वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता एवं मेहनतकशों के क्रांतिकारी नेताओं के बारे में भ्रांतियाँ फैलाया जाना आम बात है। पूंजीवादी शासनतंत्र एवं उसका सांस्कृतिक उद्योग उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही जुटा रहा है इस काम में कि भ्रांतियाँ उपजती रहे एवं वर्ग संघर्ष के कतारों के कमजोर हिस्सों पर अपना असर डालती रहे।
स्टालिन तो उनके हिसाब
से साक्षात राक्षस ही हैं।
लेनिन की जिन्दगी के ‘कई अनछुए पहलुओं’ को सिर्फ पूंजीवादी रचनाकार, फिल्मकार एवं ‘मनोवैज्ञानिक’
ही देख पाते हैं, और निरपवाद रूप से उन पहलूओं में उनके व्यक्तिगत जीवन के विकृत चित्रण
के अलावा कुछ भी नहीं होता है। सोवियत क्रांति के दिनों में उनका भी राक्षसनुमा चेहरा
दिखता थेए पूंजीवादी अखबारों के व्यंगचित्रों में। मार्क्स भी घुंघराले बाल-दाढ़ी के
साथ बस लंकेश्वर ही हैं उनके लिये। एंगेल्स उनकी निगाह में भले आदमी थे, पूंजीपति के
बेटा थे जो मित्र के झाँसे में आकर बर्बाद हो गए।
इस तरह की चारित्रिक
लांछनों से पूर्ण भ्रांतियों के फैलने से अधिक क्षति नहीं होती। शोषकों द्वारा दिये
गये गालियों और फैलाये गये अफवाहों का आमतौर पर विपरीत संकेत जाता है शोषितों के दिलदिमाग
में – गाली दिये जा रहे व्यक्तियों की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। और फिर आजकल तो कुछ
ही दिनों में, कुत्सा फैलानेवाले बुद्धिजीवियों को मिलने वाले पैसों का स्रोत एवं उनकी
व्यक्तिगत कुंठायें भी सामने चले आते हैं।
अधिक क्षति
होती है जब मेहनतकशों के क्रांतिकारी किसी नेता की तारीफ के कसीदे काढ़ने लगता है पूंजीवाद।
पूंजीवादी अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री एवं भांति-भांति के बुद्धिजीवी उनके रचनाओं के
हिस्से अपने तात्विक विवेचनों में उद्धृत करने लगते हैं। हाई प्रोफाइल मानवतावादी एवं
कई किस्म के टुटपूंजिये – साम्राज्यवाद की चाकरी कर रहे लोग – गाहे-बगाहे उनके नारों
का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं। किताबों के उत्सर्ग-पत्र पर जगह पाने लगती हैं उनकी
सूक्तियाँ।
कुछ ऐसा ही
हुआ है माओ-त्से-तुंग के साथ। चीनी क्रांति के विभिन्न चरणों में माओ द्वारा दिये गये
(वह भी अधिकांशत: सांगठनिक) नारे, प्रासंगिकता की पहचान किये बगैर अक्सर इस्तेमाल होते
रहते हैं। ‘सौ फूलों को खिलने दो’, ‘मुख्यालय पर तोप दागो’, गाँवों से शहरों को घेरो’,
‘बन्दूक की नली ही सत्ता का उद्गम है’ … आदि।
फिर आती है
‘सांस्कृतिक क्रांति’ नाम की ऐतिहासिक पहेली! सभी अच्छी अच्छी बातें! कई कारणों से
वामपंथी साथियों/हमसफरों की उल्झनों और दुखते रगों को छूने जैसी बातें। फिर क्यों न
कहते हम ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’? और तो और, दिनरात चीन को भारत का मुख्य दुश्मन
घोषित कर उसका मुन्डपात करने वाली जो जमात है उनके लोग भी, जब कभी जरूरत पड़ती है, औरों
की तरह ‘सिस्टम’ नाम की चीज के खिलाफ अपना मुंहनोचु गुस्सा उतारने के लिये माओ द्वारा
दिये गए उपरोक्त नारों का इस्तेमाल कर ही लिया करते हैं।
जो पढ़ने वाले
लोग हैं, जो जानना चाहते हैं क्रांतिकारी नेताओं के विचारों को, उन्हे भी आम तौर पर
माओ के जिन रचनाओं को पढ़ने के लिये कहा जाता है, उन रचनाओं में एक खासियत है।
मार्क्स-एंगेल्स
पढ़ने की शुरूआत, कही जाती है, ‘मैनिफेस्टो’ से करो। लेनिन? ‘मार्क्सवाद के तीन स्रोत
एवं तीन संघटक अंग’ के बाद? ‘साम्राज्यवाद – पूंजीवाद की चरम अवस्था’। थोड़ा कठिन है,
लेकिन पढ़ ही डालो!
बेशक, ‘मैनिफेस्टो’
और ‘साम्राज्यवाद – …’, दोनों किताबें अपने जमाने की दुनियावी हुकूमत पर सीधी चोट करती
हुई राजनीतिक-आर्थिक निबंधों की अनूठी मिसालें हैं। लेकिन स्टालिन? ‘द्वंद्वात्मक एवं
ऐतिहासिक भौतिकतावाद’। क्लास-लेक्चरनुमा! उसी तरह, माओ? ‘अन्तर्विरोधों पर’। फिर ‘चीनी
समाज में वर्ग’। यानि वही, पाठ्यपुस्तक। उससे आगे बढ़ना चाहें तो बस एक तरफ उनकी कवितायें
तो दूसरी तरफ सैन्य-रचनाएँ। (हो-ची-मिन्ह को तो उतनी भी जगह नहीं मिली। बस ‘प्रिजन
डायरी’ की कवितायें और सादगी की दन्तकथायें!)
कहने का मतलब,
पूंजीवाद के खिलाफ, साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक या सामन्ती सत्ता के खिलाफ सीधे राजनीतिक-आर्थिक
संवाद वाली किसी रचना के बजाय माओ से हमारी पहचान शैक्षणिक रचनाओं के माध्यम से शुरू
होती है।
और शायद इसीलिये
माओ के बारे में सोचते हुए हम भूल जाते हैं कि इस व्यक्ति ने अगर लगातार 50 वर्षों
तक अपने देश में, मजदूरों, किसानों एवं सभी मेहनतकशों की क्रांतिकारी अग्रगति का दिग्दर्शन
किया, अपनी पार्टी की समझ के अनुसार काम करते हुये क्रांति को सफल किया तो 50 वर्षों
तक लगातार इसने अपने देश, अपने जमाने से, हुक्मरानों से, वर्ग-दुश्मनों से एवं वर्ग-दोस्तों
से राजनीतिक संवाद कायम रखा होगा। वे बहुत ठोस राजनीतिक संवाद रहे होंगे, सिर्फ कुछेक
काव्यात्मक नारे और मुहावरे नहीं।
किसी भी देश
की क्रांति की तरह चीनी क्रांति की अपनी पेचिदगियाँ थीं। सान्यातसेन की सही विरासत
की पहचान से लेकर जापानी आक्रमण के खिलाफ जुझारू प्रतिरोध आन्दोलन को धरातल पर क्रांतिकारी
परिवर्तन की कार्यनीति बना डालने तक इन पेचिदगियों का विश्लेषण इस आलेख का विषय नहीं
है। दुनिया में बेशक इस विषय के कई अध्ययन हुये होंगे।
******* *******
वर्ष 1934 के
जनवरी महीने में मजदूरों एवं किसानों के प्रतिनिधियों के राष्ट्रीय कांग्रेस में भाषण
देते हुये माओ-त्से-तुंग ने कहा था -
“अगर हमारे
साथी सचमुच अपने कार्यभार की समझ रखते हैं और समझते हैं कि किसी भी कीमत पर क्रांति
को पूरे देश में व्याप्त करनी ही होगी, तो उन्हे आम जनों के तात्कालिक हित, उनकी खुशहाली
के सवाल की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, छोटा कर के नहीं आंकना चाहिये। क्योंकि
क्रांतिकारी युद्ध आमजनों का युद्ध है; आमजनों को गोलबन्द कर एवं उन पर भरोसा कर के
ही सिर्फ यह युद्ध छेड़ा जा सकता है … हमें अवश्य ही भूमि के लिये किसानों के संघर्ष
का नेतृत्व करना चाहिये एवं उनके बीच भूमि का बँटवारा करना चाहिये, श्रम के उत्साह
को बढ़ावा देना चाहिये उनके बीच एवं कृषि उत्पादन में वृद्धि करनी चाहिये, मजदूरों के
हितों की रक्षा करनी चाहिये, सहकारी समितियों की स्थापना करनी चाहिये, बाहर के क्षेत्रों
के साथ व्यापार विकसित करना चाहिये, और आमजनों के सामने खड़ी तमाम समस्याओं – मसलन भोजन,
रहने का घर, पहनने का वस्त्र, ईंधन, चावल, रसोई का तेल एवं नमक, बीमारी एवं स्वास्थ्य-सुरक्षा
एवं शादी-व्याह – सभी समस्याओं का समाधान करना चाहिये। संक्षेप में कहा जाए तो आमजनों
के रोजमर्रे के जीवन की सभी व्यवहारिक समस्याओं की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिये। अगर
हम इन समस्याओं के प्रति ध्यान देंगे, इनका समाधान करेंगे एवं आमजनों की जरूरतों को
पूरी कर पायेंगे तो हम सचमुच आमजनों की खुशहाली के संगठक बनेंगे और वे भी सचमुच हमारे
चारों ओर गोलबन्द होंगे एवं अपना गर्मजोश समर्थन हमें देंगे।”
[जुईचिन, कियांसी
प्रदेश में मजदूरों एवं किसानों के प्रतिनिधियों के द्वितीय राष्ट्रीय कांग्रेस में
27 जनवरी को दिया गया भाषण]
क्या इस उद्धरण
में प्रतिफलित वैचारिक ढाँचे के किसी दूरस्थ कोने में भी आज के भारतीय ‘माओवादी’ दिखते
हैं?
कहीं नहीं दिखते।
बलiक उनमें भी नहीं दिखते जिनकी अति-उत्साही क्रांतिकारिता की आलोचना में यह वक्तव्य
रखा गया। आज के भारतीय ‘माओवादी’, अति-उत्साही क्रांतिकारिता या क्रांतिकारी हठधर्मिता
या क्रांतिकारी दुस्साहसिकता या क्रांतिकारी आतंकवाद … किसी भी परिभाषा में फिट नहीं
बैठते। कभी रहे होंगे। एक शक्तिशाली राष्ट्रयंत्र को, बिना जनान्दोलन के सिर्फ सैन्य-कार्रवाई
के बल पर टक्कर देते रहने का रुमानी ख्याल उन्हे कीमती हथियार, विदेशी मुद्रा, तस्करी,
ड्रग्स के ऐसे एक अन्तरराष्ट्रीय नेटवर्क में आज डाल दिया है कि वे माओ-त्से-तुंग के
पूरे क्रांतिकारी विमर्श से ही बाहर चले गये हैं। विभिन्न प्रांतों में सरकार या विपक्षी
राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों के लिये उनमें से कुछेक गुट, भाड़े के टट्टु के रूप में
काम करते हैं। प्रतिक्रिया के मित्र, हत्यारों और लुटेरों के गिरोह में तब्दील हो चुके
हैं वो।
गनीमत है उनके
लिये कि इस देश का पूंजिया-सामंती गँठजोड़, वर्गीय एवं जातीय शोषण और दमन का जमीनी हकीकत
इतना घृणास्पद है। सुधार एवं प्रगति एवं विकास की सारी घोषणायें वर्गीय वर्चस्व को
और मजबूत करने में इस तरह काम आती हैं एवं जनवादी आन्दोलनों की मुख्य धाराओं ने भी
कई बार प्रान्तीय जीवन के सवालों से इस तरह मुंह मोड़ा है कि ग्रामीण जनता, खासकर दलित
व आदिवासी सिर्फ आधुनिक राष्ट्र-व्यवस्था के प्रति उनके गहरे अविश्वास के चलते तथाकथित
‘माओवादियों’ को पनाह दे देते हैं। फिर, रोजगार का समीकरण भी तो है! दो हजार रुपये
माहवारी और दो लाख के बीमा पर कभी रणवीर सेना में बहाली होती थी। उनके हमलों से बचने
के लिये माओवादी सेना में बहाली क्यूं न हो? महिला एवं बच्चा स्क्वाड क्यूं न बने?
दो सूखी रोटियों के साथ साथ दिल में तसल्ली भी होगी कि जुल्मियों का सीधा मुकाबला कर
रहे हैं।
क्या स्थिति
है आज! ‘विकास’ एक ऐसा खतरनाक शब्द हो गया है जिसके माध्यम से बुर्जुवा जनतंत्र के
चारो खंभे – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं संचार-माध्यम – लगातार मेहनतकश
जनता के अधिकारों पर हमला चलाये जा रहे हैं। आर्थिक प्रगति एक गाली बनती जा रही है
करोड़ों की बदहाल आबादी के लिये। भ्रष्टाचार उस गाली जैसे विकास के साथ यूँ ओतप्रोत
है जैसे अश्लील शब्द के साथ रिश्तों के नाम!
लेकिन कड़वी
सच्चाई यही है कि ‘माओवादियों’ का कोई रिश्ता माओ-त्से-तुंग यानि उनकी विचारधारा से
नहीं है। जहाँ तक मेहनतकशों के क्रांतिकारी जनान्दोलन का सवाल है, वे इसक खिलाफ, पूंजिया-सामन्ती
दमनतंत्र की लम्बी उम्र की गारंटी के रूप में काम कर रहे हैं। मोहरा के रूप मे इस्तेमाल
होने दे रहे हैं आदिवासी एवं दलित जनसमुदाय को।
पूंजीवादी-सामंती समाज में, कुलीनों के पवित्र परिवार में निषेधवादी वैकल्पिक-अस्मिता के तौर पर जिस तरह कहीं बड़ा तस्कर बोलता है, कहीं बड़ा धर्माचार्य, उसी तरह कहीं ये माओवादी नेता एवं बुद्धिजीवी बोलते हैं।
******* *******
माओ-त्से-तुंग
का एक सुविख्यात प्रतिवेदन है। ‘हुनान में किसान आन्दोलन की जाँच पर प्रतिवेदन’। वर्ष
1927 के मार्च महीने में यह प्रतिवेदन लिखा गया।
इस प्रतिवेदन
के कुछेक हिस्से बेहद रोचक और सिर्फ चीन के लिये नहीं बल्कि सभी देशों के लिये अत्यंत
प्रासंगिक है। क्योंकि जहाँ कहीं भी किसान आन्दोलन आगे बढ़ता है, खेतमजदूर, गरीब भूमिहीन
किसानों का संघर्ष कामयाबी दर्ज करता है oत हजारों वर्ष के शोषण-दमन के चक्र के विनाश
के सन्देश को वर्गशत्रुओं के बीच पहुँचाने के लिये कुछ प्रतीकात्मक कार्रवाइयाँ हो
जाती हैं। हो सकता है बदमाश खूनी जमीन्दार को गधा पर बैठा कर पूरा गाँव घुमाया जाय,
सर मुड़ा दिया जाय …। बस, हाय तोबा मचने लगती है शासकीय मानवतावादियों में। “बताइये,
ऐसा भी करना चाहिए?” … जैसे आसमान टूट पड़ा हो।
उपरोक्त प्रतिवेदन
में किसान समितियों की क्रांतिकारी गतिविधियों को सिलसिलेवार समझाने के क्रम में माओ
उस शासकीय मानवतावादियों को भी आड़े हाथों लेते हैं।
उस प्रतिवेदन
में भी शुरू में ही यह रेखांकित किया जाता है कि क्रांतिकारी जनकार्रवाई का मतलब क्या
है! बाहर से आये हुये रॉबिनहुडों की कार्रवाई या गाँव एवं इलाके की बहुमत जनता की कार्रवाई।
और, चौदह बिन्दुओं में व्याख्या किये गये कार्यविधियों में अंतिम तीन बिन्दु हैं
(12) शिक्षा के लिये आन्दोलन, (13) सहकारिता आन्दोलन एवं (14) रास्तों की मरम्मत एवं
बांधों का निर्माण। …
[कुछ दिनों
पहले मिथिलांचल के एक मित्र से बात हो रही थी। वे इस कारण से माओवादियों की तारीफ कर
रहे थे कि उनके कारण स्थानीय ठेकेदार लोग त्रस्त रहते हैं। चूँकि अमूमन इलाके के भूस्वामी
ही महाजन भी होते हैं, ठेकेदात भी और मौका मिलने पर मुखिया और विधायक भी, इसलिये ठेकेदारों
के दिल में दहशत पैदा होते देखने में एक जायज खुशी थी। मैंने पूछा कि आखिर त्रास का
कारण क्या है? क्या माओवादी सड़कों और बांधों के निर्माण में निगरानी करते हैं? मिलावट
हो रही है या नहीं, काम सही हो रहा है कि नहीं … ! मेरे मित्र का सीधा जबाब था, “नहीं,
यह सब वे लोग क्यों देखेंगे? अरे दादा, मोटा पैसा न उगाही करैछे सब! … बाकि उहे सब
के डर से शांति के राज कायम रहै छे गाँव में। कौनों आँख उठाकर न देख सकै छे गरीब के
बहु बेटी क!” बेशक! इस आलेख में पहले ही कहा गया कि स्थिति इतनी बिकराल है कि आज के
माओवादियों को जमीन मिल जाती है। वैसे जहाँ तक टुटपूंजिये नजर से शांति का राज कायम
होने की बात है, गरीबों को जरूरत पर कुछ पैसे मिलने की (साहब या हुजूर की कोठी से दान
के तौर पर) बात है तो यह अधिकांशत: उस सांसद या विधायक के क्षेत्र में होता है जो अपने
समय का सबसे कुख्यात माफिया सरगना या अपराधी रहा है। क्योंकि इलाके के सभी दूसरे छोटे
अपराधी या तो इलाका छोड़ देते हैं या शांत बैठ जाते हैं। मैं नाम लेना नहीं चाहता हूँ।
आप खुद इलाकों के लोगों से – खासकर मध्यवर्गीय लोगों से – पूछ लें।
******* *******
इस निबंध में
मैंने माओ का पहला उद्धरण जिस भाषण से दिया था, उस भाषण से एक और उद्धरण देकर इस निबंध
को समाप्त करुंगा। जैसा कि पहले ही मैंने कहा कि सुधार एवं प्रगति एवं विकास की सारी
घोषणायें अन्तत: वर्गीय वर्चस्व को और मजबूत बनाने में काम आती हैं। क्यों काम आती
हैं? क्योंकि उन्हे उसी तरीके से क्रियान्वित किया जाता है। यहीं पर कुछ सीख हम जनता
के बीच काम कर रहे कार्यकर्ताओं को भी लेनी चाहिये। आखिर हम भी अपने काम कुछ सत्तासीन
वर्ग के तरीके से ही तो नहीं करते हैं? फिर तो अपना उद्देश्य ही पराजित होता रहेगा!
जरा देखिये
माओ क्या कहते हैं –
“हम क्रांतिकारी
युद्ध के नेता एवं संगठनकर्ता हैं। साथ ही हम आमजनों के जीवन के भी नेता एवं संगठनकर्ता
हैं। क्रांतिकारी युद्ध को संगठित करना एवं जनता के जीवन को बेहतर बनाना हमारे दो प्रधान
कार्यभार हैं। इस मामले में हम कार्य करने की पद्धति की गंभीर समस्याओं का सामना कर
रहे हैं। सिर्फ कार्यभार तय कर देना पर्याप्त नहीं, हमें उन कार्यभारों को पूरा करने
की पद्धतियों की समस्या का भी समाधान करना होगा।
… अगर पद्धति की समस्या का समाधान नहीं किया जाय, तो कार्यभार की बातें निरर्थक
हैं। … हम अपने कार्यभार पूरे [नहीं कर पायेंगे] … अगर हम सिर्फ कार्यभार तय करें और
पूरे करने की पद्धतियों पर ध्यान न दें, काम करने की अफसरशाही पद्धति के खिलाफ न लड़ें
एवं व्यवहारि व ठोस पद्धति न अपनायें, फतवा जारी करने वाली पद्धति को न त्यागें और
धैर्यशील तरीके से समझाने की पद्धति न अपनायें।”
उद्धरण को सीमित
रखने के कारण शायद थोड़ा अमूर्त्त लगे, पर दिशा स्पष्ट है।
[दस वर्ष पहले बेफी न्युज में प्रकाशित]
No comments:
Post a Comment