Thursday, October 12, 2017

समाजवादी आदर्शबोध का कोई विकल्प नहीं - विनय कोनार

पुराने युग के श्रेष्ठ जिन सन्तानों ने पूंजीवादी व्यवस्था की नि:सारता को समझते हुये देश में समाजवाद के बीज बोये थे, लगभग वे सभी शासकवर्ग के हमलों के फलस्वरूप या प्रकृति के नियम के अनुसार धरती से गुजर चुके हैं । पिछली सदी के तीसरे एवं चौथे दशक के पूर्वार्द्ध में आंधी-तूफानों के बीच अपने वक्ष में आदर्शवाद का दीप जलाये जिन लोगों ने यात्रा शुरू की थी उनमें से जो आज भी हमारे वक्त में जीवित हैं स्वाभाविक तौर पर वे बुढ़ापे से पीड़ित हैं, गति धीमी हो चुकी है । चौथे दशक के उत्तरार्द्ध में एवं उसके बाद दूसरी पीढ़ी के जो कॉमरेड नेतृत्व में आये थे उनमें से भी कई लोग विदा ले चुके हैं या विदाई की घन्टी सुनने लगे हैं । छठे दशक या सातवें दशक के पूर्वार्द्ध के जो कॉमरेड हत्यारों के वार से बच निकले और ज़िन्दा हैं उनके ही एक बड़े हिस्से से राज्य एवं जिला नेतृत्व के सूनेपन की भरपाई हो पाई है । लेकिन सूनापन बढ़ रहा है; उपर के स्तर पर प्रकट न भी हुआ हो अभी पर जोन एवं स्थानीय स्तर पर दिखने लगा है ।  पिछले पचीस वर्षों में पार्टी की सदस्यता में कई गुणा वृद्धि हुई है । लेकिन हमारी यह व्यर्थता है कि नई पीढ़ी के इन सहकर्मियों के गुणात्मक दर्जे को हम आशा के अनुरूप विकसित नहीं कर पाये हैं । गुणात्मक दर्जे का फर्क मेधा की कसौटी पर नहीं, लेकिन आदर्शबोध की कसौटी पर कमी रह जा रही है ।    
कुछेक अपवादों के बावजूद अगली पीढ़ी के कॉमरेड शायद पूर्वजों की उँचाई को नहीं छू पायेंगे, लेकिन वह कोई विस्मय या चिंता का कारण नहीं होगा । इतिहास के क्रांतिकारी शिविर में प्रतिभायें समय के साथ एक ही लय में नहीं आते हैं – आते हैं युगसन्धिकाल में, झोंकों में । किसी भी सिद्धांत की तरह क्रांतिकारी सिद्धांत भी सोच-विचार का फसल है, बुद्धिजीवियों का दान है । पुरानी व्यवस्था जब समाज को जर्जर कर देती है, नियमों का अनुशासन एवं लय जब टुटने लगता है, निरन्तर अनिश्चयता एवं उद्विग्नता जब समाज को भीतर से कुरेदती रहती है तब समाज में चेतना के हलकों में अनेकों प्रश्न, अनेकों जिज्ञासायें एवं नये रास्ते के लिये अकुलाहट उभरने लगते हैं । इसके कारण चेतना की दुनिया आलोड़ित होती है, जन्म लेती हैं नई प्रतिभायें, नये सिद्धांत । यह कहने की जरूरत नहीं कि ये बुद्धिजीवी आ पाते हैं मुख्यत: शारीरिक श्रम से मुक्त सम्पत्तिवान वर्ग के घरों से ही । योरप के नवजागरणकाल में एवं भारत में खास कर बंगाल में ऐसे लोग उस युग की मांग के अनुसार आये थे । इतिहास की अन्धी ताकत के तौर पर अंग्रेज सरकार ने अपनी जरूरत से जिस रौशन-खयाल मध्यवर्ग का जन्म दिया था उन्ही में से, राष्ट्रीय अपमान से मुक्ति की आकांक्षा में आतुर मुट्ठीभर ऊँचे दर्जे के बुद्धिजीवी मज़दूरवर्ग के आदर्शों के द्वारा निर्देशित साम्राज्यवाद-विरोधी संग्राम की लौ के स्पर्श से प्रेरित होकर कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के कार्य में खुद को समर्पित किये । देश की स्वतंत्रताप्राप्ति के उपरांत जब पूंजीपतिवर्ग सत्ता में आया तो नये उभर कर आये वुद्धिजीवियों के एक अच्छे-खासे हिस्से के सामने नई परिस्थितियों में खुद को उन्नत करने की सम्भावनायें पसरीं । आज साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के जमाने में भले ही देश संकट में हो, साम्राज्यवादी देशों की तूलना में फटेहाल हमारी मेधाशक्ति का उपरी हिस्सा खुद को बेचने के लिये बाजार पाने के स्वप्न में मशगूल हैं; बिकने की कीमत उन साम्राज्यवादी देशों की तूलना में काफी कम होते हुये भारत के हिसाब से अच्छी है । फिर, असीमित ताकत से लैस आत्मकेन्द्रिक विकृत भोगवाद का अश्लील प्रभाव भी है । लेकिन हर बीमारी की एक सीमा है जिसके बाद उसके निदान का रास्ता उजागर होता है । मार्क्सवादी विश्लेषण की यही सिखाता है कि आत्मकेन्द्रिक विलासिता का यह रंगीन स्वप्न लम्बे समय तक नहीं रहेगा । आत्मघाती आत्मकेन्द्रिक प्रतिस्पर्धा में विश्वपूंजी के आगे घुटने टेकने बजाय एकजुट होकर खड़ा होगा आदमी, क्रांतिकारी खेमें में शामिल होगी नई मेधाशक्ति । लेकिन प्रतिभा बड़ा सवाल नहीं है, व्यक्तिप्रतिभा की कमी को मिलेजुले प्रयासों के द्वारा लांघा जा सकता है । समस्या तब होती है जब कमी आदर्शबोध की होती है ।
कभी कभी इस किस्म का खयाल दिमाग में आता है कि पार्टी के सामने कोई पर्सपेक्टिव यानि बुनियादी लक्ष्य की ओर चलने के पथ पर आशु संभावनामय कोई कालखंड नहीं है । देश में विभिन्न जगहों पर हमारी इच्छा के अनुरूप पार्टी का विस्तार नहीं हो पा रहा है, एक ही जगह पर अटकी हुई पश्चिम बंगाल में वही एक ही वाममोर्चे को बचाये के कार्यभार की पुनरावृत्ति1 कॉमरेडों को क्लांत कर रहा है और यही वाधक बन रहा है कार्यकर्त्ताओं के लिये । वाधक बन रहा है आत्म-अनुशासन से खुद को उन्नत करने में, एकाग्रचित्त एवं निष्ठावान बनने में और इसी से गैर-कम्युनिस्ट रुझानें पैदा हो रही हैं । आशु सम्भावना का गाजर लटका कर उन्नत कम्युनिस्ट का निर्माण हो सकता है ऐसा सोचना भ्रांत और खतरनाक होगा; समस्या को हलका दिखाने की कुचेष्टा मात्र होगी । विश्व के महानतम प्रतिभाओं में प्रमुख कार्ल मार्क्स जब जीवन के गहरे दुख-तकलीफों के बीच भी दोस्त व सहकर्मी कॉमरेड एंगेल्स के सहयोग से प्रकृतिविज्ञान की अद्यतन अग्रगति एवं मानवसमाज के वर्त्तमान व अतीत अन्तर्विरोध व विकास के इतिहास का विश्लेषण कर द्वन्दात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांतों को विकसित कर रहे थे तब उनके सामने सुदूर लक्ष्य के अलावे कोई आशु सम्भावना नहीं थी । उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग या सातवें दशक की शुरूआत में किसी स्पष्ट आदर्शों वाले नेतृत्व के बिना मज़दूरवर्ग के जो संग्राम योरप में उबलने लगे उन में भी कोई आशु सम्भावना नहीं थी । इन संग्रामों में पराजय निश्चित है जान कर भी मार्क्स और एंगेल्स उन संग्रामों के साथ खड़े हुये, उनसे शिक्षा ग्रहण कर अपने सिद्धांत को समृद्ध बनाये, अन्तिम लक्ष्य के प्रति आस्था को सुदृढ़ बनाते रहे । सन 1905 में रूस में मज़दूर-क्रांति असफल होने के बाद जब अकल्पनीय दमनात्मक कार्रवाइयों के साथ स्टॉलिपिन प्रतिक्रिया का काल शुरू हुआ तब क्या कोई आशु सम्भावना थी लेनिन के सामने ? क्या वे जानते थे उस समय कि सन 1912 में, लेना में सोने के खदानों के मज़दूरों की हड़ताल के साथ क्रांतिकारी आन्दोलन का युग शुरू हो जायेगा ? 
हमारे देश में भी, प्राणों को न्योछावर करने वाले जिन क्रांतिकारियों ने अंधेरे में थाह लगाते, असहनीय कष्ट स्वीकारते साम्यवाद के आदर्शों को प्रसारित करने क उद्यम लिया, पेशावर-कानपुर-मेरठ षड़यंत्र मुकदमों में पीसे गये,... जेल में कैदी के सुनिश्चित मृत्यु की जिम्मेदारी से खुद को बचाने के लिये साम्राज्यवाद यक्ष्मारोग से पीड़ित जिस काकाबाबु2 को रिहा कर दिया वह काकाबाबु जब भोजन के पैसे बचा कर किताब की कम्पनी से मार्क्सवाद की किताब की किताब खरीद कर खुशी से डगमग हुये थे क्या उस समय उनके सामने इशारा था आशु सम्भावनाओं का ? सन 1946 में भी क्या कुछ सामने था ? सन 1948 की अति-वामपंथ की भ्रांतियाँ – बुर्जुवा के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण झूठा है, बुर्जुवा नेतृत्व की नि:सारता प्रमाणित है, साम्राज्यवाद-विरोधी जनवादी क्रांति के लिये जनता तैयार है, एक चिनगारी पूरे जंगल को आग लगा सकता है – माओ की सुक्तियाँ तब तक प्रचलित न होने पर भी उसी किस्म की धारणायेँ ! लेकिन क्रांति आसन्न है यह सम्भावना सन 1950 आते आते अदृश्य हो गई । लेकिन हमलोग, जो उसी युग में आवेग से चालित होकर आन्दोलन में आये, भाग तो नहीं गये स्वप्नभंग की वेदना के साथ ?  फिर आई सन 1962 में ‘देशप्रेम की बाढ़’ । पार्टी दफ्तरों पर हमले होने लगे, जेल में भीड़, जेल के सिपाहियों में भी ‘देशप्रेम’ का असर । 1962 के पहले मैं जेल नहीं गया था, लेकिन श्रद्धेय नेताओं से सुना था कि राजनैतिक बन्दी का सम्मान मिले न मिले, सरकार का मनोभाव जो भी हो, सिपाही कम्युनिस्ट बन्दियों का आदर करते थे, सम्मान करते थे । उनकी समझ में नहीं आती थी हमारी बातें पर उन्हे प्रतीत होता था कि ये स्वदेशीबाबुलोग दूसरे किस्म के लोग हैं, देश के बारे में, गरीबों के बारे में सोचते हैं । लेकिन 1962 में कुछ दिनों तक हमें वह सम्मान भी नहीं मिला । मालूम हुआ कि हमलोग देशद्रोही-गद्दार हैं; अनुशासन के साथ गिनती देनी पड़ती थी शुरू के दिनों में । इसके उपर था अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में मतभेद, पार्टी के अन्दर उसका प्रभाव । उस पल, क्या संभावना थी हमारे सामने ? कितने भयावह थे 1970-77 के दिन ! सैंकड़ों कॉमरेडों के साथ जेल में । काँटातार से घेर, गाँवों से छान कर उठा रहा है पुलिस-प्रशासन, कम्युनिस्टों को । जेल के बाहर प्रति दिन प्रिय नेता या कार्यकर्त्ता की हत्या हो रही है, प्रति दिन जेल में शहीद-दिवस मनाना पड़ रहा है । मिसा के मुकदमें से रिहा हुये जिन कॉमरेडों को उत्साह के साथ जेल गेट तक पहुँचा कर आ रहे हैं कुछ ही दिनों के बाद उसके, खूनसने लाश में तब्दील हो जाने की खबर मिली है । दिल टूटता रहा है । गाँवों में हजारों हजार कार्यकर्त्ता और नेता घरों से बाहर हैं । पूरावक्ती कार्यकर्त्ताओं में से कोई शियालदह के रास्ते पर आलू बेच कर, दुकानों में बहीखाते लिख कर, थोड़े से वेतन पर पारचून की दुकान में नौकरी कर मंसुर हबीबुल्लाह के घर के छत की कोठरी में रात बिता रहा है, कोई ट्युशनी कर रहा है, कोई लेदमशीन के कारखाने में काम कर रहा है, कोई पुरुलिया में तो कोई बाँकुड़ा में है, कोई बाहर से जमीन बेच कर घर में रुपये भेज रहा है । कलकत्ता के मियाँबगान, कसबा, जादवपुर इलाके में लड़ते हुये पीछे हटना पड़ रहा है । हम ही लोग तब जेल में नेता हैं । हर तरह से कॉमरेडों को जिन्दादिल रखने की कोशिश की जा रही है... फिर भी जब कॉमरेडलोग आकर अफसोस के साथ बोलते थे, “कॉमरेड, खत्म हो गया सब कुछ, 50 साल पीछे चले गये हम लोग”, तब हस कर परिस्थिति को हलका करने की कोशिश के अलावे और कोई जबाब मालूम नहीं था । उसके बाद आया आपतकाल । पार्टी नेतृत्व ने कहा, “पुराना पूंजीवादी जनतंत्र अब लौट कर नहीं आयेगा” । लेकिन, मौके रहने के बावजूद कॉमरेडलोग भाग तो नहीं गये पार्टी छोड़ कर ।
किस जादु मंत्र के स्पर्श से कॉमरेड नहीं भागे ? कोई पर्सपेक्टिव या आशु संभावना के खिँचाव से नहीं, बल्कि मार्क्सवादी इतिहासबोध पर दृढ़ आस्था के कारण हम डटे रहे । आज जो हमलोग नेतृत्व में हैं, जिनकी उम्र हुई है, क्या हमने सोचा था अपनी जवानी में कि 2/10 साल या अपने जीवनकाल में हमारे स्वप्न सार्थक हो उठेंगे ? काकाबाबु की पीढ़ी के लोग क्या ऐसा सोचे थे ? या क्या न सोच पाने के कारण अपने जीवनसंध्या में हताशा के साथ विदा हुये थे ? नहीं ।
एक सवाल उठ सकता है कि उस समय समाजवादी खेमा एवं सोवियत संघ, समाजवादी क्रांति पर आस्था का एक दृढ़ स्तंभ, व्यवहारिक मार्क्सवाद के दृढ़ प्रत्यय के रूप में था । नि:सन्देह सोवियत का पतन और समाजवाद का विघटन जबर्दस्त चोट किया है समाजवादपरस्त क्रांति की शक्ति पर, पूंजीवाद की हमलावर ताकत को और अधिक आक्रामक बनाया है । साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का पंजा पूरी दुनिया का, खास कर 90% देशों के मज़दूर, किसान, मध्यवर्ग, छोटी पूंजी का गला दबाये बैठा है, दुनिया में संग्रामी मनुष्यों को आत्मरक्षा की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । लेकिन पराजय, व्यर्थता, पीछे हटने की स्थितियों के बिना कभी कोई सत्य धरती पर चिरस्थायी रूप से प्रतिष्ठित हो पाई है ? कूपमंडुक राजतंत्र के विरुद्ध संग्राम में पूरी दुनिया घूमने वाले बुर्जुवावर्ग को क्या बार बार पराजित होना नहीं पड़ा ? सामन्तवादी विचार व आदर्शों के विरुद्ध क्या उन्हे तीन शताब्दियों तक संग्राम नहीं करना पड़ा ? पूंजीवाद को स्थापित करने में प्रांसिसी क्रांति के बाद क्या सौ साल नहीं लगे ? इंग्लैन्ड में क्रॉमवेल की क्रांति के 18 वर्षों के बाद क्या कब्रगाह से उसी क्रॉमवेल का मृत शरीर निकाल कर फाँसी पर लटकाया नहीं गया ? जबकि ये सारे क्रांति एक किस्म के शोषण के बदले दूसरे किस्म के शोषण चालु किये जाने के लिये थे एवं पुराने शोषकों के नये शोषकों में रूपान्तरण की सम्भावनायें भी यथार्थ थीं । इन सबों की तूलना में समाजवाद की स्थापना के लिये संग्राम बहुत अधिक कठिन, दीर्घकाल तक चलने वाला है क्योंकि इसका लक्ष्य है सभी किस्म के शोषणों की समाप्ति । शोषण पर आधारित हजारों वर्षों के दार्शनिक परम्परा का मोह तोड़ कर नया इन्सान तैयार करने का संग्राम है यह ।
राजसत्ता हाथ में लेने के 74 साल बाद भी समाजवाद का विघटन हमें हतप्रभ किया था । लेकिन आज पीछे की ओर देखते हुये आसानी से समझ में आती है कि बहुत पहले से ही समाजवाद में क्षय के लक्षण प्रकट हुये थे लेकिन हम निर्विकार थे क्योंकि हम, दुनिया के कम्युनिस्ट लेनिन की शिक्षा, हमें सतर्क रहने को कहती हुई उनकी वाणी भूल गये थे । पूंजीवादी जनवादी क्रांति से समाजवादपरस्त क्रांति का बुनियादी फर्क है । सामन्तवाद के गर्भ में ही पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली प्रसारित होती रहती है, मुद्रा का आधिपत्य एवं पूंजीपतियों की आर्थिक ताकत बढ़ती रहती है, राजनीतिक स्तर पर पूंजीपति वर्ग के द्वारा सत्ता पर कब्जा किये जाने से क्रांति का अंत होता है । लेकिन समाजवादी क्रांति में राजसत्ता पर कब्जा किये जाने से ही क्रांति की शुरूआत होती है । सत्ता पर कब्जा किये जाने के बाद आर्थिक, राजनैतिक एवं विचारधारा के क्षेत्र में लम्बे समय तक तीव्र वर्गसंघर्ष चलाये बिना क्रांति का विजय संभव नहीं – क्या यह बात हम भूल नहीं गये थे ? समाजवाद गरीबी का बँटवारा नहीं, प्रचुरता का बँटवारा है, प्रचुरता का दर्शन है । पिछड़े हुये देश में उत्पादन शक्ति के त्वरित विकास के बिना समाजवाद सफल नहीं हो पाता है । विश्वव्यापी पूंजीवादी घेरे के भीतर, उत्पादन शक्ति के त्वरित विकास के लिये कुछ पीछे हट कर लेनिन ने नई आर्थिक नीति या ‘नेप’ लागू किया । उस दौरान वर्गसंघर्ष को सभी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ा पाने पर, मज़दूर-किसानों को शोषण पर आधारित दर्शन की परम्परा के बन्धन से मुक्त नहीं कर पाने पर पूंजीपतिवर्ग द्वारा राजसत्ता दोबारा हथिया लेने के खतरों से क्या लेनिन ने हमें आगाह नहीं किया था ? कई गलतियों के कारण रूसी क्रांति की सफलता को अन्तत: आगे नहीं बढ़ाया जा सका, लेकिन उसके चलते क्या रुसी क्रांति का यथार्थ एवं थोड़े से समय में विस्मित करने वाली अग्रगति के किरणों की दीप्ति झूठी या भ्रामक हो जायेगी ? परिवर्त्तन के यथार्थ पर आस्था रखते हुये ही हमें अपने भूल-गलतियों का विश्लेषण करना होगा । बार बार पराजय या व्यर्थता के बिना क्या किसी नये सत्य की प्रतिष्ठा हो पाई है ? ‘सूर्य केन्द्र में है’ इस सिद्धांत को प्रतिष्ठित करने में क्या लम्बा समय नहीं लगा ? क्या उसके के लिये आत्मत्याग नहीं करना पड़ा ? सोलहवीं सदी के मध्य में प्रख्यात वैज्ञानिक एवं चित्रकार लिओनार्दो द विंची ने हवाई जहाज का मॉडल तैयार किया, आसमान में उड़ पाने की सम्भावना का यथार्थ सामने आया । बार बार के असफलताओं को पार कर उसे सफल करने में क्या साढ़े तीन शताब्दी का वक्त नहीं लगा ? हजारों वर्ष के वर्गसमाज के बाद मार्क्सवाद की उम्र तो ज़रा सी है !
मार्क्सवाद जड़सूत्र नहीं, कर्म का मार्गदर्शक है । किसी भी विज्ञान की तरह मार्क्सवाद भी विकासशील है । विज्ञान अंधा धर्मविश्वास नहीं, यथार्थ तथ्य एवं तर्क पर स्थापित है । मार्क्सवाद को त्यागने वाले ऐसे लोग जिन्हे सीधी तौर पर ‘मार्क्सवाद अब चलने लायक नहीं’ बोलने की हिम्मत नहीं होती, मार्क्सवाद को विकसित करने के बहाने उसके सारवस्तु को खत्म कर देते हैं । इतिहास में बार बार ऐसा हुआ है । मार्क्सवाद की बुनियादी बात क्या है ? समाज परिवर्तनशील है, उत्पादन करने की क्षमता के साथ सामंजस्य रखते हुये उत्पादन सम्बन्धों का परिवर्तन होता है, अर्थनीति के क्षेत्र में उत्पादन शक्ति एवं उत्पादन सम्बन्ध का अन्तर्विरोध एवं राजनीति व दर्शन के क्षेत्र में वर्गसंघर्ष ही समाज परिवर्तन की प्रेरकशक्ति है । क्या इस बुनियादी सत्य में कोई बदलाव आया है ? अवश्य ही यह सच है कि मार्क्स के समय पूंजीवाद जहाँ खड़ा था, लेनिन के समय जहाँ था आज वहाँ नहीं है । मार्क्स की भविष्यवाणी के अनुसार विश्व के आखरी कोने तक को पूंजीवाद ने अपनी जंजीरों में बाँध लिया है – यह आज विश्वव्यवस्था है । उत्पादन शक्ति का निरन्तर क्रांतिकारी रूपान्तरण बिना किये पूंजीवाद नहीं रह सकता है यह सत्य आज जाहिर है । विज्ञान व प्रौद्योगिकी का अचंभित करने वाला विकास मानवसमाज की सृजनक्षमता के नये दिगन्त का द्वार खोल दिया है । सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार व्यवस्था का विस्फोट दुनिया के व्यवहारिक दायरे को अत्यंत संकुचित कर दिया है । विज्ञान व प्रौद्योगिकी के कारण उद्योग एवं कृषि में विपुल मात्रा में अतिरिक्त का सृजन सेवा क्षेत्र को प्रसारित किया है – सफेद पोषाक वाले यानि ‘बाबु’ श्रमिकों की संख्या कई गुणा बढ़ गई है । विज्ञान व प्रौद्योगिकी के कारण ही कई क्षेत्रों में श्रम का पुराना चरित्र बदल गया है, श्रमजीवी लोगों में अलग अलग स्तर बने हैं । मेधाशक्ति का माल में तब्दील होने की प्रक्रिया तेजी से फैल रही है, भविष्य में यह मेधा सम्भावनामय शक्ति में रूपान्तरित होगी । पूरी तरह से सैन्य-शक्ति पर निर्भर करने वाला पुराना साम्राज्यवाद अब नहीं है, उसकी जगह पर आया है जरूरत पड़ते ही इस्तेमाल किये जाने लायक विशाल सैन्यशक्ति की धमकी के साथ पूरी दुनिया को आर्थिक गुलामी में जकड़ना । आज लेनिन के जमाने का कार्टेल और सिन्डिकेट पुराने हो गये हैं, विश्व के कुल उत्पादन का सिंहभाग पर अधिकार जमाई हुई बहुराष्ट्रीय संस्थायें राष्ट्रीय राजसत्ताओं को अपने प्रबंधक बना रही हैं । साम्राज्यवादी पूंजी आज पलक झपकते यहाँ वहाँ चले जाने को सक्षम और चंचल है, किसी भी कमजोर देश की अर्थनीति को ध्वस्त कर दे सकती है । आर्थिक निर्देशन जितना केन्द्रिकृत हो रहा है उत्पादन उतना ही विकेन्द्रित हो रहा है । समाजवाद के विघटन के बाद एकध्रुवीय दुनिया के डंके बजाये जाने के बावजूद विकसित पूंजीवादी देशों के बीच एवं उनके साथ तीसरी दुनिया के देशों का अन्तर्विरोध लगातार तीव्र हो रहा है ।
नि:सन्देह ये सारी विशिष्टतायें नई हैं । लेकिन ये मार्क्स के द्वन्दात्मकता के सिद्धांत को खारिज नहीं बल्कि और अधिक स्थापित कर रही हैं । देशों के बीच एवं देश के अन्दर वर्गीय अन्तर्विरोध के तत्व बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं ? संयुक्त राष्ट्र संगठन का मानव विकास प्रतिवेदन क्या कह रहा है उसकी पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं है । रोजगारहीन विकास तो उन्ही की अवधारणा है । सेवा क्षेत्र का विस्तार हो रहा है पर उसमें रोजगार के अवसर संकुचित हो रहे हैं । जनता के बड़े हिस्से की क्रयक्षमता शून्य है, मुट्ठीभर लोगों के भोगविलास के बाजार की मांग उन्नत प्रौद्योगिकी के कारण कमतर श्रम से ही पूरी हो जाती है, करोड़ों लोग गैरजरूरी हैं आज,  विपुल पैमाने पर श्रमशक्ति की बर्बादी है । कलकारखानों में, कृषि में, सेवा क्षेत्र में काम कर रहे लोगों में स्तरों का फर्क है लेकिन उनके बीच एकता के तत्व क्या बढ़ नहीं रहे हैं ? करोड़पतियों के भोज में व्यंजनों के जूठन के प्रत्याशी भीखमंगों की तरह, मेधापण्य के बाजार में थोड़ी सी जगह पाने के लिये मेधाशक्ति के बीच जो भयावह चूहों की दौड़ चल रही है, क्या कोई सन्देह है कि इसके फलस्वरूप मेधाशक्ति का बड़ा हिस्सा बाहर छिटक जायगा ? इतने बड़े पैमाने पर मेधाशक्ति क्या खामोशी से मौत को गले लगायेगी ? या संग्राम के मार्ग पर आयेगी ? दूसरे श्रमजीवी लोगों के साथ क्या वे अपनी आत्मीयता नहीं कायम करेंगे ? विभिन्न देशों में पूंजीपतिवर्ग का कमजोर हिस्सा क्या डूबने से बचने की कोशिश नहीं करेंगे ? सीमाविहीन अनैतिकता, अपराध, पाशविकता, नीचता, क्रुरता, हिंसा क्या पूंजीपतिवर्ग के ही बड़े हिस्से में अनिश्चयता के उद्वेग पैदा नहीं करेंगे ?
आसानी से समझ में आती है यह बात कि मार्क्स या लेनिन के युग में जो अन्तर्विरोध थे उनकी मात्रा कम नहीं हुई है बल्कि कई गुणा बढ़ गई है । निश्चय ही, पहले की तूलना में इन अन्तर्विरोधों में विविधता आई है, इन्ही विविधताओं में एकता के माध्यम से बुनियादी अन्तर्विरोध सफलता की ओर बढ़ेगा । इतिहास में, बदलाव का कोई खाका पहले से खींचा नहीं जा सकता है । इक्कीसवीं सदी इस अन्तर्विरोध को किस तरह विकसित करेगा हम नहीं जानते । लेकिन मानवसमाज का बड़ा हिस्सा गरीबी, वंचना, बेरोजगारी, विषमता एवं यंत्रणा के बदले मुट्ठीभर लोगों की भोगलालसा और कोड़ों की फटकार को हमेशा के लिये मान लेगा, ऐसा सोचना मनुष्य के प्रति आस्था खोने जैसा पाप तो होगा ही, आज तक के मानव इतिहास की दिशा को भी अस्वीकार करने जैसा होगा । समय को घंटा-मिनट या वर्ष से नापा जा सकता है, लेकिन उतने छोटे नापों से इतिहास को नापना संभव नहीं । उन्नत विज्ञान एव प्रौद्योगिकी समाजतंत्र के यथार्थ को खारिज नहीं कर रहा है बल्कि और अधिक स्थापित कर रहा है । इस कुत्सित शोषण की व्यवस्था के प्रति घृणा, दबे-कुचले वंचित जनता के साथ हमदर्दी एवं इतिहास की यथार्थवादी समझ के प्रति आस्था ही उस आदर्श के बोध का आधार है जो कम्युनिस्टों को, व्यक्तिजीवन की सीमा को पार कर मृत्यु का सामना करने लायक बना सकता है ।
कम्युनिस्ट भी इन्सान है और पूंजीवादी समाज के नियमों के अनुसार ही उसे जीवित रहना पड़ता है । उनका भी एक व्यक्तिजीवन है, दूसरों की तरह उनकी भी समस्यायेँ हैं, यंत्रणायें हैं । अभी भी है और अतीत में भी था । लेकिन अतीत में हम सरकार3 में नहीं थे, प्रति दिन अधिकारहीनता की वेदना के पहाड़ों को दूसरों की तूलना में और अधिक ठेल कर हमें आगे बढ़ना पड़ता था । इसे टालने के लिये मौकें या सुविधायें हमारे पास नहीं थे, भीतर से आदर्शवाद को चोट पहुँचा सके ऐसे तत्व नहीं थे । लेकिन आज हम एक राज्य सरकार में हैं । अधिकांश नगरपालिकाओं एवं त्रिस्तरीय पंचायतों में हैं । कितने ही लोगों के बलिदान के फलस्वरूप आज हम प्रशासन में आये हैं और कायम हैं । राजसत्ता पर कायम पूंजीपति-जमींदार और हम एक राज्य के प्रशासन में, एक विचित्र स्थिति है, कोई मिसाल नहीं है दुनिया में । जो भी अवसर उपलब्ध हैं उन्हे जनता के लिये इस्तेमाल भी करना होगा और उन्हे समझाना भी होगा कि सरकार में रहने के बावजूद सत्ता उनकी नहीं है । कठिन काम है यह, पर इससे भी अधिक कठिन काम है आदर्शबोध को सही रखना । पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के बीच अन्तर्विरोध, व्यक्तिगत हित एवं आदर्शबोध के बीच अन्तर्विरोध । पारिवारिक जीवन में पूंजीवादी समाज के प्रतिस्पर्धा के नियमों को मान कर ही हमें जीवित रहना पड़ेगा लेकिन उस प्रतिस्पर्धा में प्रशासनिक एवं सामाजिक ताकत को पक्षपात के साथ इस्तेमाल नहीं करना होगा । भयानक कठिन काम है । भोजन के अभाव के कारण मृत्यु कठिन है लेकिन दूसरे भूखे का भोजन नहीं छीनकर मरना उससे कहीं अधिक कठिन है । आदर्शबोध का कठिन कवच ही इस कठिन काम के लिये हमें सक्षम बना सकता है । हममे से कुछ लोगों के आदर्शबोध में कमी आ रही है, पैर लड़खड़ा रहे हैं, फिर भी हमारे अधिकांश कार्यकर्ताओं के आदर्शबोध को लेकर हम गर्वित हैं । उसी के चलते छठी बार वाममोर्चा को विजय प्राप्त हुआ है । कुछ लोग वाम मोर्चा के विजय को एक ही स्तर पर आवर्तन मानते हैं । वे भ्रम में हैं । थोड़ा सोचने पर ही समझ में आ जायेगा  कि 1977 का चुनाव एवं 2001 का चुनाव एक ही जैसा नहीं है, लोगों की चेतना के एक ही स्तर का परावर्तन नहीं है । लेकिन वह एक अलग प्रसंग है । अभी विषय है आदर्शबोध । उस आदर्शबोध पर भीतर से हमले की कोशिश चल रही है, विकृत-अश्लील भोगवाद एवं सिद्धांतहीनता का व्यापक प्रचार उस हमले के लिये अनुकूल परिस्थिति तैयार कर रहे हैं । इसके खिलाफ हम में से हर एक साथी को अपने साथ लड़ाई लड़नी पड़ेगी तथा पार्टी के अन्दर संग्राम करना पड़ेगा । इसका कोऐ विकल्प नहीं है । इसी आदर्शबोध को सीने में लेकर हमारे पूर्वज अनजाने रास्ते पर अमृत की खोज में यात्रा शुरू किये थे, हमें भी उसी आदर्शबोध को सुदृढ़ कर खुद को उन्नत करना होगा । पुराने लोगों के चले जाने से आया सूनेपन को भरना होगा; देर करने की गुंजाइश नहीं है, जल्द करना होगा ।


1यह लेख वर्ष 2001 में लिखा गया एवं ‘देशहितैषी’ में प्रकाशित हुआ था ।   
2कॉ मुज़फ्फर अहमद प्रेम और आदर से ‘काकाबाबु’ कहे जाते हैं ।
3वर्ष 2001 में वाममोर्चे की सरकार सत्तासीन थी ।  

[देशहितैषी शारद-2001 में प्रकाशित लेख का मूल बांग्ला से अनुवाद]


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