क्लारा जेटकिन अपनी किताब में लेनिन के साथ हुई एक बातचीत का जिक्र करती हैं । बातचीत के दौरान लेनिन कहते हैं (क्लारा जेटकिन द्वारा उद्धृत), “क्रांति मनोयोग और शक्ति में वृद्धि की मांग करती है – आम जनता से, व्यक्ति से……। उसे [सर्वहारा को] पूंजीवाद के शर्म, गंदगी और बर्बरता को कभी भूलना नहीं चाहिये । लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद उसे वर्गीय स्थिति से मिलती है, कम्युनिस्ट आदर्श से मिलती है । उसे स्पष्टता, स्पष्टता और फिर, स्पष्टता ही चाहिये ।”
समझने के लिये इस उद्धृतांश में मुझे एक पंक्ति को थोड़ा साफ करने की जरूरत महसूस हुई – “लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद उसे वर्गीय स्थिति से मिलती है,” !
इस ‘वर्गीय स्थिति’ (या ‘वर्ग-परिस्थिति’, अंग्रेजी में ‘a class situation’) का क्या मतलब है ? क्या क्या है वर्गीय स्थिति ?
1- पहला तो हुआ आर्थिक तंगी, बदहाली । या गरीबी । या अमीरी-गरीबी का फासला । और उससे जुड़ी व्ययक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर, रोज रोज की आर्थिक समस्यायें । उन समस्याओं के निदान में जुटती और सारी समस्यायें । तो क्या इनके चलते पूंजीवाद से ‘लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद मिलती है’ ? मैं समझता हूँ कोई व्याख्या की जरूरत नहीं कि इनके चलते पूंजीवाद से ‘लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद’ नहीं मिल सकती है । बीवी से झगड़े की या दारू-वारू पीने की ताकीद या, उसके विपरीत जाकर शाम के प्रवचन में बैठने की ताकीद मिल सकती है ।
2- पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया जो उसे हर दिन पराया और गुलाम बना देती है उसके कारण उसमें पैदा होता विराग (एलियेनेशन) । मार्क्स ने मजदूरों के इस विराग के चार पहलुओं को दर्शाया था –
क. प्रकृति, निसर्ग (जिस पर वह श्रम करता है, जिससे बने साधनों से वह श्रम करता है और जिसकी हिस्सा बनती जाती हैं उसकी बनाई हुई सामग्रियाँ ) से पराया किये जाने के कारण उसमें पैदा होता प्रकृति, निसर्ग एवं अपने ही श्रम के उत्पादों से बेगानापन या विराग ;
ख. अपने श्रम से एवं उत्पादन की पूरी प्रक्रिया, जिसे वह खुद चलाता है, उससे भी वह पराया किया जाता है एवं उसमें पैदा होता है अपने श्रम एवं उत्पादन की प्रक्रिया से विराग ; जिसके कारण सृजन उसकी पेट की मजबूरी बन जाती है, श्रम विरक्ति पैदा करता है और छुट्टी आनन्द, कम्पनी की सिटी बजते ही उसमें खीझ पैदा होता है ;
ग. अपने मानवजातीय होने से बेगानापन और विराग जिसके कारण खुद जीवन उसके लिये जीवन का साधन बन जाता है, प्रेम, सन्तानोत्पत्ति, स्वास्थ्य आदि उसे प्रफुल्ल तो करते हैं पर अपने आप में नहीं, किसी थोपे गये ‘संस्कारों’ के सफल निर्वाह के तौर पर ; एवं
घ. दूसरे मनुष्य से बेगानापन और विराग, इतना अधिक कि किसी दूसरे का अपने से भिन्न होना सम्भव है यह सोच भी नहीं पाता ।
इससे अधिक विशद में जाने की जरूरत नहीं । इतना तो स्पष्ट है इनके चलते उसे पूंजीवाद से ‘लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद’ नहीं मिल सकती है ।
3- शासकीय संस्कृति के प्रभाव के कारण मानसिक कमजोरी, भेदभाव, फूट । ईश्वर-भक्ति, साम्प्रदायिक सोच व संस्कार, जातीय सोच व संस्कार, मनोरंजन के साधन… ये सारे एवं और भी कई हैं शासकीय संस्कृति के प्रभाव । पर, इनके चलते पूंजीवाद से ‘लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद’ तो नहीं ही मिल सकती है ।
4- और अब बाकी रही चौथी स्थिति – जिसके दो पहलू हैं ।
क. पूंजीवाद की सत्ता उखाड़ फेंकने की सारी वस्तुपरकता की घनिष्ठ मौजूदगी ! घनिष्ठ यानि बहुत करीब । पूंजीवाद की सत्ता उखाड़ फेंकने या अपनी सत्ता कायम कर सकने की सारी वस्तुपरकता – उत्पादन में गिरावट, कम्पनियों की मुनाफेबाजी बनाये रखने के लिये सरकारी कोष से अनुदान, पूंजी की अपनी ही श्रम-आपूर्ति को कायम रखने के लिये जरूरी मज़दूर-परिवार के स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा को बनाये नहीं रख पाना, रोजगार में गिरावट, मालिकों और सरकारों का डर, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार, आपसी लड़ाई, अत्यंत संख्यालघुता, न्यायकर्त्ताओं एवं सुरक्षाबलों की या तो मिलीभगत या खीज……! यह सब उसके बहुत करीब दिखते रहते हैं ।
ख. पूंजीवाद की सत्ता उखाड़ फेंकने की आत्मपरक स्थिति – मजदूरों की व्यापक वर्गीय एकता, किसानों के साथ दोस्ती, सबसे करीबी मित्र व अगुआ दस्ते के रूप में सभी शोषित तबकों का भरोसा, पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने में दृढ़ निश्चय … ।
‘ख’ को छोड़ उपरोक्त सभी स्थितियाँ मज़दूरों को थोड़ी बहुत दिखती तो है पर अलग अलग । पहला दुर्भाग्य के रूप में, दूसरा मन:स्थिति के रूप में, तीसरा अच्छे/बुरे संस्कारों के रूप में और चौथा ‘कलिकाल’ या ‘जमाने’ के रूप में । चौथे में वह खुद भी शामिल होता है जरुरत पड़ने पर, ‘दस्तूर’ (जमाने का दस्तूर) के रूप में ।
इन चारों को एक साथ जोड़ कर सही रूप में दिखाता है ‘ख’ और वह भी सिद्धांत और व्यवहार की कठोर व निरन्तर प्रक्रिया के बीच । और यह संभव करता है ‘स्थिति’ के बाद की अगली चीज, ‘कम्युनिस्ट आदर्श’ ।
यानि ‘ख’ के, व्यवहारिक तौर पर कुछ हासिल होने पर एवं फलस्वरूप दिमाग में पक्का बैठने पर ही उसे पूंजीवाद से लड़ने की लड़ने की सबसे तीव्र ताकीद ‘वर्गीय स्थिति’ से मिलती है ।
इस तरह अन्तत: हम रोज-वरोज के आन्दोलन व प्रचार के काम में लौट आये ।
21 April 2017
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