय सरकार महंगाई रोकने के
मामले में अपनी कल्याणकारी भूमिका निभा सकती है । पर सरकार ऐसा करने से हाथ खींचती
रही है सिर्फ वही उदारीकरण की नीति के कारण ।
इसके अलावे, बुनियादी उद्योगों
(लोहा, इस्पात, कोयला आदि) में केन्द्रीय निवेश बढ़ाने के बदले शुरू हुआ है अंधा
निजीकरण । और समग्रता में, विकासात्मक कार्यों के लिये जहाँ देश में वर्ष 1987-88
के कुल निवेश का 51% था सरकारी निवेश (जिसकी चर्चा पहले की गई है) वहाँ उदारीकरण
की नीति लागू होने के बाद वर्ष 2011-12 के कुल निवेश में सरकारी निवेश का हिस्सा
बड़े पैमाने में घटा कर 24% कर दिया गया है (भारत सरकार, आर्थिक समीक्षा 2011-12) ।
उदारीकरण की नीति के इस परिप्रेक्ष्य
में योजना आयोग की भूमिका को कम कर दिया गया है और इस कम की गई भूमिका में भी, खास
कर केन्द्रीय मंत्रालयों का योजना-आबंटन करते समय और राज्यों को योजना-सहायता
आबंटित करने के मामले में, प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की चर्चा करते हुये योजना
आयोग ने बाज़ार पर निर्भर होने के लिये बार बार जोर डाला है । फिर भी, योजना आयोग
के लिये छोड़े गये इस संकुचित परिसर में भी, राज्यों के साथ विचारविमर्श के वक्त
राज्यों का वक्तव्य, कम ही सही लेकिन सुना गया है । यहाँ जिक्र करना प्रासंगिक
होगा की मूलत: वामपंथी ताकतों एवं वामपंथी राज्य सरकारों द्वारा मुहैया किये गये
तथ्यों एवं तर्कों के दबाव के कारण ही राष्ट्रीय रोजगार गारंटी परियोजना (100
दिनों का काम), खाद्य सुरक्षा कानून एवं बालशिक्षा अधिकार कानून जैसे मुद्दों पर
आंशिक ही सही पर सहमति देनें को वाध्य हुआ है योजना आयोग । इसके अलावे सीमित परिसर
में भी, राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकें हुई है जहाँ राज्य के मुख्यमंत्री अपने
वक्तव्य रखे हैं ।
4-
मौजुदा केन्द्रीय सरकार एवं योजना आयोग पर हमला
भाजपा के नेतृत्व में मौजुदा
केन्द्रीय सरकार सत्ता में आने के बाद आर्थिक फैसलों को एवं योजना बनाने की
प्रक्रिया को आम आदमी के लिये और अधिक हानिकारक बना दिया गया है । ‘अच्छे दिन आने
वाले हैं’ के व्यापक प्रचार के बावजूद यथार्थ यही है कि रोजगार के प्रश्न की ओर से
अगर देखें तो राष्ट्रीय रोजगार गारंटी (100 दिनों का काम) परियोजना का दायरा एवं
आबंटन दोनों को कम करने की चर्चा शुरू हो गई है । सरकार के प्रस्ताव लागू हो जाने
पर वह गरीब मेहनतकश लोगों पर बुरे दिनों का निर्मम प्रहार होगा । इसी बीच देश के
श्रम कानूनों में संशोधन कर मज़दूरों के एक बड़े हिस्से के काम के समय में वृद्धि
(बिना मज़दूरी बढ़ाये हुये), कर्मचारी राज्य बीमा, भविष्य निधि आदि सुविधाओं को कम
करना एवं न्यूनतम मजदूरी के मुद्दे की अवहेलना सरीखे विभिन्न मज़दूर-विरोधी कदम
उठाये जा रहे हैं । इसके अलावे, खाद्य-सुरक्षा कानून के प्रश्न पर इस केन्द्रीय
सरकार ने एकतरफा ढंग से शान्ता कुमार (पिछले राजग सरकार में भाजपा की ओर से
खाद्यमंत्री) के नेतृत्व में एक कमिटी का गठन कर अनुशंसा कराई है जिसके तहत
खाद्य-सुरक्षा के दायरे को आबादी के सिर्फ निचले 40% तक सीमित कर दिया गया है ।
बीमा उद्योग के क्षेत्र में, हमारे राष्ट्रीयकृत उद्योगों की प्रतिबद्धता के वारे
में जानकारी के बावजूद विदेशी बीमा संस्थाओं के लिये निवेश की सीमा बढ़ाई गई है –
यह भूलकर कि हाल ही में, अपने देश के बचतकर्ताओं को धोखा देने के के कारण बड़ी
संख्या में विदेशी बीमा संस्थाओं की छवि पर कालिख लगी है । रक्षा के क्षेत्र में
भी, देश की सुरक्षा एवं संप्रभुता के प्रश्न पर अनिश्चितता की स्थिति पैदा कर
विदेशी निवेश को आमंत्रित किया गया है ।
इतने सारे जनविरोधी कदमों के बाद,
योजना आयोग की जो थोड़ी सी कल्याणकारी भूमिका बची थी (उदारीकरण की नीतियों के लागू
होने के बाद उसका दायरा वैसे भी संकुचित हो गया था) उसे पूरी तरह खत्म करने के
उद्देश्य से मौजूदा प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस पर अचानक वीरता दिखाते हुये
घोषित कर दिया कि योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया ! स्वतंत्रता संग्राम के
इतिहास में योजना आयोग की गौरवशाली भूमिका के बारे में या तो उन्हे जानकारी नहीं
है या वे भूल गये थे ! योजना आयोग को खत्म कर नीति (जो अंग्रेजी ‘नैशनल
इन्स्टिच्युट फॉर ट्रान्सफॉर्मिंग इन्डिया’ यानि NITI से लिया गया है) आयोग के
नाम से एक संस्था का सृजन किया गया है । प्रधानमंत्री खुद उसके अध्यक्ष हैं ।
सदस्य के तौर पर मनोनीत किये गये हैं चार केन्द्रीय मंत्री एवं पूरावक्ती या आंशिक
समय के लिये कुछ दक्षिणपंथी विशेषज्ञ । इस नीति आयोग के साथ जोड़ा गया है एक परिषद
जिसके अध्यक्ष हैं प्रधानमंत्री एवं सदस्य हैं राज्य के मुख्यमंत्रीगण (स्रोत :
भारत सरकार की अधिसूचना, 1 जनवरी 2015) ।
गौरतलब है कि मुख्यमंत्रियों को लेकर
गठित राष्ट्रीय विकास परिषद पहले भी था । लेकिन जो अलग है इस बार एवं चिन्ता की
बात है कि यह नीति आयोग नाम का संस्था देश के ‘कायापलट’ (?) के लिये सिर्फ सामान्य
परामर्श देगा । उस ‘कायापलट’ के लिये धन का संग्रह कैसे होगा, किस तरह उस धन का
बँटवारा होगा राज्यों के बीच एवं केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों के बीच, इस पर उस
नीति आयोग को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है । वह अधिकार होगा सिर्फ प्रधानमंत्री
एवं उनके मनोनीत वित्तमंत्री का, यानि व्यवहारिक तौर पर सारा अधिकार केन्द्रित
होगा प्रधानमंत्री के हाथों में । इसके फलस्वरूप केन्द्र एवं राज्यों के बीच तथा
केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों के बीच सामंजस्य बनाने में वैसी ही भयानक समस्या
देखी जायेगी जैसी देखी गई थी स्वतंत्रता के बाद ढाई वर्षों तक, जब योजना आयोग का
गठन नहीं हुआ था (इसका जिक्र पहले किया गया है) । सिर्फ वही नहीं, नीति आयोग
स्थापित करने वाला कदम केन्द्रीय सरकार के अपने अन्दर ही गणतंत्र पर कुठाराघात
होगा । जब एक केन्द्रीय सरकार धूर दक्षिणपंथी एवं जनविरोधी नीति अपनाता है तब वह
पहले बाहर के जनतंत्र पर चोट करता है (संसद में बार बार अध्यादेश लाने के माध्यम
से जो अभिव्यक्त हुआ) एवं उसके बाद अपने आन्तरिक जनतंत्र को भी विसर्जित करता है ।
नीति आयोग उसी का उदाहरण है ।
योजना आयोग के इतिहास की समीक्षा
करते वक्त हमने गौर किया कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ समझौताविहीन संग्राम के
हिस्से के रूप में योजना आयोग की बात जब वर्ष 1938 में नेताजी सुभाषचन्द्र बसु ने
कहा था, एवं राष्ट्रीय योजना कमिटी गठित कर आगे बढ़ने का प्रयास किया था तब
जबर्दस्त वाधायें खड़ी की गई थी पश्चिम भारत के बड़े औद्योगिक एवं व्यापारिक घरानों
की ओर से । इस बार भी योजना आयोग को ध्वस्त करने के पीछे वही पश्चिम भारत के बड़े
औद्योगिक व वणिक गुटों का हाथ रहा एवं यह काम दिल्ली में उनके वर्गीय प्रतिनिधियों
ने साम्राज्यवादियों के साथ समझौता कर तथा उनके द्वारा प्रायोजित उदारीकरण की नीति
के साथ हाथ मिलाकर किया ।
[साभार: गणशक्ति, बांग्ला दैनिक]
हिन्दी अनुवाद: लोकलहर में प्रकाशित
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