निजीकरण के उद्देश्य से किया गया विलय
वर्ष 2014 के मई महीने में जब भाजपा के नेतृत्व में एनडीए
गठबंधन केन्द्रीय सरकार में सत्तासीन हुई, उस समय हमारे देश में राष्ट्रीयकृत बैंकों
की संख्या थी 26। विलयों के माध्यम से घटकर अब राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या मात्र
12 हो गई है। सन 2020 के अप्रैल महीने को एक फतवा जारी कर, 10 बैंकों को घट कर 4 बनाया
गया। इस फतवे के तहत पश्चिम बंगाल में स्थित दो बैंकों का प्रधान कार्यालय खत्म कर
दिया गया। एक स्थानान्तरित हुआ दिल्ली में और एक चेन्नई में। पहला था युनाइटेड बैंक
ऑफ इन्डिया और दूसरा था इलाहाबाद बैंक। युनाइटेड बैंक इस राज्य [पश्चिम बंगाल] के बैंक
के रूप में परिचित था जबकि इलाहाबाद बैंक हमारे देश के सबसे पुराने बैंकों में से एक
था। विलय के फलस्वरूप दो बैंकों का अंत तथा उन दो बैंकों के प्रधान कार्यालयों का इस
राज्य से हट जाने को लेकर राज्य की सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। विलय के परिणामस्वरूप
अब बड़ी संख्या में शाखा-बंदी तथा कार्मिक शक्ति में घटाव की प्रक्रिया जारी है। जिस
समय देश में बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है उसी समय बैंकिंग उद्योग में बड़ी संख्या
में पदों को खत्म किया जा रहा है। यह सब कुछ हो रहा है निजीकरण का उद्देश्य पूरा करने
के लिये। जनविरोधी इन सुधारों का काम सन 1991 में पहली नरसिंहम कमिटी की सिफारिशों
के आधार पर शुरू किया गया था। सिफारिशों में प्रमुख था राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या
में घटाव। सन 1991 की उस सिफारिश पर अमल करने के लिये मौजूदा भाजपा-एनडीए सरकार बेपरवाह
हो उठी है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अच्छे परिणाम
स्वातंत्र्योत्तर भारत में देश की अर्थव्यवस्था की सुनियोजित
विकास के उद्देश्य से बैंक कर्मचारी आन्दोलन ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण की मांग उठाई
थी। देश की बैंकिंग प्रणाली में उस वक्त एक अस्थिरता जारी थी। जनता के दिलोदिमाग पर
‘बैंक फेल’ की घटना का असर किसी अपवाद के रूप में नहीं बल्कि रोजमर्रा के रूप में होता
था। 15 अगस्त 1947 से 19 जुलाई 1969 के पहले तक की अवधि में 650 निजी बैंक ‘फेल’ हुये।
इस परिस्थिति में गुणात्मक बदलाव आया सन 1969 के 19 जुलाई को, जब पहले चरण में 14 निजी
बैं राष्ट्रीयकृत किये गये। दूसरे चरण में सन 1980 के 15 मार्च को और 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण
हुआ। हालांकि इसके पहले, सन 1955 में इम्पिरियल बैंक के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से
स्टेट बैंक की शुरुआत हुई और सन 1959 में, देश के भूतपूर्व रजवाड़ों की मिल्कियत में
चल रहे निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर, स्टेट बैंक के 7 सहयोगी (ऐसोसियेट) बैंकों
का सृजन किया गया। आज इन सारे बैंकों का अंत हो चुका है – इन्हे स्टेट बैंक के साथ
विलयित कर दिया गया है।
राष्ट्रीयकरण के अच्छे परिणाम के तौर पर, बड़ी संख्या में
शाखाओं के खोले जाने के बाद, बैंक की सेवायें आम आदमी के पास पहुँची है। प्राथमिकता
वाले क्षेत्रों में ॠण प्रदान की नीति लागु होने के कारण लाभान्वित हुआ है देश का कृषिक्षेत्र,
स्वनियोजन योजना, लघु कुटिर उद्योग, ढाँचागत विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि क्षेत्र
एवं हाशिये पर जी रहे सामान्य लोग। सरकारी सामाजिक योजनाओं का अधिकांश राष्ट्रीयकृत
बैंकों के माध्यम से अमल में लाया जाता है। बहुचर्चित 43॰93 करोड़ जनधन खातों में से
42॰66 करोड़ खाते राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा ही खोले गये हैं। निजी मिल्कियत में बैंक
अमीरों के हित में थे, राष्ट्रीयकरण के बाद वे सामान्य लोगों के आंगन में पहुँचे। शाखाओं
में व्यापक बढ़ोत्तरी के कारण 7 लाख बेरोजगार युवक एवं युवतियों को रोजगार मिला। नीचे
की सारणी बताती है कि राष्ट्रीयकरण के बाद पिछले पाँच दशकों में बैंकिंग उद्योग में
कैसा विस्तार हुआ।
|
1969 |
2021 |
बैंकों की कुल शाखाएँ
(संख्या) |
8000 |
1,18,000 |
कुल जमा |
5000 करोड़ |
157 लाख करोड़ |
कुल ॠण-प्रदत्त |
3500 करोड़ |
110 लाख करोड़ |
अनाजों के उत्पादन में हमारे देश को आत्मनिर्भरता दिलाने
में उल्लेखनीय भूमिका रही है व्यापारिक बैं, ग्रामीण बैंक तथा नाबार्ड सहित देश की
राष्ट्रीयकृत बैंकिंग प्रणाली की।
व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्राधीन (सार्वजनिक)
क्षेत्र में ग्रामीण बैंक (1975) एवं नाबार्ड (1982) की स्थापना के बाद हमारे देश की
बैंकिंग प्रणाली का 90% सार्वजनिक क्षेत्र में आ गया। वर्ष 1991 के बाद से, नई उदारवादी
आर्थिक नीतियों के लागू किये जाने के उपरांत राष्ट्रीयकृत बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी
अब 100% नहीं है। उन्ही नीतियों के कारण, बैंकिंग प्रणाली में राष्ट्रीयकृत बैंकों
की मौजूदगी 90% से घट कर लगभग 70% पर आ पहुँची है। लेकिन फिर भी राष्ट्रीयकृत बैंक
अभी भी मुनाफा कमानेवाले हैं। पिछले दस वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको द्वारा
अर्जित व्यापारिक लाभ का चित्र नीचे दिया गया।
वित्तीय वर्ष |
कुल व्यापारिक (ऑपरेटिंग)
लाभ |
2009 – 10 |
76,945 करोड़ |
2010 – 11 |
99,981 करोड़ |
2011 – 12 |
1,16,337 करोड़ |
2012 – 13 |
1,21,839 करोड़ |
2013 – 14 |
1,27,632 करोड़ |
2014 – 15 |
1,38,064 करोड़ |
2015 – 16 |
1,35,238 करोड़ |
2016 – 17 |
1,59,022 करोड़ |
2017 – 18 |
1,55,585 करोड़ |
2018 – 19 |
1,49,603 करोड़ |
2019 – 20 |
1,73,595 करोड़ |
2020 – 21 |
1,97,376 करोड़ |
लूट जारी है
बैंकिंग उद्योग की सबसे उल्लेखनीय समस्या है विपुल अशोध्य
ॠण जो इस साल के 31 मार्च के सालाना लेखा के अनुसार 6,16,615 करोड़ रुपयों तक पहुँच
चुका है। इसका अधिकांश हिस्सा देश के बड़े कॉर्पोरेट घरानों के पास बकाया है। जालसाजी
के द्वारा बैंक से पैसे लेकर आराम से विदेश में बैठे हैं विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल
चोकसी और बहुत सारे लोग। इनमें से हर एक ने बैंकों से कर्ज लिया, और न लौटाई गई रकम
से विदेश में बड़ी सम्पत्तियों का मालिक बना। बैंकिंग की परिभाषा में इन्हे पहले ‘विलफुल
डिफॉल्टर’ कहा जाता था। इन्द्रधनुष दस्तावेज में इनके लिये नई संज्ञा का ईजाद किया
गया है – ‘असहयोगी ॠणग्रहिता’। इस पारिभाषिक बदलाव से बैंक लुटेरों के प्रति केन्द्रीय
सरकार का मनोभाव समझ में आ जाता है। जो जानबूझ कर बकाया कर्ज की रकम नहीं लौटा रहे
हैं उन्हे ‘इरादतन चूककर्ता’ न कह कर ‘असहयोगी देनदार’ कहते हुये अशोध्य ॠण की अदायगी
की आवश्यकता को ही हल्का कर दिया गया है। बैंक कर्मचारी आन्दोलन की मांग है कि इन इरादतन
चूककर्ता बड़े कॉर्पोरेट व्यवसायियों के खिलाफ फौजदारी कानून का प्रयोग कर, इनकी चल,
अचल सारी सम्पत्तियों को जब्त किया जाय तथा बैंकों के बकाये रकम की वसूली की जाय। लेकिन
इन लुटेरों का हित देखनेवाली केन्द्रीय सरकार उस राह पर चलने के लिये तैयार नहीं है।
सिर्फ उतना ही नहीं, इन्सॉलवेन्सी व बैक्रप्सी कोड 2016 (दिवाला और दिवालियापन संहिता
2016) लागू कर, बकाया रकम पर बड़ी मात्रा में छूट देते हुए ‘हेयर कट’ के नाम पर विभिन्न
बैंकों में बकाया ॠण अदायगी के समझौते हो रहे हैं। ‘हेयर कट’ के नाम पर लूट की मात्रा
नीचे की सारणी से स्पष्ट होगी।
कर्जदार |
बकाया रकम (करोड़) |
समझौते की राशि (करोड़) |
हेयर कट % |
एस्सार स्टील |
54000 |
42000 |
23 |
भूषण स्टील |
57000 |
35000 |
38 |
ज्योथि स्ट्रक्चर |
8000 |
3600 |
55 |
डि एच एफ एल |
91000 |
37000 |
60 |
भूषण पावर |
48000 |
19000 |
62 |
इलेक्ट्रो स्टील्स |
14000 |
5000 |
62 |
मॉनेट इस्पात |
11500 |
2800 |
75 |
ऐमटेक |
13500 |
2700 |
80 |
अलोक इन्डस्ट्रीज |
30000 |
5000 |
83 |
लैन्को इन्फ्रा |
47000 |
5300 |
88 |
विडिओकॉन |
46000 |
2900 |
94 |
ए बि सि शिपयार्ड |
22000 |
1200 |
95 |
शिवशंकरण इन्डस्ट्रीज |
4800 |
320 |
95 |
उपरोक्त 13 कर्जदारों के कुल बकाये ॠण की राशि थी
4,46,800 करोड़ रुपये। समझौते के माध्यम से अदायगी हुई है मात्र 1,61,820 रुपयों की।
इसके चलते बैंकों को घाटा हुआ 2,84,980 करोड़ रुपयों का। यह रकम कुल बकाए ॠण की राशि
का मात्र 64% है।
लुटेरे ही बैंकों के मालिक बनना चाहते हैं
सन 1969 के 19 जुलाई को एक अध्यादेश के तहत 100% की सरकारी
मिल्कियत पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने अपनी यात्रा शुरू की। सन 1991 में नई उदारवादी
आर्थिक नीतियों के लागू किये जाने के पहले तक सार्वजनिक क्षेत्र में बैंकिंग उद्योग
को जबर्दस्त विस्तार हासिल हुआ। वर्ष 1993 में बैंकिंग कम्पनीज (ऐकुइजिशन ऐन्ड ट्रान्सफर
ऑफ अन्डरटेकिंग्स) ऐक्ट 1970 एवं 1980 में संशोधन कर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में
सरकारी हिस्सेदारी घटा कर 51% तक करने का प्रावधान किया गया। लेकिन इन कानूनों की
3(2ई) धारा के अनुसार गैर-सरकारी हिस्सेदारों का मताधिकार अभी भी 10% में सीमित है,
इसलिये 51% तक गैर-सरकारी मालिकाने का प्रावधान होने के बावजूद बैंकों पर राजसत्ता
का नियंत्रण अभी भी मौजूद है।
इस साल के बजट प्रस्ताव में दो बैंकों को बेचने की बात कही
गई है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बेचने के लिये उपरोक्त दो कानून तथा बैंक सम्बन्धित
दूसरे कानूनों के विभिन्न धाराओं में बदलाव जरूरी है। इसी उद्देश्य से बैंकिंग कानून
सुधार विधेयक 2021 तैयार किया गया है। शीतकालीन जारी अधिवेशन के विचारार्थ विषयों की
सूची में यह सुधार विधेयक शामिल है। सरकार की तरफ से कोशिश हो रही है कि विधेयक को
पारित करवा कर दो बैंक गैर-सरकारी मालिकों के हाथों में सौंपने का मार्ग प्रशस्त किया
जाय। इस काम में अगर वे सफल हो जायें तो चोट आम आदमी पर पड़ेगी। शाखाएं बन्द होंगे और
सेवाओं का दायरा संकुचित होगा।
विलय के दुष्परिणाम अभी ही नजर आने लगे हैं। दिनांक 1 अप्रैल
2019 को बैंक ऑफ बड़ोदा के साथ विजया बैंक और देना बैंक का विलय होने के बाद, बैंक ऑफ
बड़ोदा द्वारा जारी मार्च’2021 के लेखा के अनुसार 1268 शाखाएं बन्द हुई हैं। युनाइटेड
बैंक एवं ओरियेन्टल बैंक का विलय दिनांक 1 अप्रैल 2020 को पंजाब नैशनल बैंक के साथ
होने के बाद पंजाब नैशनल बैंक ने अब तक 643 शाखाओं को बन्द किया है। उसी तरह, युनियन
बैंक के साथ कॉर्पोरेशन बैं एवं आन्ध्रा बैंक के विलय के बाद 278 शाखाएं बन्द की गई
है। इन्डियन बैंक के साथ इलाहाबाद बैंक के विलय के बाद इन्डियन बैंक ने 259 शाखाओं
एवं 281 प्रशासनिक दफ्तरों को बन्द किया है; पहले दफे की बन्दी की सूची में और बीस
शाखाएं हैं। सिन्डिकेट बैंक के विलय के बाद कैनरा बैंक ने पिछले जून महीने तक 614 शाखाओं
को बन्द किया है। जिक्रतलब है कि युनियन बैंक के साथ कॉरपोरेशन बैंक एवं आन्ध्रा बैंक,
इन्डियन बैंक के साथ इलाहाबाद बैंक और कैनरा बैंक के साथ सिन्डिकेट बैंक का विलय दिनांक
1 अप्रैल 2020 से प्रभावी हुआ। 10 बैंकों को एक धक्के में 4 बैंक बना दिया गया। यह
‘मेगामर्जर’ के रूप में जाना जाता है। देश के बैंकिंग उद्योग के इतिहास में इस तरह
की घटना का कोई मिसाल नहीं है। इसके पहले साल 2017 के 1 अप्रैल से 5 ऐसोसियेट बैंकों
को स्टेट बैंक के साथ मिला दिया गया था जिसके परिणाम स्वरूप स्टेट बैंक ने अब तक
1998 शाखाओं को बन्द कर दिया है। अब हर एक बैंक में कर्मचारियों की संख्या बड़े पैमाने
पर घटाई जा रही है। जिन शाखाओं में कुछेक साल पहले सौ से अधिक कर्मचारी कार्यरत रहते
थे, अब वहाँ गिनेचुने कुछ कर्मचारियों से काम चलाया जा रहा है। ग्राहकों को आवश्यक
सेवाएँ नहीं मिल रही है। योजनाबद्ध तरीके से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विरुद्ध
लोगों के मन में असन्तोष भड़काने की कोशिश की जा रही है। चोट पड़ी है वरिष्ठ नागरिकों
पर्। भाजपा-एनडीए जमाने में मियादी जमा पर ब्याज की दर लगभग 3% कम की गई है, कॉर्पोरेट
प्रतिष्ठानों को कम ब्याज पर ॠण देने के लिये।
दो बैंकों का निजीकरण
करने में सफल होने पर सरकार वहाँ रुकेगी नहीं। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन के नाम पर
जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्रों को एक के बाद एक निजी प्रतिष्ठानों के हाथों सौंपने का
प्रयास चल रहा है उससे यह आशंका रह ही जाती है कि भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र के
बैंकों का शायद कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
अगर बैंक सार्वजनिक क्षेत्र
में न हों तो लोगों ने बचत कर रखे हैं उनमें, उस बचत की कोई सुरक्षा नहीं रहेगी। किसान
को, बेरोजगार युवक-युवती को, गरीब छात्र-छात्रा को तथा छोटे मझौले व कुटिर उद्योगों
को बैंक का ॠण नहीं मिलेगा। देश की अर्थव्यवस्था में आम आदमी की हिस्सेदारी के क्षेत्र
सिकुड़ जायेंगे। देश के आर्थिक क्षेत्र पर स्याह बादल मंडराने लगेंगे।
इसीलिए जरुरी है प्रतिरोध
नई उदारवादी आर्थिक नीतियों
के लागू होने के प्रारम्भकाल सन 1991 से ही बैंकिंग उद्योग के कर्मचारी एवं अधिकारीगण
निरन्तर, सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली की रक्षा के लिये संघर्षरत हैं। केन्द्रीय सरकार
की एक के बाद एक विनाशकारी नीतियों के खिलाफ वे इस अवधि में कुल 68 दिन हड़तालों में
शामिल हुये हैं। विगत तीस वर्षों के इस धारावाहिक संग्राम का ही नतीजा है कि आज भी
देश की बैंकिंग प्रणाली सार्वजनिक क्षेत्र में हैं एवं वर्ष 2008 की विश्वव्यापी आर्थिक
मन्दी का असर उस तीव्रता के साथ हमारे देश पर नहीं पड़ा। बैंक कर्मचारी आन्दोलन व जनवादी
आन्दोलनों के जोरदार संयुक्त प्रतिवाद के कारण ही वर्ष 2017 का एफ॰आर॰डी॰आई॰ विधेयक
निरस्त करने के लिये बाध्य हुई थी यह सरकार। जाड़ा, गर्मी, बरसात की उपेक्षा कर,
700 से अधिक किसान शहीदों के बलिदान के बाद, एक साल के लम्बे लगातार किसान संग्राम
की ऐतिहासिक सफलता, श्रमजीवी जनता के आन्दोलन के लिये एक उत्साह-वर्धक घटना है। बैंक
कर्मचारी आन्दोलन इस सफलता से खुद को समृद्ध किया है और तैयार हो रहा है आगामी
16-17 दिसम्बर की हड़ताल को मुकम्मल कामयाबी देने के लिये।
सभी स्तरों के ग्राहकवर्ग,
आम आदमी तथा बैंक कर्मचारी आन्दोलन की सम्मिलित शक्ति ही सिर्फ रोक पायेगी केन्द्रीय
सरकार द्वारा बैंक बेचे जाने का दुष्प्रयास।
*यह आलेख 16 दिसम्बर 2021 को दैनिक गणशक्ति अखबार में प्रकाशित
हुआ था।
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