Saturday, April 10, 2021

विदेशी पूंजी के हमले एवं भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

 

(दिनांक: 11 अगस्त 2013 को आई. एम. . हॉल, पटना में आयोजित

कॉ. निसार अहमद खाँ स्मृति व्याख्यान – 2013 का आधारपत्र )

 

15 अगस्त 1947 को देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिली। उसके बाद से ही धीरे धीरे देश की वित्तीय बैंकिंग प्रणाली को विदेशी पूंजी एवं भारतीय बड़े घरानों की पूंजी के चंगुल से मुक्त कर देश के संसद केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण में लाने की पेशकश शुरू हुई।

1 जनवरी 1949 को रिजर्व बैंक ऑफ इन्डिया (ट्रान्सफर टु पब्लिक ओनरशिप) एक्ट 1948 के प्रावधानों के तहत भारतीय रिजर्व बैंक को राष्ट्रीयकृत किया गया। स्टेट बैंक ऑफ इन्डिया एक्ट 1955 में पारित हुआ जिसके उपरांत उसी वर्ष जुलाई के महीने में इम्पिरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण कर भारतीय स्टेट बैंक बनाया गया। वर्ष 1959-60 में विभिन्न भूतपूर्व रजवाड़ों में कार्यरत सात स्टेट बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर भारतीय स्टेट बैंक का सब्सिडियरी बनाया गया।

19 जुलाई 1969 को देश के 14 बड़े व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। बाद में वर्ष 1980 में 7 और व्यापारिक बैंकों को, जिनकी जमाराशि 200 करोड़ से उपर थी, राष्ट्रीयकृत किया गया।

26 सितम्बर 1975 को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के लिये ऑर्डिनान्स जारी किया गया जिसे कानून के रूप में 1976 में पारित किया गया। देश भर में राष्ट्रीयकृत व्यापारिक बैंकों के स्पॉन्सरशिप के अधीन 182 ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई, जिनकी संख्या, राज्यस्तरीय विलयों के पश्चात अभी 61 है।

नैशनल बैंक फॉर एग्रिकल्चर ऐंड रुरल डेवेलपमेंट कानून 1981 के प्रावधानों के तहत, रिजर्व बैंक के दो बिभागों, एसीडी एवं आरपीसीसी के कार्यभारों को स्वतंत्र रूप से करने के लिये 12 जुलाई 1982 को नाबार्ड की स्थापना की गई। यह भारत का अपना विशेषज्ञ बैंक है।

इसके अलावे, सरकारी या निजी क्षेत्र में बड़े पूंजीनिवेश को मदद करने के लिये सरकार द्वारा वर्ष 1948 में स्थापित इन्डस्ट्रीयल फाइनांस कॉर्पोरेशन ऑफ इन्डिया एवं विश्व बैंक के दवाव पर वर्ष 1955 में स्थापित इन्डस्ट्रीयल क्रेडिट ऐंड इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इन्डिया के साथ साथ वर्ष 1964 में, संसद में कानून पारित कर नया विकास बैंक इन्डस्ट्रीयल डेवेलपमेंट बैंक ऑफ इन्डिया स्थापित किया गया। बाद मे लघु उद्योग के लिये इसी बैंक से स्मॉल इन्डस्ट्रीज डेवेलपमेंट बैंक ऑफ इन्डिया की स्थापना की गई।

भारत में सहकारिता क्षेत्र का इतिहास काफी पुराना है एवं उन्निसवी सदी के अन्त में शुरू होता है। देश के ग्रामीण समाज में सामन्ती शक्तियों के दबदबे की खात्मा एवं उनकी लूट पर पूरी रोक तो अन्तत: ग्रामीण जनता, खासकर किसानों का जनवादी संघर्ष ही लगा सकता है पर सहकारिता क्षेत्र के अन्तर्गत बैंकिंग कार्यों का नियमन एवं नियंत्रण जरूरी था। वर्ष 1966 में बैंकिंग रेगुलेशन कानून में सुधार कर सहकारिता क्षेत्र के बैंकिंग कार्यों को भारतीय रिजर्व बैंक के नियमन एवं नियंत्रण के अधीन लाया गया। यह एक अनूठा बैंकिंग नेटवर्क है जिसमें एक लाख के करीब प्राइमरी एग्रिकचरल कोऑपरेटिव सोसाइटी (पैक्स) से लेकर सैंकड़ों अर्बन कोऑपरेटिव बैंक तथा दर्जनों राज्य कोऑपरेटिव बैंक कार्यरत हैं।

 

बातचीत की शुरुआत में, भारत में सार्वजनिक बैंकिंग के संरचना निर्माण की इस छोटी सी बानगी की जरूरत इसीलिये महसूस की गई कि विदेशी पूंजी एवं उनके छोटे भाईलोग, देश की इजारेदार बड़ी पूंजी के हमले क्योंकर हो रहे हैं एवं जो नष्ट होने जा रहा है उस धरोहर का क्या ऐतिहासिक महत्व है इसे समझना जरूरी है। इसी बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से कम से कम चार अति महत्वपूर्ण कार्य किये गये।

·         ग्रामीण ॠणग्रस्तता कम की गई एवं महाजनी-सूदखोरी पर निर्भरता नब्बे प्रतिशत से तीस प्रतिशत पर लाई गई। (जो अब फिर से बढ़ने लगी है)

·         खाद्य उत्पादन में देश आत्मनिर्भर हो सका।

·         राष्ट्रीयकृत क्षेत्र के उद्योगों को शीर्षस्थ स्थिति में पहुँचाई गई जिसके माध्यम से आर्थिक आत्मनिर्भरता का बुनियाद रचा गया; रक्षा प्रौद्योगिकी से लेकर जीवनदायी दवा उत्पादन तक आयात-विकल्प तैयार किया गया। (गौरतलब हो कि 1991 के पहले तक भारत में उत्पादित दवायें दुनिया में सबसे सस्ती थी)

·         रणनीतिक क्षेत्र के वे उद्योग व सेवायें स्थापित की गई जिनमें पूंजी लगाने के लिये वर्ष 1947 में न तो देश के बड़े पूंजीपति राजी थे और न ही अमरीका या अन्य पूंजीवादी देश एवं उनकी एजेंसियाँ राजी थे।

 

 आजादी बाद के तीस वर्षों में, विकास की धार को देश की जनता तक पहुंचाने के लिये जिस जनमुखीन बैंकिंग प्रणाली को तिल तिल कर रचा गया, वर्ष 1991 के बाद से आज तक लगातार उसी प्रणाली को येन केन प्रकारेण ध्वस्त करने की साजिशें रची जा रही है। आइये, उन हमलों की अद्यतन स्थिति पर जरा नज़र दौड़ायें।

नये कानूनी बदलाव

भारत की सार्वजनिक बैंकों पर, और उसी आधारशिला पर रची गई देश की वित्तीय संप्रभुता पर कब्जा जमाने का साम्राज्यवादी वित्त पूंजी प्रयास पिछ्ले बाईस वर्षों में तेज़ हुई है। उन्हे यह पैठ दिलाने का वादा देश के बड़े पूंजीपति घराने एवं उनका प्रतिनिधि, देश की केन्द्रीय सरकार, वर्ष 1991 में ही, नई आर्थिक नीतियों का शुरुआत करते हुए अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन से कर चुके थे। मजदूरवर्ग का लगातार प्रतिरोध, विवेकशील जनमत का विरोध एवं सत्ता पर बने रहने के तमाम राजनीतिक समझौतों के कारण इस दिशा में रुकावटें आती रही एवं गति धीमी होती रही। जिसके कारण वर्ष 2008 तक सार्वजनिक बैंकों का सार्वजनिक स्वरूप एक हद तक बचा हुआ रहा, और साम्राज्यवादी दुनिया में आई संकट को झेल पाने में ये बैंक सक्षम रहे। लेकिन रुकावटों के बावजूद पी. व्ही. नरसिंहा राव की नेतृत्ववाली केन्द्रीय सरकार, अटल बिहारी बाजपेयी की नेतृत्ववाली केन्द्रीय सरकार या फिर मनमोहन सिंह की नेतृत्ववाली दो केन्द्रीय सरकारें इस रास्ते पर लगातार आगे बढ़ते रही।

दिसम्बर 2012 को संसद में पारित किये गये कानूनी बदलाव दरअसल सार्वजनिक बैंकों को निजी और अन्तत: विदेशी हाथों में सौंपने का तीसरा चरण था। मौजूदा कानूनों में बदलाव किये बिना ही 49% तक हिस्सापूंजी निजी हाथों में सौंपे जा सकते थे। तो पहले आइ.पी.. के नाम पर 20-25% और फिर एफ.पी.. के नाम पर कहीं 20-24% निजी हाथों में दिये गये। लेकिन मालिकाना हक सार्वजनिक से निजी करने के लिये निजी पूंजी का 51% या उससे अधिक होना जरूरी है। इसके लिये कानूनी बदलाव लाने थे। इन बदलावों के पृष्ठभूमि में वर्गों की टकराव की तीव्रता और साम्राज्यवाद को दिये गये वायदे को पूरा करने में तमाम पूंजीवादी पार्टियों की बेचैनी इसी बात से आँकी जा सकती है कि जिस दिन देश भर में बैंक कर्मचारी इन्ही कानूनी बदलावों के खिलाफ हड़ताल पर थे उसी दिन राज्यसभा में ये बदलाव पारित किये गये। सिवाय वामपंथी सांसदों एवं दो अन्य सांसदों के, सत्तापक्ष एवं विरोधीपक्ष के तमाम पूंजीवादी पार्टियों ने अपना आपसी विरोध भूलकर इन बदलावों को पारित किया। अब इन कानूनी बदलावों के बाद सार्वजनिक बैंकों में निजी निवेश 74% तक की जा सकेगी।

स्वाभाविक बात है कि विदेशी निवेशक जो अभी तक नज़र गड़ाये हुए थे कि भारत की सरकार उनके मनोनुकूल कानूनी बदलाव करने में सक्षम होती है या नही, और इसी कारण से सार्वजनिक बैंको में उनकी लगी हुई पूंजी वर्ष 2011 तक अधिकतम 17% (किसी एक बैंक में) थी, (जबकि निजी बैंक में विदेशी पूंजी अधिकतम 69% तक आ चुकी है) अब तेज़ी से इन बैंकों में अपनी पैठ बढ़ायेंगे। इन कानूनी बदलावों के उपरान्त अगर निजी बैंकों में विदेशी निवेश 74% तक सम्भव है तो निकट भविष्य में यह भी सम्भव है कि आज सार्वजनिक कहलाये जाने वाले 26 बैंक जिसमें निजी पूंजी 74% तक करने की छूट ली गई है, वह पूरा का पूरा निजी निवेश दरअसल विदेशी या साम्राज्यवादी पूंजी का ही हो। यह महज अटकलबाज़ी नही है। समाजवादी खेमे से बाहर गये बहूत सारे देश या लातिनी अमेरिकी कई देशों में बैंकों में साम्राज्यवादी पैठ की यही स्थिति है।

कानूनी बदलाव पारित हो जाने से संघर्ष थम नहीं गया है। इस खतरे को हम बैंक कर्मचारी अन्तिम दम तक रोकेंगे। पूरे देश का मेहनतकश इस लड़ाई में हमारे साथ है।

इस देश में विदेशी पूंजी

भारतीय रिजर्व बैंक एवं केन्द्रीय सांख्यिकी संस्थान के वेबसाइटों पर उपलब्ध आँकड़ों के सहारे प्रख्यात अर्थशास्त्री श्री सी.पी.चन्द्र- शेखर यह आकलन करते हैं कि, “वर्ष 1993-94 तक कुल आगत शुद्ध विदेशी पूंजी एक बिलियन डॉलर से भी कम थी। उसी वर्ष, यानि वर्ष 1993-94 में विदेशी निवेश एकबारगी बढ़कर 4.2 बिलियन डॉलर हो गई। नब्बे के दशक के अन्तिम पाँच वर्षों में यह राशि 6 बिलियन डॉलर के आसपास बनी रही। जबकि उसके बाद महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस सदी के पहले दशक में, 2003-04 में यह राशि बढ़कर 15.7 बिलियन डॉलर हो गई और वर्ष 2009-12 के दौरान औसतन 65 बिलियन डॉलर तक पहुँच गई।” चन्द्रशेखर आगे यह भी गौर करते हैं कि “यह वृद्धि संभव नहीं होता अगर विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमाओं में ढील नहीं दी जाती और निवेश के नियम, भारत से मुनाफा और पूंजी वापस अपने देश में ले जाने के नियम उदार नहीं बनाये जाते।”

आप मिला लें, सरकार इन्हे किस तरह संकेत देती रही! दिसम्बर 1993 में स्टेट बैंक ऑफ इन्डिया का 274 करोड़ रुपयों का पब्लिक इश्यु आया। वाणिज्यिक बैंकों में आइ.पी.. का सिलसिला वर्ष 2002 में शुरू हुआ जबकी वर्ष 2005 से एफ.पी.. का सिलसिला शुरू हुआ। वर्ष 2009 से ही कानूनों में बदलाव कर 74% पूंजी निजी हाथों में देने पर चर्चा शुरू हुई। कहने का यह मतलब नहीं कि विदेशी पूंजी सिर्फ बैंकों के लिये ही आई। अन्य क्षेत्र, खासकर वित्तीय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र, बीमा में भी निजी और विदेशी निवेश बढ़ाने के कदम इसी कालक्रम में लिये जाते रहे। भारी विदेशी निवेश सूचना प्रौद्योगिकी, एवं रियल्टी सेक्टर में भी हुए।

वर्ष 2008 में अमेरिकी सब-प्राईम संकट (गृहनिर्माण क्षेत्र में दिये गये खराब कर्ज व उनके दस्तावेजों का खरीदफरोख्त) आया; सैंकड़ों बैंक डूबने का सिलसिला चला। वर्ष 2009 में भारत और अमेरिका में नाभिकीय समझौता सम्पन्न हुआ, उसी के फलस्वरूप वामपंथी पार्टियों ने पहली संप्रग सरकार को दिया जा रहा समर्थन वापस लिया और सरकार के मुखिया श्री मनमोहन सिंह ने कहा कि उन्हे “गुलामी से मुक्ति मिली”। संसद के अन्दर सदस्यों के खरीदफरोख्त का काला इतिहास बनाकर टिकी रही संप्रग की केन्द्रीय सरकार। बेशक, यह सब भी कारण रहे हैं विदेशी निवेश एकबारगी चार गुना से अधिक हो जाने की। लेकिन पिछले बाइस साल के दरम्यान, सार्वजनिक बैंकों पर विदेशी मालिकाना हक की संभावनाओं के बढ़ने के साथ विदेशी पूंजी के आगमन की गति में तेजी स्पष्टत: परिलक्षित होता है।

वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण साम्राज्यवादी पैठ के लिये निर्णायक

कुछ दिन पहले अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जॉन केरी हिन्दुस्तान आये थे। उन्होने भारत सरकार के प्रतिनिधियों के साथ भारत-अमेरिकी रणनीतिक गँठजोड़ को मजबूत करने के लिये उठाये जाने वाले आवश्यक कदमों के वारे में बातचीत की। उनके भारतयात्रा के उद्येश्यों पर चर्चा करने के लिये दिनांक 19 जून को वाशिंटन डी.सी. स्थित सेन्टर फॉर स्ट्रैटेजिक ऐंड इन्टरनैशनल स्टडीज में एक परिचर्चा में बोलते हुए, ब्युरो ऑफ साउथ एन्ड सेन्ट्रल एशियन एफेयर्स के ऐसिस्टैन्ट सेक्रेटरी रॉबर्ट ओ.ब्लेक, जुनियर, ने कहा,

“Let me just briefly talk a little bit about the areas of focus for the Strategic Dialogue.…First and foremost will be, from our perspective, the economic and trade piece of this.…there has been a lot of concern on the part of American Business Community about what they see as growing obstacles to trade and investment.…Continued restrictions on foreign direct investment in different sectors.”

बेशक, शब्दों में उन्होने विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिबंधों की बात कही है लेकिन यह स्पष्ट है कि वित्तीय क्षेत्र, खासकर बैंक और बीमा उसमें सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि निवेश वे खदान में करें या रक्षा में, निर्माण में या पेंशन में, बैंकिंग प्रणाली पर नियंत्रण के माध्यम से ही उन तमाम क्षेत्रों पर और पूरी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण संभव है। ज्ञात हो कि पहले ही अमेरिकी सरकार भारतीय स्टेट बैंक के सार्वजनिक क्षेत्र में बने रहने पर अपनी आपत्ति जता चुकी है एवं अविलम्ब इसे पूर्णत: निजी क्षेत्र में करने की मांग कर चुकी है। यानि बैंकों में विदेशी निवेशकों के लिये अभी भी जो कुछ प्रतिबंध बचे हैं उन्हे खत्म करने के लिये भारत सरकार के प्रतिनिधि केरी साहब को आश्वासन जरूर दिये होंगे।    

विकास बैंकों/निगमों/संस्थाओं की बन्दी,

संरचनात्मक कार्य में विदेशी देशी निवेश तथा वाणिज्यिक बैंकों पर दबाव

यहाँ एक घटनाक्रम का जिक्र करना जरूरी होगा। आधारभूत संरचनात्मक विकास के लिये देश में कई विकास बैंक/वित्त निगम या संस्थायें कायम थे। कुछ पूरी तरह सरकारी क्षेत्र में थे तो कुछ निजी क्षेत्र में। वे संरचनात्मक उद्योग के लिये, या सामान्य उद्योग में भी आधारभूत संरचना बनाने के लिये कर्ज देते थे। एक एक कर वे सब या तो बन्द कर दिये गये या स्वत: मरने के लिये छोड़ दिये गये। कुछ बड़े निजी बैंक तो उन्ही के कब्र पर बनाये गये। आईसिआईसीआई एक विकास ॠण देने वाला संस्था था। सरकारी पूंजी इसमें 55% से अधिक थी। उसी ने निजी क्षेत्र में आईसिआईसीआई बैंक का जन्म दिया और खुद को उसमें विलयित कर लिया। आईडीबीआई सरकारी मिल्कियत में एक विकास बैंक था। आईडीबीआई बैंक के नाम से एक निजी बैंक का जन्म देकर वह खुदको उसी में विलयित कर लिया। एचडीएफसी सरकारी मिल्कियत का एक वित्त निगम था। एचडीएफसी बैंक के नाम से निजी बैंक का जन्म देकर वह हाशिये पर चला गय था; रियल्टी/हाउजिंग सेक्टर में हाल के वर्षों में जो विकास हुआ है उससे यह संस्था पुनर्जीवित हो गया है। अब निजी पूंजी सीधे तौर पर इसे हथियाने के जुगाड़ में है। युटीआई वर्ष 1961-62 में स्थापित सरकारी मिल्कियत में देश का पहला म्युचुवल फंड था। वित्तीय संस्था पर सरकारी स्वामित्व के प्रति जनता के विश्वास का पर्याय बन गया था युटीआई। युटीआई बैंक, जो बाद में एक्सिस बैंक कहलाया, के नाम से निजी बैंक बनाने के कुछ ही दिनों बाद युटीआई एक बड़े घोटाले में घिरा, और अब जी तो रहा है पर हाशिये में। सरकारी मिल्कियत वाले आईएफसीआई का हाल यह है कि सरकार उसे एक तरह से सजा दे रही है, दबाव में रखी है क्योंकि अभी तक निजी क्षेत्र में पार्टनर ढूंढ़कर वह निजी बैंक में खुद को परिवर्तित कर पाया और खुद को खत्म नहीं कर पाया।  

विदेशी पूंजी की यह मंशा थी कि संरचनात्मक विकास/उद्योग में भारत की आत्मनिर्भरता बनाने के प्रयास बन्द हो जायें। या तो आयात हो या विदेशी/निजी पूंजी लगे। भारत के निजी क्षेत्र के इजारेदार घराने जो एक समय इस काम से मुंह मोड़ लिये थे कि इसमें मुनाफे देर से आते हैं, अब उन क्षेत्रों में पैसे लगाने को तैयार थे, जहाँ सरकार ही उनके खरीद्दार बनेंगे। जैसे बिजली, तेल आदि। फिर, इनके अलावे जिन क्षेत्रों में निजी व विदेशी पैसे लगे, जैसे निर्माण आदि, उन क्षेत्रों में आवश्यक कर्ज आदि की व्यवस्था सरकार के दबाव के कारण अन्तत: सार्वजनिक क्षेत्र के वाणिज्यिक बैंकों को ही करनी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि आज बैंकों के एनपीए में एक बड़ा हिस्सा इन ॠणों का है।

यहाँ यह भी जिक्र कर देना उचित होगा कि बैंकों का कुल एनपीए जो बैलेन्सशीट में हमें दिखाने के लिये दिया गया वह बेशक बहुत अधिक चिन्ताजनक नहीं दिखता है पर उसके पीछे की सच्चाई है सीडीआर या कॉर्पोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग – यानि बड़े कम्पनियों को दिये गये डूबते कर्ज को फिर से नया कर्ज बना कर एनपीए के दायरे से बाहर ले आना। आज नहीं तो कल यह खेल गुल खिलायेगा।

स्वाभाविक है कि वही विदेशी और देशी निजी क्षेत्र, जो इन स्थितियों के लिये जिम्मेदार हैं, इन्ही स्थितियों को बहाना बना रहे हैं सरकार पर दबाव डालने के लिये कि इन बैंकों को पूरी तरह निजी हाथों में सौंप दिया जाय। मिडिया पर नज़र रखें तो ऐसी ही दलील देते हुए दर्जनों लेख व वक्तव्य आपको दिख जायेंगे।

त्रिदेवप्रॉफिटेबिलिटि, कैपिटल ऐडेक्वेसी, कॉर्पोरेट गवर्नेन्स

धोखे में डालने के लिये इन तीन शब्दों का प्रयोग आजकल खूब किया जाता है। तीनों ढकोसले हैं।

प्रॉफिटेबिलिटि। किसी संस्था के लिये एक आदर्श या इष्टतम, जिसे अंग्रेजी में ‘ऑप्टिमम’ कहते है, मुनाफा जरूर होना चाहिये। यह कितना होगा, यह निर्भर करेगा उस उद्योग की प्रकृति पर और एक विकासशील देश में उसकी भूमिका पर। इसे अगर ‘अधिकतम’ की होड़ में बदल दिया जाय और ‘अधिकतम’ की दर सबके लिये बराबर मान लिया जाय तो वह किसी उद्योग के लिये घातक सिद्ध होगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जिन पर सामाजिक जिम्मेदारियाँ हैं और हम चाहते हैं कि वह और बढ़े – और अधिक गहराई तक जाकर यह प्रणाली जनोन्मुख बने – इस अधिकतम मुनाफे के होड़ में शामिल नहीं हो सकते हैं। अगर बदलता हुआ प्रबन्धन सामाजिक जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना भी चाहे तो हम उसे रोकेंगे। हम रोकते भी आये हैं आजतक।

कैपीटल ऐडेक्वेसी। पूंजीगत यथेष्टता के अर्थ अलग अलग परिस्थितियों में भिन्न होंगे। लेकिन अगर बैसेल-3 द्वारा दिया गया अर्थ देखा जाय तो वह किसी ऐसे बैंक के लिए है जो निजी क्षेत्र में, बिना किसी सामाजिक प्रतिबद्धता के, रिजर्व बैंक जैसे संस्था के नियमन के बाहर, एक खुले बाजार में अपनी स्थिति बनाने के लिये अत्यंत जोखिमभरे व्यवसायों में शामिल हो रहा है। क्या भारत की बैंकिंग प्रणाली को हम उस स्थिति तक पहुँचने देंगे? लेकिन उनका जोर इस पर है क्योंकि यह एक रास्ता है मार्केट कैपिटलाइजेशन के नाम पर अधिक से अधिक निजी और बिदेशी पूंजी को पैठ देने का।

कॉर्पोरेट गवर्नेन्स, यानि निजी कम्पनियों वाला प्रशासन/प्रबन्धन तीसरा ढकोसला है। सच पूछा जाय तो यह सबसे निकृष्ट प्रशासन है जिसमें न तो पारदर्शिता है और न ही सामाजिक विवेक। विवेक के नाम पर कॉर्पोरेटों में होता है मुनाफे का एक निश्चित प्रतिशत सीएसआर यानि कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटि के नाम पर अलग रख देना। जिससे वे या तो एक अस्पताल या स्कूल खोल देते हैं, या एक दो गाँव को अपनाते है विकास कार्य के लिये। वह भी ज्यादातर अपने ही भाईभतीजों के द्वारा चलाये जा रहे एनजीओ के माध्यम से। यानि उनका जो मूल कार्य/सेवा/उत्पादन क्षेत्र है उसके साथ सामाजिक जिम्मेदारी का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्या भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, जिनके अधिकांश उच्च अधिकारी, अगर अपवादों को छोड़ दें तो, नीचे से उपर तक गये हैं प्रोन्नति के माध्यम से, जिनमें व्यवहारिक प्रशिक्षण है आम जनता की सेवा के भाव से बैंक के कार्यों को निष्पादित करने का, जनता के प्रति, कर्मचारियों के प्रति जवाबदेह रहने का, तथाकथित कॉर्पोरेट गवर्नेन्स के नाम पर जनता से दूर, वल्कि जनविरोधी होते जायेंगे और हम चुपचाप देखते रहेंगे? कतई नही। बेशक बैंकों में कई स्तर पर भ्रष्टाचार है जिसे देखने के लिये निगरानी आयुक्त हैं, बैंकिंग लोकपाल हैं, सूचना के अधिकार से लैस जनता है। कॉर्पोरेट गवर्नेन्स बस नये तरीके का आर्थिक और नैतिक भ्रष्टाचार है।

बैंकों का विलय

बैंकों का विलय एक वास्तविक खतरा है। यह भी एक ढकोसले पर आधारित है। अभी हाल में फिर से वित्त मंत्री ने बैंकों का विलय कर दो तीन बड़े बैंक बनाने का वकालत किया है, क्योंकि उनके हिसाब से, भारत की आर्थिक तरक्की का अगला चरण इसी पर निर्भर है कि भारत का एक बैंक विश्व के पाँच सबसे बड़े बैंकों में शामिल हो जाये। वैसे अभी पूरे भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक दो तकनीकी वेन्डर द्वारा दिये गये सॉफ्टवेयर पर काम कर रहे हैं। यानि तकनीकी फर्क के हिसाब से सिर्फ दो बैंकिंग लेखा व सूचना पद्धतियाँ हैं। कामकाज को एक दुसरे के साथ मिलाने व आदान-प्रदान के लिये सात बैंकों को नेता बनाकर सात टोलियाँ बना दी गई हैं। समाशोधन को एक हब के अधीन लाया जा रहा है। बस अब विलय ही उनका अगला कदम है ताकि विदेशी निवेशकों को इसे टेक-ओवर करने में कोई परेशानी न हो। इसके खिलाफ हम एक अर्से से संघर्षरत हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका को कमजोर किया जाना

साम्राज्यवाद के इशारे पर वित्त मंत्रालय और वित्त मंत्री खुद लगातार भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका को कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं। रिजर्व बैंक की भूमिका कमजोर होने पर बैंकों में और नॉन-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों में खुलेआम सट्टे का खेल कराया जा सकेगा। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति उनके अनुसार तय किये जाने पर विदेशी निवेशकों को लाभ मिलेगा।

उसी तरह नाबार्ड को भी कमजोर करने की कोशिश जारी है।

ग्रामीण बैंकों पर भी अब निजीकरण का खतरा आ गया है। उन्हे भी बाजार से पूंजी उठाने को कहा गया है।

दूसरी ओर सहकारी बैंकों को उपेक्षा के द्वारा धीमी मौत दी जा रही है।

यानि सार्वजनिक क्षेत्र की पूरी बैंकिंग प्रणाली को विदेशी और देशी निजी पूंजी हाथों मे देने की योजना बन रही है। इन सब खतरों से अलग है नये बैंक खोलने के लिये दी जा रही अनुज्ञप्तियाँ। देश के बड़े घरानो से लेकर जिलों का नामी माफिया व सामन्ती धनाढ्य तक, सब बैंक खोलने के लिये और क्रमश: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको पर कब्जा जमाने के लिये आतुर हैं।

वर्ष 1991 से आज तक बैंकों के कर्मचारी व अधिकारी देश के सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली को बचाने के लिये 15 अखिल भारतीय औद्योगिक आम हड़तालों में शामिल हुए हैं। दो दर्जन से अधिक बैंक हड़ताल हुए हैं।

देश के बड़े इजारेदार घरानों की मदद से विदेशी, साम्राज्यवादी पूंजी का जो तीव्र हमला जारी है उसे विफल करने और सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली को बचाने का संग्राम वस्तुत: देश को, देश की आर्थिक सम्प्रभुता को बचाने का संग्राम है।

 

[सौजन्य: बी. के. पाल, अध्यक्ष, बैंक इम्प्लॉइज फ़ेडरेशन, बिहार]



 

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