चलिये, अब थोड़ा रॉबिनदा के बारे में बतायें । वैसे रॉबिनदा के बारे में मुझे
हिन्दी में लिखना चाहिये कि बंगला में, इसे लेकर मन में थोड़ा अनिश्चय था । फिर लगा
मेरे बंगलाभाषी दोस्त तो हिन्दी पढ़ लेंगे, पर मेरे हिन्दीभाषी, खास कर बुद्धिजीवी
मित्र, बंगला साहित्य से उनके लगाव का बखान जरूर करेंगे पर थोड़ा कष्ट करके बंगला
सीखेंगे नहीं, क्योंकि वे ‘राजभाषी’ हैं ! और फिर बंगला और हिन्दीभाषी उत्तर
भारतीय, जिसमें मैं खुद शामिल हूँ, कभी दबाव नहीं डालेंगे सरकार पर कि स्कूलों में
तीसरी भाषा (पहली मातृभाषा और दूसरी राजभाषा के साथ साथ) के रूप में कोई दक्षिण
भारतीय भाषा पढ़ाई जाय ! कभी तकलीफ तक नहीं होगी बोध के इस अभाव का कि कैसा होता होगा
कुवेम्पु के कन्नड़ में कर्णाटक के पहाड़ी रास्ते पर पके तोतापरी आम का सुगंध !!
1970-71 में रॉबिनदा से पहली मुलाकात के पहले ही वह मेरे लिये ‘नायक’ बन चुके
थे । उस वक्त जक्कनपुर में पल, बढ़ रहे हम नये नये कवि थे और उनदिनों बंगला के नये
कवि, लेखकों का पहला पड़ाव बताया जाता था पुराना जेल के सामने एल॰आई॰सी॰ ब्रांच 2
में जीवनमय दत्ता या जीवनदा का टेबुल । हम कई लोग उन्हे घेर कर बैठते थे । उस वक्त
यह भी नहीं पता था कि इस मार्ग से अलग भी कोई मार्ग है ‘कवि-साहित्यकार होने की
ट्रेनिंग’ का । वह तो दीपन मित्र से मुलाकात के बाद मालूम पड़ा । लेकिन जीवनदा की
पत्रिका ‘सप्तद्वीपा’ मेरे हाथ लग चुकी थी –
एखाने तो मध्यराते सॉत्तार गोभीरे शुधु पदध्वनि शुनि
भ्लादिमिर आपनि कि आमाके आज क्रुशे बिद्धो कोरे जाबेन
कारण निजेर काछे समोर्पितो रक्तेर लेगूने
सूर्योदय होलोना
एखोनो…
[यहाँ तो मध्यरात्रि में, अस्तित्व की गहराई में सुनता हूँ पदध्वनि सिर्फ
व्लादिमीर, क्या मुझे आज सलीब पर चढ़ा जायेंगे आप
क्योंकि खुद को समर्पित रक्त के लेगून* में
सूर्योदय
नहीं हुआ अभी तक
*अंग्रेजी शब्द Lagoon
रॉबिन दत्ता की कविता ‘व्लादिमीर इलिच लेनिन’ की पंक्तियाँ]
और रॉबिनदा मेरे ‘नायक’ बन चुके थे । उनकी काव्यभाषा एवं लय की अक्षम नकल करने
लगा मैं चोरी चोरी । फिर सुनते भी रहा उनके बारे में, जीवनदा के अड्डे पर भी और
दीपन एवं उसके दोस्तों, शेखर, सुब्रत से भी । सुना कि वह आज कल लगभग लिखते ही नहीं
हैं । मन में उनकी रहस्यमयता बढ़ने लगी ।
उस वक्त मैं एक हस्तलिखित पत्रिका ‘अभियान’ से जुड़ चुका था जिसके मुख्य
कर्ताधर्ता थे पार्थ सारथी राय, मीठापुर के रहने वाले । जक्कनपुर के मित्रालय का
पार्थ सारथी मित्रा हमारा अभिन्न मित्र था एवं पत्रिका के साथ उसीने मुझे जोड़ा था
। बांग्लादेश में मुक्तिवाहिनी के विजय पर एक अंक निकल चुका था । मैंने थोड़ा उद्यम
दिखाया और हुआ कि पत्रिका अगले अंक से मुद्रित होगा । भिखनापहाड़ी स्थित भारती
प्रिन्टर्स से बातचीत हो गई बस चुनौती थी उस वक्त देवघर में कार्यरत रॉबिन दत्ता
की एक कविता मंगाने की । जिम्मा मैने ही लिया । पता जुगाड़ कर एक पोस्टकार्ड लिख भेजा
। जबाब आया लम्बा, लिफाफे में बन्द दो पृष्ठ कागज में, जिसमें हमारे सारे प्रयासों
की नि:सारता इतिहास की वृत्ताकार गति का बिम्ब इस्तेमाल कर व्यक्त की गई थी । मैं
भी ठहरा नया नया ‘बोद्धा’ (यह बंगला शब्द है), मैने अपने उतने ही लम्बे जबाब में
वृत्त के किनारे से एक टैन्जेन्ट (स्पर्शरेखा?) खींचने की कोशिशों की बात की ।
आ गई कविता ‘नील आलो चोले जाच्छे कोलकाता थेके कुड्डालोर …’। उस कविता के साथ
सीना चौड़ा करते हुये निकला ‘अभियान’ का पहला मुद्रित अंक ।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद उनसे पहली मुलाकात हुई । यहाँ एक बात यह भी बता
देना जरुरी है कि तब तक मैं कदमकुआँ के देवालय से निकलने वाली पत्रिका ‘किसलय’ में
दीपन मित्र की कविता भी पढ़ चुका था और दीपन से मित्रता के कारण जीवनानन्द दास की
कविताओं का संग्रह भी हासिल हो चुका था – यानि रॉबिन दत्ता से बात करने के लिये
मैं कुछ बेहतर ढंग से लैस हो चुका था ।
पार्थ सारथी मित्र के पिताजी सातकड़ी मित्र सेवानिवृत्त होने के बाद डाक्टरी
करते थे, उन्ही के चेम्बर के बाहर रॉबिन दत्ता से पहली मुलाकात हुई । मिलते ही
मेरी मुग्धता और बढ़ गई । हम सबसे अलग ‘डोले-शोले’ वाली मजबूत काठी, लम्बा कद, टेनिस
खेलनेवाली चौड़ी कलाई और बात करने का खास तरीका ! पॉकेट में हाथ डाले, कंधा बाँई ओर
थोड़ा झुकाये हुये, झूमते हुये चलते थे । खूब बात किये उस शाम को पर कुछ याद नहीं
क्या बातें हुई थी ।
उनसे अगली मुलाकात हुई कदमकुआँ स्थित ‘भागलपुर मेस’ में । पता चला था कि उन्हे
कठिन बीमारी हुई है, नेफ्राइटिस, उसी के इलाज के सिलसिले में वह पटना आये हुये हैं
। शरीर सूजा हुआ था और पीला पड़ा हुआ था, शायद उनकी माँ भी बगल में थीं, मेस के लोग
थे, बहुत कुछ बातें करना सम्भव नहीं था ।
हमारी पत्रिका ‘अभियान’ लगभग नियमित तीन महीना पर प्रकाशित हो रही थी । जीवनमय
दत्ता के साथ मिल कर योजना बनी कि रॉबिनदा की अब तक की छपी कविताओं को जुटा कर
हमारे ‘अभियान’ में 1 से 16 पृष्ठ तक एवं जीवनदा के ‘सप्तद्वीपा’ में 17 से 32
पृष्ठ तक छापा जाय एवं दोनों सेट का 500-500 ऑफ-प्रिन्ट निकाला जाय । दोनों
पत्रिकायें कलकत्ता में एक ही प्रेस में एवं एक ही टाइपसेट में छपेंगी । बाद में
दोनों ऑफ-प्रिन्ट्स को मिला कर काव्य संकलन प्रकाशित किया जायगा । संकलन का नाम
वही होगा जो खुद रॉबिनदा ने कई वर्षों पहले तय किया था – ‘मानुषेर नामभूमिकाय’ ।
सब कुछ प्लान के मुताबिक हुआ पर गाड़ी वहीं अटक गई, और आज (यानि 2017) तक अटकी हुई
है । नो परमिशन । कवि की अनुमति नहीं । ऑफ-प्रिन्ट्स प्रेस में दीमक चाट गये ।
कुछ दिनों के बाद मुझे बैंक में नौकरी लगी और मैं चला गया धनबाद ।
पहली नौकरी, घर से अलग मेस बनाकर रहना, पूर्णेन्दू मुखोपाध्याय (वह उस वक्त
कत्रास कॉलेज में प्राध्यापक थे) से मुलाकात, धनबाद जिला साहित्यकार संघ के रूप
में खोरठा व हिन्दी के साथ हमारी बंगला की साहित्यिक गतिविधियाँ आदि से मेरा मन
तेजी से बदल रहा था । बरसात में एक शनिवार को ट्रेन पकड़कर मैं चला गया जसीडिह, फिर
देवघर । भारी बारिश में भींगते हुये पहुँचे कैस्टर टाउन में रॉबिनदा के घर । बड़ा
सा पुराने ढाँचे का मकान । सामने आंगन, बगीचा । खुद बैंक के अधिकारी थे और देवघर
भी उस समय, उस समय ही क्यों झारखंड बनने के पहले तक काफी सस्ता और सूना सूना रहता
था । भीड़ होती थी बस वही, सावन में, वह भी आज से बहुत कम । आस्था का इतना संकट तो आया 1991 के बाद ! खैर,
तो किराये में इस तरह का घर रॉबिनदा ल्रे ही सकते थे । कपड़े बदल कर, चाय पीकर उनके
विल्स नेवी कट की डिबिया से एक सिगरेट सुलगाकर बैठे ही थे कि उन्होने पूछा
‘रेकॉर्ड सुनोगे?’ मतलब संगीत सुनने से था, क्योंकि संगीत उस वक्त 331/3,
या 45 आरपीएम के रेकॉर्डस में ही सुनने को मिलता था । और मेरे कुछ कहने से पहले
उन्होने लगा दिया एकर बिल्क का ‘टच ऑफ लैटिन’, जादुई क्लैरिओनेट के साथ लियोन यॉंग
का स्ट्रिंग कोराल ।… शादी, ब्याह में क्लैरिओनेट का पें पें सुनने वाला आदमी
बिल्कुल पागल हो गया । उसके बाद ट्रैक बदला । हम चले आये रविशंकर-अली अकबर की
सिंधी भैरवी में । वह न्युयार्क फिलहार्मोनिक वाला रेकॉर्डिंग नहीं, (वह हमेशा
मुझे थोड़ा कम अच्छा लगा) दूसरा वाला, जिसके पीठ पर राग श्री था ।
दो दिन मैं पागल की तरह ही बिताया, संगीत सुनते हुये, बातें करते हुये, घूमते
हुये । नन्दन पहाड़ के पीछे एक खुले कब्रिस्तान में किसी कब्र पर छोटी सी बच्ची या
परी की मूर्ति लगी थी, संगमर्मर की बनी, पूरी मूर्ति तोड़ कर ले गये थे चोर, सिर्फ
नन्हे दो पैर के तलवे बचे थे, बारिश से भीगे हुये, खूब सहलाये थे हम दोनों, उन
नन्हे पैरों और उंगलियों को ।…
एकबार और गया था मैं देवघर – शिवबच्चन सिंह (हिन्दी के प्राध्यापक थे गोपालगंज
में) भी आ गये थे, हम दोनों गये सिमुलतला – बातें अधिक नहीँ हो पाई उस बार ।
मैं भी पटना आ गया था और रॉबिनदा भी लखीसराय आ गये थे । वहाँ अकेले ही रहते थे
। एकबार मैं पहुँचा था कविता के कुछ नये संकलन लेकर – शायद मिरोस्लाव होलुब,
वास्को पोपा, एन्जेन्सबर्गर और … याद नहीं । फिर रॉबिनदा भी पटना आ गये । सपरिवार
रहने लगे मेरे ही मोहल्ले, श्रीकृष्णानगर में । तब शुरू हुई गुरु के घर में मेरी
शिष्य-परम्परा ।
रॉबिनदा तो अपने ही ढंग के काम करेंगे । बैंक के स्टाफ कॉलेज के फैकल्टी बन कर
ट्रान्सफर हुये थे, पर पटना आकर उन्होने स्कूटर नहीं एक हरा रॉबिनहुड साइकिल खरीदा
ऑफिस जाने आने के लिये । और उसकी सुरक्षा के लिये हाथी बाँधने की जंजीर और सात
लीवर का ताला ।
जैसा मैंने आलोक धन्वा से जुड़ी स्मृतियों पर लिखते हुये जिक्र किया था कि उस
समय हर शाम हम दोस्तों का जुटान होता था नाला रोड में प्रोफेसर्स लेन के अन्दर
दीपन मित्र के घर पर, जहाँ हमारा सामूहिक अध्ययन भी (कविता एवं विचारों का) चलता
था और फिर सब मिल कर घूमने निकलते थे राजेन्द्रनगर के दस नम्बर रोड की ओर … तो
रॉबिनदा भी पटना आने के बाद उन शामों में शामिल होने लगे ।
और सुबह, सुबह क्या रात रहते रहते ही पहुँच जाते थे मेरे घर, खिड़की के बाहर से
आवाज देते थे । फिर मैं भी तैयार होकर बाहर आता था और हम जॉगिंग करते निकल जाते थे
बोटानिकल गार्डेन (संजय गांधी जैविक उद्यान) की ओर । दर असल मेरे ही इन्तजार के
लिये वह थोड़ा ज्यादा पहले मिकलते थे । क्योंकि मेरा पेट निकला हुआ था, मुझसे अधिक
यह उनके लिये चिन्ता का विषय था । मेरे लिये बहुत मुश्किल होता था देर रात तक जग
कर सुबह उठना । अन्त में थक हार कर उन्होने मेरे सेहत को दुरुस्त करने का
कार्यक्रम छोड़ दिया, अकेले ही जाने लगे मॉर्निंग वाक में ।
शुरू में तो हम सब ने, यानि मैं, दीपन, आलोकजी ने मिल कर दबाव बनाया कि वो
दुबारा कविता लिखें । कविता तो लिखे नहीं पर कुछ दिनों के बाद शायद सुबह को (चूँकि
अब हम दोनों एक ही मोहल्ले में थे) उन्होने एक पेन्टिंग दिखाया – 18”X12” के
बोर्ड-माउन्टेड कैनवास पर । मैं दंग रह गया । ड्रॉइंग में सधा हाथ था यह तो मालूम
था पर इतना सुन्दर पेन्टिंग भी ! अब पेन्टिंग को लेकर हम पीछे पड़ गये । बोले तब
छुट्टी के दिनों में जाना पड़ेगा दूर दूर । मैंने कहा मैं जाउँगा आपके साथ ।
एक नया सिलसिला शुरु हुआ । वह झोले में ड्रॉइंग बुक और मैं अपने झोले में क्लिप-बोर्ड
पर कागज लगाकर अपनी अपनी साइकिल से निकलते थे । कभी हवाई अड्डे की तरफ, कभी किसी
सुनसान सरकारी क्वार्टर के अहाते में कभी और कहीं । वह ड्रॉइंग या पेन्टिंग के
लिये स्केच करते थे (इजेल वगैरह तो था नहीं इसलिये कैनवास लेकर जाना निरर्थक होता)
और मैं अलग कहीं पेड़ के नीचे बैठ कर कविता लिखने की कोशिश करता था ।
लेकिन निसर्ग का एकांत तो सिर्फ अपनी झिझक मिटाने के लिये था । कुछ ही दिनों
के बाद खबर मिली कि हार्डिंज पार्क के विपरीत रेललाइन के सामने वाली जगह में
बन्जारों की जो बस्ती थी वह तोड़ दी गई है । कुछ लोग इधर उधर गये और कुछ रबीन्द्र
भवन के सामने रहने लगे हैं । वह सुबह को ही जाने लगे वहाँ, लोगों से बात करते हुये
अपना स्केच करने लगे । एक परिवार से तो दोस्ती भी कर ली, एंग्लो-बर्मीज थे, कुछ
ईसाई नाम था उनका, तार की जाली वाला पिंजरा बना कर सारा परिवार गुजारा करता था,
हालाँकि पोते अब मजदूरी की तलाश में निकलने लगे थे । फिर रॉबिनदा ने मुझे बताया ।
अगले कई रविवार दोपहर को मैं भी जाते रहा रॉबिनदा के साथ । कविता तो नहीं, शब्दों
का एक लम्बा स्केच लिखा मैं, एक दोपहर को लेकर ।
अब बात कुछ और आगे बढ़ी । मन्दिरी मोहल्ले में रॉबिनदा ने एक बढ़ई मिस्त्री ढूंढ़
लिया था । ईजेल का नाप लिखवा दिया था । साथ ही बड़े कैनवास के लिये बड़े बड़े फ्रेम
के भी ऑर्डर दे दिये थे लकड़ी चुन कर । महेन्द्रु घाट के रास्ते के विपरीत, कैनवास
के बड़े दुकान से थान निकलवाकर अलग अलग नाप के कैनवास कटवाये गये, कोकई काँटी
(कच्चे लोहे के कील, जूतों ठोंकने के काम आते हैं) खरीदा गया, बढ़िया ग्लु के लिये
सरेस का गोंद रॉबिनदा खुद पेड़ पर से खुरच कर लाये, फिर प्राइमर, रंग के बड़े बड़े
ट्यूब, बड़ी-छोटी हॉग-हेयर एवं सैबल-हेयर (ये सारे नाम मुझे उन्होने ही बताया था)
फ्लैट व राउंड ब्रशेज खरीदे गये । तब दोपहर में हमारा काम शुरु हुआ । कभी मैं
फ्रेम पर खींच कर प्लायर्स से पकड़ता था कैनवास, रॉबिनदा काँटी ठोकते थे, कभी मुझे
डाँट कर भगाते थे कि मुझमें ताकत नहीं है खींच नहीं पा रहा हूँ, फिर खुद खींचते थे
और मैं ठोकता था काँटी । तब ग्लु का लेप चढाते थे वह खुद । प्राइमर का लेप चढ़ाते
थे वह खुद । कभी कभी अविश्वास के साथ मुझे भी देते थे करने के लिये ।
हमारी रातें अब साथ बीतने लगीं । देर रात तक ईजेल पर कैनवास चढ़ाकर वह पेन्टिंग
करते थे । मैं बगल में बैठ कर या लेट कर उनसे बातें करता था, किताबें पढ़ता था और
लिखता था । घर में उनकी माँ, पिताजी (जो लगभग बिस्तर पर ही रहते थे) उनकी पत्नी और
दो बच्चे – अमित और सोमा – थे । नींद आने के पहले तक अमित भी मेरे गोद में रहता था
अक्सर और सोमा भी रहती थी । यहाँ बता दूँ कि रॉबिनदा के पिताजी प्रख्यात
क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त के सगे भाई थे, इसलिये वर्धमान जिले के गाँव में
बटुकेश्वर दत्त का घर देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था ।
कितना विस्मय भरे थे वे दिन । पेन्टिंग करने के अलावे पेन्टिंग्स पर बातें भी
होती थी । उन्ही से जान कर मैंने लस्ट फॉर लाईफ पढ़ा (आर्विंग स्टोन लिखित वान गॉग
की जीवनी), फिर उन्ही की लिखी ‘ऐगोनी एंड एक्स्टैसी (मिकेलांजेलो की जीवनी) एवं
‘सेलर ऑन हॉर्सबैक’ (अमरीकी लेखक जैक लन्दन की जीवनी) भी पढ़े । फिर पूरे
इम्प्रेशनिस्ट पीरियड के बारे में जाना और फिर …
शाम को दीपन का घर, दस नम्बर रोड, हमारी बातचीत और जीवनबोध मे भरने लगा
टिन्टोरेट्टो के आसमान का नीला, रेम्ब्राँ के नाईट वाच का बर्न्ट अम्बर, मोनेत की
बार वाली लड़की के सामने रखी नारंगियों का वाल्यूम और वजन, वान गॉग कृत पोस्टमैन
रुलाँ की आँखेँ, साइप्रेस और तारों का घुमाव, डाक्टरी जाँच के लिये गाउन उठाये खड़ी
लोत्रेक की वेश्याओं की करुण जांघें, … और हवा और धूप !
सब अपनी अपनी नज़र से कुछ नई चीजों को खोजते रहते थे ऐल्बम्स में । धड़ाधड़ खरीद
रहे थे छोटे बड़े एल्बम, रॉबिनदा भी, मैं भी, दीपन भी । कुछ आलोकजी के पास भी पहुँच
गये थे ।
एकबार चर्चा हो रही थी लोत्रेक के बारे में । वान गॉग के आर्ल्स का खुलापन
उनकी पेन्टिंग्स और ड्रॉइंग्स में तो है नहीं । सर्कस सिरीज के ड्रॉइंग्स में कहीं
कहीं रंग डाल कर उन्होने अपनी प्यास को अभिव्यक्त किया है । बाकी तो पैरिस के धनी
कुलीनों का एवं एवं उनकी सेवाओं में लगी नर्तकियों, भँड़ुओं एवं वेश्याओं का अश्लील
रात्रिजीवन का चित्रण है । घृणा, सिर्फ घृणा है उन चित्रों में । शरीर के कारण
कहीं जाने आने में भी अक्षम थे लोत्रेक और परिवार के सामन्ती वातावरण की आदतें भी
थी । फिर भी कितनी घृणा थी उनमें ।
मैंने कहा, पर लोत्रेक और वान गॉग की आत्मा एक थी । दोनों तत्कालीन समाज के
खिलाफ सोच के लगभग एक ही धरातल पर थे । (बरसों बाद एक अंग्रेजी शब्द मिला था मुझे
इसके लिये, ‘बाइनरी’) । बहस को आगे बढ़ाते बढ़ाते एक दिन मुझे किसी ऐल्बम में ‘लॉन्ड्रेस’
मिल गया, लोत्रेक का । मैंने कहा देखिये, इस धोबिन को, 1871 के पैरी कम्यून के बाद
की धोबिन है, मिलाइये ‘थर्डक्लास कैरेज’ वाले दॉमियेर की धोबिन और उसके बच्चे के
साथ । रॉबिनदा तुरन्त फिदा हो गये ‘लॉन्ड्रेस’ की टेबुल पर झुक कर खड़ी दूर देखती
हुई भावपूर्ण मुद्रा और टेबुल के किनारे को मजबूती से पकड़ी हुई उसकी बाँई कलाई पर
।
उत्तर-1871 के इस गॉग-लोत्रेक द्विविध अभिव्यक्ति पर काम करते हुये हम पहुँच
गये रेनेसाँ काल में । इसबार भी मैने ही ढुँढ़ कर लाया ब्रुगेल द एल्डर को ।
ब्रुगेल तो इटली गये भी थे । लेकिन लौट आये अपने देश जहाँ उस नवजागरण का नामोनिशान
नहीं था । अपने समाज के पिछड़ेपन को लेकर अपनी व्यथा और करुणा को अभिव्यक्त किया
अजीब भद्दई वाले कपड़े पहने गँवई लोग, सड़क पर पेशाब करते तीन युवक, तीन अंधे, बर्फ
में शिकार… उस जीवन में खुशी के मौकों पर भी कितने दबे रंग है ‘गँवई शादी के भोज’
में । मैंने कहा यहाँ भी वही फेनोमेनन है – मिकेलांजेलो-ब्रुगेल !
जितनी बातें रेनेसाँ से लेकर इम्प्रेशनिस्ट पीरियड तक को लेकर होती थी, बीसवीं
सदी में आकर, सिर्फ पिकासो के पिंक पीरियड एवं सोवियत पेन्टिंग को छोड़ कर कम बातें
होती थी । अब ग्वेर्णिका पर बातें होना, कैथे कोल्वित्ज के चारकोल ड्रॉइंग्स या
थोड़ीबहुत शागाल या मातिस या दाली पर बातें होना अलग है ।
भारतीय पेन्टिंग्स में हम बॉम्बे स्कूल और बेंगॉल स्कूल के कलाकारों की तूलना
करते थे, लेकिन एक बात जो खटकती थी वह थी जॉनर पेन्टिंग की कमी और उसमें भी
औद्योगिक श्रम के दृश्यों एवं आजादी के संघर्ष से लेकर आगे के कई बड़े संघर्षों के
दृश्यों की सम्पूर्ण उपेक्षा । जो है उसमें भी एक स्टाइलाइजेशन शुरु से ही हावी हो
जाता है । यह भी बात समझ में आती थी कि आन्दोलनों से जुड़े कलाकार होने चाहिये ।
सोमनाथ होड़ थे तो तेभागा के चित्र हम देख पाये । चित्तोप्रसाद थे तो… ।
इन्ही दिनों के दौरान मुझे अपना ‘पोर्ट्रेट’ भी मिल गया, रेनातो गुत्तुसो का
‘रोक्को विथ ग्रामोफोन’ । मिल गया मतलब सोवियत लैन्ड में छपा उसका चित्र । हमें
पेन्टिंग कहाँ से मिलेगी । आज भी मेरे घर की दीवार पर रोक्को मेरे साथ है, सिगरेट
पीते हुये, ग्रामोफोन सुनते हुये …।
इसी बीच रॉबिनदा के ईजेल पर एक के बाद एक कैनवास चढ़ने लगे और उतरने लगे । एक
प्लैटफॉर्म था रात का जिस पर ट्रेन गुजर रही थी । फ्रेम के बीचोबीच एक ताम्बे का
कलश जिसमें मुचकुन्द (हिन्दी में क्या कहलायेंगे?) के फूल, पत्ते सहित । ट्रेन
वाला एक और पेन्टिंग था जिसमें भाप छोड़ते इंजन के पास ड्राइवर के साथ एक और आदमी
खड़ा है, पीछे से बिल्कुल रॉबिनदा जैसा । …
हाँ, पेन्टिंग्स के साथ साथ हमारा संगीत का स्टॉक भी बढ़ने लगा । दीपन जुटाया
आमीर खाँ, हेन्डेल का ‘काक्कु एन्ड नाइटिंगेल’ …। मैंने जुटाये किशोरी अमोनकर, मोज़ार्ट
का वायलीन कॉन्सर्टो, बिठोवेन का ‘ला एम्पेर्योर …। इसी तरह चलने लगा । फिर
रॉबिनदा के ऑफिस का एक मित्र पटना में आया, विकास । उसके पास भी खूब स्टॉक था ।
फिर दीपन के घर का रबीन्द्रसंगीत तो था ही – देवब्रत विश्वास की आवाज थी । संगीत
में हम सब एक ही अनुपम विरासत के थे । दशहरा के समय पटना में होने वाले
कार्यक्रमों के श्रोता होने की विरासत ।
फिर एक दिन वह दिन भी आया, काला दिन । हम सब उस वक्त एक राजनीतिक ग्रुपिंग के
अन्तर्गत थे । काफी बदलाव आ रहे थे हमारी सोच में पर सांगठनिक दृष्टिकोण वही
पुराना वाला था । सामान्य सा एक ड्रॉइंग थी रॉबिनदा की और सामान्य आलोचना थी आलोक
धन्वा की । बस, उसी पर आसमान उठा लिया गया । तीखी बहस के अन्त में रॉबिनदा सहित
बाकी लोग एक तरफ थे और आलोकजी, दीपन और मैं दूसरी तरफ । हम सख्ती के साथ मीटिंग
छोड़ कर बाहर निकल गये ।
अगले दो दशकों तक रॉबिनदा हमारे जीवन से ही अलग हो गये ।
बीच में एक बार पता चला कि वह किसी ऑपरेशन के लिये शरीफ कॉलोनी में डा॰ हई के
क्लिनिक में भर्ती हैं । मैं दौड़ कर गया पर मालुम हुआ कि उनका डिसचार्ज हो चुका है
। फिर एक बार मेरी शादी के दो वर्षों के बाद उन्हे रास्ते पर देखा गुजरते हुये ।
मैंने उनका हाथ पकड़ा और खींच कर ले आया अपनी पत्नी और बच्चे से मिलाने के लिये ।
बाहर ही खड़े खड़े वह अनमने ढंग से मिले और चले गये । फिर मालुम हुआ वह ट्रांसफर
लेकर कलकत्ता चले गये हैं ।
कुछ दिनों के बाद दीपन मित्र भी चला गया कलकत्ता । मैंने कहा था उससे कि
रॉबिनदा के बैंक में जाकर पता करने कि वह कहाँ हैं । पर वह नहीं कर सका ।
पर जादू का चिराग तो जलेगा ही घिसते रहने पर । जब भी मैं कलकत्ता जाता था, शाम
को विनय-बादल-दिनेश बाग (यानि जीपीओ के पास, लालदिघि के उस पार …) से खुलने वाली
या हावड़ा से आने वाली बसों के लिये लगी कतारों में मैं उनका चेहरा तलाशते रहता था
। एक दिन मिल ही गये । मैंने खप्प से पकड़ा उनको । ऑफिस का पता, घर का पता ।
कलकत्ता मैं ज्यादा दिनों के लिये तो जाता नहीं था । अगली बार गया तो उनके
ऑफिस में जाकर मिला । पर बात बन नहीं रही थी । वह करीब आने से कतरा रहे थे । वैसे
हम भी कहाँ थे उन्हे अपने हाल में छोड़ने वाले । जादबपुर वाले घर पर पहुँचने का तो
मौका नहीं निकाल पाया, पर ऑफिस जरूर जाता था । न रहते थे तो बगल वाले को नाम पता
लिखाकर आता था कि उनको पता चले कौन आया था ।
मुझे पता नहीं था कि उनके जीवन में क्या क्या परिवर्तन हो रहा था, बच्चे कहां
थे, पिताजी या माँ जीवित थे या नहीं …।
कई वर्षों के बाद एक दिन शाम को पटना में मै अपने बैंक के मुख्य शाखा में
युनियन के किसी काम के सिलसिले में बैठा हुआ था । अचानक सात बजे के आसपास उन्हे
देखा दरवाजे से अन्दर प्रवेश करते हुये । मैं आगे बढ़ा, ‘रॉबिनदा, आप यहाँ !’
‘हाँ, तुम्ही से मिलने आया हूँ । अरुण (बगल में खड़ा था, उनका भांजा) बोला कि
तुम यहीं पर मिल जाओगे । युनियन का काम रहता है ।‘
उफ ! कितने वर्षों के बाद ! डाकबंगला चौराहे एक बन्द दुकान की सीढ़ी पर बैठ कर
बैठ कर हम बात करते रहे …।
अगले दिन मिलने की बात नहीं निकल पाई क्योंकि उनको वापस जाना था, पर वादा करके
गये की अमुक तारीख को वह फिर पटना आयेंगे तो हमारे घर पर खाना खायेंगे । तब तक
मोबाईल का जमाना चला आया था इसलिये गुम हो जाने की गुंजाइश कम हो गई थी ।
आये वह । उस दिन 11 बजते बजते पहुँच गये मेरे घर । हाथ में एक बड़ा भारी थैला ।
‘यह सब क्या है ?’
उसमें से पहले निकला दो लैन्डस्केप, फ्रेमिंग किया हुआ । बोले, इधर के दिनों
में किया था, किसी किसी को देने के लिये, उसी का कलर-जेरॉक्स है, बढ़िया जगह से
कराया है, बदरंग नहीं होगा बहुत दिनों तक, तुम्हारे लिये, लो । ले लिया । मेरी
बेटी पहली बार उनसे मिल रही थी, वह भी पहली बार मिल रहे थे; बेटी ने पेन्टिंग्स
देखा और दोनों अपने पास रख लिया । फिर झोला बढ़ाते हुये बोले इसमें कुछ पुराने
पेन्टिंग्स हैं उन दिनों के, ये भी रख लो । उसमें एक हम दोनों का बनाया हुआ
माउन्टेड कैन्वास था, जिस पर उन्होने धुंध भरे जंगल का हरापन को एक्स्प्लोर कर रहे
थे । दूसरा, एक दूसरा मीडियम था जिस पर हम उन दिनों काम करते थे, यानि मैं खरीद कर
लाता था और वह पेन्ट करते थे – मैसोनाइट बोर्ड – बिना प्राइमर लगाये उसके गाढ़ा ब्राउन
को ही बेस के रूप में इस्तेमाल करते थे । यह मेरा पोर्ट्रेट था एक, जिसे देख कर
सभी चिढ़ते हैं आज तक कि मैं ऐसा न था न हूँ । इतना घनघोर काला, चेहरे पर जैसे किसी
युद्ध के दाग, उस समय की उम्र के हिसाब से काफी अधिक… । पर मुझे अच्छा लगता रहा कि
मैं खुद तो ऐसा ही चाहता था अपना चेहरा ! और माथे पर मेरा सबसे अधिक प्रिय टोपी,
हरा वन-पीस बेरे ! मेरा रोँयेदार ओवरकोट !
खाना खाकर हम पैदल ही निकल गये घूमने । नये बने बहादुरपुर पुल या धनुष सेतु पर
चढ़ते हुये मैंने दीपन को फोन लगाया, ‘कहाँ हो ?’
‘अन्दमान द्वीप’ ।
‘घुमों वहाँ । इधर देखो मैंने पा ही लिया रॉबिनदा को दोबारा !’
कुछ थी समस्यायें रॉबिनदा के घर पर । बच्चे अब सब बड़े हो गये थे, बाहर थे । वह
खुद भी सेवानिवृत्त हो चुके थे । घर में सिर्फ वह और उनकी पत्नी । मैं मिलना चाहता
था सबसे । पर उन्होने मना कर दिया । मोबाइल नम्बर दिया पर कहा कि वह खुद फोन
करेंगे, मैं फोन न करूँ ।
फोन किया उन्होने एक दिन । दिन बताया आने के लिये; वह अकेले ही होंगे । पत्नी
गई हुई हैं बच्चों के पास । बुरा लगा मुझे । ऐसा क्या है ? मारेंगी मुझे ? मार
लेती जी भर ! पर मिलूँ नहीं, उनकी अनुपस्थिति में जाऊँ, बड़ी अजीब बात थी । फिर भी
पहुँच गया कलकत्ता, नाकतला, उषा स्टॉपेज । वह खुद आये थे मुझे लेने । दिन भर रात
भर चला संगीत, बिथोवेन की नाइन्थ सिम्फनी एवं बातचीत का दौर । रॉबिनदा हमेशा ही
खिलाने के शौकीन रहे । मेरे लिये मीट-भात बनाते रहे दोपहर में । अगली सुबह लौटते
वक्त उनके वो उजाड़ी गई बस्ती के स्केच और ड्रॉइंग्स भी ले आया । ‘कविता का संकलन ?
‘मानुषेर नाम भुमिकाय’ ? छापूँ ?’
‘नहीं’ ।
अपनी एक किताब दे आया डर सहम कर । गद्य की । कुछ दिनों के बाद लिफाफा आया ।
लम्बी चिट्ठी । पूरा झाड़ । झाड़ के रख दिया मुझे कमजोर गद्य के लिये । लेकिन साथ
में इधर की लिखी हुई एक लम्बी कविता भी भेजी । आहा, नहा लिया मैं उनके वात्सल्य से
।
भेंट उसके बाद भी कई बार होती रही है उनसे कलकत्ता जाने पर । घर जाने से मना
करते रहे पर खुद चले आये बिबादी बाग के इलाके में मुझसे मिलने के लिये । मेरे
बच्चों के लिये केक, मिठाइयाँ ले आते रहे ।
इधर दो तीन वर्षों से फोन नहीं आया है उनका । उम्मीद करता हूँ वह स्वस्थ होंगे
।
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उपसंहार : इस आलेख को पूरा करने के बाद मैने दीपन मित्र को भेजा था । उन्होने
कुछ महत्वपूर्ण यादों को शामिल किया । मैं भी जस का तस उन्हे इस आलेख में जोड़ रहा
हूँ ।
“रॉबिनदा की कविताओं में कितनी ताकत थीं, वह जैसे आज फिर से समझ में आया ।
उनकी कुछ और कविताओं को उद्धृत कर सकते थे । और एक विषय छूट गया है । वह है कि मूर्तिकला
का कोई जिक्र नहीं है । जबकि हेनरी मूर, रेनोआँ, मिकेलांजेलो से लेकर बहुत सारे
अमूर्त आकृतियों तक, जिनके मूर्तिकारों का नाम भूल गया हूँ (एक का नाम नॉम गैबो था
न ?) । एक महिला मूर्तिकार थीं, जिनका काम हमें अच्छा लगता था [शायद बारबारा
हेपवर्थ था उनका नाम – विद्युत] । आज न वे काम याद हैं न उन मूर्तिकारों के नाम ।
गोलघर की चोटी पर पहुँच कर हार्बर्ट रीड की किताब के पन्ने खोल कर देखना – मैं और
रॉबिनदा था, तुम नहीं थे ?… जाड़े की एक रात में हम तीनों रॉबिनदा के फ्लैट में ।
देर रात तक तुम्हारा गाना, कविताओं का पाठ चला फिर रात सुबह होते होते कोई एक
मजेदार बात कह कर तुम चादर तान कर सो गये । मैंने भी याद नहीं क्या क्या बातें की
थीं । सुबह होने को आई । रॉबिनदा के घर की खिड़की के शीशे पर ओस की बून्दें । याद
है ? ‘मुनियार घरे रात, शीत अर शिशिरेर जल’ [जीवनानन्द दास की पंक्ति] ।
“और कुछ बातें याद आ गई विद्युत । जैसे, देवघर में छत पर सोते समय लालटेन की
रोशनी में रॉबिनदा द्वारा इलियट रचित लव सॉंग ऑफ ऐलफ्रेड जे॰ प्रुफक का पाठ, वेस्ट
लैन्ड का पाठ । पटना में मेस वाले घर में शाम को पहुँचकर जोरदार आवाज में
नीरेन्द्रनाथ चक्रबर्ती की कविताओं का पाठ । हालाँकि वह साल था 1971 । मैं, शेखर
और सुब्रत मैट्रिक की परीक्षा के बाद मध्यरात को पहुँचे जसिडीह स्टेशन । भोर होते
होते देवघर, एक अजीब सा धर्मशाला में । 8-9 बजे रॉबिनदा का घर ढूंढ़ कर पहुँचे ।
रॉबिनदा सब को अपने घर पर रखे । तुम नहीं थे उस वक्त । तुमसे उनका परिचय लगता है
और बाद में हुआ । …
“अमरीका से शायद गिन्सबर्ग के देखरेख में निकलती किसी पत्रिका में कुछ लिखे
थे, या कोई चित्र छपा था । मलय रायचौधरी भी उस पत्रिका के साथ जुड़े हुये थे । याद
है ? [‘याद’ नहीं पर जानता था – ‘हिस्ट्री, हिस्ट्री, वनवे ट्रैफिक…’ शायद इसी तरह
थी कविता – विद्युत]
“रॉबिनदा राधिकादा की कहानी कहते थे याद है ? नरेन्द्रपुर मिशन स्कूल में
राधिकादा अंकन के शिक्षक थे और रॉबिनदा को बाहर ले जाते थे, प्रकृति के बीच,
संथालों की दुनिया में । एकदिन स्कूल छोड़ कर वह एक वस्त्र में निकल गये पता नहीं
कहाँ । इन सब कहानियों से रॉबिनदा हमारे लिये एक अत्यंत स्वस्थ्य, ताकतवर दुनिया
के दरवाजे खोल दिये थे । हमने उन्हे समझने में गलती की थी । आलोकजी भी समझ नहीं
पाये थे । रॉबिनदा जिस जीवन एवं शिल्प की बात करते थे वह आज का लिजलिजा साहित्य
नहीं था । जबर्दस्त ऊर्जा व ताकत से भरी एक दुनिया थी वह । मुझे तो कम से कम वैसी
दुनिया का पता किसी और से नहीं मिला । …”
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I cry my heart out. Oh, what a great person he was. How admirable scripted and fastidious you have composed your write-up. The unforgettable anecdotes have etched out a milky way in our endless night sky. His painful and treacherous conjugal life squeezed out of him the juice of life. Nonetheless, he stood alone on the midnight sea like a lighthouse. He threw light in the darkness for the ships to reach their destinations. He deserved a wide-spaced life, a life of an artist; unfortunately, he got a second-hand worn-out life. He lost his way in the wilderness of our inter-personal ambiguity. We committed a crime by deserting him which had very awfully hit his self-respect and love for us. He was a big heart, that of a passionate artist full of compassion and love for us. How could we commit such violence against that tender heart? I cannot forgive myself. I do not know even whether he is still alive. Wish him all the best and thanks to you for reminding me of the frostbitten heart of a great artist and poet.
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