[गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ये सात कवितायें उनके काव्यग्रन्थ ‘पुनश्च’ से ली गई है।
‘पुनश्च’ की सभी कविताओं का रचनाकाल है अंग्रेजी वर्ष 1932 (श्रावण-भाद्र)।]
प्लैटिनम की अंगूठी में जैसे हीरा जड़ा हो।
कोपाई
दूर आसमान के नीचे
कहाँ चली है पद्मा,
मन ही मन देखता हूँ उसे।
एक ओर रेत का तट,
निडर, क्योंकि नि:स्व,
निरासक्त –
दूसरी ओर बाँस का झुरमुट, आम का बगीचा,
पुराना बरगद, उजड़ा हुआ बसेरा,
बहुत दिनों का मोटा तना लिये कटहल का पेड़ –
पोखर किनारे सरसों का खेत,
रास्ते से सटा बेँत का जंगल,
डेढ़ सौ साल पहले की नीलहे कोठी की टूटी भीत,
उसके बगीचे के उँचे झाऊ के पेड़ों में मर्मरध्वनि
दिनरात।
वहीं है राजवंशियों का टोला,
दरार पड़े खेतों में उनकी बकरियाँ चरती हैं,
हाट के करीब टीन के छतों वाला कस्बा –
पूरा गाँव निर्मम नदी के डर से काँपता हुआ।
पुराणों में ख्यात है उस नदी का नाम,
मन्दाकिनी का प्रवाह उसकी नाड़ी में है।
स्वतंत्र है वह्। जनपदों के बगल से गुज़र जाती है,
बस सहती है उन्हे, स्वीकारती नहीं।
विशुद्ध अभिजात उसके छन्द में
एक तरफ निर्जन पर्वतों की स्मृति और दूसरी तरफ
नि:संग समुद्र का आह्वान।
एक दिन था मै, उसी नदी के किनारे, घाट पर
निराले में, सबों से बहुत दूर्।
सुबह के तारे को देखकर जगा करता था
सोया करता था रात में,
नाव की छत पर,
सप्तर्षि के नज़रों के सामने।
मेरे नि:संग दिन और रात के ढेरों चिन्तन के किनारे किनारे
बहती गई है उसकी धारा –
जिस तरह गुजरता है पथिक
गृहस्थ के सुखदुख के निकट से
फिर भी दूर से।
उसके बाद, यौवन के अन्त में आया हूँ मैं,
तरुविरल इस मैदान की छोर पर।
छायादार संथाल टोले का हरितपुंज
ज़रा सी दूरी पर दिखता है।
यहाँ मेरी पड़ोसन है कोपाई नदी।
प्राचीन गोत्र की गरिमा हासिल नहीं उसे।
उसका अनार्य नाम
कब कब के संथाल औरतों की हास्यमुखर
बोली-ठिठोलियों से जुड़ा है।
गाँव से गले लगती है वह,
कोई विरोध नहीं स्थल और जल में।
आसानी से उसके इस पार के साथ
उस पार की बात होती है।
उसके तन से बिल्कुल सटते हुये
फूल खिले हैं पटसन के खेत में,
उग चले हैं नन्हे धान के पौधे।
रास्ता जहाँ तट पर आकर
थमा है, वहाँ कलकल स्फटिकस्वच्छ धार पर
राह छोड़ देती है वह राहगीर के लिये।
ज़रा सी दूरी पर, मैदान में
ताड़ के पेड़ खड़े हैं,
तट पर घने सटे हैं आम, जामुन और आँवला।
उसकी भाषा टोले मुहल्ले की भाषा है –
उसे साधुभाषा नहीं कही जाती।
जल और स्थल बँध गया है उसके छन्द में
तरल और श्यामल में कोई होड़ नहीं
एक दूसरे को नीचा दिखाने की।
छरहरा सा उसका तन
रोशनी और साये में मोड़ लेते हुये
सहज नृत्य में ताली बजाते हुये गुजरता है।
बारिश उसके अंग अंग में लाती है बावलापन
महुआ के नशे में धुत्त गाँव की छोरी की तरह –
वह तोड़ती नहीं, डुबाती नहीं,
घुमा घुमा कर भँवरों का घागरा
दोनों तटों को धकेलते हुये
दौड़ती जाती है ठहाकों के साथ।
शरद के अन्त में पारदर्शी हो आता है पानी,
क्षीण होती है उसकी धार,
तलहट का रेत दिखता है,
तब भी कहाँ लजाती है वह
शीर्ण समारोह के फीकेपन से?
न उसका वैभव उद्धत है, न उसका दैन्य है म्लान;
दोनों ही शोभा है उसकी –
जैसे नटी की, जब वह नाचती है अलंकारों की झंकार उठाते हुये
और जब क्लान्त होकर वह बैठी होती है चुपचाप,
आँखों की दृष्टि में आलस्य,
होठों के किनारे हल्की मुस्कान की आभास।
कोपाई ने आज कावि के छन्द को अपना साथी बना लिया
उस छन्द का समझौता हो गया भाषा के स्थल और जल में –
जहाँ भाषा के गीत और जहाँ भाषा की घरगृहस्थी।
उसके टूटे ताल पर पैदल चलेगा
धनुष हाथ में लिये संथाल लड़का;
पार हो जायेगा बैल गाड़ी
गठरी पर गठरी पुआल का अम्बार लिये;
हाट पर जायेगा कुम्हार
बाँक पर हाँड़ी लेकर;
पीछे पीछे जायेगा कुत्ता गाँव का;
और जायेंगे, माथे पर फटा छाता तानकर
तीन रुपयों के माहवारी वेतन पाने वाले गुरुजी।
सुन्दर
प्लैटिनम की अंगूठी में जैसे हीरा जड़ा हो।
आकाश के सीमाओं को घेरते हुये बादल,
बीच की दरार से धूप आ रही है मैदान पर।
तेज़ बह रही है हवा,
पपीते के पेड़ों में गोया आतंक समा गया हो,
विद्रोह में जुट गये हैं उत्तरी मैदान के नीम के पेड़,
डाँट-फटकार चल रही है ताड़ के पेड़ों की चोटियों पर।
दिन के ढाई बज रहे हैं।
भीगे जंगल की चमकती दोपहरी
उत्तर दक्षिण की खिड़की से प्रवेश कर
भर लिया है मेरा पूरा मन।
पता नहीं क्यों यह दिन
दूर अतीत के किसी और दिन का एहसास दिलाता है।
ऐसा दिन किसी दायित्व को नहीं स्वीकारता,
कुछ भी जरूरी नहीं इसके लिये –
वर्तमान का लंगर तोड़कर बह जाता हुआ, है यह दिन।
जिस अतीत की मृगमरिचिका के रूप में इसे देख रहा हूँ,
क्या वह अतीत किसी समय का, किसी जगह का था,
क्या वह श्वाश्वतयुग का ही अतीत नहीं!
प्रेयसी ज्यों लगती है मेरी, जन्मान्तर की परिचित –
जिस काल में स्वर्ग है, सत्ययुग है
जो काल सभी काल के पहुँच से बाहर है।
उसी तरह यह जो सोना पन्ना छाया व रोशनी से गूंथा गया,
अवकाश के नशे से अलसाया आषाढ़ का दिन है,
विह्वल पड़ा है मैदान में अपनी ओढ़नी फैलाकर,
इसका माधुर्य भी, लगता है, है फिर भी नहीं,
यह आलाप है गौड़सारंग का, आकाशवीणा में,
जो आलाप सभी काल के नेपथ्य से आ रहा है।
कोमल गांधार
नाम रखा हूँ कोमल गांधार
मन ही मन।
अगर उसके कानों तक पहुँचता तो बैठी रहती अवाक होकर,
हँसकर पूछती, “मतलब क्या है”।
जो समझ में न आये वही मतलब है सच्चा।
कामकाज है दुनिया में
भले बुरे बहुत किस्म की बातें हैं –
उन्ही सरोकारों के बीच लगभग सभी के साथ जानपहचान है उसकी।
पास बैठकर देखता हूँ
कैसा एक सुर बिखेरा है उसने अपनी चारों ओर।
खुद को वह खुद नहीं जानती।
जहाँ उसके अन्तर्यामी का आसन बिछा है
वहीं उनके चरणों के पास
न जाने किस व्यथा के सुगंधित धूप का पात्र रखा है।
वहाँ से धुँआ का आभास आँखों पर,
चाँद पर बादल की तरह फैलता है –
थोड़ी सी ढँक जाती है उसकी हँसी।
कैसी करुणा धुंधलाती है उसके गले की आवाज को!
वह जानती भी नहीं
कि उसके जीवन का तानपूरा उसी सुर में बँधा है!
चलने में, बैठने में, सभी कामों में
क्यों सिर्फ भैरवी का ही तान उठता है
ढूँढ़ नहीं पाता हूँ इसका उत्तर।
इसीलिये तो उसका नाम मैंने
दिया है कोमल गांधार –
समझ में नहीं आता कि जब आँखें उठती है उसकी,
सीने में क्यों लगती है इस कदर
आँसुओं की भीड़।
स्मृति
पश्चिम का शहर।
उसी के दूर छोर की निर्जनता में
दिन का ताप रोके हुये है उपेक्षित एक मकान,
चारों तरफ का छत झुक गया है।
अन्दर के कमरों में श्वाश्वतकाल की छाया औंधी पड़ी है
और एक गंध है,
हमेशा के लिये बन्द पुरानेपन का।
फर्श पर बिछी पीली जाजिम
जिसके किनारों पर काढ़े गये हैं
बन्दूक लिये बाघ मारने वाले शिकारी।
उत्तर की ओर, शीशम के नीचे से होकर चला है
सफेद मिट्टी का रास्ता, उड़ रही है धूल
कड़ी धूप के तन पर हल्की ओढ़नी की तरह।
सामने की रेती पर गेँहु, रहड़, फूट, तरबूजे के खेत,
दूर में झिलमिला रही है गंगा,
जहाँ तहाँ
रस्सी से खींचे जा रहे हैं नाव, मानो तस्वीर हो
स्याही से उकेरी गई।
बरामदे में, चांदी का कंगन पहने भजिया
जाँते में गेँहु पीस रही है
गा रही है एकरस,
दरवान गिरधारी बहुत देर से उसके पास
पता नहीं किस बहाने बैठा है।
बूढ़े नीम के पेड़ के नीचे है कुँआ,
बैल से खींचवा कर पानी उठा रहा है माली,
उसकी चिँचियाती आवाज से करुण है दोपहर
और पानी की धार से चंचल है मकई का खेत।
गर्म हवा के साथ अस्पष्ट सा महक आ रहा है आम के बौर का,
खबर आ रही है कि महानीम के मंजरों में
मधुमक्खियों का मेला लगा है।
अपराह्न में शहर से आती है एक प्रवासी लड़की
गर्मी से दुबलाया हुआ, फीका, मुरझाया होता है उसका चेहरा
धीमी आवाज में पढ़ा जाती है वह विदेशी कवि की कविता।
नीले, जराजीर्ण चिक की छाया से जालीदार
धुंधली रोशनी में
भीगे खस की महक में
घुलती है व्यथा सागरपार के मानवहृदय की।
मेरा नया यौवन ढूंढ़ता है विदेशी भाषा में,
अपनी भाषा।
जिस तरह विलायती, मौसमी फूलों की क्यारियों में,
अनेक रंगों की भीड़ में
घूमती है तितली।
कीड़ों की दुनिया
एक तरफ कामिनी की शाखों पर
ओस का झालर गिराई है मकड़ी
और एक तरफ बगीचे में
लाल मिट्टी के बुरादे फैलाते हुये
हैं चिँटियों के घर।
इन्ही के बीच से आना जाना
सुबह शाम।
अनमना देखता हूँ
कली खिली है हरसिंगार में
फूलों से लद गया है टगर।
महाविश्व में आदमी की दुनिया
देखने में है छोटी
पर छोटी है तो नहीं।
उसी तरह है इन कीड़ों की दुनिया।
ठीक से दिखतीं नहीं
पर पूरी सृष्टि के केन्द्र में हैं वे।
कितने युगों से, ढेर सारी चिन्तायें उनकी,
ढेर सारी समस्यायें, ढेर सारी ज़रूरतें –
एक दीर्घ इतिहास।
दिन पर दिन, रात पर रात
जारी है दुर्जय प्राणशक्ति का आग्रह।
इन्ही के बीच से आना जाना रोज का,
फिर भी नहीं सुनता हूँ ध्वनि, चिरप्रवाहित
उनके चैतन्यधारा की,
उनके भूखप्यास, उनके जन्म व मृत्यु की।
गुनगुनाते हुये ढूंढ़ते रहता हूँ
आधे गीत का जोड़ –
बाकी आधा पद;
इस अकारण, अजीब तलाश का कोई अर्थ नहीं
उन मकड़ियों के जगतसंसार में,
उन चिंटियों के समाज में।
उनके नि:शब्द निखिल में अभी ही उठ रही हो शायद
सुर, छुवन दर छुवन
संगीत, सूंघ दर सूंघ
अनसुना आलाप, जुबान दर जुबान
और अव्यक्त वेदना, चलन दर चलन।
आदमी हूँ मैं,
मन में जानता हूँ पूरे विश्व में है मेरा प्रवेश,
ग्रह नक्षत्र एवं धूमकेतुओं में
मेरी वाधायें खुलती जाती है।
लेकिन
सुखदुख से उफनती मेरी दुनिया के करीब
उन मकड़ियों की दुनिया मेरे लिये
बन्द रही हमेशा,
उन चिंटियों का अन्त:स्थल
ओझल रहा मेरे लिये।
उनकी बहुत छोटी सी असीम के बाहर वाले रास्ते पर
आता जाता हूँ सुबह शाम,
देखता हूँ
कली खिल रही है हरसिंगार की,
फूलों से लद गया है टगर का पेड़।
सहयात्री
ऐसे लोगों का क्या अभाव दुनिया में जो रूपवान न हों –
यह आदमी उससे भी अधिक
वल्कि विचित्र है।
माथा सामने की ओर बेतरतीब गंजा,
फुरफुर बाल कहीं काला कहीं सफेद।
छोटी छोटी दो आँखें जिन पर रोआँ नहीं,
भौंहें सिकोड़कर कुछ देखते रहता है ध्यान से
जैसे आवारगी हो आँखों की, उसकी नज़र।
जितनी उँची उतनी ही चौड़ी है नाक,
पूरे चेहरे का बारह आना हिस्सेदार।
बड़ा सा ललाट,
जिसके उत्तर दिगन्त पर बाल नहीं और दक्षिण दिगन्त पर भौं नहीं।
मूंछें और दाढ़ी साफ, चेहरा
जैसे अनावृत कर रही हो विधाता के
शिल्परचना की लापरवाही।
कहीं नजरों से ओझल आलपिन पड़ा है मेज़ के कोने में,
उठाकर अपनी कमीज में चुभाये रखता है,
देखकर मुँह फेर, मुस्कुराती है जहाज की लड़कियाँ;
फीते का टुकड़ा जिससे बँधा था पार्सल
वह जुटाता है फर्श पर से, लपेट लपेट कर गिरह लगाता है उसमें;
फेंका गया अखवार
तह कर रखता है मेज़ पर।
आहार में अति सतर्क,
जेब में हाज्में का चुरन रहता है,
भोजन पर बैठते ही खाता है पानी मिलाकर
भोजन के अन्त में खाता है हाज्मे की गोली।
बोलता है कम,
बातेँ फँस जाती हैं,
जो बोलता है बुड़बक की तरह लगता है।
जब कोई पॉलिटिक्स करता है उसके साथ
खामोश रहता है वह,
कुछ समझा या नहीं, नहीं आती है समझ में।
एक साथ सात दिन एक जहाज पर हम चले हैं।
बेवजह सब झुंझलाये हुये हैं उससे।
उसे व्यंग कर तस्वीरें बनाते हैं
उन तस्वीरों को लेकर हँसी चलती है आपस में।
लगातार बढ़ रही है उसके नाम से अतिशयोक्तियाँ,
रोज ब रोज बातों बातों में सब उसे रच रहे हैं।
विधि की रचना में रह जाता है खालीपन
कहीं कहीं
रहता है अव्यक्त।
ये लोग दिन प्रतिदिन के कूड़े से
भरते हैं अपनी रचना,
इन्हे विश्वास होता है कि इससे चेहरा
खालिस सच्चाई की तरह बनता है।
सब ने तय कर रखा है कि वह दलाल है,
कोई कहता है मझला मैनेजर है रबर की कोठी का।
अपने अपने अटकलों को लेकर बाजी लग रही है।
पहले से ही उसे इस बात की आदत पर चुकी है
कि लोग बचकर चलते हैं उससे।
चुरुट पीने के कमरे में जुआ खेलते हैं यात्री,
वह भी उनसे हटकर चलता है,
वे लोग उसे गाली देते हैं मन ही मन,
कहते हैं कंजूस, छोटा आदमी।
वह घुलता मिलता है चटगाँव के खलासिओं के साथ
, खलासी बतियाते हैं अपनी बोली में,
पता नहीं वह कौन सी बोली बोलता है,
डच हो शायद।
सुबह रबड़ की नली उठाकर डेक धोते हैं वे
वह कूदता फाँदता है उनके बीच जाकर,
वे हँसते हैं।
उनमें था कम उम्र का एक लड़का
साँवला रंग, काली आँखें, झब्बर बाल,
छरहरा डौल –
वह उसे ला देता है सेव, नारंगी
दिखाता है तस्वीरों वाली किताब।
यात्री क्रोधित होते हैं योरप की मानहानि से।
जहाज आया सिंगापुर।
खलासियों को बुलाकर वह उन्हे सिगरेट दिया।
दस दस रुपये का नोट दिया सभी को।
लड़के को दिया उसने सोने से मढ़ी हुई एक छड़ी।
कप्तान से विदा लेकर
तड़तड़ उतर गया घाट पर।
तब उसका असली नाम जान पाये लोग;
जो ताश खेलते थे चुरुट पीने वाले कमरे में,
‘हाय हाय’ कर उठा उनका दिल।
वह लड़का
लड़के की उम्र होगी
दस साल कमोबेश,
पराये घर में पला है।
जिस तरह खरपतवार, टूटे बाड़े के किनारे
उग आता है –
माली का ध्यान नहीं,
है रोशनी हवा बारिश,
कीड़े-मकोड़े, धूल-गन्दगी,
कभी बकरी चर जाती है,
कभी कुचल देती है गाय;
फिर भी मरना नहीं चाहते वे, हो उठते हैं सख्त,
मोटे होते हैं डन्ठल,
हरे चिकने होते हैं पत्ते।
लड़के की हड्डी टूटती है
बेर तोड़ने में, पेड़ से गिरकर,
जंगली जहरीला फल खाकर उसे चक्कर आता है,
रथयात्रा देखने निकलता है
तो कहीं जाने में चला जाता है कहीं और,
कुछ नहीं होता है उसे किसी भी तरह –
अधमरा होकर भी जी उठता है,
भुलाकर वापस आ जाता है कीचड़ में लिपटा, कपड़े फटे हुये;
मार खाता है बेधड़क,
गाली सुनता है बेशुमार,
छूटने पर फिर लगाता है दौड़।
मरी नदी के मोड़ पर जल में खूब उगे हैं सेवार,
बगूले खड़े रहते हैं किनारे,
बैठा है कौवा
बैंची के पेड़ की डाल पर,
आसमान में उड़ते हैं शंखचील,
बड़े बड़े बाँस रोपकर जाल डाला है मछुआरे ने।
बाँस की फुनगी पर बैठी है मछलौंगा,
बत्तख डुबकी लगा लगा कर चुनते हैं घोंघे।
दोपहर की बेला है।
लोभ होता है पानी का झिलमिल देखकर;
नीचे पत्ते फैलाकर हिलती रहती है काई,
मछलियाँ खेलती हैं।
और नीचे? है क्या नागकन्या?
सोने की कंघी से सँवारती है लम्बे केश?
पानी के लहरों में टेढ़ीमेढ़ी
छाया है उन केशों की!
लड़के पर चढ़ा फितुर कि वहीं लगायेगा डुबकी,
साँप के चिकने तन की तरह
हरित स्वच्छ पानी में।
हर बात में यही लोभ जगता है उसमें
कि, ‘जरा देख ही लिया जाय’।
डुबकी लगाया, लिपट गया सेवार में –
चीखते, घुँटते, दम लेते
चला गया पानी के नीचे।
किनारे गाय चरा रहा था चरवाहा,
मछियारों का डोंगी लेकर, खींचकर उसे निकाला;
सुध जा चुका था शरीर से।
उसके बाद बहुत दिनों तक उसे याद आती रही
किस तरह आँखों में दिखती है मौत –
अंधेरा छा जाता है,
बचपन में खोये हुये माँ की तस्वीर जगती है मन में…
खो जाता है होश।
बहुत मजेदार है यह बड़ी सी बात
कि किस तरह मरा जाता है।
अपने यार को ललचाते हुये वह कहता है,
“एकबार देख न डूबकर यार!
कमर में रस्सी बाँध ले, फिर खींचकर निकाल लूंगा!”
बहुत इच्छा होती है जानने की
कि कैसा महसूस होगा उसे।
यार राजी नहीं होता तो गुस्से से कहता है,
“डरपोक! डरपोक कहीं का!”
बख्शी परिवार का फल का बगीचा है,
उसमें छुप जाता है पशुओं की तरह्।
मार खाता है खूब,
जामुन खाता है उससे कहीं अधिक।
घर के लोग कहते हैं, “शर्म नहीं आती, बानरजात?”
काहे का शर्म।
बख्शी का लंगड़ा बेटा तो डन्डे मार मार कर तोड़ता है फल,
टोकरी भर कर ले जाता है,
डाल टूट जाता है पेड़ का,
कुचला जाता है फल –
उसे शर्म नहीं आती?
एक दिन पकड़ाशी परिवार के मझले बेटे ने
शीशा लगे एक चोंगा दिखाकर उससे कहा,
“देख अन्दर झाँक कर!”
उसने देखा सजाया हुआ है बहुत सारा रंग,
बस हिलाने से ले लेता है नया नया रूप।
कहा, “दे न यार मुझे!
तुझे दूंगा मेरी घिसी हुई सीप,
कच्चे आम का छिलका छुड़ायेगा मज़े से,
और दूंगा आम के गुठली का भोंपु।”
नहीं मिला उसे।
सो चुराकर लाना पड़ा।
लोभ नहीं है उसमें,
कुछ रखना नहीं चाहता है, सिर्फ देखना चाहता है
क्या है अन्दर।
कान ऐंठते हुये खोदनभैया ने पूछा,
“चोरी क्यों की तूने?”
कुलक्षण ने पलटकर सवाल किया,
“दिया क्यों नहीं उसने?”
जैसे चोरी का असली गुनहगार हो पकड़ाशी परिवार का बेटा।
न डर, न घिन है उसके शरीर में।
खप्प से पकड़ता है मेढ़क;
बगीचे में है खूँटा गाड़ने का एक गड्ढा,
उसी में मेढ़क को पालता है – खाने को
देता है कीड़े-मकोड़े।
कागज के बक्से में भरकर रखता है गुबरैला,
खाने को देता है गोबर की गोटी,
कोई फेंकने को जाय तो अनर्थ हो जाता है।
स्कूल जाता है पॉकेट में गिलहरी लेकर।
एक दिन एक हरहरवा साँप रख दिया
मास्टरसाहब के डेस्क में –
सोचा, ‘देखा ही जाय क्या करते हैं मास्टरसाहब!’
डेस्क खोलते ही महाशय लपक कर उठे और
दौड़ लगाई,
देखने लायक थी वह दौड़।
पाला हुआ एक कुत्ता था उसका।
कुलीन जाति की नहीं, बिल्कुल देसी।
डीलडौल मालिक की ही तरह,
बर्त्ताव भी।
भोजन जुटता नहीं था हर वक्त,
चोरी के अलावे गति नहीं थी;
उसी कुकर्म में टूटी थी उसकी चौथी टांग।
और उसी के साथ
किसी कार्यकारणसम्बन्ध के तहत
कुत्ते को सजा देने वालों के खेत का
बाड़ा गया था टूट्।
मलिक के बिस्तर के बाहर नींद नहीं आती थी कुत्ते को,
कुत्ते के बिना मालिक की भी एक ही दशा होती थी।
एक दिन पड़ोसी के घर
परोसे गये अन्न में मुँह मारने की कोशिश ने
कुत्ते का लोकान्तर कर दिया।
जिस लड़के की आँखों से
बेइन्तहा दुख में भी कभी आँसु नहीं निकले
दो दिनों तक छुप छुप कर वह रोता फिरा;
अन्नजल सुहाया नहीं मुँह में,
बख्शी के बगीचे के पके करौंचे
चुराने का भी उत्साह नहीं जगा।
उस पड़ोसी घर में एक उनका भांजा था सात साल का,
उसके सर पर बैठा आया एक टूटा हांडी।
हांडी में दबी उसके रोने की आवाज
कोल्हुमशीन की सिटी सी सुनाई पड़ी।
गृहस्थ घर में घुसते ही सब उसे दुत्कारते हैं,
सिर्फ सिधु ग्वालिन उसे बुलाकर दूध पिलाती है।
ग्वालिन का बेटा मरे सात साल हुए,
बेटे और उसकी उम्र में तीन दिनों का फर्क है।
वह भी काला-कलूठा है उस बेटे की तरह,
उसी तरह चिपटा है नाक।
लड़के की नई नई बदमाशियाँ अब इस ग्वालिन मौसी पर होती है।
कभी रस्सी काट देता है मौसी के बंधे गाय की,
कभी छुपा देता है दुध का भांड,
कभी मौसी के कपड़े पर
कत्थे का रंग लगा देता है।
यह सब वही
‘जरा देखूँ तो होता है क्या’ के जाँच हैं
विविध प्रकार के।
लहर मारता है ग्वालिन का स्नेह
लड़के के उपद्रवों से।
कोई डाँतने आये तो ग्वालिन
लड़के का ही पक्ष लेती है।
अम्बिका मास्टर अपना दुखड़ा रख गये मेरे पास,
“शिशुपाठ में आपकी कवितायें पढ़ने में उसका
मन ही नहीं लगता, ऐसा भूसा-दिमाग है।
शैतानी में पन्ने काट कर रख देता है,
बोलता है चुहे ने काट लिया।
ऐसा बन्दर है!”
मैने कहा, “है मेरी ही गलती,
रहता वह अपनी ही दुनिया का कवि,
गुबरैला कीड़ा तब इतना स्पष्ट होता उसके छन्द में
कि वह छोड़ नहीं पाता।
कभी मैं लिख भी पाया हूँ क्या मेढ़क की सच्चाई,
और उस देसी कुत्ते की त्रासदी?”
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